Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2025 धवला-टीका-समन्वितः षट्खण्डागमः वेदनाभावविधान प्रादि अनुयोगद्वार AAN खण्ड भाग ७-१६ पुस्तक १२ सम्पादक हीरालाल जैन Jan Education international www.jainelibrary.or : Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलिप्रणीतः षट्खंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य विरचित-धवला-टीका-समन्वितः । तस्य चतुर्थखंडे वेदनानामधेये हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादितानि वेदनानुयोगद्वारगर्भितानि वेदनाभावविधानाद्यनुयोगद्वाराणि सम्पादकः नागपुरविश्वविद्यालय-संस्कृत-पाली-प्राकृतविभागप्रमुखः एम्. ए., एल एल. बी., डी. लिट् इत्युपाधिधारी हीरालालो जैनः सहसम्पादको पं. फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री * पं. बालचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री संशोधने सहायक: डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः उपाध्यायः एम. एम्., डी. लिट. प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः अमरावती ( बरार) वि. सं. २०११] [ ई० स०१५ वीर-निर्वण-संवत् २४८१ मूल्यं द्वादशरूप्यकम् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालय अमरावती (बरार) मुद्रक मेवालाल गुप्त बम्बई प्रिंटिंग काटेज बाँस-फाटक काशी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE SATKHAŅDAGAMA OF PUSPADANTA AND BHŪTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALĀ OF VĪRASENA VOL. XII VEDANA-BHAVA-VIDHANA and other Aouyogadwaras. Edited with translation, notes and indexes BY Dr, HIRALAL JAIN, M. A., LL, B., D. Litt. Head of Sanskrit, Pali and Prakrit Department, Nagpur University. Assisted by Pandit Phoolchandra, Pandit Balchandra, Siddhanta Shastri. Siddhanta Shastri With the cooperation of Dr. A. N. Upadhye, M. A., D. Litt. Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddharak Fund Karyalaya. AMRAVATI ( Berar ) 1955 Price rupees twelve only. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichsndra, Jaina Sahitya Uddharak Fund Karyalays, AMRAVATI (BERAR) Printed by Mewalal Gupta Bombay Printing Cottage BANS-PHATAK, BANARAS Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राककथन षट्खंडागम के प्रस्तुत बारहवे भाग में वेदनाखंड समाप्त हो जाता है। अब श्रीधवल के प्रकाशन में वर्गणा खंद और चूलिका ही शेष रह जाते हैं जिन्हें आगामी चार भागों में पूरा करने की आशा है। इस भाग की तैयारी भी पूर्ण पद्धति अनुसार अमरावती में ही हुई। किन्तु समय की बचत की दृष्टि से :सके मुद्रण का प्रबन्ध बनारस में किया गया, और वहाँ इसके प्रूफ संशोधनादि का कार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री द्वारा हुआ है जिसके लिये मै उनका विशेष कृतज्ञ हूं। जिन प्रतियों का पाठ संशोधन के लिये उपयोग किया गया है उनके अधिकारियों का मैं आभार मानता हूँ। सहारनपुर निवासी श्रीरतनचंदजी मुख्तार का मैं विशेष रूप से अनुग्रह मानता हूँ। वे बड़ी लगन और तन्मयता के साथ इन ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं और शुद्धिपत्र बनाकर भेजते हैं। इस भाग के लिये भी उन्होंने अपना शुद्धिपत्र भेजने की कृपा की, जिसका यहां समुचित उपयोग किया गया है। नागपुर हीरालाल जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपया परिचय वेदना अनुयोगद्वारके मुख्य अधिकार सोलह हैं। उनमेंसे जिन अन्तिम दस अधिकारों की इस पुस्तकमें प्ररूपणा की है। उनके नाम ये हैं-वेदनाभावविधान, वेदनाप्रत्ययविधान, वेदनास्वामित्वविधान, वेदनावेदनाविधान, वेदनागतिविधान, वेदनाअनन्तरविधान, वेदनासनिकर्षविधान, वेदनापरिमाणविधान, वेदनाभागाभागविधान और वेदनाअल्पबहुत्वविधान । ७ वेदनांभावविधान भावके चार भेद हैं-नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव । उनमें से भाव शब्द नामभाव है तथा सद्भाव या असद्भावरूपसे 'वह यह है' इस प्रकार अभेदरूपसे सङ्कल्पित पदार्थ स्थापनाभाव है। द्रव्यभावके दो भेद हैं-आगमद्रव्यभाव और नोआगमद्रव्यभाव । भावविषयक शास्त्रका जानकार किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यभाव है। नोबागमद्रव्यभाव तीन प्रकारका है-ज्ञायकशरीर, भावी और तद्वयतिरिक्त । जो भावविषयक शास्त्रके जानकारका त्रिकालविषयक शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यभाव है और जो भविष्यमें भावविषयक शास्त्रका जानकार होगा वह भाविनोआगमद्रव्यभाव है। तद्वयतिरिक्तनोागमद्रव्यभावके दो भेद हैं-कर्म और नोकर्म । ज्ञानावरणादि कर्मोंकी अज्ञानादिको उत्पन्न करानेवाली जो शक्ति है उसे कर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव कहते हैं और इसके सिवा अन्य जितनी सचित्त और अचित्तद्रव्य सम्बन्धी शक्तियाँ हैं उन्हें नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव कहते हैं। भावभावके दो भेद हैं-आगमभावभाव और नोआगमभावभाव । भावविषयक शास्त्रका जानकार और उपयोगयुक्त जीव आगमभावभाव कहलाता है तथा नोपागमभावभावके दो भेद हैं-तीव्रमन्दभाव और निर्जराभाव ।। इन सब भावों मेंसे वेदनाभावविधानमें कर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावकी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों द्वारा प्ररूपणा की गई है। पदमीमांसामें ज्ञानावरणादि आठ मूल कर्मोंको उस्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य भाववेदनाओंका विचार किया गया है। यहाँ वीरसेन स्वामीने धवला टीकामें उत्कृष्ट आदि पूर्वोक्त चार पदोंके साथ सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोमनोविशिष्ट इन अन्य नौ पदोंको देशामर्षकभावसे सूचित कर इन तेरह पदोंके परस्पर सन्निकर्षकी भी प्ररूपणा की है। मात्र ऐसा करते हुए वे कहाँ किस अपेक्षासे उत्कृष्ट आदि पद स्वीकार किये गये हैं इस दृष्टिकोणका पृथक् पृथक् रूपसे उल्लेख करते गये हैं। इसके लिए प्रस्तुत पुस्तकका पृष्ठ ग्यारहका कोष्टक दृष्टव्य है। स्वामित्व अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे इन उस्कृष्ट श्रादि चार पदोंकी अपेक्षा स्वामी बतलाये गये हैं। अल्पबहत्त्व अनुयोगद्वारके जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ऐसे तीन भेद करके इनके द्वारा अलग अलग आठ मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे अल्पबहुत्वका विचार तो किया ही है, साथ ही उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे चौसठ पदवाले उत्कृष्ट और जघन्य अल्पबहुत्वका भी विचार किया गया है। यहाँ दो बातें उल्लेखनीय हैं। प्रथम तो यह कि इन दोनों प्रकारके चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वका निर्देश पहले क्रमसे सूत्र गाथाओंमें किया गया है और फिर उन्हींको गद्यसूत्रों में दिखलाया गया है। द्वितीय यह कि वीरसेन स्वामीने इन दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वोंसे सूचित होनेवाले स्वस्थान अल्पबहुत्वका निर्देश अपनी धवला टीकामें अलगसे किया है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) इसके आगे इसी वेदनाभाव विधानको क्रमसे प्रथम, द्वितीय और तृतीय ये तीन चूलिकाएँ चालू होती हैं। जिस प्रकरणमें विवक्षित अनुयोगद्वारमें कहे गये विषयका अवलम्बन लेकर विशेष व्याख्यान किया जाता है उसे चूलिका कहते हैं। इसलिए चलिका सर्वथा स्वतन्त्र प्रकरण न होकर विवक्षित अनुयोगद्वारका ही एक अङ्ग माना जाता है । ऐसी यहाँ क्रमसे तीन चूलिकाएं निर्दिष्ट हैं। प्रथम चलिकामें गुणश्रेणिनिर्जरा किसके कितनी गुणी होती है और उसमें लगानेवाले कालका क्या प्रमाण है, इसका विचार किया गया है। यहाँ गुणश्रेणिनिर्जराके कुल स्थान ग्यारह बतलाये हैं। यथा-सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चारित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह, स्वस्थान जिन और योगनिरोधमें प्रवृत्त हुए जिन । इन ग्यारह स्थानों में णश्रेणि निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी होती है। किन्तु इसमें लगनेवाला काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हीन जानना चाहिए । अर्थात् प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय गुणश्रेणि निर्जरामें जो अन्तर्मुहूर्त काल लगता है उससे श्रावक के होनेवाली गुणश्रेणि निर्जरामें संख्यातगुणा हीन अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इस प्रकार आगेआगे हीन-हीन काल जानना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दृष्टिश्रावक' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धिमें ये गुणश्रेणिके स्थान कुल दस गिनाये हैं । वहाँ जिनके दो भेदोंका आश्रय कर प्रतिपादन नहीं करना इसका कारण है । यहाँ पहले दो सूत्र गाथाओंमें इन ग्यारह गुणश्रेणि निर्जरा और उनके कालका विचार कर अनन्तर गद्यसूत्रों द्वारा इनका स्वतन्त्र विचार किया गया है। द्वितीय चूलिका आगे अनुभागबन्धाध्यवसान थान'का कथन करने के लिए प्रारम्भ होती है। इस प्रकरणके ये बाहर अनुयोगद्वार हैं-अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, आजयुग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पवहुत्वप्ररूपणा । (१) अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा-कर्मों के जितने भेद-प्रभेद उपलब्ध होते हैं उनमें हीनाधिक अनुभाग शक्ति पाई जाती है । यह शक्ति कहाँ कितनी होती है इसका विचार अनुभागशक्तिमें उपलब्ध होनेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंके आधारसे किया जाता है। अविभागप्रतिच्छेद उन शक्त्यंशोंकी संज्ञा है जो विभागके अयोग्य होते हैं। शक्ति का यह विभाग बुद्धिद्वारा किया जाता है। उदाहरणार्थ, एक ऐसी शक्ति लो जो सर्वाधिक हीन दर्जे की है। पुनः इससे दूसरे दर्जेकी शक्ति लो और देखो कि इन दोनों शक्तियोंमें कितना अन्तर है और उस अन्तरका कारण क्या है। अनुभवसे प्रतीत होगा कि पहली शक्तिसे दूसरी शक्तिमें जो एक शक्यंशकी वृद्धि दिखाई देती है उसीका नाम अविभागप्रतिच्छेद है। अनुभागसम्बन्धी ऐसे अविभागप्रतिच्छेद एक अनभागस्थानमें अनन्तानन्त उपलब्ध होते हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जितने कर्मपरमाणुओंमें ये अविभागप्रतिच्छेद समान उपलब्ध होते हैं उनमें से प्रत्येक कर्मपरमाणुके अविभागप्रतिच्छेदोंकी वर्ग संज्ञा है और वे सब कर्मपरमाणु मिलकर वर्गणा कहलाते हैं। यह प्रथम वर्गणा है । पुनः इनसे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदको लिए हुए जितने कर्मपरमाणु होते हैं उनकी दूसरी वर्गणा बनती है। इस प्रकार निरन्तर क्रमसे एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धिके साथ तीसरी आदि वर्गणाए जहाँ तक उत्पन्न होती है उन सबकी स्पर्धक संज्ञा है। एक स्पर्धकमें ये वर्गणाएँ अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग उपलब्ध होती हैं। यह प्रथम स्पर्धक है। इसके आगे सब जीवोंसे अनन्तगुण अविभागप्रतिच्छेदोंका अन्तर देकर द्वितीय स्पर्धक प्रारम्भ होता है और जहाँ जाकर द्वितीय स्पर्धककी समाप्ति होती है उससे आगे भी उत्तरोत्तर इसी प्रकार अन्तर देकर तृतीयादि स्पर्धक प्रारम्भ होते हैं जो प्रत्येक अभव्योंसे Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणाओंसे बनते हैं । इसप्रकार अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणामें कहाँ कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं इसका विचार किया जाता है। (२) स्थानप्ररूपणा-इसप्रकार पूर्वोक्त अन्तरको लिए हुए जो अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक उत्पन्न होते हैं उन सबका एक स्थान होता है। यहाँ पर एक जीवमें एक साथ जो कर्मों का अनुभाग दिखाई देता है उसकी स्थान संज्ञा है। उसके दो भेद हैंअनुभागबन्धस्थान और अनुभागसत्त्वस्थान । उनमेंसे जो अनुभाग बन्ध द्वारा निष्पन्न होता है उसकी तो अनुभागबन्धस्थान संज्ञा है ही। साथ ही पूर्वबद्ध अनुभागका घात होनेपर तत्काल बन्धको प्राप्त हुए अनुभागके समान जो अनुभाग प्राप्त होता है उसकी भी अनुभागबन्धस्थान संज्ञा है। किन्तु जा अनुभागस्थान घातको प्राप्त होकर तत्काल बन्धको प्राप्त हुए अनुभागके समान न होकर बन्धको प्राप्त हुए अष्टांक और ऊवकके मध्यमें अधस्तन ऊबकसे अनन्तगुणा और उपरिम अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है उसे अनुभागसत्कर्मस्थान कहते हैं। यदि इन प्राप्त हुए स्थानोंको मिलाकर देखा जाय तो ये सब असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। इसप्रकार स्थानप्ररूपणामें इन सब स्थानोंका विचार किया जाता है। (३) अन्तरप्ररूपणा--स्थानप्ररूपणामें कुल स्थान कितने होते हैं यह तो बतलाया है, किन्तु वहाँ उनमें परस्पर कितना अन्तर होता है इसका विचार नहीं किया गया है। इसलिए इस प्ररूपणाका अवतार हुआ है। इसमें बतलाया गया है कि एक स्थानसे तदनन्तरवर्ती स्थानमें अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर होता है। जो जघन्य स्थानान्तर है वह भी सब जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि एक अनन्तभागरूप वृद्धिप्रक्षेपमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद उपलब्ध होते हैं । इसप्रकार इस प्ररूपणामें विस्तारके साथ अन्तरका विचार किया गया है। (४) काण्डकप्ररूपणा-कुल वृद्धियाँ छह हैं-अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि। इनमें से अनन्तभागवृद्धि काण्डकप्रमाण होनेपर एकबार असंख्यातभागवृद्धि होती है । पुनः काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि होनेपर दूसरीबार असंख्यातभागवृद्धि होती है। इसप्रकार पुनः पुनः पूर्वोक्त क्रमसे जब असंख्यातभागवृद्धि काण्डकप्रमाण हो लेती है तब एकवार संख्यातभागवृद्धि होती है। इसप्रकार अनन्तगणवृद्धिके प्राप्त होनेतक यही क्रम जानना चाहिए। यहाँ काण्डकसे अङ्गलका असंख्यातवाँ भाग लिया गया है। यहाँ एक स्थानमें इन वृद्धियोंका विचार करनेपर वे किसप्रकार उपलब्ध होती हैं इसकी चरचा प्रस्तुत पुस्तकके पृष्ठ १३२ में की ही है। उसके आधारसे काण्डकप्ररूपणाको विस्तारसे समझ लेना चाहिए। (५) ओज-युग्मप्ररूपणा--जहाँ विवक्षित राशिमें चारका भाग देनेपर १ या ३ शेष रहते हैं उसकी ओज संज्ञा है और जहाँ २ शेष रहते हैं या कुछ भी शेष नहीं रहता है उसकी यग्म संज्ञा है । इस आधारसे इस प्ररूपणामें यह बतलाया गया है कि सब अनुभागस्थानोंके अविभागप्रतिच्छेद तथा सब स्थानोंकी अन्तिम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद कृतयुग्मरूप हैं और द्विचरम आदि वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद कृतयुग्मरूप ही हैं यह नियम नहीं है, क्योंकि उनमेंसे कोई कृत युग्मरूप, कोई बादर युग्मरूप, कोई कलि ओजरूप और कोई तेज ओजरूप उपलब्ध होते हैं। (६) षटस्थानप्ररूपणा--पहले हम अनन्तभागवृद्धि आदि छह स्थानोंका निर्देश कर आये हैं। उनमें अनेन्त, असंख्यात और संख्यात पदोंसे कौनसी राशि ली गई है इन सब बातोंका विचार इस प्ररूपणामें किया गया है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) अधस्तनस्थानप्ररूपणा--इसमें अनन्तभागवृद्धिसे लेकर प्रत्येक वृद्धि जब काण्डक प्रमाण हो लेती है तब अगली वृद्धि होती है। अनन्तगुणवृद्धिके प्राप्त होनेतक यही क्रम चालू रहता है। यह बतलाकर एक षट्स्थानवृद्धिमें अनन्तभागवृद्धि कितनी होती हैं, संख्यातभागवृद्धि कितनी होती हैं आदिका निरूपण किया गया है। (८) समयप्ररूपणा--जघन्य अनुभागबन्धस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान तक जितने अनुभागबन्धस्थान होते हैं उनमें से एक समयसे लेकर चार समयतक बन्धको प्राप्त भागबन्धस्थान असंख्यातलोक प्रमाण है। पचि समय बधनवाले अनुभागबन्धस्थान भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इसप्रकार चार समयसे लेकर आठ समयतक बंधनेवाले अनुभागबन्धस्थान और पुनः सात समयसे लेकर दो समयतक बँधनेवाले अनुभागबन्धस्थान प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण हैं । यह बतलाना समयप्ररूपणाका कार्य है। साथ ही यद्यपि ये सब स्थान असंख्यातलोकप्रमाण हैं फिर भी इनमें सबसे थोड़े कौन अनुभागबन्धस्थान हैं और उनसे आगे उत्तरोत्तर वे कितने गुण हैं यह बतलाना भी इस प्ररूपणाका कार्य है। (९) वृद्धिप्ररूपणा--इस प्ररूपणामें पहले अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियोंका व अनन्तभागहानि आदि छह हानियोंका अस्तित्व स्वीकार करके उनके कालका निर्देश किया गया है। . . (१०)यवमध्यप्ररूपणा-समय प्ररूपणामें छह वृद्धियों और छह हानियोंका किसका कितना काल है यह बतला आये हैं। तथा वहाँ उनके अल्पबहुत्वका भी ज्ञान करा आये हैं। फिर भी किस वृद्धि और हानिसे यवमध्यका प्रारम्भ और अन्त होता है यह बतलाने के लिए यवमध्यप्ररूपणा की गई है। यद्यपि यवमध्य कालयवमध्य और जीवयवमध्यके भेदसे दो प्रकारका होता है पर यहाँ पर कालयवमध्यका ही ग्रहण किया है, क्योंकि इसमें वृद्धियों और हानियोंके कालकी मुख्यतासे ही इसकी रचना की गई है। (११) पर्यवसानप्ररूपणा--अनन्तगुणवृद्धिरूप काण्डकके जार पाँच वृद्धिरूप सब स्थान जाकर पुनः अनन्तगुणवृद्धि रूप स्थान नहीं प्राप्त होता, यह बतलाना इस प्ररूपणाका कार्य है। (११) अल्पबहत्वप्ररूपणा--इसके दो भेद हैं-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधा अल्पबहुत्वमें अनन्तगुणवृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार आगे संख्यातगुणवृद्धिस्थान, संख्यातभागवृद्धिस्थान, असंख्यातभागवृद्धिस्थान और अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं, यह बतलाया गया है। तथा परम्परोप नधा अल्पबहुत्वमें अनन्तभागवृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धि स्थान असंख्यातगुणे हैं। तथा इनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान संख्यातगुण हैं आदि बतलाया गया है। इस प्रकार अनुभागबन्धस्थानके आश्रयसे यह प्ररूपणा समाप्त कर अन्तमें वीरसेन स्वामीने अनुभागसत्कर्मके आश्रयसे यह सब विचार कर दूसरी चूलिका समाप्त की है। तीसरी चूलिकामें जीवसमुदाहारका विचार किया गया है। इसके ये आठ अनुयोगद्वार है-एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । (१) एकस्थानजीवप्रमाणानुगम-एक स्थानमें जघन्यरूपसे जीव एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्टरूपसे श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं, यह बतलाना इस प्ररूपणाका कार्य है। national Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम-इस प्ररूपणामें जीवोंसे सहित निरन्तर स्थान एक, दो या तीन से लेकर अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, यह बतलाया गया है। (३) सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम--इस प्ररूपणा में जीवोंसे रहित स्थान कमसे कम एक, दो और तीनसे लेकर अधिकसे अधिक असंख्यातलोकप्रमाण होते हैं यह बतलाया गया है। (४) नानाजीवकालप्रमाणानुगम-इस प्ररूपणामें एक-एक स्थानमें नान जीव जघन्यसे एक समय तक और उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक होते हैं, यह बतलाया गया है। (५) वृद्धिप्ररूपणा-इसके दो भेद हैं-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाम जघन्य स्थानसे लेकर द्वितीयादि स्थानों में कितने जीव होते हैं, यह बतलाया गया है तथा परम्परोपनिधामें जघन्य अनुभागस्थानमें जितने जीव हैं उनसे असंख्यातलोक जाकर वे दूने हो जाते हैं, इत्यादि बतलाया गया है । (६) यवमध्यप्ररूपणा-इस प्ररूपणामें सब स्थानोंका असंख्यातवां भाग यवमध्य होता है यह बतलाकर यवमध्यके नीचेके स्थान सबसे थोड़े हैं और उपरिम स्थान असंख्यातगुणे हैं यह बतलाया गया है। (७) स्पर्शनप्ररूपणा-इस प्ररूपणामें उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान, जघन्य अनुभाग बन्धस्थान, काण्डक और यवमध्य आदिका एक जीवके द्वारा स्पर्शन काल कितना है, इसका विचार किया गया है। (८) अल्पबहत्व-उत्कृष्ट अनुभागस्थान, जघन्य अनुभागस्थान,काण्डक और यवमध्यमें कहाँ कितने जीव हैं इसके अल्पबहुत्वका विचार इस प्ररूपणामें किया गया है। ८-वेदनाप्रत्ययविधान इस अनुयोगद्वारमें नैगमादिनयोंके आश्रयसे ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वेदनाके बन्धकारणोंका विचार किया गया है। यथा-नैगम, व्यवहार और संग्रह नयकी अपेक्षा सब कर्मोंकी वेदनाका बन्ध प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माया, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोगसे होता है। ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है। तथा शब्द नयकी अपेक्षा किससे किसका बन्ध होता है यह कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस नयमें कार्यकारणसम्बन्ध नहीं बनता। है वेदनास्वामित्व विधान इस अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणादि पाठों कर्मों के स्वामीका विचार किया गया है। ऐसा करते हुए नयभेदसे ये भंग आये हैं-नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि पाठों कोंकी वेदनाका कथंचित् एक जीव स्वामी है, कथंचित् नोजीव स्वामी है, कथंचित् नाना जीव स्वामी हैं, कथंचित् नाना नोजीव स्वामी हैं, कथंचित् एक जीव और एक नोजीव स्वामी है, कथंचित् एक जीव और नाना नोजीव स्वामी हैं, कथंचित् नाना जीव और एक नोजीव स्वामी हैं तथा कथंचित् नाना जीव और नाना नोजीव स्वामी हैं । यहाँ पर जीव और नोजीव पदकी व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामीने बतलाया है कि जो अनन्सानन्त विस्नसोपचयसहित कर्मपुद्गल स्कन्ध उपलब्ध होते हैं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > वे जीवसे पृथक् न पाये जानेके कारण जीवपदसे लिए गये हैं । तथा वे ही अनन्तानन्त विस्रसोपचयसहित कर्मपुद्गल स्कन्ध ही प्राणधारण शक्तिले रहित होनेके कारण अथवा ज्ञान-दर्शनशक्तिसे रहित होनेके कारण नोजीव कहलाते हैं । अथवा उनसे सम्बन्ध रखनेके कारण जीवको भी नोजीव कहते हैं । संग्रह नयकी अपेक्षा इन ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वेदनाका कथंचित् एक जी स्वामी है और कथंचित् नाना जीव स्वामी हैं। तथा शब्द और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा इन ज्ञानावरणादि वेदनाका एक जीव स्वामी है। यहाँ इन नयोंकी अपेक्षा एक जीवको स्वामी कहनेका कारण यह है कि ये नय बहुवचनको स्वीकार नहीं करते । १० वेदनावेदनाविधान इस अनुयोगद्वार में सवप्रथम नैगमनयकी अपेक्षा जीव, प्रकृति और समय, इनके एकत्व और अनेकत्वका आश्रय करके ज्ञानावरण वेदना के एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंगों का प्ररूपण किया गया है । यथा - ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है, कथंचित् उदीर्ण वेदना है, कथंचित् उपशान्त वेदना है, कथंचित् बध्यमान वेदनाएँ हैं, कथंचित् उदीर्ण वेदनाएं हैं, कथंचित् उपशान्त वेदनाएं हैं, इत्यादि । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इन अंगों का विवेचन करते हुए वीरसेन स्वामीने विवक्षाभेदसे इन भंगों के अन्य अनेक अवान्तर भंगों का भी निर्देश किया है। नैगमनयकी अपेक्षा शेष सात कर्मों के भंग ज्ञानावरण के ही समान हैं। आगे व्यवहारनय और संग्रह की अपेक्षा यथासम्भव इन भंगों का क्रमसे विवेचन करके ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा आठ कर्मों के फलप्राप्त विपाकको ही वेदना बतलाया है । शब्दनयका विषय इन सब दृष्टियों से अत्रतत्र्य है, यह स्पष्ट ही है । ११ वेदनागतिविधान इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदना अपेक्षाभेदसे क्या स्थित है, क्या स्थित है या क्या स्थितास्थित है, इस बातका विचार किया गया है । पहले नैगम, संग्रह और व्यवहारनयी अपेक्षा बतलाया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायकर्म की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् स्थितास्थित है । तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्मकी वेदना कथंचित् स्थित है, कथंचित् अस्थित है और कथंचित् स्थित स्थित है । ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा विवेचन करते हुए बतलाया है कि आठों कर्मों की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् स्थित है। तथा शब्दनयकी अपेक्षा सब कर्मोंकी वेदना अवक्तव्य है, यह बतलाया गया है । १२ वेदनाअनन्तर विधान ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होनेपर वे उसी समय फल देते हैं या कालान्तर में फल देते हैं, इस विषयका विवेचन करने के लिए वेदना अनन्तरविधान अनुयोगद्वार आया है । इसमें बतलाया है कि नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वेदना अनन्तरबन्ध है, परम्पराबन्ध है और तदुभयबन्ध है । संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वेदना अनन्तरबन्ध है और परम्पराबन्ध है । ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी वेदना परम्पराबन्ध है। और शब्दन की अपेक्षा आठों कर्मोंकी वेदना अवक्तव्यबन्ध है । १३ वेदनासन्निकर्षविधान / ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट भी होती है और जघन्य भी । फिर भी इनमें से प्रत्येक कर्मके उत्कृष्ठ या जघन्य द्रव्यादि वेदनाके रहनेपर उसीकी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) क्षेत्रादि वेदना किस प्रकारकी होती है। तथा विवक्षित एक कर्म की द्रव्यादि वेदना उत्कृष्ट या जघन्य रहने पर अन्य कर्म की द्रव्यादि वेदना उत्कृष्ट या जघन्य किस प्रकार की होती है, इस बातका विचार करने के लिए यह वेदनासन्निकर्षविधान अनुयोगद्वार आया है। इस हिसाब से वेदनासन्निकर्ष के स्वस्थानसन्निकर्ष और परस्थानसन्निकर्ष ये दो भेद होकरे उनमेंसे प्रत्येकके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार-चार भेद करके स्वस्थानवेदनासन्निकर्ष और परस्थानवेदनासन्निकर्षका इस अनुयोगद्वार में विस्तार के साथ विचार किया गया है । १४ वेदनापरिमाणविधान ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी प्रकृतियाँ कितनी हैं इस बातका विवेचन करने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है। इसमें प्रकृतियोंका विचार प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास इन तीन प्रकारोंसे किया गया है । प्रकृत्यर्थता अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे उनकी संख्या बतलाई है । मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण और नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रगसे ५, ६ और १३ न बतलाकर असंख्यात लोकप्रमाण बतलाई हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ क्यों है इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि चूंकि ज्ञान और दर्शनके अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं, इसलिए इनको आवरण करनेवाले कर्म भी उतने ही । तथा नामकर्मकी असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ क्यों हैं इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि चूँकि आनुपूर्वीके भेदोंका तथा गति, जा और शरीरादिके भेदों का ज्ञान कराना आवश्यक था, अतः इस कर्मकी असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ कही हैं | समयप्रबद्धार्थता अनुया गद्वार में प्रत्येक कर्मके अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट स्थ प्रमाण समयप्रबद्धों से उस उस कर्मकी अवान्तर प्रकृतियोंको गुणितकर परिमाण लाया गया है । मात्र ऐसा करते हुए आयुकर्मका समयप्रबद्धार्थताकी अपेक्षा परिमाण लाते समय आयुकर्मकी अवान्तर प्रकृतियोंको अन्तर्मुहूर्तसे गुणा कराया गया है। इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामीका कहना है कि आयुकर्मका बन्धकाल यतः अन्तर्मुहूर्त है अतः यहाँ अन्तर्मुहूर्त काल से गुणा कराया गया है । क्षेत्रप्रत्यास अनुयोगद्वार में प्रत्येक कमकी समयप्रबद्धार्थताप जितनी प्रकृतियाँ उपलब्ध हुईं उनको उस उस प्रकृतिके उत्कृष्ट क्षेत्र से गुणित करके परिमाण लाया गया है 1 १५ वेदनाभागाभाग विधान इस अनुयोगद्वार में पूर्वोक्त प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी अपेक्षा अलग अलग ज्ञानावरणादि कर्मोंकी प्रकृतियोंके भागाभागका विचार किया गया है । यथा-प्रकृत्यर्थता की अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी प्रकृतियाँ अलग-अलग सब प्रकृतियों के कुछ कम दो भागप्रमाण बतलाई हैं और शेष छह कर्मों की प्रकृतियाँ अलग-अलग असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाई हैं । इसीप्रकार समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी अपेक्षा भी किस कर्मकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भागप्रमाण हैं इसका विचार किया गया है । १६ वेदना अल्पबहुत्वविधान इस अनुयोगद्वार में भी प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासका आश्रयकर अलगअलग ज्ञानावरणादि कर्मों के अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। इसप्रकार इन सोलह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा समाप्त होनेपर वेदनाखण्ड समाप्त होता है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ७ वेदनाभावविधान वेदनाभावविधान में तीन अनुयोगद्वारों की विषयसूची ज्ञानावरणीय वेदना की भावकी अपेक्षा पदमीमांसा शेष सात कर्मोंकी भावकी अपेक्षा पदमीमांसा सूचना भावका चार निक्षेपोंमें अवतार और उनका खुलासा यहाँ भाववेदनासे भावकर्म विवक्षित हैं। वेदनाभावविधानके कथनका प्रयोजन तीन अनुयोगों के नाम पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व पदका स्पष्टीकरण भावकी अपेक्षा पदमीमांसा | पृष्ठ १-२७४ १ १ २ ३ ३ ३ ४ ४ १२ १२ १२ १३ १५ भावकी अपेक्षा स्वामित्व स्वामित्व के दो भेद व उनका समर्थन उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदनाका स्वामी अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदनाका स्वामी इसीप्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय के जाननेकी सूचना उत्कृष्ट वेदनीय वेदनाका स्वामी अनुत्कृष्ट वेदनीय वेदनाका स्वामी १६ १६ १८ १६ इसीप्रकार नाम और गोत्रके जाननेकी सूचना १८ उत्कृष्ट आयुवेदनाका स्वामी अनुत्कृष्ट आयुवेदनाका स्वामी जघन्य ज्ञानावरणीयवेदनाका स्वामी अजघन्य ज्ञानावरणीयवेदनाका स्वामी इसीप्रकार दर्शनावरण और अन्तरायके जानने की सूचना जघन्य वेदनीयवेदनाका स्वामी २१ २२ २३ २३ २३ विषय अजघन्य वेदनीय वेदनाका स्वामी जघन्य मोहनीयवेदनाका स्वामी अजघन्य मोहनीय वेदनाका स्वामी जघन्य आयुवेदनाका स्वामी अजघन्य आयुर्वेदनाका स्वामी जघन्य नामवेदनाका स्वामी अजघन्य नामवेदनाका स्वामी जघन्य गोत्रवेदनाका स्वामी अजघन्य गोत्र वेदनाका स्वामी अल्पबहुत्व के तीन भेद जघन्य पद जघन्य मोहनीय वेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य अन्तरायवेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य ज्ञानावरण और दर्शनावरण वेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य आयुवेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य गोत्रवदनाका अल्पबहुत्व जघन्य नामवेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य वेदनीयवेदनाका अल्पबहुत्व Pur ur up wyy www पृष्ठ २६ २६ २६ २६ ३१ २८ २६ ३० ३१ ३१ ३१ ३२ ३३ ३४ ३४ ३५ ३५ ३६ ३६ उत्कृष्ट पद उत्कृष्ट आयुर्वेदनाका अल्पबहुत्व दो आवरण और अन्तराय वेदनाका अल्पबहुत्व ३७ ३७ उत्कृष्ट मोहनीनवेदनाका अल्पबहुत्व उत्कृष्ट नाम और गोत्रवेदनाका अल्पबहुत्व ३७ उत्कृष्ट वेदनीयवेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य और उत्कृष्ट दोनों का एकसाथ अल्पबहुत्व ३८ जघन्य मोहनीय वेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य अन्तरायवेदनाका अल्पबहुत्व जघन्य दो आवरणवेदनाका अरुपबहुत्व ३५ ३८ ३८ ३८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ३६ विषय विषय जघन्य आयुवेदनाका अल्पबहुत्व । एक एक स्थानमें कितने अविभागप्रतिजघन्य नामवेदनाका अल्पबहुत्व ३६ च्छेद होते हैं जघन्य गोत्रवेदनाका अल्पबहुत्व अनुभागका विशेष खुलासा जघन्य वेदनीयवेदनाका अल्पबहुत्व अविभागप्रतिच्छेदका स्पष्टीकरण उत्कृष्ट आयुवेदनाका अल्पबहुत्व द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा जघन्य स्थानमें उत्कृष्ट दो आवरण और अन्तरायवेदनाका अविभाग प्रतिच्छेदोंका विचार अल्पबहुत्व ३६ वर्गका संदृष्टिपूर्वक विचार उत्कृष्ट मोहनीयवेदनाका अल्पबहुत्व ३६ वर्गणाविचार उत्कृष्ट नाम और गोत्रवेदनाका अल्पबहुत्व ३६ स्पर्धकविचार उत्कृष्ट वेदनीय वेदनाका अल्पबहुत्व अविभागप्रतिच्छेदकी त्रिविध प्ररूपणाकी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा अल्पबहुत्व ४० प्रतिज्ञा सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ४० वर्गणाप्ररूपणाके तीन प्रकार व उनका आठ कषाय आदि प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ४२ विवेचन अयशःकीर्ति आदि प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ४४ स्पर्धक प्ररूपणाके तीन प्रकार व उनका चौंसठ पदवाला उत्कृष्ट महादण्डक ४४ विवेचन उत्तर प्रकृतियोंका स्वस्थान उत्कृष्ट अन्तरप्ररूपणाके तीन प्रकार व उनका अल्पबहुत्व विवेचन तीन गाथाओं द्वारा संज्वलन चतुष्क आदि परमाणुओंमें अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ६५ आरोपकर जघन्य स्थानमें प्रदेशप्ररूपणा १०१ चौंसठ पदवाला जघन्य महादण्डक प्रदेशप्ररूपणामें छह अनुयोगद्वारों के नाम उत्तरप्रकृतियोंका स्वस्थान जघन्य व संदृष्टिपूर्वक उनका विवेचन करनेकी अल्पबहुत्व प्रतिज्ञा प्ररूपणा प्रथम चूलिका ७८-८७ प्रमाण १०२ दो सूत्र गाथाओंद्वारा गुणश्रेणि निर्जराके श्रेणिप्ररूपणाके दो भेद व उनका विचार ग्यारह स्थान और काल अवहारविचार १०४ अलग अलग सूत्रों द्वारा गुणश्रेणि भागाभागको अवहारके समान जाननेकी निर्जराका विचार सूचना ११० अलग अलग सूत्रों द्वारा गुणश्रेणि निर्जराके अल्पवहुत्वविचार कालका विचार ८५ स्थानप्ररूपणा स्थानपदकी व्याख्या १११ द्वितीय चूलिका ८७-२४० स्थानके दो भेद व उनका लक्षणपूर्वक अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें १२ अनु- विशेष विचार १११ योगद्वारोंकी सूचना अन्तरप्ररूपणा ११४ बारह अनुयोगद्वारोंके नाम व उनकी अन्तरप्ररूपणाकी सार्थकता ११४ सार्थकता ८ । स्थानान्तरका स्वरूप. . . . . ११४ १०१ ११० ८७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अनुभागबन्धस्थानान्तर योगस्थानान्तरों के समान नहीं हैं इसका विचार जघन्य स्थानसे द्वितीय स्थानके प्रमाणका विचार व उनमें स्पर्धक प्ररूपणा आगे भी तृतीयादि स्थानों के प्रमाणका विचार जघन्यादि स्थानोंमें षट्स्थान प्ररूपणा व स्थानोंका अल्पबहुत्व काण्डकप्ररूपणा काण्डकप्ररूपणा के प्रसंगसे अनुभागबन्ध और अनुभाग सत्कर्मका अल्पबहुत्व काण्डकशलाकाका प्रमाण अनन्तभागवृद्धि आदिका प्रमाण अनन्तभागवृद्धि आदिका अल्पबहुत्व ओजयुग्म प्ररूपणा षट्स्थानप्ररूपणा अनन्तभागवृद्धिविचार असंख्यात भागवृद्धिविचार संख्यात भागवृद्धिविचार संख्यातगुणवृद्धि विचार असंख्यात गुणवृद्धिविचार अनन्तगुणवृद्धि विचार जघन्यादि स्थानों में अनन्तभागवृद्धि आदिका विचार जघन्य स्थानमें अनन्तभागवृद्धि आदिकी प्रमाणप्ररूपणा प्रथम अष्टांकसे लेकर ऊर्वेकतक प्राप्त होनेवाली अनन्तगुणवृद्धि के विषय में तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा अधस्तनस्थानप्ररूपणा समयप्ररूपणा चारसमयवाले आदि अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों का प्रमाण चार समयवाले आदि सब अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका अल्पबहुत्व प्रसंग अकायिक, कायस्थिति व अनुभागस्थानका अल्पबहुत्व ( १० ) पृष्ठ ११५ १९६ १२० १२० १२३ १२= १३२ १३३ १३३ १३४ १३५. १३५ १५१ १५४ १५५. १५६ १५७ १५८ १८६ १६९ १६३ २०२ २०२ २०५ २०६ विषय वृद्धिप्ररूपणा छह वृद्धि और छह हानियोंके अवस्थानकी प्रतिज्ञा पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका काल अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका काल कालविषयक अल्पबहुत्व यवमध्यप्ररूपणा पर्यवसानप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अल्पबहुत्व विचार परम्परोपनिधाकी अपेक्षा अल्पबहुत्व विचार अनुभागसत्कर्मस्थानविचार अनुभागबन्धस्थानसे अनुभाग सत्कर्म में क्या अन्तर है इसका विचार घातस्थानों की प्ररूपणा दो प्रकार के घातपरिणामोंका विचार सत्त्वस्थान कहाँ होते हैं इसका विचार प्रथमादि परिपाटी क्रमसे हतसमुत्पत्तिस्थानोंका विचार हतहत समुत्पत्तिस्थानविचार स्थितिस्थानों में अपुनरुक्त स्थानोंका विचार बन्ध समुत्पत्ति आदि स्थानोंका अल्पबहुत्व पृष्ठ २०६ २०६ २०६ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१४ २१७ २१६ २१६ २२० २२० २२१ २२६ २३२ २३४ २४० २४१-२७४ २४१ तीसरी चूलिका जीव समुदाहारमें आठ अनुयोगद्वार जीवसमुदाहार और आठ अनुयोगद्वारोंकी सार्थकता २४१ २४२ २४४ एकस्थान जीवप्रमाणानुगमविचार निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगमविचार सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम नानाजीवकालप्रमाणानुगम वृद्धिप्ररूपणा और उसके दो अनुयोगद्वार २४६ २४५. २४५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 9 Nrn Isis is IS ( ११ ) विषय पृष्ठ विषय अनन्तरोपनिधाविचार २४७ | शब्द और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा ज्ञानापरम्परोपनिधाविचार २६३ वरणका स्वामी ३०० यवमध्यप्ररूपणा २६६ इसी प्रकार शेष सात कर्मों का स्वामी ३०१ स्पर्शनविचार २६७ १० वेदनावेदनविधान ३०२-३६३ अल्पबहुत्वविचार २७२ | वेदनवेदनविधानकी प्रतिज्ञा और सार्थकता ३०२ ८ वेदनाप्रत्ययविधान २७५-२६३ | नैगमनयकी अपेक्षा सभी कर्मप्रकृति हैं वेदनाप्रत्ययविधान कहनेकी प्रतिज्ञा व • ऐसी प्रतिज्ञा ३०२-३०४ उसकी सार्थकता २७५ ज्ञानावरण कर्म बध्यमान, उदीर्ण और नैगम, संग्रह और व्यवहारनयसे ज्ञाना- उपशान्त एक और नाना प्रत्येक व वरणके प्राणातिवादप्रत्ययका विचार २७५ संयोगी भंग रूप कैसे है इसका अलग मृषावादप्रत्ययका विचार २७६ अलग विचार ३०४ अदत्तादानप्रत्ययका विचार २८१ इसी प्रकार सात कर्मोको जाननेकी सूचना ३४२ मैथुनप्रत्ययका विचार २८२ व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरण कर्मके परिग्रहप्रत्ययका विचार २८२ भंगोंका अलग अलग विचार ३४३ रात्रिभोजनप्रत्ययका विचार २८२ इसी प्रकार शेष सात कर्मों के क्रोध, मान आदि प्रत्ययोंका विचार २८३ जाननेकी सूचना ३५६ निदानप्रत्ययका विचार २८४ संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरण कर्मके अभ्याख्यान, कलह आदि प्रत्ययोंका भंगोंका अलग अलग विचार ३५६ विचार २८५ इसी प्रकार शेष सात कोके जाननेकी इसी प्रकार शेष सात कर्मा के प्रत्ययोंको सूचना ३६२ जाननेकी सूचना २८७ ऋजसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय ऋजसूत्रनयसे ज्ञानावरणीयके प्रत्यय २८८ वेदना एकमात्र उदीर्ण है इसका इसी प्रकार शेष सात कर्मों के प्रत्ययोंको विचार जाननेकी सूचना २६० इसी प्रकार शेष सात कर्मों के जाननेकी शब्दनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणके प्रत्ययोंका सूचना विचार २६० शब्दनयकी अपेक्षा अवक्तव्य है इसका इसी प्रकार शेष सात कर्मों के प्रत्ययोंको विचार ३६३ जाननेकी सूचना २६३ ११ वेदनागतिविधान ३६४-३६६ है वेदनास्वामित्वविधान २६४-३०१ वेदनागतिविधानकी प्रतिज्ञा व सार्थकता ३६४ वेदनास्वामित्वविधानकी प्रतिज्ञा व नैगम, संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा उसकी सार्थकता २६४ ज्ञानावरणीयवेदना अवस्थित और नैगम और संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञाना स्थितास्थितरूप है इसका विचार ३६५ वरणका स्वामी २६५ इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और इसी प्रकार शेष सात कर्मोका स्वामी २६६ अन्तरायके जाननेकी सूचना ३६७ संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणका स्वामी २६६ वेदनीयवेदना स्थित, अस्थित और इसी प्रकार शेष सात काका स्वामी ३०० , स्थितास्थित है इसकी सिद्धि .. ३६३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ विषय पृष्ठ | विषय इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्रके जिसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रसे उत्कृष्ट जाननेकी सूचना होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणवेदना कैसी होती है इसका विचार ३८१ स्थित और अस्थित है इसका विचार ३६८ जिसके ज्ञानावरणीयवेदना कालकी अपेक्षा इसी प्रकार शेष सात कर्मों के जाननेकी उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यादिकी सूचना अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ३८७ शब्दनयकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी वेदना जिसके ज्ञानावरणवेदना भावकी अपेक्षा अवक्तव्य है इसका विचार ३६६ उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यादिकी १२ वेदनाअनन्तरविधान ३७०-३७४ अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ३६१ वेदना अनन्तरविधानके कहनेकी प्रतिज्ञा इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायके जानने की सूचना ३६५ और सार्थकता जिसके वेदनीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञाना उत्कृष्ट होती है उसके क्षेत्र आदिकी वरण वेदना अनन्तरबन्ध, परम्पराबन्ध अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ३६६ और तदुभयबन्धरूप है इसका विचार ३७१ जिसके वेदनीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा इसी प्रकार शेष सात कर्मोके जाननेकी उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्य आदिकी सूचना ३७२ अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ३९७ संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणवेदना जिसकी वेदनीयवेदना कालकी अपेक्षा अनन्तरबन्ध और परम्पराबन्ध रूप उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्य आदिकी है इसका विचार ३७२ अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार इसी प्रकार शेष सात कर्मों के जाननेकी जिसकी वेदनीयवेदना भावकी अपेक्षा सुचना उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्य आदिकी ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणवेदना अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४०२ परम्परा बन्धरूप है इसका विचार ३७३ इसीप्रकार नाम और गोत्रकर्मके जाननेकी इसी प्रकार शेष सात कर्मों के जाननेकी सूचना ३७४ सूचना ४०४ शब्दनयकी अपेक्षा आठों कोंकी वेदना जिसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट अवक्तव्य है इसका विचार ३७४ होती है उसके क्षेत्र आदिकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४०५ १३ वेदनासन्निकर्षविधान ३७५-४७६ जिसके आयुवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनासन्निकषके दो भेद व उनकी सार्थकता ३७५ होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा स्वस्थान सन्निकर्षके दो भेद कैसी होती है इसका विचार ४०७ जघन्य स्वस्थान सन्निकर्षके स्थगित जिसके आयुवेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट करनेका कारण होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वस्थान सन्निकर्षके चार भेद कैसी होती है इसका विचार ४०८ जिसके ज्ञानावरण वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट जिसके आयुवेदना भाक्की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके क्षेत्र आदिकी अपेक्षा होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ... ३७७ | कैसी होती है इसका विचार .. .४११ ४०१ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का है ४१३ विषय पृष्ठ । विषय जघन्य स्वस्थानवेदनासन्निकर्ष चार प्रकार- जिसके आयुवेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४३१ जघन्य होती है उसके क्षेत्र आदिकी जिसके नामवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४ होती है उसके क्षेत्र आदिकी अपेक्षा जिसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४३३ जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी जिसके नामवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४१५ होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा जिसके ज्ञानावरणीय वेदना कालकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४३४ जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी जिसके नामवेदना कालकी अपेक्षा जघन्य अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४१८ होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा जिसके ज्ञानावरणीय वेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी जिसके नामवेदना भावकी अपेक्षा जघन्य अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा इसीप्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय कैसी होती है इसका विचार और अन्तरायके जाननेकी सूचना । ४२१ जिसके वेदनीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जिसके गोत्रवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य जघन्य होती है उसके क्षेत्र आदिकी होती है उसके क्षेत्र आदिकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार 'अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४२१ ४३६ जिसके वेदनीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जिसके गोत्रवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४२३ कैसी होती है इसका विचार ४४० जिसके वेदनीयवेदना कालकी अपेक्षा जिसके गोत्रवेदना कालकी अपेक्षा जघन्य जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४२४ कैसी हो । विचार ४४१ जिसके वेदनीयवेदना भावकी अपेक्षा जिसके गोत्रवेदना भावकी अपेक्षा जघन्य जघन्य होती है उसके द्रव्य आदिकी होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४२६ कैसी होती है इसका विचार ४४३ जिसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य परस्थानवेदनासन्निकर्षके दो भेद ४४४ होती है उसके क्षेत्र आदिकी अपेक्षा जघन्य परस्थानवेदनासन्निकर्षको स्थगित कैसी होती है इसका विचार ४२७ करनेकी सूचना ४४४ जिसके आयुवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य उत्कृष्ट परस्थानवेदनासन्निकर्षके चार भेद ४४५ होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार उत्कृष्ट होती है उसके छह कर्मोंकी द्रव्यजिसके आयुवेदना कालकी अपेक्षा जघन्य वेदना कैसी होती है इसका विचार ४४५ होती है उसके द्रव्य आदिकी अपेक्षा उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी कैसी होती है इसका विचार । होती है इसका विचार ४४७ ४२६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ विषय - पृष्ठ विषय ज्ञानावरणीयके समान आयुके सिवा शेष जिसके ज्ञानावरणीय वेदना भावकी अपेक्षा छह कर्मोके जाननेकी सूचना उत्कृष्ट होती है उसके दर्शनावरण, मोहनीय जिसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट और अन्तरायवेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना होती है इसका विचार ४५५ कैसी होती है इसका विचार ४४८ उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र जिसके ज्ञानावरणीयवदना क्षेत्रकी अपेक्षा वेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती है उत्कृष्ट होती है उसके दर्शनावरण, इसका विचार ४५५ मोहनीय और अन्तरायकर्मकी वेदना इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और क्षेत्रकी अपेक्षा कैसी होती है इसका अन्तरायकी मुख्यतासे जाननेकी सूचना ४५६ विचार जिसके वेदनीयवेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र होती है उसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा कैसी होती अन्तराय वेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४४६ है इसका विचार इसीप्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त- उसके मोहनीय वेदना भावकी अपेक्षा रायकी अपेक्षा जाननेकी सूचना ४५० कैसी होती है इसका विचार ४५७ जिसके वेदनीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट उसके आयुवेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती है उसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, होती है इसका विचार ४५८ मोहनीय और अन्तरायकीवेदना उसके नाम और गोत्रवेदना भावकी अपेक्षा क्षेत्रकी अपेक्षा कैसी होती है इसका कैसी होती है इसका विचार ४५६ विचार ४५० इसी प्रकार नाम और गोत्रकी मुख्यतासे उसके आयु, नाम और गोत्रकी वेदना जाननेकी सूचना ४५६ क्षेत्रकी अपेक्षा कैसी होती है इसका जिसके आयुवेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट विचार ४५० होती है उसके सात कर्मोकी वेदना इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्रकी भावकी अपेक्षा कैसी होती है इसका अपेक्षा सन्निकर्षका विचार विचार ४५६ जिसके ज्ञानावरणीय वेदना कालकी अपेक्षा परस्थान वेदना सन्निकर्षके कथन करनेकी उत्कृष्ट होती है उसके आयुके सिवा छह सूचना कर्मोंकी वेदना कालकी अपेक्षा कैसी जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा होती है इसका विचार ४५१ जघन्य होती है उसके दर्शनावरण और उसके आयुवेदना कालकी अपेक्षा कैसी अन्तरायकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४५२ होती है इसका विचार ४६० इसी प्रकार आयुके सिवा छह कर्मोकी उसके वेदनीय, नाम और गोत्रवेदना द्रव्य मुख्यतासे सन्निकर्षके जाननेकी सूचना ४५३ की अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार जिसके आयुवेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट उसके मोहनीयवेदना द्रव्यंकी अपेक्षा कैसी होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना होती है इसका विचार कालकी अपेक्षा कैसी होती है इसका | उसके आयुवदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी विचार ४५३ । होती है इसका विचार ४६२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ( १५ ) विषय पृष्ठ | विषय ज्ञानावरणके समान दर्शनावरण और उसके मोहनीय वेदना कालकी अपेक्षा अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्षके कैसी होती है इसका विचार जाननेकी सूचना ४६३ ज्ञानाबरणके समान दर्शनावरण और जिसके वेदनीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जघन्य होती है उसके ज्ञानावरण, जाननेकी सूचना दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त जिसके वेदनीय वेदना कालकी अपेक्षा रायकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी जघन्य होती है उसके ज्ञानावरण, होती है इसका विचार दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी वेदना कालकी अपेक्षा कैसी होती है होती है इसका विचार इसका विचार उसके नाम और गोत्र वेदना द्रव्यकी उसके आयु, नाम और गोत्र वेदना अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४६४ कालकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार वेदनीयके समान नाम और गोत्रकी ४७० मुख्यतासे सन्निकर्षके जानने की सूचना ४६५ वेदनीयके समान आयु, नाम और गोत्रकी जिसके मोहनीय वेदना द्रव्यकी अपेक्षा मुख्यतासे सन्निकर्ष जाननेकी सूचना ४७१ जिसके मोहनीय वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके आयुके सिवा शेष छह कोंकी वेदना द्रव्यकी। जघन्य होती है उसके सात कर्मोकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४६५ | वेदना कालकी अपेक्षा कैसी होती है उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी इसका विचार होती है इसका विचार जिसके ज्ञानावरणीय वेदना भावकी अपक्षा ४६५ जिसके आयुवेदना द्रव्यकी अपक्षा जघन्य जघन्य होती है उसके दर्शनावरण होती है उसके शेष सात कर्मोंकी और अन्तराय वेदना भावकी अपेक्षा वंदना द्रव्यकी अपेक्षा कैसी होती है कैसी होती है इसका विचार ४७१ इसका विचार ४६६ | उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रवेदना जिसके ज्ञानावरणीय वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा भावकी अपेक्षा कैसी होती है इसका जघन्य होती है उसके शेष सात विचार कर्मोंकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा कैसी उसके मोहनीयवेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार होती है इसका विचार ४६८ ज्ञानावरणके समान शेष सात कर्मोकी ज्ञानावरणके समान दर्शनावरण और मुख्यतासे क्षेत्रकी अपेक्षा सन्निकर्षके अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जाननेकी सूचना जाननेकी सूचना जिसके ज्ञानावरणीय वेदना कालकी जिसके वेदनीयवेदना भावकी अपेक्षा अपेक्षा जघन्य होती है उसके दर्शना- जघन्य होती है उसके ज्ञानावरणीय, वरण और अन्तरायवेदना कालकी दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तअपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४६६ रायवेदना भावकी अपेक्षा कैसी होती उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र है इसका विचार ४७३ वेदना कालकी अपेक्षा कैसी होती उसके आयु, नाम और गोत्रवेदना भावकी है इसका विचार ४६६ - अपक्षा कसा होता ह । अपक्षा कैसी होती है इसका विचार ४७३ ४७३ ४६९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ५०१ ( १६ ) - विषय पृष्ठ | विषय जिसके मोहनीय वेदना भावकी अपेक्षा नामकर्मकी प्रकृतियाँ ४६२ जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना गोत्र कर्मकी प्रकृतियाँ ४६६ भावकी अपेक्षा कैसी होती है इसका क्षेत्रप्रत्यासकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी विचार प्रकृतियाँ ४९७ जिसके आयुवेदना भावकी अपेक्षा जघन्य इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और होती है उसके छह कर्मोंकी वेदना भावकी अन्तरायकी प्रकृतियाँ जाननेकी सूचना ४६८ अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४७४ । वेदनीय कर्मकी प्रकृतियाँ ४६६ उसके नामवेदना भावकी अपेक्षा कैसी इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्रकर्मकी होती है इसका विचार ४७५ । प्रकृतियाँ जाननेकी सूचना ५०० जिसके नामवेदना भावकी अपेक्षा जघन्य १५ वेदनाभागाभागविधान होती है उसके आयुके सिवा शेष छह कर्मोंकी वंदना भावकी अपेक्षा कैसी वेदनाभागाभाग विधानकी सूचना व तीन होती है इसका विचार ४७५ अनुयोगद्वार उसके आयुवेदना भावकी अपेक्षा कैसी प्रकृत्यर्थताकी अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरण प्रकृतियोंका भागाभाग होती है इसका विचार . ४७५ जिसके गोत्रवेदना भावकी अपेक्षा जघन्य शेष छह कर्मोका भागाभाग ५०४-५०८ होती है उसके सात कर्मोंकी वेदनाभावकी समयप्रबद्धार्थताकी अपेक्षा ज्ञानावरण अपेक्षा कैसी होती है इसका विचार ४७६ और दर्शनावरण प्रकृतियोंका भागाभाग ५०४ शेष छह कर्मोंका भागाभाग ૧૦૫ १४ वेदनापरिमाणविधान ४७७-५०० क्षेत्र प्रत्यासकी अपेक्षा ज्ञानावेदनापरिमाणविधान कहनेकी सूचना व वरणका भागाभा स्पष्टीकरण इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और उसके तीन अनुयोगद्वार और स्पष्टीकरण ४७८ अन्तराय कर्म के भागाभागकी सूचना ५०७ प्रकृत्यर्थताकी अपेक्षा दो आवरण कर्मीकी बेदनीय कर्मका भागाभाग ५०७ प्रकृतियाँ ४७८ इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र वदनीयकर्मकी प्रकृतियाँ ४७६ कका भागाभाग ५०८ मोहनीयकर्मकी प्रकृतियाँ ४८१ आयुकर्मकी प्रकृतियाँ ४८२ १६ वेदना अल्पबहुत्व ५०९-५१२ नामकर्मकी प्रकृतियाँ ४८३ वेदना अल्पबहुत्वकी सूचना व तीन गोत्रकर्मकी प्रकृतियाँ ४८४ अनुयोग द्वार પ૦e अन्तराय कर्मकी प्रकृतियाँ ४८५ प्रकृत्यर्थताकी अपेक्षा आठों कर्मोंका समयप्रबद्धार्थताकी अपेक्षा दो आवरण अल्प बहुत्व ५०९ कर्म और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियाँ ४८५ समय प्रबद्धार्थताकी अपेक्षा आठों वेदनीय कर्मकी प्रकृतियाँ ४८७ कोका अल्पबहुत्व ५१० मोहनीय कमेकी प्रकृतियाँ ४६० क्षेत्र प्रत्यासकी अपेक्षा आठों कर्मोका आयुकर्मकी प्रकृतियाँ ४६१ | अल्पबहुत्व ५११ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [पु० १२] पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १३ ६ पञ्जत्तगदेण पज्जत्तयदेण १३ से १६ सूत्रसंख्या ६, ७, ८, ६, १०, ७, ८, ६, १०, ११, १२, १३ ११, १२ २७ १२ आप्पाओग्गं अप्पाओग्गं ३० ६ सुहत्तेणेण सुहत्तणेण ३३ ५ सरिसत्ताणु सरिसाणु, १२ ण च एवं तदो ण च एवं, वीरियंतराइयस्स सम्वत्थ खओव समदंसणादो। तदो ,, ३० परन्तु ऐसा है नहीं। अतएव परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वीर्यान्तरायका सर्वत्र क्षयोपशम पाया जाता है । अतएव ३६ १ णामवेयणा ॥५७॥ गोदवेयणा.....॥५७॥ . सुगम। ,, गोदवेयणा ॥५८॥ णामवेयणा ॥५८॥' १६ उससे...नामकर्मकी...॥५७॥ उससे...गोत्रकर्मकी...॥५७॥ " " xxx - यह सूत्र सुगम है। १७ उससे गोत्रकर्मकी ५८ उससे''नामकर्मकी॥ ५८ ॥ ३१ xxx . ..१ अ-श्रा-काप्रतिषु ५७-५८ संख्याकमिदं सूत्रद्वयं विपरीत __क्रमेणोपलभ्यते, किन्तु ताप्रतौ यथाक्रमेणेवास्ति तत् । ४१ ११ णोवरिमेसु । तेसु वि लोभादो णोवरिमेसु तिसुवि, लोभादो , १२ ४'संजलणा' 'संजलणा' २६ आगेकी कषायोंमें "होती। आगेकी तीनों ही कषायों में..... होती, क्योंकि, उनमें भी लोभसे लोभसे ३१ ३ प्रतिषु णोवरिमसुत्त सु इति पाठः ३ ताप्रतौ एत्थ लोभाणुभागो अणतगुणहीणो त्ति - अणुवदे' इति पाठः। ४१ ३२ ४ अप्रतौ-त्तादो "त्ति उत्त . ४ अप्रतौ ‘णोवरिमसुत्त'सु', श्राप्रतौ णोवरिमेसुचेसु' ४ अप्रतौ 'णोवरिमम इति पाठः । मप्रतौ-तादौ ..... इति पाठः । ४४ ७ सुततदियगाहाए तदियसुत्तगाहाए Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ४५ १८ महादण्ड महादण्डक ४६ ४ विसीहीदो विसोहीदो ४८ १ ऊणदा । वेउविय- ऊणदा । आहारसरीरादो वेउव्विय, १२ असद्दहम्भि असद्दहणम्मि १३ शंका--वैक्रियिक शंका--आहारकशरीरकी अपेक्षा वैक्रियिक विसंजोयणाणुवलंभादो चदुण्णं विसंजोयणुवलंभादो, चदुण्णं तदणुवलंभादो। तदुवलंभोदो। उनका विसंयोजन नहीं उपलब्ध उसका विसंयोजन उपलब्ध होता है, होता, ,, २१ उपलब्ध होता है उपलब्ध नहीं होता २६ २ अप्रतौ 'सब्यस्थो २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सव्वत्थो ६६ ११ देव-मणुवगई मणुव-देवगई। २७ देवगति और मनुष्यगति मनुष्यगति और देवगति ,, ३१ १ अप्रतौ १ अ-पा-काप्रतिषु ६३ ३२ xxx २ अ-काप्रत्योः 'देव-मणुवगई' इति पाटः । ६४ १ वुत्ते ए वुत्ते णिदाए ७७ ३० वर्णचतुष्क वर्णादिचतुष्क ७८ १० संखेज्जगुणा य सेडीओ संखेज्जगुणाए सेडीए , २६ १ त. सू १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'संखेजगुणा य सेडीअो', ताप्रतौ 'संखेज गुणा य सेडीए' इति पाठः । त० सू० ७६ १२ रोहे वा वावदजणाणं रोहे वावदजिणाणं १३ एदेण' गाहासुतकलावेण एदेण मुत्तकलावेण एक्कारसहा' एक्कारस' ,, . ३० ग्यारह प्रदेश ग्यारह प्रकार की प्रदेश८५ ३ संखेजगुणो [य] सेडीए । संखेजगुणाए सेडीए' १ अ-या-काप्रतिषु 'संखेजगुणो २८ सेडीए?, तापतौ 'संखेज गुणा य 'सेडीए' इति पाठः । ६२ , पयडिअणुभागो पयडी अणुभागो , ३० वग्गो 'वग्गोगंधरसे' ६४ १३ कत्थ सिद्धं कत्थ पसिद्धं ३२ xxx ३ ताप्रतिपाटोऽयम् । अ-श्रा-काप्रतिषु 'कथं सिद्धू' इति पाठः। | Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ १ .एगवियप्पो एगवियप्पो . .. ,, ६ -वग्गणओ -वग्गणाओ ६७ १६ होगा, क्योंकि होगा, सो भी नहीं है; क्योंकि ६८ ४ -अविभागवड्विच्छेदेहि' अविभागपडिच्छेदेहि ९८ १३ जिसे जिसके , २७ २ प्रतिषु २ अ-आप्रत्योः १०२ ३१ सेगा सेस १०४ १२ संदिट्ट संदिट्टीए १०६ २९ =१२४ =२२४ १०८ १० 'तदित्थ तदित्थ १३ ३७२ ३०७२ २ -बंधट्ठाणादो' -बंधढाणादो ३ तदिय तदिय' ,, ७ विसरिणाणि विसरिसाणि ८ विभागपडिच्छेदपरूएवमवणा एवमविभागपडिच्छेदपरूवणा १० -लोगट्ठाणाणि ? -लोगट्ठाणाणि । ११२ २८ णवबंटाणाणि त्ति णवबंधट्टाणाणि ( १ ) त्ति , ३० -बढि... । जपध० . -बढ़ि ''''। जयध० ११३ ११ -भावदो वत्तीए'। -भावावत्तीए च। ११७ ७ एगोलीयबहुत्तं एगोलीबहुत्तं ,, ८ तुल्लाणि" तुल्लाणि २८ भमिव भमिय २६ पारभिव पारभिय ११८ २६ एक स्पर्द्धकवृद्धि एक अंकसे कम स्पर्द्धकवृद्धि १२० ८ वड्डिमुवगत्तादो। वड्डिमुवगदत्तादो। ... १२६ ६ फद्दयंतराणि' फदयंतराणि ,, ११ ढाणंतराणि' ट्ठाणंतराणि १२७ ११ पि परूवणा पि अंतरपरूवणा , २८ भी प्ररूपणा भी अन्तरप्ररूपणा १३० ६ सुष्ट सुट्ठ १३१ ५ परिसेसयादो परिसेसियादो ,, १५ असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि १३४ ७ अविभागपडिच्छेद णं . अविभागपडिच्छेदाणं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपस्पद्धककी १३४ ३१ तथा एक प्रक्षेपस्पर्द्धककी तथा एक एक प्रक्षेपस्पर्द्धककी १३५ २० 'सब जीव ग्रहण 'सब जीव से ग्रहण १३८ ३२ 'चेट्टदि त्ति, ण श्रोकडिजमाण' 'प्रोकड्डिजमाण' १३६ ६ केवलणाणाणुक्कस्साणु- केवलणाणा- [वर-] णुकस्साणु, २६ उपकर्षण उत्कर्षण १४३ २६ जधम्य जघन्य १४५ २६ एक अविभाग एक एक अविभाग, २७ लेकर उत्तरोत्तर एक "वर्गणामें लेकर निरन्तर एक वर्गणायें १४७ २४ सौ संख्या एक आदि संख्याओं- सौसंख्यामें एक आदि संख्याएँ गर्भित हैं में गर्भित है ६॥२०४॥ ॥२०५॥ , २१ ॥२०५॥ ॥२०६॥ ,, १४ अणंतगुणवड्डिहीणाणि अणंतगुणहीणाणि ३१ अनन्तगुणवृद्धिसे हीन अनन्तगुणे हीन १५२ ७ असंखेजसमया असंखजा समया १५३ १ ठाणंतरफद्दयाणि हाणंतरफद्दयंतराणि १५५ १ एदम्हादो एगाविाग एदम्हादो पक्खेवादो एगाविभाग१५६ १७ अष्टांक और अधस्तन अष्टांकके अधस्तन १८ उपरिम सप्तांकसे व अधस्तन उपरिम प्रथम सप्तांकसे अधस्तन १६ संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि १५६ २२ कम? कम है ? १६२ ६ ॥ ॥२ ॥ १६२ ३३ अ. श्रा.प्र०५ ष. खं. पु. ५ १. ६५ . ६ पुच्छिदे पुच्छिदे उच्चदे१६६ ४ उव्वंकस्सुरिम उव्वंकस्सुवरिम,, ८ 'असंखेज दो असंखेज,, २२ करनेपर असंख्यात करनेपर दो असंख्यात४ एदं सुद्धं घेत्तूण' जहण्णहाणेसु एदं सव्वं घेत्तण' जहण्णट्ठाणस्सु १८ मिलानेपर असंख्यात- मिलानेपर प्रथम संख्यात१७१ १० ॥१०॥ ॥३॥ १२ ॥१२॥ ॥४ ॥ २७ ॥१०॥ ३० ॥११॥ ॥४॥ १७२ १२ उकस्ससंखेज्जेण पुध पुध । उकस्ससंखेओण पुव्वं पुध , १७ द्वितीय असंख्यात- . द्वितीय संख्यात " Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ १८ प्रथम असंख्यात प्रथम संख्यात, २८ फिर पृथक् पृथक् फिर पूर्वमें पृथक् १७४ ३ थला परूवणा थूलपवणं पृष्ठ १७६ के आगे १६६ से १७६ १७७ से १८४ पृष्ठ तक पढ़िये तक के स्थानमें ५ "संदिट्ठीए संदिट्टीए ६ णवखंडयाम णवखंडायाम४ एदस्स एदस्स , ११ खेत्तं पादेदूण खेत्तं [पादेदण , -खंडायाम' तच्छेदूण -खंडायामं खे] तच्छेद्ण १६३ १६ अनन्तवें भागसे अधिक अनन्तभागवृद्धि ,,,, असंख्यातवें भागसे अधिक असंख्यातभागवृद्धिका १६४ २७ असंख्यातवें भागसे अधिक असंख्यातमागवृद्धि ,,, संख्यातवें भागसे अधिक संख्यातभागवृद्धि का १६५ २१ संख्यातवें भागसे अधिक संख्यातभागवृद्धि ,, ,, संख्यातगुणा अधिक संख्यातगुणवृद्धिका , २७ संख्यातगुणा अधिक संख्यातगुणवृद्धि ,,, असंख्यातगुणा अधिक असंख्यातगुणवृद्धिका , ३१ असंख्यातगुणा अधिक असंख्यातगुणवृद्धि " , अनन्तगुणा अधिक अनन्तगुणवृद्धिका १६७ २२ जाकर संख्यात जाकर (१६+४) संख्यात२०२ १ रूवेण कंदएण' रूवेण एगकंदएण' , १६ और काण्डक और एक काण्डक १ अणुवहिभावेण' अणुवट्टिभावण' " ७-परूवणासंबद्धा त्ति ? -परूवणा णासंबद्धा वि। २१० २६ अनन्तभागवृद्धि अनन्तगुणवृद्धि २१३ २८ प्रकार न होकर प्रकार होकर २१६ १५ संख्यातवृद्धिस्थान संख्यातभागवृद्धिस्थान २१६५ कणि काणि २२२ ३३ भावविधान ११३-१४ इति पाठः। भावविधान २०४, २२६ २७ चरम त्रिचरम २९८ १८ अधस्तन अष्टांकके अधस्तन ऊर्वकके २३१ २ एगं चेव तमेगं चेव Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होति २३२ ३ अणभागसंकमे अणुभागसंकमो' २५२ ७ विसीहिट्ठाणे विसोहिट्ठाणे , १६ अनुग्रहार्थ चूर्णिसूत्र में अनुग्रहार्थ अनुभागसंक्रमको चूर्णिसूत्र में २३२ ३३ १ अाप्रतौ हदसमुप्पत्तियः इति पाठः । १ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-या-काप्रतिषु 'अणुभागसंकम इति पाठः । २३३ २१ हतसमुत्पत्तिकस्थान हतहतसमुत्पत्तिकस्थान २३५ २२ चतुरंकस्थानान्तर चतुरंकस्थान २३८ ३ पहिण्णएहि पइण्णएहि २३६ १ उप्पादिय" उप्पादिय' २४१ ११ किमहागदो किमट्ठमागदो २४२ १७ परम्परोनिधा परम्परोपनिधा २१ वृद्धिप्ररूपणा यवमध्यप्ररूपणा २४४ २६ सुत्ताह सुत्तमाह , ३१ -सुत्तामोइएण -सुत्तमोइण्णं २४५ १४ होदिं २४६ ६ जीवेहि जीवेहि २४७ १ –णुववत्तीदा -णुववत्तीदो , १४, एणेगट्ठाणम्मि एगेगट्ठाणम्मि २४८ २ चौदंचणे" चोदंचणे' , ७ विसयय विसमय., १५ भी ( ऊंचे उठे हुए समुद्र में भी) भी फेकनेपर फेकनेपर १६ कारण [कारण , १८ उदञ्चनमें....."है। (उदञ्चनमें)....."है।] २५६ ३० ही होकर ही जीव होकर , ३२ २ अप्रत्यो अ-या-काप्रतिषु २५८ १३ -परिहीणहाणादो -परिहीणद्धाणादो' २६६ ४ जवमझहेट्ठिम जवमझं हेट्ठिम२७७ १ यखंधेहि खंधेहि , २५ क्योंकि, इन्धन क्योंकि, प्राप्त इन्धन २७६ १ परिणामावेदि . . . परिणमावेदि २८१ १ णिदो... वियोयो । जणिदो वियोगो २८१ ६ उपयुक्त अवस्थाकी उपयुक्त अव्यवस्थाकी , १२ अवस्था .. अव्यवस्था Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकृतिर्वञ्चना मेय मेय २८५ ८ निकृतिवचना ,, १६ माया २८६ २३ माया २६८ २६ 'जीचड्डि ३०१ २ भणिदेण , २८ 'श्रणोगंतस्त' ,, ,, 'भीणदे, ३०६ १५ स्थापित कर..."पश्चात् 'जीववड्डि भणिदे ण, 'अणेगंतस्स्स' 'भीणदे, णः स्थापित कर १ ११ २२२ ३०६ १६ सबद्ध सम्बद्ध , २७ कंचित् कथंचित् ३१० ३१ वपअरूयव अवयवरूप ३११ ६ अनेक | एक | एक। | अनेक एक | अनेक ३१३ १७ व्यभिचारका व्यधिकरणताका , २८ व्यभिचारकी ब्यधिकरणताकी ३१४ १६ जीवाणमणेयपयडीओ जीवाणमणेयाओ पयडीओ ३१७ १२ [ एयसमयपबद्धाओ च] एयसमयपबद्धाओ च ३१६ १ उदिण्ण [उदिण्ण ] ३६२६ ४ उवसंताओ उवसंता' ३३३ १० उवसंता' उवसंताओ' . ३३८ ३ अणेयसमयपबद्धाओ अणेयसमयपबद्धा ३४३ १८ | एक एक | अनेक । | एक | एक | एका ३४४ ११ तहा' तहा " १२ वेयणाए चेव वेयणाए वे व , २७ वेदनाके ही वेदनाके दो ही ३५३ १ बज्झमाणया बज्झमाणिया उपशान्त ,, १२ यहाँ संदृष्टि में उदीर्णके आगे एक एक | अनेक उपशान्त सम्बन्धी यह अंश एक एक एक छूट गया है एक | अनेक | एक ३५४ ४ उवसंताओ उवसंता ३५५ ३० अणेयसमयपबद्धो अणेयसमयपबद्धाओ अनेक एक अनेक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ ३१ भंगा २ इति भंगा २ । (१) इति ३५६ १६ । अनेक | एक | एक । अनेक 10 ३६२ ६ उदिण्णा' फलपत्त- उदिण्ण फलपत्त३६३ १४ अपृग्भूत अपृथग्भूत ३६४ १ वयणगदि- वेयणगदि३६५ ३३ 'अद्दहिद' 'जीवपदेसेसु अहिदजलं' ३६७ १६ योग और योग है और ३७१ १२ वेयणावयणविहाणे वेयणायणविहाणे ३७३ १० -वेयणा परंपरबंधा चेव -वेयणा' परंपर बंधा चेव, ३७४ ७ -परूवयाणं' ण सद्ददो -परूवयाणं सद्ददो , १८ 'श्रत्थपरूवाणं अत्थपरूवाणं ण सदा " , 'परूवणं ण ( याणं), 'परूवणंण ( याणं ) सद्ददो ३७८ ११ चरिमसमए चरिमसमए , ३५ xxx ३ अ-का-ताप्रतिषु 'पढमसमए इति पाठः । ३८१ ३२ 'पत्त यासंखेज्जा 'पत्त यसंखेज्जा ३८७ ३३ १ अ-या-का-ताप्रतिषु 'सामियो' १ ताप्रतौ 'सामिणा' ३८६ १ उकस्सा' । दव्ववेयणा उकस्सा । दव्ववेयणा' , ३१ -काप्रतिषु उकस-ताप्रतौ उकस्स? -काप्रतिषु 'कालवेयगा उकस्सदववेयणा', ताप्रतौ 'काल वेयणा । उकरसव्ववेयणा' . " , २ अ-या-का-ताप्रतिष २ अ-पा-काप्रतिषु ३६० ७ -सत्थाणोगाहणो' -सत्थाणोगाहणा' ३६६ ३० ॥४७स ॥४७॥ ३६६ ३४ बारसमुहुत्तमेत्ता ता० प्रतौ 'बारसमुहूत्तमेत्ता ३६६ ३५ ५ उद्धत ( १, पृ० १७१०) ५ उद्धृत (१, पृ० १७१.) ४०० १ णिरवज-' णिरवज्जा' , ३३ 'गिस्वज्जा 'णिरवज्ज४०५ ३१ उत्कृष्ट द्रव्यका उत्कृष्ट स्थितिका ४०८ २८ अनन्तगुणा हीन पाया अनन्तगुणा पाया ४.६ ३२ काप्रतिषु पबंधा काप्रतिषु 'बंधगद्धा४१८ ६ -अवस्थाविसेसे -अवत्थाविसेसे , ७ घादिजमाण-'अणुभागस्स घादिजमाणअणुभागस्स ......अणुभागं ......अणुभागं' , ३२ असंख्यातण असंख्यातगुण . ३३ १ अ-या काप्रतिषु-जमाग अणुभागं १ अ-अा-काप्रतिषु 'विसोहीहि धादिजमा गअणुभार्ग' ४१६ १८ इस अजघन्य . इस जघन्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) ४२५ १४ ब्भाहया ब्भहिया ,, १८ क्षपितगुणित-घोलमान क्षपितघोलमान, गुणितघोलमान ४२६ ६ जादो तेक जादो। तेण ४३६ १-२ अजहण्णा सा अजहण्णा । सा , ३२ 'भाववेयणा जपणा . 'भाववेयणाजण्णा ' ४५२ १ पकस्सेण उकस्सेण , १० वक्कम्मियाए उक्कस्सियाए ४५४ ११ [ वंधदि] बंधंति'। , २८ उनमें एक उसमेंसेव एक , ३२ 'एगखंडे 'एगखंडे परिहाइदूण बद्धतिः ४५६ ३ सेस सेस'४५७ २३ भावके माननेपर भावके न माननेपर ४८६ २ तासं तीसं ४८८ ३४ ण ण 'णाण४६३ ३२ ष. खं. १, भा. ६, पु. ६, पं. खं. पु.६ ५०२ ७ तदवगमत्थ तदवगयत्थ,, ६ पडिसेहविणासादो। पडिसेहविहाणादो। ,, २४ क्योंकि, उन ज्ञानों रूप अर्थका क्योंकि, उसके द्वारा अवगत अर्थका , २६ प्रतिषेधका वहांपर अभाव है। प्रतिषेधका वहाँ विधान किया गया है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो ___तस्स चउत्थे वेयणाए वेदणाभावविहाणाणियोगहार । On ( वेयणभावविहाणे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति ॥ १ ॥ तत्थ भावो चउव्विहो-णामभावो ठवणभावो दव्वभावो भावभावो चेदि । तत्थ भावसद्दो णामभावो णाम । सब्भावासब्भावसरूवेण सो एसो ति अभेदेण संकप्पिदत्थो ढवणभावो णाम । दव्वभावो दुविहो-आगमदव्वभावो णोआगमदव्यभावो चेदि । तत्थ अब वेदनाभावविधान प्रारम्भ होता है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य भाव चार प्रकारका है-नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव । उनमें भाव यह शब्द नामभाव है। सद्भाव या असद्भाव स्वरूपसे 'वह यह है' इस प्रकार अभेदसे सङ्कल्पित पदार्थ स्थापनाभाव कहा जाता है। द्रव्यभाव दो प्रकारका है. आगमद्रव्यभाव और नोआगम छ. १२-१. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, १, भावपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्यभावो णाम । णोआगमदव्वभावो तिविहोजाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तणोआगमदव्वभावभेएण'। जाणुगसरीर-भवियं गदं । तव्वदिरित्तदव्यभावो दुविहो-कम्मदव्वभावो णोकम्मदव्वभावो चेदि । तत्थ कम्मदव्वभावो णाणावरणादिदव्वकम्माणं अण्णाणादिसमुप्पायणसत्ती । णोकम्मदव्वभावो दुविहोसचित्तदव्वभावो अचित्तदव्वभावो चेदि । तत्थ केवलणाण-दंसणादियो सचित्तदव्वभावो । अचित्तदव्वभावो दुविहो-मुत्तदव्वभावो अमुत्तदव्यभावो चेदि । तत्थ वण्ण-गंध-रसफासादियो मुत्तदव्वभावो । अवगाहणादियो अमुत्तदव्वभावो । भावभावो दुविहो-आगमणोआगमभावभावभेदेण' । तत्थ भावपाहुडजाणगो उवजुत्तो आगमभावभावो । [णोप्रागमभावभावो] दुविहो-तिव्व-मंदभावो णिजराभावो चेदि । तिव्व-मंददाए भावसरूवाए कधं भावभावववएसो १ ण, तिव्व-तिव्वयर-तिव्वतम-मंद-मंदयर-मंदतमादिगुणेहि भावस्स वि भावुवलंभादो । ण णिज्जराए भावभावत्तमसिद्धं, सम्मत्तुप्पत्तियादिभावभावेहि जणिदणिज्जराए उवयारेण तदविरोहादो । एत्थ कम्मभावेण पयदं, अण्णेसिं वेयणाए संबंधाभावादो। वेयणाए भावो वेयणभावो, वेयणभावस्स विहाणं परूवणं वेयणभावविहाणं । द्रव्यभाव । उनमें भावप्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यभाव कहलाता है। नोआगमद्रव्यभाव ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यभाव ज्ञात हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव दो प्रकारका है-कर्मद्रव्यभाव और नोकर्मद्रव्यभाव । उनमें ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मोकी जो अज्ञानादिको उत्पन्न करने रूप शक्ति है. वह कर्मद्रव्यभाव कही जाती है । नोकर्मद्रव्यभाव दो प्रकारका है-सचित्तद्रव्यभाव और अचित्तद्रव्यभाव । उनमें केवलज्ञान व केवलदर्शन आदि सचित्तद्रव्यभाव हैं। अचित्तद्रव्यभाव दो प्रकारका है-मूर्तद्रव्यभाव और अमूर्तद्रव्यभाव । उनमें वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श आदिक मूर्तद्रव्यभाव हैं। अवगाहनादिक अमूर्तद्रव्यभाव हैं। भावभाव दो प्रकारका है--आगमभावभाव और नोआगमभावभाव । इनमें भावप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावभाव कहा जाता है। [नोआगमभावभाव] दो प्रकारका है-तीत्र-मन्दभाव और निर्जराभाव । शङ्का-जब कि तीव्रता व मन्दता भावस्वरूप हैं तब उन्हें भावभाव नामसे कहना कैसे उचित कहा जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर और मन्दतम आदि गुणोंके द्वारा भावका भी भाव पाया जाता है। निर्जराको भी भावभावरूपता असिद्ध नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्वोत्पत्ति आदिक भावभावांसे उत्पन्न होनेवाली निजराके उपचारसे भावभाव स्वरूप होनेमें कोई विरोध नहीं आता। __यहाँ कर्मभाव प्रकृत है क्योंकि, कर्मभावको छोड़कर और दूसरों की वेदनाका यहाँ सम्बन्ध नहीं है। वेदनाका भाव वेदनाभाव, वेदनाभावका विधान अर्थात् प्ररूपणा वेदनाभावविधान १. ताप्रतौ ‘णोअागमदव्वभेएण' इति पाठः। २. अा-ताप्रत्योः ‘णोअागमभावभेएण' इति पाठः । ३. अ-श्राप्रत्योः 'भावपरूवाए', ताप्रतौ ‘भावपरूपणाए' इति पाठः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अणियोगद्दारणामणिदेसो तम्हि वेयणभावविहाणे इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । अट्ठ अणियोगद्दाराणि किण्ण परूविदाणि ? ण, सेसपंचण्णमणियोगद्दाराणमेत्थेव पवेसादो । __ संपहि वेयणभावविहाणं किमढमागयं ? वेयणदव्वविहाणे जहपणुकस्सादिभेदेण अवगददव्वपमाणाणं, खेत्तविहाणे वि जहण्णुक्कस्सादिभेदेण अबगदओगाहणपमाणाणं, कालविहाणे जहण्णुकस्सादिभेदेण अवगयकालपमाणाणमट्टण्णं कम्माणमण्णाणादिकज्जुप्पायणसत्तिवियप्पपदुप्पायणट्ठमागयं । तिण्णमणियोगद्दाराणं णामणिदेसद्वमुत्तरसुत्तं भणदि(पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुए त्ति ॥२॥ पदमिदि वुत्ते जहण्णुकस्सादिपदाणं गहणं । कुदो ? अण्णेहि एत्थ पओजणाभावादो। तेण अत्थ-ववत्थापदाणं गहणं ण होदि, भेदपदस्सेव गहणं कीरदे ( पदाणं मीमांसा परिक्खा गवेसणा पदमीमांसा । एसो पढमो अहियारो । हय-हत्थिसामित्तादिभेदेण जदि वि सामित्तं बहुप्पयारं तो वि एत्थ कम्मभावसामिचं चैव घेत्तव्वं, अण्णेहि है । उस वेदनाभावविधानमें ये तीन अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं। शङ्का-यहाँ आठ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, शेष पाँच अनुयोगद्वार इन्हींमें प्रविष्ट हैं । शङ्का-अभी वेदनाभावविधानका अवतार किसलिये हुआ है ? समाधान-वेदनाद्रव्यविधानमें जघन्य व उत्कृष्ट आदिके भेदसे जिन आठ कर्मोके द्रव्यप्रमाणको जान लिया है, क्षेत्रविधानमें भी जघन्य व उत्कृष्ट आदिके भेदोंसे जिनका अवगाहनाप्रमाण जाना जा चुका है, तथा कालविधानमें जिनका जघन्य व उत्कृष्ट आदिके भेदोंसे कालप्रमाण ज्ञात हो चुका है, उन आठ कर्मोंकी अज्ञानादि कार्योंकी उत्पादक शक्तिके विकल्पोंकी प्ररूपणा करनेके लिये वेदनाभावविधानका अवतार हुआ है। अब उक्त तीन अनुयोगद्वारोंका नाम निर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहा जाता हैपदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।। २ ॥ सूत्रमें निर्दिष्ट पदसे जघन्य व उत्कृष्ट आदि पदोंका ग्रहण किया गया है, क्योंकि, अन्य पदोंका यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिये यहाँ अर्थपद व व्यवस्थापद आदिक पदोंका में नहीं होता है, किन्तु भेदपदका ही ग्रहण किया जाता है। पदोंकी मीमांसा अर्थात परीक्षा या गवेषणाका नाम पदमीमांसा है। यह प्रथम अधिकार है। घोड़ा व हाथी आदि सम्बन्धी स्वामिस्वके भेदसे यद्यपि स्वामित्व बहुत प्रकारका है, तो भी यहाँ कर्मभावके स्वामित्वका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि और दूसरोंका यहाँ अधिकार नहीं है। यह दूसरा अनुयोगद्वार है । अल्प Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, ४. अहियाराभायादो। एदं विदियमणियोगद्दारं । अप्पाबहुगं पि जदि वि दव्वादिमेदेण अणयविहं तो वि एत्थ कम्मभावअप्पाबहुगस्सेव गहणं कायव्वं, अण्णेहि एत्थ पओजणाभावादो । एदं तदियमणियोगद्दारं । एवमेदेहि तीहि अणियोगद्दारेहि भावपरूवणं कस्सामो। पदमीमांसाए णाणावरणीयवेयणा भावदो किमुक्कस्सा किमणकस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ॥३॥ एवं देसामासियसुतं, तेण अपणसिं णवण्णं पदाणं सूचयं होदि । तेण सव्वपदसमासो तेरस होदि । तं जहा–किमुक्कस्सा किमणुकस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा किमोजा किं जुम्मा किमोमा किं विसिट्ठा किं णोमणो विसिट्ठा णाणावरणीयवेयणा त्ति । पुणो एत्थ एक्केक्कं पदमस्सिदूण बारहभंगप्पयाणि अण्णाणि तेरस पुच्छासुत्ताणि णिलीणाणि । ताणि वि एदेणेव सुत्तण सूचिदाणि होति । तदो चोदसण्णं पुच्छासुत्ताणं सव्वभंगसमासो एगूणसत्तरिसदमेत्तो त्ति बोद्धव्वो १६६ । एत्थ पढमसुत्तस्स अट्ठपरूवणटुं देसामासियभावेण उत्तरसुत्तं भणदि उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा ॥४॥ बहुत्व भी यद्यपि द्रव्यादिके भेदसे अनेक प्रकारका है तो भी यहाँ कर्मभावके अल्पबहुत्वका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, दूसरे अल्पबहुत्वोंका यहाँ प्रयोजन नहीं है। यह तृतीय अनुयोगद्वार है । इस प्रकार इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा भावप्ररूपणा करते हैं। पदमीमांसामें ज्ञानावरणीयवेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है ॥ ३ ॥ यह देशामर्शक सूत्र है, अतएव वह अन्य नौ पदोंका सूचक है । इसलिये सब पदोंका योग (४+६) तेरह होता है। वह इस प्रकार है-उक्त ज्ञानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है और क्या नोमनोविशिष्ट है । फिर इस सूत्रमें एक-एक पदका आश्रय करके बारह भङ्ग स्वरूप अन्य तेरह पृच्छासूत्र गर्भित हैं। वे भी इसी सूत्रसे सूचित हैं। इस कारण चौदह पृच्छासूत्रोंके सब भङ्गोंका जोड़ एक सौ उनहत्तर [ १३ + { १२४१३ ) = १६९] समझना चाहिये । यहाँ प्रथम सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करनेके लिये देशामर्शक रूपसे आगेका सूत्र कहते हैं उक्त ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट भी होती है, अनुत्कृष्ट भी होती है, जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है ॥ ४ ॥ १. प्रतिषु ‘एवं' इति पाठः । २. अप्रतौ 'अणेयविदं' इति पाठः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ४,] वेयगमहाहियारे वेयणभावविहाणे पदमीमांसा एत्थ णाणावरणीयसामण्णे णिरुद्धे ओजपदं णत्थि । कुदो ? फद्दएसु वग्गणासु अविभागपलिच्छेदेसु च कदजुम्मभावस्सेव उवलंभादो । कधमणादियपदस्स संभवो ? ण, णाणावरणीयभावसामण्णे णिरुद्धे अणादियत्ताविरोहादो । ण च सादियपदस्स अभावो, विसेसे अप्पिदे तस्स वि उवलंभादो । ण च धुवत्ताभावो, सामण्णप्पणाए तदुवलंभादो । ण च अधुवत्तस्स अभावो, अणुभागविसेसप्पणाए विसिडेगजीवप्पणाए च अधुवत्तदंसणादो । तदो पढमसुत्तं बारहभंगप्पयं त्ति दट्टव्वं १२ । पुणो बिदियपुच्छासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा-उक्कस्सअणभागवेयणा सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमसव्ववियप्पाणमजहण्णम्हि दंसणादो। सिया सादिया. अणुक्कस्साणुभागे द्विदस्स उक्कस्साणुभागुप्पत्तीदो। उक्कस्सपदस्स अणादित्तं णत्थि, णाणाजीवप्पणाए वि उक्कस्सपदस्स अंतरदसणादो। सिया अधुवा, उप्पण्णुकस्सपदस्स णिय मेण विणासदसणादो । उकस्सपदस्स धुवत्तं णत्थि, णाणाजीवप्पणाए वि उक्कस्सपदविणासदंसणादो। सिया जुम्मा, उक्कस्साणुभागफद्दयवग्गणाविभागपडिच्छेदेसु कदजुम्म यहाँ ज्ञानावरणीय सामान्यकी विवक्षा करनेपर ओज पद नहीं है, क्योंकि स्पर्धकों, वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंमें कृतयुग्मता ही पायी जाती है। शङ्का–यहाँ अनादि पदकी सम्भावना कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणीय भावसामान्यकी विवक्षा होनेपर उसके अनादि होनेमें कोई विरोध नहीं आता। सादि पदका भी यहाँ अभाव नहीं है, क्योंकि, विशेषकी विवक्षा करनेपर वह भी पाया जाता है । ध्रुव पदका भी अभाव नहीं है, क्योंकि, सामान्यकी मुख्यता होनेपर वह भी पाया जाता है। अध्रुव पदका भी अभाव नहीं है, क्योंकि, अनुभागविशेषकी अथवा विशिष्ट एक जीवकी विवक्षा करनेपर अध्रुवपना देखा जाता है। इस कारण प्रथम सूत्र बारह (१२) भङ्ग स्वरूप है, ऐसा समझना चाहिये। - अब द्वितीय पृच्छासूत्रका अर्थ कहा जाता है। वह इस प्रकार है--उत्कृष्ट अनुभागवेदना कथश्चित् अजघन्य है, क्योंकि, अजघन्य पदमें जघन्यसे आगेके सभी विकल्प देखे जाते हैं। कथश्चित् सादि है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट अनुभागमें स्थित जीवके उकृष्ट अनुभाग उत्पन्न होता है। उत्कृष्ट पदके अनादिता नहीं है, क्योंकि, नाना जीवोंकी विवक्षा होनेपर भी उत्कृष्ट पदका अन्तर देखा जाता है। कथञ्चित् अध्रुव है, क्योंकि, उत्पन्न हुए उत्कृष्ट पदका नियमसे विनाश देखा जाता है। उत्कृष्ट पदके ध्रुवपना नहीं है, क्योंकि, नाना जीवोंकी विवक्षा होनेपर भी उत्कृष्ट पदका विनाश देखा जाता है। कथञ्चित् युग्म है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभाग स्वरूप स्पर्धकों, वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंमें कृतयुग्म संख्या ही पायी जाती है। कथश्चित् Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७ ४ संखाए चेव उवलंभादो । सिया णोम-णोविसिट्ठा, एगवियप्पम्मि उकस्साणुभागे वढिहाणीणमभावादो । एवमुक्कस्सपदं पंचवियप्पं ५।। संपहि तदियपुच्छासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-णाणावरणीयअणकस्सवेयणा' सिया जहण्णा, उक्कस्सादो हेट्ठिमसव्ववियप्पेसु अणुक्कस्ससण्णिदेसु जहण्णस्स वि पवेसदंसणादो । सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमवियप्पेसु अजहण्णसण्णिदेसु अणुक्कस्सपदस्स वि पवेसदसणादो। सिया सादिया, अणकस्सपदविसेसं पडुच्च आदिभावदंसणादो । सिया अणादिया, अणुक्कस्ससामण्णप्पणाए आदिभावाणुवलंभादो । सिया धुवा, अणुक्कस्ससामण्णे अप्पिदे विणासाणुवलंभादो। सिया अदुवा, अणुकस्सपदविसेसे अप्पिदे सव्वअणुकस्सपदविसेसाणं विणासदसणादो। सिया जुम्मा, सव्वअणुकस्सविसेसगयअणुभागफद्दय-वग्गण-अविभागपडिच्छेदेसु कदजुम्मसंखाए उवलंभादो। सिया ओमा, कंदयघादेण अणुक्कस्सपदविसेसस्स हाणिदंसणादो। सिया विसिट्ठा, बंधेण अणुभागवड्ढदसणादो। सिया णोम-णोविसिट्टा, कत्थ वि अणुकस्सपदविसेसस्स व ड्ढहाणीणमणुवलंभादो । एवमणुक्कस्सपदं दसवियप्पं होदि १०।। संपहि चउत्थपुच्छासुत्तस्स परूवणा वुच्चदे। तं जहा-जहण्णणाणावरणीयवेयणा सिया अणुकस्सा, उक्कस्सदो हेटिभवियप्पम्मि अणुकस्ससण्णिदम्मि जहण्णस्स वि नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, एक विकल्प स्वरूप उत्कृष्ट अनुभागमें वृद्धि व हानिका अभाव है। इस प्रकार उत्कृष्टपद पाँच (५) विकल्प स्वरूप है। अब तृतीय पृच्छासूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयकी अनुत्कृष्ट वेदना कश्चित् जघन्य है, क्योंकि, उत्कृष्टसे नीचेके अनुत्कृष्ट संज्ञावाले सब विकल्पोंमें जघन्य पदका भी प्रवेश देखा जाता है। कथञ्चित् अजघन्य है, क्योंकि, जघन्यसे ऊपरके अजघन्य संज्ञावाले समस्त विकल्पोंमें अनुत्कृष्ट पदका भी प्रवेश देखा जाता है। कथश्चित् सादि है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट पदविशेषकी अपेक्षा उसके सादिता देखी जाती है। कश्चित् अनादि है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट सामान्यकी विवक्षा होनेपर सादिता नहीं पायी जाती है। कथश्चित् ध्रुव है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट सामान्यकी विवक्षा होनेपर विनाश नहीं देखा जाता है । कश्चित् अध्रुव है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट पदविशेषकी विवक्षा होनेपर सब अनुत्कृष्ट पदविशेषोंका विनाश देखा जाता है। कथञ्चित् युग्म है, क्योंकि, सब अनुत्कृष्ट विशेषोंमें रहनेवाले अनुभाग स्पर्धकों. वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंमें कृतयुग्म संख्या पायी जाती है। कथश्चित् श्रओम है, क्योंकि, काण्डकघातसे अनुत्कृष्ट पदविशेषकी हानि देखी जाती है। कथश्चित् विशिष्ट है, क्योंकि, बन्धसे अनुभागकी वृद्धि देखी जाती है। कश्चित् नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, कहींपर अनुत्कृष्ट पदविशेषकी वृद्धि व हानि नहीं पायी जाती है। इस प्रकार अनुत्कृष्ट पद दस (१०) भेद रूप है। "अब चतुर्थ पृच्छासूत्रकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-जघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथश्चित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, उत्कृष्टसे नीचेके अनुत्कृष्ट संज्ञावाले विकल्पमें जघन्य पदकी भी १ अप्रतौ 'वीयणा' इति पाठः। २. ताप्रतिपाठोऽम् । अ-अाप्रत्योः 'सव्वमणुकस्स' इति पाठः। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पदमीमांसा संभवादो। सिया सादिया, अणुक्कस्सपदादो जहण्णपदस्स उप्पत्तिदंसणादो । अणादियभावो णत्थि, सव्वकालं जहण्णपदेणेव अवडिदजीवाणुवलंभादो। सिया अधुवा, अजहण्णपदादो जहण्णपदुप्पत्तीदो। जहण्णस्स धुवभावो णत्थि, जहण्णपदे चेव सम्वकालमवद्विदजीवाणवलंभादो। सिया जुम्मा, जहण्णाणभागफद्दयवग्गणाविभागपडिच्छेदाणं कदजुम्मसंखाणमुवलंभादो। भोजपदं णत्थि । सिया णोम णोविसिट्ठा, वढिदे हाइदे च जहण्णत्ताभावादो । एवं जहण्णपदं पंचवियप्पं ५ । संपहि पंचमसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा--णाणावरणीयस्स अजहण्णवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुकस्सा; एदेसिं दोण्हं पदाणं तत्थुवलंभादो । सिया सादिया, अजहण्णपदविसेसं पडुच्च सादियत्तदंसणादो। सिया अणादिया, अजहण्णपदसामण्णं पडुच्च आदीए अभावादो । सिया धुवा, अजहण्णपदसामपणस्स तिसु वि कालेसु विणासाभावादो । सिया अधुवा, अजहण्णपदविसेसं पडुच्च विणासदंसणादो । सिया जुम्मा, अजहण्णाणुभागफद्दयवग्गणाविभागपडिच्छेदेसु कदजुम्मसंखाए चेव उवलंभादो । सिया सम्भावना है । कश्चित् सादि है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट पदसे जघन्य पदको उत्पत्ति देखी जाती है । अनादिता नहीं है, क्योंकि, सदा केवल जघन्य पदके साथ रहनेवाले जीव नहीं पाये जाते । कथञ्चित् अध्रुव है, क्योंकि, अजघन्य पदसे जघन्य पद उत्पन्न होता है। जघन्य पदके ध्रुवता नहीं है, क्योंकि, जघन्य पदमें ही सदा जीवोंका अवस्थान नहीं पाया जाता । कथञ्चित् युग्म है, क्योंकि, जघन्य अनुभाग सम्बन्धी स्पर्धकी, वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंकी कृतयुग्म संख्याएं पायी जाती हैं। ओजपद नहीं है। कथञ्चित् नोमनोविशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धि व हानिके होनेपर जघन्यपना नहीं रह सकता। इस प्रकार जघन्य पद पाँच (५) भेद स्वरूप है। अब पाँचवें सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयकी अजघन्य वेदना कथश्चित् उत्कृष्ट है और कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, उसमें ये दोनों पद पाये जाते हैं । कथश्चित् सादि है, क्योंकि, अजघन्य पदविशेषकी अपेक्षा सादिता देखी जाती है। कथञ्चित् अनादि है, क्योंकि, अजघन्य पद सामान्यकी अपेक्षा आदिका अभाव है। कथञ्चित् ध्रुव हैं, क्योंकि, अजघन्य पद सामान्यका तीनों ही कालोंमें विनाश नहीं होता । कथञ्चित् अध्रुव है, क्योंकि, अजघन्य पदविशेषकी अपेक्षा उसका विनाश देखा जाता है। कथञ्चित् युग्म है, क्योंकि, अजघन्य अनुभागके स्पर्धकों, वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंकी कृतयुग्म संख्या ही Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, ४. ओमा, हाइदे वि अजहण्णत्तदंसणादो। सिया विसिट्ठा, वढिदे वि तदुवलंभादो। सिया णोम-णोविसिट्ठा, वड्डि-हाणीहि विणा अवविदअजहण्णाणुभागदंसणादो । एवमजहण्णपदं दसवियप्पं होदि १० । संपहि छट्ठमपुच्छासुत्तं पडुच्च अत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा--णाणावरणीयस्स सादियवेयणा सिया उकस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा । सिया अणादिया, णाणाजीवावेक्खाए सादित्तणेण वि आदिभावाणुवलंभादो। सिया धुवा, णाणाजीवे पडुच्च सव्वकालेसु सादित्तदंसणादो। सिया अधुवा, सादिभावमावाणाणुभागस्स विणासदंसणादो। सिया जुम्मा, अणुभागम्मि फद्दय-वग्गणाविभागपडिच्छेदेसु तिसु वि कालेसु कदजुम्मभावस्सेव दंसणादो। सिया ओमा, हाइदे वि सादित्तदंसणादो । सिया विसिट्ठा, वड्डिदे वि तदुवलंभादो। सिया णोमणोविसिट्ठा, वड्डि-हाणीहि विणा वि तदवट्ठाणदंसणादो । एवं सादियपदमेक्कारसवियप्पं होदि ११ ।। संपहि सत्तमपुच्छासुतं पडुच्च परूवणा कीरदे। तं जहा–अणादियणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा। सिया सादिया, णाणावरणीयअणुभागविसेसं पडुच्च सादित्तदंसणादो। सिया धुवा, अणुभागपायी जाती है। कथञ्चित् ओम है, क्योंकि, हानिके होनेपर भी अजघन्यता देखी जाती है। कथनित विशिष्ट है, क्योंकि, द्धिके होनेपर भी अजघन्यता देखी जाती है। कथञ्चित नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धि व हानिके विना अजघन्य अनुभागका अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकार अजघन्य पद दस (१०) भेद स्वरूप है। अब छठे पृच्छासूत्रका आश्रय करके अर्थप्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैज्ञानावरणीयकी सादि वेदना कथञ्चित् उत्कृष्ट है, कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, कथश्चित् जघन्य है व कथञ्चित् अजघन्य है। कथञ्चित् अनादि है, क्योंकि; नाना जीवोंकी अपेक्षा सादि स्वरूपसे भी आदिभाव नहीं पाया जाता। कथञ्चिद् ध्रुव है, क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा करके सब कालमें उसकी सादिता देखी जाती है। कथञ्चित् अध्रुव है, क्योंकि, सादिताको प्राप्त अनुभागका विनाश देखा जाता है। कथश्चित् युग्म है, क्योंकि, तीनों ही कालोंमें अनुभागके स्पर्धकों, वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंमें कृतयुग्मता ही देखी जाती है । कथञ्चित् ओम है, क्योंकि, हानिके होनेपर भी सादिता पायी जाती है। कथञ्चित् विशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धिके होनेपर भी सादिता पायी जाती है। कथश्चित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धि व हानिके विना भी उसका अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकार सादिपद ग्यारह (११) भेद रूप है। अब सातवें पृच्छासूत्रकी अपेक्षा करके प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- अनादि ज्ञानाबरणवेदना कथम्वित् उत्कृष्ट है, कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है. कथञ्चित् जघन्य है व कथचित् अजघन्य है । कथश्चित् सादि है, क्योंकि, ज्ञानावरणीयके अनुभागविशेषका आश्रय करके सादिता देखी १. अप्रतौ 'छसुपुच्छासुत्त', ताप्रतौ 'छह [ सु] पुच्छासुत्त' इति पाटः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४, २,७, ४. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पदमीमांसा सामण्णस्स विणासाभावादो । सिया अधुवा, तव्विसेसं पडुच्च विणासदंसणादो । सिया जुम्मा सिया ओमा सिया विसिट्ठा सिया णोम-णोविसिट्ठा । एवमणादियपदमेकारसवियप्पं होदि ११ । __ संपहि अट्ठमपुच्छासु पडुच्च अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-धुवणाणावरणीयभाववेयणा सिया उक्कस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहपणा सिया सादिया सिया अणादिया सिया अधुवा सिया जुम्मा सिया ओमा सिया विसिट्ठा सिया णोम-णोविसिट्ठा । एवं धुवपदमेकारसविहं होदि ११ । संपहि णवमपुच्छासुचं पडुच्च अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-अधुवणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा सिया अणक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा सिया सादिया सिया अणादिया, णाणाजीवेसु अणादियसरूवेण अर्धवत्तदंसणादो । सिया धुवा, विसेसाभावेण अधुवस्स अणभागस्स सामण्णभावेण धुवत्तदंसणादो। सिया जुम्मा सिया अोमा सिया विसिट्ठा सिया णोम-णोविसिट्ठा। एवमधुवपदमेकारसवियप्पं होदि ११ । दसमपुच्छासु पडुच्च अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा–जुम्मणाणावरणीयभाववेयणा सिया उक्कस्सा [सिया अणुक्कस्सा ] सिया जहण्णा सिया अजहण्णा सिया जाती है। कथञ्चित् प्र व है, क्योंकि, अनुभागसामान्धका कभी विनाश नहीं होता। कथञ्चित् अध्रव है, क्योंकि, अनुभागविशेषकी अपेक्षा उसका विनाश देखा जाता है। कथञ्चित युग्म है, कथश्चित् ओम है, कथञ्चित् विशिष्ट है व कथञ्चित् नोम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार अनादि पद ग्यारह (११) भेद रूप है। अब आठवें पृच्छासूत्रका आश्रय करके अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- ध्रुवझानावरणीयभाववेदना कश्चित् उत्कृष्ट है, कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, कथञ्चित् जघन्य है, कथञ्चित् है. कथश्चित् सादि है, कथञ्चित् अनादि है, कथञ्चित् अध्रव है, कथश्चित् युग्म है, कथञ्चित् ओम है, कश्चित् विशिष्ट है व कथञ्चित् नोम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार ध्रुव पद ग्यारह (११) प्रकारका है। अब नौवें पृच्छासत्रका आश्रय कर अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-अध्र व ज्ञानावरणीयवेदना कथञ्चित् उत्कृष्ट है, कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, कथञ्चित् जघन्य है, कथञ्चित् अजघन्य है व कथञ्चित् सादि है । कथश्चित् अनादि है, क्योंकि, नाना जीवोंमें अनादि स्वरूपसे अध्र वता पायी जाती है। कथश्चित् ध्रुव है, क्योंकि, विशेषकी विवक्षा न होनेसे अध्रुव अनुभागकी सामान्य रूपसे ध्रुवता देखी जाती है । कथश्चित् युग्म है, कश्चित् ओम है, कथञ्चित् विशिष्ट है और कथञ्चित् नोम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार अध्रुव पद ग्यारह (११) विकल्प रूप है। - दसवें पृच्छासूत्रका आश्रय कर अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-युग्म ज्ञानावरणीयभाववेदना कथञ्चित् उत्कृष्ट है, [ कथश्चित् अनुत्कृष्ट है,] कथञ्चित् जघन्य है, कथश्चित. छ. १२-२ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१० छक्खंडागमे वेयणाखंड ४,२,७, ४.] सादिया सिया अणादिया सिया धुवा सिया अदुवा सिया ओमा सिया विसिट्ठा मिया णोम-णोविसिट्ठा । एवं जुम्मपदं एकारसवियप्पं होदि ११ । संपहि एकारसमपुच्छासुत्तस्स अत्थो णत्थि, अणुभागे ओजसंखाभावादो । संपहि वारसमसुनस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-ओमणाणावरणीयभाववेयणा सिया अणुक्कस्सा सिया अजहण्णा सिया सादिया सिया अणादिया सिया धुवा सिया अधुवा सिया जुम्मा । एवमोमपदं सचवियप्पं होदि ७।। __ संपहि तेरसमपुच्छासुत्तत्थं भणिस्सामो। तं जहा-विसिट्ठणाणावरणीयभाववेयणा सिया अणुक्कस्सा सिया अजहण्णा सिया सादिया सिया अणादिया सिया धुवा सिया अधुवा सिया जुम्मा । एवं विसिट्ठपदं सत्तवियप्पं होदि ७। संपहि चोदसमपुच्छासुत्तत्थं भणिस्सामो । तं जहा–णोम-णोविसिट्ठा णाणापरणीयभाववेयणा सिया उकस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा सिया सादिया सिया अणादिया सिया धुवा सिया अधुवा सिया जुम्मा। एवं णोमणोविसिट्ठपदं णववियप्पं होदि ९ । सवसुत्तभंगंकसंदिट्ठी-१२।।१०।।१०।११।११। ११।११।११।[1]७७।९। अजघन्य है, कथश्चित् सादि है, कथञ्चित् अनादि है, कथश्चित् ध्रुव है, कश्चित् अध्रुव है, कथञ्चित् ओम है, कथञ्चित् विशिष्ट है और कथश्चित् नोम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार युग्म पद ग्यारह (११) विकल्प रूप है। ग्यारहवें पृच्छासूत्रका अर्थ नहीं है, क्योंकि, अनुभागमें ओज संख्या सम्भव नहीं है। बारहवें पृच्छासूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-ओम ज्ञानावरणीय भाववेदना कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, कथञ्चित् अजघन्य है, कथञ्चित् सादि है, कथञ्चित् अनादि है, कचित् ध्रुव है, कथञ्चित् अध्रुव है और कश्चित् युग्म है। इस प्रकार ओम पद सात (७) विकल्प रूप है। __ अब तेरहवें पृच्छासूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-विशिष्ट ज्ञानावरणीय भाववेदना कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, कथञ्चित् अजघन्य है, कथचित् सादि है, कथञ्चित् अनादि है, कथञ्चित् ध्रुवहै , 'कथञ्चित् अध्रुव है और कथञ्चित् युग्म है। इस प्रकार विशिष्ट पद सात (७) विकल्प रूप है। अब चौदहवें पृच्छासूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-नोम-नोविशिष्ट ज्ञानावरणीय भाववेदना कथश्चित् उत्कृष्ट है, कथश्चित् अनुत्कृष्ट है, कश्चित् जघन्य है, कथश्चित् अजघन्य है, कथञ्चित् सादि है, कथञ्चित् अनादि है, कथश्चित् ध्रुव है, कथञ्चित् अध्रुव है और कथञ्चित् युग्म है। इस प्रकार नोम-नोविशिष्ट पद नौ (९) विकल्प रूप है। सब सूत्रोंके भङ्गोंके अंकों की सदृष्टि-१२+५+ १० ५+ १० + ११ + ११+११ + ११ + ११ [+] +७+ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पदमीमांसा बारस पण दस पण दस पंचेक्कारस य सत्त सत्त णवं । दुविहणयगहणलीणा पुच्छासुत्तंकसंदिट्ठी ॥१॥) बारह, पाँच, दस, पाँच, दस, पाँच स्थानोंमें ग्यारह, सात, सात और नौ, इस प्रकार दोनों नयोंकी अपेक्षा यह पृच्छासूत्रोंके अंकोंकी संदृष्टि है ॥ १॥ विशेषार्थ-वेदना भावविधानका यहाँ मुख्यतया तीन अधिकारोंके द्वारा कथन किया गया है। वे तीन अनुयोगद्वार ये हैं--पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उत्कृष्ट आदि पदोंके द्वारा वेदनाभाव विधानके विचारका नाम पदमीमांसा है। यहाँ सूत्र में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार पदोंका ही निर्देश किया है किन्तु वीरसेन स्वामीने इनसे सूचित होनेवाले नौ पद और गिनाए हैं। ये कुल तेरह पद हैं। उसमें भी इनमेंसे एक-एक पदके आश्रयसे शेष पदोंका विचार करने पर कुल १६९ पद होते हैं। यहाँ ज्ञानावरणीय भाववेदनाका विचार प्रस्तुत है। इस अपेक्षासे कुल संयोगी पद कितने होते हैं इसका कोष्ठक आगे देते हैं-- उत्कृ. अनु. जघ. अज. सादि. अना. ध्रुव अध्रु. प्रोज. युग्म. अोम | विशि. नोम. उत्कृ. X . , , x x , 1. x ix अनु. x जघ. x x x अज. " x | " " सादि. " " अना. M ध्रुव " " " " " " | " " " अध्रु. ! " " " " प्रोज. xx xx X1 xx x xx x " | " श्रोम x , x विशि. यहाँ ओज पद क्यों सम्भव नहीं हैं इस बातका विचार टीकामें किया ही है तथा शेष पद प्रत्येक और संयोगी कैसे घटित होते हैं यह बात भी टीकामें विस्तारसे बतलाई है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ७, ६,] एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५ ॥ जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा सत्तण्णं कम्माणं परूवेदव्वं । एवं पदमीमांसा त्ति अणियोगद्दारं सगंतोक्खित्तओजाहियारं समत्तं । सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥ ६ ॥ एत्थ 'पद'सद्दो ढाण8 दट्टव्वो। जहण्णपदे एगं सामित्तं विदियं उक्कस्सपदे एवं सामित्तं दुविहं । अजहण्ण-अणुक्कस्सपदसामित्तेहि सह चउविहं किण्ण भण्णदे ? ण, एत्थेव तेसिमंतभावादो। तं जहा–उक्कस्सं दुविहं, ओघुक्कस्समादेसुक्कस्सं चेदि । तत्थ संगहिदासेसवियप्पमोघुकस्सं । अप्पिदवियप्पादो अहियमादेसुक्कस्सं ।[अणुक्कस्सं] आदेसु कस्समिदि एयट्ठो। तेण'उक्कस्सं'इदि उत्ते एदेसिं दोण्णमुक्कस्साणं गहणं । जहण्णं पि दुविहं, ओघजहण्णमादेसजहण्णमिदि। जत्तो हेट्ठा अण्णो वियप्पोणत्थि तमोघजहण्णं । अप्पिदादो एगवियप्पादिणा परिहीणमादेसजहण्णं । तत्थ 'जहण्णपदं' इदि वुत्ते एदेसिं दोण्णं पि जहण्णाणं गहणं कायव्वं । तेण सामित्तं दुविहं चेव ण चउन्विहं । जत्थ जत्थ दुविहं सामित्तमिदि भणिदं मणिहिदि तत्थ तत्थ एवं चेव दुविहभावसमत्थणा कायव्वा । इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषयमें पदप्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ५ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके पदोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोके पदोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार ओज अधिकारगर्भित पदमीमांसा नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य पद विषयक और उत्कृष्ट पद विषयक ॥६॥ यहाँ पर पद शब्दका अर्थ स्थान समझना चाहिये । एक स्वामित्व जघन्य पदमें होता है और दूसरा स्वामित्व उत्कृष्ट पदमें होता है इस तरह स्वामित्व दो प्रकारका होता है। शंका--अजघन्य आर अनुत्कृष्ट पद विषयक स्वामित्वके साथ स्वामित्व चार प्रकारका क्यों नहीं कहा ? ___समाधान नहीं, क्योंकि, इन्हीं दोनोमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है। यथा--उत्कृष्ट स्वामित्व दो प्रकारका है-ओघ उत्कृष्ट और आदेश उत्कृष्ट । उनमेंसे समस्त विकल्पोंका संग्रह करनेवाला ओघ उत्कृष्ट स्वामित्व है और विवक्षित विकल्पसे अधिक आदेश उत्कृष्ट स्वामित्व है। अनुत्कृष्ट और आदेश उत्कृष्ट इन दोनोंका एक ही अर्थ है, इसी कारण 'उत्कृष्ट' ऐसा कहनेपर इन दोनों उत्कृष्टोंका ग्रहण हो जाता है। जघन्य भी दो प्रकारका है-ओघ 'जघन्य और आदेश' जघन्य । जिसके नीचे और कोई दूसरा विकल्प नहीं रहता वह ओघ जघन्य स्वामित्व है तथा विवक्षित विकल्पसे एक विकल्प आदिसे हीन आदेश जघन्य स्वामित्व है। उनमेंसे 'जघन्यपद' ऐसा कहनेपर इन दोनों ही जघन्योंका ग्रहण करना चाहिये। इसलिए स्वामित्व दो प्रकारका ही है, चार प्रकारका नहीं इसलिए जहाँजहाँ स्वामित्व दो प्रकारका कहा गया है या कहा जावेगा वहाँ-वहाँ इसी प्रकार दो भेदोंका समर्थन करना चाहिये। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४, २, ७, ७. dr महाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं १३ ] सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥ ६ ॥ 'सामित्तण' इत्ति कधमेत्थ तइया ? ण एस दोसो; लक्खणे वि तइयाविहत्तिविहाणादो | 'उक्कस्सपद' णिद्देसेण जहण्णपदपडिसेहो कदो । सेसकम्मपडिसेहट्टं 'णाणावरणी' णिसो को | दव्वादिपडिसे हफलो 'भाव' णिद्देसो । 'कस्स' इत्ति वुत्ते किं णेरइयस्स तिरिक्खस्स मणुस्सस्स देवस्स एइंदियस्स बीइंदियस्स तीइंदियस्स चउरिंदियस्स वात्ति पुच्छा कदा होदि आसंका वा । अण्णदरेण पंचिदिएण सण्णिमिच्छाइट्टिणा सव्वाहि पत्तीहि पजुत्तगदेण सागारुवजोगेण जागारेण णियमा उक्क्स्ससंकिलिट्टेण बंधल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि ॥ ७ ॥ एवं सुतमुकस्साणुभागं बंधंतयस्स लक्खणं परुवेदि । विगलिंदिया उक्कस्साभागं ण बंधंति पंचिंदिया चेव बंधंति त्ति जाणावणङ्कं 'पंचिदिएण' इत्ति भणिदं । वेदोगाणा-गदिवि से साभावपदुप्पायणङ्कं ' 'अण्णदरेण' इत्ति भणिदं । असणिपडिसेह स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट पदमें भावसे ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट वेदना किसके होती है ? ॥ ६ ॥ शंका--' सामित्तेण' इस प्रकार यहाँ तृतीया विभक्ति कैसे सम्भव है ? समाधान --- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षणमें भी तृतीया विभक्तिका विधान किया जाता है । सूत्र में उत्कष्ट पदके निर्देश द्वारा जघन्य पदका प्रतिषेध किया है। शेष कर्मोंका प्रतिषेध करने के लिये ज्ञानावरणीय पदका निर्देश किया है। भाव पदके निर्देशका फल द्रव्यादिका प्रतिषेध करना है । 'किसके होती है' ऐसा कहनेपर 'क्या नारकीके, तिर्यंचके, मनुष्यके, देवके, एकन्द्रियके, द्वीन्द्रियके, त्रीन्द्रियके अथवा चतुरिन्द्रियके होती है' ऐसी पृच्छा अथवा आशंका प्रगट की गई है । 1 अन्यतर पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिध्यादृष्टि, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त, साकार उपयोग युक्त, जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त जिस जीवके द्वारा बन्ध होता है और जिस जीवके इसका सत्व होता है ॥ ७ ॥ यह सूत्र उत्कृष्ट अनुभागको बांधनेवाले जीवका लक्षण बतलाता है । विकलेन्द्रिय उत्कृष्ट अनुभागको नहीं बांधते हैं, किन्तु पचेन्द्रिय ही बांधते हैं; इस बातके ज्ञापनार्थ सूत्रमें पंचेन्द्रिय पदका निर्देश किया है । वेद, अवगाहना एवं गति आदिकी विशेषताका अभाव बतलाने के लिये १ 'सागर आगार णिमा' इति पाठः । २ प्रतौ 'विसे साभव' इति पाठः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४ छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ७, ८.] 'सण्णि'णिद्देसो कदो । सासणादिपडिसे हफलं मिव्छाइट्ठि'णिद्देसो । अपञ्जत्तद्धाए उकस्साणुभागबंधो णत्थि, पजत्तद्धाए चेव बज्झदि त्ति जाणावणटुं 'सव्वाहि पञ्जत्तीहि पजत्तयदेण' इत्ति भणिदं । दसणोवजोगकाले उक्कस्साणुभागबंधो पत्थि णाणोवजोगकाले चेव होदि त्ति जाणावणटुं 'सागार णिद्देसो कदो। सुत्तावत्थाए उकस्साणुभागाबंधो णत्थि जाग्गंतस्सेव अत्थि त्ति जाणावणटुं 'जागार'णिदेसो कदो। मंद-मंदतर-मंदतमतिव्व-तिव्वतर-तिव्वतमभेदेण छसु संकिलेसट्टाणेसु छट्ठसंकिलेसट्टाणे सो उक्कस्साणुभागो वज्झदि त्ति जाणावणटुं 'उक्कस्ससंकिलिडेण'इत्ति भणिदं । ण च सो एयवियप्पो, आदेसुक्कस्सओघुक्कस्साणं दोण्णं पि गहणादो। 'णियमा सद्दो जेण मज्झदीवओ तेण णियमा पंचिंदियेण णियमा सण्णिमिच्छाइट्ठिणा णियमा सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदेण णियमा सागारुवजोगेण णियमा जागारेण णियमा उक्कस्ससंकिलिट्ठण इत्ति वत्तव्वं । एवंविहेण जीवेण बद्धल्लयमुक्कस्साणुभागं जस्स तं संतकम्ममात्थ तस्से ति वुत्तं होदि । तं संतकम्ममेदस्स होदि त्ति जाणावण मुत्तरसुत्तमागदं तं एइंदियस्स वा बीइंदियस्स वा तीइंदियस्स वा चउरिदियस्स वा पंचिंदियस्स वा सण्णिस्स वा असण्णिस्स वा बादरस्स वा सुहुमस्स 'अन्यतर' पद दिया है । असंज्ञीका प्रतिषेध करनेके लिये 'संज्ञी' पदका निर्देश किया है। सासादन आदिका प्रतिषेध करनेके लिए 'मिथ्यादृष्टि' पदका ग्रहण किया है । अपर्याप्त कालमें उत्कृष्ट अनुभगका बन्ध नहीं होता, किन्तु पर्याप्त काल में ही उसका बन्ध होता है: इस बातके ज्ञापनार्थ 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त' ऐसा कहा है। दर्शनोपयो कालमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, किन्तु ज्ञानोपयोगके कालमें ही होता है; यह बतलानेके लिये 'साकार' पदका निर्देश किया है। सुप्त अवस्थामें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, किन्तु जागृत अवस्थामें ही होता है; यह बतलानेके लिये 'जागार' पदका निर्देश किया है । मन्द, मन्दतर, मन्दतम, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतमके भेदसे छह संक्लेशस्थानोंमेंसे छठे संक्लेशस्थानमें वह उत्कृष्ट अनुभाग बँधता है; यह बतलानेके लिये 'उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त' ऐसा कहा गया है। वह एक प्रकारका नहीं है, क्योंकि यहाँ आदेश उत्कृष्ट और ओघ उत्कृष्ट इन दोनोंका हौ ग्रहण है। सूत्रमें आया हुआ 'णियमा' पद चूंकि मध्य दीपक है अतः “नियमसे पंचेन्द्रिय, नियमसे संज्ञी एवं मिथ्यादृष्टि, नियमसे सब पर्याप्तियोंद्वारा पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त, नियमसे साकार उपयोगसे संयुक्त, नियमसे जागृत, तथा नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त” ऐसा कहना चाहिये । उपर्युक्त विशेषणोंसे संयुक्त जीवके द्वारा बाँधे गये उत्कृष्ट अनुभागका सत्व जिस जीवके होता है उसके ज्ञानावरणीयवेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है यह उक्त कथनका अभिप्राय है उसका सत्त्व इसके होता है, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र आया है उसका सत्त्व एकेन्द्रिय, अथवा द्वीन्द्रिय, अथवा त्रीन्द्रिय, अथवा चतुरिन्द्रिय, अथवा पश्चेन्द्रिय, अथवा संज्ञी, अथवा असंज्ञी, अथवा बादर, अथवा सूक्ष्म, अथवा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४, २, ७, ६. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं वा पजत्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा अण्णदरस्स जीवस्स अण्णदवियाए गदीए वट्टमाणयस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा ॥ ८ ॥ तं संतकम्मं होदूण एइंदियादिएसु अपजत्तवसाणेसु लब्भदि । कधमण्णत्थ बद्धस्स उक्कस्साणुभागस्स अण्णत्थ संभवो ? ण एस दोसो; उक्कस्साणु मागं बंधिदूण तस्स कंडयधादमकाऊण अंतोमुहुत्तेण कालेण एइंदियादिसु उप्पण्णाणं जीवाणं उकस्साणुभागसंतोक्लंभादो। एवमेदेसु अवत्थाविसेसेसु वट्टमाणस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा होदि ति घेत्तव्वं । एत्थ उपसंहारो किमिदि ण वुच्चदे ? ण एस दोसो; ठाणफद्दय-वग्गणाविभागपडिच्छेदेसु अणिवुणस्स अंतेवासिस्स उवसंघारे' भण्णमाणे वामोहो मा होहिदि' त्ति कट्ट तप्परूवणाए अकरणादो। तव्वदिरित्तमणुकस्सा ॥ ६ ॥ तत्तो उक्कस्साणुभागादो वदिरित्तं तव्वदिरितं, सा अणुक्कस्सा भाववेयणा । एत्थ अणुक्कस्सट्ठाणाणं पुध पुध परूवणा किण्ण कीरदे ? ण, उवरिमअणुभागचूलियाए अणु पर्याप्त, अथवा अपर्याप्त अन्यतर जीवके अन्यतम गतिमें विद्यमान होनेपर होता है; अतएव उक्त जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥८॥ वह सत्कर्म सूत्रमें कही गई एकेन्द्रियसे लेकर अपर्याप्त अवस्थातक सब अवस्थाविशेषों में पाया जाता है। शङ्का-अन्यत्र बांधे गये उत्कृष्ट अनुभागकी दूसरी जगह सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर उसका काण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर एकेन्द्रियादिकोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व पाया जाता है। इसप्रकार इन अवस्थाविशेषोंमें वर्तमान जीवके ज्ञानावरणीयवेदना भावले उत्कृष्ट होती है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । शङ्का-यहाँ उपसंहारका कथन क्यों नहीं करते ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो शिष्य स्थान, स्पर्धक, वर्गणा और अविभागप्रतिच्छेदके विषयमें निपुण नहीं है उसे उपसंहारका कथन करनेपर व्यामोह न हो; इस कारण यहाँ उपसंहारका कथन नहीं किया है। उससे भिन्न अनुत्कृष्ट भाव वेदना होती है ॥ ॥ उससे अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागसे भिन्न जो वेदना है वह तद्वयतिरिक्त कहलाती है और वह अनुत्कृष्ट भाववेदना है। . शङ्का-यहाँ अनुत्कृष्ट स्थानोंकी पृथक् पृथक् प्ररूपणा क्यों नहीं करते ? समाधान नहीं, क्योंकि, आगे अनुभागचूलिकामें अनुभागस्थानोंका कथन करेंगे ही फिर १ अप्रतौ 'उवसंघादे' इति पाठः । २ प्रतिषु 'होहदि' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'भागोदो' इति याठः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] ariडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, १२. भागट्टाणपरूवणं भणिहिदि एत्थ वि तप्परूवणे कीरमाणे पुणरुत्तदोसो होदि ति तदकरणादो । एवं दंसणावरणीय मोहणीय अंतराइयाणं ॥ १० ॥ जहा णाणावरणीय अणुभागस्स उक्कस्साकस्सपरूवणा कदा तहा सेसाणं तिष्णं घादिकम्माणमुकस्साकस्स अणुभाग परूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो । सामित्तेण उकस्सपदे वेयणीयवेयणा 'भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥। ११ ॥ सुगममेदं । अण्णदरेण खवगेण सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदेण चरिमसमयबद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि ॥ १२ ॥ वेदोगाहणादिविसेसाभावपदुप्पायणङ्कं 'अण्णदरेण' इति भणिदं । अक्खवगपडिसेह 'खवगेण' इति णिङ्किं । 'मुहुमसां पराइय सुद्धिसंजदेण' इति णिद्देसो से सखवगपडिसेहफलो | दुरिमादिसमएस बद्धाणुभागपडिसेहवं 'चरिमसमयबद्धल्लयं 'ति भणिदं । एदेण सुत्तेण चरिमसमय सुहुमसांपराइय सुद्धिसंजदो उकस्साणुभागसामी होदित्ति जाणाविदं । भी यहाँ उनका कथन करनेपर चूँकि पुनरुक्त दोष होता है, अतः उनका कथन नहीं किया है । इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायके विषय में प्ररूपण करनी चाहिये ।। १० ।। जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके स्वामीको प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष तीन घातियाँ कर्मोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है । स्वामित्व से उत्कृष्ट पदमें वेदनीयवेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ ११ ॥ यह सूत्र सुगम है । अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत जिस जीवके द्वारा अन्तिम समय में बन्ध होता है और जिस जीवके इसका सत्व होता है ॥ १२ ॥ वेद व अवगाहना आदिकी कोई विशेषता विवक्षित नहीं है यह बतलानेके लिये सूत्र में 'अन्यतर' पद कहा है । अक्षपकका प्रतिषेध करनेके लिये 'क्षपक' पदका निर्देश किया है। 'सूक्ष्मसाम्पराकिशुद्धिसंयत' के निर्देशका प्रयोजन शेष क्षपकोंका प्रतिषेध करना है । द्विचरम था दक समयों में बांधे गये अनुभागका प्रतिषेध करनेके लिये 'चरिम समय में बाँधा गया' ऐसा कहा है। इस सूत्र के द्वारा अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है, यह १ प्रतिषु 'भावादो' इति पाठः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १४.1 वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं ण केवलमेसो चेव उक्कस्साणुभागसामी होदि, किंतु जस्स तं संतकम्ममत्थि सो वि सामी होदि । तं संतकम्मं कस्स होदि त्ति वुत्ते एदेसु होदि त्ति जाणावणटुं उत्तरसुत्तं भणदि तं खीणकसायवीदरागछदुमत्थस्स वा सजोगिकेवलिस्स वा तस्स वेयणा भावदो उक्कस्सा ॥ १४॥ सादावेदणीयउकस्साणुभागं बंधिय खीणकसाय-सजोगि-अजोगिगुणहाणाणि उवगयस्स वेयणीय उकस्साणुभागो एदेसु गुणट्ठाणेसु लब्भदि । सुत्तम्हि अजोगिणिदेसेण विणा कधमजोगिम्हि उक्कस्साणुभागो होदि त्ति लब्भदे ?ण विदिय'वा'सद्देण तदुवलद्धी, 'पंचिंदियस्स वा' इच्चेवमाईसु द्विद 'वा'सद्दो व्व वृत्तसमुच्चए तस्स पवुत्तीदो त्ति ?' होदु' तत्थतण'वा'सद्दाणं समुच्चए पवुत्ती, तत्थ अण्णत्थाभावादो। एत्थतणो पुण विदिय'वा' सदो अवुत्तसमुच्चए वट्टदे, पढम'वा'सद्देणेव वुत्तसमुच्चयत्थसिद्धीदो । तदो विदिय'वा'सद्दो अजोगिग्गहणणिमित्तो त्ति घेत्तव्यो । अधवा, होदु णाम बिदिय वा सद्दो वि वुत्तसमुच्चयहो। अजोगिस्स कथं पुण गहणं होदि ? अत्थावत्तीदो।तं जहा-खीणकसाय-सजोगिप्रगट किया गया है। केवल यही जीव उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है, यह बात नहीं है; किन्तु जिस जीवके उसका सत्त्व रहता है वह भी उसका स्वामी होता है। उसका सत्त्व किसके होता है, ऐसा पूछनेपर इन जीवोंके उसका सत्त्व होता है; यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं उसका सत्त्व क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थके होता है अथवा सयोगिकेवलीके होता है, अतएव उनके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १४ ॥ सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके इन गुणस्थानोंमें वेदनीयका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। शङ्का-सूत्रमें अयोगी पदका निर्देश किये बिना अयोगिकेवली गुणस्थानमें उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह कैसे जाना जाता है ? द्वितीय वा शब्दसे उसका परिज्ञान होता है, यह भी यहाँ नहीं कहा जा सकता है, कारण कि 'पंचिंदियस्स वा' इत्यादिर्को में स्थित वा शब्दके समान द्वितीय वा शब्द उक्त अर्थके समुच्चयमें प्रवृत्त है ? समाधान -पंचिंदियस्स वा' इत्यादिकोंमें स्थित वा शब्दोंकी प्रवृत्ति उक्त अर्थके समुच्चयमें भले ही हो, क्योंकि, वहाँ उनका दूसरा अर्थ नहीं है। किन्तु यहाँ स्थित द्वितीय 'वा' शब्द अनुक्त अर्थके समुच्चयमें प्रवृत्त है, क्योंकि, उक्त समुच्चयरूप अर्थकी सिद्धि प्रथम वा शब्दसे ही हो जाती है। अतएव द्वितीय वा शब्दको अयोगिकेवलीका ग्रहण करनेके निमित्त समझना चाहिये। __ अथवा, द्वितीय वा शब्द भी उक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिये है। तो फिर अयोगिकेबलीका ग्रहण कैसे होता है ऐसा पूछनेपर कहते हैं कि उसका ग्रहण अर्थपत्तिसे होता है । १. प्रतिषु 'होदि' इति पाठः। छ. १२-३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १५ गहणं सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्धादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागधादो णत्थि त्ति जाणावेदि । खीणकसाय-सजोगीसु हिदि-अणुभागघादेसु संतेसु' वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्ध अजोगिम्हि द्विदि-अणुभागवजिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं । सुहुमखवगउक्कस्साणु भाग-द्विदिबंधो पारसमुहुत्तमेत्तो, सो कधं सजोगि-अजोगीसु लब्भदे ? ण च बारसमुहुत्तमंतरे तदुभयगुणट्ठाणमुवगदाणमुवलब्भदे परदो जोवलब्मदि त्ति वोत्तु जुत्तं, वेयणीयखेत्तवेयणाए उक्कस्सियाए संतीए तस्सेव भावो णियमेण उक्कस्सो त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहादो ? ण, पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तहिदीसु द्विदपदेसाणं बंधाणुभागसरूवेण परिणदाणं थोवाणमुवलंभादो । कुदो गव्वदे ? 'बंधे उक्कड्डदि' त्ति वयणादो। तव्वदिरित्तमणुकस्सा ॥ १५ ॥ सुमगं । एवं णामा-गोदाणं ॥ १६ ॥ यथा-सूत्रमें क्षीणकषाय और सयोगिकेवलीका ग्रहण यह प्रकट करता है कि शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोधसे नहीं होता। क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानोंमें स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतयोंके अनुभागका घात वहा नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर स्थिति व अनुभागसे रहित अयागी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है। शङ्का-सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके उत्कृष्ट अनुभाग व स्थितिका बन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है, वह सयोगी और अयोगीके भला कैसे पाया जा सकता है। यदि कहा मुहूर्तों के भीतर ही उन दोनों गुणस्थानोंको प्राप्त हुए जीवोंके वह पाया जाता है, आगे नहीं पाया जाता; सो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, “वेदनीयक्षेत्रवेदनाके उत्कृष्ट होनेपर उसीके उसका भाव भी नियमसे उत्कृष्ट होता है" इस सूत्रके साथ विरोध हागा ? समाधान नहीं, क्योंकि बांधे गये अनुभाग स्वरूपसे परिणत पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितियों में स्थित प्रदेश थोड़े पाये जाते हैं। शङ्का-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह 'बंधे उक्कडुदि' इस वचनसे जाना जाता है। उससे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना है ॥ १५ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार नाम व गोत्र कर्मके विषयमें भी कहना चाहिये ॥ १६ ॥ १. प्रतिषु 'संतेसु विहाणं' इति पाठः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १८.] वे यणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं [१९ __ जसकित्ति-उच्चागोदाणं सुहुमसांपराइयखवगचरिमसमए उक्कस्सबंधुवलंभादो । जहा घादिकम्माणं मिच्छाइट्टिम्हि उक्कट्ठसंकिलिट्ठम्मि उक्कस्साणुभागसामित्तं दिण्णं तहा एदासिं किण्ण दिञ्जदे ? ण, तत्थतण उकस्मसंकिलेसेण सुहपयडीणं बंधाभावादो तत्थतणअसुहपयडिअणुभागसंतकम्मादो वि चरिमसमयसुहुमसांपराइयेण बद्धसुहपयडीणमुक्कस्साणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। सामित्तेण उकस्सपदे आउववेयणा भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥१७॥ सुगमं । अण्णदरेण अप्पमत्तसंजदेण सागारजागारतप्पाओग्गविसुद्धण बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि ॥ १८ ॥ _ओगाहणादीहि भेदाभावपदुप्पायणटुं'अण्णदरेण'इत्ति भणिदं । अप्पमत्तम्मि चेव उकस्साणुभागबंधो पमत्तम्मि ण होदि त्ति जाणावण8 'अप्पमत्तसंजदेण'इत्ति भणिदं । दसणोवजोगसुत्तावत्थासु उक्कस्साणुभागबंधो णस्थि त्ति जाणावणहूँ 'सागार-जागार'णि कारण कि यश कीर्ति और उच्चगोत्रका सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट बन्ध उपलब्ध होता है। शङ्का-जिस प्रकार उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त मिथ्यादृष्टि जीवके घातिया कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व दिया गया है उसी प्रकार इनका क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि एक तो मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा शुभ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। दूसरे वहाँ के अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागसत्त्वको अपेक्षा भी अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्यरायिकके द्वारा बांधा गया शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है, इसलिए उन उत्कृष्ट अनुभागकास्वामित्व मिथ्यात्व गुणस्थानमें नहीं दिया गया है। स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ १७॥ यह सूत्र सुगम है। साकार उपयोग युक्त, जागृत और उसके योग्य विशुद्धियुक्त अन्यतर जिस अप्रमत्तसंयतके द्वारा आयुकर्मका बन्ध होता है और जिसके इसका सत्त्व होता है ॥१८॥ __ अवगाहना आदिसे होनेवाली विशेषताका अभाव बतलानेके लिये सत्रमें 'अन्यतर' पद कहा है। अप्रमत्त गुणस्थानमें ही उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, प्रमत्त गुणस्थानमें वह नहीं होता; यह जतलानेके लिये 'अप्रमत्त संयतके द्वारा ऐसा कहा है। दर्शनोपयोग व सुप्त अवस्थाओंमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, यह बतलानेके लिये 'साकार उपयोग सहित व Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, १६. सो को | अविसोहीए अइसंकिलेसेण च आउअस्स बंधो' णत्थि त्ति जाणावण 'तप्पा ओग्गविसुद्वेण' इत्ति भणिदं । जेण बद्धो' आउअस्स उक्कस्साणुभागो सो उक्कस्साभागस्स सामी होदित्ति जाणावणङ्कं 'बद्धल्लयं' इदि भणिदं । विदियादिसमएस बंधविरहिदे उकसाभागो किं होदि ण होदि चि पुच्छिदे जस्स तं संतकम्ममत्थि सोब उकस्साणुभाग सामी होदि त्ति भणिदं । तं संतकम्मं कस्स अस्थि ति पुच्छिदे इमस्सत्थि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुतं भणदि तं संजदस्स वा अणुत्तरविमाणवासियदेवस्स वा । तस्स आउववेणा भावदो उक्कस्सा ॥ १६ ॥ 'तं संजदस्सवा' इदि वृत्ते अपुव्व-अणियट्टि सुहुमउवसामगाणं उवसंत्तकसायाणं पमत्त संजदाणं च गहणं । कथं पमत्तसंजदेसु उक्कस्सारणुभागसत्तुवलद्धी ? ण एस दोसो, आउअस्स उकस्साणुभागं बंधिण पमत्तगुणं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो । संजदासंजदादिट्ठमगुणट्ठाणजीवा उकस्साणुभागसामिणो किण्ण होंति ? ण, उक्कस्सा भागेण सह जागृत' ऐसा निर्देश किया है । अत्यन्त विशुद्धि एवं अत्यन्त संक्लेशसे आयुका बन्ध नहीं होता, यह जतलाने के लिये 'उसके योग्य विशुद्धिसे संयुक्त' यह कहा है। जिसने आयुके उत्कृष्ट अनुभागको बांधा है वह उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है, यह बतलाने के लिये 'बद्धल्लयं' ऐसा सूत्रमें निर्देश किया है । बन्धसे रहित द्वितीयादिक समयोंमें क्या उत्कृष्ट अनुभाग होता है या नहीं होता ऐसा पूछने पर जिसके उसका सत्त्व है वह भी उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है यह कहा है । उसका सत्त्व किसके होता है, ऐसा पूछनेपर अमुक जीवके उसका सत्त्व होता है, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- उसका सच संयतके होता है अनुत्तरविमानवासी देवके होता है अतएव उसके आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १९ ॥ 'वह संयतके होता है' ऐसा कहनेपर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्यरायिक उपशामकोंका तथा उपसान्तकषाय व प्रमत्तसंयतोंका ग्रहण किया गया है । शंका - प्रमत्तसंयतों में उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व कैसे पाया जाता है ? सामाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आयुके उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके उसका सत्त्व पाया जाता है । शंका -- संयतासंयतादिक नीचेके गुणस्थानों में स्थित जीव उत्कृष्ट अनुभागके स्वामी क्यों नहीं होते ? १ प्रतौ 'बंधो' इति पाठः । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१ ४, २, ७, २०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं आउवबंधे संजदासंजदादिहेहिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो। उक्कस्साणुभागं बंधिय ओवट्टणाघादेण धादिय पुणो हेट्ठिमगुणट्ठाणाणि पडिवएणे संते उकस्साणुभागे सामित्तं किण्ण होदि ति वुत्ते ण, धादिदस्स अणुभागउ कस्सत्तविरोहादो। उकस्साणुभागे बंधे ओवट्टणाघादो णत्थि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, उकस्साउअंबंधिय पुणो तं धादिय मिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबंधे आउअउक्कस्साणुभागंतरस्स उवड्डपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो वा। अणुद्दिसादिहेट्ठिमदेवेसु पडिबद्धाउए बज्झमाणे उक्कस्साणुभागबंधो ण होदि त्ति जाणावणटुं'अणुत्तरविमाणवासियदेवस्स' इत्ति भणिदं । उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउअं वंधिय अणुभागं मोत्तण हिदीए चेव ओवट्टणाघादं कादण सोधम्मादिसु उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे ? ण, विणा आउअस्स उक्कस्सट्टिदिघादाभावादो । तव्वदिरित्तमणुकस्सा ॥ २० ॥ सुगममेदं । समाधान-नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागके साथ आयुको बांधनेपर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं होता। शंका--उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर उसे अपवर्तनाघातके द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी क्यों नहीं होता ? समाधान--नहीं, क्योंकि घातित अनुभागके उत्कृप्ट होनेका विरोध है। उस्कृष्ट अनुभागको बांधनेपर उसका अपवर्तनाघात नहीं होता, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर एक तो उत्कृष्ट आयुको बांधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो अग्निकुमार देवोंमें उत्पन्न हुए द्वीपायन मुनिके साथ व्यभिचार आता है, दूसरे इसका घात माने विना महाबन्धमें प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभागका दल प्रमाण अन्तर भी नहीं बन सकता। अनुदिश आदि नीचेके देवों से सम्बन्ध रखनेवालो आयुको बांधते हुए उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, यह बतलानेके लिये 'अनुत्तरविमानवासी देवके' यह कहा गया है। शंका--उत्कृष्ट अनुभागके साथ तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बांधकर अनुभागको छोड़ केवल स्थितिके अपवर्तनाघातको करके सौधर्मादि देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व क्यों नहीं पाया जाता है? समाधान--नहीं, क्योंकि, [अनुभागघातके ] विना आयुकी उत्कृष्ट स्थितिका घात सम्भव नहीं है। उससे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना है ॥ २० ॥ यह सूत्र सुगम है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१. सामित्तेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेयणा भावदो जहण्णिया कस्स ? ॥ २१ ॥ सुगममेदं । अण्णदरस्स खवगस्स चरिमसमयछदुमत्थस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो जहण्णा ॥ २२ ॥ ओगाहणादिविसेसेहि भेदाभावपदुप्पायणटुं'अण्णदरस्स' इत्ति भणिदं । अक्खवगपडिसेहफलो'खवग'णिदेसो।खीणकसायदुचरिमसमयप्पहुडिहेट्ठिमखवगपडिसेहफलो 'चरिमसमयछदुमत्थस्स' इत्ति णिद्देसो। चरिमसमयसुहुमसापराइयजहण्णाणुभागबंधं घेत्तूण जहण्णसामि तत्थ किण्ण परूविदं ? ण, जहण्णाणुभागबंधादो तत्थतणसंताणभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। खीणकसायचरिमसमए वि चिराणाणभागसंतकम्मं चेव घेत्तण जेण जहण्णं दिण्णं तेण खीणकसायपढमसमए जहण्णसामित्तं दिज्जदु, चिराणाणुभागसंतकम्मत्तं पडि भेदाभावादो ति? ण एस दोसो, अणुसमओवट्टणाघादेण स्वामित्वसे जघन्य पदमें ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ २१ ॥ यह सूत्र सुगम है। अन्यतर क्षपक अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ २२ ॥ अवगाहनादिक विशेषोंसे उत्पन्न विशेषताकी अविवक्षा बतलाने के लिये 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है। क्षपक पदके निर्देशका प्रयोजन अक्षपकोंका प्रतिषेध करना है। क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयवर्ती आदि अधस्तन क्षपकोंका निषेध करने के लिये 'अन्तिम समयवर्ती छन्मस्थके' ऐसा निर्देश किया है। शङ्का अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके जघन्य अनुभागबन्धको ग्रहणकर वहाँ जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया ? समाधान नहीं, क्योंकि, जघन्य अनुभाग बन्धकी अपेक्षा वहाँ अनुभागका सत्त्व अनन्तगुणा पाया जाता है। शङ्का-क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें भी चूँकि चिरन्तन अनुभागके सत्त्वको लेकर ही जघन्य स्वामित्व दिया गया है अतएव क्षीणकषायके प्रथम समयमें भी जघन्य स्वामित्व दिया जाना चाहिये था, क्योंकि, चिरन्तन अनुभागके सत्त्वकी अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है,क्योंकि, प्रत्येक समयमें होनेवाले अपवर्तनाघातके द्वारा प्रति १ अप्रतौ 'अोगाहणणादिविसेसोहि' इति पाठः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं [२३ अणुसमयमणंतगुणहीणं होदूण खीणकसायचरिमसमयपत्ताणुभागादो तस्सेव पढमसमयअणुभागस्स अणंतगुणदंसणादो । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥२३॥ • सुगममेदं। एवं दंसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥ २४ ॥ घादिकम्मत्तणेण अणुसमओवट्टणाए घादं पाविदूण खीणकसायचरिमसमए विणद्वत्तणेण भेदाभावादो। सामित्तण जहण्णपदे वेयणीयवेयणा भावदो जहणिया कस्स ? ॥ २५ ॥ सुगमं । अण्णदरखवगस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स असादावेदणीयस्स वेदयमाणस्स तस्स वेयणीयवेयणा भावदो जहण्णा ॥ २६ ॥ ओगाहणादीहि विसेसाभावपदुप्पायणफलो 'अण्णदग्स्स' इत्ति णिद्देसो। अक्खवगपडिसेहफलो'खवगणिदेमो । दुचरिमभवसिद्धियादिपडिसेहफलो 'चरिमसमयभवसिद्धियस्स' समय अनन्त गुणाहीन होकर क्षीणकषायके अन्तिम समयको प्राप्त हुए अनुभागकी अपेक्षा उसी गुणस्थानके प्रथम समयका अनुभाग अनन्तगुणा देखा जाता है। उससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ॥ २३ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय और अन्तरायकी जघन्य और अजघन्य वेदना का कथन करना चाहिये ॥ २४ ॥ कारण कि एक तो ये दोनों घातिकर्म होनेसे ज्ञानावरण की अपेक्षा इनमें कोई विशेषता नहीं है दूसरे प्रत्येक समयमें होनेवाले अपवर्तनाघात के द्वारा घात होकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें विनष्ट हुए अनुभागकी अपेक्षा ज्ञानावरणसे इनमें कोई विशेषता नहीं है । स्वामित्वसे जघन्य पदमें वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ २५ ॥ यह सूत्र सुगम है। असातावेदनीयका वेदन करनेवाले अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिक अन्यतर क्षपकके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ २६ ॥ अवगाहना आदिसे होनेवाली विशेषता यहाँ विवक्षित नहीं यह बतलानेके लिये सूत्रमें 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है। क्षपकके निर्देशका फल अक्षपकका प्रतिषेध करना है । अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिक कहनेका प्रयोजन द्विचरम समयवर्ती आदि भवसिद्धिकोंका प्रतिषेध करना है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २ इत्ति णि(सो। भवसिद्धियदुचरिमसमए जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ चरमसमयसुहमसांपराइएण बद्धसादावेयणीयउकस्साणुभागसंतकम्मस्स अत्थित्तदसणादो । 'असादवेदगस्स' इत्ति विसेसणं किमद्वं कीरदे ? सादं वेदयमाणस्स दुचरिमसमए उदयाभावेण विणासिदअसादस्स सादुक्कस्सं धरेमाणचरिमसमयभवसिद्धियस्स वेदणीयजहण्णसामित्तविरोहादो। असादं वेदयमाणस्स पुण वेयणीयाणुभागो जहण्णो होदि, उदयाभावेण भवसिद्धियद्चरिसमए विणसादाणभागसंतत्तादो खवगसेडीए बहुसो घादं पत्तअणभागसहिदअसादावेदणीयस्स चेव भवसिद्धियचरिमसमयदंसणादो । असादं वेदयमाणस्स सजोगिभगवंतस्स भुक्खा-तिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिजमाणस्स कधं ण भुत्ती होज ? ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतहाए समोहस्स मरणभएण भुजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलितविरोहादो । संकिलेसाविणाभाविणीए भुक्खाए दज्झमाणस्स वि केवलितं जुज्जदि त्ति समाणो दोसो ति ण पञ्चवटेयं, सगसहायघादिकम्माभावेण णिस्सत्तित्तमावण्णअसादावेदणीयउदयादो भुक्खा-तिसाणमणुप्पत्तीए । णिप्फलस्स पर शंका-द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उसके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक द्वारा बांधे गये सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व देखा जाता है । शंका-'असातावेदनीयका वेदन करनेवालेके' यह विशेषण किसलिये किया जारहा है ? समाधान-[ नहीं, क्योंकि ] जो सातावेदनीयका वेदन कर रहा है और जिसने द्विचरम समयमें उदयाभाव होनेसे असातावेदनीयका नाश कर दिया है उस सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागको धारण करनेवाले अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिकके वेदनीयका जघन्य स्वामित्व मानने में विरोध आता है। परन्तु असाताका वेदन करनेवालेके वेदनीयका अनुभाग जघन्य होता है, क्योंकि एक तो उदयाभाव होनेके कारण भवसिद्धिकके द्विचरम समयमें सातावेदनीयके अनुभाग सत्त्वका विनाश हो जाता है और दूसरे क्षपकश्रेणिमें बहुत बार घातको प्राप्त हुए अनुभाग सहित असातावेदनीयका ही भवसिद्धिकके अन्तिम समयमें सत्त्व देखा जाता है । शंका-असातावेदनीयका वेदन करनेवाले तथा क्षुधा तृषा आदि ग्यारह परीषहों द्वारा बाधाको प्राप्त हुए ऐसे सयोगिकेवली भगवानके भोजनका ग्रहण कैसे नहीं होगा? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन-पानमें उत्पन्न हुई इच्छासे मोहयुक्त है तथा मरणके भयसे जो भोजन करता है, अतएव परीषहोंसे जो पराजित हुआ है ऐसे जीवके केवली होनेका विरोध है । संक्लेशके साथ अविनाभाव रखनेवाली क्षुधासे जलनेवालेके भी केवलीपना बन जाता है, इस प्रकार यह दोष समान ही है; ऐसा भी समाधान नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अपने सहायक घातिया कर्माका अभाव हो जानेसे अशक्तताको प्राप्त हुए असातावेदनीयके उदयसे क्षुधा. व तृषाकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। आन्तम समयवर्ती भव कर दिया है उस सातार जिसने द्विचरम पराध आता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २,७, २६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं [२५ माणपुंजस्स समयं पडि परिसदंतस्स कधं उदयववएसो ? ण, जीव-कम्मविवेगमेसफलं दट्टण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अस्थि ति ण वत्तव्यं, सगफलाणुपायणेण दोणं पि सरिसत्तुवलंभादो ? ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिण विणस्संते दहण सादावेदणीयस्स उदो णत्थि त्ति वुच्चदे । ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, [असाद]-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरुवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं । शंका-बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होनेवाले परमाणुसमूहकी उदय संज्ञा कैसे बन सकती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको देखकर उदयको फलरूपसे स्वीकार किया गया है। शंका-यदि ऐसा है तो असातावेदनीयके उदयकालमें सातावेदनीयका उदय नहीं होता, केवल असातावेदनीयका ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अपने फलको नहीं उत्पन्न करनेकी अपेक्षा दोनोंमें ही समानता पायी जाती है। समाधान-नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीयके परमाणुओंके समान सातावेदनीयके परमाणुओंकी अपने रूपसे निर्जरा नहीं होती। किन्तु विनाश होनेकी अवस्थामें असातारूपसे परिणम कर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीयका उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु असातावेदनीयका यह क्रम नहीं है, क्योंकि, तब असाताके परमाणुओंकी अपने रूपसे ही निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुखरूप फलके अभावमें भी असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है। - विशेषार्थ--साधारणतः सांसारिक सुख और दुःखकी उत्पत्तिमें सातावेदनीय और असातावेदनीयका उदय निमित्त माना जाता है। सुखके साथ सातावेदनीयके उदयकी और दुखके साथ असातावेदनीयके उदयकी व्याप्ति है । यह व्याप्ति उभयतः मानी जाती है । इसलिए यह प्रश्न उठता है कि केवली जिनके असातावेदनीयका उदय माननेपर उनके क्षुधा, तृषा और व्याधि आदि जन्य बाधा अवश्य होती होगी, अन्यथा उनके असातावेदनीयका उदय मानना निष्फल है। समाधान यह है कि कोई भी कार्य बाह्य और अन्तरङ्ग दो प्रकारके कारणोंसे होता है। यहाँ मुख्य कार्य क्षुधा जन्य बाधा है। यदि शरीरके लिये भोजनकी आवश्यकता हो और ऐसी अवस्थामें भोजनकी इच्छा हो तो क्षुधाजन्य बाधा होती है और इसमें असातावेदनीयका उदय कारण माना जाता है । किन्तु केवली जिनका औदारिकशरीर त्रस और निगोदिया जीवोंसे रहित परमशुद्ध होता है अतएव उनके शरीरको भोजन पानीकी आवश्यकता नहीं रहती और मोहनीयका अभाव हो जानेसे उनके भोजन और पानी ग्रहण करनेकी इच्छा भी नहीं होती, इसलिए Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] छक्खंडागमे वेयणाखंटं [४, २,७, २७. तवदिरित्तमजहण्णा ॥ २७ ॥ सुगम। सामित्तेण जहण्णपदे मोहणीयवेयणा भावदो जहणिया कस्स ? ॥२८॥ सुगमं । अण्णदरस्स खवगस्स चरिमसमयसकसाइस्स तस्स मोहणीयवेयणा भावदो जहण्णा ॥ २६ ॥ अंतोमु हुत्तमणुसमयओवट्टणाघादेण धादिदसेसअणुभागगहणé 'चरिमसमयकसाइस्स' इत्ति णिद्दि । सेसं सुगम । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ३०॥ सुगमं । सामित्तेण जहण्णपदे आउअवेयणा भावदो जहणिया कस्स ? ॥३१॥ उनके कदाचित् असातावेदनीयका उदय रहनेपर भी क्षुधा-तृषाजन्य बाधा नहीं होती। यही कारण है कि केवली जिनके क्षुधादिजन्य बाधाका अभाव कहा गया है। शेष स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है। इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ॥ २७॥ . यह सूत्र सुगम है। स्वामित्वसे जघन्य पदमें मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ॥ २८ ॥ यह सूत्र सुगम है। अन्तिम समयवर्ती सकषाय अन्यतर क्षपकके मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ २९ ॥ अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रति समय अपवर्तनाघातके द्वारा घात करनेसे शेष रहे अनुभागका ग्रहण करनेके लिये 'अन्तिम समयवर्ती सकषायके' इस पदका निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है। __ इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ॥ ३० ॥ यह सूत्र सुगम है। ___ स्वामित्वसे जघन्य पदमें आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ ३१ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७ ४, २, ७, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं सुगमं । अण्णदरेण मणस्सेण पंचिंदियतिरिक्खजोणिएण वा परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण अपजुत्ततिरिक्खाउअं बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्म अस्थि तस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा ॥ ३२॥ अपजत्ततिरिक्खाउअं देव-णेरइया ण बंधंति त्ति जाणावण मणस्सेण 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिएण वा' ति वुत्तं । एइंदिय-विगलिंदिया वि अपजत्ततिरिक्खाउअं बंधंता अस्थि, तत्थ जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, आउअजहण्णाणुभागबंधकारणपरिणामाणं तत्थामावादो । तत्थ णत्थि त्ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । अणुसमयं वड्डमाणा हायमाणा च जे संकिलेस-विसोहियपरिणामा ते अपरियत्तमाणा णाम । जत्थ पुण हाइदूण परिणामंतरं गंतूण एग-दोआदिसमएहि आगमणं संभवदि ते परिणामा परियत्तमाणा णाम । तेहि आउअंबज्झदि। तत्थ उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा त्ति तिविहा परिणामा । तत्थ अइजहण्णा आउअबंधस्स आप्पाओग्गं । अइमहल्ला पि अप्पाओग्गं चेव, साभावियादो। तत्थ दोपणं विच्चाले ट्ठिया परियत्तमाणमज्झिमपरिणामा यह सूत्र सुगम है। जो अन्यतर मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय तिथंच योनिवाला जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे अपर्याप्त तिर्यंच सम्बन्धी प्रायुका बन्ध करता है उसके और जिसके इसका सत्त्व होता है उसके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ ३२ ॥ अपर्याप्त तिर्यंच सम्बन्धी आयुको देव और नारकी जीव नहीं बाँधते यह जतलानेके लिये 'मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय तियच योनिवाले' ऐसा कहा है। शंका-एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय जीव भी अपर्याप्त तिर्यचकी आयुको बाँधते हैं, इसलिए उनमें जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें आयुके जघन्य अनुभागके बन्धमें कारणभूत परिणामोंका अभाव है। शंका-उनमें वे परिणाम नहीं है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। प्रति समय बढ़नेवाले या हीन होनेवाले जो संक्लेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं वे अपरिवर्तमान परिणाम कहे जाते हैं। किन्तु जिन परिणामों में स्थित होकर तथा परिणामान्तरको प्राप्त हो पुनः एक दो आदि समयों द्वारा उन्हीं परिणामोंमें आगमन सम्भव होता है उन्हें परिवर्तमान परिणाम कहते हैं। उनसे आयुका बन्ध होता है। उनमें उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्यके भेदसे वे परिणाम तीन प्रकारके हैं। इनमें अति जघन्य परिणाम आयुबन्धके अयोग्य हैं । अत्यन्त महान् परिणाम भी आयुबन्धके अयोग्य ही हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। किन्तु उन दोनोंके मध्यमें Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ३३. वुचंति । तत्थतणजहण्णपरिणामेहि तप्पाओग्गविसेसपञ्चएहि जमपज्जत्ततिरिक्खाउअं बद्धबयं तस्स जहण्णाणुभागो होदि । जस्स तं संतकम्मं तस्स वि । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ३३॥ सुगमं । सामित्तण जहण्णपदे णामवेयणा भावदो जहणिया कस्स ? ॥ ३४ ॥ । सुगमं । अण्णदरेण सुहमणिगोदजीवअपजुत्तएण हदसमुप्पत्तियकम्मेण परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि तस्स णामवेयणा भावदो जहण्णा ॥ ३५ ॥ ओगाहणादिविसेसाभावपदुप्पायणहं 'अण्णदरेण' इत्ति वुत्तं । बादरेइंदियअपज्जत्तादिउवरिमजीवसमासपडिसेहढं 'सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तएण' इत्ति भणिदं। उवरिमजीवसमासपडिसेहो किम कीरदे ? तत्थ जहण्णाणभागासंभवादो। तं जहा–ण ताव तत्थ अवस्थित परिणाम परिवर्तमान मध्यम परिणाम कहलाते हैं। उनमें जघन्य परिणामोंसे तत्प्रायोग्य विशेष कारणों द्वारा जिसने अपर्याप्त सम्बन्धी तिर्यच आयुको बाँधा है उसके आयुका जघन्य अनुभाग होता है, तथा जिसके उक्त अनुभागका सत्त्व होता है उसके भी आयुका जघन्य अनुभाग होता है इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ॥ ३३ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्वामित्वसे जघन्य पदमें नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ ३४ ॥ यह सूत्र सुगम है, हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला अन्यतर जो सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंके द्वारा नाम कर्मका बन्ध करता है उसके और जिसके इसका सत्त्व होता है उसके नाम कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ ३५ ॥ अवगाहना आदिसे होनेवाली विशेषता यहाँ विवक्षित नहीं है यह बतलानेके लिये 'अन्यतर' पद कहा है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि आगेके जीवसमासोंका प्रतिषेध करनेके लिये 'सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके द्वारा' ऐसा कहा है। शंका-आगेके जीवसमासोंका प्रतिषेध किसलिये करते हैं। समाधान - चूंकि उनमें जघन्य अनुभागकी सम्भावना नहीं है, अतः उनका प्रतिषेध करते Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ३७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं [ २९ सव्वविसुद्धेसु जहण्णसामित्तं, अप्पसत्थपयडिअणुभागादो अणंतगुणपसत्थअणंतगुणवड्डिप्पसंगादो। ण सव्वसंकिलिहेसु वि, अइतिव्वसंकिलेसेण असुहाणं पयडीणमणुभागवड्डिप्पसंगादो । ण परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेसु वि जहपणसामित्तं संभवदि, सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तपरियत्तमाणमज्झिमपरिणमे हितो अणंतगुणेहि जहण्णभावाणववत्तीदो। 'हदसमुप्पत्तियकम्मेण' इत्ति वुत्ते पुव्विल्लमणुभागसंतकम्मं सव्वं घादिय अणंतगुणहीणं कादण 'हिदेण' इत्ति वुत्तं होदि । तत्थ जहण्णकस्सपरिणामणिराकरणहं 'परियत्तमाणमझिमपरिणामण' इत्ति वुत्तं। जेण तं बद्धं जस्स तं संतकम्ममत्थि तस्स णामवेदणा भावदो जहण्णा । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ३६॥ सुगमं । सामित्तेण जहण्णपदे गोदवेदणा भावदो जहणिया कस्स ? ॥ ३७॥ सुगमं । हैं । यथा-उक्त जीवसमासांमेंसे सर्वविशुद्ध जीवोंमें तो जघन्य स्वामित्व बन नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागसे अनन्तगुणे प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागमें अनन्तगुणी वृद्धिका प्रसंग आता है। सर्वसंक्लिष्ट जीवोंमें भी वह नहीं बन सकता, क्योंकि, अति तीव्र संक्लेशके द्वारा अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें वृद्धिका प्रसंग आता है। परिवर्तमान मध्यम परिणाम युक्त जीवामें भी जघन्य स्वामित्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद अपयोप्तक जीवके परिवर्तमान मध्यम परिणामोंकी अपेक्षा उन जीवोंके परिणाम अनन्तगुणे होते हैं, इसलिये वे जघन्य नहीं हो सकते। 'हतसमुत्पत्तिककर्मवाले' ऐसा कहनेपर पूर्वके समस्त अनुभागसत्त्वका घात करके और उसे भनन्तगुणा हीन करके स्थित हुए जीवके द्वारा, यह अभिप्राय समझना चाहिये। सूत्र में जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंका निराकरण करनेके लिये 'परिवर्तमान मध्यम परिणामोंके द्वारा' ऐसा निर्देश किया है । जिसने उक्त अनुभागको बाँधा है व जिसके उसका सत्त्व है उसके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है। इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ॥ ३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्वामित्वसे जघन्य पदमें गोत्रको वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ ३७॥ यह सूत्र सुगम है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ३८. .... अण्णदरेण बादरतेउ-वाउजीवेण सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदेण सागारजागारसव्वविसुद्धण हदसमुप्पत्तियकम्मेण उच्चागोदमुब्वेल्लिदूण णीचागोदं बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि तस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा ॥३८॥ 'बादरतेउ-वाउजीव' णिदेसो किम कीरदे १ तत्थ बंधविवज्जियमुच्चागोदं णीचागोदादो सुहत्तेणेण महल्लाणुभागमुव्वेल्लिय गालणडं । 'सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदेण' इत्ति णिद्देसोअपज्जत्तकाले सव्वुकस्सविसोही णत्थि त्ति पज्जत्तकालसव्वुकस्सविसोहीणं गहणणिमित्तो । सोगार-जागारद्धासु चेव सव्वुक्कस्सविसोहीयो सव्वुक्कस्ससंकिलेसा च होंति त्ति जाणावणटुं 'सागार-जागारणिद्देसो कदो। सव्वुक्कहविसोहीए एत्थ किं पओजणं ? बहुदरणीचागोदाणभागघादो पओजणं । एवंविहस्स गोदवेयणा भावदो जहपणा । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ३६ ॥ सुगम । एवं सामित्तं सगंतोक्खित्तट्टाणसंखाजीवसमुदाहाराणिओगद्दारं समत्तं । सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए, साकार उपयोगसे संयुक्त, जागृत, सर्वविशुद्ध एवं हतसमुत्पत्तिककर्मवाले जिस अन्यतर बादर तेजकायिक या वायुकायिक जीवके उच्च गोत्रकी उद्वेलना होकर नीच गोत्रका बन्ध होता है व जिसके उसका सत्त्व होता है उसके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ।। ३८ ॥ शंका-बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंका निर्देश किसलिये किया है ? समाधान-उनमें बन्धको प्राप्त न होनेवाले एवं नीच गोत्रकी अपेक्षा शुभ रूप होनेसे विशाल अनुभाग युक्त उच्च गोत्रकी उद्वेलना करके गलानेके लिये उक्त जीवोंका निर्देश किया है। चूँकि अपर्याप्तकालमें सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि नहीं होती है अतः पर्याप्तकालमें होनेवाली विशु. द्धियोंका ग्रहण करनेके लिये 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए' इस पदका निर्देश किया है। साकार उपयोग व जागृत समयमें ही सर्वोत्कृष्ट विशुद्धियाँ व सर्वोत्कृष्ट संक्लेश होते हैं, यह जतलानेके लिये 'साकार उपयोग युक्त व जागृत' इस पदका निर्देश किया है । शंका-यहाँ सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिका क्या प्रयोजन है ? । समाधान-नीच गोत्रके बहुतर अनुभागका घात करना ही उसका प्रयोजन है । उक्त लक्षणोंसे संयुक्त जीवके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है। इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ।। ३६ ॥ यह सूत्र सुगम है ? इस प्रकार अपने भीतर स्थान, संख्या व जीवसमुदाहार अनुयोगद्वारोंको रखनेवाला स्वामित्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ४१.]. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं ___ अप्पाबहुए त्ति तत्य इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि-जहण्णपदे उक्कस्सपदे जहण्णुकस्सपदे ॥ ४० ॥ एत्थ तिणि चेव अणियोगद्दाराणि होंति, एग-दोसंजोगे मोत्तूण तिसंजोगादीणमभावादो। सव्वत्थोवा मोहणीयवेयणा भावदो जहणिया ॥४१॥ कुदो ? अपुव्व-अणियट्टिखवगगुणहाणेसु संखेजसहस्सवारं खंडयघादेण अणंतगुणहीणं कादण पुणो फद्दयाणुभागादो अणंतगणहीणबादरकिट्टिसरूवेण कादूण पुणो ' तं मोहाणुभागं बादरकिट्टिगदं जहण्णवादरकिट्टीदो अणंतगुणहीणसुहुमकिट्टिसरूवेण कादूण पुणो सुहुमसांपराइयगुणहाणम्मि अंतोमुहुत्तकालमणंतगुणहीणकमेणमणुसमयमोवट्टिय सुहुमसांपराइयचरिमसमए उदयगदहिदीए अणुभागस्स गहणादो। अणुसमओवट्टणा त्ति केरिसी ? चरिमसमयअणियट्टिअणुभागादो सुहुमसांपरा इयपढमसमए अणुभागो अणंतगुणहीणो होदि । विदियसमए सो चेव अणुभागखंडयघादेण विणा अणंतगुणहीणो होदि। पुणो सो घादिदसेसो तदियसमए अणंतगुणहीणो होदि । एवं जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमओ त्ति णेदव्वं । एसो अणुसमओवट्टणघादो . अल्पबहुत्वका प्रकरण है। इसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-जघन्य पदविषयक अल्पबहुत्व, उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व और जघन्य उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व ॥४०॥ यहाँ तीन ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, एक और दो संयोगी भङ्गोंको छोड़कर यहाँ त्रिसंयोगी आदि भङ्गोंका अभाव है। भावकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य वेदना सबसे स्तोक है ॥ ४१ ॥ क्योंकि अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण क्षपक गुणस्थानों में संख्यात हजार बार काण्डकघातके द्वारा अनुभागको अनन्तगुणा हीन करके, पश्चात् स्पर्धकगत अनुभागकी अपेक्षा उसे अनन्तगुणाहीन बादर कृष्टि रूपसे करके, तत्पश्चात् बादर कृष्टिगत उक्त मोहनीयके अनुभागको जघन्य बादर कृष्टिकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन सूक्ष्म कृष्टिरूपसे करके, पुनः सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रतिसमय अनन्तगुणहीन क्रमसे अपवर्तित करके सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें उदयप्राप्त स्थितिके अनुभागका यहाँ ग्रहण किया गया है। .. शंका--प्रति समय अपवर्तना किस प्रकारकी होती है ? समाधान-अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभागकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्परायिकका प्रथम समय सम्बन्धी अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है। उसके द्वितीय समयमें वही अनुभाग काण्डकघातके बिना अनन्तगुणा हीन होता है। पुनः घात करनेके बाद शेष रहा वही अनुभाग तीसरे समयमें अनन्तगुणाहीन होता है इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयतक जानना चाहिये । इसीका नाम अनुसमयापवर्तनाघात है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ४२. णाम । एसो अणुभागखंडयघादो त्ति किण्ण वुच्चदे ? ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहत्तण कालेण जो घादो णिप्पजदि सो अणुभागखंडयघादो णाम, जो पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा । अण्णं च, अणुसमोवट्टणाए णियमेण अणंता भागा हम्मंति, अणुभागखंडयघादे पुण पत्थि एसो णियमो, छव्विहहाणीए खंडयघादुवलंभादो। अंतराइयवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ४२ ॥ खोणकसायकालभंतरे जदि वि अंतराइयअणुभागो अणुसमयओवट्टणाए घादं पत्तो तो वि एसो अणंतगुणो, सुहम-बादरकिट्टीहिंतो अणंतगुणफद्द यसरूवत्तादो। अणुभागखंडयघादेहि अणुसमओवट्टणाघादेहि च दोण्णं कम्माणं सरिसत्ते संते किमट्ट घादिदसेसाणभागाणं विसरिसत्तं ? ण एस दोसो, संसारावत्थाए सव्वत्थ लोभसंजलणाणुभागादो वीरियंतराइयाणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। थोवाणुभागपयडीए धादिदसेसाणुभागो थोवो होदि, महल्लाणुभागपयडीए घादिदसेसाणुभागो बहुओ चेव होदि । शंका--इसे अनुभागकाण्डकघात क्यों नहीं कहते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रारम्भ किये गये प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है, परन्तु उत्कीरणकालके बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। दूसरे, अनुसमयापवर्तनामें नियमसे अनन्त बहुभाग नष्ट होता है, परन्तु अनुभागकाण्डकघातमें यह नियम नहीं है, क्योंकि, छह प्रकारकी हानि द्वारा काण्डकघातकी उपलब्धि होती है। विशेषार्थ--यहाँ अनुभाग काण्डकघात और अनुसमयापवर्तना इन दोनोंमें क्या अन्तर है इसपर प्रकाश डाला गया है। काण्डक पोरको कहते हैं। कुल अनुभागके हिस्से करके एक एक हिस्सेका फालिक्रमसे अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डकघात कहलाता है और प्रति समय कुल अनुभागके अनन्त बहुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तना कहलाती है। मुख्यरूपसे यही इन दोनोंमें अन्तर है। उससे भावकी अपेक्षा अन्तरायकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ४२ ॥ क्षीणकषायके कालके भीतर यद्यपि अन्तराय कर्मका अनुभाग अनुसमयापवर्तनाके द्वारा घातको प्राप्त हुआ है तो भी यह मोहनीयके जघन्य अनुभागसे अनन्तगुणा है, क्योंकि वह मोहनीयकी सूक्ष्म और बादर कृष्टियोंकी अपेक्षा अनन्तगुणे स्पर्धकरूप है। शंका--अनभागकाण्डकघात और अनसमयापवर्तनाघातके द्वारा दोनों कर्मों में समानताके होनेपर घात करनेके बाद शेष रहे अनुभागोंमें विसदृशता क्यों पाई जाती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संसार अवस्थामें सर्वत्र संज्वलन लोभके अनुभागकी अपेक्षा वीर्यान्तरायका अनुभाग अनन्तगुणा उपलब्ध होता है। स्तोक अनुभागवाली प्रकृतिका घात करनेके बाद शेष रहा अनुभाग स्तोक होता है और महान् अनुभागवाली प्रकृतिका Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३ ४, २, ७, ४३. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं तेण विसरिसत्तं जुज्जदे। __णाणावरणीय-दंसणावरणीयवेयणा भावदो जहणियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ४३ ॥ ___ कधं दोण्णं पयडीणमणभागस्स धादिदसेसस्स सरिसत्तं ? ण एस दोसो, संसारावत्थाए समाणाणुभागाणमसुहत्तणेण समाणाणं सरिसत्ताणुभागधादाणं' धादिदसेसाणुभागाणं सरिसत्तं पडि विरोहाभावादो । संसारावत्थाए दोण्णं पयडीणमणुभागो सरिसो त्ति कधं णव्वदे ? केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीयं आसादावेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि त्ति चदुसहिपदियमहादंडयसुत्तादो। सव्वमेदं जुज्जदे किं तु अंतराइयजहण्णाणुभागादो णाण-दंसणावरणाणुभागाणं जहण्णाणमणंतगुणत्तं ण घडदे, संसारावत्थाए अणुभागेण समाणाणं अणुभागखंडय-अणुसमयओवट्टणाघादेण सरिसाणं विसरिसत्तविरोहादो' त्ति ? होदि सरिसत्तं जदि सव्वघादित्तणेण वीरियंतराइयं केवलणाण-दंसणावरणीएहिं समाणं, ण च एवं तदो जेण वीरियंतराइयं देसघादिलक्खणं तेण घात करनेके बाद शेष रहा अनुभाग बहुत ही होता है । इस कारण दोनोंमें विसदृशता बन जाती है। उससे भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीयकी जघन्य वेदनायें दोनों ही परस्पर तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ ४३ ॥ शंका--घात करनेके बाद शेष रहे इन दोनों प्रकृतियोंके अनुभागमें समानता किस कारणसे है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संसार अवस्थामें ये दोनों प्रकृतियाँ समान अनुभागवाली हैं, अशुभ स्वरूपसे समान हैं एवं समान अनुभागघातसे संयुक्त हैं अतः उक्त दोनों प्रकृतियोंके घात करनेके बाद शेष रहे अनुभागोंके समान होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका--संसार अवस्थामें इन दोनों प्रकृतियोंका अनुभाग समान होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। ___ समाधान--"केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय ये चारों ही प्रकृतियाँ तुल्य हैं" इस चौंसठ पदवाले महादण्डकसूत्रसे जाना जाता है। शंका-यह सब तो बन जाता है, किन्तु अन्तरायके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरणका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है यह नहीं बनता, क्योंकि, ये तीनों कर्म संसार अवस्थामें अनुभागकी अपेक्षा समान हैं तथा अनुभागकाण्डकघात व अनुसमयापेवर्तनाघातकी अपेक्षा भी समान हैं अतएव उनके विसदृश होने में विरोध आता है ? समाधान-यदि वीर्यान्तराय कर्म सर्वघातिरूपसे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके समान होता तो इन तीनोंमें समानता अनिवार्य थी। परन्तु ऐसा है नहीं। अतएव चूँकि वीर्या १ अप्रतौ 'त्तरिसणुभागघादाणं' पप्रतौ सरिसत्ताणभागधादाणं इति पाठः। २ अप्रतौ 'विरोहोदि त्ति' इति पाठः । छ. १२-५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [२, ७, २६.४४, एरंडदंडओ'व्व असारत्तादो बहुगं धादिज्जदि, केवलणाण-दसणावरणीयाणि पुण सव्वघादीणि वज्जसेलो व्व णिकाचिदत्तादो बहुगं ण धादिज्जति । तेण अंतराइयजहण्णाणुभागादो णाणदंसणावरणीयजहण्णाणुभागाणमणंतगुणत्तं जुज्जदे । . आउववेदणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥४४॥ मणुसेण वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएण वा परियत्तमाणमझिमपरिणामेण वद्धमपज्जत्ततिरिक्खाउअमणुभागेण जहण्णं । एदं तेहिंतो अणंतगुणं । कुदो ? णाण-दंसणावरणीयअणुभागो व्व खंडयघादेहि अणुसमओवट्टणाघादेहि च खवगसेडीए अपत्ताणुभागधादत्तादो। गोदवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ४५ ॥ बादरतेउ-वाउपज्जत्तएसु सव्वविसुद्धेसु हदसमुप्पत्तियकम्मेसु ओव्वट्टिदउच्चागोदेसु गोदाणुभागो जहण्णो जादो' । एत्थ जदि वि संखेज्जसहस्साणुभागखंडयाणि पदिदाणि तो वि घादिदसेसाणुभागो आउअजहण्णाणुभागादो अणंतगुणो होदि । 'सव्वुक्कस्सतिरि क्खाउअअणुभागादो सव्वुक्कस्सणीचागोदाणुभागो अणंतगुणो'त्ति चउसद्विपदियदंडए न्तराय कर्म देशघाती लक्षणवाला है इसकारण वह एरण्डदण्डके समान निःसार होनेसे बहुत घाता जाता है, किन्तु केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण सर्वघाती हैं अतः वे वनशैलके समान निविडरूपसे बन्धको प्राप्त होनेके कारण बहुत नहीं पाते जाते हैं इसलिये अन्तरायकर्मके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरणके जघन्य अनुभागका अनन्तगुणा होना उचित ही है। उनसे भावकी अपेक्षा आयुकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है॥४४॥ मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिवाले जीवके द्वारा परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे बाँधी गई अपर्याप्त तिर्यंच सम्बन्धी आयु अनुभागकी अपेक्षा जघन्य होती है। यह उपर्युक्त दोनों कर्मों के जघन्य अनुभागसे अनन्तगुणी है, क्योंकि, जिस प्रकार क्षपकणिमें ज्ञानावरण और दर्शनावरणका अनुभाग काण्डकघात व अनुसमयापवर्तनाघातके द्वारा घातको प्राप्त होता है उसप्रकार उनके द्वारा आयुकर्मका अनुभाग घातको नहीं प्राप्त होता। उससे भावकी अपेक्षा गोत्रकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ४५ ॥ जो सर्वविशुद्ध हैं, हतसमुत्पत्तिककर्मा हैं और जिन्होंने उच्च गोत्रका अपवर्तनाघात किया है ऐसे बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें गोत्र कर्मका अनुभाग जघन्य होता है। यहाँ यद्यपि संख्यात हजार अनुभागकाण्डकघात हुए हैं तो भी गोत्रकर्मका घात करनेके बाद शेष रहा अनुभाग आयुके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा है। यतः चतुःषष्ठिपदिक दण्डकमें "सर्वोत्कृष्ट तिर्यगायुके अनुभागसे सर्वोत्कृष्ट नीच गोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा है" ऐसा कहा . १ अप्रतौ 'एदंडदंडो' इति पाठः। २ अप्रतौ 'गोदाणभागो जहण्णेज्जादो' इति पाठः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ४७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ३५ भणिदं । तेण आउसस्स जहण्णाणुभागबंधादो णीचागोदस्स जहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो त्ति णव्वदे। तत्तो णीचागोदजहण्णाणुभागो अणंतगुणो, विट्ठाणसंतकम्मत्तादो। णामवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ४६॥ ___सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तयम्मि हदसमुप्पत्तियकम्मम्मि परियत्तमाणमज्झिमपरिणामम्मि णामकम्माणुभागस्स जहण्णं जादं । एसो अणुभागो णीचागोदजहण्णाणुभागादो अणंतगुणो। कुदो ? जसकित्तियादीणं सुहपयडीणमणुभागस्स सव्वत्थ णीचागोदाणुभागादो' अणंतगुणस्स विसोहीए घादिदाभावादो। अइसंकिलेसं णेदण सुहपयडीणमणुभागेघादिदे वि ण लाभो अत्थि, संकिलेसेण अजसकित्तियादिअसुहपयडीणमणुभागस्स बुड्डिदंसणादो। परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेहि सुहासुहपयडीणमणुभागमहल्लवड्डि-हाणोणमणिमित्तेहि परिणदस्स तेण सामित्तं दिण्णं । तदो बहुबड्डि-हाणीणमभावादो णामवेयणाभावो अणंतगुणो त्ति सिद्धं । वेदणीयवेदणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥४७॥ वेदणीयाणुभागो खवगसेडीए संखेजसहस्सअणुभागखंडयघादेहि घादं पत्तो त्ति गया है, अतः इससे जाना जाता है कि आयुके जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा नीचगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे नीचगोत्रका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह द्विःस्थान सत्कर्मरूप है। उससे भावकी अपेक्षा नाम कर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ४६॥ हतसमुत्पत्तिकर्मा और परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे संयुक्त जो सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव है उसके नाम कर्मका अनुभाग जघन्य होता है। यह अनुभाग नीचगोत्रके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होता है, क्योंकि, सर्वत्र नीचगोत्रके अनुभागसे अनन्तगुणा जो यशःकीर्ति आदि शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग होता है उसका विशुद्धिके द्वारा घात नहीं होता। अति सक्लशको प्राप्त कराकर शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात करानेपर भी कोई लाभ नहीं है, क्योंकि, संक्लेशसे अयश कीर्ति आदि अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें वृद्धि देखी जाती है। इसीलिये जो परिवर्तमान मध्यम परिणाम शुभाशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी महान् वृद्धि व हानिमें निमित्त नहीं पड़ते उनसे परिणत हुए.जीवको उसका स्वामी बतलाया है । अतएव बहुत वृद्धि व हानिका अभाव होनेसे नाम कर्मकी वेदना भावतः गोत्रकर्मकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती है, यह सिद्ध होता है। उससे भावकी अपेक्षा वेदनीय कर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ४७ ॥ शंका-यतः वेदनीय कर्मका अनुभाग क्षपकश्रेणिमें संख्यात हजार अनुभागकाण्डकघातोंके १ अप्रतौ ‘णीचागोदाणुवलंभादो' इति पाठः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ४८ ३६ ] चिराणाणुभागादो अनंतगुणहीणो अजोगि' चरिमसमए एगणिसेयमवलंबिय द्विदो कथं णामाणुभागादो अप' तखवगसेडिघादादो संसारिजीवखंडयघादेहि मुक्कस्सं पेक्खिदूण अनंतगुणहीणत्तमावण्णादो अर्णतगुणो होज्ज १ अण्णं च वेदणीय उक्कस्साणुभागादो असादसणिदादो संसारात्थाए जसकित्तिउक्कस्साणुभागो अनंतगुणो, सो कथं संसारिखंयवादेहि खवगसेडिम्मि घादं पत्तअसादावेदणीयाणुमागादो अनंतगुणहीणो कीरदे ! ण एस दोसो, ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागघादस्त कारणं, किंतु पयडिगयसत्तिसव्वपेक्खो परिणामो अणुभागघादस्स कारणं । तत्थ वि पहाणमंतरंगकारणं, तम्हि कस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददंसणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागघादाणुवलंभादो । तदो णामाणुभागघादअंतरंगकारणादो वेदणीयाणुभागघादअंतरंगकारणमणंतगुणहीणमिदि णामजहण्णाणुभागादो वेदणीयजहण्णाणुभागस्स अनंतगुणत्तं जुजदे । एवं जहण्णअप्पा बहुअं समत्तं । उक्कस्सपदेण सव्वत्थोवा आउववेयणा भावदो उक्कस्सिया ॥ ४८ ॥ कुदो ? भवधारणमेत्तकञ्जकारितादो । द्वारा घातको प्राप्त हो चुका है इसलिए जो चिरन्तन अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणाहीन होता हुआ अयोगिकेवली के अन्तिम समय में एक निषेकका अवलम्बन लेकर स्थित है वह भला जो क्षपकश्रेणिमें घातको नहीं प्राप्त हुआ है और जो संसारी जीवोंके काण्डकघातोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणाहीन है, ऐसे नामकर्मके जघन्य अनुभागसे अनन्तगुणा कैसे हो सकता है ? दूसरे, संसार अवस्थामें यशः कीर्तिका उत्कृष्ट अनुभाग असात संज्ञावाले वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभाग से अनन्तगुणा होता है ऐसी अवस्थामें वह क्षपकश्रेणिमें संसारी जीवोंके काण्डकघातोंके द्वारा घातको प्राप्त हुए असातावेदनीयके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणाहीन कैसे किया जा सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, केवल अकषाय परिणाम ही अनुभागघातका कारण नहीं है, किन्तु प्रकृतिगत शक्तिकी अपेक्षा रखनेवाला परिणाम अनुभागघातका कारण है । उसमें भी अन्तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंग कारणके स्तोक रहनेपर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है । तथा अन्तरंग कारणके स्तोक होनेपर बहिरंग कारण के बहुत होते हुए भी अनुभागघात बहुत नहीं उपलब्ध होता । यतः नामकर्मसम्बन्धी अनुभागके घातके अन्तरंग कारणकी अपेक्षा वेदनीय सम्बन्धी अनुभागके घातका अन्तरंग कारण अनन्तगुणाहीन है अतः नामकर्मके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा वेदनीयके जघन्य अनुभागका अनन्तगुणा होना उचित ही है इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । उत्कृष्ट पदका अवलम्बन लेकर भावको अपेक्षा आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदना सबसे स्तोक है ॥ ४८ ॥ क्यों कि वह भवधारण मात्र कार्यको करनेवाली है । १ प्रतौ जागे' इति पाठः । २ प्रतौ 'पज्जत' इति पाठः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ५१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ३७ _____णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयवेयणा भावदो उक्कस्सियाओ तिण्णि वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ४६ ॥ केवलणाण-दंसणाणं समाणत्तणेण तदावरणाणुभागस्स वि होदु णाम समाणत्तं, किं तु अंतराइयाणुभागस्स ण समाणत्तं जुञ्जदे केवलणाण-दंसण-अणंतवीरियाणं समाणत्ताभावादो त्ति १ ण एस दोसो, केवलणाण-दसण-अणंतवीरियाणं समाणत्तब्भुवगमादो । कुदो समाणत्तं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च आवारयसत्तीए समाणाए संतीए तदावरणिजाणं विसरिसत्तं जुञ्जदे, विरोहादो। कधं पुण आउअउक्कस्साणुभागादो अणंतगुणत्तं ? ण, अंतरंग-बहिरंगपडिबद्धाणंतकजवलंभादो। मोहणीयवेयणा भावदो उकस्सिया अणंतगुणा ॥ ५० ॥ कुदो ? साभावियादो । ण च सहावो जुत्तिगोयरो, अग्गी दहणो वि संमारणमिचादिसु जुत्तीए अणुवलंभादो । णामा-गोदवेयणाओ भावदो उक्कसियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ५१ ॥ भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट वेदनायें तीनों ही तुल्य होकर आयुकर्मकी उत्कृष्ट वेदनासे अनन्तगुणी हैं ॥ ४९ ॥ __ शंका--यतः केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों ही समान हैं अतः केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अनुभागमें भी समानता रही आवे किन्तु अन्तरायके अनुभागको इनके समान मानना उचित नहीं हैं, क्योंकि, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यमें समानता नहीं है। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यमें समानता स्वीकार की गई है। शंका-उन तीनोंमें समानता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। और आवारकशक्तिके समान होनेपर उनके द्वारा आवरण करने योग्य गुणोंमें असमानता मानना उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा मानने में विरोध आता है। . शंका-तो फिर आयुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा उनका अनुभाग अनन्तगुणा है यह कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तरंग व बहिरंग कारणोंसे प्रतिबद्ध उनके अनन्त कार्य उपलब्ध होते हैं, इससे ज्ञात होता है कि आयुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा उनका अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे भावकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ५० ॥ कारण कि ऐसा स्वभाव है और स्वभाव युक्तिका विषय नहीं होता, क्योंकि, अग्नि दाहजनक होकर भी मृत्युदायक है इत्यादिमें कोई युक्ति नहीं पाई जाती। उनसे भावकी अपेक्षा नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट वेदनायें दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥५१॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ५२. कुदो ? सुहपडित्तादो । असुहपयडिअणुभागादो सुहपयडीणमणुभागो किमडमतगुणो ण, साभावियादो । न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगाः । वेदणीवेयणा भावदो उकस्सिया अनंतगुणा ॥ ५२ ॥ जसकित्ति उच्चागोदेहिंतो सादावेदणीयस्स पसत्थतमत्तादो । _एवमुक्कस्साणुभागप्पा बहुगं समत्तं । जहण्णु कस्सपदेण सव्वत्थोवा मोहणीयवेयणा भावदो जह णिया ॥ ५३ ॥ सुगम । अंतराइयवेयणा भावदो जहण्णिया अनंतगुणा ॥ ५४ ॥ सुगमं । णाणावरणीय - दंसणावरणीयवेयणा भावदो जहण्णियाओ दो वि तुल्लाओ अनंतगुणाओ ॥ ५५ ॥ सुगमं । आउअवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ५६ ॥ सुगमं । क्योंकि, ये दोनों शुभ प्रकृति हैं । शंका-अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागसे शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणा क्यों है ? समाधान— नहीं, क्योंकि, वैसा स्वभाव है, और स्वभाव प्रश्नके विषय नहीं हुआ करते । उनसे भावकी अपेक्षा वेदनीयकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ५२ ॥ कारण कि यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी अपेक्षा सातावेदनीय अतिशय प्रशस्त है । इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । जघन्य - उत्कृष्टपदसे भावकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य वेदना सबसे स्तोक है ।। ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है । उससे भावकी अपेक्षा अन्तरायकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ५४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उससे भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकी जघन्य वेदनायें दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ ५५ ॥ यह सूत्र सुगम है । उनसे भावकी अपेक्षा आयुकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ।। ५६ ।। यह सूत्र सुगम है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ६३.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [३६ णामवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ५७॥ गोदवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ५८ ॥ सुगमं । वेदणीयवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ५६ ॥ सुगमं । आउअवेयणा भावदो उक्कस्सिया अणंतगुणा ॥ ६०॥ सुगमं । णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणा भावदो उक्कस्सिया तिण्णि वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ६१ ॥ सुगमं । मोहणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया अणंतगुणा ॥ ६२ ॥ सुगमं । णामा-गोदवेयणाओ भावदो उक्कस्सियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ॥ ६३ ॥ सुगमं । उससे भावकी अपेक्षा नामकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ५७ ॥ उससे भावकी अपेक्षा गोत्रकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ५८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उससे भावकी अपेक्षा वेदनीयकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥५९॥ यह सूत्र सुगम है। उससे भावकी अपेक्षा आयुकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ६० ॥ यह सूत्र सुगम है। उससे भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट वेदनायें तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ ६१ ॥ यह सूत्र सुगम है। उनसे भावकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ६२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उससे भावकी अपेक्षा नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट वेदनायें दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ ६३ ॥ यह सूत्र सुगम है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७, ६४. वेयणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया अणंतगुणा ॥ ६४॥ सुगमं । एवं जहण्णुकस्सप्पाबहुअं समत्तं । (संपहि मूलपयडीओ अस्सिदूण जहण्णुकस्सप्पाबहुअपरूवणं करिय उत्तरपयडीओ अस्सिदण अणुभागअप्पाबहुअपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि सादं जसुच्च-दे-कं ते-आ-वे-मण अणंतगुणहीणा। ओ-मिच्छ-के-असादं वीरिय-अणंताण-संजलणा ॥ १ ॥ 'सादं'इति वुत्ते सादावेदणीयं घेत्तव्वं । 'जस' इदि वुत्ते जसकित्ती गेझा। कधं णामेगदेसेण णामिल्लविसयसंपचओ ? ण, देव-भामा-सेणसद्देहितो बलदेव-सच्चभामा-भीमसेणादिसु संपचयदसणादो । ण च लोगववहारो चप्पलओ, ववहारिजमाणस्स चप्पलत्तागुववत्तीदो । 'उच्च' इदि वुत्ते उच्चागोदं घेत्तव्वं । एत्थ विरामो किमढे कदो ? जसकित्तिउच्चागोदाणमणुभागो समाणो त्ति जाणावणटुं । 'दे'इदि वुत्ते देवगदी घेत्तव्वा । 'क' उनसे भावकी अपेक्षा वेदनीयकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ६४ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसप्रकार जघन्य-उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे जघन्य-उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करके उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे अनुभागके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं सातावेदनीय, यश-कीर्ति व उच्चगोत्र ये दो प्रकृतियाँ, देवगति, कार्मण शरीर, तेजस शरीर, आहारक शरीर, वैक्रियिक शरीर और मनुष्यगति ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं । औदारिक शरीर, मिथ्यात्व, केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरणअसातावेदनीय व वीर्यान्तराय ये चार प्रकृतियाँ, अनन्तानुबन्धिचतुष्टय और संज्वलनचतुष्टय ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं ॥१॥ 'सादं' ऐसा कहनेपर सातावेदनीयका ग्रहण करना चाहिये । 'जस' कहनसे यशःकीर्तिका ग्रहण करना चाहिये। शंका-नामके एक देशसे नामवाली वस्तुका बोध कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि देव, भामा व सेन शब्दोसे क्रमशः बलदेव, सत्यभामा व भीमसेनका प्रत्यय होता हुआ देखा जाता है। यदि कहा जाय कि लोकव्यवहार चपल होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, व्यवहारकी विषयभूत वस्तुकी चपलता नहीं बन सकती। 'उच्च' ऐसा कहनेपर उच्चगोत्रका ग्रहण करना चाहिये। शंका-यहॉपर विराम किसलिये किया गया है ? समाधान-यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका अनुभाग समान है, यह जतलानेके लिये यहाँ विराम किया गया है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,२, ७.१ गा०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [४१ इदि वुत्ते कम्मइयसरीरं घेत्तव्वं । 'ते' इदि भणिदे तेयासरीरस्स गहणं । 'आ'इदि वुत्ते आहारसरीरस्स गहणं । 'वे' इदि वुत्ते वेउव्वियसरीरस्स गहणं । 'मणु'णिद्देस्सो मणुसगदिगहणट्ठो । अणंतगुणहीणाओ एदाओ उत्तसव्वपयडीओ अण्णोएणं पेक्खिदण जहाकमेण अणंतगुणहीणाओ । एसो 'अणंतगुणहीण'णिद्देसो उवरि वि 'मंड्रगुप्पदेण अणुवट्टदे, कत्थ वि विरामादो । 'ओ'णिद्देसो ओरालियसरीरगहणट्ठो । 'मिच्छा'णिदेसो मिच्छत्तकम्मगहणणिमित्तो। 'के त्ति णिदेसो केवलणाणावरणीय-केवलदसणावरणीयाणं गहणणिमित्तो। 'असाद'णिद्देसो असादावेदणीयगहणट्ठो। 'वीरिय'णिद्देसो वीरियंतराइयगहण णिमित्तो। एदासि चदुण्णं पयडीणमणुभागो सरिसो । एत्थ अणंतगुणहीणाणुवुत्तीए अभावादो । तदणणुवुत्तीवि कुदो णव्वदे ? एदस्स गाहासुत्तस्स विवरणभावेण रचिदउवरिमचुण्णिसुत्तादो। 'अणंताणु' ति णिदेसो अणंताणुवंधियचउक्कगहणट्ठो । एत्थ लोभाणमागे अणंतगुणहीणत्तमणुवदे णोवरिमेसु । तेसु वि लोभादो माया विसेसहीणा कोधो विसेसहीणो माणो विसेसहीणो त्ति उवरिमसुत्ते परूविजमाणत्तादो। "संजलणा' दे' ऐसा कहनेसे देवगतिका ग्रहण करना चाहिये। 'क' ऐसा कहनेपर कार्मण शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'ते' ऐसा कहनेपर तैजस शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'आ' ऐसा कहनेपर आहारक शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'वे' ऐसा कहनेपर वैक्रियिक शरीरका प्रहण करना चाहिये ।'मणु' पदका निर्देश मनुष्यगतिका ग्रहण करनेके लिये किया गया है । ये उपर्युक्त सब प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर एक दूसरेकी अपेक्षा क्रमसे अनन्तगुणी हीन हैं। यह अनन्तगुणहीन पदका निर्देश मेंढक उत्पतन न्याससे आगे भी अनुवृत्त होता है, क्योंकि, कहींपर विराम देखा जाता है। 'ओ' पदका निर्देश औदारिक शरीरका ग्रहण करनेके लिये किया है। 'मिच्छा' यह निर्देश मिथ्यात्व कर्मका ग्रहण करनेके निमित्त है । 'के' पदका निर्देश केवल ज्ञानावनण व केवलदर्शनावरणका प्रहण करने के लिये किया है। 'असाद' पदका निर्देश असाता वेदनीयका ग्रहण करनेके लिये है । 'वीरिय' पदका निर्देश वीर्यान्तरायका ग्रहण करनेके निमित्त है। इन चार प्रकृतियोंका अनुभाग समान है क्योंकि, यहाँ 'अनन्तगुणहीनता' की अनुवृत्तिका अभाव है। शंका-उसकी अननुवृत्तिका भी परिज्ञान किस प्रमाणसे होता है ? समाधान-इस गाथासूत्रके विवरणरूपसे रचे गये आगेके चूर्णिसूत्रसे उसका परिज्ञान होता है। 'अणंताणु' पदका निर्देश अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका ग्रहण करनेके लिये है। यहाँ लोभके अनुभागमें अनन्तगुणहीन पदकी अनुवृत्ति होती है। आगेकी कषायोंमें उसकी अनुवृत्ति नहीं होती। उनमें भी लोभसे माया विशेष हीन है, इससे क्रोध विशेष हीन है, इससे मान विशेष हीन है १ प्रतिषु 'मंडूगप्पु देण' इति पाठः । २ अप्रतौ 'तदणाणुवृत्ती' इति पाठः ३ प्रतिषु णोवरिमसुत्तेसु इति पाठः ४ अप्रतौ-त्तादो 'त्ति उत्ते इति पाठः। मप्रतौ-तादो संजवा ति उत्ते इति पाठः। छ. १२-६ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २ मा०. त्ति उत्ते चदुण्हं संजलणाणं गहणं । तत्थ लोभसंजलणाए अणंतगुणहीणाहियारो अणुवदृदे, ण उवरिमेसु । कुदो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणसुत्तादो। एत्थ वि माया-कोध-माणाणुभागाणं कमेण विसेसहीणत्तं वत्तव्वं । (अट्ठाभिणि-परिभोगे चक्खू तिण्णि तिय पंचणोकसाया। णिदाणिद्दा पयलापयला णिद्दा य पयला य ॥२॥) ___ एदस्स विदियगाहासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा-'अट्ठ' इदि वुत्ते अट्ठकसायाणं महणं । तत्थ पञ्चक्खाणावरणीयाणं लोमे जेण अणंतगुणहीणाहियारो अणुवट्टदे तेण माणसंजलणाणुभागादो पञ्चक्खाणावरणीयलोमाणभागो अणंतगुणहीणो। माया विसेसहीणा कोधो विसेसहीणो माणो विसेसहीणो पयडिविसेसेण । कुदो ? अणंतगुणहीणअहियाराणणुवुत्तीदो। अपञ्चक्खाणावरणीयलोभो अणंतगुणहीणो, तत्थ तदणुवुत्तीदो। उवरि [वि- ] सेसहीणदा, तदणणुवुत्तीदो । कथं सव्वमिदं णव्वदे ? उवरि भण्णमाणइसप्रकार आगेके सूत्रोंमें उसकी प्ररूपणा की जानेवाली है। 'संजलणा' ऐसा कहनेपर चार संज्वलन कषायोंका ग्रहण किया है। उनमेंसे संज्वलन लोभमें अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अनुवृत्ति होती है, आगेकी कषायोंमें नहीं होती। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह आगे कहे जानेवाले सूत्रसे जाना जाता है। यहाँ भी माया, क्रोध और मानके अनुभागोंमें क्रमशः विशेषहीनताका कथन करना चाहिये। आठ कषाय अर्थात् चार प्रत्याख्यानावरण और चार अप्रत्याख्यानावरण, आमिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तराय ये दो, चक्षुदर्शनावरण, तीन त्रिक अर्थात् श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ, अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ, मनःपर्ययज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धि और दानान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ, पाँच नोकषाय अर्थात् नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला निद्रा और प्रचला ये प्रकृतियाँ क्रमशः उत्तरोत्तर अनन्तगुणहीन है ॥ २॥ __ इस द्वितीय गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा 'अट्ठ' ऐसा कहनेपर आठ कषायोंका ग्रहण किया गया है। उनमेंसे प्रत्याख्यानावरण लोभमें चूंकि अनन्तगुणहीन अधिकारको अनुवृत्ति आती है अतः संज्वलनमानके अनुभागसे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। उससे प्रकृतिविशेष होनेके कारण माया विशेष हीन है, उससे क्रोध विशेष हीन है, उससे मान विशेष हीन है, क्यों क इनमें अनन्तगुणहीन अधिकारकी अनुवृत्ति नहीं होती। उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभ अनन्तगुणाहीन है, क्योंकि, उसमें अनन्तगुणहीन पदकी अनुवृत्ति होती है। आगे माया आदि क्रमशः विशेष हीन हैं, क्योंकि, उनमें अनन्तगुणहीन पदकी अनुवृत्ति नहीं होती। शंका--यह सब किस प्रमाणसे जाना जाता है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २ गा.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [४३ चुण्णिसुत्तादो । 'आभिणि' त्ति वुत्ते आभिणियोहियणाणावरणीयस्स गहणं । 'परिभोगे' त्ति वुत्ते परिभोगंतराइयस्स गहणं । एदाणि दो वि अण्णोण्णं तुल्लाणि होदण पुचिल्लाणुभागादो अणंतगुणहीणाणि । कधं तुल्लत्तं णव्वदे ? परमगुरूवएसादो । 'चक्खू' इदि वुत्ते चक्खुदंसणावरणीयस्स गहणं । 'तिण्णि'त्ति वुत्ते सुदणाणावरणीय-अचक्खुदंसणावरणीयभोगंतराइयाणं अण्णोण्णं पेक्खिदूण अणुभागेण समाणाणं गहणं। कधमेदेसिं तुल्लत्तं णव्वदे ? ण, पाइरियोवदेसादो। तेण एत्थ अणंतगुणहीणाहियारो पादेकं ण संवज्झदे किं तु समुदायम्मि । 'तिय'इदि वुत्ते ओहिणाणावरणीय-ओहिदंसणावरणीय-लाहंतराइयाणं अणुभागं पेक्खिदूण अण्णोण्णेण समाणाणं गहणं । कधं समाणत्तं णव्यदेउवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो मणपजवणाणावरणीय-थीणगिद्धि-दाणंतराइयाणं अणुभागेण अण्णोण्णं तुल्लाणं 'तिणि तिय' णिदेसेणेव गहणं, अन्यथा त्रि-त्रिकत्वानुपपत्तेः। एत्थ वि अणंतगुणहीणाहियारो समुदाए अणुवट्टावेदव्वो। 'पंच णोकसाया' इदि वुत्ते पंचण्णं णोक समाधान--आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है। 'आभिणि' ऐसा कहनेपर आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका ग्रहण होता है। 'परिभोग' कहनेपर परिभोगान्तरायका ग्रहण होता है। ये दोनों ही परस्पर समान होकर पूर्वके अनुभागसे अनन्तगुणे हीन हैं। शंका-इनकी समानताका परिज्ञान किस प्रमाणसे होता है ? समाधान-उसका परिज्ञान परमगुरुके उपदेशसे होता है। 'चक्खू' ऐसा कहनेपर चक्षुदर्शनावरणीयका ग्रहण होता है। 'तिण्णि' पदके निर्देशसे एक दूसरेको देखते हुए अनुभागकी अपेक्षा समान श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायका ग्रहण होता है। शंका-इनकी समानता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान नहीं, क्योंकि वह आचार्यों के उपदेशसे जानी जाती है। इस कारण इनमेंसे प्रत्येकमें अनन्तगुणहीन पदके अधिकारका सम्बन्ध नहीं है, किन्तु समुदायमें है। 'तिय' ऐसा कहनेपर अनुभागकी अपेक्षा परस्पर समान अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तरायका ग्रहण होता है। शंका-यह समानता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-वह आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे जानी जाती है। परस्पर अनुभागकी अपेक्षा समानताको प्राप्त हुई मनः पर्ययज्ञानावरणीय, स्त्यानगृद्धि और दानान्तराय इन तीन प्रकृतियोंका भी ग्रहण 'तिण्णतिय' पदके निर्देशसे ही होता है, क्योंकि, इसके बिना तीन त्रिक घटित नहीं होते। यहाँपर भी अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अनुवृत्ति समुदायमें ही करानी चाहिये । 'पंच णोकसाया' ऐसा कहनेपर पाँच नोकषायोंका ग्रहण होता है। १ प्रतिषु पंचण्णं कसायाणं णोकसा-इति पाठः। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ३ गा. सायाणं गहणं । एत्थ अणंतगुणहीणाहियारो पादेक्कमणुवट्टावेदव्यो । तं जहा-णवंसयवेदो अर्णतगुणहीणो। अरदी अणंतगुणहीणा। सोगो अणंतगुणहीणो। भयमणंतगुणहीणं । दुर्गुच्छा अणंतगुणहीणा ति । 'णिद्दाणिद्दा पयलापयला णिद्दा य पयला य' एदाओ पयडीओ कमेण अणंतगुणहीणाओ, पादेक्कमणंतगुणहीणाहियारस्स संबंधादो।। (अजसो णीचागोदं णिरय-तिरिक्खगइ इत्थि पुरिसो य । रदि-हस्सं देवाऊ णिरयाऊ मणय-तिरिक्खाऊ ॥३॥ एदिस्से सुत्ततदियगाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा–'अजसो णीचागोदं'इदि वुत्ते अजसकित्तिणीचागोदाणमणुभागेण समाणाणं अणंतगुणहीणाहियारेण समुदाएण बज्झमाणाणं गहणं । 'णिरय'इदि वुत्ते णिरयगदी घेत्तव्वा । 'तिरिक्खगइ-इत्थिवेद-पुरिसवेद-रदि हस्स-देवाउ-णिरयाउ-मणुस्साउ-तिरिक्खाऊ जहासंखाए अणंतगुणहीणा त्ति घेत्तव्वा । एदाहि तीहि गाहाहि परू विदचउसहिपदियउक्कस्साणुभागमहादंडयअप्पाबहुगस्स मंदमेहाविजणाणुग्गहाय अत्थपरूवणमुवरिमसुत्तं भणदि एत्तो उक्कस्सओ चउसहिपदियो महादंडओ कायव्वो भवदि॥६५॥ यहाँ अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अनुवृत्ति प्रत्येकमें करानी चाहिये । यथा-नपुंसक वेद अनन्तगुणा हीन है। उससे अरति अनन्तगुणी हीन है । उससे शोक अनन्तगुणा हीन है। उससे भय अनन्तगुणा हीन है। उससे जुगुप्सा अनन्तगुणी हीन है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा और प्रचला ये प्रकृतियाँ क्रमशः उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं, क्योंकि, अनन्तगुणहीन पदके अधिकारका सम्बन्ध इनमेंसे प्रत्येकमें है। अयश कीर्ति और नीचगोत्र ये दो, नरकगति, तिर्यग्गति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, रति, हास्य, देवायु, नारकायु, मनुष्यायु और तिर्यगायु ये प्रकृतियाँ अनुभागकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ३॥ इस तृतीय गाथासूत्र का अर्थ कहते हैं। यथा-'अजसो णीचागोदं' ऐसा कहनेपर अनुभागकी अपेक्षा समान और अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अपेक्षा समुदायरूपसे बँधनेवाली अयशःकीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंका ग्रहण होता है । 'णिरय' इस पदसे नरकगतिका ग्रहण करना चाहिए। तिर्यग्गति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, रति, हास्य, देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और तिर्यगायु ये प्रकृतियाँ यथाक्रमसे अनन्तगुणी हीन हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इन तीन गाथाओं द्वारा कहे गए चौंसठ पदवाले उत्कृष्ट अनुभागके अल्पबहुत्व सम्बन्धी महादण्डकका मन्दबुद्धि शिष्योंका अनुग्रह करनेवाले अर्थका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं यहाँसे आगे चौंसठ पदवाला उत्कृष्ट महादण्डक करना चाहिये ॥ ६५ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ६७ ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [४५ जहण्ण-उक्कस्स-जहण्णुक्कस्सभेदेण तिवियप्पे अप्पाबहुए परूविदूण समत्ते किम चउसद्विपदियमहादंडओ वुच्चदे ? ण एस दोसो, पुव्विल्लमूलपयडिअप्पाबहुगं जेण देसामासियं तेण तमज वि ण समत्तं । तदो तेणामासिदउत्तरपयडिउक्कस्स-जहण्णाणुभागअप्पाबहुगं मणिदूण तं समाणणट्ठ'मिदं वुच्चदे । सव्वतिव्वाणभागं सादावेदणीयं ॥ ६६ ॥ अइसुहपयडित्तादो सुहुमसांपराइयचरिमसमयतिव्वविसोहीए पवद्धत्तादो संसारसुहहेदुत्तादो वा। जसगित्ती उच्चागोदं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि ॥६७॥ सादावेदणीयादो एदाणि दो वि कम्माणि सुहत्तणेण सुहुमसांपराइयचरिमसमए बंधभावेण च सरिसाणि होदूण कधं तत्तो अणंतगुणहीणाणि[ण,] जसगित्ति-उच्चागोदेहितो अइसुहसरूवत्तादो। ण च सुहाणं कम्माणं सव्वेसिं समाणत्तं वोत्तु सकिजदे, तरतमभावेण अण्णत्थ सुहत्तवलंभादो। जसकित्ति-उच्चागोदाणि सुहाणि त्ति कादण तकारण शंका--जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारके अल्पबहुत्वका कथन करके उसके समाप्त हो जानेपर फिर चौंसठ पदवाले महादण्डकको किस लिये कहा जाता है ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पहिलेका मूल प्रकृति अल्पबहुत्व चूँकि देशामर्शक है अतः वह आज भी समाप्त नहीं हुआ है। इस कारण उसके द्वारा आमर्शित उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहकर उसे समाप्त करनेके लिये उक्त महादण्ड कहा जा रहा है। सातावेदनीय प्रकृति सर्व तीव्र अनुभागसे संयुक्त है ॥ ६६ ॥ क्योंकि, वह अतिशय शुभ प्रकृति है, अथवा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें तीव्र विशुद्धिसे उसका बन्ध हुआ है अथवा वह संसार सुखका कारण है। इससे यश कीर्ति और उच्चगोत्र ये दोनों ही परस्पर तुल्य होकर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ६७॥ __ शंका--ये दोनों ही कर्म शुभ होनेके कारण तथा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें बँधनेके कारण सातावेदनीयके समान हैं। ऐसी अवस्थामें उससे अनन्तगुणे हीन कैसे हो सकते हैं ? समाधान-[ नहीं ], क्योंकि, यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी अपेक्षा सातावेदनीय अतिशय शुभ है। सब शुभकर्म समान ही हों, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, अन्यत्र तरतम भावसे शुभपना उपलब्ध होता है। यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके शुभ होनेसे उनके कारणभूत कर्म भी शुभ .............. १ प्रतिषु-णहमिदि वुच्चदे इति पाठः। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, ७, ६८. कम्माणि वि सुहाणि । सादावेदणीयं पुण अइसुहमुप्पादेदि ति सुहतमं । तदो तमणंतगुणमिदि भणिदं । देवगदी' अणंतगुणहीणा ॥ ६८ ॥ अपुव्वखवगेण चरिमसमयसुहमसांपराइयविसीहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा सगद्धासत्तभागेसु छट्ठभागचरिमसमयट्ठिदेण बद्धत्तादो । कम्मइयसरीरमणंतगुणहीणं ॥६६॥ दोण्णं पि समाणपरिणामेहि बद्धाण कधं विसरिसत्तं जुज्जदे ? ण, जीवविवागिपोग्गलविवागीणं च अणुभागाणं सरिसत्ताणुववत्तीदो। कम्मइयसरीरं पोग्गलविवागी, तप्फलस्स अवियस्स उवलंभादो । देवगदी' पुण जीवविवागी, तप्फलेण जीवे अणिमादिगुणदंसणादो । तदो जीवविवागिदेवगदिअणुभागादो बहिरंगपोग्गलविवागिकम्मइयसरीराणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति सिद्धं । अंतरंग-बहिरंगाणं ण समाणत्तं, लोगे तहाणुवलंभादो। तेयासरीरमणंतगुणहीणं ॥ ७० ॥ हैं। परन्तु सातावेदनीय यतः अतिशय सुखको उत्पन्न कराता है अतएव वह शुभतम है। इसी कारण वह उन दोनोंकी अपेक्षा अनन्तगुणा है यह कहा गया है । उनसे देवगति अनन्तगुणी हीन है ॥ ६८॥ कारण कि अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसम्परायिककी विशुद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले अपूर्वकरण क्षपकके द्वारा अपने कालके सात भागोंमेंसे छठे भागके अन्तिम समयमें उसका बन्ध होता है। उससे कार्मण शरीर अनन्तगुणा हीन है ॥ ६६ ॥ शंका-जब कि ये दोनों कर्म समान परिणामों के द्वारा बांधे जाते हैं तब उनमें विसदृशता कैसे उचित है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंके अनुभागों में समानता सम्भव नहीं है। कार्मण शरीर पुद्गलविपाकी है, क्योंकि, उसका फल पुद्गलसे अभिन्न उपलब्ध है है। परन्तु देवगति जीवविपाकी है, क्योंकि, उसके फलसे जीवमें अणिमा, महिमा आदि गुण देखे जाते हैं। इसीलिये जीवविपाकी देवगति के अनुभागकी अपेक्षा बहिरंग पुद्गलविपाकी कार्मण शरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है, यह सिद्ध होता है। यदि कहा जाय कि अन्तरंग और बहिरंगकी समानता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि लोकमें वैसा उपलब्ध नही होता। उससे तैजस शरीर अनन्तगुणा हीन है ॥ ७० ॥ १ प्रतिषु देवगदी णं अणंत-इति पाठः । २ प्रतिषु देवगदीए पुण इति पाठः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ७२.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [४७ पोग्गलविवागित्तणेण बंधसामित्तेण कम्मइयसरीरेण तेजइयसरीरं समाणं वट्टदे, तदो अणंतगुणहीणत्तं ण घडदि त्ति ? ण, कज्जमहत्तादो कम्मइयसरीराणुभागस्स महत्तसिद्धीदो, तेजइयसरीरकम्मादो तेजइयसरीरस्सेव णिप्फत्ती, कम्मइयसरीरं पुण गंधिल्लपेलियावेंटो व्व सबकम्माणमासयभावफलं । तदो तेजइ यसरीरेण कीरमाणकज्जादो कम्मइयसरीरेण कीरमाणकजमइमहल्लं त्ति तदणुभागस्स अणंतगुणत्तमवगम्मदे। आहारसरीरमणंतगुणहीणं ॥ ७१ ॥ कुदो एदं णव्वदे ? उव्वेल्लिज्जमाणत्तादो। ण च तिव्वाणुभागो उव्वेल्लिय . णिस्संतो कार्दु सक्किजदे। आहारसरीरं पुण उव्वेल्लिय णिस्संत कीरमाणमुवलब्भदे । तदो तेजइयसरीराणुभागादो आहारसरीराणुभागो अणंत गुणहीणो त्ति सिद्धं । वेउव्वियसरीरमणंतगुणहीणं ॥ ७२ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । को पयडिविसेसो ? आहारसरीरं पेक्खिदूण सत्थभावण शंका-चूँकि तैजस शरीर पुद्गलविपाकी होनेकी अपेक्षा व बन्धस्वामित्वकी अपेक्षा कार्मण शरीरके समान है, अतएव उसमें कार्मण शरीरकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीनता घटित नहीं होती ? समाधान-नहीं, क्योंकि, कार्यके महत्त्वसे कार्मण शरीरके अनुभागकी भी महानता सिद्ध होती है। तैजस शरीर नामकर्मसे केवल तैजस शरीरकी उत्पत्ति होती है, किन्तु कार्मण शरीर गन्धवाले पेलिया वृत्तके समान सब कोंके आसवका कारण है इसलिये तैजस शरीरके द्वारा किये जानेवाले कार्यकी अपेक्षा कार्मण शरीरके द्वारा किया जानेवाला कार्य अतिशय महान् है, अतएव उसका अनुभाग अनन्तगुणा है यह निश्चय होता है। उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा हीन है ॥ ७१ ॥ शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, वह उद्वेलनाको प्राप्त होनेवाली प्रकृति है। तीव्र अनुभागकी उद्वेलना करके उसे निःसत्त्व करना तो शक्य नहीं है। परन्तु आहारक शरीरकी उद्वेलना करके उसे निःसत्त्व करते हुए देखा जाता है। इस कारण तैजस शरीरके अनुभागकी अपेक्षा आहारक शरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है, यह सिद्ध होता है। उससे वैक्रियिक शरीर अनन्तगुणा हीन है ॥ ७२ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। शंका-वह प्रकृतिकी विशेषता क्या है ? समाधान-आहारक शरीरमें जितनी प्रशस्तता है उसकी अपेक्षा इसमें वह कम है, यही प्रकृति विशेषता है। १ प्रतिषु 'अणंतगुणो त्ति' इति पाठः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] ariडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ७३. ऊदा | वेउव्वयसरीरमप्पसत्यमिदि कथं णव्वदे ? ण, आहारसरीरस्सेव संजदेसु चैव asarसरीरस्स बंधाणुवलंभादो । मणसगदी अनंतगुणहीणा ॥ ७३ ॥ कुदो ? अव्वखवगविसोहीदो अनंतगुणहीण विसोहीएण' देवासंजदसम्मादिट्टिणा पबद्धतादो | ओरालियसरीरमणंतगुणहीणं ॥ ७४ ॥ दोणं पयडीणं उक्कस्सबंधस्स एकम्हि चेव सामीए संते कधमणुभागं पडि विसरिसत्तं एस दोस्रो, पडिविसेसेण विसरिसत्तुववत्तीदो को पयडिविसेसो ? जीवविवागि- पोग्गल विवागित्तं । मणसगदी जीवविवागी, ओरालियसरीरं पोग्गलविवागी । तेण मणुसमदीदो ओरालिय सरीरस्स अनंतगुणहीणत्तं सिद्धं । मिच्छत्तमणंतगुणहीणं ॥ ७५ ॥ सव्वदव्वपज्जायअसद्दहम्भि णिवद्धजीवविवागिमिच्छत्ताणुभागादो पोग्गलविवामि शंका- वैक्रियिक शरीर अप्रशस्त है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार आहारक शरीरका बन्ध संयत जीवोंके ही होता है उस प्रकार वैक्रियिक शरीरका बन्ध मात्र संयतोंके नहीं उपलब्ध होता । इसीसे उसकी अप्रशस्तता जानी जाती है । उससे मनुष्यगति अनन्तगुणी हीन है || ७३ ॥ क्योंकि, अपूर्वकरण क्षपककी विशुद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाला असंयत संम्यग्दृष्टि देव उसे बाँधता है । उससे औदारिक शरीर अनन्तगुणा हीन है ॥ ७४ ॥ शंका- दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट बन्धका स्वामी एक ही जीव है फिर इनके अनुभाग में विसदृशता कैसे सम्भव है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रकृतिविशेष होने के कारण उनमें विसदृशता सम्भव है । शंका- वह प्रकृतिविशेष क्या है ? समाधान -- जीवविपाकित्व और पुद्गलविपाकित्व ही यहाँ प्रकृतिविशेष है । मनुष्यगति प्रकृति जीवविपाकी है और औदारिक शरीर पुद्गलविपाकी है । इस कारण मनुष्यगतिकी अपेक्षा औदारिक शरीर अनन्तगुणा हीन है, यह सिद्ध होता है । उससे मिथ्यात्व प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ७५ ॥ शंका -- सब द्रव्यों व उनकी पर्यायां अश्रद्धानसे सम्बन्ध रखनेवाली जीवविपाकी १ प्रतौ 'विसोहीए' इति पाठः । २ प्रतौ 'सरिसत्तं' इति पाठः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ७, ७६. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [४४ ओरालियसरीराणुमागो कधमणंतगुणो ? ण च अंतरंगवावदकम्मे हितो. बहिरंगवावदकम्माणमणुभागेण महल्लत्तं, 'विरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, पयडि विसेसेण अणंतगुणहीणत्ताविरोहादो। को पयडि विसेसो ? ओरालियसरीरमिच्छत्ताणं पसत्थापसत्थत्तं । कधमोरालियसरीरस्स पसत्थत्तं णयदे ? मिच्छत्तस्सेव मिच्छाइट्ठिम्हि चेव ओरालियसरीरस्स बंधाणुवलंभादो णव्वदे। केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीयं असादवेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि अणंतगुहीणाणि ॥ ७६ ॥ एदासिं चदुपणं पयडीणमुकस्साणुभागस्स मिच्छाइट्ठी सव्वसंकिलिट्ठो मिच्छत्तस्सेव सामी । तदो तत्तो एदासिमणंतगुणहीणत्तं ण जुञ्जदे ? ण, पय डिविसेसेण तदुववत्तीदो। कुदो पयडि विसेसो णबदे ? मिच्छत्तोदए संते केवलणाणावरणादिसव्वपयडीणं बंध-संत मिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागकी अपेक्षा पुद्गलविपाकी औदारिक शरीरका अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है ? यदि कहा जाय कि अन्तरंगमें प्रवृत्त हुए कर्मोंकी अपेक्षा बहिरंगमें प्रवृत्त हुए कर्म अनुभागकी अपेक्षा महान होते हैं सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। . समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रकृतिविशेष होनेके कारण औदारिक शरीरकी अपेक्षा मिथ्यात्बके अनन्तगुणे हीन होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका-वह प्रकृतिविशेष, क्या है ? समाधान-औदारिक शरीर प्रशस्त है और मिथ्यात्व अप्रशस्त है, यही यहाँ प्रकृतिविशेष है। शंका-औदारिक शरीर प्रशस्त है. यह किस प्रमाणसे जाना जाता है.? । - समाधान-जिस प्रकार मिथ्यात्वका 'बन्ध एक मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें होता है इस प्रकार औदारिक शरीरका बन्ध केवल वहाँ ही नहीं होता। इसीसे औदारिक शरीरकी प्रशस्तता जानी जाती है। केवल ज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय ये चारों ही प्रकृत्तियाँ तुल्य होकर उससे अनन्तगुणी हीन हैं ।। ७६ ॥ शंका-चूँकि मिथ्यात्वके समान इन चार प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है, अतएव मिथ्यात्व प्रकृतिकी अपेक्षा ये चार प्रकृतियाँ अनन्तगुणीहीन नहीं बन सकती ? समाधान नहीं, क्योंकि, प्रकृति विशेष होनेके कारण वे चारों ही प्रकृतियाँ अनन्तगुणी हीन बन जाती हैं। शंका-इनकी प्रकृतिगत विशेषताका परिज्ञान किस प्रमाणसे होता है ? समाधान--मिथ्यात्वका उदय होनेपर केवलज्ञानावरणादि सब प्रकृतियोंके बन्ध व सत्त्वका १ प्रतिषु 'विरोहादि त्ति' इति पाठः। छ. १२-७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ७७ विणासाभावदसणादो केवलणाणावरणादीणमुदए संते मिच्छत्तस्स बंध-संतविणासोवलंभादो। अणंताणुबंधिलोभो अणंतगुणहीणो ॥ ७७ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । को पयडिविसेसो ? तेहिंतो दुब्बलत्तं । कधं दुबलभावो णव्वदे ? सम्मत्तपरिणामेहि विसंजोयणाणुवलंभादो चदुण्णं तदुवलंभादो। माया विसेसहीणा ॥ ७८ ॥ कुदो १ पयडिविसेसेण । कोधो विसेसहीणो ॥ ७६ ॥ पयडिविसेसेण । माणो विसेसहीणो ॥८॥ पयडिविसेसेण । संजलणाए लोभो अणंतगुणहीणो ॥ ८१ ॥ अणंताणुवंधि-संजलणाणं मिच्छाइडिम्हि चेव उक्कस्सबंधे संते अणंताणुभागादो विनाश नहीं देखा जाता है, परन्तु केवलज्ञानावरणादिकोंके उदयमें मिथ्यात्वके बन्ध व सत्त्वका विनाश उपलब्ध होता है । इसीसे इनकी प्रकृतिगत विशेषताका ज्ञान होता है। उनसे अनन्तानुबन्धी लोभ अनन्तगुणा हीन है ॥ ७७॥ क्योंकि इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। शंका-वह प्रकृतिगत विशेषता क्या है ? समाधान--उपर्युक्त चारों प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसकी दुर्बलता ही प्रकृतिगत विशेषता है। शंका--इसकी दुर्बलता किस प्रमाणसे जानी जाती है? समाधान--क्योंकि सम्यक्त्व परिणामोंके द्वारा उनका विसंयोजन नहीं उपलब्ध होता, परन्तु इन चारोंका विसंयोजन उपलब्ध होता है, अतएव ज्ञात होता है कि अनन्तानुबन्धी लोभ उन चारोंकी अपेक्षा दुर्बल है। उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष हीन है ॥ ७८ ॥ इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोघ विशेषहीन है ॥ ७९ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है।। उससे अनन्तानुवन्धी मान विशेषहीन है ॥ ८०॥ यहाँ भी कारण प्रकृति विशेष ही है। उससे संज्वलन लोभ अनन्तगुणा हीन है ।। ८१ ॥ शंका-जब कि अनन्तानुबन्धी और संज्वलनका उत्कृष्ट बन्ध मिथ्या दृष्टि गुणस्थानमें ही Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ८५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [५१ कधं संजलणाणुभागो अणंतगुणहीणो ? पयडि विसेसादो । तं जहा-अणंताणुबंधिचउकं सम्मत्त-संजमाणं घादयं, संजलणचदुकं पुण चारित्तस्सेव विणासयं । तदो अणंताणुबंधिचउक्कसत्तीदो संजलणचउक्कसत्तीए अप्पयरत्तं णव्वदे । तेण अणंताणुभागादो संजलणाणुभागस्स अणंतगुणहीणत्तं णव्वदे। माया विसेसहीणा ॥ ८२ ॥ पयडिविसेसेण । कोधो विसेसहीणो ॥ ८३ ॥ पयडि विसेसेण । माणो विसेसहीणो ॥ ८४ ॥ पयडिविसेसेण । पञ्चक्खाणावरणीयलोभो अणंतगुणहीणो॥ ८५ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । कधं पयडिविसेसो णव्वदे ? संजलणचउक्कं जहावखादसंजमधादयं पञ्चक्खाणावरणीयं पुण सरागसंजमघादयं । तेण पञ्चक्खाणादो संजलणाणुहोता है तब अनन्तानुबन्धीके अनुभागकी अपेक्षा संज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा हीन कैसे हो सकता है ? समाधान-प्रकृतिविशेष होनेके कारण वैसा होना सम्भव है । यथा-अनन्तानुबन्धिचतुष्क सम्यक्त्व और संयमका घातक है, परन्तु संज्वलनचतुष्क केवल चारित्रका ही घात करनेवाला है। इसीसे अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी शक्तिकी अपेक्षा संज्वलनचतुष्ककी शक्ति अल्पतर है यह जाना जाता है और इस कारण अनन्तानुबन्धीके अनुभागसे संज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है, यह जाना जाता है। उससे संज्वलन माया विशेषहीन है ॥ ८२ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है। उससे संज्वलन क्रोध विशेष हीन है ॥ ८३ ॥ कारण प्रकृति विशेष है। उससे संज्वलन मान विशेष हीन है ॥ ८४॥ कारण प्रकृति की विशेषता है। उससे प्रत्याख्यानावरण लोभ अनन्तगुणा हीन है ॥ ८५ ॥ इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। शंका--यह प्रकृतिगत विशेषता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-संज्वलन चतुष्क यथाख्यात संयमका घातक है, परन्तु प्रत्याख्यानावरणीय सरागसंयमका घातक है। इसीसे प्रत्याख्यानावरणकी अपेक्षा संज्वलनका अनुभाग अतिशय महान् है यह जाना जाता है । दूसरे, प्रत्याख्यानावरणका उदय संयतासंयत गुणस्थान तक होता है, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, ८६. भागमहल्लत्तं गव्वदे। किंच, पञ्चक्खाणावरणस्स उदओ संजदासंजदगुणट्ठाणं जाव संजलणाणं पुण जाव सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदचरिमसमओ त्ति । उवरिमपरिणामेहि' अणंतगुणेहि वि उदयविणासाणुवलंभादो वा णव्वदे जहा संजलणाणुभागादो पञ्चक्खणावरणीयपयडीए अणंतगुणहीणत्तं । माया विसेसहीणा ॥८६॥ पयडिविसेसेण । कुदो पयडिविसेसो णवदे ? मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो। कोधो विसेसहीणो ॥ ८७॥ पयडिविसेसेण । कुदो एसो णव्वदे ? उवसंहरिदकोधमहारिसीणं पि लोभ-मायाणमुदओवलंभादो। माणो विसेसहीणो ॥ ८८ ॥ कोधपुरंगमत्तदंसणादो। अपचक्खाणावरणीयलोभो अणंतगुणहीणो ॥ ८६ ॥ परन्तु संज्वलनोंका उदय सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धि संयतके अन्तिम समय तक रहता है। अथवा अनन्तगुण उपरिम परिणामोंके द्वारा संज्वलनके उदयका विनाश नहीं उपलब्ध होता इससे भी जाना जाता है कि संज्वलनके अनुभागकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावरणीय प्रकृतिका अनुभाग अनन्त गुणा हीन है। उससे प्रत्याख्यानावरण माया विशेष हीन है ॥ ८६ ॥ इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। शंका--यह प्रकृतिगत विशेषता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान--यतः माया लोभपूर्वक उपलब्ध होती है, अतः उससे प्रकृतिगत विशेषता जानी जाती है। उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष हीन है ॥ ८७ ।। इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--जिन महर्षियोंने क्रोधका उपसंहार कर लिया है उनके भी लोभ और मायाका उदय उपलब्ध होता है । इससे प्रकृति विशेषका निश्चय होता है। उससे प्रत्याख्यानावरण मान विशेष हीन है ।। ८८ ।। कारण कि वह क्रोधपूर्वक देखा जाता है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय लोभ अनन्तगुणा हीन है ॥ ८९ ॥ १ प्रतिषु-'मेहितो अणंत' इति पाठः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १३.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं ___कुदो ? पयडिमाहप्पेण । तं कधं णबदे १ कजथोवबहुत्तदंसणादो। तं जहासंजमासंजमघादयमपञ्चक्खाणावरणीयं पच्चक्खाणावरणीयं पुण संजमघादयं । तेण अपचक्खाणावरणादो पच्चक्खाणावरणमहल्लत्तं णव्वदे। माया विसेसहीणा ॥१०॥ पयडिविसेसेण । कोधो विसेसहीणो ॥ १ ॥ पडि विसेसेण । माणो विसेसहीणो ॥ १२ ॥ पयडिविसेसेण। आभिणिबोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि ॥ ६३ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । पयडिमाहप्पं कधं णव्वदे ? सव्वघादि-देसघादित्तणेहि । अपचक्खाणावरणचदुकं सव्वधादि, णिस्सेसदेससंजमघादित्तादो । आभिणिबोहियणाणाव इसमें प्रकृतिका महत्व ही कारण है। शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान---उसका परिज्ञान कार्यके अल्पबहुत्वको देखनेसे होता है। यथा---अप्रत्याख्यानावरणीय संयमासंयमका घातक है, परन्तु प्रत्याख्यानावरणीय संयमका विघातक है। इससे अप्रत्याख्यानावरणकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावरणकी महानता जानी जाती है। उससे अप्रत्याख्यानावरण माया विशेष हीन है ॥ ९० ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है।। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष हीन है ।। ९१ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मान विशेष हीन है ॥ ९२ ॥ • इसका कारण प्रकृति विशेष है। .. उससे आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं ॥ ९३ ॥ क्योंकि ये प्रकृति विशेष हैं। शंका-प्रकृतिका माहात्म्य किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--उसका परिज्ञान सर्वघाती व देशघाती स्वरूपसे होता है। अपत्याख्यानवरण चतुष्क सर्वघाती है, क्योंकि, वह पूर्णतया देशसंयमका घात करता है। परन्तु आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय देशघाती हैं, क्योंकि, ये दोनों क्रमशः मतिज्ञान और Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] छक्खडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ६४. रणीयं परिभोगंतराइयं च देसघादि, मदिणाण-परिभोगाणमेगदेसघादित्तादो। तदो एदेसिं दोण्णं कम्माणमणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति सिद्धं । चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणहीणं ॥ १४ ॥ पयडिविसेसेण । एदस्स सत्तीए ऊणत्तं कधं णव्वदे ? किमिदि ण णव्वदे, आभिणियोहियणाणावरणीय-परिभोगंतराइयाणं' व सव्वत्थ खओवसमस्स अणुवलंभादो। ण च थोवेसु चेव जीवेसु खोवसमं गंतूण अणंतजीवरासिं चक्खिदियं सव्वं घाइदण हिदस्स चक्खिदियावरणस्स सत्तीए ऊणतं, बिरोहादो ? ण एस दोसो, आमिणिबोहियणाणावरणीयं जेण पंचिंदियणोइंदियपडिबद्धअसेसघादयं, [ चक्खुदंसणावरणीयं पुण ] चक्खुदंसणोवजोगमेत्तपादयं, तदो अप्पकञ्जकरणादो चक्खुदंसणावरणीयसत्ती थोवेति णव्वदे। सुदणाणावरणीयमचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च तिण्णि [वि तुल्लाणि ] अणंतगुणहीणाणि ॥ ५ ॥ परिभोगान्तरायके एक देशका घाल करनेवाले हैं। इस कारण इन दोनों कर्मोंका अनुभाग अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन है, यह सिद्ध होता है। उनसे चक्षुदर्शनावरणीय प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ९४ ॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका-उन दोनोंकी अपेक्षा इसकी शक्ति हीन है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- क्यों नहीं जाना जाता है अर्थात् अवश्य जाना जाता है, क्योंकि, आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायके समान चक्षुदर्शनावरणीयका सर्वत्र क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। शंका-चूंकि चक्षुदर्शनावरणका थोड़े ही जीवों में क्षयोपशम होता है इसके सिवा अनन्त जीवराशिमें वह पूर्ण रूपसे चक्षुरिन्द्रियका घातक है अतः उसकी शक्ति हीन नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है ? सामाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय चूंकि स्पर्शनादि पाँच इन्द्रिय और नोइन्द्रियसे सम्बन्ध रखनेवाले सब ज्ञानका घातक है, [ परन्तु चक्षुदर्शनावरणीय] केवल । चक्षुदर्शनोपयोग मात्रका घातक है, अतः अल्प कार्य करनेके कारण चक्षुदर्शनावरणीयकी शक्ति स्तोक है, यह जाना जाता है । श्रतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराये ये तीनों ही प्रकृतियाँ तुल्य होकर चक्षुदर्शनावरणीयसे अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९५ ॥ १ प्रतिषु राइयाणं च सम्वत्थ इति पाठः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५५ ४, २, ७, ६५. 1 वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं सुदणाणावरणीयं णाम महाविसयं, परोक्खसरूवेण सव्वत्थ परिच्छेदिसुदणाणघायणे वावदत्तादो। सेसदोपयडिअणुभागो वि महल्लो चेव, सुदणाणावरणीयसमाणत्तादो। तदो एदेसिमणुभागेण चक्खुदंसणावरणीयअणुभागादो अणंतगुणहीणेण होदव्वमिदि महाविसयस्स अणुभागो महल्लो होदि, थोवविसयस्स अणुभागो थोवो होदि त्ति एदमत्थं मोत्तण तो क्ख हि एवं घेत्तव्वं । तं जहा-खवगसेडीए देसघादिबंधकरणे जस्स पुव्वमेव अणुभागबंधो देसघादी जादो तस्साणुभागो थोवो । जस्स पच्छा जादो तस्स बहुओ। एदासिं च अणुभागबंधो चक्खुदंसणावरणीयअणुभागबंधादो पुव्वमेव देसघादी जादो । तं जहा–मिच्छाइद्विमादि कादण जाव अणियट्टिद्धाए संखेजा भागा ताव एदासिमणुभागबंधो सव्वघादी बज्झदि । पुणो तत्थ मणपजवणाणावरणीयं दाणंतराइयं च बंधेण देसघादी करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण ओहिणाणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं लाहंतराइयं च तिण्णि वि बंधेण देससादी करेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुदणाणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च तिषिण वि बंधेण देखघादी करेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण चक्खुदंसणावरणीयं बंधेण देसघादी करेदि । वदो अंतोमुहुत्तं गंतूण आभिणिबोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च दो वि बंधेण देसघादी करेदि । तदो अंतोमुहत्तं गंतूण वीरियंतराइयं बंधेण देसघादी करेदि त्ति । तेण चक्खुदंसणावरणीय श्रुतज्ञानावरणका विषय महान् है, क्योंकि, वह परोक्ष स्वरूपसे सब पदार्थोंको जाननेवाले श्रुतज्ञानके घातनेमें प्रवृत्त है। शेष दो प्रकृतियोंका अनुभाग भी महान् ही है, क्योंकि वह श्रुतज्ञानावरणके अनुभागके ही समान है। इस कारण इनका अनुभाग चक्षुदर्शनावरणीयके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होना चाहिये, क्योंकि, महान् विषयवाली प्रकृतिका अनुभाग महान् होता है और अल्प विषयवाली प्रकृतिका अनुभाग अल्प होता है। यदि ऐसा है तो इस अर्थको छोड़कर ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यथा--क्षपकश्रेणिमें देशघाती बन्धकरणके समय जिसका अनुभाग बन्ध पहिले ही देशघाती हो गया है उसका अनुभाग स्तोक होता है और जिसका अनुभागबन्ध पीछे देशघाती होता है उसका अनुभाग बहुत होता है। इस नियमके अनुसार इन तीन प्रकृतियों का अनुभागबन्ध चक्षुदर्शनावरणीयके अनुभागबन्धसे पहिले ही देशघाती हो जाता है। यथा-- मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग तक इनका अनुभागबन्ध सर्वघाती बंधता है। फिर वहाँ मनःपर्यय ज्ञानावरण और दानान्तरायको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। इससे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय इन तीनों प्रकृतियोंको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय इन तीनोंको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर चक्षुदर्शनावरणीयको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तमुहूर्त जाकर आर्भािनबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय इन दोनों प्रकृतियोंको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर वीर्यान्तरायको बन्धकी अपेक्षा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ९६. अणुभागो एदासि तिष्णमणुभागादो 'अनंतगुणो एसो अत्थो बारसण्णं देसघादिबंधrयडीणं सव्वत्थ जोजेयव्वो । ओहिणाणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं लाहंतराइयं च तिण्णि वितुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ ६६ ॥ कारणं पुत्रं परुविदमिदि ोह परूनिजदे | मणपज्जवणाणावरणीयं थी गिद्धी दाणंतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ ६७ ॥ कारणं सुगमं । सयवेदो अनंतगुणहीणो ॥ ६८ ॥ णोकसायत्तादो । अरदी अनंतगुणहीणा ॥ ६६ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । तं जहा - इट्टगावागसष्णिहो णवुंसयवेदोदआ, अरदो पुण अरमणमेत्तु पाइया । तेण अनंतगुणहीणा । देशघाती करता है। इस कारण चक्षुदर्शनावरणीयका अनुभाग इन तीन प्रकृतियोंके अनुभागसे अनन्तगुणा है । इस अर्थकी बारह देशघाती बन्ध प्रकृतियों के सम्बन्ध में सर्वत्र योजना करनी चाहिये । उनसे अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय, ये तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९६ ॥ इसका कारण पहिले बतला आये हैं इसलिए यहाँ उसका कथन नहीं करते हैं । उनसे मन:पर्ययज्ञानावरणीय, स्त्यानगृद्धि और दानान्तराय ये तीनों ही तुल्य ster अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९७ ॥ इसका कारण सुगम है । उनसे नपुंसक वेद प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ९८ ॥ क्योंकि, वह नोकषाय है । उससे अरति अनन्तगुणी होन है ।। ९९ ।। क्योंकि, इनमें प्रकृतिगत विशेषता है । यथा— नपुंसक वेदका उदय ईटोंके पाकके समान है, परन्तु अरति तो मात्र नहीं रमनेरूप भावको उत्पन्न करनेवाली है, इस कारण वह नपुंसक वेदकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन है । .... १ प्रतिषु श्रणंतगुणही गो इति पाठः । २ प्रतौ 'सव्यत्थो' इति पाठः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७ ४, २, ७, १०५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं सोगो अणंतगुणहीणो ॥ १०॥ कुदो ? अरदिपुरंगमत्तादो । कधमरदिपुरंगमत्तं ? अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए । भयमणंतगुणहीणं ॥ १०१ ॥ भयउदयकालादो सोगुदयकालस्स महल्लत्तवलंभादो। सोगो उक्कस्सेण छम्मासमेत्तो चेव, भयस्स कालो णेरइएसु तेत्तीससागरोवममेत्तो ति भयमणंतगुणं किष्ण जायदे ? ण, णेरइएसु वि भयकालस्स अंतोमुहुत्तस्सेव उवलंभादो। दुगुंछा अणंतगुणहीणा ॥ १०२ ॥ पयडिविसेसेण । णिदाणिद्दा अणंतगुणहीणा ॥ १०३ ॥ कस्स वि जीवस्स कहिं मि उदयदंसणादो। पयलापयला अणंतगुणहीणा ॥ १०४ ॥ लालासंदणेण थोवकालपडिबद्धचेयणाभावदसणादो, णिहाणिदाए उदएण तदणुवलंभादो। णिद्दा अणंतगुणहीणा ॥ १०५ ॥ उससे शोक अनन्तगुणा हीन है ॥१०० ।। क्योंकि, वह अरतिपूर्वक होता है। शंका-वह अरतिपूर्वक कैसे होता है ? समाधान--क्योंकि, अरतिके बिना शोक नहीं उत्पन्न होता है। उससे भय अनन्तगुणा हीन है॥ १०१ ॥ क्योंकि, भयके उदयकालकी अपेक्षा शोकका उदयकाल बहुत पाया जाता है। शंका-चूंकि शोक उत्कष्टसे छह मास पर्यन्त ही होता है, परन्तु भयका काल नारकियोंमें तेतीस सागरोपम प्रमाण है, अतएव शोककी अपेक्षा भय अनन्तगुणा क्यों नहीं होता? समाधान नहीं, क्योंकि, नारकियोंमें भी भयका काल अन्तर्मुहूर्त ही उपलब्ध होता है। उससे जुगुप्सा अनन्तगुणी हीन है ।। १०२ ॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। उससे निद्रानिद्रा अनन्तगुणी हीन है ॥ १३ ॥ क्योंकि, किसी भी जीवके कहीं पर ही उसका उदय देखा जाता है। उससे प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी हीन है ॥ १०४ ॥ क्योंकि, लार बहनेसे थोड़े कालसे सम्बन्ध रखनेवाला चैतन्य भाव देखा जाता है, परन्तु निद्रानिन्द्राके उदयसे उसकी उपलब्धि नहीं होती। उससे निद्रा अनन्तगुणी हीन है ॥ १०५ ॥ छ. १२-८ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arखंडागमे वेयणाखंड एदिस्से उदरण सचेयण व्व णिदुवलंभादो | पयला अनंतगुणहीणा ॥ १०६ ॥ एदिस्से उदएण बोलंतस्स वट्ठाए वहंतस्स वा सीसस्स अइथोवसंचालदंसणादो । अजसकित्ती णीचागोदं च दो वि तुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ १०७ ॥ कुदो ? साभावियादो। ण च सहाओं परपज्ञ्जणियोगारिहो । णिरयगई अनंतगुणहीणा ॥ १०८ ॥ कुदो ? णेरइयभावणिव्वत्तयत्तादो । तिरिक्खगई अनंतगुणहीणा ॥ १०६ ॥ ५८ ] कुदो ? णेरइयगई व्व तेत्तीस सागरोवमफलुप्पायणसत्तीए अभावादो, णिरयगदी व एदिस्से दुक्खकारणत्ताभावादो वा । इत्थवेदो अनंतगुणहीणो ॥ ११० ॥ कुदो ? अरइगभमुम्मरग्गिसमदुक्खुप्पायणादो | पुरिसवेदो अनंतगुणहीणो ॥ १११ ॥ कुदो ? तणग्गिसमथोवदुक्खुप्पाणादो । क्योंकि, इसके उदय से सचेतन के समान निद्रा उपलब्ध होती है । उससे प्रचला अनन्तगुणी हीन है ।। १०६ ॥ क्योंकि इसके उदयसे बोलते हुए, बैठे हुए अथवा चलते हुए जीवके सिरका संचार बहुत स्तोक काल तक देखा जाता है । उससे अयशःकीर्ति और नीचगोत्र ये दोनों प्रकृतियाँ तुल्य होकर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ १०७ ॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव है, और स्वभाव दूसरोंके प्रश्नके योग्य नहीं होता । उनसे नरकगति अनन्तगुणी हीन है ॥ १०८ ॥ क्योंकि, वह नारक पर्यायको उत्पन्न करानेवाली है । उससे तिर्यग्गति अनन्तगुणी हीन है ।। १०९ ॥ [ ४, २, ७, १०६. क्योंकि, उसमें नरकगतिके समान तेतीस सागरोपम कालतक फल उत्पन्न कराने की शक्ति नहीं है, अथवा यह नरकगति के समान दुखकी कारण नहीं है । उससे स्त्रीवेद अनन्तगुणा हीन है ॥ क्योंकि वह अरतिगर्भित कण्डेकी आगके उससे पुरुषवेद अनन्तगुणा हीन हैं ॥ क्योंकि, वह तृणाग्निके समान थोड़े दुखको उत्पन्न करनेवाला है । १११ ॥ ११० ॥ समान दुःखोत्पादक है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ११७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुभं रदी अणंतगुणहीणा ॥ ११२॥ कुदो ? माया-लोभ-तिवेदपुरंगमत्तादो । हस्समणंतगुणहीणं ॥ ११३॥ कुदो ? रदिपुरंगमत्तादो। देवाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११४ ॥ कुदो ? साभावियादो। णिरयाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११५ ॥ कुदो ? देवाउपेक्खिदण अप्पसत्थभावादो। मणसाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११६ ॥ णिरयाउअस्सेव मणुसाउअस्स दीहकालमुदयाणुवलंभादो । णिरयाउआदो मणुसाउअं पसत्थमिदि अणंतगुणं किण्ण जायदे ? ण, पसत्थभावेण जणिदाणुभागादो दीहकालादयाणबंधणाणुभागस्स पाधणियादो । तिरिक्खाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११७॥ कुदो ? मणुस्साउआदो तिरिक्खाउअस्स अप्पसत्थत्तदंसणादो। एवमुक्कस्सओ चउसहिपदियो महादंडओ कदो भवदि । उससे रति अनन्तगुणी हीन है ॥ १५२ ॥ क्योंकि, वह माया, लोभ और तीन वेद पूर्वक होती है। उससे हास्य अनन्तगुणा हीन है ।। ११३ ॥ क्योंकि, वह रतिपूर्वक होता है। उससे देवायु अनन्तगुणी हीन है ॥ ११४ ॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उससे नारकायु अनन्तगुणी हीन है ।। ११५ ।। कारण कि वह देवायुकी अपेक्षा अप्रशस्त है। उससे मनुष्यायु अनन्तगुणी हीन है ॥ ११६ ॥ कारण कि नारकायुके समान मनुष्यायुका बहुत समयतक उदय नहीं पाया जाता । शंका -- चूंकि नारकायुकी अपेक्षा मनुष्यायु प्रशस्त है, अतः वह उससे अनन्तगुणी क्यों 'समाधान-नहीं, क्योंकि, यहाँ प्रशस्ततासे उत्पन्न अनुभागकी अपेक्षा बहुत समय तक । रहनेवाले उदय निमित्तक अनुभागकी प्रधानता है। उससे तिर्यगायु अनन्तगुणी हीन है।। ११७॥ कारण कि मनुष्यायुकी अपेक्षा तिर्यगायुके अप्रशस्तता देखी जाती है। इस प्रकार उत्कृष्ट चौंसठ पदवाला महादण्डक समाप्त होता है। नहीं होती? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ११७. संपहि एदेण अप्पावहुएण सूचिदउत्तरपयडिसत्थाणुक्कस्साणुभागअप्पाबहुअंवत्तइस्सामो। तं जहा-सव्वतिव्वाणुभागं केवलणाणावरणीयं । आभिणियोहियणाणावरणीयं अणंतगुणहीणं । [सुदणाणावरणीयं अणंतगुणहीणं ] ओहिणाणावरणीयमणंतगुणहीणं । मणपजवणाणावरणीयमणंतगुणहीणं । सव्वतिव्वाणुभागं केवलदंसणावरणीयं। चक्खुदंसणावरणीयं अणंतगुणहीणं । अचक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणहीणं। ओहिदसणावरणीयमणंतगुणहीणं । थीणगिद्धी अणंतगुणहीणा। णिद्दाणिद्दा अणंतगुणहीणा। पयलापयला अणंतगुणहीणा । णिद्दा अणंत गुणहीणा । पयला अणंतगुणहोणा। सव्वतिव्वाणुभागं सादमसादमणंतगुणहीणं । सम्पतिव्वाणुभागं मिच्छत्तं । अणंताणुबंधिलोभो अणंतगुणहीणो। माया विसेसहीणा। कोधो विसेसहीणो । माणो विसेसहीणो । संजलणाए लोभो अणंतगुणहीणो। माया विसेसहीणा। कोधो विसेसहीणो । माणो विसेसहीणो। एवं पञ्चक्खाणचदुकापञ्चक्खाणचदुक्कस्स च वत्तव्यं । णqसयवेदो अणंतगुणहीणो। अरदी अणंतगुणहीणा । सोगो अणंतगुणहीणो। भयमणंतगुणहीणं । दुगुंछा अणंतगुणहीणा । इत्थिवेदो अब इस अल्पबहुत्वसे सूचित होनेवाला उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागविषयक स्वथान अल्पबहुत्व कहते हैं । यथा-केवलज्ञानावरण सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय अनन्तगुणी हीन है। [ उससे श्रुतज्ञानावरणीय अनन्तगुणी हीन है। ] उससे अवधिज्ञानावरणीय अनन्तगुणी हीन है । उससे मनःपर्ययज्ञानावरणीय अनन्तगुणी हीनहै। केवलदर्शनावरणीय सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे चक्षुदर्शनावरणीय अनन्तगुणी हीन है । उससे अचक्षुदर्शनावरणीय अनन्तगुणी हीन है। उससे अवधि दर्शनावरणीय अनन्तगुणी हीन है। उससे स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी हीन है। उससे निद्रानिद्रा अनन्तगुणी हीन है। उससे प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी हीन है। उससे निद्रा अनन्तगुणी हीन है। उससे प्रचला अनन्तगुणी हीन है। सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे असातावेदनीय अनन्तगुणी हीन है। मिथ्यात्व प्रकृति सबसे तीन अनुभागसे युक्त है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभ अनन्तगुणा हीन है। उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष हीन है। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष हीन है । उससे अनन्तानुबन्धी मान विशेष हीन है। उससे संज्वलनलोभ अनन्तगुणा हीन है। उससे संज्वलन माया विशेष हीन है। उससे संज्वलन क्रोध विशेष हीन है । उससे संज्वलन मान विशेष हीन है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके विषयमें कहना चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण मानसे नपुंसकवेद अनन्तगुणा हीन है। उससे अरति अनन्तगुणी हीन है। उससे शोक अनन्तगुणा हीन है। उससे भय अनन्तगुणा हीन है। उससे जुगुप्सा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ४, २, ७, ११७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं अणंतगुणहीणो । पुरिसवेदो अणंतगुणहीणो। रदी अणंतगुणहीणा। हस्समणंतगुणहीणं । सव्वतिव्वाणुभागं देवाउनं । णिरयाउअमणंतगुणहीणं । मणुसाउअमणंतगुणहीणं । तिरिक्खाउअमणंतगुणहीणं । सव्वतिब्वाणुभागा देवगई। मणुसगई अणंतगुणहीणा। णिरयगई अणंतगुणहीणा। तिरिक्खगई अणंतगुणहीणा।। सव्वतिव्वाणुभागा पंचिंदियजादी । एइंदियजादी अणंतगुणहीणा । बेइंदियजादी अणंतगुणहीणा । तेइंदियजादी अणंतगुणहीणा । चउरिंदियजादी अणंतगुणहीणा। सव्वतिव्वाणुभागं कम्मइयसरीरं । तेजइयसरीरं अणंतगुणहीणं । आहारसरीरमणंतगुणहीणं । वेउव्वियसरीरमणंतगुणहीणं । ओरालियसरीरमणंतगुणहीणं ।। सव्वतिव्वाणुभागं समचउरससंठाणं । हुँडसंठाणमणंतगुणहीणं । वामणसंठाणमणंतगुणहीणं । खुज्जसंठाणमणंतगुणहीणं । सादियसंठाणमणंतगुणहीणं । णग्गोधसंठाणमणंतगुणहीणं। ___सव्वतिव्वाणुभागमाहारसरीरअंगोवंगं। वेउब्वियसरीरअंगोवंगमणंतगुणहीणं । ओरालियसरीरमंगोवंगमगंतगुणहीणं । अनन्तगुणी हीन है। उससे स्त्रीवेद अनन्तगुणा हीन है। उससे पुरुषवेद अनन्तगुणा हीन है। उससे रति अनन्तगुणी हीन है । उससे हास्य अनन्तगुणा हीन है। देवायु सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे नारकायु अनन्तगुणी हीन है। उससे मनुप्यायु अनन्तगुणी हीन है। उससे तिर्यगायु अनन्तगुणी हीन है। देवगति सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे मनुष्यगति अनन्तगुणी हीन है। उससे नरकगति अनन्तगुणी हीन है। उससे तिर्यग्गति अनन्तगुणी हीन है। पञ्चेन्द्रिय जाति सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे एकेन्द्रिय जाति अनन्तगुणी हीन है। उससे द्वीन्द्रिय जाति अनन्तगुणी हीन है। उससे त्रीन्द्रिय जाति अनन्तगुणी हीन है। उससे चतुरिन्द्रिय जाति अनन्तगुणी हीन है। कार्मण शरीर सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे तैजस शरीर अनन्तगुणा हीन है। उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा हीन है। उससे वैक्रियिक शरीर अनन्तगुणा हीन है। उससे औदारिक शरीर अनन्तगुणा हीन है। समचतुरस्र संस्थान सबसे तीव्र अनुभाग से युक्त है। उससे हुंडक संस्थान अनन्तगुणा हीन है। उससे वामन संस्थान अनन्तगुणा हीन है। उससे कुब्जक संस्थान अनन्तगुणा हीन है। उससे स्वाति संस्थान अनन्तगुणा हीन है । उससे न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान अनन्तगुणा हीन है। ___ आहारक शरीरांगोपांग सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे वैक्रियिक शरीरांगोपांग अनन्तगुणा हीन है। उससे औदारिक शरीरांगोपांग अनन्तगुणा हीन है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,२,७,४ गा०. संघडणाणं संठाणभंगो । सव्वतिव्वाणुभागं 'पसत्थ [ वण्णचउक्कमप्पसत्थवण्ण ] चउक्कमणंतगुणहीणं । 'जहा गई तहाणुपुब्बी । एत्तो सवजुगलाणं सव्वतिव्वाणुभागाणि पसत्थाणि । अप्पसत्थाणि पडिवक्खाणि अणंतगुणहीणाणि । सव्वातिव्वाणुभागं उच्चागोदं । णीचागोदमणंतगुणहीणं । सव्वतिव्वाणुभागं विरियंतराइयं । हेहा कमेण दाणंतराइया अणंतगुणहीणा । एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं । (संज-मण-दाणमोही लाभं सुदचक्खु-भोग चक्टुं च । आभिणिबोहिय परिभोग विरिय णव णोकसायाइं ॥४॥ 'संज'त्ति उत्ते चत्तारि वि संजलणाणि घेत्तव्वाणि । 'मण दाणं'इदि वुत्ते मणपज्जवणाणावरणीयस्स दाणंतराइयस्स गहणं । 'ओहिति वुत्ते ओहिणाणावरणीयं घेत्तव्वं । 'लामणिदेसो लाभंतराइयगहणहो । 'सुद'णिद्देसो सुदणाणावरणीयपण्णवणट्ठो । संहननोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा संस्थानोंके समान है। प्रशस्त वर्णचतुष्क सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उससे अप्रशस्त वर्णचतुष्क अनन्तगुणा हीन है। आनुपूर्वीकी प्ररूपणा गति नामकर्मके समान है। ____आगे त्रस-स्थावरादि सब युगलोंमें प्रशस्त प्रकृतियाँ सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त हैं। उनकी प्रतिपक्षभूत अप्रशस्त प्रकृतियाँ अनन्तगुणी हीन हैं।। उच्चगोत्र सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है । उससे नीचगोत्र अनन्तगुणा हीन है। वीर्यान्तराय सबसे तीव्र अनुभागसे युक्त है। उसके नीचे क्रमशः दानान्तरायादिक अनन्तगुणे हीन हैं। इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। संज्वलनचतुष्क, मनःपर्ययज्ञानावरण, दानान्तराय, अवधिज्ञानावरण, लाभान्तराय, श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण, भोगान्तराय, चक्षुदर्शनावरण, आमिनिबोधिकज्ञानावरण, परिभोगान्तराय, वीर्यान्तराय और नौ नोकषाय ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हैं ॥ ४ ॥ __ 'संज' ऐसा कहनेपर चारों ही संज्वलन कषायोंका ग्रहण करना चाहिये । 'मण-दाणं' यह कहनेपर मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायका ग्रहण करना चाहिये । 'ओहि' ऐसा कहनेपर अवधिज्ञानावरणीयका ग्रहण करना चाहिये । 'लाभ' पदका निर्देश लाभान्तरायका ग्रहण करनेके लिये किया है। श्रुतज्ञानावरणीयका ज्ञान करानेके लिये 'सुद' पदका निर्देश किया है। अचक्षु १ अप्रतौ 'त्रुटितोऽत्र पाठः, मप्रतौ' सब्बतिव्वाणुभागं पसस्थवण्णं चउक्कमणंतगु० इति पाठः। २ अप्रतौ 'महा' इति पाठः। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ५ गा०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [६३ 'अचक्खुणिद्देसो अचक्खुदसणावरणीयगहणणिमित्तो। 'भोग"णिद्देसो भोगंतराइयस्स परूवओ। 'चक्खं च इदि णिद्देसो चक्खुदंसणावरणीयग्गहणणिमित्तो। किमटुं 'च' सद्दुच्चारणं कीरदे ? सुदणाणावरणीय-अचक्खुदंसणावरणीय-भोगंतराइयं च एदाणि तिण्णि वि कम्माणि जहा अणुभागेण अण्णोण्णं समाणाणि तहा चक्खुदंसणावरणीयं ण होदि ति जाणावणटुं कीरदे। 'आभिणियोहिय'णिदेसेण आभिणियोहियणाणावरणीयं घेत्तव्यं । 'परिभोग'वयणेण परिभोगंतराइयं घेत्तव्वं । 'ण व च' इदि चसद्देण एदासिमणंतरादो पयडीणमणुभागो सरिसो ति सूचिदो। 'विरिय इत्ति भणिदे विरियंतराइयस्स गहणं । 'णव णोकसाया'त्ति वुत्ते णवण्णं णोकसायाणं गहणं कायव्वं । एत्थ सव्वत्थ अणंतगुणसदस्स अज्झाहारो कायव्यो। (के-प-णि-अट्ट-त्तिय-अण-मिच्छा-ओ-वे-तिरिक्ख-मणुसाऊ। तेयाकम्मसरीरं तिरिक्ख-णिरय-देव-मणुवगई ॥ ५ ॥ केवलणाणावरणीय-केवलदंसणावरणीयाणं गहणटुं 'के' इति णिद्देसो कदो। ताणि च दो वि सारिसाणि त्ति जाणावणटुं 'के' इदि एगसद्देण णिदिहाणि । 'प'इति उत्ते दर्शनावरणीयका ग्रहण करने के निमित्त 'अचक्खु' पदका निर्देश किया है । 'भोग' पदका निर्देश भोगान्तरायका प्ररूपक है । 'चक्खं च' यह निर्देश चक्षुदर्शनावरणीयका ग्रहण करनेके निमित्त है। शंका-'चक्खं च' यहाँ 'च' शब्दका उच्चारण किसलिये किया है। समाधान-जिस प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ अनुभागकी अपेक्षा परस्पर समान हैं उस प्रकार चक्षुदर्शनावरणीय समान नहीं है, यह जतलानेके लिये 'च' शब्दका निर्देश किया है। 'आभिणिबोहिय' पदके निर्देशसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयका ग्रहण करना चाहिये । 'परिभोग' इस वचनसे परिभोगान्तरायका ग्रहण करना चाहिये। 'णव च' यहाँ किये गये 'च' शब्दके निर्देशसे इन प्रकृतियोंसे अव्यवहित प्रकृतियोंका अनुभाग सदृश है, यह सूचना की गई है। 'विरिय' कहनेपर वीर्यान्तरायका ग्रहण किया गया है। 'णव णोकसाया' ऐसा कहनेपर नौ नोकषायोंका ग्रहण करना चाहिये । यहाँ सर्वत्र 'अनन्तगुण' शब्दका अध्याहार करना चाहिये। केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण, प्रचला, निद्रा, आठ कषाय, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्व, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, तिर्यग्गति, नरकगति, देवगति और मनुष्यगति ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी हैं ॥ ५ ॥ केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय का ग्रहण करनेके लिये 'के' ऐसा निर्देश किया है। वे दोनों ही प्रकृतियाँ सदृश हैं, यह जतलानेके लिये 'के' इस एक ही शब्दके द्वारा १ अप्रती 'श्रोध' इति पाठः । . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,६, गा० पयला घेत्तव्वा, णामेगदेसादो वि णामिल्लपडिवत्तिदंसणादो। 'णि'इदि वुत्ते । ए गहणं । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । 'अट्ट'इदि वुत्ते अट्ठकसाया घेत्तव्वा । 'तिय' त्ति भणिदे थीणगिद्धितियं घेत्तव्यं । कुदो? आइरियोवदेसादो । 'अण'इदि णिद्देसो अणंताणुबंधिचउकगहणणिमित्तो । 'मिच्छा'णिद्देसो मिच्छत्तस्स गाहओ। 'ओ'इदि वुत्ते ओरालियसरीरं घेत्तव्यं । ओहिणाणं किण्ण घेप्पदे ? ण, तस्स पुव्वं परूविदत्तादो। 'वे' इदि भणिदे वेउव्वियसरीरस्स गहणं ण अण्णस्स, असंभवादो। "तिरिक्ख-मणुसाऊ' इदि भणिदे दोण्णमाउआणं गहणं, आउअसहस्स पादेकमभिसंबंधादो। 'तेया-कम्मइयसरीरं'इदि वुत्ते तेजइय-कम्मइयसरीराणं गहणं । 'तिरिक्ख-णिरय-मणुव-देवगदित्ति भणिदे चत्तारिगदीओ घेत्तव्वाओ, गइसदस्स पादेकमभिसंबंधादो। (णीचागोदं अजसो असादमुच्चं जसो तहा सादं । णिरयाऊ देवाऊ आहारसरीरणामं च ॥६॥) एसा गाहा सुगमा। उन दोनोंका निर्देश किया गया है । 'प' ऐसा कहनेपर प्रचलाका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, नामके एकदेशसे भी नामवालेका बोध होता हुआ देखा जाता है । 'नि' इस निर्देशसे निद्राका ग्रहण करना चाहिये । कारण पहिलेके समान कहना चाहिये । 'अट्ट' ऐसा कहनेपर प्रत्याख्यानावरणचतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन आठ कषायोंका ग्रहण करना चाहिये । 'तिय' कहनेपर स्त्यानगृद्धित्रयका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा आचार्योंका उपदेश है। 'अण' यह निर्देश अनन्तानुबन्धिचतुष्कका ग्रहण करनेके निमित्त है। 'मिच्छा' शब्दका निर्देश मिथ्यात्वका ग्राहक है। 'ओ' कहनेपर औदारिक शरीरका ग्रहण करना चाहिये। शंका-'ओ' कहनेपर अवधिज्ञानावरणका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उसका पहिले कथन कर आये हैं। 'वे' ऐसा कहनेपर वैक्रियिक शरीरका ग्रहण करना चाहिये, अन्यका नहीं; क्योंकि उससे अन्यका ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है। 'तिरिक्ख-मणुसाऊ' ऐसा कहनेपर तिर्यगायु और मनष्याय इन दो आयओंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, आयु शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध है। 'तेया-कम्मसरीरं' ऐसा कहनेपर तैजस और कार्मण शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'तिरिक्ख णिरय-मणुव-देवगई' ऐसा कहनेपर चारों गतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, गति शब्दका सम्बन्ध प्रत्येकके साथ है। नीचगोत्र, अयश कीर्ति, असातावेदनीय, उच्चगोत्र, यश-कीर्ति, तथा सातावेदनीय, नारकायु, देवायु और आहारशरीर, ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हैं ॥ ६ ॥ यह गाथा सुगम है। १ अप्रतौ 'तिरिक्खुवणुसाऊ' इति पाठः। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १२० j वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [६५ एत्तो जहण्णओ चउसहिपदिओ महादंडओ कायव्वो भवदि ॥ ११८॥ पुव्विल्लप्पाबहुएण जहण्णेण सूचिदचउसद्विपदियमप्पाबद्दगं भणिस्सामो। सव्वमंदाणभागं लोभसंजलणं ॥ ११ ॥ अणियट्टिचरिमसमयबंधग्गहणादो। सुहमसांपराइयचरिमसमयलोभो सुहुमकिट्टिसरूवो किण्ण घेप्पदे १ ण, बंधाधियारे संतग्गहणाणुववत्तीदो। ण वेयणाए संतं चेव परूविजदे, बंध-संताणं दोण्णं पि परूवयत्तादो ।(एदाणि चउसहिपदियाणि जहण्णुक्कस्सप्पाबहुगाणि बंधं चेव अस्सिदूण अवट्टिदाणि । तं कधं णबदे ?(महाबंधसुत्तुवइत्तादो। मायासंजलणमणंतगुणं ॥ १२० ॥ अणियट्टिचरिमसमयादो हेटा अंतोमुहुत्तमोदरियट्टिदमायाकसायचरिमाणुभागबंधग्गहणादो । कुदो एदं णबदे ? अणियट्टिचरिमाणुभागबंधादो दुचरिमाणुभागबंधो अणंतगणो। तत्तो तिचरिमाणुभागबंधो अणंतगुणो । एवं सव्वत्थ अणियट्टिकालभंतरे आगे चौंसठ पदवाला जघन्य महादण्डक करने योग्य है ॥ ११८ ॥ पूर्वोक्त जघन्य अल्पबहुत्वसे सूचित चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वको कहते हैं। संज्वलनलोभ सबसे मन्द अनुभागसे युक्त है ॥ १६ ॥ क्यांकि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी बन्धका यहाँ ग्रहण किया गया है। शंका-सूक्ष्मसाम्पराविकके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म कृष्टि स्वरूप लोभका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, बन्धके अधिकारमें सत्त्वका ग्रहण करना नहीं बन सकता है । वेदनामें केवल सत्त्वका ही कथन नहीं किया जा रहा है, क्योंकि, वह बन्ध और सस्व दोनोंका ही प्ररूपक है। ये चौंसठ पदवाले जघन्य व उत्कृष्ट अल्पबहुत्व बन्धका आश्रय करके ही अवस्थित हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह महाबन्ध सूत्रके उपदेशसे जाना जाता है । उससे माया संज्वलन अनन्तगुणा है ॥ १२० ॥ क्योंकि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयसे नीचे अन्तमुहूर्त उतर कर स्थित माया कषायके अनुभागबन्धका यहाँ ग्रहण किया है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभागबन्धकी अपेक्षा उसका द्विचरम समय सम्बन्धी अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे त्रिचरम समय सम्बन्धी अनुभाग छ. १२-६ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, १२१. अणुभागवुड्ढिदसणादो। माणसंजलणमणंतगुणं ॥ १२१ ॥ मायासंजलणजहण्णबंधपदेसादो हेट्ठा अंतोमुहुत्तमोदरिय द्विदमाणजहण्णबंधग्गहणादो। एत्थ वि अणंतगुणत्तस्स कारणं पडिसमयमणंतगुणाए सेडीए हेडिमाणुभागबंधवुड्ढी। कोधसंजलणमणंतगुणं ॥ १२२ ॥ तत्तो हेट्ठा अंतोमुहुत्तमोदिण्णजहण्णबंधग्गहणादो। मणपज्जवणाणावरणीयं दाणंतराइयं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ॥ १२३ ॥ कुदो ? कोधसंजलण जहण्णाणुभागबंधो बादरकिट्टी, एदासिं दोण्णं पयडीणमणुभागो पुण फद्दयं; एदासिं सुहुमसांपराइयचरिमजहण्णबंधस्स फद्दयत्तं मोत्तण किट्टित्ताभावादो। तेण कोधसंजलणजहण्णबंधादो अप्पिद-दोपयडीणं जहण्णबंधो अणंतगणो । ओहिणाणावरणीयं ओहिदंसणावरणोयं लांभंतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ॥ १२४ ॥ कुदो? पयडिविसेसेण । सो कधं णव्वदे ? खषगसेडीए देसघादिबंधकरणेसु बन्ध अनन्तगुणा है । इस प्रकार सर्वत्र अनिवृत्तिकरण कालके भीतर अनुभागकी वृद्धि देखे जानेसे उक्त कथनका परिज्ञान होता है। उससे मान संज्वलन अनन्तगुणा है ॥ १.१॥ क्योंकि, माया संज्वलनके जधन्य बन्ध सम्बन्धी स्थानसे पीछे अन्तमुहूर्त जाकर स्थित मान संज्वलनके जघन्य बन्धका यहाँ प्रहण किया है। यहाँ भी अनन्तगुणेका कारण प्रतिसमय अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे पीछे अनुभागबन्धकी वृद्धि है। उससे क्रोध संज्वलन अनन्तगुणा है॥ १२२ ॥ क्योंकि, उससे पीछे अन्तर्मुहूर्त जाकर स्थित जघन्य बन्धका यहाँ ग्रहण किया है। उससे मनापर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तराय ये दोनों ही प्रकृतियाँ तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ १२३ ॥ क्योंकि, संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभागबन्ध बादर कृष्टि स्वरूप है, परन्तु इन दोनों प्रकृतियोंका अनुभ कि, इनका सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें जो जघन्य बन्ध होता है वह स्पर्धकरूप होता है वह कृष्टि स्वरूप नहीं हो सकता इसलिये संज्वलन क्रोधके जघन्य बन्धकी अपेक्षा विवक्षित इन दो प्रकृतियोंका जघन्य बन्ध अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय, ये तीनों ही प्रकृतियां तुल्य होकर उनसे अनन्तगुणी हैं । १२४ ॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका-वह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान-क्षपक श्रेणिके भीतर देशघातिबन्धकरणविधानमें जो यह बतलाया गया है , Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १२६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं पुब्विल्लहितो पच्छा देसघादित्तमुववण्णत्तादो णव्वदे। सुदणाणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ॥ १२५ ॥ कुदो ? पयडिविसेसादो । कुदो सो णव्वदे ? पच्छा देसघादिबंधजोगादो। चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणं ॥ १२६ ॥ कारणं सुगमं । आभिणिबोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ॥ १२७॥ सुगम। विरियंतराइयमणंतगुणं ॥ १२८ ॥ एदं पि सुगमं । पुरिसवेदो अणंतगुणो ॥ १२६ ॥ विरियंतराइयस्स अणुभागो देसघादी एगट्टाणियो, पुरिसवेदस्स वि अणुभागो कि "जिन प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध पूर्वमें देशघाती हो जाता है उनका अनुभाग स्तोक होता है, तथा जिनका अनुभागबन्ध पीछे देशघाती होता है उनका अनुभाग बहुत होता है।" उसीसे वह जाना जाता है। .. श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय ये तीनों ही प्रकृतियां तुल्य होकर उनसे अनन्तगुणी हैं ॥ १२५ ॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका-वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - चूंकि इन प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध पीछे देशघातित्वको प्राप्त होता है अतः इसीसे उसका निश्चय हो जाता है। उनसे चक्षुदर्शनावरणीय अनन्तगुणी है ॥१२६ ॥ इसका कारण सुगम है। उससे आमिनिबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय ये दोनों ही प्रकृतियां तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ १२७ ॥ . यह सूत्र सुगम है। उनसे वीर्यान्तराय अनन्तगणा है ॥ १२८ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उससे पुरुषवेद अनन्तगुणा है॥ १२६ ॥ वीर्यान्तरायका अनुभाग देशघाती एकस्थानीय है तथा पुरुषवेदका भी अनुभाग स्त्री Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, १३० एरिसो चेव । किं तु अंतोमुहत्तं हेट्ठा ओदरिय बद्धो तेण अणंतगुणहीणो जादो। हस्समणतगुणं ॥ १३०॥ अपुव्यकरणचरिमसमयसव्वघादिविट्ठाणियजहपणाणुभागबंधग्गहणादो। रदी अणंतगुणा ॥ १३१ ॥ तप्पुरंगमत्तादो। दुगुंछा अणंतगुणा ॥ १३२ ॥ दोण्णं पयडीणं अपुव्वकरणचरिमसमए चेव जदि वि जहपणबंधो जादो तो वि रदीदो दुगुंछा अणंतगुणा, पयडिविसेसमस्सिदूण संसारावस्थाए सव्वत्थ तहावट्ठाणादो। भयमणंतगुणं ॥ १३३ ॥ पयडिविसेसेण । सोगो अणंतगुणो ॥ १३४ ॥ कुदो ? अपुव्यकरणविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा पमत्तसंजदेण बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो। अरदी अणंतगुणा ॥ १३५ ॥ प्रकारका है । परन्तु वह चूंकि अन्तर्मुहूर्त पीछे जा कर बांधा गया है अतः वह अनन्तगुणा हीन है। उससे हास्य अनन्तगुणा है ॥ १३० ॥ कारण कि यहाँ अपूर्वकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी सर्वघाती द्विस्थानीय जघन्य अनुभागबन्धका ग्रहण किया गया है। उससे रति अनन्तगुणी है ॥ १३१ ॥ कारण कि वह हास्यपूर्वक होती है। उससे जुगुप्सा अनन्तगुणी है।। १३२ ॥ यद्यपि रति और जुगुप्सा इन दोनों प्रकृतियोंका अपूर्वकरणके अन्तिम समय में ही जघन्य बन्ध हो जाता है तो भी रतिकी अपेक्षा जुगुप्सा अनन्तगुणी है, क्योंकि, प्रकृतिविशेषका आश्रय करके संसार अवस्थामें सर्वत्र इसी प्रकार की स्थिति है। उससे भय अनन्तगुणा है ॥ १३३॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। . उससे शोक अनन्तगुणा है ।। १३४ ॥ कारण यह है कि अपूर्वकरणकी विशुद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले प्रमत्त संयतके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहाँ ग्रहण किया है। . उससे अरति अनन्तगुणी है ॥ १३५ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १३६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं साभावियादो। इथिवेदो अणंतगुणो ॥ १३६ ॥ पमत्तसंजदविसोहीदो अणंतगुणहीणसव्यविसुद्धमिच्छाइटिणा बद्धइत्थिवेदजहण्णाणुभागग्गहणादो। णवंसयवेदो अणंतगुणो ॥ १३७॥ मिच्छाइट्ठिणा सम्वविसुद्धेण संजमाहिमुहेण बद्धजहएणाणुभागण्गहणादो । केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीयं च दो वि तुल्लाणि अणंतगणाणि ॥ १३८ ॥ एदासिं दोणं पि पयडीणं सुहुमसांपराइयचरिमसमए अंतोमुत्तमणंतगणहाणी गंतूण जहण्णाणुभागबंधो जदि वि जादो तो वि मिच्छाइहिणा सव्वविसुद्धण बद्धणqसयवेदजहण्णाणुभामबंधादो अणंतगुणो। कुदो ? साभावियादो। पयला अतगुणा॥ १३ ॥ अपुव्वकरण सगद्धाए पढमसत्तमभागे बट्टमाणेण चरिमसमय सुहुमसांपराइयस्स विसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा बद्धत्तादो । क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उससे स्त्रीवेद अनन्तगणा है ॥ १३६ ॥ .कारण यह है कि यहाँ प्रमत्तसंयतकी विशुद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन विशुद्धि युक्त सर्वविशुद्ध मिथ्या दृष्टि जीवके द्वारा बांधे गये स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका ग्रहण किया है। उससे नपुंसकवेद अनन्तगुणा है ।। १३७ ॥ कारण कि संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका ग्रहण किया है। उससे केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ये दोनों ही प्रकृतियाँ तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ १३८ । यद्यपि इन दोनों ही प्रकृतियोंका अन्तर्मुहर्तकाल तक अनन्तगुणी हानि होकर सक्षमसाम्परायिकके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्ध होता है तो भी सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके द्वारा बांधे गये नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा वह अनन्तगुणा है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उनसे प्रचला अनन्तगुणी है ।। १३६ ॥ क्योंकि, वह अपने कालके सात भागोंमेंसे प्रथम भाग में वर्तमान और अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिककी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले अपूर्वकरण रणस्थानवती जीवके द्वारा बांधी जाती है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,१४०. णिद्धा अणंतगुणा ॥ १४०॥ एदिस्से वि तत्थेव जहण्णबंधो जादो । किं तु पयडिविसेसेण अणंतगुणा । पचक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो॥ १४१ ॥ कुदो ? अपुव्वकरणखवगविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा सव्वविसुद्धण संजदासंजदेण बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो । कोधो विसेसाहियो ॥ १४२ ॥ पयडिविसेसेण । माया विसेसाहिया ॥ १४३ ॥ पयडिविसेसेण । लोभो विसेसाहिओ ॥ १४४ ॥ पयडिविसेसेण । अपञ्चक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो॥१४५ ॥ संजदासंजदविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा असंजदसम्माइट्ठिणा सव्वविसुद्धण चरिमसमए बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो। कोधो विसेसाहिओ॥ १४६॥ उससे निद्रा अनन्तगुणी है ॥ १४०॥ यद्यपि इसका जघन्य बन्ध वहींपर होता है, तो भी प्रकृतिविशेषके कारण वह प्रचलासे अनन्तगुणी है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय मान अनन्तगुणा है ॥ १४१ ॥ क्योंकि, अपूर्वकरण क्षपककी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले तथा सर्वविशुद्ध संयतासंयत जीवके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहां ग्रहण किया है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध विशेष अधिक है ॥ १४२ ॥ इसका कार प्रकृति विशेष है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय माया विशेष अधिक है ॥ १४३ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय लोभ विशेष अधिक है ॥ १४४ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय मान अनन्तगुणा है ॥ १४५ ॥ क्योंकि, संयतासंयतकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले सर्वविशुद्ध असंयतसम्यम्दृष्टि जीक्के द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहाँ ग्रहण किया है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध विशेष अधिक है ॥ १४६ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १५२.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुरं पयडिविसेसेण । माया विसेसाहिया ॥ १४७ ॥ पयडिविसेसेण । लोभो विसेसाहिओ ॥ १४८ ॥ पयडिविसेसेण णिहाणिद्दा अणंतगुणा ॥ १४६ ॥ असंजदसम्मादिद्विविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिमिच्छाइट्टिणा सव्वविसुद्धेण बद्धत्तादो। पयलापयला अणंतगुणा ॥ १५० ॥ जदि वि दोण्णं पि जहण्णाणुभागबंधाणमेको चेव सामी तो वि पयडिविसेसेण पयलापयला अणंतगुणा। थीणगिद्धी अणंतगुणा ॥ १५१ ॥ पयडिविसेसेण । अणंताणुबंधिमाणो अणंतगुणो ॥ १५२ ॥ संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइटिजहण्णबंधग्गहणादो। इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय माया विशेष अधिक है ॥ १४७ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय लोभ विशेष अधिक है ॥ १४८ ॥ इसका कारण प्रकृतिको विशेषता है। उससे निद्रानिद्रा अनन्तगणी है ॥ १४९ ॥ क्योंकि, वह असंयतसम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा बाँधी जाती है। उससे प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है ।। १५० ॥ यद्यपि इन दोनों ही प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका एक ही स्वामी है, तो भी प्रकृतिविशेष होनेसे प्रचलाप्रचला निद्रानिद्राकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। उससे स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है ॥ १५ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी मान अनन्तगुणा है ॥ १५२ ॥ क्योंकि, संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागबन्धका यहाँ ग्रहण किया है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १५३. कोधो विसेसाहिओ॥ १५३॥ पयडिविसेसेण । माया विसेसाहिआ ॥ १५४ ॥ पयडिविसेसेण । लोभो विसेसाहिओ ॥ १५५ ॥ पयडिविसेसेण । मिच्छत्तमणंतगुणं ॥ १५६ ॥ मिच्छाइटिणा सव्वविसुद्धण संजमाहिमुहेण सगद्धाए चरिमसमए वट्टमाणेण बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो। दोणं पि पयडीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चेव सामीए संते कधं मिच्छत्तस्स अणंतगुणत्तं जुज्जदे ? ण, पयडि विसेसेण तदविरोहादो । ओरालियसरोरमणंतगुणं ॥ १५७ ॥ जेणेसा पसत्थपयडी तेणेदिस्से संकिलेसे ण जहण्णबंधो होदि। पुणो एसा जदि वि मिच्छाइद्विउक्कट्ठसंकिलेसेण बद्धा तो वि मिच्छत्तादो' अणंतगुणा। कुदो ? सुहाणं पयडीणं संकिलेसेण महल्लाणुभागक्खयाभावादो। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष अधिक है ।। १५३ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष अधिक है ॥ १५४ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभ विशेष अधिक है ॥ १५५ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। - उससे मिथ्यात्व अनन्तगुणा है ॥ १५६ ॥ क्योंकि, संयमके अभिमुख हुए व अपने कालके अन्तिम समयमें स्थित सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहाँ ग्रहण किया है। _शंका-जब कि इन दोनों ही प्रकृतियोंका एक ही मिथ्यादृष्टि जीव स्वामी है तब अनन्तानुबन्धी लोभकी अपेक्षा मिथ्यात्वका अनन्तगुणा होना कैसे उचित है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकृतिविशेष होनेसे उसमें कोई विरोध नहीं आता । उससे औदारिक शरीर अनन्तगुणा है ॥ १५७ ॥ चूँकि यह प्रशस्त प्रकृति है इसलिये इसका संक्लेशसे जघन्य बन्ध होता है। यद्यपि यह प्रकृति मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट संक्लेशसे बाँधी गई है, तो भी वह मिथ्यात्वकी अपेक्षा अनन्तगुणी है, क्योंकि, संक्शसे शुभ प्रकृतियोंके महान् अनुभागका क्षय नहीं होता। १ अप्रतौ 'विच्छित्तादो' इति पाठः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६४.] वयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं वेउब्वियसरीरमणंतगुणं ॥ १५८ ॥ ओरालियसरीरं पेक्खिदृण पसत्थतमत्तादो । तिरिक्खाउअमणंतगुणं ॥ १५६ ॥ उक्कस्ससंकिलेस-विसोहीहि बंधाभावेण तप्पाओग्गसंकिलेस-विसोहीहि बद्धतिरिवखअपज्जत्तजहण्णाउग्गहणादो । मणसाउअमणंतगुणं ॥ १६०॥ तिरिक्खाउआदो विसुद्धतमत्तादो । तेजइयसरीरमणंतगुणं ॥ १६१ ॥ तेजइयसरीरं जेण सुहपयडी तेणे दस्से जहण्णबंधी सव्वसंकिलिट्ठमिच्छाइट्टि म्हि होदि । होतो वि मणुस्साउआदो अणंतगुणो। कुदो ? सुहाणं बहुअणुभागबंधोसरणाभावादो। कम्मइयसरीरमणंतगुणं ॥ १६२ ॥ पयडि विसेसेण । तिरिक्खगदी अणंतगुणा ॥ १६३॥ कुदो ? सव्वविसुद्धसत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठिणा बद्धत्तादो । णिरयगदी अणंतगुणा ॥ १६४ ॥ उससे वैक्रियिक शरीर अनन्तगुणा है ॥ १५८ ।। क्योंकि, औदारिक शरीरकी अपेक्षा वैक्रियिक शरीर अतिशय प्रशस्त है । उससे तिर्यगायु अनन्तगुणी है ॥ १५९ ॥ क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धिके द्वारा आयुका बन्ध नहीं होता अतएव तत्प्रायोग्य संक्लेश व विशुद्धिके द्वारा बाँधी गई तिर्यश्च अपर्याप्तकी जघन्य आयुका यहाँ ग्रहण किया है। उससे मनुष्यायु अनन्तगुणी है ॥ १६० ॥ क्योंकि, वह तिर्यंचायुकी अपेक्षा अतिशय विशुद्ध है। उससे तैजस शरीर अन्नतगुणा है ॥ १६१ ॥ चूँकि तैजस शरीर शुभ प्रकृति है, अतएव इसका जघन्य बन्ध सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । मिथ्यादृष्टिके होता हुआ भी वह मनुष्यायुकी अपेक्षा अनन्तगुणा है, क्योंकि, शुभ प्रकृतियों के बहुत अनुभागबन्धका अपसरण नहीं होता। उससे कामर्ण शरीर अनन्तगुणा है ।। १६२ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे तिर्यग्गति अनन्तगुणी है ॥ १६३ ॥ कारण कि वह सर्वविशुद्ध सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी जीवके द्वारा बाँधी गई है। उससे नरकगति अनन्तगुणी है ॥ १६४ ॥ छ. १२-६ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] ariडागमे वेयणाखंड असण्णिप चिंदियतिरिक्खगइ संकिलेसादो अर्णतगुणसंकिलेसेण बद्धत्तादो । मणसगदी अनंतगुणा ॥ १६५ ॥ जद व एदिस्से एइंदिएस जहण्णबंधो जादो तो वि एसा णिरयगर्दि पेक्खिदूण तगुणा, सुहपयडित्तादो । [ ४, २, ७, १६५. देवगदी अनंतगुणा ॥ १६६ ॥ जदि वि एदिस्से जहण्णबंधो असण्णिपंचिदिएस परियत्तमाणमज्झिम परिणामेसु जादो तो वि मणुसगदिं पेक्खिदूण देवगदी अनंतगुणा, एइंदियपरियत्तमाणमज्झिमपरिणामादो असणिपंचिंदियपरियत्तमाणमज्झिमपरिणामाणमणंतगुणत्तदंसणादो । णीचागोदमणंतगुणं ॥ १६७ ॥ जदि वि दस्स सत्तमपुढवीणेरइएस सव्ववियुद्धपरिणामेसु जहणणं जाएं तो वि देवगदीदो णीचागोदमणंतगुणं, साभावियादो | अजसकित्ती अनंतगुणा ॥ १६८ ॥ पत्तसंजदेण सव्वविसुद्वेण पबद्धत्तादो | असादावेदणीयमणंतगुणं ॥ १६६ ॥ एदस्स जहण्णबंधो जदित्रि पमत्तसंजदम्मि चैव जादो तो वि तत्तो एदस्स क्योंकि वह असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच गतिके संक्लेशकी अपेक्षा अनन्तगुणे संक्लेशके द्वारा बांधी गई है। उससे मनुष्यगति अनन्तगुणी है ।। १६५ ।। यद्यपि इसका एकेन्द्रियों में जघन्य बन्ध होता है तो भी यह नरकगतिकी अपेक्षा अनन्तगुणी है, क्योंकि, वह शुभ प्रकृति है । उससे देवगति अनन्तगुणी है ॥ १६६ ॥ यद्यपि इसका जघन्य बन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे युक्त असंज्ञी पंचेन्द्रियों के होता है तो भी मनुष्यगतिकी अपेक्षा देवगति अनन्तगुणी है, क्योंकि, एकेन्द्रिय के परिवर्तमान मध्यम परिणामों की अपेक्षा असंज्ञी पंचेन्द्रिय के परिवर्तमान मध्यम परिणाम अनन्तगुणे देखे जाते हैं । उससे नीच गोत्र अनन्तगुणा है ।। १६७ ।। यद्यपि सर्वविशुद्ध परिणामवाले सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें इसका जघन्य बन्ध होता है, तो भी देवगतिकी अपेक्षा नीचगोत्र अनन्तगुणा है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । उससे अयशःकीर्ति अनन्तगुणी है ।। १६८ ॥ क्योंकि वह, सर्वविशुद्ध प्रमत्तसंयत जीवके द्वारा बांधी गई है । उससे असातावेदनीय अनन्तगुणी है ॥ १६९ ॥ यद्यपि इसका जघन्य बन्ध प्रमत्तसंयत के ही होता है, तो भी उससे इसका अनुभाग Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेण महाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं ४, २, ७, १७४ ] अणुभागो अनंतगुणो पय डिविसेसेण । जसकिची उच्चागोदं च दो वि तुल्लाणि अनंतगुणाणि ॥ १७० ॥ एदेसिं दोपणं पि पंचिदिएसु अइतिव्वसंकि लिट्ठमिच्छाइट्ठीसु जदि वि जहणणं जादं तो व तत्तो देसिमणुभागो अनंतगुणो, सुहपयडीणं बहुवाणुभागबंधोसरणाभावादो । सादावेदणीयमणंतगुणं ॥ १७१ ॥ एदस्स वि जहण्णाणुभागबंधस्स सव्वसंकि लिट्टो मिच्छाइट्ठी चैव सामी, किंतु डिविसेसेण अनंतगुणो । णिरयाउ अमणंतगुणं ॥ १७२ ॥ कुदो १ साभावियादो । देवाउअमणंतगुणं ॥ १७३ ॥ कारणं सुगमं । आहारसरीरमणंतगुणं ॥ १७४ ॥ पबद्धतादो | अप्पम संजदेण तप्पा ओग्गविसुद्वेण एवं जहण्णयं चउसद्विपदियं परत्थाणप्पा बहुगं समत्तं । संपहि एदेण सूचिदसत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो - सव्वमंदाणुभागं मणपञ्जव [ ७५ प्रकृतिविशेष होने से अनन्तगुणा है । उससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हैं ॥ १७० ॥ यद्यपि अति तीव्र संक्लेशयुक्त पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंमें इन दोनों ही प्रकृतियोंका जघन्य बन्ध होता है, तो भी असाता वेदनीयकी अपेक्षा इनका अनुभाग अनन्तगुणा है; क्योंकि, शुभ प्रकृतियों के बहुत अनुभाग बन्धका अपसरण नहीं होता । उनसे सातावेदनीय अनन्तगुणी है ॥ १७१ ॥ इसके भी जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीव ही है, किन्तु प्रकृतिविशेष होने से वह उक्त दोनों प्रकृतियोंसे अनन्तगुणी है । उससे नारका अनन्तगुणी है ॥ १७२ ॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । उससे देवायु अनन्तगुणी है ।। १७३ ।। इसका कारण सुगम है । उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा है || १७४ ॥ क्योंकि, वह तत्प्रागोग्य विशुद्धिको प्राप्त अप्रमत्तसंयत जीवके द्वारा बांधा गया है । इस प्रकार चौंसठ पदवाला जघन्य पेरस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । अब इससे सूचित होनेवाले स्वस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं - मन:पर्ययज्ञानावरणीय Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १७४. णाणावरणीयं । ओहिणाणावरणीयमणंतगुणं । सुदणाणावरणीयमणंतगुणं । आभिणियोहियणाणावरणीयमणंतगुणं । केवलणाणावरणीयमणंतगुणं ।। सव्वमंदाणुभागमोहिदसणावरणीयं । अचक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणं । चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणं । केवलदंसणावरणीयमणंतगुणं । पचला अणंतगुणा । णिद्दा अणंतगुणा । णिद्दाणिद्दा अणंतगुणा । पयलापयला अणंतगुणा । थीणगिद्धी अणंतगुणा । सवमंदाणुभागमसादावेदणीयं । सादावेदणीयमणंतगुणं । सव्वमंदाणुभागं लोभसंजलणं । मायासंजलणमणंतगुणं । माणसंजलणमणंतगणं । कोधसंजलणमणंतगणं । पुरिसवेदो अणंतगुणो। हस्समणंतगुणं । रदी अणंतगुणा । दुगुंछा अणंतगुणा। भयमणंतगुणं । सोगो अणंतगुणो । अरदी अणंतगुणा। इत्थिवेदो अणंतगुणो । णवंसयवेदो अणंतगुणो। पच्चक्खाणमाणो अणंतगुणो। कोधो विसेसाहिओ। माया विसेसाहिया । लोभो विसेसाहिओ। अपञ्चक्खाणमाणो अणंतगुणो। कोधो विसेसाहिओ। माया विसेसाहिया । लोभो विसेसाहिओ। अणंताणुबंधिमाणो अणंतगुणो। कोधो विसेसाहिओ। माया विसेसाहिया । लोभो विसेसाहिओ। मिच्छत्तमणंतगुणं । सर्वमन्द अनुभागसे युक्त है । उससे अवधिज्ञानावरणीय अनन्तगुणा है। उससे श्रुतज्ञानावरणीय अनन्तगुणा है। उससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय अनन्तगुणा है। उससे केवलज्ञानावरणीय अनन्तगुणा है। ____ अवधिदर्शनावरणीय सर्वमन्द अनुभागसे सहित है । उससे अचक्षुदर्शनावरणीय अनन्तगणा है। उससे चक्षुदर्शनावरणीय अनन्तगुणा है। उससे केवल दर्शनावरणीय अनन्तगुणा है। उससे प्रचला अनन्तगुणी है। उससे निद्रा अनन्तगुणी है। उससे निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है। उससे प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है। उससे त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है। आसातावेदनीय सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे सातावेदनीय अनन्तगुणा है। . संज्वलन लोभ सर्वमन्द अनुभागसे सहित है । उससे संज्वलन माया अनन्तगुणी है। उससे संज्वलन मान अनन्तगुणा है। उससे संज्वलन क्रोध अनन्तगुणा है उससे पुरुषवेद अनन्तगुणा है । उससे हास्य अनन्तगुणा है । उससे रति अनन्तगुणी है । उससे जुगुप्सा अनन्तगुणी है। उससे भय अनन्तगुणा है। उससे शोक अनन्तगुणा है । उससे अरति अनन्तगुणी है । उससे स्त्रीवेद अनन्तगुणा है। उससे नपुंसकवेद अनन्तगुणा है । उससे प्रत्याख्यानावरण मान अनन्तगुणा है। उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानावरण माया विशेष अधिक है । उससे प्रत्याख्यानावरण लोभ विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मान अनन्ताणा है। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण माया विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभ विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धी मान अनन्तगणा है। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभ विशेष अधिक है। उससे मिथ्यात्व अनन्तगुणा है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १७४. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ७७° सव्वमंदाणुभागं तिरिक्खाउगं । मणुसाउश्रमणंतगुणं । णिरयाउमणंतगुणं । [ देवाउअमणंतगुणं ] । सव्वमंदाणुभागा तिरिक्खगई। णिरयगई अनंतगुणा । मणुसगई अनंतगुणा । देव अनंतगुणा । सव्वमंदाणुभागा चउरिंदियजादी । तीइंदियजादी अनंतगुणा । बीइंदियजादी अनंतगुणा । एइंदियजादी अनंतगुणा । पंचिंदियजादी अनंतगुणा | सव्वमंदाणुभागं ओरालियसरीरं । वेउब्वियसरीरमणंतगुणं । तेजइयसरीरमणंतगुणं । कम्मइयसरीरमणंतगुणं । आहारसरीरमणंतगुणं । सव्वमंदाणुभागं णग्गोधसंठाणं । सादियसंठाणमणंतगुणं । खुज्जसंठाण मणंतगुणं । वामणसंठाणमणंतगुणं । हुंगगसंठाणमणंतगुणं । समचउरससंठाणमणंतगुणं । सव्वमंदाणुभागमोरा लिय सरीरअंगोवंगं । वेउव्वियसरीर अंगोवंगमणंतगुणं । आहारसरीरअंगोवंगमणंतगुणं । संघडणाणं संठाणभंगो । सव्वमंदाणुभागमध्पसत्थवण्णाइचउकं । पसत्थचउक्कमतगुणं । जहा गई तहा आणुपृथ्वी । सव्वमंदाणुभागं उवघादं । परघा दमणंतगुणं । तिर्यगाय सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे मनुष्यायु अनन्तगुणी है। उससे नारकायु अनन्तगुणी है । [ उससे देवायु अनन्तगुणी है तिर्यग्गति सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे नरकगति अनन्तगुणी है । उससे मनुष्य - गति अनन्तगुणी है । उससे देवगति अनन्तगुणी है । चतुरिन्द्रिय जाति सर्वमन्द अनुभाग से सहित है। उससे त्रीन्द्रिय जाति अनन्तगुणी है । उससे द्वीन्द्रिय जाति अनन्तगुणी है। उससे एकेन्द्रिय जाति अनन्तगुणी है। उससे पचेन्द्रिय जाति अनन्तगुणी है । औदारिक शरीर सर्वमन्द अनुभाग से सहित है। उससे वैक्रियिक शरीर अनन्तगुणा है । उससे तैजस शरीर अनन्तगुणा है। उससे कार्मण शरीर अनन्तगुणा है। उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा है । न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान सर्वमन्द अनुभाग से सहित है । उससे स्वाति संस्थान अनन्तगुणा है। उससे कुब्जक संस्थान अनन्तगुणा है। उससे वामन संस्थान अनन्तगुणा है । उससे हुंडक संस्थान अनन्तगुणा है । उससे समचतुरस्र संस्थान अनन्तगुणा है । औदारिक शरीर अंगोपांग सर्वमन्द अनुभाग से सहित है। उससे वैक्रियिकशरीरांगोपांग अनन्तगुणा है। उससे आहारकशरीरांगोपांग अनन्तगुणा है । संहननोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा संस्थानोंके समान है । अप्रशस्त वर्णचतुष्क सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे प्रशस्त वर्णचतुष्क अनन्तगुणा । जिस प्रकार गतिके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आनुपूर्वीके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनी चाहिये । उपघात Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ७८ ] उस्सासमणंतगुणं । अगुरुल हुवमणंतगुणं । [ पत्थविहायगई ] अनंतगुणा । तसादिदसजुगलस्स सादासादभंगो | सव्वमंदाणुभागं णीचागोदं । उच्चागोदमणंतगुणं । सव्वमंदाणुभागं दाणंतराइयं । एवं परिवाडी उवरिमचत्तारि वि अनंतगुणा । एवं सत्थाणजहण्णप्पाबहुगं समत्तं । पढमा चूलिया सव्वमंदाणुभागा [ ४, २, ७, ७-८ गा०. अपत्यविहाय गई । संपत्ति उवरि चूलियं भणिस्सामो । तं जहा - सम्मत्पत्ती विय सावय- विरदे अनंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ॥ ७ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा | तव्विवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ' ॥ ८ ॥ एदाओ दो विगाहाओ एक्कारसगुणसेडीयो णिज्जरमाणपदेसकालेहि विसेसिदूण सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे परघात अनन्तगुणा है। उससे उच्छ्वास अनन्तगुणा है | उससे अगुरुलघु अनन्तगुणा है । प्रशस्त विहायोगति सर्वमन्द अनुभागसे सहित है । उससे प्रशस्त विहायोगति अनन्तगुणी है | त्रसादिक दस युगलों के अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा साता व असाता वेदनीयके समान है । गोत्र सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे उच्च गोत्र अनन्तगुणा है । दानान्तराय सर्वमन्द अनुभागसे सहित है, इस प्रकार परिपाटी क्रमसे आगेको चार अन्तराय प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हैं । इस प्रकार जघन्य स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । अब यहाँ से आगे चूलिकाको कहते हैं । वह इस प्रकार है सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि, श्रावक अर्थात् देशत्रती, विरत अर्थात् महाव्रती, अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चरित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और स्वस्थान जिन व योगनिरोध में प्रवृत्त जिन इन स्थानोंमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । परन्तु निर्जराका काल उससे विपरीत अर्थात् आगेसे पीछे की ओर बढ़ता हुआ है जो संख्यातगुणित श्रेण रूप है ।। ७-८ ।। ये दोनों ही गाथायें निर्जीर्ण होनेवाले प्रदेश और कालसे विशेषित ग्यारह गुणश्रेणियों का कथन करती हैं । १ त. सू ६-४५ | जयध श्र. ३६७ । गो. जी. ६७. सम्मत्तप्पत्तासावय- विरए संजोयणाविणासे य । दंसणमोहक्खगे कसायउवसामगुवसंते ॥ खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी । उदग्रो तव्विवरी कालो संखेजगुणसेडी ॥ क. प्र. ६, ८-६. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ७–८ गा० ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ७६ परूवेंति । भावविहाणे परूविज्जमाणे एकारसगुणसे डिपदेस णिज्जरपरूवणा तकालपरूवणा च किम करदे ? विसोहीहि अणुभागक्खएण पदेसणिज्जराजाणावणदुवारेण जीवकम्माणं संबंधस्स अणुभागो चेत्र कारणमिदि जाणावणङ्कं वुच्चदे | अहवा, दव्यविहाणे जहण्णसामित्ते भण्णमाणे गुणसेडिणिज्जरा सूचिदा । तिस्से गुणसेडिणिज्जराए भावो कारणमिदि भावविहाणे तव्त्रियप्पपरूवणङ्कं बुच्चदे | 'सम्मत्तप्पत्ति'त्ति भणिदे दंसणमोहउवसामणं कारण पढमसम्मत्तप्पाणं घेत्तव्यं । 'साव'ति मणिदे देसविरदीए गहणं । 'विरदे' त्ति भणिदे संजयस्स गहणं । 'अनंतक - *मंसे' त्ति वृत्ते अताणुबंधिविसंजोयणा घेत्तव्त्रा । 'दंसण मोहक्खवगे' त्ति वृत्ते दंसणमोहणीक्खवगो घेत्तव्वो । 'कसायउवसामगे' त्ति वृत्ते चरित्तमोहणीयउवसामगो धेत्तच्चो | 'उवसंते'त्ति वृत्ते उवसंतकसाओ घेतब्धो । 'खवगे' त्ति वृत्ते चरित्तमोहणीयखवगो घेत्तव्वो । 'खीणमोहे' त्ति भणिदे खीणकसायस्स गहणं । 'जिणे' त्ति भणिदे सत्थाणजिणाणं जोगणिरोहे वा वावदजिणाणं च गहणं । एदेण' गाहासुत्त कलावेण एकारस" पदेसगुण से डिणिजरा परूविदा | 'तव्विवरीदो शङ्का - भावविधानका कथन करते समय ग्यारह गुणश्रेणियों में होनेवाली प्रदेशनिर्जराका कथन और उसके कालका कथन किसलिये करते हैं ? समाधान-विशुद्धियोंके द्वारा अनुभागक्षय होता है और उससे प्रदेशनिर्जरा होती है इस बातका ज्ञान कराने से जीव और कर्मके सम्बन्धका कारण अनुभाग ही है, इस बात को बतलाने के लिये उक्त कथन किया जा रहा है । अथवा, द्रव्यविधानमें जघन्य स्वामित्व की प्ररूपणा करते हुए गुणश्रेणिनिर्जराकी सूचना की गई थी। उस गुणश्रेणिनिर्जराका कारण भाव है, अतएव यहाँ भावविधान में उसके विकल्पोंका कथन करनेके लिये यह कथन किया जा रहा है । पूर्वोक्त गाथा में 'सम्मत्तप्पत्ती' ऐसा कहने पर दर्शनमोहका उपशम करके प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका ग्रहण करना चाहिये । सावए' कहने से देशविरतिका ग्रहण किया गया है । 'विरदे' कहनेपर संयतका ग्रहण करना चाहिये । 'अांत कम्मंसे' ऐसा निर्देश करनेपर अनन्तानुबन्धी कषायकी विसंयोजनाका ग्रहण करना चाहिये । 'दंसणमोहक्खवगे' ऐसा कहने पर दर्शनमोहनीय के क्षपकका ग्रहण करना चाहिये । 'कसायउवसामगे' कहने पर चारित्रमोहनीयका उपशम करने - वाले जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'उवसंते' कहनेपर उपशान्तकषाय जीवका ग्रहण करना चाहिये | 'खवगे' कहने पर चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'खीणमोहे' ऐसा कहनेपर क्षीणकषाय जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'जिणे' कहनेपर स्वस्थान जिनोंका और योगनिरोध में प्रवर्तमान जिनोंका ग्रहण करना चाहिए । इस गाथा सूत्रकलापके द्वारा ग्यारह प्रदेशगुणश्रेणिनिर्जराओंकी प्ररूपणा की गई है । १ प्रतिषु एदेण सुत्त इति पाठः । २. प्रतिषु एक्कारसगाहापदेस -इति पाठः । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १७५ गा०. कालो' एदेसिं गुणसेडिणिक्खेवद्धाणं पुण विवरीदं होदि । उवरिदो हेट्ठा वड्डमाणं गच्छदि त्ति भणिदं होदि। पुव्वं व असंखेजगुणसेडीए पत्तवुड्डीए पडिसेहटुं 'संखेजगुणाए सेडीए' ति भणिदं । एवं दोगाहाहि परविदंएकारसगुणसेडीणं बालजणाणुग्गहढे पुणरविपरूवणं कीरदे त्ति उवरिमसुत्तं भणदि सव्वत्थोवो दंसणमोहउवसामयस्स गुणसेडिगुणो ॥१७॥ गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुणसेडी णाम । दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदव्वं थोवं । विदियसमए णिज्जिण्णदव्बमसंखेज्जगुणं । तदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं । एवं णेयव्वं जाव दंमणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति । एसा गुणगारपत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं होदि । गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारोत्ति भणिदं होदि । एदस्स भावत्थो—सम्मत्तुप्पत्तीए जो गुणसेडिगुणगारो सव्वमहंतो सो' वि उवरि भण्णमाणजहण्णगुणगारादो वि थोवो त्ति भणिदं होदि । संजदासंजदस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो ॥१७६॥ संजदासंजदस्स गुणसेडिणिज्जराए जो जहण्णओ गुणगारो सो पुग्विल्ल उक्कस्सगुणगारादो असंखेज्जगुणो । 'तव्विवरीदो कालो' परन्तु इनका गुणश्रेणिनिक्षेप अध्वान उससे विपरीत है, अर्थात् आगेसे पीछेकी ओर वृद्धिंगत होकर जाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पूर्वके समान असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्राप्त वृद्धिका प्रतिषेध करनेके लिये 'संखेज्जगुणाए सेडीए' यह कहा है। इस प्रकार दो गाथाओंके द्वारा कही गई ग्यारह गुणश्रेणियोंका मन्दबुद्धि शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिए पुनः दूसरी बार कथन करते हैं । इसके लिये आगेका सूत्र कहते हैं दर्शनमोहका उपशम करनेवालेका गुणश्रेणिगुणकार सबसे स्तोक है ॥१७॥ गुण शब्दका अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणि, आवलि या पंक्तिका नाम गुणश्रेणि है। दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवका प्रथम समयमें निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्तोक है। उससे द्वितीय समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है । उससे तीसरे समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है। इस प्रकार दशनमोह उपशामकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । यह गुणकारपंक्ति गुणश्रेणि है यह उक्त कथनका तात्पय है । तथा गुणश्रेणिका गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात् गुणश्रेणिगुणकार कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसका भावार्थ यह है-सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें जो गुणश्रेणिगुणकार सर्वोत्कृष्ट है वह भी आगे कहे जानेवाले गुणकारकी अपेक्षा स्तोक है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उससे संयतासंयतका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१७६॥ संयतासंयतकी गुणश्रेणिनिर्जराका जो जघन्य गुणकार है वह पूर्वके उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है। १ अ-काप्रत्योः 'से' इति पाठः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १७७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पढमा चूलिया [८१ अधापवत्तसंजदस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगुणो ॥१७७॥ संजदासंजदस्स उक्कस्सगुणसेडिगुणगारादो सत्थाणसंजदस्स जहण्णगुणसे डिगुणगारो असंखेज्जगुणो। संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अणंतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एदम्हादो अण्णत्थ सव्वत्थ कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति ? ण, जोगगुणगाराणुसारिपदेसगुणगारस्स अणंतगुणत्तविरोहादो। ण च पदेसणिजराए अणंतगुणत्तब्भुवगमो जुत्तो, गुणसेडिणिज्जराए विदियसमए चेव णिव्वुइप्पसंगादो। ण च कजं कारणाणुसारी चेव इत्ति णियमो अत्थि, अंतरंगकारणावेक्खाए पवत्तस्स कजस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो। सम्मत्तसहायसंजम-संजमासंजमेहि जायमाणा गुणसेडिणिजरा सम्मत्तवदिरित्तसंजम-संजमासंजमेहि चेव होदि त्ति कधमुच्चदे ? ण, अप्पहाणीकयसम्मत्तभावादो। अधवा, सो संजमो जो सम्मत्ताविणाभावी ण अण्णो, तत्थ गुणसेडिणिज्जराकजाणुवलंभादो। तदो संजमगहणादेव सम्मत्तसहायसंजमसिद्धी जादा । उससे अधःप्रवृत्तसंयतका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।।१७७॥ संयतासंयतके उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकारकी अपेक्षा स्वस्थानसंयतका जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है। शंका-यतः संयमासंयम रूप परिणामकी अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनन्तगुणा है, अतः संयमासंयम परिणामकी अपेक्षा संयम परिणामके द्वारा होनेवाली प्रदेशनिर्जरा भी अनन्तगुणी होनी चाहिये, क्योंकि, इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारणके अनुरूप ही कार्यकी उपलब्धि होती है ? समाधान नहीं, क्योंकि, प्रदेशनिर्जराका गुणकार योगगुणकारका अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनन्तगुणे होनेमें विरोध आता है। दूसरे, प्रदेशनिर्जरामें अनन्तगुणत्व स्वीकार करना उचित नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर गुणश्रेणिनिर्जराके दूसरे समयमें ही मुक्तिका प्रसङ्ग आवेगा। तीसरे, कार्य कारणका अनुसरण करता ही हो, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि, अन्तरंग कारणकी अपेक्षा प्रवृत्त होनेवाले कार्यके बहिरंग कारणके अनुसरण करनेका नियम नहीं बन सकता। शंका- सम्यक्त्व सहित संयम और संयमासंयमसे होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जरा सम्यक्त्वके विना संयम और संयमासंयमसे ही होती है, यद कैसे कहा जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यहाँ सम्यक्त्व परिणामको प्रधानता नहीं दी गई है । अथवा, संयम वही है जो सम्यक्त्वका अविनाभावी है अन्य नहीं। क्योंकि, अन्यमें गुणश्रेणिनिर्जरा रूप कार्य नहीं उपलब्ध होता। इसलिए संयमके ग्रहण करनेसे ही सम्यक्त्व सहित संयमकी सिद्धि हो जाती है। छ. १२-११. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १७८. अणंताणुबंधी विसंजोएतस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगुणो॥ १७८॥ ___सत्थाणसंजदउक्कस्सगुणसेडिगुणगारादो असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-संजदेसु अणंताणुबंधिं विसंजोएतस्स जहण्णगुणसेडिगुणगारो असंखेजगुणो । एत्थ सव्वत्थ गुण. सेडिगुणगारो त्ति वुत्ते गलमाणपदेसगुणसेडिगुणगारो णिसिंचमाणपदेसगुणसे डिगुणगारो च घेत्तव्यो । कधमेदं लब्भदे ? गुणसेडिगुणो ति सामण्णणिदेसादो। संजमपरिगामेहितो अणंताणुवंधि विसंजोएंतस्स असंजदसम्मादिहिस्स परिणामो अणंतगुणहीणो, कधं तत्तो असंखेजगुणपदेसणिज्जरा जायदे ? ण एस दोसो, संजमपरिणामेहिंतो अणंताणुबंधीणं विसंजोजणाए कारणभूदाणं सम्मत्तपरिणामाणमणंतगुणत्तुवलंभादो। जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो' पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिद्धेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहि तव्विसंजोयणभुवगमादो त्ति । उससे अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करनेवालेका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१७॥ स्वस्थान संयतके उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकारकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवोंमें अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाले जीवका जघन्य गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है। यहाँ सब जगह 'गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा कहनेपर गलमान प्रदेशोंका गुणश्रेणिगुणकार और निसिंचमान प्रदेशोंका गुणश्रेणिगुणकार ग्रहण करना चाहिये । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह 'गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे जाना जाता है। शंका-संयमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टिका परिणाम अनन्तगुणा हीन होता है, ऐसी अवस्थामें उससे असंख्यातगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है? ___समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संयमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजनामें कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध होते हैं। शंका-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामोंके द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजना की जाती है तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंमें उसकी विसंयोजनाका प्रसंग आता है ? समाधान-ऐसा पूछने पर उत्तरमें कहते हैं कि सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि, विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामांके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजना स्वीकार की गई है। १ प्रतिषु 'तदभावो' इति पाठः। २ प्रतिषु 'सव्वत्थ' इति पाठः । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १८०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पढमा चूलिया दंसणमोहखवगस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगुणो ॥ १७६ ॥ अताणुबंध विसंजोएंतस्स दोष्णं गुणसेडीणमुक्कस्सगुणगारादो' दंसणमोहणीयं खवेंतस्स दुविहगुणसेडीणं जहण्णगुणगारो असंखेज्जगुणो । तीदाणागद-वट्टमाणपदेसगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो दट्ठव्वो । कसायउवसामगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो ॥ १८०॥ दंसणमोहणीयं खर्वेतस्स दुविहगुणसेडीणमुक्कस्सगुणगारादो कसाए उवसामेंतस्स जहणओ वि गुणगारो असंखेज्जगुणो । दंसणमोहणीयखवगगुणसे डि गुणगारादो अपुव्वउवसामगस्स गुणसेडिगुणगारो असंखेज्जगुणो । अणियट्टिउवसामगस्स गुणसेडिगुणगारो असंखेज्जगुणो । सुहुमसां पराइयस्स गुणसेडिगुणगारो असंखेज्जगुणो । एवं चारितमोहक्वगाणं पिge gध गुणगारप्पाबहुए भण्णमाणे गुणसे डिणिज्जरा एक्कारसविहा फिट्टिदूण पण्णारसविहा होदि त्ति भणिदे ण णइगमणए अवलंबिज्जमाणे तिष्णमुवसागगाणं तिष्णं खवगाणं च एगत्तपणाए एक्कारसगुण से डिणिज्जरुववत्चीदो । [ ८३ उससे दर्शनमोहका क्षय करनेवाले जीवका गुणश्रेणिगुणकार असंख्पात - गुण हैं ।। १७९ ।। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जीवके दोनों गुणश्रेणि सम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा दर्शनमोहका क्षय करनेवाले जीवकी दोनों प्रकारकी गुणश्रेणियोंका जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है । अतीत, अनागत और वर्तमान प्रदेशगुणश्रेणिगुणकार पल्योपमके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये । उससे कषायोपशामक जीवका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥ १८० ॥ दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाले जीवकी दोनों प्रकारकी गुणश्रेणियोंके उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा कषायों का उपशम करनेवाले जीवका जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है | दर्शनमोहनीयके क्षपक के गुणश्रेणिगुणकारसे अपूर्व करण उपशामकका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है । उससे अनिवृत्तिकरण उपशामकका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्मसाम्परायिकका गुणकार असंख्यातगुणा है । शंका- इसी प्रकार चारित्रमोहके क्षपकोंके भी पृथक् पृथकू गुणकारके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेपर गुणश्रेणिनिर्जरा ग्यारह प्रकारकी न रहकर पन्द्रह प्रकारकी हो जाती है ? समाधान- इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि वह पन्द्रह प्रकारकी नहीं होती, क्योंकि नैगम नयका अवलम्बन करनेपर तीन उपशामकों और तीन क्षपकोंके एकत्वकी विवक्षा होनेपर ग्यारह प्रकारकी गुणश्रेणिनिर्जरा बन जाती है । १ ता प्रतिपाठोऽयम् । श्रा -- प्रत्योः 'गुणगारो' इति पाठः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ७, १८१ उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो॥ १८१॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एत्थ मोहणीयं मोत्तूण सेसकम्माणं दुविहगुणसेडीणं गुणगारस्स अप्पाबहुगपरूवणं कायव्वं, उवसंतमोहणीयकम्मस्स णिज्जराभावादो। कसायखवगस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगुणो ॥१८२॥ उवसंतकसायदुविहगुणसेडिउक्कस्सगुणगारेहितो तिण्णं खवगाणं दव्वट्ठियणएणएयत्तमावण्णाणं दुविहगुणगारो गुणसेडिजहण्णओ वि असंखेज्जगुणो । सेसं सुगमं ।। खीणकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो ॥ १८३॥ कुदो ? मोहणीयस्स बंधुदय-संताभावेण वविदअणंतगुणकम्मणिज्जरणसत्तीदो ? अधापवत्तकेवलिसंजदस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगणो ॥१८४१ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो ? धादिकम्मक्खएण वड्डिदाणंतगुणकम्मणिज्जरणपरिणामादो। उससे उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥ १८१॥ शंका-गुणकार कितना है ? समाधान-वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । यहाँ मोहनीय कर्मको छोड़कर शेष कर्मोकी दोनों गुणश्रेणियोंके गुणकार सम्बन्धी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, यहां उपशम भावको प्राप्त मोहनीय कर्मकी निर्जरा सम्भव नहीं है। उससे कषायक्षपकका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥ १८२ ॥ उपशान्तकषायकी दोनों गुणश्रेणियों सम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा द्रव्यार्थिक नयसे अभेदको प्राप्त हुए तीन क्षपकोंका जघन्य भी गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है। शेष कथन उससे क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है॥१८३ क्योंकि मोहनीयके बन्ध, उदय व सत्त्वका अभाव हो जानेसे कर्मनिर्जराकी शक्ति अनन्तगणी वृद्धिंगत हो जाती है। उससे अध:प्रवृत्त केवली संयतका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१८४॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, घातिया कर्मों के क्षीण हो जानेसे कर्मनिर्जराका परिणाम अनन्तगुणी वृद्धिको प्राप्त हो जाता है। सुगम है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १८८.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पढमा चूलिया [८५ जोगणिरोधकेवलिसंजदस्स गुणसेडिगुणोअसंखेजगुणो ॥१८५॥ कुदो ? साभावियादो। संपहि 'तबिवरीदो कालो संखेज्जगुणो [य] सेडीए' एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि- . (सव्वत्थोवो जोगणिरोधकेवलिसंजदस्स गुणसेडिकालो ॥१८६) जोगणिरोधं कुणमाणो सजोगिकेवली आउववजाणं कम्माणं पदेसमोकट्टिदूण उदए थोवं देदि । विदियसमए असंखेजगुणं देदि। तदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं णिसिंचदि । एवं ताव णिसिंचदि जाव अंतोमुहुत्तं । तदुवरिमसमए असंखेज्जगुणं णिसिंचदि । तत्तो विसेसहीणं जाव अप्पप्पणो अइच्छावणावलियमपत्तो त्ति । एत्थ जं गुणसेडीए कम्मपदेसणिक्खेवद्धाणं तं थोवं, सवजहण्णअंतोमुहुत्तपमाणत्तादो। अधापवत्तकेवलिसंजदस्स गुणसेडिकालो संखेजगणो ॥१८७॥ एत्था वि उदयादिगुणसेडिकमो पुव्वं व परूवेदव्यो। णवरि पुग्विल्लगुणसेडिपदेसणिसेगद्धाणादो एदस्स गुणसेडीए पदेसणिसेगद्धाणं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । खीणकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसेडिकालोसंखेजगणो॥१८॥ को गुणगारो ? संखेजा समया । उससे योगनिरोधकेवली संयतका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥ १८५ ॥ क्योंकि ऐसा स्वभाव है। अब 'तव्विवरीदो कालो संखेजगुणो [य] सेडीए' इस गाथासूत्रके अर्थका कथन करनेके । लिये आगेका सूत्र कहते हैं योगनिरोध केवली संयतका गुणश्रेणिकाल सबसे स्तोक है ॥ १८६ ॥ योगनिरोध करनेवाला सयोगकेवली आयुको छोड़कर शेष कर्मों के प्रदेशोंका अपकर्षण कर उदयमें स्तोक देता है। उससे द्वितीय समयमें असंख्यातगुणा देता है। उससे तीसरी स्थितिमें असंख्यातगुणा निक्षिप्त करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक निक्षिप्त करता है। उससे आगेके समयमें असंख्यातगुणे प्रदेश निक्षिप्त करता है। आगे अपनी अपनी अतिस्थापनावलिको नहीं प्राप्त होने तक विशेष हीन निक्षिप्त करता है । यहां गुणश्रेणि कर्मप्रदेशनिक्षेपका अध्वान स्तोक है, क्योंकि, वह सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उससे अधःप्रवृत्त केवली संयतका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १८७ ॥ यहांपर भी उदयादि गुणश्रेणिका क्रम पहिलेके ही समान कहना चाहिए । विशेष इतना है कि पहिलेके गुणश्रेणिप्रदेशनिषेकके अध्वानसे अधःप्रवृत्त केवलीके गुणश्रेणिप्रदेशनिषेकका अध्वान संख्यातगुणा है । गुणाकार क्या है ? गुणाकार संख्यात समय है। उससे क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥१८८॥ गुणकार क्या है । गुणकार संख्यात समय है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, १८९. कसायखवगस्स गुणसेडिकालो संखेञ्जगुणो ॥१८६॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया। एत्थ गुणसेडीए पदेसणिक्खेवकमो संभरिय वत्तव्यो। उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसेडिकालो संखेजगणो ॥ १०॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया। कसायउवसामयस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१६१॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । दंसणमोहक्खवयस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१६२॥ को गुणगारो ? संखेजा समया। अणताणुबंधिविसंजोएंतस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१६३॥ को गुणगारो ? संखेजा समया। अधापवत्तसंजदस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१४॥ को गुणगारो ? संखेजा समया । अधापवत्तसंजदो एयंताणुवड्डिआदिकिरियाविरहिदसंजदो त्ति एयहो। संजदासंजदस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१६५॥ उससे कषायक्षपकका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १८९ ॥ गणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। यहां गुणश्रेणिके प्रदेशनिक्षेपक्रमको स्मरण करके कहना चाहिये। उससे उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥१६॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे कषायोपशामकका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १९१ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे दर्शनमोहक्षपकका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १९२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे अनन्तानुबन्धिविसंयोजकका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १९३ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे अधःप्रवृत्तसंयतका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १९४ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय हैं । अधःप्रवृतसंयत और एकान्तानुवृद्धि आदि क्रियाओंसे रहित संयत, इन दोनोंका अर्थ एक है। उससे संयसासंयतका गुणश्रेणिकाल संख्यातगुणा है ॥ १९५ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १९७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [८७ को गुणगारो ? संखेजा समया। दंसणमोहउवसामयस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१६॥ को गुणगारो ? संखेजा समया । एत्थ संदिही' एवं पढमा चूलिया समत्ता । (विदिया चूलिया संपहि विदियचूलियापरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि एत्तो अणुभागबंधज्झवसाणहाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि बारस अणियोगदाराणि ॥१६७॥) 'अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि' त्ति उत्ते अणुभागट्ठाणाणं गहणं कायव्वं । गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है।। उससे दर्शनमोहोपशामकका गुणश्रेणिकाल संख्यातगणा है ॥ १९६ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय हैं।। विशेषार्थ-यहाँ मूलमें गणश्रेणि रचनाका ज्ञान करानेके लिए तथा रचनाके आकारमात्रको प्रदर्शित करनेके लिए संदृष्टि दी है। गणश्रणि रचना दो प्रकारकी होती है-उद रचना और उदयावलि बाह्य गुणश्रेणि रचना । इन दोनों विकल्पोंको ध्यानमें रख कर यह संदृष्टि दी गई है । यदि उदयादि गुणश्रेणि रचना होती है तो उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकोंकी असंख्यात गुणित क्रमसे प्रदेश रचना होती है और यदि उदयावलि बाह्य गुणश्रेणि रचना होती है तो उदयावलिको छोड़ कर आगेके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकोंकी असंख्यात गुणित क्रमसे प्रदेश रचना होती है। इससे आगे प्रथम समयमें असंख्यातगुणे प्रदेश निक्षिप्त होते हैं और तदनन्तर एक एक चय न्यून क्रमसे प्रदेश निक्षिप्त होते हैं। यही भाव इस संदृष्टिमें निहित है। इस प्रकार प्रथम चूलिका समाप्त हुई। अब द्वितीय चूलिकाकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं इसके आगे अनुभागवन्धाध्यवसान स्थानकी प्ररूपणाका अधिकार है। उसमें ये बारह अनुयोगद्वार हैं ॥ १७॥ अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान कहनेपर अनुभागस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये। १ ताप्रतावत्र ‘एत्थ संदिही-' इत्येतन्निर्देशपुरस्सरं सा संदृष्टिरुपादत्ता या खल्वप्रतौ १६६ तमसूत्रस्यान्ते 'बाहुबलियं ण नवरय० एत्थ संदिही' एवंविधोल्लेखपूर्वकमुपादत्ता । अाप्रती त्वेषा संदृष्टिः 'अधापवत्तकेवलि..... कालो संखेजगुणो' इत्यादिसूत्राणां मध्य उपादत्ता । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६८. कधमणुभागबंधट्ठाणाणमणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणसण्णा ? ण एस दोसो, कजे कारणोवयारेण तेसिं तण्णामुववत्तीदो ( किमहमेसा चूलिया आगया ? अजहण्णअणुकरसट्ठाणाणि पुचिल्लेसु तिसु अणियोगद्दारेसु सूचिदाणि चेव ण परविदाणि, तेसिं परूवण?मिमा आगदा; अण्णहा अवुत्तसमाणत्तप्पसंगादो। तम्हि परूविजमाणे बारंस चेव अणियोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। तेसिमणियोगद्दाराणं णामणिद्देसो उत्तरसुत्तेण कीरदे अविभागपडिच्छेदपरूवणा हाणपरूवणा अंतरपरूवणा कंदयपरूवणा ओजजुम्मपरूवणा छटाणपरूवणा हेट्टाहाणपरूवणा समयपरूवणा वड्डिपरूवणा जवमज्झपरूवणा पजवसाणपरूवणा अप्पाबहुए ति ॥१९८) अविभागपडिच्छेदपरूवणा किमहमागदा ? एक्ककम्हि अणुभागबंधट्टाणे एत्तिया अविभागपडिच्छेदा होति त्ति जाणावण?मागदा । ठाणपरूवणा णाम किमहमागदा ? अणुभागबंधहाणाणि सव्वाणि वि एत्तियाणि चेव होति त्ति जाणावणट्ठमागदा। अंतरपरूवणा किमहमागदा ? एकेकस्स हाणस्स संखेजासंखेजाणताविभागपडिच्छेदेहि अंतरं शंका-अनुभाग बन्धस्थानोंकी अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्यमें कारणका उपचार करनेसे उनकी वह संज्ञा बन जाती है। शंका इस चूलिकाका अवतार किसलिये हुआ है ? समाधान--पहिले तीन अनुयोगद्वारोंमें अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानोंकी सूचना मात्र की है, प्ररूपणा नहीं की है। अतएव उनकी प्ररूपणा करनेके लिये इस चूलिकाका अवतार हुआ है, क्योंकि, अन्यथा अनुक्कसमानताका प्रसंग आता है। उनकी प्ररूपणा करनेपर भी बारह ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, और दूसरे अनुयोग द्वारोंकी सम्भावना नहीं है । उन अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश आगेके सूत्र द्वारा करते हैं __ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानग्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओज-युग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥ १९८॥ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा किसलिये की गई है ? एक एक अनुभागबन्धस्थानमें इतने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, यह बतलानेके लिये उक्त प्ररूपणा की गई है। स्थानप्ररूपणा किसलिये की गई है ? सभी अनुभागबन्धस्थान इतने ही होते हैं, यह बतलानेके लिये उक्त प्ररूपणा की गई है। अन्तरप्ररूपणा किसलिये की गई है ? एक एक स्थानका संख्यात, असंख्यात व अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंके द्वारा अन्तर नहीं होता, किन्तु सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंसे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६ ४, २, ७, १९८] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया ण होदि ति, किं तु सबजीवेहि अणंतगुणमेत्तअविभागपडिच्छेदेहि अंतरिदण अण्णट्ठाणमुप्पजदि त्ति जाणावणट्ठमागदा। कंदयपरूवणा किमट्ठमागदा ? अंगुलस्स असंखेजदिभागो एगं कंदयं । पुणो एगकंदयपमाणेण अणंतभागवड्डी-असंखेजभागवड्डी-संखेजभागवड्डी-संखेजगुणवड्डी-असंखेजगुणवड्डी-अणंतगुणवड्डीयो कादण जोइजमाणे सव्ववड्डीयो णिरग्गाओ होति त्ति जाणावणट्ठमागदा। ओज-जुम्मपरूवणा किमट्ठमागदा ? सव्वाणि अणुभागट्टाणाणि सव्वाविभागपडिच्छेदा वग्गणाओ फद्दयाणि कंदयाणि च कदजुम्माणि चेव इत्ति जाणावणट्ठमागदा । छहाणपरूवणा किमट्टमागदा ? अणंतभागवड्डिहाणेसु वड्विभागहारो सव्वजीवरासी, असंखेजभागवड्डिहाणेसु वड्विभागहारो असं खेजा लोगा, संखेजभागवड्डिाणेसु वड्विभागहारो उकस्ससंखेजयं, संखेजगुणवड्डिट्ठाणेसु वड्डिगुणगारो उकस्ससंखेजयं, असंखेजगुणवड्डिहाणेसु वड्डिगुणगारो असंखेजा लोगा, अणंतगुणवड्डिठ्ठाणेसु वड्डिगुणगारो सव्वजीवरासी होदि त्ति जाणावणठमागदा। हेटाहाणपरूवणा किमट्ठमागदा ? कंदयमेत्तअणंतभागवड्डीयो गंतूण असंखेजभागवड्डी होदि, कंदयमेतअसंखेजभागवड्डीयो गंतूण संखेजभागवड्डी होदि, कंदयमेत्तसंखेजभागवड्डीयो गंतूण संखेजगुणवड्डी होदि, कंदयमेत्तसंखेजगुणवड्डीयो गंतूण असंखेजगुणवड्डी होदि, अन्तरको प्राप्त होकर दूसरा स्थान उत्पन्न होता है, यह जतलानेके लिए अन्तरप्ररूपणा की गई है। काण्डकप्ररूपणा किसलिये आई है ? अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र एक काण्डक होता है । पुनः एक काण्डकके प्रमाणसे अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, इन वृद्धियोंको करके देखनेपर वे निरग्र होती हैं, यह बतलानेके लिये काण्डकप्ररूपणा आई है। ओज-युग्मप्ररूपणा किसलिये आई है ? सब अनुभागस्थान, सब अविभागप्रतिच्छेद, वर्गणायें, स्पर्धक और काण्डक कृतयुग्म ही होते हैं, यह जतलानेके लिये उक्त प्ररूपणा आई है। षट्स्थानप्ररूपणा किसलिये आई है ? अनन्तभागवृद्धिके स्थानोंमें वृद्धिका भागहार सर्व जीवराशि है, असंख्यातभागवृद्धिके स्थानों में वृद्धिका भागहार असंख्यात लोक है, संख्यातभागवृद्धिके स्थानोंमें वृद्धिका भागहार उत्कृष्ट संख्यात है, संख्यातगुणवृद्धिके स्थानोंमें वृद्धिका गुणकार उत्कृष्ट संख्यात है, असंख्यातगुणवृद्धिके स्थानोंमें वृद्धिका गुणकार असंख्यात लोक है तथा अनन्तगुणवृद्धिके स्थानों में वृद्धिका गुणकार सर्व जीवराशि है, यह बतलानेके लिये षट्स्थानप्ररूपणा आई है। . अधस्तनस्थानप्ररूपणा किसलिये आई है ? काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियाँ होने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है, काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ होने पर संख्यातभागवृद्धि होती है, काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँ होने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है, काण्डकप्रमाण संख्यातगुणवृद्धियाँ होने पर असंख्यातगुणवृद्धि होती है, तथा काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियाँ होने पर छ. १२-१२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६८. कंदयमेत्तअसंखेजगणवड्डीयो गंतूण अणंतगणवड्डी होदि त्ति जाणावणट्ठमागदा । समयपरूवणा किमहमागदा ? एदाणि अणुभागबंधट्ठाणाणि जहण्णेण एत्तियं कालं बझंति उक्कस्सेण एत्तियमिदि जाणावणट्ठमागदा। वड्डिपरूपणा किमट्ठमागदा ? अणुभागबंधट्ठाणेसु अणंतभागवड्डि-हाणीयो आदि कादण वड्डि-हाणीयो छच्चेव होंति । एदासिं बंधकालो जहण्णुक्कस्सेण एत्तियो होदि त्ति जाणावणट्ठमागदा । जवमज्झपरूवणा किमहमागदा ? अणंतगणवड्डिम्हि कालजवमज्झस्स आदी होदूण अणंतगणहाणीए समत्ता त्ति जाणावणहमागदा। पज्जवसाणपरूवणा किमट्ठमागदा ? सव्वसमयट्ठाणाणं पज्जवसाणं 'अणंतगणस्स उवरि अणंतगणं भविस्सदि त्ति पञ्जवसाणं जादमिदि जाणावणहमागदा। अप्पाबहुए त्ति किमट्ठमागदं । एक्कम्हि छट्ठाणम्हि अणंतगुणवड्डिआदिट्ठाणाणं थोवबहुत्तपरूवणहमागदं । एदं देसामासियं सुत्तं, तेण 'बंधसमुप्पत्तिय'-हदसमु अनन्तगुणवृद्धि होती है, यह दिखलाने के लिये उक्त प्ररूपणा आई है। समय प्ररूपणा किसलिये आई है ? ये अनुभागबन्धस्थान जघन्य रूपसे इतने काल तक बंधते हैं और उत्कृष्ट रूपसे इतने काल तक बँधते हैं, यह जतलानेके लिये समय प्ररूपणा आई है। वृद्धिप्ररूपणा किसलिये आई है ? अनुभागबन्धस्थानों में अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिसे लेकर वृद्धियाँ व हानियाँ छह ही होती है, इनका बन्धकाल जधन्य व उत्कृष्ट रूपसे इतना है, यह जतलानेके लिये वृद्धिप्ररूपणा आई है। यवमध्यप्ररूपणा किसलिये आई है ? अनन्तगुणवृद्धिमें कालयवमध्यका प्रारम्भ होकर वह अनन्तगुणहानिमें समाप्त होता है, यह बतलानेके लिये यवमध्यप्ररूपणा आई है। पर्ययसानप्ररूपणा किसलिये आई है ? सब समयस्थानों का पर्यवसान अनन्तगुणितके ऊपर अनन्तगुणा होगा तब पर्यवसान होता है, यह बतलानेके लिये पर्यवसानप्ररूपणा आई है। अल्पबहुत्व किसलिये आया है ? एक षट्स्थानमें अनन्तगुणवृद्धि आदि स्थानोंके अल्पबहत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये आया है। यह देशामर्शक सूत्र है, अतएव बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमु १ प्रतिषु 'पजवसाणअणंत-' इति पाठः। २ तत्थ हदसमुप्पत्तिय कादूणच्छिदसुहमणिगोदजहण्णाणुभागसंतवाणसमाणबंधहाणमादिं कादूण जाव सण्णिपंचिंदियपजत्तसम्वुक्कस्सागुभागबंधहाणे त्ति ताव एदाणि असंखेजलोगमेत्तछटाणाणि बंधसमुप्पत्तियहाणाणि त्ति भणंति, बंधेण समुप्पण्णत्तादो। जयध. अ. प. ३१३. ३ पुणो एदेसिमसंखेजलोगमेत्तछटाणाणं ममे अणंतगुणवडिअणंतगुणहाणिअहंकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखेजलोगमेत्तछटाणाणि हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणि भणंति, बंधहाणघादेण बंधहाणाणं विच्चालेसु जच्चंतरभावेण उप्पण्णत्तादो। जयध. अ. प. ३१३-१४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [९१ प्पत्तिय'-हदहदसमुप्पत्तिय'हाणेसु तिसु वि एदाणि बारसाणियोगद्दाराणि परुवेदव्वाणि । तत्थ ताव बंधहाणेसु एदाणि अणियोगद्दाराणि भणिस्सामो। कुदो ? बंधादो संतुप्पत्तिदसणादो। ____ अविभागपडिच्छेदपरूवणदाए एककम्हि हाणम्हि केवडिया अविभागपडिच्छेदा ? अणंता अविभागपडिच्छेदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा, एवदिया अविभागपडिच्छेदा ॥१६६॥ संपहि जहण्णाणुभागबंधहाणमस्सिदृणविभागपडिच्छेदपमाणपरूवणा कीरदे-को अणुभागो णाम ? अण्णं वि कम्माणं जीवपदेसाणं च अण्णोण्णाणुगमणहेदुपरिणामो। पयडी अणुभागो किण्ण होदि ? ण, जोगादो उप्पञ्जमाणपयडीए कसायदो उप्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकारणाणं कजाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। किं च अणुभागवुड्डी पयडिवुड्डिणिमित्ता, तीए महंतीए संतीए पयडिकजस्स अण्णाणादियस्स वुड्डिदंसणादो। त्पत्तिक इन तीनों ही स्थानों में इन बारह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। उनमें पहिले बन्धस्थानों में इन अनुयोगद्वारोंको कहेंगे, क्योंकि, बन्धसे सत्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाका प्रकरण है-एक एक स्थानमें कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ? अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं जो सब जीवोंसे अनन्तगणे होते हैं, इतने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥ १९९ ॥ अब जघन्य अनुभागबन्धस्थानका आश्रय लेकर अविभागप्रतिच्छेदोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। शंका-अनुभाग किसे कहते हैं ? समाधान-आठों कर्मों और जीवप्रदेशोंके परस्परमें अन्वय ( एकरूपता) के कारणभूत परिणामको अनुभाग कहते हैं शंका-प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं होती ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकृति योगके निमित्तसे उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषायसे उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्यों में एकरूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभागकी वृद्धि प्रकृतिकी वृद्धि में निमित्त होती है, १ हते घातिते समुत्पत्तिर्यस्य तदुत्तरसमुत्पत्तिकं कर्म अणुभागसंतकम्मे वा जमुव्वरिदं जहण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा । जयध. अ. प. ३२२. २ पुणो एदेसिमसंखेजलोगमेत्ताणं हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणमणंतगुणवड़ि-हाणिअहंकुव्यंकाणं विच्चालेसु असंखेजलोगमेत्तछहाणा हदहदसमुप्पत्तियसंतहाणाणि वुच्चंति, घादेणुभागगहाणेहितो विसरिसाणि घादिय बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तिपअणुभागहाणेहिंतो विसरिसभावेण उप्पायिदत्तादो। जयध, श्र. प. ३१४ ३ मप्रतिपाठोऽमम् । अ-श्रा प्रत्योः 'कम्माणं जे पदेसाणं', ताप्रती 'कम्माणं [जे] पेदसाणं' इति पाठः। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६६. तम्हा ण पयडिअणुभागो त्ति घेत्तव्यो। अण्णोण्णं पासहेदुगुणस्स अणुभागत्ते संते उदयावलियाए हिदपदेसग्गाणमुक्कस्साणुभागाभावो पसजदि त्ति णासंकणिजं, ठिदिक्खएण अण्णोण्णपासक्खएण णियमाणुववत्तीदो। तत्थ एक्कम्हि परमाणुम्हि जो जहण्णेणवद्विदो' अणुभागो तस्स अविभागपडिच्छेदो ति सपणा । ठाणम्हि जहण्णेणवहिद'अणुभागस्स अविभागपडिच्छेदसण्णा णत्थि, तत्थ णिव्वियप्पत्ताभावादो। पुणो एदेण अविभागपलिच्छेदपमाणेण जहण्णाणुभागहाणे कदे सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्ता अविभागपडिच्छेदा होति । एत्थ ताव दवट्ठियणयमस्सिदूण जं जहण्णट्ठाणं तस्साविभागपडिच्छेदाणमवट्ठाणकमो उच्चदे । तं जहा-णइगमणयमस्सिदूण जं जहण्णाणुभागट्टाणं तस्त सव्वपरमाणुपुंज एकदो कादण द्वविय तत्थ सव्वमंदाणुभागपरमाणुं घेत्तण वण्ण-गंध-रसे' मोत्तूण पासं चेव बुद्धीए घेत्तूण तस्स पण्णाच्छेदो' कायव्यो जाव विभागवजिदपरिच्छेदो' त्ति । तस्स अंतिमस्स खंडस्स अछेजस्स अविभागपडिच्छेद इदि सण्णा । पुणो तेण पमाणेण क्योंकि, उसके महान् होनेपर प्रकृतिके कार्य रूप अज्ञानादिकी वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । __ शंका-परस्पर स्पर्शके हेतुभूत गुणको यदि अनुभाग स्वीकार किया जाता है तो उदयावलिमें स्थित प्रदेशामोंके उत्कृष्ट अनुभागके अभावका प्रसंग आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, स्थितिके क्षयसे परस्पर स्पर्शका अभाव होता है, ऐसा नियम नहीं बनता। एक परमाणुमें जो जघन्यरूपसे अवस्थित अनुभाग है उसकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा है। स्थानमें जघन्यरूपसे अवस्थित अनुभागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा नहीं है, क्योंकि वहाँ निर्विकल्परूपता नहीं उपलब्ध होती। अब इस अविभागप्रतिच्छेदके प्रमाणसे जघन्य अनुभागस्थानका विभाग करनेपर वहाँ सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। यहाँ सर्व प्रथम द्रव्यार्थिक नयका आश्रय करके जो जघन्य स्थान है उसके अविभागप्रतिच्छेदोंके अवस्थानक्रमको कहते हैं। यथा-नैगमनयका आश्रय करके जो जघन्य अनुभागस्थान है उसके सब परमाणुओंके समूहको एकत्रित करके स्थापित करे। फिर उनमेंसे सर्वमन्द अनुभागसे संयुक्त परमाणुको ग्रहण करके वर्ण, गन्ध और रसको छोड़कर केवल स्पर्शका ही बुद्धिसे ग्रहण कर उसका विभाग रहित छेद होने तक प्रज्ञाके द्वारा छेद करना चाहिये । उसे नहीं छेदने योग्य अन्तिम खण्डकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा है। पश्चात् उक्त प्रमाणसे सब स्पर्श १ अ-श्राप्रत्योः 'वड्ढीदो', ताप्रतौ 'वढिदो' इति पाठः । २ अप्रतौ 'ठाणम्हि जेण वडिढ', अा-ताप्रत्योः 'ठाणम्हि जपणेण वढिद' इति पाठः। ३ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'वग्गो' इति पाठः। ४ ताप्रतौ 'पण्ण' इति पाठः। ५ श्राप्रतौ 'जाव विभागपडिछेदो' इति पाठः। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ ९३ सव्वपासखंडेसु खंडिदेसु सव्वजीवेहि अनंतगुणअविभागपडिच्छेदा लब्भंति । तेसिं सव्वेसि पि वग्ग इदि सण्णा । सो च संदिट्ठीए अणंतो वि संतो अट्ठ इदि घेत्तव्वो [८]। पुण तहि चैव परमाणुपुंजहि तस्सरिसविदियपरमाणुं घेत्तूण तप्पासस्स पुव्वं व पण्णच्छेदre कदे एत्थ वि तत्तिया चेव अविभागपडिच्छेदा लब्धंति । अछेजस्स परमाणुस्स कथं छेदो कीरदे ! ण एस दोसो, तस्स दव्वमेव अछेजं, ण गुणा इदि अब्भुवगमादो । परमाणुगुणाणं वड्डि-हाणीए संतीए परमाणुत्तं कथं ण विरुज्झदे १ ण, दव्त्रदो वड्डिहाणि भावं पडुच्च परमाणुत्तब्भुवगमादो । एसो विदियो वग्गो अणंतो वि संतो संदिट्ठीए असंखो पुव्विल्लवग्गपासे हवेयव्वो [ ८८ ]। एदेण कमेण गुणेण पुव्विल्लपरमाणुसरिस एगपरमाणुं घेत्तूण तेसिं गहिदपरमाणूणं पासस्स अविभागपडिच्छेदे कदे एगेगो वग्गो उप्पञ्जदि । एवं ताव कादव्वं जाव जहण्णगुणपरमाणू सव्वे णिहिदा ति । एवं कदे अभवसिद्धिएहि अनंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता वग्गा लद्धा भवंति । तेसिं पमाणं संदिट्ठीए एवं [ ८८८८ ] एदेसिं सव्वेसिं पि दव्वडियणए अवलंबिदे वग्गणा इदि सण्णा । खंडों के खण्डित करनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं । उन सभीकी वर्ग यह संज्ञा है । उसका प्रमाण अनन्त होकर भी संदृष्टिमें आठ ( ८ ) ऐसा ग्रहण करना चाहिए। पुनः उसी परमाणुपुंज में से उसके सदृश दूसरे परमाणुको ग्रहण कर उसके स्पर्शके पहिलेके समान प्रज्ञा के द्वारा च्छेद करनेपर यहाँ भी उतने ही अविभागप्रतिच्छेद उपलब्ध होते हैं । शंका- नहीं छिदने योग्य परमाणुका छेद कैसे किया जा सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसका केवल द्रव्य ही अच्छेद्य है, गुण नहीं, ऐसा यहाँ स्वीकार किया गया है। शंका- परमाणु के गुणोंमें वृद्धि एवं हानि होनेपर उसका परमाणुपना कैसे विरोधको नहीं प्राप्त होगा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यकी अपेक्षा वृद्धि व हानिके अभावका आश्रय लेकर परमापना स्वीकार किया गया है । यह द्वितीय वर्ग अनन्त होता हुआ भी संदृष्टिमें आठ संख्या रूप है। इसे पूर्व वर्गके पासमें स्थापित करना चाहिये । ८८ । इस क्रम से गुणकी अपेक्षा पूर्व परमाणुके सदृश एक एक परमाणुको लेकर उन ग्रहण किये गये परमाणुओंमें स्थित स्पर्शके अविभागप्रतिच्छेद करनेपर एक एक वर्ग उत्पन्न होता है । इस क्रियाको जघम्य गुणवाले सब परमाणुओंके समाप्त होने तक करना चाहिये । ऐसा करनेपर अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं । उनका प्रमाण संदृष्टिमें इस प्रकार है ८८८८ । इन सबोंकी द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर 'वर्गणा' संज्ञा है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, १९९. कथं गाणं वग्गणा इदि ववएसो ? ण, वग्ग वग्गणाणं भेदोवलंभादो । वग्गाणं समूहो वग्गणा, तेसिं चेव असमूहो वग्गो । वग्गणा एगा, वग्गा अनंता । तम्हाण सिमेयत्त मिदि । जदि पुण वग्गेहिंतो वग्गणाए अभेदो विवक्खिजदे तो वग्गणाओ वि अनंताओ चैव, वग्गभेदेण तदभिष्णवग्गणाए वि भेदुवलंभादो । तम्हा एगा बि वग्गणा होदि वग्गमेत्ता वि, णत्थि एत्थ एयंतो तत्थ दवडियण यावलंबणाए एसा या वग्गणा त्ति पजवट्ठियणयावलंबणाए एदाओ अनंताओ वग्गणाओ त्ति वा पुध वेदव्वं । एवं ठविय पुणो अण्णं परमाणुं पुच्चिल्लपुंजादो घेत्तूण परणच्छेदणए कदे संपहि पुल्लिपुंजादो एग' परमाणुअविभागपडिच्छेदेहिंतो एगाविभागपडिच्छेदेण अहिया लब्धंति [९]। एसो एत्थ वग्गो त्ति पुध द्ववेदव्वो । एदेण कमेण तस्सरिसमेगेगपरमाणुं घेत्तूण तप्पडिच्छेदं काढूण अनंता वग्गणा उप्पादेदव्वा जाव तस्स - रिसपरमाणू सव्वेणिहिदा त्ति । तेसिं पमाणमेदं [ ९९९ ] । एत्थ वि पुत्रं व एसा वग्गणा या अनंता तिवा वत्तव्वं (एयत्तं मोत्तूण अनंतत्तं ण प्पसिद्धमिदि चे १ एयत्तं कत्थ सिद्धं १ पाहुडचुण्णिसुत्ते सुपसिद्धं लोगपूरणाए एया वग्गणा जोगस्स इत्ति शंका - वर्गोंकी वर्गणा संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, वर्ग और वर्गणा में भेद उपलब्ध होता है । वर्गों के समूहका नाम वर्गणा है और उन्हींके असमूहका नाम वर्ग है वर्गणा एक होती है, परन्तु वर्ग अनन्त होते हैं । इस कारण वे दोनों एक नहीं हो सकते । परन्तु यदि वर्गोंसे वर्गणाका अभेद कहना चाहते हैं तो वर्गणायें भी अनन्त ही होंगी, क्योंकि, वर्गोंके भेदसे उनसे अभिन्न वर्गणांका भेद पाया जाता है । इसलिये वर्गणा एक भी होती है और वर्गोंके बराबर भी इस विषय में कोई एकान्त नहीं है । द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर यह एक वर्गणा है और पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर ये अनन्त वर्गणायें हैं । इसलिए इसको पृथक् स्थापित करना चाहिये । इस प्रकार स्थापित करके पुनः पूर्वोक्त पुंज में से अन्य परमाणुको ग्रहण कर बुद्धिसे छेद करनेपर अब पूर्वोक्त पुंजसे एक परमाणुके अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा इसमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। 8 । यह यहाँपर वर्ग है, अतः उसे पृथक् स्थापित करना चाहिये । इस क्रमसे तत्समान एक एक परमाणुको ग्रहण कर तथा उस एक एक परमाणुके प्रतिच्छेद करके उसके सदृश सब परमाणुओंके समाप्त होने तक अनन्त वर्गोंको उत्पन्न करना चाहिये । उनका प्रमाण यह है । ९९९ । यहाँ भी पहिलेके ही समान यह वर्गणा एक भी है अथवा अनन्त भी हैं, ऐसा कहना चाहिये । शंका- वर्गणाकी एक संख्याको छोड़कर अनन्तता प्रसिद्ध नहीं है ? प्रतिशंका-उसकी एकता कहाँ प्रसिद्ध है ? प्रतिशंकाका समाधान- वह कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्र में प्रसिद्ध है, क्योंकि, वहाँ 'लोकपूरण १ - प्रत्योः 'एगा' इति पाठः । २ - श्रापत्योः 'हिदा' इति पाठः । ३ लोगे पुण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्तिणायव्वो । जयध. १२३६. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १९९.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया भणिदत्तादो) वग्गणावियप्पो 'एगवियप्पो जोगो सव्वजीवपदेसाणं जादो ति उत्तं होदि ? ण एस दोसो, एकिस्से वग्गणाए कत्थ वि अणेयववहारुवलंभादो। तं कधं णव्वदे ? एगपदेसियवग्गणा केवडिया ? अणंता, दुपदेसियवग्गणा अणंता, इच्चादिवग्गणवक्खाणादो णबदे। णं हि 'वक्खाणमप्पमाणं, चुण्णिसुत्तरस वि वक्खाणतणेण' समाणस्स अप्पमाणत्तप्पसंगादो। पुणो एदमुक्खिविय' पढमवग्गणाए उवरि हविदे विदियवग्गणा होदि । एवं तदिय-च उत्थ-पंचमादिवग्गणओ अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण उवरि उवरि वड्डमाणाओ' उप्पादेदव्वाओ जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगण सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ उप्पण्णाओ त्ति । पुणो एत्तियमेतवग्गणाओ घेत्तण जहण्णहाणस्स एगं फद्दयं होदि । कधं फद्दयसण्णा ? क्रमेण स्पर्द्धते वर्द्धत इति स्पर्द्धकम् । एदस्स कधमेयत्तं ? अवस्थामें योगकी एक वर्गणा होती है' ऐसा कहा गया है। लोकपूरणसमुद्धातके होनेपर समस्त जीवप्रदेशोंमें एक विकल्प रूप योगके होनेसे वर्गणा एक होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंकाका समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक वर्गणामें कहींपर अनेकत्वका भी व्यवहार उपलब्ध होता है। शंका-वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-एक प्रदेशवाली वगणा कितनी हैं ? अनन्त हैं। दो प्रदेशवाली वर्गणा अनन्त हैं, इत्यादि वर्गणा व्याख्यानसे जाना जाता है। यदि कहा जाय कि यह वर्गणाव्याख्यान अप्रमाण है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, व्याख्यान रूपसे चूर्णिसूत्र भी समान है इसलिए उसकी भी अप्रमाणताका प्रसंग आता है। पुनः इसको उठाकर प्रथम वर्गणाके आगे रखनेपर द्वितीय वर्गणा होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे आगे आगे अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र वर्गणाओंके उत्पन्न होने तक तृतीय, चतुर्थ व पंचम आदि वर्गणाओंको उत्पन्न कराना चाहिये । इतनी मात्र वर्गणाओंको ग्रहण कर जघन्य स्थानका एक स्पर्धक होता है। शंका-स्पर्धक संज्ञा कैसे है ? समाधान-क्रमसे जो स्पर्धा करता है अर्थात् बढ़ता है वह स्पर्द्धक है। शंका-वह एक कैसे है ? १ 'प्रतिषु' ण वि वक्खाण-' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'विवक्खाणतणेण' इति पाटः। ३ तापतौ 'एदमक्खिविय' इति पाठः । ४ अ-श्राप्रत्योः 'वढमाणीए', ताप्रती 'बड्ढमाणीए (ो) इति पाठः। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,७,७-१६९ अंतरिदूण वड्डीए अणुवलंभादो। पढमवग्गणाविमागपडिच्छेदसमूहादो विदियवग्गणाविभागपडिच्छेदसमूहो अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहि ऊणो, विदियादो तदियो वि तत्तो विसेसाहिएहिंतो ऊणो त्ति फद्दयत्तं ण जुञ्जदे, कमवड्डीए कमहाणीए वा अभावादो ? ण, भावविहाणे अप्पहाणीकयसमाणधणपरमाणुपुंजे एगोलोवड्डिं मोत्तूण णाणोलिवड्डि-हाणिगगहणाभावादो। ण च एगोलीए कमवड्डी णत्थि, उवलंभादो। किमहं भावविहाणे समाणधणपरमाणुविवक्खा ण कीरदे ? बंधाणुभागखंडयघादेहि विणा उक्कड्डण-ओकडणाहि वड्डि-हाणीयो ण होति त्ति जाणावणहं । तं पि किमहं जाणा विजदे ? एगपरमाणुम्हि हिदाणुभागस्स हाणत्तपदुप्पायणहं। ण भिण्णपरमाणुहिदअणुभागो हाणं, एक्कम्हि चेव अणुभागहाणे अणंतट्ठाणत्तप्पसंगादो। ण जोगहाणेण वियहिचारो, एयदव्वसत्तीए एयत्तं पडि विरोहाभावादो। ण जीवपदेसभेदेण भेदो, अवयवभेदेण दव्वभेदा 'समाधान-क्योंकि उसमें अन्तर देकर वृद्धि नहीं उपलब्ध होती, अतः वह एक है। शंका-चूंकि प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके समूहसे द्वितीय धर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद हीन है तथा द्वितीयकी अपेक्षा तृतीय भी उनसे विशेष अधिक अविभागप्रतिच्छेद हीन है, इसलिए पूर्वोक्त स्पर्द्धकका स्वरूप नहीं बनता, क्योंकि, उसमें क्रमवृद्धि अथवा क्रमहानिका अभाव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, समान धनवाले परमाणुपुंजको अप्रधान करनेवाले भावविधान अनुयोग द्वार में एक श्रेणिवृद्धिको छोड़कर नानाश्रेणिरूप वृद्धि व हानिका ग्रहण नहीं किया गया है और एक श्रेणिसे क्रमवृद्धि न हो, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि वह पाई जाती है। शंका-भावविधान अनुयोगद्वारमें समान धनवाले परमाणुओंकी विवक्षा क्यों नहीं की गई है ? ___समाधान-बद्धानुभाग काण्डकघातोंके बिना उत्कर्षण और अपकर्षणके द्वारा वृद्धि व हानि नहीं होती, इस बातके ज्ञापनार्थ वहाँ समान धनवाले परमाणुओंकी विवक्षा नहीं की गई है। शंका-उसका ज्ञापन किसलिये कराया जा रहा है ? · समाधान-एक परमाणुमें स्थित अनुभागकी स्थानरूपता बतलानेके लिये उसका ज्ञापन कराया जा रहा है । भिन्न परमाणुओंमें स्थित अनुभाग स्थान नहीं हो सकता, क्योंकि, इस प्रकारसे एक ही अनुभागस्थान में अनन्त स्थानरूपताका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि इस प्रकारसे योगस्थानके साथ व्यभिचार होना सम्भव है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि. एक द्रव्य शक्तिसे योगस्थानकी एकतामें कोई विरोध नहीं है। जीवप्रदेशीके भेदसे भी स्थानभेद होना सम्भव नहीं है, क्योंकि अवयवोंके भेदसे द्रव्यभेद असम्भव है। १ अप्रतौ 'विदियादो तदियादो तत्तो' इति पाठः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१७ भावादो । कम्मपरमाणूणं पि खंडभावेण द्विदाणमेगत्तमस्थि ति समाणधणाणं' पि गहणं किण्ण कीरदे ? ण, दव्वभावेण एयत्ताभावादो। भावे वा ण भेदो होज, एयत्तादो जीवागास-धम्मत्थियादीणं व । अण्णं च, फद्दयपरूवणा. एगोलिं चेव अस्सिदूण हिदा, अण्णहा जोगहाणे फद्दयाणमभावप्पसंगादो। ण च एवं, जोगहाणे सुत्तप्पसिद्धफद्दयपरूवणुवलंभादो। ण च एवं घेप्पमाणे अणंताहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि त्ति एवं विरुज्झदे, एकस्स वि वग्गस्स दवहियणयादो वग्गणत्तसिद्धीदो। भिण्णदव्वहिदो त्ति अणुभागस्स जदि ण एयत्तं वुच्चदे, ण एगोली वि फद्दयं, भिण्णदव्वउत्तीए भेदाभावादो? ण एस दोसो, कमेण एगोलीए वहिदसव्वाविभागपडिच्छेदाणमेकम्हि परमाणुम्हि उवलंभादो। ण च भिण्णदव्वउत्तिअविभागपडिच्छेदाणं फद्दयत्तं, तेसिं चरिमपरिमाणुम्हि संताणं गहणे पुणरुत्तदोसप्पसंगादो भिण्णदव्वउत्तीणमेयत्तविरोहादो वा। जदि एवं तो एगणाणोलीपदेसरचणा किमहं कीरदे ? ण, एदस्सेव अणुभागफद्दयस्स शंका-खण्ड स्वरूपसे स्थित कर्मपरमाणुओंमें चूंकि एकरूपता विद्यमान है, अतएव समान धनवाले उनका भी ग्रहण क्यों नहीं करते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनमें द्रव्य स्वरूपसे एकता नहीं है। यदि उनमें द्रव्य स्वरूपसे एकता मानी जाय तो फिर भेद होना अशक्य है, क्योंकि, उनमें द्रव्य स्वरूपसे एकता है, जैसे जीव आकाश व धर्म अस्तिकाय । दूसरे, स्पर्द्धकप्ररूपणा एक श्रेणिका ही आश्रय करके स्थित है, क्योंकि, इसके बिना योगस्थानमें स्पर्द्धकोंके अभावका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, योगस्थानमें सूत्रप्रसिद्ध स्पर्द्धकप्ररूपणा पायी जाती है। यदि कहा जाय कि ऐसा स्वीकार करनेपर 'अनन्त वर्गणाओंसे एक स्पद्धक होता है' यह कथन विरोधको प्राप्त होगा, क्योंकि एक वर्गके भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा वर्गणात्व सिद्ध है। शंका-भिन्न द्रव्य में रहनेके कारण यदि अनुभागकी एकता स्वीकार नहीं की जाती है तो फिर एक श्रेणिको भी स्पर्द्धक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, भिन्नद्रव्यवृत्तित्वकी अपेक्षा उसमें कोई भेद नहीं है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, क्रमशः एक श्रेणिरूपसे अवस्थित समस्त अविभागप्रतिच्छेद एक परमाणुमें पाये जाते है। भिन्न द्रव्यमें रहनेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंके त्पर्द्धकरूपता सम्भव भी नहीं है, क्योंकि, अन्तिम परमाणुमें रहनेवाले उक्त अविभागप्रतिच्छेदोंको ग्रहण करनेपर पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है, अथवा भिन्न द्रव्यमें रहनेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंके एक होनेका विरोध है । शंका-यदि ऐसा है तो एक व नानाश्रेणि स्वरूपसे प्रदेशरचना किसलिये की जाती है ? १ अ-अाप्रत्योः 'समाणधाणाणं' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'वड्डिद-' इति पाठः । छ, १२-१३. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ artisan daणाखंड [ ४, २, ७, १९९. ९८ ] एगपरमाणुम्हि अवद्विदस्स 'अविणाभावीणमणुभागपदेसाणं परूवणदुवारेण तप्परूवणचादो | ण च अणिच्छिदवदिरेगस्स अण्णए णिच्छओ अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलं भादो । पुणो एदं पढमफद्दयं पुध दृविय पुचिल्लपुंजम्मि एगपरमाणुं वेत्तूण पण्णच्छेद ए कदे सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तअविभागवड्डिच्छेदेहि अंतरिदूण विदियफद्दयस्स अण्णो बग्गो उपजदि । संदिट्ठीए तस्स पमाणमेदं [ १६ ] एदेण कमेण अभवसिद्धिए हि अनंतगुणे सिद्धाणमणंतभागमेत्ते समाणधणपरमाणू घेत्तूण परमाणुमेत्तवग्गेसु उप्पाइदेसु विदियफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । एदं पढमफद्दय चरिमवग्गणाए उवरि अंतरमुल्लंघिय वेदव्वं । एदेण कमेण वग्ग वग्गणाओ फदयाणि जाणिदूण उप्पादेदव्वाणि जाव पुव्विल परमाणुपुंजो समत्तो चि । एवं फद्दयरचणाए कदाए अभवसिद्धिएहि अनंतगुणाणि सिद्धाणमणंत भागमेत्ताणि फहयाणि वग्गणाओ च उप्पण्णाणि हवंति । एत्थ चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुम्हि ट्ठिदिअणुभागो जहण्णहाणं । समाधान- नहीं, क्योंकि इसी अनुभाग स्पर्द्धकके एक परमाणुमें अवस्थित अविभागी अनुभाग प्रदेशोंकी प्ररूपणा द्वारा उक्त रचनाकी प्ररूपणा की गई है । दूसरे, जिसे व्यतिरेकका निश्चय नहीं है उसके अन्वय के विषयमें निश्चय नहीं हो सकता; क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता । इस प्रथम स्पर्द्धकको पृथक् स्थापित करके पूर्वोक्त परमाणुपुंजमेंसे एक परमाणुको ग्रहण कर बुद्धिसे छेद करनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे मात्र अविभागप्रतिच्छेदों के द्वारा अन्तर करके द्वितीय स्पर्द्धकका अन्य वर्ग उत्पन्न होता है । संदृष्टिमें उसका प्रमाण यह है - १६ । इस क्रम से अभव्यसिद्धिकोंसे अनन्तगुणे व सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र समान धनवाले परमाणुओंको ग्रहण करके परमाणु प्रमाण वर्गों के उत्पन्न करानेपर द्वितीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा होती है । इसे प्रथम स्पर्द्धककी अन्तिम वर्गणाके ऊपर अन्तरको लाँघ कर स्थापित करना चाहिथे । इस क्रमसे वर्ग, वर्गणाओं और स्पर्द्धकोंको जानकर पूर्वोक्त परमाणुपुंजके समाप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार स्पर्द्धक रचनाके किये जानेपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र स्पर्द्धक व वर्गणायें उत्पन्न होती हैं। यहां अन्तिम स्पद्ध ककी अन्तिम वर्गणा सम्बन्धी एक परमाणु में स्थित अनुभाग जघन्य स्थान रूप है । १ ताप्रतौ ' श्रविणाभावीण' इति पाठः । २ प्रतिषु 'विभागवड्डिच्छेदेहि' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'भवसिद्धिएहि' इति पाठः । ४ अणुभागड़ाणं णाम चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुम्मि दिअणुभागाविभागपलिच्छेदकलावो । जयध. अ. प. ३५६. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया एत्थ एसा संदिही . . . . ० . ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ११ । १९ २७ | ३५ १० १० १८ | २६ | ४|४६ ८८८८/१६ २४ | ३२ ४० ४८ सो च सव्वजीवेहि अणंतगणो। एवमेकहाणे वग्गणाओ फद्दयाणि च हविय अविभोगपलिच्छेदपरूवणं कस्सामो। सा च अविभागपलिच्छेदपरूवणा तिविहाबग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा चेदि । अविभागपडिच्छेदपरूवणाए सह चउव्विहा किण्ण उत्ता? ण, अणवगयाणं अविभागपडिच्छेदाणमाधारत्तं विरुज्झदि त्ति कट्ट अविभागपडिच्छेदपरूवणाए पुव्वं चेव कदत्तादो । तत्थ वग्गणपरूवणा तिविहापरूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । तत्थ परूवणा सुगमा, अविभागपडिच्छेदपरूवणादो चेव वग्गणसण्णिदअविभागपडिच्छेदाणमत्थित्तसिद्धीदो । यहाँ यह संदृष्टि है-(मूलमें देखिये )। वह सब जीवोंसे अनन्तगुणा है। इस प्रकार एक स्थानमें वर्गणाओं और स्पद्धकोंको स्थापित करके अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा करते हैं-वह अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा तीन प्रकारकी है-वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणा।। शंका-अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाके साथ वह चार प्रकारकी क्यों नहीं कही गई है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेदोंके अज्ञात होनेपर उनके आधारका कथन करना विरोधको प्राप्त होता है, ऐसा मानकर अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा पहले ही कर आये हैं। उनमेंसे वर्गणाप्ररूपणा तीन प्रकारकी है-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व। इनमेंसे प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा करनेसे ही वर्गणा संज्ञावाले अविभाग प्रतिच्छेदोंका अस्तित्व सिद्ध होता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ]. छक्खंडागमे बेयणाखंड [ ४, २, ७, १६६. तत्थ पमाणं उच्चदे । तं जहा - अणंताओ वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अनंतगुणाओ सिद्धाणमणंत भागमेत्ताओ । पमाणपरूवणा गदा । अप्पा बहुगं उच्चदे । सव्वत्थोवा जहण्णियाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा । उक्कस्सियाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो । कुदो १ चरिमसमय सुहुम संम्पराइयज हण्णबंधग्गहणादो तत्थावहिदफद्दयंत रुव लं भादो । अजहण्ण-अणुक्कस्सवग्गणा विभागपलिच्छेदा अनंतगुणा । को गुणगारो ! अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो । एसा परूवणा एगोलिमस्सिदूण कदा, अण्णा उक्कस्तवग्गणादो अजहण्ण-अणुकरसवग्गणाए अनंतगुणताणुववत्तदो । संहि फद्दयपरूवणा तिविहा - परूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । परूवणा सुगमा, अविभागपडिच्छेद परूवणाए चैव परुविदत्तादो । संपहि फदयाणं पमाणं उच्चदे - अणंताहि वग्गणाहि सव्वत्थ अवट्टिदसंखाहि एगं फद्दयं होदि । ताणि च जहण्णबंधट्ठाणे अभवसिद्धिएहि अनंतगुणाणि सिद्धाणमणंतभागमेत्ताणि । पमाणं गदं । अप्पा बहुगं उच्चदे - सव्वत्थोवा जहण्णफद्दयअविभागपडिच्छेदा । उक्क सफद्दयाविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा । अजहण्ण-अणुक्कस्सफद्दयाणमविभागपडिच्छेदा अनंत अब प्रमाणका कथन करते हैं। यथा- वर्गणाएं अनन्त हैं जो अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी हैं। और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र हैं। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई । अब अल्पबहुत्व कहते हैं - जघन्य वर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अगन्तवें भाग मात्र गुणकार है । कारण कि यहाँ अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्प रायिकके जघन्य बन्धका ग्रहण करनेसे वहाँ अवस्थित स्पर्द्धकका अन्तर उपलब्ध होता है । उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र गुणकार है । यह प्ररूपणा एक श्रेणिका आश्रय करके की गई है, क्योंकि, इसके बिना उत्कृष्ट वर्गणाकी अपेक्षा अजघन्यअनुत्कृष्ट वर्गणा में अनन्तगुणत्व नहीं बन सकता । 1 स्पर्द्धकप्ररूपणा तीन प्रकारकी है- प्ररूपणा प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा से ही उसकी प्ररूपणा हो जाती है। अब स्पद्ध कोंका प्रमाण कहते हैं । सर्वत्र अवस्थित संज्ञावाली अनन्त वर्गणाओंसे एक स्पर्द्धक होता है । वे जघन्य बन्धस्थानमें अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे व सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र होते हैं। प्रमाण समाप्त हुआ । अल्पबहुत्व कहते हैं - जघन्य स्पर्द्धकके अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट स्पर्द्धकके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्पर्द्धकोंके अविभागप्रतिच्छेद Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १९९.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१०१ गुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो। फद्दयपरूवणा गदा। अंतरपरूवणा तिविहा-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि। परूवणा सुगमा, बहुफद्दयपरूवणादो चेव अंतरस्स अत्थित्तसिद्धीदो। ण च अंतरेण विणा विदियादिफद्दयाणं संमवो, विरोहादो। पमाणं वुच्चदे-सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तेहि अविभागपडिच्छेदेहि एगेगं फद्दयंतरं होदि । पमाणपरूषणा गदा । अप्पाबहुअं णत्थि, जहण्णट्ठाणसव्वफद्दयाणं सरिसत्तुवलंभादो। संपहि अविभागपडिच्छेदाधारपरमाण वि' अविभागपडिच्छेदा भण्णंति', आधारे आधेयोवयारादो। तदो पदेसपरूवणा वि अविभागपडिच्छेदपरूवणा त्ति कटु एत्थ जहण्णहाणे पदेसपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एत्थ छ अणियोगद्दाराणि-परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागमप्पाबहुगं चेदि । बेसदछप्पण्णमादि कादूण जाव णव इत्ति संदिट्ठीए हविय एदिस्से उवरि वालजणाणुग्गहह छ अणियोगद्दाराणि भणिस्सामोजहणियाए वग्गणाए णिसित्ता अस्थि कम्मपदेसा । विदियाए वग्गणाए णिसित्ता अत्थि अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र गुणकार है । स्पर्द्धकप्ररूपणा समाप्त हुई। अन्तरप्ररूपणा तीन प्रकारकी है-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि बहुत स्पर्द्धकोंकी प्ररूपणासे ही अन्तरका अस्तित्व सिद्ध होता है। अन्तरके विना द्वितीय आदि स्पर्द्धकोंकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। प्रमाण कहते हैं-सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक एक स्पर्द्धकका अन्तर होता है । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, जघन्य स्थानके सब स्पर्द्धक समान पाये जाते हैं। अब आधारमें आधेयका उपचार करनेसे अविभागप्रतिच्छेदोंके आधारभूत परमाणु भी अविभागप्रतिच्छेद कहे जाते हैं । इसलिये प्रदेशप्ररूपणाको भी अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा मानकर यहाँ जघन्य स्थानमें प्रदेशप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-यहाँ छह अनुयोगद्वार हैंप्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व । दो सौ छप्पनसे लेकर नौ तक संदृष्टिमें स्थापित कर इसके ऊपर अज्ञानी जनोंके अनुग्रहार्थ छह अनुयोगद्वारों को कहते हैंजघन्य वर्गणामें दिये गये कर्मप्रदेश हैं। द्वितीय वर्गणामें दिये गये कर्मप्रदेश हैं। इस प्रकार १ अप्रतौ 'वि' इति पदं नास्ति । २ श्रा-ताप्रत्योः 'भणंति' इति पाठः । 'अविभागपडिच्छेदा भण्णंति आधारे प्राधेयोवयारादो। तदो पदेसपरूवणा वि अविभाग' इत्येतावानयं पाठस्ता-मप्रत्यो पुनरप्युपलभ्यते। www.jainelibrary. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १९९. कम्मपदेसा । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सिया वग्गणा त्ति । परूवणा गदा । जहणिया [ए] वगणाए णिसित्ता कम्मपदेसा अणंता अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता । एवं णेयव्वं जाव उकस्सिया वग्गणा त्ति । पमाणपरूवणा गदा। सेडिपरूवणा दुविहा-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि। अणंतरोवणिधाए जहणियाए वग्गणाए कम्मपदेसा बहुगा। विदियाए वग्गणाए कम्मपदेसा विसेसहीणा। एवं विसेसहीणा' विसेसहीणा जाव उक्कस्सिया वग्गणा इत्ति । विसेसो पुण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो । एदस्स पडिभागो वि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो। सो तिविहो-अवट्ठिदभागहारो रूवणभागहारो छेदभागहारो चेदि । एदेहि तीहि भागहारेहि अणंतरोवणिधा जाणिदूण परूवेदव्वा । परंपरोवणिधोए जहणियाए वग्गणाए कम्मपदेसेहिंतो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणंसिद्धाणमणंतमागमेत्तमद्धाणं गंतूण दुगुणहाणी होदि । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव चरिमदुगुणहाणी त्ति । एत्थ दुगुणहाणिविहाणं भणिस्सामो। तं जहा:-अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाण मणंतभागमेत्तणिसेगभागहारं विरलेदूण जहण्णवग्गणपदेसेसु उत्कृष्ट वर्गणा तक ले जाना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई।। जघन्य वर्गणामें दिये गये कर्मप्रदेश अनन्त हैं जो अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे हैं और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा तक ले जाना चाहिये । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश बहुत हैं। उनसे द्वितीय वर्गणामें कर्मप्रदेश विशेष हीन हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा तक उत्तरोत्तर विशेषहीन विशेषहीन हैं। विशेषका प्रमाण अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र है। इसका प्रतिभाग भी अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र है। वह तीन प्रकारका है-अवस्थितभागहार, रूपोनभागहार और छेदभागहार। इन तीन भागहारों द्वारा अनन्तरोपनिधाकी जानकर प्ररूपणा करनी चाहिये। - परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंकी अपेक्षा अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे व सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र स्थान जाकर दुगुणी हानि होती है। इस प्रकार अन्तिम दुगुणहानि तक उत्तरोत्तर दुगुने दुगुने हीन कर्मप्रदेश हैं। यहाँ दुगुणहानिका विधान कहते हैं। यथा--- अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र निषेकभागहारका विरलन करके १ अ-ताप्रत्योः 'एवं विसेसहीणा जाव' इति पाठः । २ प्रतिषु 'श्रणतरोवणिधाए जहण्णि' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'तम्हा अभवसिद्धि'- इति पाठः। ४ श्र-श्राप्रत्योः 'मेत्ताणिसेग-', ताप्रतौ 'मेत्ताणि सेग' इति पाठः। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १९९] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १०३ समखंडं कादण दिण्णेसु विरलणरूवं पडि वग्गणविसेसपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तण जहण्णवग्गणाए अवणिदे विदियवग्गणापमाणं होदि । एवमेगेगरूवधरिदमुप्पण्णुप्पण्णवग्णणाए अवणेदूण णेदव्वं जाव णिसे गभागहारस्स अद्धं गदं ति । तदित्थवग्गणाकम्मपदेसा पढमवग्गणकम्मपदेसेहिंतो दुगुणहीणा । पुणो एदं दुगुणहीणवग्गणकम्मपदेसपिंडमवहिदभागहारस्स समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगवग्गणविसेसपमाणं पावदि । णवरि पढमगुणहाणिविसेसादो इमो विसेसो दुगुणहीणो, अवहिदभागहारेण पुव्वं विहत्तरासीए अद्धस्स च्छिजमाणस्स उवलंभादो। - एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तूण विदियगुणहाणिपढमवग्गणाए अवणिदे तिस्से चेव तदणंतरविदियवग्गणपमाणं होदि । एवमेत्थ वि एगेगविसेसमवणेदूण जाव अवविदभागहारस्स अद्धमेत्तविसेसा झीणा त्ति तत्थ दुगुणहाणी होदि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ दुगुणहाणीओ उप्पण्णाओ त्ति । __'एत्थ तिषिण अणियोगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । परूवणा गदा, एगगुणहाणिट्ठाणंतरस्स णाणागुणहाणिट्ठाणंतराणं च परंपरोवणिधाए चेव अस्थित्तसिद्धीदो। जघन्य वर्गणाके प्रदेशोंको समखण्ड करके देनेपर विरलन अंकके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इसमेंसे एक अंकके ऊपर रखी हुई राशिको ग्रहण कर जघन्य वर्गणामेंसे कम कर देनेपर द्वितीय वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार एक एक अंकके ऊपर रखी हई राशिको उत्पन्न-उत्पन्न ( उत्तरोत्तर ) वर्गणामेंसे कम करके निषेकभागहारका अर्ध भाग समाप्त होने तक ले जाना चाहिये । वहाँकी वर्गणाके कर्मप्रदेश प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंकी अपेक्षा दुगुने हीन होते हैं। फिर इस दुगुने हीन वर्गणाके कर्मप्रदेशपिण्डको अवस्थित भागहारके समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। विशेष इतना है कि प्रथम गुणहानिके विशेषसे यह विशेष दुगुना हीन है, क्योंकि अवस्थितभागहारके द्वारा पूर्वमें विभक्त हुई राशिका आधा भाग क्षीण होता हुआ देखा जाता है । - यहाँ एक अंकके ऊपर रखी हुई राशिको ग्रहण कर द्वितीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणामेंसे कम कर देनेपर उसकी ही तदनन्तर द्वितीय वर्गणाका प्रमाण होता है। इस प्रकार यहाँपर भी एक एक विशेषको कम करके अवस्थितभागहारके अर्ध भाग प्रमाण विशेषोंके क्षीण होने तक वहाँ दुगुनी हानि होती है । इस प्रकार जानकर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र दुगुणहानियों के उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिये। . यहाँ तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणा अवगत है. क्योंकि, एकगुणाहानिस्थानान्तर और नानागुणहानिस्थानान्तरोंका अस्तित्व परम्परोपनिधासे ही सिद्ध है। १ त्रुटितोऽत्र प्रतिभाति पाठः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, १६६. पमाणं वुचदे-णाणापदेसगुणहाणिहाणंतरसलागाणमेगपदेसगुणहाणिहाणंतरस्स च पमाणमभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तं होदि । पमाणपरूवणा गदा। अप्पाबहुगं उच्चदे-सव्वत्थोवा णाणापदेसगुणहाणिहाणंतरसलागाओ। एगपदेसगुणहाणिहाणंतरमणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो । एवं सेडिपरूवणा गदा । अवहारो उच्चदे-पढमाए वग्गणाए कम्मपदेसपमाणेण सव्ववग्गणकम्मपदेसा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? अणंतेण कालेण, पढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे कोरमाणे दिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमणिसेयाणमुवलंभादो। एत्थ दिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमणिसेयाणं उप्पायणविहाणं जहा दव्वविहाणे भणिदं तहा भणिय गेण्हिदव्वं । विदियाए वग्गणाए कम्मपदेसपमाणेण सव्ववग्गणकम्मपदेसा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? सादिरेयदिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति । तं जहा—संदिट्टीए' सव्ववग्गणदव्यमेदं [३०७२ ] । पढमवग्गणभागहारदिवड्डपमाणं संदिट्टए एवं [१२] । दिवढं विरलेदृण सव्वदचं समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स पढमवग्गणपदेसपमाणं पावदि । पुणो तासु दिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणासु विदियवग्गणापमाणेण प्रमाणका कथन करते हैं-नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकाओं और एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और भव्यसिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र है । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। ____ अल्पबहुत्वका कथन करते हैं-नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकायें सबसे स्तोक हैं। उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है । इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई। अवहारका कथन करते हैं-प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके प्रमाणसे सब वर्गणाओंके कर्मप्रदेश कितने कालद्वारा अपहृत होते हैं ? अनन्त काल द्वारा अपहृत होते हैं, क्योंकि, सब द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निषेक पाये जाते हैं। यहाँ देह राणहानि मात्र प्रथम निषेकोंके उत्पादनकी विधि जैसे द्रव्यविधान में कही गई है वैसे कहकर ग्रहण करना चाहिये। द्वितीय वर्गणाके कर्मप्रदेशप्रमाणसे सब वर्गणाओंके कर्मप्रदेश कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? साधिक डेढ़ गुणहानिस्थानान्तर काल द्वारा अपहृत होते हैं। यथासंदृष्टिमें सब वर्गणाओंका द्रव्य यह है-३०७२ । प्रथम वर्गणाके भागहार स्वरूप डेढ़ गुणहानिका प्रमाण यह है-१२ । डेढ़ गुणहानिका विरलन कर समस्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति प्रथम वर्गणाके कमेप्रदेशोंका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर उन डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम वर्गणाओंको द्वितीय वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करनेपर एक एकके प्रति एक एक वर्गणा १ अ-ताप्रत्योः 'संदिही' इति पाठः। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १९९.], वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया १०४ अवहिरिजमाणासु वारं पडि वारं पडि एगेगो वग्गणविसेसो अवचिदे । पुणो एत्थ अवणिदविदियवग्गणाओ दिवड्डगुणहाणिमेत्ताओ होति । पुणो अवणिदसेसा दिवड्गुणहाणिमेत्ता वग्गणविसेसा अस्थि । सव्वे वि विदियवग्गणपमाणेण अवहिरिञ्जमाणा एक पि विदियवग्गणपमाणं ण पूरेति, रूवूणणिसेयभागहारमेत्तविसेसेहि एगविदियणिसेगुप्पत्तीदो। ण च दिवड्डगुणहाणिमेत्तविसेसा रूवूणणिसेगमागहारमेत्तविसेसा होति, गुणहाणीए अद्धरूवूणमेत्तविसेसेहि ऊणस्स तप्पमाणत्तविरोहादो। पुणो एदस्स विरलणे भण्णमाणे स्वणणिसेगमागहारेण दिवड्डगुणहाणिमोवट्टिय जं लद्धं तं विरलणमिदि भाणिदव्वं । एदम्मि दिवड्डगुणहाणीए पक्खित्ते विदियणिसेगमागहारो होदि। तस्स पमाणमेदं ६४ । एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे विदियवग्गणदव्वं होदि । अधवा, दिवड्डगुणहाणिक्खेत्तं ठविय 'एगवग्गणविसेस'विखंभेण दिवड्डगुणहाणिआयामेण च एकोलीए फालिय रूवूणणिसेयभागहारमेत्तवग्गणविसेसवि विशेष अवस्थित रहता है। अब यहाँ अपनीत द्वितीय वर्गणाऐं डेढ़ गुणहानि मात्र होती हैं। अपनयनसे शेष रहे वर्गणाविशेष डेढ़ गुणहानि मात्र होते हैं। ये सभी द्वितीय वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत होकर एक भी द्वितीय वर्गणाके प्रमाणको पूरा नहीं करते हैं, क्योंकि, एक कम निषेकभागहार प्रमाण विशेषोंका आश्रयकर एक द्वितीय निषेक उत्पन्न होता है। परन्तु डेढ़ गुणहानि मात्र नषेकभागहार मात्र विशेष नहीं होते हैं, क्योंकि, गुणानिके एक अक कम अध भाग मात्र विशेषोंसे हीनके उतने मात्र होनेका विरोध है। पुनः इसके विरलनका कथन करनेपर एक कम निषेकभागहारसे डेढ़ गुणहानिको अप वर्तितकर जो लब्ध हो वह विरलनका प्रमाण होता है, ऐसा कहलाना चाहिये । इसको डेढ़ गुण हानिमें मिलानेपर द्वितीय निषेकका भागहार होता है। उसका प्रमाण यह है- १२+३ = ६४। इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर द्वितीय वर्गणाका द्रव्य होता है (३०७ : ६४ =२४०)। अथवा, डेढ़ गुणहानि मात्र क्षेत्रको स्थापित कर (मूलमें देखिये) उसे एक वर्गणाविशेषके विस्तार रूपसे और डेढ़ गुणहानिके आयाम रूपसे एक श्रेणिसे फाड़कर एक इति पाठः। १. ताप्रतौ एवंविधात्र संदृष्टिः २. प्रतिषु 'विसेसे' इति पाठः। छ. १२-१४. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६६. क्खंमेण [ दिवड्डगुणहाणि-] आयामेण दिवड्डगुणहाणिट्ठाणंतरखेत्तस्सुवरि ठविदे सादिरेयदिवड्डगुणहाणी भागहारो होदि । ___ संपहि तदियवग्गणकम्मपदेसपमाणेण सव्ववग्गणपदेसा केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? सादिरेयरूवाहियदिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जंति । तं जहापुव्विल्लविरलणम्मि दिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणासु रूवं पडि तदियवग्गणपमाणे अवणिदे दिवड्डगुणहाणिमेत्ततदियवग्गणाओ लब्भंति । पुणो एककस्स रूवस्स उवरि दोदो-वग्गणविसेसा आगच्छति । संपहि तेसु तदियवग्गणपमाणेण अवहिरिजमाणेसु सादिरेयरूवमेत्तो अवहारकालो लब्भदि । तं जहा-दुरूवूणदुगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसे घेत्तूण जदि एगं तदियवग्गणपमाणं होदि तो तिण्णिगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सादिरेयमेगरूवमागच्छदि । पुणो अण्णेसु केत्तिएसु वग्गण विसेसु संतेसु विदियरूवमुप्पज्जाद त्ति भणिदे चदुरूवूणगुणहाणिमेतवग्गणविसेसेसु संतेसु उप्पज्जदि । एदम्मि दिवड्डगुणहाणिम्मि पक्खित्ते सादिरेयरूवेण अहियदिवड्डगुणहाणी भागहारो होदि । तिस्से पमाणमेदं १९२ । एदेण सव्वदव्वे भागे । कम निषेकभागहार मात्र वर्गणाविशेष रूप विष्कम्भ व डेढ़ गुणहानि आयामसे डेढ़ गुणहानिस्थानान्तर क्षेत्रके ऊपर स्थापित करनेपर साधिक डेढ़ गुणहानि भागहार होता है। अब तृतीय वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके प्रमाणसे सब वर्गणाओंके प्रदेश कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? साधिक एक अधिक डेढ़ गुणहानिस्थानान्तर काल द्वारा अपहृत होते हैं। यथापूर्वोक्त विरलनमें जो डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम वर्गणाऐं स्थापित हैं उनमें प्रत्येकमेंसे तृतीय वर्गणाके प्रमाणको घटानेपर डेढ़ गुणहानि मात्र तृतीय वर्गणाएं उपलब्ध होती हैं और एक एक अंकके ऊपर दो दो वर्गणाविशेष उपलब्ध होते हैं। अब उनको तृतीय वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करनेपर साधिक एक अंक प्रमाण अवहारकाल उपलब्ध होता है। यथा-दो अंक कम दो गुणहानि मात्र वर्गणाविशेषोंको ग्रहणकर यदि एक तृतीय वर्गणाका प्रमाण होता है तो तीन गुणहानि मात्र वर्गणाविशेषोंको ग्रहणकर कितनी तृतीय वर्गणाएं होंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर साधिक एक अंक आता है। शंका-अन्य कितने वर्गणाविशेषोंके होनेपर द्वितीय अंक उत्पन्न होता है ? समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि चार अंक कम गुणहानि मात्र अन्य वर्गणा. विशेषोंके होनेपर द्वितीय अंक उत्पन्न होता है। __ इसको डेढ़ गुणहानिमें मिलानेपर साधिक एक अङ्क अधिक डेढ़ गुणहानि भागहार होता है। उसका प्रमाण यह है-८४२-२= १४; १४४१६ =३२४ तृतीय वर्गणा; ८४३४१६= ३८४; ३४ = ३४; १२ = १४, १४ + २४ = १३ । इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर तृतीय वर्गणाका प्रमाण होता है-३०७२ १४ २२४ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया हिदे तदियवग्गणपमाणं होदि । अधवा, दिवड्डगुणहाणिमेतखेत्तं ठविय एगेगवग्गणविसेसविक्खंभेण दिवड्डगुणहाणिआयामेण दोफालीयो पाडिय दुरूवूणणिसेयभागहारमेत्तवग्गणविसेसविक्खंभ-दिवड्डगुणहाणियायामखेत्तस्सुवरि ठविदे सादिरेयदिवड्ढगुणहाणी भागहारो' होदि । संपहि चउत्थवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे सादिरेयदुरूवाहियदिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा-दिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणासु चउत्थवग्गणपमाणेण अवहिरिज्जमाणासु वारं पडि वारं पडि तिण्णि-तिण्णिवग्गणविसेसा उव्वरंति । एवमवहिरिदे दिवड्डगुणहाणिमेत्तचउत्थवगाणाअो लब्भंति । पुणो उव्वरिदवगणविसेसेसु तिगुणदिवड्डगुणहाणिमेत्तेसु चउत्थवग्गणपमाणेण अवहिरिज्जमाणेसु सादिरेयदोरूवाणि लब्भंति । पुणो एत्थ अण्णेसु केत्तिएसु वग्गणविसेसेसु संतेसु तदिया भागहारसलागा लब्भदि त्ति भणिदे णवरूवूणदिवड्डगुणहाणिमत्तवग्गणविसेसेसु संतेसु उप्पज्जदि । ण च एचियमस्थि । तेण सादिरेयदोरूवमेत्तो चेव पक्खेवो होदि । एदम्मि दिवड्डगुणहाणिम्मि पक्खित्ते सादिरेयदोरूवाहियदिवड्डगुणहाणीयो भागहारो होदि । सो अथवा, डेढ़ गुणहानि मात्र क्षेत्रको स्थापित कर ( संदृष्टि मूल में देखिये) एक एक वर्गणाविशेषके विष्कभरूप और डेढ़ गुणहानि आयामरूप दो फालियाँ फाड़कर दो अंक कम निषेकभागहार प्रमाण वर्गणा वशेष विष्कम्भवाले और डेढ़ गुणहानि आयामवाले क्षेत्रके ऊपर रखनेपर साधिक डेढ़ गुणहानि भागहार होता है। अब चतुर्थ वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह साधिक दो अङ्क अधिक डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होता है । यथा-डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम वर्गणाओंको चतुर्थ वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करनेपर प्रत्येक बार तीन तीन वर्गणाविशेष शेष रहते हैं। इस प्रकार अपहृत करनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र चतुर्थ वर्गणाऐं प्राप्त होती हैं। फिर शेष रहे तिगुनी डेढ़गुणहानि मात्र वर्गणाविशेषोंको चतुर्थ वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करनेपर साधिक दो अंक प्राप्त होते हैं । पुनः यहाँ अन्य कितने वर्गणाविशेषोंके होनेपर तृतीय भागहारशलाका प्राप्त होती है ऐसा Jछनेपर कहते हैं कि नौ अंक कम डेढ़ गुणहानि मात्र वर्गणाविशेषोंके होनेपर तृतीय भागहारशलाका प्राप्त होती है। परन्तु यहाँ इतना नहीं है अतएव साधिक दो अंक मात्र ही प्रक्षेप होता है। इसको डेढ़ गुणहानिमें मिलानेपर साधिक दो अंक अधिक डेढ़ गुणहानियाँ भागहार होती हैं। वह भी यह १ प्रतिषु 'गुणहाणिभागहारो' इति पाठः। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६६. वि एसो' १६२ । एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे चउत्थवग्गणपमाणमागच्छदि । अधवा, दिवड्डखेत्तं ठविय एगेगवग्गणविसेसविक्खंभेण दिवड्डगुणहाणिआयामेण तिण्णिफालीयो पादिय तिरूवूणणिसेयभागहारमेत्तवग्गणविसेसविखंभदिवड्ढगुणहाणिायामखेत्तस्सुवरि ठविदे सादिरेयदोरूवाहियदिवड्डगुणहाणी भागहारोहोदि । सेसं जाणिय वत्तव्वं । एवमणेण विहाणेण ताव णेयव्वं जाव पढमगुणहाणीए रूवाहियमद्धं चडिदं ति । तदित्थवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे दोगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा-दिवड्वगुणहाणिविरलणरूपमेत्तपढमवग्गणाओ तदित्थवग्गणपमाणेण अवहिरिज्जमाणाओ वारं पडि वारं पडि णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तवग्गणविसेसा अवहिरिज्जति । कुदो ? णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तवग्गणविसेसेहि तदित्थवग्गणुप्पत्तीदो । जे रूवं पडि उव्यरिदणिसेयभागहारचदुब्भागमेत्तवग्गणविसैसा ते वि तप्पमाणेण कस्सामो। तं जहा-णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तवग्ग है-५७६ =२५% १२+२१ = १९२ । इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर चतुर्थ वर्गणाका प्रमाण आता है [३७२ १९२ = २०८]। ___ अथवा, डेढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको स्थापितकर ( संदृष्टि मूलमें देखिये ) एक एक वर्गणाविशेषके विष्कम्भरूप व डेढ़ गुणहानि आयामरूप तीन फालियाँ फाड़कर उन्हें तीन अंक कम निषेकभागहार मात्र विस्तृत और डेढ़ गुणहानि आयत क्षेत्रके ऊपर रखने पर साधिक दो अंक अधिक डेढ़ गुणहानि भागहार होता है। शेष जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार इस विधिसे प्रथम गुणहानिका एक अधिक आधा भाग जाने तक ले जाना चाहिये। वहाँकी वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह दो गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होता है। यथा-डेढ़ गुणहानिके विरलन अंक प्रमाण प्रथम वर्गणाओंको वहाँकी वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करनेपर प्रत्येक एकके प्रति निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणाविशेष (१६४३४६=१६२) अपहृत होते हैं, क्योंकि, निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणाविशेषोंसे वहाँकी वर्गणा उत्पन्न होती है। तथा जो प्रत्येक अंकके प्रति निषेकभागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणाविशेष शेष रहते हैं उन्हें भी उसके प्रमाणसे करते हैं। यथा-निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणा १ अप्रतौ होदि सो विसेसो १६३, आप्रतौ ‘होदि १६२ इति पाठः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१०९ णविसेसाणं जदि दिवडगुणहाणी भागहारो होदि तो णिसेयभागहारचदुब्भागमेत्तवग्गणविसेसाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए गुणहाणीए अद्धमागच्छदि । तम्मि दिवड्डगुणहाणिम्मि पक्खित्ते दोगुणहाणीयो भागहारो होदि । एदेण सबदव्वे ३०७२ भागे हिदे तदित्थवग्गणपमाणं होदि । संदिट्ठीए तस्स पमाणमेदं १९२। अधवा दिवड्डगुणहाणिखेत्तं ठविय | चत्तारि फालीयो कादूण एके किस्से फालीए विक्खंभो णिसेयभागहारस्स चदुब्भागमेत्तो, आयामो पुण दिवड्वगुणहाणिमेत्तो । एत्थ तिण्णिफालीयो मोत्तूण सेसेगफालिं घेत्तूण आयामेण तिण्णि खंडाणि करिय सेसतीसु फालीसु समयाविरोहेण ढोइदे विगुणहाणिमेत्तायाम-णिसेगभागहारतिपिणचदुब्भागमेत्त' वग्गणविक्खंभखेत्तं होदि ।। एवं सयलाए पढमगुणहाणीए चडिदाए तिण्णिगुणहाणी' भागहारो होदि । तं जहा–एगगुणहाणी चडिदा ति एगरूवं विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे तत्थुप्पण्णरासिणा दिवड्डगुणहाणीए गुणिदाए तिण्णिगुणहाणीयो भागहारो होदि । कुदो ? पढमगुणहाणिपढमवग्गणकम्मपदेसेहिंतो विदियगुणहाणिपढमवग्गणकम्मपदेसा विशेषोंका यदि डेढ़ गुणहानि भागहार होता है तो निषेकभागहारके चतुर्थ भाग मात्र वर्गणाविशेषोंका कितना भागहार होगा, इस प्रकार फलगुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करनेपर गुणहानिका अर्ध भाग आता है। उसको डेढ़ गुणहानिमें मिलानेपर दो गुणहानियाँ भागहार होती हैं। इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर ( ३०७२ - १५ = १६२) वहाँकी वर्गणाका प्रमाण होता है । संदृष्टिमें उसका प्रमाण यह है-१६२।। __अथवा, डेढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको स्थापितकर (संदृष्टि मूलमें देखिये) चार फालियाँ करके, इनमेंसे एक एक फालिका विष्कम्भ निषेकभागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण होता है परन्तु आयाम डेढ़ गुणहानि प्रमाण होता है। इनमेंसे तीन फालियोंको छोड़कर शेष एक फालिको ग्रहणकर और आयामकी ओरसे तीन खण्ड करके आगमानुसार शेष तीन फालियोंमें जोड़ देनेपर दो गुणहानि मात्र आयामरूप और निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र वर्गणा विष्कम्भ रूप क्षेत्र होता है। इस प्रकार समस्त प्रथम गुणहानि जानेपर तीन गुणहानियाँ भागहार होती हैं। यथा-चूंकि एक गुणहानि गये हैं, अतः एक अंकका विरलनकर दुगुना करके परस्पर गुणित करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उससे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर तीन गुणहानियाँ भागहार होती हैं, क्योंकि, प्रथम गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे द्वितीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेश आधे १ मप्रती "तिण्णिचदुब्भागहारचदुब्भागमेत्त' इति पाठः। २ प्रतिषु 'गुणहाणिभागहारो' इति पाठः। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, १९९. णमद्धत्तुवलंभादो । संदिट्टीए तिण्णिगुणहाणिभागहारो एसो २४ । अधवा, दिवड्डगुणहाणिखेत्तं ठविय - अण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तफालीयो कादण तत्थ एगफालीए उवरि सेसफालीसु ठविदासु तिण्णिगुणहाणीयो भागहारो होदि । अणेण विहाणेण खेत्तपरूवणं तेरासियकम' च जाणिदण णेदव्वं जाव जहण्णाणुभागट्ठाणस्स चरिमवग्गणे ति । एवमवहारपरूवणा समत्ता। जधा अवहारो तधा भागाभागो, विसेसाभावादो।। अप्पाबहुगं उच्चदे-सव्वत्थोवा उक्कस्सियाए वग्गणाए कम्मपदेसा ९ । जहणियाए वग्गणाए कम्मपदेसा अणंतगुणा २५६' । को गुणगारो १ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो' सिद्धाणमणंतभागमेत्तो' किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासी। अजहण्ण-अणुकस्सियासु वग्गणासु कम्मपदेसा अणंतगुणा २८०७ । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्डगुणहाणीयो। अपढमासु वग्गणासु कम्मपदेसा विसेसाहिया २८१६ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? उक्कस्सवग्गणमेत्तो। अणुक्कस्सियासु वग्गणासु कम्मपदेसा विसेसाहिया । ३०६३। केत्तियमेत्तो विसेसो ? उक्कस्सवग्गणकम्मपदेसेहि ऊणपढमवग्गणकम्मपदेसमेत्तो । सव्वासु वग्गणासु पाये जाते हैं। संदृष्टिमें तीन गुणहानि रूप भागहार यह है-२४ । __ अथवा, डेढ़ गुणहानि क्षेत्रको स्थापित कर (संदृष्टि मूलमें देखिये ) अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण फालियाँ करके उनमेंसे एक फालिके ऊपर शेष फालियोंको स्थापित करनेपर तीन गुणहानियाँ भागहार होती हैं। इस विधिसे क्षेत्रप्ररूपणा और त्रैराशिक क्रमको जानकर जघन्य अनुभागस्थानकी अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार अवहारप्ररूपणा समाप्त हुई। जैसी अवहारकी प्ररूपणा की गई है वैसी ही भागाभागकी भी प्ररूपणा है, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है। अल्पबहुत्वका कथन करते हैं - उत्कृष्ट वर्गणामें कर्मप्रदेश सबसे स्तोक हैं (९)। उनसे जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश अनन्तगुणे हैं ( २५६ )। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। उनसे अजघन्य. अनुत्कृष्ट वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश अनन्तगुणे हैं ( २८०७ )। गुणकार क्या है। ? कुछ कम डेढ़ गुणहानियाँ गुणकार है। उनसे अप्रथम वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश विशेष अधिक है (२८१६)। विशेषका प्रमाण कितना है ? उत्कृष्ट वर्गणाके बराबर है। उनसे अनुत्कृष्ट वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश विशेष अधिक हैं ( ३०६३) । विशेष कितना है ? उत्कृष्ट वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे हीन प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके बराबर है। उनसे सब वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश विशेष अधिक हैं ( ३०७२)। विशेष १अ-बापत्योः 'तेरासियकम्म' इति पाठः। २ प्रतिषु संहष्टिरियं 'किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासी' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते इति पाठः। ३ अप्रतौ 'अणंतगुणा' इति पाठः। ४ ताप्रतौ 'भागमेत्तो। किंचूण' इति पाठः। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २००.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१११ कम्मपदेसा विसेसाहिया ३०७२ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? उक्कस्सवग्गणकम्मपदेसमेत्तो। एवं दुचरिमादिअणुभागबंधट्ठाणाणं पि वत्तव्यं । णवरि जहण्णबंधहाणादो' विदियबंधट्ठाणमणंतगुणं । तदियबंधटाणमणंतगुणं । एवं णेयव्वं जाव अपुव्वसंजदो त्ति । तत्तो अणुभागबंधहाणाणि छविहाए वड्डीए गच्छंति जाव उकस्सअणुभागबंधहाणे त्ति । जहण्णहाणं मोत्तूण सेससव्वहाणेसु जहपणवग्गण-जहण्णफद्दयअविभागपलिच्छेदेहितो उकस्सवग्गण-उक्करसफद्दयअविभागपलिच्छेदा अणंतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजोवेहि अणंतगुणो । फद्दयंतराणि विसरिणाणि, छबिहवड्डीए अणुभागबंधयुड्डिदसणादो। एवं हदसमुप्पत्तियहदहदसमुप्पत्तियहाणाणं पि अविभागपडिच्छेदपरूवणा कायव्वा । विभागपडिच्छेदपरूएवमवणा समत्ता। ठाणपरूवणदाए केवडियाणि हाणाणि ? असंखेजलोगहाणाणि ? एवदियाणि हाणाणि ॥ २००॥ किं ठाणं णाम ? एगजीवम्मि एक्कम्हि समए जो दीसदि कम्माणुभागो तं ठाणं णाम । तं च ठाणं दुविहं-अणुभागबंधट्ठाणं अणुभागसंतट्ठाणं चेदि । तत्थ जं बंधेण णिप्फण्णं तं बंधट्ठाणं णाम । पुव्वबंधाणुभागे धादिजमाणे जं बंधाणुभागेण सरिसं कितना है ? उत्कृष्ट वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके बराबर है। ___इसी प्रकार द्विचरमादि अनुभागबन्धस्थानोंका भी कथन करना चाहिये। विशेष इतना है गीय बन्धस्थान अनन्तगुणा है। उससे तृतीय बन्धस्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार अपूर्वकरणसंयत तक ले जाना चाहिये। उससे आगेके अनुभागबन्धस्थान उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान तक छह प्रकारकी वृद्धिसे जाते हैं। जघन्य स्थानको छोड़कर शेष सब स्थानों में जघन्य वर्गणा व जघन्य स्पर्धकके अविभागप्रतिच्छेदोंसे उत्कृष्ट वर्गणा व उत्कृष्ट स्पर्द्धकके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है। स्पर्द्धकान्तर विसदृश हैं, क्योंकि, छह प्रकारकी वृद्धि द्वारा अनुभागबन्धकी वृद्धि देखी जाती है। इसी प्रकारसे हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक स्थानोंके भी अविभाग प्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये । इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा समाप्त हुई। स्थानप्ररूपणतासे स्थान कितने हैं ? असंख्यात लोक प्रमाण हैं। इतने स्थान हैं ॥ २००॥ स्थान किसे कहते हैं ? एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानुभाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं । वह स्थान दो प्रकार का है अनुभागबन्धस्थान और अनुभागसत्त्वस्थान । उनमेंसे जो बन्धसे उत्पन्न होता है वह बन्धस्थान कहा जाता है। पूर्व बद्ध अनुभागका घात किये जानेपर जो बन्ध .... १ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'बंधहाणादो चडियबंधटाणमणंतगुणं तदिय' मप्रतौ 'बंधहणादो चडियबंधहाणमणंतगुणं विदियबंधहाणमंणतगुणं तदिय' इति पाठः । २ आपली 'णिफलं' इति पाठः। ...... Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २००. ११२ ] होदूण पददि तं पिबंधट्ठाणं चैव, तस्सरिसअणुभागबंधुवलंभादो' । जमणुभागहाणं घादिखमाणं बंधाणुभागहाणेण * सरिसं ण होदि, बंधअहंक- " उव्वंकाणं विश्वाले हेहिम कादो अर्णतगुणं वरिमअहंकादो अर्णतगुणहीणं होण चेट्ठदि, तमणुभागसंतकम्मणं णाम | पुणो अणुभागबंध द्वाणाणि संतकम्मट्ठाणाणि च असंखेज लोगमेत्ताणि होंति । एत्थ अणुभागबंधाणं संतकम्मद्वाणं चेदि वुत्ते एगजीवम्हि अवट्ठिदकम्मपरमाणुसु जो उक्कस्साणुभाग सहिदकम्मपरमाणू सो चेव द्वाणं, भिण्णपरमाणुट्ठिदअणुभागाणं अप्पिदपरमाणुदिअणुभागेण सह पवुत्तीए अभावेण बुद्धीए पत्तएयत्ताणं एयट्ठाणत्तविरोहादो । एक म्हि परमाणुम्हि जदि ट्ठाणं होदि तो अनंताणं तत्थतणवग्गणाणं फहयाणं च अभावो होदित्ति भणिदे—ण, फद्दय-वग्गणसण्णिदाणुभागाणं सव्वेसि पि तत्थेवलंभादो । Source एस वहाण प्पसिद्धो त्ति उत्ते - ण, द्विदिपरूवणाए चरिमणिसेगम्मि एगपरमाणुकालं चेव घेत्तूण उकस्सट्ठिदिपरूवणदंसणादो । ण परमाणुकालसंकलणा सजादि - ५. अनुभागके सदृश होकर पढ़ता है वह भी बन्धस्थान ही है, क्योंकि, उसके सदृश अनुभागबन्ध पाया जाता है | घाता जानेवाला जो अनुभागस्थान बन्धानुभागके सदृश नहीं होता है, किन्तु बन्ध सदृश अष्टांक और ऊर्वकके मध्य में अधस्तन ऊर्वकसे अनन्तगुणा और उपरिम अष्टां अनन्तगुणा हीन होकर स्थित रहता है वह अनुभाग सत्कर्मस्थान है । अनुभागबन्धस्थान और सत्कर्मस्थान असंख्यात लोक मात्र होते हैं । यहाँ अनुभागबन्धस्थान और सत्कर्मस्थान, ऐसा कहने पर एक जीव में अवस्थित कर्मपरमाणुओंमें जो उत्कृष्ट अनुभाग सहित कर्मपरमाणु है वही स्थान होता है, क्योंकि भिन्न परमाणुओं में स्थित अनुभागों की विवक्षित परमाणुमें स्थित अनुभागके साथ प्रवृत्ति न होनेसे बुद्धिसे एकताको प्राप्त हुए उनकी एकस्थानताका विरोध है । शंका- यदि एक परमाणुमें स्थान होता है तो उनमें अनन्त वर्गणाओं और स्पर्द्धकों का अभाव होता है ? समाधान - ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि नहीं, क्योंकि, स्पर्द्धक और वर्गणा संज्ञावाले सभी अनुभाग वहाँ ही पाये जाते हैं । शंका- - अन्यत्र यह व्यवहार प्रसिद्ध नहीं है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, स्थितिप्ररूपणा में अन्तिम निषेकमें एक परमाणुकालको ही ग्रहण कर उत्कृष्ट स्थितिकी प्ररूपणा देखी जाती है । परमाणुकालसंकलना सजाति व विजाति स्वरूप नहीं ग्रहण की जाती है, क्योंकि, वैसा १ भागसंतद्वाणवा देण जमुप्पण्णमरणुभागसंताणं तं पि णवबंद्वाणाणि त्ति घेत्तव्वं, बंधहाणसमाणतादो । जयध . प ३१३. । २ ताप्रतौ 'बंधाणुभागहाणेहि' इति पाठः । ३ किमडकं णाम १ श्रृणंतगुणवडी । कधमेदिस्से कसण्णा ? अण्ह अंकाणमणंतगुणबढि त्ति ठवणादो । जपध. प्र. प. ३५८.। ४ मतौ 'वृत्तीए' इति पाठः । ५ अ श्रापत्योः 'हिद' इति पाठः । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २००] वेयणमहाहियारे वेयणभाषविहाणे विदिया चूलिया [ ११३ विजादिसरूवा घेप्पदे, कालस्स आणतियप्पसंगादो। ण च सेसपरूवणा णिप्फला, अप्पिदअणुभागपरमाणुणा अविणाभावियअणुभागपरूवणदुवारेण पयदस्सेव परूवणाए सफलत्तादो । एगेण चेव परमाणुणा जदि एगं ठाणं णिप्फजदि' तो एगसमए एगजीवम्मि हाणाणमाणंतियं पसजदे ? जदि एवं घेप्पदि तो सव्वमणंताणि' चेव हाणाणि होति । [ण] च एवं, दव्वट्टियणयावलंबणादो । तं जहा-ण ताव समाणधणाणं गहणं, तदणुभागस्स समाणतणेण अप्पिदेण एगत्तमुवगयस्स तत्थेव उवलंभादो । ण असमाणाणं गहणं, सद संखाए एगादिसंखाए व हेहिमाणुभागाणमुक्कस्साणुभागे उवलंभादो । एत्थ दव्वहियणओ अवलंविदो ति कधं णव्वदे ? ओकड्डक्कड्डणाए ह्राणहाणि-वड्डीणमभावादो संतस्स हेट्ठा अणुभागे बज्झमाणे अणुभागहाणवुड्डीए अणुवलंभादो संतं पेक्खिदूण एक्कम्हि समए अणंतभागवड्डीए बंधे वि अणुभागवुड्डिदंसणादो अगुणियकम्मंसियम्मि उक्कस्साणुभागाभावादो वत्तीए'। ण च समाणासमाणधणेसु पोग्गलेसु घेप्पमाणेसु होनेपर कालकी अनन्तताका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि शेष प्ररूपणा निष्फल है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, विवक्षित अनुभाग परमाणुके साथ अविनाभाव रखनेवाले अनुभागकी प्ररूपणा द्वारा प्रकृत की ही प्ररूपणा सफल है। शंका एक ही परमाणुसे यदि एक स्थान उत्पन्न होता है तो एक समयमें एक जीवमें स्थानोंकी अनन्तताका प्रसंग आता है। समाधान- यदि ऐसा ग्रहण करते हैं तो सचमुचमें सब अनन्त स्थान होते हैं। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, व्यार्थिक नयका अवलम्बन है। वह इस प्रकारसे-समान धनवा तो ग्रहण हो नहीं सकता, क्योंकि, उनके अनुभागकी समानता होनेसे विवक्षितके साथ एकताको प्राप्त हुआ वह वहाँ ही पाया जाता है। असमान धनवाले परमाणुओंका भी ग्रहण नहीं हो सकता है, क्योंकि, जिस प्रकार एक आदि संख्याएँ शत संख्या में पायी जाती हैं उसी प्रकार अधस्तन अनुभाग उत्कृष्ट अनुभागमें पाये जाते हैं। - शंका-यहाँ द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है, यह कैसे जाना जाता है ? __ समाधान-अपकर्षण व उत्कर्षण द्वारा स्थानकी हानि व वृद्धि का अभाव होनेसे, सत्त्वके नीचे अनुभागके बाँधे जानेपर अनुभागस्थानवृद्धिके न पाये जानेसे, सत्त्वकी अपेक्षा एक समयमें अनन्तभागवृद्धि द्वारा बन्धके होनेपर भी अनुभागवृद्धिके देखे जानेसे, तथा गुणितकर्माशिकसे अन्य जीवमें उत्कृष्ट अनुभागके अभावकी आपत्ति आनेसे जाना जाता है कि यहाँ द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है। इसके अतिरिक्त समान व असमान धनवाले पुद्गलोको ग्रहण करनेपर १ श्रा-ताप्रत्योः 'णिप्पज्जदि' इति पाठः। २ अप्रतौ 'सव्यमणंताणि', अाप्रतौ 'सव्वधणंताणि तापतौ 'सच्च (ब) मणंताणि' इति पाठः। ३ प्राप्रती 'सग' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'अणुभागे बज्झमाणे' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ५ अप्रतौ ‘भावादो व वत्तीए च', आप्रतौ 'भावादो वड्डीए च', ताप्रतौ 'भावादो. वत्तीए च', मप्रतौ भावादो वत्तीए' इति पाठः । छ. १२-१५. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०१ सयजीवरासिपडिभागअणंतभागब्भहियत्तं जुज्जदे, विरोहादो। एवं असंखेज्जलोगमेत्तट्टाणाणं पादेकं सरूवपरूवणं कायव्यं । एवं हाणपरूवणा समत्ता।। अंतरपरूवणदाए एकेकस्स हाणस्स केवडियमंतरं ? सव्वजीवेहि अणंतगुणं, एवडिय'मंतरं ॥२०१ ॥ असंखेजलोगमेत्ताणि अणुभागबंधहाणाणि संतहाणाणि च परूविदाणि । एदम्हादो चेव परूवणादो णव्वदे जहा हाणाणमंतरमत्थि त्ति, अण्णहा हाणभेदाणुववत्तीदो। तदो अंतरपरूवणा णिप्फले त्ति ? ण णिप्फला, अंतरपमाणपरूवणदुवारेण सहलत्तदंसणादो। ण च हाणभेदावगममेत्तेण अंतरपमाणमवगम्मदे, तहाणुवलंभादो। ण च हाणाणमंतरेण होदव्वमेव इत्ति णियमो अस्थि, अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण गदाणं पि ठाणत्तं पडि विरोहाभावादो' । किं ठाणंतरं णाम ? हेहिमट्ठाणमुवरिमट्ठाणम्हि सोहिय रूवूणे कदे जं लद्धं तं हाणंतरं णाम । तत्थ जं जहण्णं ठाणंतरं तं पि सव्वजीवेहितो अणंतगुणं, एगम्मि अणंतभागवड्डिपक्खेवे वि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तअविभागपडिसब जीवराशिके प्रतिभाग रूप अनन्तभागसे अधिकता भी घटित नहीं होती, क्योंकि, उसमें विरोध है। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र स्थानों से प्रत्येकके स्वरूपकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। अन्तरप्ररूपणामें एक एक स्थान का अन्तर कितना है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा है, इतना अन्तर है ॥ २०१॥ शंका-असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थान और सत्त्वस्थानोंकी प्ररूपणा की जा चुकी है। इसी प्ररूपणासे जाना जाता है कि स्थानोंमें अन्तर है, क्योंकि, इसके बिना स्थानभेद घटित नहीं होता। इस कारण अन्तरप्ररूपणा निष्फल है ? समाधान-वह निष्फल नहीं है, क्योंकि अन्तरके प्रमाणकी प्ररूपणा द्वारा उसकी सफलता देखी जाती है। कारण कि स्थानभेदके जान लेने मात्रसे अन्तरका प्रमाण नहीं जाना जाता, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है। दूसरे स्थानोंका अन्तर होना ही चाहिये, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे गये हुए भी स्थानोंको स्थानरूपता में कोई विरोध नहीं है। शंका--स्थानान्तर किसे कहते हैं ? समाधान--उपरिम स्थानोंमेंसे अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करनेपर जो प्राप्त हो वह स्थानोंका अन्तर कहा जाता है। उसमें जो जघन्य स्थानान्तर है वह भी सब जीवोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि, एक अनन्तभाग वृद्धि प्रक्षेपमें भी सब जीवोंसे अनन्तगुणे मात्र अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। यहाँ १ अ-श्राप्रत्योः 'केवडिय', मप्रतौ 'येवडिय' इति पाठः । २.अप्रतौ 'विरोधाभावो' इति पाठः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०१. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ ११५ च्छेदुवलंभादो | एत्थ अणुभागबंधट्ठाणाणमंतराणि जोगहाणंतराणि इव सरिसाणि ण होंति, जोगट्ठाण पक्खेवाणं व अणुभागट्ठाण पक्खेवाणं सरिसत्ताभावादी । अणुभागट्ठाणेसु छविवदिंसणदो वा णाणुभागट्ठाणंतराणं सरिसत्तण' मत्थि । तं जहा - सुहुमसपराइयचरिमसमए जहण्णाणुभागबंधद्वाणं चैव होदि । जोगवड्डिवसेण सुहुमसांपराइयचरिमसमए अजहण्णाणुभागबंधहाणं पि कत्थ वि जीवविसेसे किण्ण भवे ? ण, जोगवदो अणुभागवडीए अभावादो । तं कधं णव्वदे ? वेदणीय-णामा-गोदाणं सजोगिbrity उकसाणुभागो चैव होदि त्ति वेयणसामित्तसुत्ते परुविदत्तादो । जदि पुण जोगवड्डी अणुभागवड्डीए कारणं होज तो ण एसो नियमो जुजदे, उकस्साकस्साणं दोणं पि अणुभागट्टाणाणं संभवादो । वेयणसष्णियासविहाणे जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स भाववेयणा णियमा उक्कस्से त्ति परुविदत्तादो वा णव्वदे जहा atra-हाणीयो अणुभागवड्डि-हाणीणं कारणं ण होंति त्ति । सजोगिकेवलिस्स लोगपूरणे वट्टमाणस्स खेत्तमुक्कस्सं जादं । भावो वि सुहुमसां पराइयखवगेण जो बद्धो र सो उकस्सो वा अणुक्कस्सो' वा लोगमावूरिदकेवलिम्हि होदि त्ति अभणिदूण उक्कस्सो चेव अनुभागबन्धस्थानोंके अन्तर योगस्थानान्तरोंके समान सदृश नहीं होते हैं, क्योंकि, योगस्थानप्रक्षेपोंके समान अनुभागस्थानप्रक्षेपोंमें सदृशताका अभाव है । अथवा अनुभागस्थानोंमें छह प्रकारकी वृद्धिके देखे जानेसे अनुभागस्थानान्तरों में सदृशता नहीं है । वह इस प्रकार से - सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्धस्थान ही होता है । शंका- योगवृद्धिके प्रभावसे सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में किसी जीवविशेषमें अजघन्य अनुभागस्थान भी क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि, योगवृद्धिसे अनुभागवृद्धि सम्भव नहीं है । शंका- वह कैसे जाना जाता है ? समाधान - वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मका सयोग और अयोग केवलियोंमें उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है; ऐसा चूँकि वेदनास्वामित्व सूत्रमें कहा जा चुका है, अतः इससे जाना जाता है. कि योगवृद्धि के होनेसे अनुभागवृद्धि सम्भव नहीं है । यदि योगवृद्धि अनुभागवृद्धिका कारण होती तो यह नियम उचित नहीं था, क्योंकि, वैसा होनेपर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों ही अनुभागस्थान वहाँ सम्भव थे । अथवा, जिस जीवके वेदनीय कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती हैं, उसके भाववेदना नियमसे उत्कृष्ट होती है; इस प्रकार जो वेदनासंनिकर्षविधान में प्ररूपणा की गई है उससे भी जाना जाता है कि योगकी वृद्धि व हानि अनुभागकी वृद्धि व हानिमें कारण नहीं है । लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान केवलीका क्षेत्र उत्कृष्ट होता है। भाव भी जो सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके द्वारा बाँधा गया है वह लोकपूरणको प्राप्त केवली में उत्कृष्ट भी होता है व अनुत्कृष्ट भी १ - प्रत्योः 'सरिसत्तण्ण' इति पाठः । २ - श्रापत्योः 'लद्धो', ताप्रतौ 'ल [ब] द्धो' इति पाठः । ३ प्रतौ 'उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा इति पाठः । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २०१. ११६ ] होदि ति परुविदत्तादो' जोगवड्डि-हाणीयो अणुभागवड्डिहाणीणं कारणं ण होंति चि भणिदं होदि । कसायपाहुडे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुभागो दंसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वत्थ होदि ति परुविदत्तादो वा णव्वदे । खविदकम्मंसियलक्खणेण वा गुणिक मंसियलक्खणेण वा आगंतूण सम्मत्तं वडिवज्जिय बे-छावडीयो भमिय* दंसणमोहyoवकरणपढमाणुभागखंडओ जाव ण* पददि ताव सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तामुकस्साणुभागो चैव होदि त्ति भणिदं । अण्णहा खविदकम्मंसियं मोत्तूण गुणिदकमंसिएण चैव सम्मत्ते गहिदे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं उकस्साणुभागो होज्ज, तत्थ जोगबहुत्तुवलंभादो | एवं संते दंसणमोहक्खवगं मोत्तून सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमणुभागो उक्कस्सो वा अणुक्कस्सो सव्वत्थ होज्ज । ण च एवं, तहोवदेसाभावादो । तम्हा जोगो अणुभागकारणं ण होदि ति सिद्धं । वुत्तं च होता है, ऐसा न कहकर 'उत्कृष्ट ही होता है' इस प्रकार की गई प्ररूपणासे निश्चित होता है कि योगकी वृद्धि व हानि अनुभागकी वृद्धि व हानिका कारण नहीं है, यह अभिप्राय है । अथवा कषायप्राभृतमें दर्शनमोहक्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यङ् मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह जो कहा गया है उससे भी जाना जाता है कि योगवृद्धि अनुभागवृद्धिका कारण नहीं है । इसीसे क्षपितकर्नाशिक, स्वरूपसे अथवा गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर दो छयासठ सागरोपम परिभ्रमण करके दर्शनमोहक्षपक अपूर्वकरणका जब तक प्रथम अनुभागकाण्डक पतित नहीं होता है. तब तक सम्यक्त्व व सम्यङ्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है ऐसा कहा है | अन्यथा (योगवृद्धिको अनुभागवृद्धिका कारण माननेपर ) क्षपितकर्माशिकको छोड़कर गुणित कर्माशिक के द्वारा ही सम्यक्त्वके ग्रहण किये जानेपर सम्यक्त्व व सम्यङ् मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग होना चाहिये, क्योंकि, वहाँ योगकी अधिकता पायी जाती है। और ऐसा होनेपर दर्शन मोक्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व व सम्यङ् मिथ्यात्वका अनुभाग उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । इसलिये योग अनुभागका कारण नहीं है, यह सिद्ध होता है । कहा भी है १ ताप्रतौ 'परुविदत्तादो । जोग' इति पाठ: । २ ताप्रतौ 'कारणं [ण ] होंति' इति पाठः । वेयणासण्णियाससुत्तण्णहाणुववत्तीदो च ण जुज्जदे जहा अणुभागवडीए कसाओ चेत्र कारणं, ण जोगो त्ति । तं जहा - जस्स णामा- गोद-वेदरणीयवेदणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स भावदो णियमा उक्कस्सा त्ति वेयणासुतं । णेदं घडदे, खविदकम्मंसियसजोगिम्मि लोगपूरणाए वट्टमाणम्मि उक्कस्सारणुभागाभावादो । तदो ण जोगत्थोवत्तमणुभागत्थोवत्त कारणमिदि सद्दहेयव्यं । जयध . प. ३६० । ३ समत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सारणुभाग संतकम्मं कस्स ? सुगममेदं । दंसणमोहक्खवयं मोत्तूण सव्वस्स उक्कस्सयं । जयध. अ. प. ३२१, । ४ ताप्रतौ 'भणि( मि ) य' इति पाठः । ५ श्रप्रतौ 'जाव 4 ण' इति पाठः । ६ प्रतिषु 'सव्व वृत्त' इति पाठः । ७ किं च ण परमाणु बहुत्तमणुभागबहुत्तस्स कारणं, सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तुकस्साणुभागसामित्तसुतण्णहागुववत्तदो । तं जहा - दंसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वम्हि उक्कस्समिदि सामित्तसुतं । णेदं घडदे, गुणिदकम्मंसियलक्खणेण [णा ] गंतून सम्मत्तं पडिवण्णस्स गुणसंकमचरिमसमए वट्टमाणस्स चेव सम्मत्तुकस्साणुभागदस Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [११७ 'जोगा' पयडि पदेसे हिदि-अणुभागे कसायदो कुणदि ।' त्ति। . खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय बे-छाबडीयो भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुम्वेल्लणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय एगं ठिदि दुसमयकालं करेदूण अच्छिदजहण्णसंतकम्मियस्स वि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणुभागुवलंभादो सरिसधणियवुड्डीए अणुभागवुड्ढी पत्थि ति णबदे। एदेण सरिसधणिएहि बहुएहि संतेहि अणुभागबहुत्तं होदि ति एसो आग्गहो ओसारिदो होदि । असरिसधणियएगोलीयबहुत्तं णाणुभागबहुत्तस्स कारणं 'केवलणाणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं असादावेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि ति चउसद्विवदियउक्कस्साणुभागअप्पाबहुगादो णव्वदे । तं जहा-वीरियंतराइयस्स लदा समाणजहण्णफद्दयप्पहुडि एगट्ठाणविट्ठाण-तिट्ठाण-चउहाणाणि गंतूण उक्कस्सागुभागो हिदो। केवलणाण-केवलदसणावरणीयाणं पुण सव्वधादिजहण्णफद्दयप्पहुडि जाव दारुसमाणस्स अणते भागे गंतूण पुणो तिहाण-चउहाणाणि च गंतूण उकस्साणुभागो अवहिदो। एत्थ केवलणाणकेवलदसणा 'जीव योगसे प्रकृति और प्रदेशबन्धको तथा कषायसे स्थिति और अनुभागबन्धको करता है।' क्षपित कर्माशिक स्वरूपसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छयासठ सागरोपम कालतक भ्रमण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो दीर्घ उद्वेलनकाल द्वारा सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दो समय काल प्रमाण एक स्थिति करके स्थित हुए जघन्य सत्त्ववालेके भी चूँकि सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है अतएव इससे जाना जाता है कि समान धन युक्त वृद्धिसे अनुभागकी वृद्धि नहीं होती। इससे समान धनवाले बहुत परमाणुओंके होनेसे अनुभागकी अधिकता होती है, इस आग्रहका निराकरण होता है। असमान धनवालोंकी एक पंक्तिकी अधिकता अनुभागकी अधिकताका कारण नहीं है, यह बात “केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय, ये चारों ही प्रकृतियाँ तुल्य [ व मिथ्यात्वंसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त ] हैं" इस चौंसठ पदवाले उत्कृष्ट अनुभाग सम्बन्धी अल्पबहुत्वसे जानी जाती है। यथा-वीर्यान्तरायके लता समान जघन्य स्पद्धकसे लेकर एकस्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान जाकर उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है। परन्तु केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीयके सर्वघाती जघन्य स्पर्धकसे लेकर दारु समान अनुभागका अनन्त बहुभाग जाकर, इससे आगे त्रिस्थान व चतुःस्थान जाकर उत्कृष्ट अनुभाग अवस्थित है। यहाँ केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीयके अनुभागस्पर्द्धकोंकी ..................... णादो। सुत्ताहिप्पाएण पुण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय बेछावहिसागरोवमाणि भमिव दंसणमोहक्खवणं पारभिव जाव अपुव्वकरणपढमाणुभागकंदयस्स चरिमफाली ण पददि ताव सम्मत्तस्सुक्कस्समणुभागसंतकम्ममिदि । जयध. अ. प. ३६० १ मूला. ५-४७. जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागा कसायदो होति । गो. क. २५७. २ अ-आप्रत्योः 'लद्धा' इति पाठः। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [ ४, २, ७, २०१. वरणीयअणुभागफद्दयपंतीदो वीरियंतराइयस्स अणुभागफद्दयपंती बहुआ । केलियमेत्तेण ? लदास माणफदएहि दारुसमाणफद्दयाणं अनंतिमभागेण च । तदो चदुण्हं कम्माणं अणुभागस्स सरिसत्तं ण जुज्जदे । भणिदं च सुत्ते सरिसत्तं । तेण अस रिसधणिय एगोलीपरमाणमभागे मेलाविदे वि णाणुभागट्ठाणं होदिति णव्वदे । एदं जहण्णहाणं सव्वजीवेहि अनंतगुणेण गुणगारेण गुणिदे सुहुमसांपराइयदु चरिमसमए पबद्ध विदियाणुभाग माणं होदि । एदम्मि जहण्णद्वाणं सोहिय रूवणे कदे दोष्णं द्वाणाणं अंतरं होदि । वडियसलागाओ विरलिय वड्डिदअणुभागं समखंड करिय दिण्णे एकेकस्स रूवस्स वयमाणं होदि । एदाओ फदयवड्डीयो, जहण्णट्ठाणचरिमफद्दयस्स उवरि पक्खिविमात्तदो । कधमेदासि 'फदयसण्णा १ अणुभागं मोत्तूण अक्कमेण वड्डिदूण कमवडिमुवगदाणुभाग बुड्डीए चेव फद्दयत्तुवलंभादो । एत्थ पढमरूवधरिदं जहण्णट्ठाणचरिमफदयस्वर पक्खित्ते वड्ढिफएस पढमफद्दयं होदि । फद्दयवड्डीरूवूणा फहयंतरं होदि । फद्दयवड्डी चैव एगफद्दयवग्गणाहि ऊणा हेडिम उवरिमवग्गणाणमंतरं होदि । पुणो विदियफद्दयं घेत्तूण पक्खेव पढमफद्दयं पडिरासिय पक्खित्ते विदियफद्दयं होदि । रूवूणा वड्डी पंक्तिसे वीर्यान्तरायके अनुभाग स्पर्द्धकों की पंक्ति बहुत है । कितनी मात्र से वह बहुत है ? वह लता समान अनुभागस्पर्द्धकों तथा दारु समान अनुभागस्पर्द्धकोंके अनन्तवें भागमात्र अधिक है । इसी कारण उक्त चार कर्मों के अनुभागकी समानता उचित नहीं है । परन्तु सूत्र में सदृशता बतलायी गई है। इससे जाना जाता है कि असमान धनवाले एक पंक्ति रूप परमाणुओंके अनुभाग के मिलानेपर भी अनुभागस्थान नहीं होता है । इस जघन्य स्थानको सब जीवोंसे अनन्तगुणे गुणकारके द्वारा गुणित करनेपर सूक्ष्म साम्परायिकके द्विचरम समय में बाँधे गये द्वितीय अनुभागस्थानका प्रमाण होता है । इसमेंसे जघन्य स्थानको घटाकर एक कम करनेपर दोनों स्थानोंका अन्तर होता है । वृद्धिस्पर्द्धक शलाकाओं का विरलन कर वृद्धिंगत अनुभागको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति वृद्धिस्पर्द्धकोंका प्रमाण होता है । ये स्पर्द्धकवृद्धियाँ हैं, क्योंकि, जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्द्धक के ऊपर उनका प्रक्षेप किया जानेवाला है । शंका- इनकी स्पर्द्धक संज्ञा कैसे है ? समाधान - कारण कि अनुभागको छोड़कर युगपत् वृद्धिको प्राप्त होकर क्रमवृद्धिको प्राप्त अनुभागकी वृद्धिके ही स्पर्द्धकपना पाया जाता है । यहाँ प्रथम अंकके ऊपर रखी हुई राशिको जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके ऊपर रखनेपर वृद्धिस्पर्द्धकों में से प्रथम स्पर्द्धक होता है । एक स्पर्द्धकवृद्धि प्रमाण उन स्पर्द्धकोंका अन्तर होता है । एक स्पर्द्धक वर्गणाओंसे हीन स्पर्द्धकवृद्धि ही अधस्तन और उपरिम वर्गणाओंका अन्तर होता है । पुनः द्वितीय स्पर्द्धकको ग्रहण कर प्रक्षेपभूत प्रथम स्पर्द्धकको प्रतिराशि करके उसमें मिलाने १ ताप्रतौ ‘कथं ? एदासिं' इति पाठ: । २ प्रतौ 'कमवड्डीमुवरिगदाणुभाग' इति पाठः । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७,७-२०१] वेयणमहाहियारे वैयणभावविहाणे विदिया चूलिया [११६ फद्दयंतरं। सा' चेव वड्डी एगफद्दयवग्गणाहि ऊणा उवरिम-हेट्ठिमफद्दयाणं जहण्णुकस्सवग्गणाणमंतरं होदि । तदियफद्दयं घेत्तूण विदियफद्दयं पडिरासिय पक्खित्ते तदियफदयं होदि । वडिददव्वं रूवृणं फद्दयंतरं । एगफद्दयवग्गणाहि ऊणं जहण्णुक्कस्सवग्गणतरं । एवं णेयव्वं जाव विरलणदुचरिमस्वधरिदं दुचरिमफद्दयम्मि पक्खित्ते विदियं ठाणं चरिमफद्दओ च उप्पज्जदि। ण च विदियहाणस्स तस्सेव चरिमफद्दयस्स च एगत्त, चरिमरूवधरिदवड्डीए अक्कमेण वड्ढिदूण कमवुड्डिमुवगयाए पाधण्णपदे फद्दयत्तब्भुवगमादो दुचरिमफद्दएण सह चरिमवड्डीए हाणत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो वड्डीए पक्खित्ताए फद्दयमुप्पज्जदि त्ति कधं घडदे ? ण एस दोसो, संजोगसरूवेण पुव्वणिप्फण्णफद्दयस्स वि कधं चि उप्पत्तीए अब्भुवगमादो । ___एदस्स विदियट्ठोणस्स फद्दयंतराणि जहण्णहाणफद्दयंतरेहिंतो अणंतगुणाणि । को गुणकारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । तं जहा-जहण्णहाणफद्दयसलागाहि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाहि सिद्धाणमणंतभागमेत्ताहि जहण्णट्ठाणे भागे हिदे एगं फद्दयं होदि । तं रूवूणं जहण्णट्ठाणफद्दयंतरं । पुणो विदियट्ठाणवड्डेि वड्डिफद्दयसलागाहि खंडिदे फद्दयं पर द्वितीय स्पर्द्धक होता है । एक कम वृद्धि उक्त स्पर्द्धकोंका अन्तर होती है । एक स्पर्द्धककी वर्गणाओंसे हीन वही वृद्धि अधस्तन और उपरिम स्पर्द्धकोंकी जघन्य एवं उत्कृष्ट वर्गणाओंका अन्तर होती है। ततीय स्पर्द्धकको ग्रहण कर द्वितीय स्पर्द्धकको प्रतिराशि करके उसमें मिलानेपर तृतीय स्पर्द्धक होता है । एक कम वृद्धिंगत द्रव्य दोनों स्पर्द्धकोंका अन्तर होता है। एक स्पर्द्धककी वर्गणाओंसे हीन वही जघन्य व उत्कृष्ट वर्गणाओंका अन्तर होता है। इस प्रकार विरलन राशिके द्विचरम अंकके प्रति प्राप्त राशिको द्विचरम स्पर्द्धकमें मिलानेपर द्वितीय स्थान और अन्तिम स्पर्द्धकके उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिये। यहाँ द्वितीय स्थान और उसका ही अन्तिम स्पर्द्धक एक नहीं हो सकते, क्योंकि, अन्तिम अंकके प्रति प्राप्त वृद्धिसे युगपत् वृद्धिंगत होकर क्रमवृद्धिको प्राप्त [अनुभागकी वृद्धिको ] ताधान्य पदमें स्पर्द्धक स्वीकार किया गया है, तथा द्विचरम स्पर्द्धकके साथ अन्तिम वृद्धिको स्थान स्वीकार किया गया है। ___शंका-यदि ऐसा है तो वृद्धिका प्रक्षेप करनेपर स्पर्द्धक होता है, यह कथन कैसे घटित होगा? _समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संयोग स्वरूपसे पहिले उत्पन्न हुए स्पर्द्धककी भी कथंचित् उत्पत्ति स्वीकार की गई है। इस द्वितीय स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अन्तर जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अन्तरोंसे अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? वह सब जीवोंसे अनन्तगुणा है । यथा-अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पद्धक शलाकाओंका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक स्पर्द्धक होता है। उसमें से एक कम करनेपर जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकोंका १ अप्रतौ 'सो' इति पाठः। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ७, २०१.]. होदि । तम्हि रूवणे कदे फद्दयंतरं होदि । जहण्णट्ठाणफद्दएण विदियहाणवड्डिफद्दए भागे हिदे' सव्वजीवेहि अणंतगुणो गुणगारो आगच्छदि। एवं फद्दयंतरस्स वि गुणगारो साधेयव्यो । एवं सुहुमसांपराइयतिचरिमसमयप्पहुडि जाणि बंधढाणाणि तेसिं सव्वेसिं पि एवं चेव फद्दयरचणा कायव्वा । णवरि विदियबंधहाणादो तदियबंधट्ठाणमणंतगुणं । तदियादो चउत्थबंधटाणमणंतगुणं । एवमणंतगुणाए सेडीए सुहुमसांपराइय-अणियट्टिखवगद्धासु णेदव्वं । पुणो एदेसु बंधहाणेसु हेट्ठिमट्ठाणंतरादो उवरिमट्ठाणंतरमणंतगुणं । हेडिमट्ठाणफद्दयंतरादो वि उवरिमाणफद्दयंतरमणंतगुणं । कुदो ? अणंतगुणाए सेडीए वड्डिमुवगत्तादो। सव्वविसुद्धसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइटिस्स णाणावरणजहण्ण द्विदिबंधपाओग्गाणि असंखेज्जलोगमेत्तविसोहिहाणाणि । पुणो तेसिं उक्कस्सचरिम विसोहीए असंज्जलोगमेत्तउत्तरकारणसहायाए वज्झमाणअणुभागविसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि।। तत्थ असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि हवंति । किं छट्ठाणं णाम ? जत्थ अणंतभागवड्डिहाणाणि कंदयमेत्ताणि [गंतूण ] सइमसंखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो वि अणंतभागवड्डीए चेव कंदयमेत्तट्ठाणाणि गंतूण विदियअन्तर होता है । फिर द्वितीय स्थानकी वृद्धिको वृद्धिस्पर्द्धकशलाकाओंसे खण्डित करनेपर स्पर्धक होता है। उसमें से एक कम करनेपर स्पद्ध कोंका अन्तर होता है । जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकका द्वितीय स्थान सम्बन्धी वृद्धिस्पर्द्ध कमें भाग देनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार आता है। इसी प्रकार स्पद्ध कोंके अन्तरका भी गुणकार सिद्ध करना चाहिये। . इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकके त्रिचरम समयसे लेकर जो बन्धस्थान हैं उन सभीके स्पर्द्ध कोंकी रचना इसी प्रकारसे करना चाहिये। विशेष इतना है कि द्वितीय बन्धस्थानसे तृतीय बन्धस्थान अनन्तगुणा है। तृतीय से चतुर्थ बन्धस्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार अनन्तगुणित श्रेणिसे सूक्ष्मसाम्पराय और अनिवृत्तिकरण क्षपककालोंमें ले जाना चाहिये। पुनः इन बन्धस्थानोंमें अधस्तन स्थानके अन्तरसे उपरिम स्थानका अन्तर अनन्तगुणा है। तथा अधस्तन स्थानके स्पर्धकोंके अन्तरसे भी उपरिम स्थानके स्पधकोंका अन्तर अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह अनन्तगुणित श्रेणिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है। . संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके ज्ञानावरणके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य असंख्यात लोक मात्र विशुद्धिस्थान हैं। फिर उनमें असंख्यात लोक मात्र उत्तर कारणोंकी सहायता युक्त उत्कृष्ट अन्तिम विशुद्धिके द्वारा बाँधे जानेवाले अनुभागके विशुद्धिस्थान असंख्यात लोक मात्र हैं। वहाँ असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं। शंका-षट्स्थान किसे कहते हैं ? समाधान-जहाँपर अनन्त भागवृद्धिस्थान काण्डक प्रमाण जाकर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। फिर भी अनन्त भागवृद्धिके ही काण्डक प्रमाण स्थान जाकर द्वितीय असंख्यात १ अ-आप्रत्योः 'भागे हि' इति पाठः । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१२१ असंखेज्जमागवडी होदि । अणेण विहाणेण कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डीसु गदासु पुणो कंदयमेत्तअणंतभागवड्डीयो गंतूण सई संखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो पुव्वुद्दिट्टहेडिल्लमद्धाणं सयलं गंतूण विदिया संखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो वि तेत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण तदिया संखेज्जभागवड्डी होदि । एवं कंदयमेत्तासु संखेज्जभागवड्डीसु गदासु अण्णेगं संखेज्जमागवड्डिसमुप्पत्तीए पाओग्गमद्धाणं गंतूण सई संखेज्जगुणवड्डी होदि । पुणो हेडिमद्धाणं संपुण्णमुवरि गंतूण विदिया संखेज्जगुणवड्डी होदि । एदेण विहाणेण कंदयमेत्तासु संखेज्जगुणवड्डीसु गदासु पुणो अण्णेगं संखेज्जगुणवविविसयं गंतूण सइमसंखेज्जगुणवड्डी होदि । पुणो हेछिल्लमद्धाणं संपुण्णं गंतूण विदियमसंखेज्जगुणवड्डिाणं होदि । एवं कंदयमेत्तासु असंखेज्जगुणवड्डीसु गदासु पुणो अण्णेगमसंखेज्जगुणवड्डिविसयं गंतूण अणंतगुणवड्डी सई होदि । एदं एगछट्ठाणं । एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणि । पुणो तत्थ सव्वजहणं णाणावरणीयस्स अणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो एदेसिंचेव असंखेज्जलोगमेत्तछठाणाणंणाणावरणीयउकस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमयमिच्छाइडिस्स जहण्णविसोहीए बज्झमाणजहण्णाणुभागहाणमणंतगुणं । पुणो एदेर्सि चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो दुचरिमसमयमिच्छाइहिस्स उकस्सविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणम भागवृद्धि होती है। इस क्रमसे काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियोंके वीतनेपर फिरसे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियाँ जाकर एक बार संख्यातभागवृद्धि होती है। पश्चात् पूर्वोदिष्ट समस्त अधस्तन अध्वान जाकर द्वितीय संख्यातभागवृद्धि होती है। फिरसे भी उतना मात्र ही अध्वान जाकर तृतीय संख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँके बीतनेपर संख्यातभागवृद्धिकी उत्पत्तिके योग्य एक अन्य अध्वान जाकर एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है। पश्चात फिरसे आगे समस्त अधस्तन अध्वान जाकर द्वितीय संख्यात गुणवृद्धि होती है। इस विधिसे काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंके वीतनेपर फिरसे संख्यातगुणवृद्धि विषयक एक अन्य अध्वान जाकर एक बार असंख्यातगुणवृद्धि होती है। फिर अधस्तन समस्त अध्वान जाकर असंख्यातगुणवृद्धिका द्वितीय स्थान होता है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियों के बीतनेपर फिर असंख्यातगुणवृद्धिविषयक एक अन्य अध्वान जाकर एक वार अनन्तगुणवृद्धि होती है। यह एक षट्स्थान है । ऐसे असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं। पुनः उनमें ज्ञानावरणीयका सर्वजघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इन्हीं असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें ज्ञानावरणीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्थस्थान अनन्तगुणा है। फिर अन्तिम समयवर्ती उसी मिथ्यादृष्टिका जघन्य विशुद्धिके द्वारा बाँधा जानेवाला जघन्य अनुभागस्थान अनन्तगुणा है। फिर इन्हीं असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर द्विचरम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी छ. १२-१६. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २०१. तगुणं । पुणो एदिस्से चैव विसोहीए असंखेज्जलोग मेतछट्टाणाणं णाणावरणउकस्साणुभागबंधाणमणंतगुणं । पुणो तम्हि चैव दुचरिमसमए जहण्णविसोहिद्वाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेजलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणउक्कस्साणुभागबंधद्वाणमणंतगुणं । एवं तिचरिमादिसमएस अनंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । पुणो तत्तो मिच्छाइटिस्स सत्थाणुकस्स विसोहिपरिणामस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज लोग मे त्तछडाणाणं उक्कस्साणुभाबंध द्वाणमतगुणं पुणो तस्सेव सत्थाणजहण्णविसोहिद्वाणस्स जहण्णाणुभागबंधामतगुणं । पुणो एदस्स चैव असंखेज लोगमेत छहाणाण मुक्कस्साणुभागबंध हाणमगुणं । दस्वर सव्वविशुद्धअस ण्णिपंचिदियमिच्छाइद्विचरिमसमय उकस्स विसोहिडा - स णाणावरण जहण्णाणुभागबंधहाण मणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोग मेतछठ्ठागाणं णाणावरणउकस्साणु भागबंधद्वाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमए जहण्ण विसोहिद्वाणस्स णाणावरण जहण्णाणुभागबंध द्वाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछडाणाणं णाणावरणउकस्साणुभागबंध द्वाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमादिसमएस अनंतगुणाए सेडीए ओदारेदब्बं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । पुणो असण्णिपंचिंदिय सत्थाण उकस्स ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर इसी विशुद्धिके असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसी द्विचरम समय में जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर इसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार त्रिचरमादि समयोंमें अनन्तगुणित क्रमसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये । पुनः उससे आगे मिथ्यादृष्टिके स्वस्थान उत्कृष्ट विशुद्धि परिणाम सम्बन्धी जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसके ही स्वस्थान जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर इसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । इसके आगे सर्वविशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय में उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसके ही अन्तिम समयमें जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसके ही असंख्यात लोकमात्र षट्स्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार द्विचरमादिक समय में अनन्तगुणित श्रेणिसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये। फिर असंज्ञी पंचोन्द्रियके स्वस्थान उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१२३ विसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणउकस्साणुभागहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव सत्थाणजहण्णविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव जहण्णविसोहिहाणस्स असंखेज्जलोगमेत्तहाणाणं णाणावरणउक्कस्साणुभागहाणमणंतगुणं । पुणो एदस्सुवरि सव्वविसुद्धचरिंदियचरिमसमय उक्कस्सविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछ हाणाणं णाणावरणउकस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमए जहण्णविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणउक्कस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमादिसमएसु अणंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । पुणो चउरिदियसत्थाणुक्कस्सविसोहिट्ठाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणं णाणावरणउक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चउरिंदियस्स सत्थाणविसोहिजहण्णहाणस्स' णाणावरणजहण्णाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं। पुणो तस्सेव जहण्णविसोहिहाणस्स असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणं णाणावरणउकस्साणुभागबंधट्टाणमणंतगुणं । अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोकमात्र षस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही स्वस्थान जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही जघन्य विशुद्धिस्थानके असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागस्थान अनन्तगुणा है। पुनः इसके आगे सर्वविशुद्ध चतुरिन्द्रियके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसीके असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही अन्तिम समयमें होनेवाला जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। इसी प्रकार द्विचरकादिक समयोंमें अनन्तगुणित क्रमसे क उतारना चाहिये । फिर चतुरिन्द्रियके स्वस्थान उस्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञाना. वरणका जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसी चतुरिन्द्रियके स्वस्थान जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही जघन्य विशुद्धिस्थानके असंख्यात लोक मात्र षटस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। १ अप्रतौ "सत्थाणविसोहिहाणस्स जहण्णणाणा" इति पाठः। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २०१. पुणो एदस्सुवरि सव्वविसुद्धचरिमसमयतेइंदियउक्कस्सविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणउक्कसाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमए जहण्णविसोहिट्ठाणस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणमुक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमादिसमएसु अणंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । पुणो तेइंदियसत्थाणविसोहिउक्कस्सट्टाणस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणमुक्कस्साणुभागबंधठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव सत्थाणविसोहिजहण्णहाणस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणेसु उकस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं ।। पुणो एदस्सुवरि बेइंदियसव्वविसुद्धचरिमसमयउक्कस्सविसोहिहाणस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणमुक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमए जहण्णविसोहिहाणस्स जहण्णाणुभागबंधडाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणेसु उक्कस्साणुभागबंधठाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमादिसमएसु अणंतगुणाए सेडीए ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । तत्तो बेइंदियसत्थाणउकस्सविसोहिहाणस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चव पुनः इसके आगे सर्वविशुद्ध चरमसमयवर्ती त्रीन्द्रियके उत्कष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही अन्तिम समयमें जघन्य विशुद्धि स्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है । इसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है । इसी प्रकारसे द्विचरमादिक समयोंमें अनन्तगुणितक्रमसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये। फिर त्रीन्द्रियके स्वस्थान विशुद्धि उत्कृष्ट स्थानसम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही स्वस्थान विशुद्धि जघन्य स्थानसम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। पुनः इसके आगे सर्वविशुद्ध द्वीन्द्रियके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि स्थानसम्बन्धी जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही अन्तिम समयमें जघन्य विशुद्धि स्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकर द्विचरमादिक समयों में अनन्तगुणित श्रणिरूपसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये। इसके पश्चात् द्वीन्द्रियके स्वस्थान उत्कृष्ट विशुद्धिंस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर इसके ही Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१२५ असंखेज्जलोगमेच्छहाणाणमुक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव जहण्णविसोहिहाणस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो एदस्सुवरि सव्वविसुद्धबादरेइंदियचरिमसमयउक्कस्सविसोहिट्ठाणस्स जहण्णागुभागबंधट्ठाणमणतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणमुक्कस्साणुभागबघटाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमए जहण्णविसोहिट्ठाणस्स जहण्णाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेतबहाणाणमुक्कस्साणुभाबंधट्ठाणमणंतगुणं । एवमणंतगुणकमेण दुचरिमादिसमएसु ओदारेदव्यं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । तत्तो बादरेइंदियसत्थाणुक्कस्सविसोहिट्ठाणस्स जहण्णाणुभागबंधाणमणंतगुणं । पुणो एदस्स चेव असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणं उकस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव बादरेइंदियसत्थाणजहण्णविसोहिट्ठाणस्स जहण्णाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणमुक्कस्साणुभागबंधट्टाणमणतगुणं । पुणो एदस्सुवरि सव्वविसुद्धसुहुमणिगोदअपज्जत्तचरिमसमयउकस्सविसोहिहाणस्स जहण्णाणुभागबंधटाणमणंतगुणं । तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणमुक्कस्साणुभागबंधद्वाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमयजहण्णविसोहिट्ठाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभाग असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानीसम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। फिर उसके ही जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इसकेही असंख्यात लोक मात्र षद्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। पुनः इसके आगे सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रियके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि स्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसकेही अन्तिमसमयमें जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसकेही असंख्यात लोक मात्र छह स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार द्विचरमादिक समयोंमें अनन्तगुणितक्रमसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये । उसके आगे बादर एकेन्द्रियके स्वस्थान उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इसके ही असंख्यात लोक मात्रषट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । फिर उसी बादर एकेन्द्रियके स्वस्थान जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। पुनः इसके आगे सर्वविशुद्ध सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। उसीके असंख्यात लोक मात्र षटस्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही अन्तिम समयमें जघन्य विशद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसीके असं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, २०१. बंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणमुक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमादिसमएसु अणंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । तदो हदसमुप्पत्तियं 'कादणच्छिदसुहुमणिगोदअपज्जत्तसत्थाणुक्कस्सविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं। पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणउक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव सुहुमणिगोदअपज्जत्तसत्थाणजहण्णविसोहिट्ठाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणबंध-संतसरिसअणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । एदेसि हाणाणमंतराणि छवड्डीए अवहिदाणि । तं जहा-अणंतभागवड्डिहाणंत राणि फद्दयंतराणि च अणंतभागब्भहियाणि । अणंतभागवड्डिहाणंतराणि फद्दयंतराणि' च पेक्खिदण असंखेज्जभागवड्डि-[ संखेजमागवड्डि-] संखेजगुणवड्डि-असंखेञ्जगुणवड्डिअणंतगुणवड्तीर्ण हाणंतराणि फद्दयंतराणि च अणंतगुणाणि । असंखेजभागवड्डिअब्भंतरमगंतभागवड्डीणं द्वाणंतराणि फद्दयंतराणि च असंखेजभागब्भहियाणि । संखेञ्जभागवड्डिअब्भतरं अणंतभागवड्डीणं ठाणंतरफद्दयंतराणि च संखेजभागब्भहियाणि । संखेजगुणवड्डिअभंतरअणंतभागवड्डीणं हाणंतर-फद्दयंतराणि च संखेजगुणब्भहियाणि । असंखेजगुणवड्डि ख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार द्विचमादिक समयोंमें अनन्तगुणितक्रमसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये। तत्पश्चात् हतसमुत्पत्ति करके स्थित सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके स्वत्थान उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके स्वस्थान जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका बन्ध व सत्त्वके सहश अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। ___ इन स्थानोंके अन्तर छह प्रकारकी वृद्धि में अवस्थित हैं। यथा-अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तर और स्पर्द्धकोंके अन्त र अनन्तवेंभागसे अधिक हैं। अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके • अन्तरों और स्पर्द्धकोंके अन्तरोंकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि, [ संख्यातभागवृद्धि ], संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि सम्बन्धी स्थानोंके अन्तर व स्पद्धकोंके अन्तर अनन्तगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिके भीतर अनन्तभागवृद्धियोंके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर असंख्यातवेंभाग अधिक हैं। संख्यातभागवृद्धिके भीतर अनन्तभागवृद्धियोंके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर संख्यातवें भाग अधिक हैं। संख्यातगुणवृद्धिके भीतर अनन्तभागवृद्धियों के स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर संख्यातगुणे अधिक हैं। असंख्यातगुणवृद्धिके भीतर १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-ताप्रतिषु 'कादूणछिद' इति पाठः। २ अप्रतौ 'फद्दयंतराणि' इत्येतत् पदं नास्ति । ३ अप्रतौ 'वड्डीहाणंतराणि' इति पाठः । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१२७ अभंतरं अणंतभागवड्डोणं द्वाणंतर-फद्दयंतराणि [च ] असंखेजगुणब्भहियाणि । एवं सेसाणं पि हाणाणमंतरपरूवणा जाणिय' कायया ।। संपहि एत्थ चोदगोभणदि-सुहुमणिगोदअपजत्तजहण्णाणुभागट्ठाणादो हेहिमअणुभागबंधहाणाणं केवलाणं ण कदाचि वि कहिं वि जीवे संभवो अस्थि । तदो ण तेसिमशुभागहाणसण्णा । बंधं पडिहाणसण्णा होदि त्ति भणिदे–ण, तेण सरूवेण अणुवलंभमाणस्स सरिसधणिएसु एगोलीए हिदपरमाणुपोग्गलेसु च अंतब्भावं गयस्स अपत्तसंताणुभागहाणपमाणस्स अणुभागहाणत्तविरोहादो । तदो सुहुमणिगोदापज्जत्तजहण्णसंताणुभागद्वाणादो हेडिमअणुभागट्ठाणाणं परूवणा अणथिए ति ? ण एस दोसो, एदस्सेव जहण्णाणुभागहाणस्स सरूवपरूवणटुं तप्परूवणाकरणादो। ण तेहि अपरूविदेहि जहण्णहाणाणुभागपमाणं फद्दयपमाणं तत्थतणवग्गणपमाणं अंतरपमाणं च अवगम्मदे। तदो हेटिमबंधट्ठाणपरूवणा सफला इत्ति घेत्तव्वा । एवं सेसअसंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणं पि परूवणा कायव्वा। एवमंतरपरूवणा समत्ता। अनन्तभागवृद्धियोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर असंख्यातगुणे अधिक हैं। इसी प्रकार शेष स्थानोंके भी अन्तरोंकी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिये। शंका-यहां शंकाकार कहता है, कि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके जघन्य अनुभागस्थानसे नीचेके अनुभागबन्धस्थान केवल कभी भी किसी भी जीवमें सम्भव नहीं हैं। इस कारण उनकी अनुभागस्थान संज्ञा संगत नहीं है। बन्धके प्रति स्थान संज्ञा हो सकती है, ऐसा कहनेपर कहते हैं कि वैसा भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उस स्वरूपसे न पाये जानेवाले, समान धनवालों व एक पंक्ति रूपसे स्थित परमाणु पुदलोंमें अन्तर्भावको प्राप्त हुए, तथा सत्त्वानुभागस्थानके प्रमाणको न प्राप्त करनेव लेके अनुभागस्थान होनेका विरोध है। इस कारण सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके जघन्य अनुभागसत्त्वस्थानसे नीचेके अनुभागस्थानोंकी प्ररूपणा अनर्थक है ? समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसी जघन्य अनुभागस्थानके स्वरूपकी प्ररूपणा करनेके लिये उक्त अनुभागस्थानोंकी प्ररूपणा की गई है । कारण कि उनकी प्ररूपणाके विना जघन्य अनुभागस्थानका प्रमाण, स्पद्धकोंका प्रमाण, उनकी वर्गणाओंका प्रमाण और अन्तरका प्रमाण नहीं जाना जा सकता है। अतएव उक्त नीचेके बन्धस्थानोंकी प्ररूपणा सफल है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकारसे शेष असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार अन्तरप्ररूपणा समाप्त हुई। १ श्रा-तप्रत्योः 'जाणिदूण' इति पाठः। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, २०२. कंदयपरूवणदाए अत्थि अणंतभागपरिवडिकंदयं असंखेजुभागपरिवडिकंदयं संखेजभागपरिवडिकंदयं संखेजगुणपरिवडिकंदयं असंखेजगुणपरिवडिकंदयं अणंतगुणपरिवडिकंदयं ॥२०२॥ सुहुमणिगोदजहण्णसंतहाणप्पहुडि उवरिमेसु हाणेसु कंदयपरूवणा कीरदे । कुदो ? एदम्हादो अण्णस्स अक्खवगाणुभागसंतकम्मरस थोवीभूदस्स अभावादो । कुदो णबदे ? सव्वविसुद्धसंजमाहिमुहमिच्छाइहिस्स णाणावरणीयजहण्णाणुभागबंधो थोत्रो । सव्वविसुद्ध असण्णिणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो। सव्वविसुद्धचउरिंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । एवं तेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । बेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । सविसुद्धबादरेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो। सव्वविसुद्धसुहुमेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो। तस्सेव हदसमुप्पत्तियं 'कादूणच्छिदणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । बादरेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । बेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । तेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । चउरिंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । असण्णिपंचिंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । काण्डकप्ररूपणामें अनन्तभागवृद्धिकाण्डक, असंख्यातभागवृद्धिकाण्डक, संख्यातभागवृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक होते हैं । २०२॥ सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य सत्त्वाथानसे लेकर ऊपरके स्थानोंमें काण्डक प्ररूपणा की जाती है, क्योंकि, अक्षपकका इससे अल्प और कोई अनुभागसत्त्वस्थान नहीं है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके ज्ञानवरणीयका जघन्य अनुभागबन्ध स्तोक है। उससे सर्वविशुद्ध असंज्ञी [पंचेन्द्रिय के ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे सर्वविशुद्ध चतुरिन्द्रियके ज्ञानावरणकाजघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। इस प्रकार त्रीन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध उससे अनन्तगुणा है। उससे द्वीन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे सर्वविशुद्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियके ज्ञानावरणका अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। हतसमुत्पत्ति करके स्थित हुए उसके ही ज्ञानावरणका जघन्य अनभागसत्त्व अनन्ताणा है। उससे बादर एकेन्द्रियके [ज्ञानावरणका 1 जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगणा है। उससे द्वीन्द्रियके ज्ञानावरण जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगणा है। उससे त्रीन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है। उससे चतुरिन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनभागसत्त्व अनन्तगणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्त्व १ प्रतिषु 'कादूट्टिद' इति पाठः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ४, २, ७, २०२. ] वेणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया सणिपंचिदियसंजमा हिमुहमिच्छाइट्ठिणाणावरणीय जहण्णाणु भागसंतकम्ममर्णत गुणमिदि अणुभागप्पा बहुगादो | एकेकस्स गुणगारो असंखेज्जलोग मेत्त जीवरासीणं असंखेजलोगमेत्तअसंखेज लोगाणं असंखेज लोगमेत्तउक्कस्स ' संखेज्जाणं असंखेज्जलोगमेत्त अण्णोष्णव्भत्थरासीणं च गुणगारसरुवेण द्विदाणं संवग्गो । खीणसायचरिमसमए णाणावरणीय जहण्णाणुभागसंतकम्मं होदि त्ति सामित्तमुत्ते उत्तं । तदो पहुडि कंदयपरूवणा किण्ण कीरदे ? ण, तदो प्पहूडि कमेण छण्णं वड्डीणमभावादी । ण च कमेण णिरंतरं वड्डिविरहिदडाणेसु कंदयपरूपणा कादुं सकिजदे, विरोहादो । अविभागपरिच्छेदाणंतरपरूवणाओ किभिदि जहण्णबंधहाणपहुडि परुविदाओ ! ण एस दोसो, तेसिं तपहुडि परूवणाए कीरमाणाए वि दोसाभावादो । अधवा, सुवि सुमेइं दियजहण्णाणुभागसंतकम्मट्ठाणप्प हुडि उवरिमाणाणं परूवणा कायव्त्रा । कुदो ? माणं अणुभागबंधट्टाणाणं संतसरूवेण उवलंभाभावादो । एदं च सुद्दमणिगोदजहण्णाणुभागसंतद्वाणं बंधहाणेण सरिसं (कुदो एदं णव्वदे ! दस्सुवरि एगपक्खेवुत्तरं काढूण बंधे अणुभागस्स जहण्णिगा वड्डी, तम्मि चेव अंतो अनन्तगुणा है । उससे संयम के अभिमुख हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इस अनुभग अल्पबहुत्वसे वह जाना जाता है । इनमें से एक एकका गुणकार असंख्यात लोक मात्र सब जीवराशियां, असंख्यात लोक मात्र असंख्यात लोक, असंख्यात लोक मात्र उत्कृष्ट संख्यात और असंख्यात लोक मात्र अन्योन्याभ्यस्त राशियां, इन गुणकार स्वरूपसे स्थित राशियोंका संवर्ग है । शंका-क्षीणकषायके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीयका जघन्य अनुभागसत्त्व होता है, यह स्वामित्वसूत्र में कहा जा चुका है। उससे लेकर काण्डकप्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि उससे लेकर क्रमसे छह वृद्धियोंका अभाव है। और क्रमसे निरन्तर वृद्धिसे रहित स्थानोंमें काण्डकप्ररूपणा करना शक्य नहीं है, क्योंकि, उसमें विरोध है । शंका- फिर अविभागप्रतिच्छेदोंकी अन्तरप्ररूपणायें जघन्य बन्धस्थान से लेकर क्यों कही गई हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उससे लेकर उनकी प्ररूपणा के करनेमें भी कोई दोष नहीं हैं । अथवा, उनमें भी सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य अनुभाग सत्त्वस्थानसे लेकर ऊपर के स्थानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, अधरतन बन्धस्थान सत्ता रूप से उपलब्ध नहीं है । यह सूक्ष्मनिगोदका जघन्य अनुभागसत्त्वस्थान बन्धस्थानके सदृश है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह “इसके आगे एक प्रक्षेप अधिक करके बन्ध होनेपर अनुभागकी जघन्य १ श्राप्रतौ 'मेत्तउकस्साणं' इति पाठः । २ प्रतौ 'सवग्गो', श्रा--ता-मप्रतिषु 'सव्वग्गो' इति पाठः । छ. १२-१७. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७, २०२ मुहुत्तेण खंडयघादेण धादिदे जहणिया हाणी होदि ति कसायपाहुडे परूविदत्तादो। बंधेण असरिसे सुहमणिगोदजहपणाणुभागहाणे संजादे एदाओ जहण्णव ड्डि-हाणीयो ण लभंति । कि कारणं ? बंधेण विणा वड्डीए अभावादो। घादहाणस्सुवरि एगपक्खेववड्डी किषण होदि त्ति भणिदे वुच्चदे-घादसंतहाणं णाम बंधसरिसअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चाले हेहिमउव्वंकादो अणंतगुणं उवरिमअहंकादो अणंतगुणहोणं होदूण चेहदि । एदस्सुवरि जदि वि सुट्ट जहण्णेण वड्डिदृण बंधदि तो वि उवरिमअटकसमाणबंधेण होदव्वं । तेण एत्थ अणंतगुणवड्डी चेव लब्भदि, णाणंतभागवड्डी । एत्थ जहण्णहाणी किण्ण घेप्पदे ? ण, जहण्णबंधहाणादो संखेजडाणाणि उवरि अब्भुस्सरिय हिदसंतट्ठाणस्स अणंतगुणहाणिं मोत्तण अर्णतभागहाणीए अभावादो। तेणेदं सुहुमणिगोदजहण्णहाणं संतट्ठाणं ण होदि, किं तु बंधहाणमिदि सिद्धं । होतं पि एदमणंतगुणवड्डीए चेव द्विदमिदि दट्टव्वं । एदमकमेव इत्ति कधं णव्वदे? उवरि हेद्वाहाणपरूवणाए' एगबहाणमस्सिदण हिदाए जहण्णहाणादो अणंतभागभहियं कंदयं गंतूण असंखेज्जभागवड्डियं हाणं होदि त्ति परूविदत्तादो णव्वदे जहा जहण्णाणमुव्वंकं ण होदि त्ति, उव्वंकम्हि संते सयलकंदयमेच वृद्धि तथा उसीका अन्तमुहुर्तमें काण्डकघातके द्वारा घात कर डालनेपर जघन्य हानि होती है" इस कषायप्राभृतकी प्ररूपणासे जाना जाता है। सूक्ष्म निगोदके जघन्य अनुभागस्थानके बन्धके सदृश होनेपर यह जघन्य वृद्धि और हानि नहीं पायी जा सकती है, कारण कि बन्धके विना वृद्धिकी सम्भावना नहीं है। शंका-घातस्थानके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि क्यों नहीं होती है ? समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि घात सत्त्वस्थान बन्धके सदृश अष्टांक और ऊवकके मध्यमें नीचेके ऊर्वंकसे अनन्तगुणा और ऊपरके अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होकर स्थित है। इसके ऊपर यद्यपि अतिशय जघन्य स्वरूपसे बढ़कर बांधता है तो भी ऊपरके अष्टक समान बाहिये। इस कारण यहां अनन्तगुणवृद्धि ही पायी जाती है, न कि अनन्तभागवृद्धि । . शंका-यहां जघन्य हानि क्यों नहीं ग्रहण की जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जघन्य बन्धस्थानसे संख्यात स्थान आगे हटकर स्थित सत्त्वस्थानकी अनन्तगुणहानिको छोड़कर अनन्तभागहानिका अभाव है। इसी कारण यह सूक्ष्म निगोदका जघन्य स्थान सत्त्वस्थान नहीं हैं, किन्तु बन्धस्थान ही है, यह सिद्ध है। बन्धस्थान होकर भी वह अनन्तगुणवृद्धिमें ही स्थित है, ऐसा जानना चाहिये। शंका-यह अष्टांक ही है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-एक षट्स्थानका आश्रय करके स्थित आगे की अधस्तनस्थानप्ररूपणामें "जघन्य स्थानसे अनन्तवें भागसे अधिक स्थानोंका काण्डक जाकर असंख्यातवें भागसे अधिक (असंख्यातभागवृद्धिका ) स्थान होता है" यह जो प्ररूपणाकी गई है उससे जाना जाता है कि जघन्य स्थान १ अ-आप्रत्योः 'हाणपरूपणा', ताप्रतौ 'हाणपरूवणा[ए]' इति पाठः। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०२] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१३१ गमणाणुववत्तीदो। चत्तारिअंक पि ण होदि, कंदयमेत्तअसंखेजभागवड्डीयो गंतूण पढमासंखेज्जभागवड्डी होदि त्ति तत्थेव भणिदत्तादो। पंचकं पि ण होदि. संखेजभागब्भहियं कंदयं गंतूण संखेज्जगुणवड्डी होदि त्ति परविदत्तादो। छअंकं पि ण होदि, कंदयमेत्तसंखेज्जगुणवड्डीयो गंतूण असंखेज्जगुणवड्ढी होदि त्ति वयणादो। सत्तंकं पि ण होदि, कंदयमेत्तअसंखेज्जगुणवड्डीयो गंतूण अणंतगुणवड्वी होदि त्ति वयणादो। तदो परिसेसयादो जहण्णट्ठाणमटकं सि सिद्धं । किमट्ठकं णाम ? हेहिमउव्वंकं सव्वजीवरासिणा गुणिदे जं लद्धं तेत्तियमेत्तेण हेडिमउव्वंकादो जमहियं हाणं तमहंकं णाम । हेट्ठिमउव्वंक रूवाहियसव्वजीवरासिणा गुणिदे अट्ठकमुप्पज्जदि त्ति भणिदं होदि' । . हेहिमाणंतरादो अgकट्ठाणंतरमणंतगुणं । तं जहा-अणंतरहेहिमउव्वंके रूवाहियसव्वजीवरासिणा मागे हिदे लद्धं रूवूणमुव्वंकहाणंतरं होदि। सव्वजीवरासिणा हेडिमउव्वंकं गुणिय रूवूणे कदे अट्ठकहाणंतरं होदि। उव्यंकटाणंतरादो अटुकट्ठाणंतरमणंतगुणं। को गुणगारो ? रूवाहियसव्वजीवरासिणा गुणिदसव्वजीवरासी । दोसु वि वड्डीसु सग ऊर्वक नहीं होता है, क्योंकि, ऊर्वकके होनेपर समस्त काण्डक प्रमाण गमन घटित नहीं होता है। वह चतुरंक भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियां जाकर प्रथम असंख्यातभागवृद्धि होती है, ऐसा वहां ही कहा गया है। वह पंचाक भी नहीं हो सकता है, क्योंकि, संख्यातवें भागसे अधिक स्थानोंका काण्डक जाकर संख्यातगुणवृद्धि होती है, ऐसा बतलाया गया है। वह षष्ठांक भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, काण्डक मात्र संख्यातगुणवृद्धियां जाकर असंख्यातगुणवृद्धि होती है । ऐसा वचन है। वह सप्तांक भी नहीं हो सकता है, क्योंकि काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियां जाकर अनन्तगुणवृद्धि होती है, ऐसा वचन है । अतएव परिशेष स्वरूपसे वह जघन्य स्थान अष्टांक ही है, यह सिद्ध होता है। शंका-अष्टांक किसे कहते हैं ? समाधान-अधस्तन ऊर्वकको सब जीवराशिसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्रसे जो अधस्तन ऊवकसे अधिक स्थान है उसे अष्टांग कहते हैं। अधस्तन ऊर्वकको एक अधिक सव जीवराशिसे गुणित करनेपर अष्टांक उत्पन्न होता है, यह उसका अभिप्राय है। अधस्तन स्थानके अन्तरसे अष्टांकस्थानका अन्तर अनन्तगुणा है। वह इस प्रकारसेअनन्तर अधरतन ऊर्वकमें एक अधिक सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसमेंसे एक कम करनेपर उर्वकस्थानका अन्तर होता है। अधस्तन ऊवकको सब जीवराशिसे गुणित करके एक कम करनेपर अष्टांकस्थानका अन्तर होता है। ऊर्वकस्थानके अन्तरसे अष्टांकस्थानका अन्तर अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है? एक अधिक सब जीवराशिसे गुणित सब जीवराशि गुणकार है । दोनों ही वृद्धियोंको अपनी अपनी स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर १ पुणो अवरमेगमसंखेजगुणवट्टिविसयं गंतूण जं चरिममुव्वंकटाणमवष्टिदं तम्मि रूवाहियसव्वजीवरासिणा गुणिदे पढममकहाणमप्पजदि । जयध. अ. प. ३६८. । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०२ १३२ ] सगफद्दयसलागाहि ओवट्टिदासु फद्दयं होदि । रूवूणे कदे फद्दयंतरं । उव्वंकफद्दयंतरादो अट्ठकफद्दयंत रमणंतगुणं । को गुणगारो ? ठाणंतरगुणगारस्स अनंतिमभागो । एवंविहजहण्णहाण पडुडि सङ्काणाणमांत भागवड्डि कंदयस लागाओ घेत्तूण वड्डीए पुंजं काढूण हवेयव्वा । एवमसंखेज्जभागवड्डिकंदयसलागाओ विउब्विणिदूण' पुध ह्वेयव्त्राओ । तहा संखेज्जभागवड्डि-संखेज गुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डि-अणंत गुणवड्डीणं च कंदयसलागाओ उव्वणि ध ध वेयव्वाओ । तासि सल्लागाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहा -- एगड्डाअंतरे अनंतभागवड्डीयो पंचण्णं कंदयाणमण्णोष्णव्भासमेत्तीयो चचारिकंदयवरगावगमेत्तीयो छकंदयघणमेत्तीयो [ चत्तारिकंदयवग्गमेत्तीयो ] कंदयमेत्तीयो च । तासि संदिट्ठी १०२४२५६ २५६ २५६ २५६ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ १६ १६ १६ १६ ४ | असंखेज्जभागवड्डीओ एगकंदयवग्गावग्गमेत्तीयो तिष्णिकंदयघणमेत्तीयो तिण्णिकंदयवग्गमेत्तीओ कंदयमेत्तीओ च । एदासिं संदिट्ठी - २५६ ६४ ६४ ६४ १६ १६ १६ ४ । संखेज्जभागवड्डीयो एगकंदयघणमेत्तीयो बेकंदयवग्गमेत्तीयो कंदयं च । एदासिं संदिट्ठी - ६४ १६ १६ ४ । संखेज्जगुणवड्डीयो कंदयवग्ग-कंदयमेत्तीओ । एदासिं संदिट्ठी - १६ ४ । असंखेजगुणवड्डीयो कंदयमेत्तीओ । तासि संदिट्ठी ४ । अहंकमेकं । प्रमाण स्पर्द्धक होता है। इसमेंसे एक कम करने पर स्पर्धकका अन्तर होता है । ऊवक स्पर्द्धकके अन्तरसे अष्टांक स्पर्द्धकका अन्तर अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार स्थानान्तर के गुणकारका अनन्तवां भाग है । इस प्रकार के जघन्य स्थानसे लेकर सब स्थानोंकीअनन्तभागवृद्धिकाण्डकशलाकाओं को ग्रहण कर वृद्धिका पुंज करके स्थापित करना चाहिये । इसी प्रकार असंख्यात भागवृद्धिकाण्डकशलाकाओं को उत्पन्न करके पृथक् स्थापित करना चाहिये । तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिको काण्डकशलाकाओंको उत्पन्न करके पृथक् पृथक् स्थापित करना चाहिये। उन शलाकाओंका बतलाते है । वह इस प्रकार है-एक स्थानके भीतर अनन्तभागवृद्धियां पांच काण्डकोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि ( ४ x ४ X ४ x ४×४ = १०२४ ) के बराबर, चार काण्डकोंके वर्गके वर्ग प्रमाण, छह काण्डकोंके घन प्रमाण, [ चार काण्डकोंके वर्ग प्रमाण और एक काण्डक प्रमाण हैं । इनकी संदृष्टि - १०२४, २५६, २५६, २५६, २५६, ६४, ६४, ६४, ६४, ६४, ६४; १६, १६, १६, १६, ४ । असंख्यात भागवृद्धियां एक काण्डकके वर्गावर्ग प्रमाण, तीन काण्डकोंके घन प्रमाण, तीन काण्डकोंके वर्ग प्रमाण और एक काण्डक प्रमाण हैं । इनकी संदृष्टि २५६; ६४, ६४, ६४, १६, १६, १६४ । संख्यात भागवृद्धियां एक काण्डकके घन प्रमाण, दो काण्डकोंके वर्ग प्रमाण और एक काण्डक प्रमाण हैं । इनकी संदृष्टि - ६४; १६, १६; ४ । संख्यातगुणवृद्धियां एक काण्डकके वर्ग व काण्डक प्रमाण हैं । इनकी संदृष्टि - १६, ४ । असंख्यात १ मप्रतिपाठोऽयम् । अत्रा प्रतिषु ' - सलागाग्रो एउब्विणिदूण' ताप्रतौ 'सलागाओ [ ए ] उच्चिणिदूण' इति पाठः । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०२. ] वेयणमहाहियारे वेगभावविहाणे विदिया चूलिया [ १३३ तं च जहण्णट्ठाणमिदि घेत्तव्वं । एदं पुध पुध असंखेज्जलोग मेत्तछट्ठाण सलागाहि गुणिदे सव्वद्वाणाणं अप्पिदवडीयो होंति । एदासु एगकंदएण पुध पुध ओवट्टिदासु लद्धमपणो कंदयसलागाओ होंति । एवं ट्ठविय एदासिं परूवणा सुत्ते उद्दिद्वा । तं जहा -- अनंतभागपरिवडि कंदयं असंखेज्जभागपरिवड्डिकंदयं संखेज्जभागपरिवड्डिकंदयं संखेज्जगुपरिवकिंदयं असंखेजगुणपरिवड्डिकंदयं अनंतगुणपरिवड्डिकंदयं पि अस्थि । कधमेत्थ बहूण गवयणणिद्देसो ? ण, जादिदुवारेण बहूणं पि एगत्ताविरोहादो । एदं परूवणासुतं देसामा सयं, सूचिदपमाणप्पा बहुगत्तादो । तेण तेसिं दोष्णं पि एत्थ परूवणा कीरदे | तं जहा - अनंतभागवड्डि- असंखेज भागवड्ढि - [ संखेज भागवड्डि- ] संखेजगुणवड्डि-असंखेगुणवड्डि-अतगुणवडीओ च असंखेज नागमेत्ताओ । कुदो ? असंखेज लोग मे तद्वाणाण सलागादि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसग-सगकंदयसलागासु गुणिदासु वि असंखेज्जलोग मेत्तरा सिसमुप्पत्तीए । पमाणं गदं । अप्पाबहुगं उच्चदे—सव्वत्थोवाओ अनंतगुणवड्डिकंदय सलागाओ । असंखेज्जगुणवड्डिकंदयसलागाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज दिमागमेत्तेगं कंदयं । संखेज्ञगुणवड्डि कंदयसलागाओ असंखेज गुणाओ । को गुणगारो ९ रूवाहियकंदयं गुणवृद्धियां काण्डक प्रमाण हैं । उनकी संदृष्टि -४ | अष्टांक एक है । वह जघन्य स्थान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इसको पृथक् पृथकू असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानशलाकाओंसे गुणित करनेपर सब स्थानोंकी विवक्षित वृद्धियां होती हैं । इनको एक काण्डकसे पृथक् पृथक् अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतनी अपनी काण्डकशलाकायें होती हैं। इस प्रकार स्थापित करके इनकी प्ररूपणा सूत्रमें कही है । यथा - अनन्तभागवृद्धिकाण्डक, असंख्यात भागवृद्धिकाण्डक, संख्यात भागवृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक भी हैं । शंका- यहाँ बहुतों के लिये एक वचनका निर्देश कैसे किया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जातिके द्वारा बहुतों के भी एक होने में कोई विरोध नहीं है । यह प्ररूपणासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह प्रमाण और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोंका सूचक है । इसलिये उन दोनोंकी भी यहाँ प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये असंख्यात लोक प्रमाण हैं, क्योंकि, असंख्यात लोक मात्र षटूस्थानशलाकाओं के द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अपनी अपनी काण्डकशलाकाओंको गुणित करनेपर भी असंख्यात लोक मात्र राशि उत्पन्न होती है । प्रमाण समाप्त हुआ । अल्पबहुत्वको कहते हैं - अनन्तगुणवृद्धि काण्डक शलाकायें सबसे स्तोक हैं। उनसे श्रसंख्यागुणवृद्धिकाण्डक शलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र एक काण्ड है । उनसे संख्यातगुणवृद्धि काण्डक शलाकयें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [ ४, २, ७, २०३. संखेज भागवड्डिस लागाओ असंखेज गुणाओ । को गुणगारो ? रूवाहियकंदयं । ( असंखेजभागवड्डिसलागाओ असंखेजगुणाओ । को गुणगारो ? रूवाहियकंदयं । अनंतभागवड्डिसलागाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? रूवाहियकंदयं । एत्थ कारणं जाणिदूण वत्तव्वं । एवमप्पा बहुगं समत्तं । कंदयपरूवणा गदा । ओजजुम्मपरूवणदाए अविभागपडिच्छेदाणि अविभागपडिच्छेदाणि द्वाणाणि कदजुम्माणि, कंदयाणि कदजुम्माणि ॥ २०३ ॥ कदजुम्माणि, अविभागपडिच्छेद णं सरूवपरूवणं पुव्वं वित्थारेण कदमिदि ोह कीरदे । सव्वाभागांणाणं अविभागपडिच्छेदाणि कदजुम्माणि, चदुहि अवहिरिजमाणे णिरंसदो | सव्वेसिंहाणाणं चरिमवग्गणाए एगेगपरमाणुम्हि हिदअविभागपरिच्छेदा कदजुम्मा, तत्थ दिअणुभागस्सेव ट्ठाणववएसादो । दुवरिमादिवग्गणाणमविभागपडिच्छेदा पुण कदम्मा चैव इत्ति णत्थि नियमो, तत्थ कद- बादरजुम्म- कलि-तेजोजाणं पि उवलंभादो | 'ठाणाणि कदजुम्माणि त्ति उत्ते सगसंखाए फद्दयसलागाहि एगफद्दयवग्गणस लागाहि एगेगपक्खेवफद्दयसलागाहि य द्वाणाणि कदजुम्माणि त्ति उत्तं होदि । 'कंदयाणि कदजुम्माणि' त्ति भणिदे एगकंदयप्रमाणेण छष्णं वड्डीणं पुध बुध कंदयसलागाहिय कंदयाणि कदजुम्माणि । एवमोज - जुम्मपरूवणा समत्ता | है ? गुणकार एक अधिक काण्डक है । उनसे संख्यातभागवृद्धि काण्डक शलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार एक अधिक काण्डक है। उनसे असंख्यात भागवृद्धि काण्डक शलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है । गुणकार एक अधिक काण्डक है । उनसे अनन्तभागवृद्धि काण्डक शलाकायें असंख्यातगुणी हैं । 'गुणकार क्या है । गुणकार एक अधिक काण्डक है । यहां कारणको जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार अल्पबहुस्व समाप्त हुआ । काण्डकप्ररूपणा समाप्त हुई। श्रयुग्मप्ररूपणा में अविभागप्रतिच्छेद कृतयुग्म हैं, स्थान कुतयुग्म हैं, और काण्ड कृतयुग्म हैं ॥ २०३ ॥ अविभागप्रतिच्छेदों के स्वरूपकी प्ररूपणा पहिले विस्तार से की जा चुकी है, अतएव अब यहां उनकी प्ररूपणा नहीं की जाती है । समस्त अनुभागस्थानोंके अविभागप्रतिच्छेद कृतयुग्म हैं, क्योंकि उन्हें चारसे अपहृत करनेपर कुछ शेष नहीं रहता । सब स्थानोंकी अन्तिम वर्गणा एक एक परमाणुमें स्थित अविभागप्रतिच्छेद कृतयुग्म हैं, क्योंकि, उसमें स्थित अनुभागका नाम ही स्थान है । परन्तु द्विचरमादिक वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद कृतयुग्म ही हों, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, उनमें कृतयुग्म, बादरयुग्म, कलिओज और तेजोज संख्यायें भी पायी जाती हैं । 'स्थान कृतयुग्म हैं' ऐसा कहनेपर स्थान अपनी संख्यासे, स्पर्द्धकशलाकाओंसे, एक स्पर्द्धककी वर्गणाशलाकार्योंसे तथा एक प्रक्षेपस्पर्द्धककी शलाकाओं से कृतयुग्म हैं, ऐसा अभिभ्राय ग्रहण करना चाहिये । 'काण्डक कृतयुग्म हैं' ऐसा कहनेपर एक काण्डक के प्रमाणसे तथा छह वृद्धियों की पृथक् पृथकू काण्डकशलाकाओंसे काण्डक कृतयुग्म हैं, ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार ओज-युग्म प्ररूपणा समाप्त हुई । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१३५ छहाणपरूवणदाए अणंतभागपरिवड्डी काए परिवड्डीए [वड्डिदा?] सव्वजीवेहि अणंतभागपरिवड्डी। एवदिया परिवड्डी ॥२०४॥ _ 'अणंतभागपरिवड्डी काए परिवड्डीए वड्डिदा' इत्ति पुच्छिदे अणंतभागपरवड्डी सव्वजीवेहि वडिदा । 'सव्वजीवेहिं' ति उत्ते सव्वजीवाणं गहणं ण होदि, जीवेहितो अणुभागवड्डीए असंभवादो। किं तु सव्वजीवरासिस्स जा संखा सा तदभेदेण 'सव्वजीव' इत्ति घेत्तव्वा । तेहि सव्वजीवेहि भागहारभावेण करणत्तमावण्णेहि पड्डिदा। सबजीवरासिणा जहण्णहाणे भागे हिदे जं लद्धं सा वड्डी, जहण्णहाणे पडिरासिय वड्डिदपक्खेवे पक्खित्ते पढममणंतभागवड्डिहाणं उप्पजदि ति भणिदं होदि । जहण्णहाणे सव्वजीवरासिणा खंडिदे तत्थ एगखंडेणोवट्टिय' पढममणंतभागवड्डिहाणमुप्पजदि जं भणिदं तण्ण घडदे । तं जहा-जहण्णहाणं पण्णारसविहं, परमाणुफद्दयवग्गणाविभागपडिच्छेदेसु एग-दुगा. दिअक्खसंचारवसेण पपणारसविहजहण्णहाणुप्पत्तिदंसणादो। एदेसु पण्णारस विहजहण्णहाणेसु सव्वजीवरासिणा कं ठाणं छिज्जदे ? ण ताव परमाण छिजंति, सव्वजीवेहि अभवसिद्धिएहिंतो अणंतगुणहीणकम्मपोग्गलेसु छिजमाणेसु एगपरमाणुअणंतिमभागस्स उवलंभादो। ण च पक्खेवो एगपरमाणुअणंतिमभागमेत्तो होदि, अणंतेहि परमाणूहि षट्स्थानप्ररूपणामें अनन्तभागवृद्धि किस वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत हुई है ? अनन्तभागवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिंगत हुई है । इतनी मात्र धृद्धि है ॥ २०४ ॥ 'अनन्तभागवृद्धि किस वृद्धि द्वारा वृद्धिंगत हुई है', ऐसा पूछनेपर अनन्तभागवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिंगत हुई है । 'सब जीवोंसे' ऐसा कहनेपर सब जीवोंका ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, जीवोंसे अनुभागवृद्धि सम्भव नहीं है। किन्तु सब जीवराशिकी जो संख्या है वह उक्त जीवोंसे अभिन्न होनेके कारण 'सब जीव' ग्रहण करने योग्य हैं। भागहार स्वरूपसे करणकारक अवस्थाको प्राप्त हए उन सब जीवोंसे वह वृद्धिको प्राप्त हुई है। सब जीवराशिका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो वह वृद्धिका प्रमाण है । जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके उसमें वृद्धिप्राप्त प्रक्षेपको मिलानेपर प्रथम अनन्तभागवृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है, यह उसका अभिप्राय है। शंका-जघन्य स्थानको सब जीवराशिसे खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्डके द्वारा अपवर्तित प्रथम अनन्तभागवृद्धिका स्थान होता है, यह जो कहा गया है वह घटित नहीं होता है। वह इस प्रकारसे-जघन्य स्थान पन्द्रह प्रकारका है, क्योंकि परमाणु, स्पर्द्धक, वर्गणा और अविभागप्रतिच्छेद इनमें एक, दोआदिरूपसे अक्षसंचारके वश पन्द्रह प्रकारके जघन्य स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है। इन पन्द्रह प्रकारके जघन्य स्थानोंमेंसे सब जीवराशिके द्वारा कौनसा स्थान खण्डित किया जाता । है ? उसके द्वारा परमाणु तो खण्डित किये नहीं जा सकते, क्योंकि, अभव्यसिद्धोंकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन कर्मपुद्गलोंको सब जीवों द्वारा खण्डित करनेपर एक परमाणुका अनन्तवां भाग पाया जाता है। परन्तु प्रक्षेप एक परमाणुके अनन्तवें भाग मात्र होता नहीं है, क्योंकि, अभव्यसिद्धोंसे १ प्रतिषु 'खंडेगोवट्टिय ( या-वडिय )' इति पाठः । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २०४. अभवसिद्धिएहि अणंतगुणेहि एगपक्खेवणिप्फत्तीदो । ण फद्दयाणि छिजंति, सबजीवेहि सिद्धहितो अणंतगुणहीणजहण्णहाणफद्दएसु छिज्जमाणेसु एगफद्दयस्स अणंतिमभागाणमुवलंभादो। ण च जहणणहाणजहण्णफद्दयाणि अणंताणि आगच्छंति त्ति पक्खेवागमो वोत्त सकिञ्जदे, जहण्णहाणचरिमफद्दयसरिसेहि अणंतेहि फदएहि पक्खेवणिष्फत्तीदो । ण च जहण्ण हाणम्हि सव्यजीवेहिंतो अणंतगुणाणि फद्दयाणि अस्थि जेण सव्वजीवरासिणा भागे हिदे अणंताणि फद्दयाणि आगच्छेज । जहण्णहाणफद्दयाणि परमाणू च सिद्धाणमणंतभागमेत्ता चेव इत्ति एदं कुदो णव्वदे ? सबढाणपरमाणू फद्दयाणि वि सिद्धाण मणंतभागमेत्ताणि चेव इत्ति जिणोवदेसादो। ण जिणो चप्पल प्रो, तक्कारणाभावादो। ण वग्गणाओ छिजंति, तासु वि छिज्जमाणासु एगवग्गणाए अणंतिमभागस्स आगमुवलंभादो । ण एगवग्गणाए अणंतिमभागेण पक्खेवो णिप्फजदि, अणंताहि वग्गणाहि णिप्फजमाणस्स एक्किस्से वग्गणाए अणंतिमभागेण णिप्फत्ति विरोहादो। ण च वग्गणाओ सव्वजीवेहि अणंतगुणाओ जेण सव्वजीवराणिसा जहण्णहाणवग्गणासु ओवट्टिदासु अणंतगुणाओ वग्गणाओ श्रागच्छेज्ज । सव्वाओ वि वग्गणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ, एगफद्दयवग्गणसलागाओ ठविय जहण्णहाणफद्दयसलागाहि गुणिदे सिद्धाणमणंतभागमे अनन्तगुणे अनन्त परमाणुओंके द्वारा एक प्रक्षेप उत्पन्न होता है। सब जीवों द्वारा स्पर्द्धक भी नहीं खण्डित किये जा सकते, क्योंकि, सिद्धोंसे अनन्तगुणे हीन जघन्य स्थानके स्पर्द्धकोंको सब जीवों द्वारा खण्डित करनेपर एक स्पकके अनन्तवें भागका आना पाया जाता है। परन्तु जघन्य स्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्द्धक अनन्त नहीं आते हैं। इसीलिये उक्त रीतिसे प्रक्षेपका आना बतलाना शक्य नहीं है, क्योंकि, जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके सदृश अनन्त स्पर्द्धककोंसे प्रक्षेपकी उत्पत्ति होती है। और जघन्य स्थानमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्पर्द्धक हैं नहीं जिससे कि उनमें सब जीवराशिका भाग देनेपर अनन्त स्पर्द्धक आ सकें। जघन्य स्थानके स्पर्द्धक और परमाणु सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र ही हैं, यह कहांसे जाना जाता है ? स्थानोंके परमाणु और स्पर्द्धक भी सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र ही है, ऐसा जो जिन भगवान का उपदेश है उसीसे वह जाना जाता है। यदि कहा जाय कि जिन भगवान असत्यवक्ता हैं सो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके असत्यवक्ता होनेका कोई कारण नहीं है। वर्गणायें भी सब जीवराशिके द्वारा खण्डित नहीं की जा सकती हैं, क्योंकि, उनके भी खण्डित किये जानेपर एक वर्गणाके अनन्तवें भागका आगमन पाया जाता है। और एक वर्गणाके अनन्तवें भागसे प्रक्षेप उत्पन्न होता नहीं है, क्योंकि, जो प्रक्षेप अनन्त वर्गणाओं द्वारा उत्पन्न होनेवाला है उसकी एक वर्गणाके अनन्तवें भागसे उत्पत्तिका विरोध है । और वर्गणायें सब जीवोंसे अनन्तगुणी हैं नहीं, जिससे कि सब जीवराशि द्वारा जघन्य स्थानकी वर्गणाओंको अपवर्तित करनेपर अनन्तगुणी वर्गणायें आ सकें। सभी वर्गणायें सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र हैं, क्योंकि, एक स्पर्द्धककी वर्गणाशलाकाओंको स्थापित करके जघन्य स्थानकी स्पर्द्धक• शलाकाओंसे गुणित करनेपर सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र राशि उत्पन्न होती है। इनके संयोगसे Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१३७ तरासिसमुप्पत्तीदो। एदेसिं संजोगजणिदजहण्णट्ठाणेसु वि भवहिरिजमाणेसु एसो चेव दोसो, सिद्धाणमणंतिमभागं पडि विसेसाभावादो। ण जहण्णट्ठाणअविभागपडिच्छेदा वि सव्वजीवरासिणा छिज्जंति, जहण्णहाणचरिमफद्दयअविभागपडिच्छेदाणमणंतिमभागमेत्तअविभागपडिच्छेदेहि' पक्खेवाविभागपडिच्छेदाणमुप्पत्तीए अभावादो। ण च अणंताणं जहण्णट्ठाणचरिमफद्दयाणं अविभागपडिच्छेदेहि उप्पजमाणो पक्खेवो जहण्णट्ठाणचरिमफद्दयअविभागपडिच्छेदाणमणंतिमभागेण उप्पजदि, विरोहादो। ण च पक्खेवफद्दयाणमणंतत्तमसिद्ध पक्खेवाहिच्छावणणिक्खेवफद्दयाणि अणंताणि त्ति पाहुडसुत्तसिद्धत्तादो। णाविभागपडिच्छेदसंजोगजणिदजहण्णट्ठाणाणि वि छिजंति, पादेक्कभंगदोससिदत्तादो । ण चापुव्वेहि फद्दएहि विणा सव्वजीवरासिणा जहण्णहाणे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तअविभागपडिच्छेदेसु उक्कडिदेसु विदियहाणमुप्पजदि, उक्कड्डणाए वड्डीए इच्छिञ्जमाणाए सरिसधणियपरमाणुवड्डीए वि अणुभागहाणवड्डिप्पसंगादो। ण च एवं, जोगादो वि अणुभागस्स बुड्ढिप्पसंगादो । ण च एवं, गुणिदकम्मंसियं मोत्तूण अण्णत्थ उक्कस्साणुभागहाणस्स अभावावत्तीदो । ण च एवं, उकस्साणुभागहाणकालस्स जहण्णेण एगसमयावहाणप्पसंगादो। ण च एवं, उकस्साणुभागकालस्स जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहु उत्पन्न हुए जघन्य स्थानोंको भी अपहृत करनेपर यही दोष है, क्योंकि, सिद्धांके अनन्तवें भागके प्रति कोई भेद नहीं है। जघन्य स्थानके अविभाग प्रतिच्छेद भी सब जीवराशिके द्वारा खण्डित नहीं किये जा सकते, क्योंकि, जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके अविभागप्रतिच्छेदोंके अनन्तवें भाग मात्र अविभागप्रतिच्छेदोंसे प्रक्षेप सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। जघन्य स्थान सम्बन्धी अनन्त अन्तिम स्पर्द्धकोंके अविभागप्रतिच्छेदोंसे उत्पन्न होनेवाला प्रक्षेप जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके अविभागप्रतिच्छेदोंके अनन्तवें भागसे नहीं उत्पन्न हो सकता, क्योंकि, उसमें विरोध है । और प्रक्षेपस्पद्धकोंकी अनन्तता असिद्ध नहीं है, क्योंकि प्रक्षेप, अतिस्थापना और निक्षेप स्पर्द्धक अनन्त हैं; यह प्राभृतसूत्रसे सिद्ध है। अविभागप्रतिच्छेदोंके संयोगसे उत्पन्न जघन्य स्थान भी उक्त सब जीवराशि द्वारा खण्डित नहीं किये जा सकते हैं, क्योंकि, जो दोष प्रत्येक भंगमें सम्भव हैं वे ही दोष यहां भी सम्भव हैं । दूसरे, अपूर्व स्पर्द्धकोंके विना सब जीवराशि द्वारा जघन्य स्थानको खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्ड मात्र अविभागप्रतिच्छेदोंके उत्कर्षणको प्राप्त होनेपर द्वितीय स्थान उत्पन्न भी नहीं हो सकता है, क्योंकि, उत्कर्षण द्वारा वृद्धिको स्वीकार करनेपर समान धनवाले परमाणुओंकी वृद्धिसे भी अनुभागस्थानकी वृद्धिका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, योगके द्वारा भी अनुभाग वृद्धिका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं; क्योंकि, गुणितकर्माशिकको छोड़कर अन्यत्र उत्कृष्ट अनुभागस्थानके अभावकी आपत्ति आती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारसे उत्कृष्ट अनुभागस्थानके कालके जघन्य स्वरूपसे एक समय अवस्थानका प्रसंग आता है। परन्तु ___ १ अ-आप्रत्योः '-पडिच्छेदंहिं' इति पाठः। २ अापतौ '-भागेण उप्पजदि ति विरोहादो' ताप्रतौ -भागेणे तिण उप्पजदि त्ति विरोहादो' इति पाठः। .. छ. १२-१८. ...... Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०४. तभुवगमादो । ण च अब्भुवगमो णिण्णिबंधणो, (जहण्णुकस्सकालपरूवयकसायपाहुडसुत्तावष्ठभवलेण तदुप्पत्तीदो) किं च ण उकडणाए अणुभागवड्डी होदि, ओकड्डणाए हाणिप्पसंगादो । ण च एवं, अणुभागहाणस्स एगसमयावहाणप्पसंगादो । उक्कडिदअणुभागो अचलावलियमेत्तकालेण विणा ण ओकडिजदि, तदो एगसमओ ण लब्भदि त्ति उत्ते ण, अधाहिदीए गलंतपरमाणू विट्ठाणसंतकम्मोकडणं च पेक्खिय तवलंमादो । ण च ओकड्डणाए अणुभागस्स खंडयघादेण विणा अस्थि घादो, तहाणुवलंभादो । ण च उक्कड्डिदअणुभागो खंडयघादेण घादिजदि, सयलसरिसधणियाणं घादाभावेण अणुभागखंडयस्स घादाभावादो। तं कुदो णव्वदे ! अणुभागहाणीए जहण्णुकस्सेण एगो चेव समओ त्ति कालणिद्देससुत्तादो णव्वदे। अध ओकड्डिदअणुभागो जहण्णहाणादो उवरि अपुव्वफद्दयाणं सरूवेण पददि, थोवत्तादो। ण च सरिसधणियं होदण चेदि, पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो। किंतु जहण्णहाणफद्दयाणं विचालेसु अणतेसु अपुव्वफद्दयागारो होदूण चेट्टदि त्ति । ण 'उक्क ड्डिजमाणपरमाणूणमणुभागो बज्झमाणपरमाणूणमणुभागेणूणसमाणो चेव होदि, णाहियो ण चूणो; 'बंधे उक्कडिजदि' त्ति वयणादो वग्गणवुड्डीए अभावादो च । ऐसा है नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागस्थानका काल जघन्य उत्कृष्ट रूपसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्वीकार किया गया है। और वैसा स्वीकार करना अकारण नहीं है, क्योंकि, जघन्य व उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करनेवाले कषायप्राभृतसूत्रके आश्रयबलसे वह सुसंगत ही है। इसके अतिरिक्त, उत्कर्षण द्वारा अनुभागकी वृद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि, वैसा माननेपर अपकर्षण द्वारा उसकी हानिका भी प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर अनुभागस्थानके एक समय अवस्थानका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि उत्कर्षण प्राप्त अनुभाग अचलावली मात्र कालके विना चूँकि अपकर्षणको प्राप्त होता नहीं है, अतएव एक समय अवस्थान नहीं पाया जा सकता है; सो ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि वैसा नहीं है, क्योंकि, अधःस्थितिके गलनेवाले परमाणुओंकी तथा हिस्थान सत्कर्मके उत्कर्षकी अपेक्षा करके उक्त एक समय पाया जाता है। दूसरे काण्डकघातके विना अपकर्षण द्वारा अनुभागका घात सम्भव भी नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है । और सत्कर्षणप्राप्त अनुभाग काण्डकघातके द्वारा घाता भी नहीं जा सकता है, क्योंकि, समस्त समान धनवाले परमाणुओंका घात न होनेसे अनुभागकाण्डकके घातका अभाव है । वह किस श्माणसे जाना जाता है? वह "अनुभागहानिका जघन्य व उत्कृष्टरूपसेकाल एक ही समय है" इस कालनिदेशसूत्रसे जाना जाता है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अपकर्षणप्राप्त अनुभाग जघन्य स्थानके ऊपर अपूर्व स्पर्द्धकोंके स्वरूपसे गिरता है, क्योंकि, वह स्तोक है । वह समान धन युक्त होकर स्थित नहीं होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आता है। किन्तु वह जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अनन्त अन्तरालोंमें अपूर्व स्पर्द्धकोंके आकार होकर स्थित होता है। उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले परमाणुओंका अनुभाग बांधे जानेवाले परमाणुओंके अनुभागसे हीन न समान ही होता है, न अधिक और न हीन; क्योंकि, “बन्धके समय उत्कर्षण करता है। ऐसा वचन है, तथा वर्गणा १ ताप्रतौ 'चेहदि ति । ण प्रोकड्डिजमाण' इति पाठः। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१३६ तदो फद्दयंतरेसु उक्कड्डिदृण अपुवाणि करेदि; ति ण घडदे । एवं अपुव्वफद्दयाणि करतो वि ण सव्वफद्दयंतरेसु करेदि अहिच्छावणाए 'विणा णिक्खेवस्साभावादो । णाहिच्छावणं मोत्तण उवरिमफद्दयंतरेसु करेदि, एदस्स हाणस्स बंधसंताणभागहाणेहिंतो पुधत्तप्पसंगादो। ण ताव एदं बंधहाणं, बंधहाणत्तेण सिद्धजहण्णहाणचरिमफद्दयादो उवरि अणंतफहयरचणाभावेण अणमागवुड्डीए अमावादो। ण च मज्झे अपुव्वेसु फद्दयेसु ढोइदेसु अणुभागाठाणबड्डी होदि, केवलणाणाणुक्कस्साणुभागादो फद्दयसंखाए अहियवीरियंतराइयउक्कस्साणुभागहाणस्स महल्लत्तप्पसंगादो। ण चेदं संतढाणं पि, तस्स अटुंकुव्वंकाणमंतरे उप्पजमाणस्स अहंकादो अणंतगुणहीणस्स उव्वंकादो अर्णतगुणस्स फद्दयंतरेसु उत्पत्ति विरोहादो। ण च संतढाणाणि बंधेण ओकडकड्डणाए वा उप्पअंति, तेसिमणुभागफद्दयघादेण उप्पत्तिदसणादो। ण च बंधेण विणा उक्कडणादो चेव अपुष्वाणं फद्दयाणं उप्पत्ती, तहाणुवलंभादो। उवलंमे वा खंडयघादेण विणा ओकहुणाए चेव फद्दयाणं सुण्ण होज। ण च एवं, एवं विहजिणवयणाणुवलंभादो । किं च, एवं जहण्णहाणस्सुवरि पड्डिदकंदयमेत्तमणंतभागवड्डीयो घादिय जहण्णहाणं ण उप्पादे, वृद्धिका अभाव भी है। इस कारण स्पर्द्धकोंके अन्तरालों में उत्कर्षण करके अपूर्व स्पर्द्धकोंको करता है, यह कथन घटित नहीं होता है । इसी प्रकार अपूर्व स्पर्द्धकोंको करता हुआ भी वह सब स्पर्द्धकोंके अन्तरालोंमें नहीं करता है, क्योंकि, अतिस्थापनाके विना निक्षेपका अभाव है। यदि कहा जाय कि अतिस्थापनाको छोड़कर उपरिम स्पर्द्धकोंके अन्तरालोंमें अपूर्व स्पर्धकांको करता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे इस स्थानके बन्धस्थान और सत्त्वस्थानसे पृथक। प्रसंग आता है। वह बन्धस्थान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बन्धस्थान स्वरूपसे सिद्ध जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्धकसे ऊपर अनन्त स्पद्धकोंकी रचनाका अभाव होनेसे अनुभागवृद्धिका अभाव है । यदि कहा जाय कि मध्यमें अपूर्व स्पर्द्धकोंकी रचना करनेपर अनुभागस्थानकी वृद्धि हो सकती है, तो यह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि, ऐसा होनेपर केवल ज्ञान अनुभागकी अपेक्षा स्पर्द्धक संख्यामें अधिक वीर्यान्तरायके उत्कृष्ट अनुभागस्थानके महान होनेका प्रसंग आता है। वह सत्त्वस्थान भी नहीं हो सकता है, क्योंकि, अष्टांकसे अनन्तगुणे हीन व उर्वकसे अनन्तगुणे होकर अष्टांक व ऊर्वकके अन्तरालमें उत्पन्न होनेवाले उसकी स्पर्द्धकान्तरोंमें उत्पत्तिका विरोध है । दूसरे, सत्त्वस्थान बन्ध, अपकर्षण या उपकर्षणसे उत्पन्न भी नहीं होते हैं, क्योंकि, उनकी उत्पत्ति अनुभागस्पर्द्धकोंके घातसे देखी जाती है। और बन्धके विना केवल उत्कर्षणसे ही अपूर्व स्पर्द्धकोंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। यदि वैसा पाया जाना स्वीकार किया जाय तो काण्डकघातके बिना अपकर्षणसे ही स्पर्द्धकोंकी शून्यता हो जानी चाहिये । परन्तु वैसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारका जिनवचन नहीं पाया जाता है। और भी, इस प्रकार जघन्य स्थानके ऊपर वृद्धिंगत काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंका घात करके जघन्य स्थानको उत्पन्न कराना शक्य नहीं है, क्योंकि, सन्धिके विना मध्यमें अनुभागकाण्डकघात १ ताप्रतौ "वि ण, इति पाठः। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २०४. १४० ] सजिदे, संधी विणा मज्झे अणुभागखंडयघादस्स अभावादो । काओ अणुभागहाणसंधीयो णाम ? घछबड्डीयो । ण च ओकडणाए घादेदि, सरिसधणिय परमाणूणमणुभागवणार वावदाए तिस्से फद्दयंतरेसु विदफद्दयाणमभावे वावारविरोहादो । अध सव्वजीवरासिणा नद्दण्णट्ठाणे भागे हिदे असंखेज्जलोग मेत्तसव्वजीवरासीओ असंखेज्जलोग मेत्तअसंखेजा लोगा असंखेज्जलोग मेत्त उक्क स्ससंखेज्जाणि असंखेज्जलोग मेत्तअण्णोणत्थरासीयो च अण्णोष्णगुणिद मेत्तजहण्णबंध द्वाणाणि आगच्छति । तेसु वि जहणफद्दयपणेण कीरमाणेसु अणंताणि होंति त्ति सिद्धाणमणंतिम भागेण गुणिदेसु जहणफद्दयाणं पमाणं होदि । एदाणि फक्ष्याणि एगादिएगुत्तरकमेण जहण्णड्डाणचरिमफदयस्वरि पवेसिय' अनंतभागवड्ढिद्वाणं जदि उप्पाइज्जदि तं पि ण घडदे, अनंतभागवड्डि पक्खेव अंतरे सव्वजीवेहि अनंतगुणमेचफद्दयाणं उत्पत्तिदंसणादो । तं पि कुदो वदे ? जण पक्खेवजहण्णफद्दयस लागाणमडुत्तर गुणिदाणमुत्तरुण' विगुणादिवसहिदाणं वग्गमूलं पुरिममूलेण विगुणुत्तरभाजिदल द्वे वि अणंतसव्व जीवरासीणमुवभादो | ण च एदं जुज्जदे, सव्वट्टाणाणं फक्ष्याणि वग्गणाओ परमाणू च सिद्धाणमणंतिमभागमेत्ता होंति ति सुत्तेण सह विरोहादो । तदो सव्वजीवरासी वड्डी भागहारो का अभाव है । अनुभागस्थानसन्धियोंसे क्या अभिप्राय है ? उनसे अभिप्राय बन्धगत छह वृद्धियोंका है । दूसरे अपर्षणसे घात होता भी नहीं है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणुओंके अनुभागके अपवर्तन ( अपकर्षण) में व्यापूत उसके स्पर्द्धकान्तरों में स्थित स्पर्द्धकोंके अभाव में व्यापृत होने का विरोध है । यहां शंका उपस्थित हो सकती है कि सब जीवराशिका जघन्य स्थान में भाग देने पर असंख्यात लोक मात्र सब जीवराशियों, असंख्यात लोक मात्र असंख्यात लोकों, असंख्यात लोक मात्र उत्कृष्ट संख्यातों और असंख्यात लोक मात्र अन्योन्याभ्यस्त राशियों को परस्पर गुणित करने - पर जो प्राप्त हो उतने मात्र जघन्य स्थान आते हैं । उनको भी जघन्य स्थानके स्पर्द्धकों के प्रमाणसे करनेपर चूंकि वे अनन्त होते हैं, अतएव सिद्धोंके अनन्तवें भागसे गुणित करनेपर जघन्य स्पर्द्धकोंका प्रमाण होता है । इन स्पर्द्धकोंको एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके ऊपर प्रवेश कराकर यदि अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है तो वह भी घटित नहीं होता है, क्योंकि, एक अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपके भीतर सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्पर्धकोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? चूंकि आठ व उत्तर से गुणित व उत्तर कम द्विगुणित आदिके वर्गसे सहित ऐसी जघन्य प्रक्षेप सम्बन्धी जघन्य स्पर्द्धकशलाकाओंके प्रक्षेपवर्गमूल से कम वर्गमूल में दुगुणे उत्तरका भाग देनेपर जो लब्ध होता है उसमें भी अनन्त सब जीवराशियां पायी जाती हैं; अतएव इसीसे वह जाना जाता है । परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर स्थानोंके स्पर्द्धक, वर्गणायें और परमाणु सिद्धांके अनन्तवें भाग मात्र होते हैं, इस सूत्र के साथ विरोध आता है । इस कारण १ मप्रतिपाठोऽयम् । श्र० श्रा० ताप्रतिषु, 'पदेसिय' इति पाठः । २ - प्रत्योः 'मुत्तरूवू'ण' इति पाठः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१४१ ण होदि त्ति घेत्तव्वं । सव्वजीवे हिंतो सिद्धेहितो च अणंतगुणहीणो अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणो जहण्णट्ठाणभागहारो होदि । एदेण जहण्णहाणे भागे हिदे अणंताणि फद्दयाणि अणंताओ वग्गणाओ कम्मपरमाणू च आगच्छति । तत्थ जहण्णहाणचरिमफद्दयाणि पक्खेवसलागमेत्ताणि घेत्तूण जहण्णहाणचरिमफद्दयस्स उवरि पंतियागारेण दृविय फद्दयसलागसंकलणं विरलिय गलिद 'सेसाविभागपडिच्छेदे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि फद्दयविसेसो पावदि । तत्थ एगरूवधरिदं घेत्तण पढमपडिरासीए पक्खित्ते पक्खेवस्स फद्दयं होदि । दोरुवधरिदं घेत्तण विदियपडिरासीए पक्खित्ते विदियफद्दयं होदि । तिण्णिरूवधरिदं घेत्तण तदियपडिरासीए पक्खित्ते तदियफद्दयं होदि । एवं णेयव्वं जाव चरिमफद्दए त्ति । णवरि पक्खेवफद्दयसलागमेगरूवधरिदं घेत्तूण चरिमपडिरासीए पक्खित्ते चरिमफद्दयं होदि । तदो पुवुत्तासेसदोसाभावादो एसो अत्थो घेत्तव्यो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे तं जहा-तुब्भेहि उत्तभागहारो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तसंखो ण घडदे, अणंतभागपरिवड्डी सव्वजीवेहि वड्डिदा त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। तदियाबहुक्यणतं सव्वजीवसई मोत्तण पंचमीए एगवयणंते गहिदे ण सुत्तविरोहो होदि सब जीवराशि वृद्धिका भागहार नहीं होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। किन्तु सब जीवों और सिद्धोंसे अनन्तगुणा हीन तथा अभवसिद्धोंसे अनन्तगुणा जघन्य स्थानका भागहार होता है। इसका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर अनन्त स्पर्द्धक, अनन्त वर्गणायें और अनन्त कर्मपरमाणु आते हैं। उनमें प्रक्षेपशलाकाओं प्रमाण जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्द्धकोंको ग्रहण करके जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके ऊपर पंक्तिके आकारसे स्थापित कर स्पर्द्धकशलाकाओंके संकलनका विरलन कर गलनेसे शेष रहे अविभागप्रतिच्छेदोंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति स्पर्द्धकविशेष प्राप्त होता है। उसमेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर प्रथम प्रतिराशिमें मिलानेपर प्रक्षेपक स्पर्द्धक होता है। दो अंकोंके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर द्वितीय प्रतिराशिमें मिलानेपर द्वितीय स्पर्द्धक होता है। तीन अंकोंके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर तृतीय प्रतिराशिमें मिलानेपर तृतीय स्पर्द्धक होता है । इस प्रकार अन्तिम स्पर्द्धक तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रक्षेपस्पर्धकशलाकाओं प्रमाण अंकोंके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर अन्तिम प्रतिराशिमें मिलानेपर अन्तिम स्पर्द्धक होता है । इस कारण पूर्वोक्त समस्त दोषोंसे रहित होनेके कारण इस मर्थको ग्रहण करना चाहिये ? समाधान-यहां इस शंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है-तुम्हारे द्वारा कहा गया सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र संख्यावाला भागहार घटित नहीं होता है, क्योंकि, उसे माननेपर "अनन्तभागवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिको प्राप्त होती है। इस सूत्रके साथ विरोध प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि सूत्र में स्थित 'सव्वजीव' शब्दको तृतीयाका बहुवचनान्त न लेकर पंचमीका १ अशाप्रत्योः 'गहिद' इति पाठः। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,७,२०४. त्ति बोत्तण जुत्तं, पंचमीए 'एगवयणते गहिदे वि सव्वजीवरासिस्सेव भागहारत्तवलंभादो। तं पि कुदो णव्वदे ? सर्वजीवादन्यस्य राशेरनिष्टत्वात्, ततः कविवक्षायामनन्तभागवृद्धिः सर्वजीवैर्वर्द्धिता, हेतुविवक्षायां सर्वजीवाद् वृद्धिः इति सिद्धम् । ण च सुत्तविरुद्धं बक्खाणं होदि, तस्स वक्खाणाभासत्तप्पसंगादो। किं च, एसो भागहारो अणुभागट्टाणबुड्डीए अण्णस्स, अण्णहा अणंतभागवड्डी सव्वजीवेहि वड्डिदा ति सुत्तेण सह विरोहादो। सावि अणुभागहाणवुड्डी ण सरिसधणपरमाणुउड्डीए होदि, जोगवड्डीदो वि अणुभागवुढिप्पसंगादो। ण च एवं; वेदणीयस्स उक्कस्सखेत्ते जादे तस्सेव भावो णियमा उक्कस्सो त्ति सुत्तवयणादो। उक्कड्डणाए अणुभागवुड्डिप्पसंगादो श्रोकड्डणाए अणुभागहाणिप्पसंगादो च ण सरिसधणियपरमाणुवुड्डीए अणुभागहाणवड्डी । जोगहाणम्मि सरिसधणियजीवपदेसाणमविभागपडिच्छेद उड्डीए जहा जोगहाणबुड्ढी गहिदा तहा एत्थ किण्ण घेप्पदे १ ण, णाणापोग्गलदव्वविदसत्तीणं एगजीवदयहिदसत्तीणं च एगत्तविरोहादो । ण च भिण्णदव्वहिदसत्तीणं तव्वड्डीणं वा एगत्तमस्थि, अइप्पसंगादो । एक वचनान्त ग्रहण करनेपर सूत्रके साथ विरोध नहीं होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, पंचमीका एकवचनान्त ग्रहण करनेपर भी सब जीवराशिके ही भागहारपना पाया जाता है। वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है? कारण कि सब जीवराशिसे भिन्न अन्य भागहार अनिष्ट है। इसलिये कर्तृत्व विवक्षामें अनन्तभागवृद्धि सब जीवों द्वारा वृद्धिको प्राप्त होती है और हेतु विवक्षामें सब जीवराशिके निमित्तसे वृद्धि होती है, यह सिद्ध है। दूसरे, सूत्रसे विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे उसके व्याख्यानाभास होनेका प्रसंग आता है । और भी-यह भागहार अनुभागस्थानवृद्धिसे अन्यका है, क्योंकि, अन्यथा “अनन्तभागवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिको प्राप्त होती है। इस सूत्रके साथ विरोध होता है। वह भी अनुभागस्थानवृद्धि समान धनवाले परमाणुओंकी वृद्धिसे नहीं होती है, क्योंकि, वैसा होनेपर योगवृद्धिसे भी अनुभागवृद्धिके होनेका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि "वेदनीय कर्मका उत्कृष्ट क्षेत्र हो जानेपर उसीका भाव नियमसे उत्कृष्ट होता है" ऐसा सूत्र वचन है। उत्कर्षणसे अनुभागकी वृद्धिका प्रसंग होनेसे तथा अपकर्षणसे अनुभागकी हानिका प्रसंग होनेसे भी समान धनवाले परमाणुओंकी वृद्धिसे अनुभागस्थानकी वृद्धि नहीं होती है। शंका-योगस्थानमें समान धनवाले जीवप्रदेशोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी वृद्धिसे जैसे योगस्थामकी वृद्धि ग्रहण की गई है वैसे यहां वह क्यों नहीं ग्रहण की जाती है ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, नाना पुद्गल द्रव्यों में स्थित शक्तियों और एक जीव द्रव्यमें स्थित शक्तियोंके एक होनेका विरोध है। परन्तु भिन्न द्रव्योंमें स्थित शक्तियां अथवा उनकी वृद्धियां एक नहीं हो सकतीं, क्योंकि, बैसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आता है। १ ताप्रतौ जुत्तं पि (त्ति), पंचमीए'। २ अप्रतौ 'रनिष्टत्वात्तद्राशीतः', श्राप्रती 'रनिष्टत्त्वात्तीतः' इति पाठः। ३ अाप्रत्योः 'सो' इति पाठः। ४ अ आप्रत्योः 'उकस्सा' इति पाठः।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १४३ किं च सरिसधणियपरमाणूहि अणुभागवुड्डीए संतीए सरिसधणियपरमाणुपरिक्खएण अणुभागहाणीए होदव्वं । ण च एवं, पढमाणुभागखंडयफालीए पदमाणाए वि' अणुभागढाणहाणिप्पसंगादो। सजोगिकेवलिम्हि गुणसेडीए उच्चागोदपरमाणुपोग्गलक्खंधेसु गलमाणेसु वि उच्चागोदाणुभागस्स उकस्सत्तुवलंभादो वा ण सरिसधणिएहि अणुभागवुड्डी । तदो पक्खेवफद्दयवग्गणाणं एसो भागहारो होदि, तव्वुड्डीए अणुभागट्टाणवुड्डिदंसणादो। ण च पक्खेवस्स एगोलीए हिदपरमाणणम विभागपडिच्छेदेहि ढाणवुड्डी होदि, भिण्णदव्वहिदाणं सत्तीणमेयत्तविरोहादो। केवलणाणावरणुकस्साणुभागादो वीरियंतराइयस्स तप्फद्दए हिंतो बहुदरफद्दयसंखस्स अणुभागेण समाणतण्णहाणुववत्तीदो वा एगोलिट्ठिदपरमाणूणमणुभागपडिच्छेदा णाणुभागवुड्डीए कारणं । तदो सरिसधणियाणुभागस्सेव एगोलीअणुभागस्स वि ण एसो भागहारो । किं तु एगपक्खेवचरिमवग्गणाए अणुभागवुड्डीए एसो भागहारो। पुणो एदेण भागहारेण जहण्णहाणसण्णिदएगपरमाणुअणुभागे भागे हिदे जहण्णट्ठाणस्स अणंतिमभागो आगच्छदि त्ति सधजीवरासिभागहारस्सुवरि जे उब्भाविददोसा ते सव्वे एत्थ पावेंति त्ति एसो पक्खोण णिरवजो। तदो सुत्तवइत्तादो सव्वजीवरासी चेव दूसरे, समान धनवाले परमाणुओंसे अनुभागवृद्धिके होनेपर समान धनवाले परमाणुओंकी हानिसे अनुभागकी हानि भी होनी चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर प्रथम अनुभागकाण्डककी फालिके नष्ट होनेके समयमें भी अनुभागस्थानकी हानिका प्रसंग अनिवार्य होगा। इसके अतिरिक्त सयोगकेवली गुणस्थानमें गुणश्रेणि द्वारा उच्च गोत्रके परमाणुओंसम्बन्धी पुद्गलस्कन्धाक गलनके समयमें भी चूंकि उच्चगोत्रका अनभाग उत्कर पा समान धनवाले परमाणुओंसे अनुभागकी वृद्धि होना संभव नहीं है। इस कारण यह भागहार प्रक्षेपस्पर्द्धकोंकी वर्गणाओंका है, क्योंकि, उनकी वृद्धिसे अनुभागस्थानकी वृद्धि देखी जाती है। प्रक्षेपके एक पंक्तिमें स्थित परमाणुओं सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे भी स्थानवृद्धि नहीं होती है, क्योंकि, भिन्न द्रव्योंमें स्थित शक्तियोंके एक होनेका विरोध है। अथवा, केवलज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनु. भागसे उसके स्पर्द्धकोंकी अपेक्षा अधिक स्पर्द्धकसंख्यावाले वीर्यान्तरायके अनुभागरूपसे समानता अन्यथा बननहीं सकती अतःएक पंक्तिमें स्थित परमाणुओंके अविभागप्रतिच्छेद अनुभागवृद्धिके कारण नहीं हो सकते । अतएव समानधनवाले अनुभागके समान एक पंक्ति रूप अनुभागका भी यह भागहार सम्भव नहीं है। किन्तु एक प्रक्षेप सम्बन्धी अन्तिम वर्गणाकी अनुभागवृद्धिका यह भागहार है। ___इस भागहारका जघन्य स्थान संज्ञावाले एक परमाणुके अनुभागमें भाग देनेपर चूंकि जधम्य स्थानका अनन्तवाँ भाग आता है, अतएव सब जीवराशि भागहारके ऊपर जो दोष दिये गये हैं वे सब यहाँ पाये जाते हैं । इसीलिये यह निर्दोष पक्ष नहीं है। इस कारण सूत्रोपदिष्ट १ अश्रापत्योः 'पढमठाणाए बि'; तापतौ 'पढमणाए वि' इति पाठः।... . . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०४. भागहारो होदि त्ति घेत्तव्वं । ण च पुव्वुत्तदोसा एत्थ संभवंति, जिणवयणे दोसाणमवट्ठाणाभावादो। तं जहा-ण ताव परमाणुफद्दयवग्गणासण्णिदजहण्णट्ठाणे विहजमाणे वुत्तदोसाण संभवो, भावविहाणे अभावेहि संववहाराभावादो। ण तत्थतणदुसंजोगादिसु उत्तदोससंभवो वि, अभावे उत्तदोसाणं भावम्हि उत्तिविरोहादो । एदेणेव कारणेण भावाणुभागसंजोगेण दव्वफद्दयवग्गणासु जादजहण्णहाणम्हि उत्तदोसा ण संति । ण चउत्थसंजोगम्हि उत्तदोसा वि संभवंति, फद्दयंतरेसु णिसेगाणमणब्भुवगमादो ओकड्डक्कड्डणाहि हाणि-बड्डीणमणब्भुवगमादो जहण्णफद्दयाणि संकलणागारेण जहण्णहाणस्सुवरि पवेसिय बिदियट्ठाणमुप्पाइजदि त्ति पइजामावादो सव्वजीवरासिपडिभागेगपक्खेवम्मि अणंताणं फद्दयाणमुवलंभादो। ण च वढेि मोत्तूण पुचिल्लाणुभागस्स फद्दयत्तं, तत्थ तल्लक्खणाभावादो । तम्हा सव्वजीवरासी भागहारो हिरवजो त्ति दहव्यो । तदो सव्वजीवरासिं विरलिय जहण्णट्ठाणसण्णिदएगपरमाणुअविभागं समखंड कादण दिण्णे रूवं पडि पक्खेवपमाणं पावदि । तत्थ एगपक्खेवं घेत्तूण जहण्णट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्डिाणं होदि । जम्हि वा तम्हि वा पक्खेवे अणंतेहि फद्दएहि होदव्वं । एत्थ पुण एको वि फद्दओ होनेसे सब जीवराशि ही भागहार होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त इस पक्षमें दिये गये पूर्वोक्त दोष यहाँ सम्भव नहीं है, क्योंकि, जिनवचनमें दोषोंका रहना अशक्य है वह इस प्रकारसे-परमाणु. स्पर्द्धक और वर्गणा संज्ञावाले जघन्य स्थानको विभक्त करने में जो दोष बतलाये गये हैं वे सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, भावविधानमें अभावोंसे संव्यवहारका अभाव है। वहाँ द्विसंयोगादिक भंगोंमें बतलाये गये दोषोंकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, अभावमें जो दोष बतलाये गये हैं उनके भावमें रहनेका विरोध है । इसी कारण भावानुभागसंयोगसे द्रव्य रूप स्पर्द्धकवर्गणाओंमें उत्पन्न हुए जघन्य स्थानमें उक्त दोष सम्भव नहीं है। चतुर्थ संयोगमें क दोष भी सम्भव नहीं हैं, क्योंकि स्पर्धकान्तरोंमें निषेकोंको स्वीकार नहीं किया गया है, अपकर्षण व उत्कर्षणके द्वारा हानि व वृद्धि नहीं स्वीकार की गई है, जघन्य स्पर्द्धकोंको संकलनके आकारसे जघन्य स्थानके ऊपर प्रवेश कराकर द्वितीय स्थान उत्पन्न कराया जाता है ऐसी प्रतिज्ञाका अभाव सब जीवराशिके प्रतिभाग रूप एक प्रक्षेपमें अनन्त स्पर्द्धक पाये जाते है। और वृद्धिको छोड़कर पूर्वके अनुभागके स्पद्धकरूपता भी नहीं बनती, क्योंकि, उसमें उसके लक्षणका अभाव है। इसलिये सब जीवराशि भागहार निर्दोष है, ऐसा समझना चाहिये। इस कारण सब जीवराशिका विरलनकर जघन्य स्थान संज्ञावाले एक परमाणुअविभागको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। उनमें एक प्रक्षेपको ग्रहण कर जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिलानेपर अनन्तभागवृद्धिका द्वितीय स्थान होता है। शंका-जिस किसी भी प्रक्षेपमें अनन्त स्पर्द्धक होने चाहिये । परन्तु यहाँ एक भी स्पर्द्धक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया . [१४५ पत्थि, कधमेदस्स पक्खेव जुञ्जदे ? ण, एत्थ वि अणंताणं फहयाणं उवलंमादो। तं जहा-पक्खेवसलागाओ विरलिय पक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे एककस्स स्वस्स एगेगफद्दयपमाणं पावदि । कधमेदस्स फद्दयववएसो ? अंतरिदण कमेण वडिदाविभागपडिच्छेदा सांतरा फद्दयं । तेणेत्थ एगरुवधरिदस्स फद्दयसण्णा । तं रूवूणं फद्दयंतरं । एत्थ एगफद्दयम्मि सगवग्गणासलागूणा सव्वजीवेहि सव्वागासादो वि सव्वपोग्गलादो वि अणतगुणमेत्ता अविभागपडिच्छेदा वग्गणंतरं । एदेहि अविभागपडिच्छेदेहि जहण्णट्ठाणादो एगुत्तरादिकमेण जुत्तपरमाण तिसु वि कालेसु सव्वजीवेसु णत्थि त्ति उत्तं होदि । वग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावो पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । तत्तो पहुडि णिरंतरं अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण वग्गणाओ गंतूण पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणा होदि । वग्गणसण्णिदाणमविभागपडिच्छेदाणमाधारभूदा परमाणू अत्थि त्ति वुत्तं होदि । एदं पक्खेवस्स जहण्णफद्दयं पडिरासिय विदियरुवधरिदे पक्खित्ते विदियफद्दयं होदि । एगरूवधरिदाविभागपडिच्छेदाणं जुत्ता फद्दयसण्णा, अंतरिदृण कमेण तत्थ वड्डिदंसणादो, नहीं है, फिर इसको प्रक्षेप मानना कैसे योग्य है ? समाधान नहीं, क्योंकि, यहाँ भी अनन्त स्पर्द्धक पाये जाते हैं यथा-प्रक्षेपशलाकाओंका विरलन कर प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक स्पद्धकका प्रमाण प्राप्त होता है। शंका-इसकी स्पर्द्धक संज्ञा कैप्ते है ? समाधान-अन्तर करके क्रमसे वृद्धिको प्राप्त हुए सान्तर अविभागप्रतिच्छेदोंको स्पर्द्धक कहा जाता है। इसी कारण यहाँ एक अंकके प्रति प्राप्त राशिकी स्पर्द्धक संज्ञा है। उसमेंसे एक अंक कम कर देनेपर स्पर्द्ध कोंका अन्तर होता है। यहाँ एक स्पर्द्ध कमें अपनी वर्गणाशलाकाओंसे कम सब जीवों, समस्त आकाश तथा सब पुद्गलोंसे भी अनन्तगुणे मात्र अविभाग प्रतिच्छेद वर्गणाओंके अन्तर होते हैं। अभिप्राय यह है कि इन अविभाग प्रतिच्छेदोंसे जघन्य स्थानसे उत्तरोत्तर एक एक अधिक क्रमसे युक्त परमाणु तीनों ही कालोंमें सब जीवों में नहीं हैं। वर्गणान्तरसे एक अविभागप्रतिच्छेदसे अधिक अनुभागका नाम प्रथम स्पर्द्ध ककी आदि वर्गणा है। उससे लेकर उत्तरोत्तर एक एक अविभाग प्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे वर्गणामें जाकर प्रथम स्पद्ध ककी अन्तिम वर्गणा होती है। वर्गणा संज्ञावाले अविभागप्रतिच्छेदोंके आधारभूत परमाणु हैं, यह उसका अभिप्राय है। प्रक्षेपके इस जघन्य स्पर्धकको प्रतिराशि करके उसमें द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त राशिको मिलानेपर द्वितीय स्पर्धक होता है। शंका-एक अंकके प्रति प्राप्त अविभागप्रतिच्छेदोंकी स्पर्द्धक संज्ञा योग्य है, क्योंकि भन्तरको प्राप्त होकर क्रमसे उनमें वृद्धि देखी जाती है। किन्तु जघन्य स्थानसे सहित स्पद्धककी छ. १२-१६. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०४. ण जहण्णहाणसहिदफद्दयस्स फद्दयसण्णा जुञ्जदे ? ण एस दोसो, सहचारेण अमेदेण वा जहण्णाणस्स फद्दयसहिदस्स फद्दयत्तब्भुवगमादो। विदियफद्दयस्स वि अणंतभागा वग्गणंतरं, सेसअणंतिमभागो बिदियफद्दयवग्गणाओ। कुदो ? एगपक्खेवन् तरफद्दयाणं फद्दयंतराणि सरिसाणि त्ति जिणोवदेसादो। एवं सव्वत्थ परूवेदव्वं । तदियफद्दयं घेत्तण विदियफद्दयस्सुवरि पक्खित्ते ओवचारियफद्दयं होदि । एवं गंतूण चरिमफद्दए ओवचारियदुचरिमफद्दयस्सुवरि पक्खित्ते पढममणंतभागव ड्डिहाणं होदि । एवमेगपक्खेवम्मि अणंताणं फद्दयाणं अत्थित्तवरूवणा कदा । किमटुं फद्दयपरूवणा कीरदे ? एदेसु हाणसण्णिदअविभागपडिच्छेदेसु एदेसिमविभागपडिच्छेदहाणाणमाधारभूदा परमाण अस्थि एदेसिं च णत्थि त्ति जाणावणटुं कीरदे। तेर्सि परूवणा सुत्ते किण्ण कदा ? ण, एगोलीअविणाभाविट्ठाणपरूवणाए कदाए एदम्हादो चेव तेसिमेगोलीहिदपरमाणूणमविभागपडिच्छेदाणं च अस्थित्तसिद्धीदो। सरिसधणियपरमाणुपरूवणा सुत्ते किण्ण कदा ? ण एस दोसो, कदा चेव । कुदो ? जेणेदं सुचं देसामासियं तेण पदेसपरूवणा वि एदेण सूचिदा चेव । तदो एत्थ पदेसपरूवणा स्पर्द्धक संज्ञा योग्य नहीं है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्पर्द्धक सहित जघन्य स्थानको सहचारसे अथवा अभेदसे स्पर्द्धक रूप स्वीकार किया गया है। द्वितीय स्पर्धकका भी अनन्त बहुभाग वर्गणान्तर और शेष अनन्तवाँ भाग द्वितीय स्पर्धककी वर्गणायें होती हैं, क्योंकि, एक प्रक्षेपके भीतर स्पद्धकोंके स्पर्द्ध कान्तर सदृश होते हैं, ऐसा जिन भगवानका उपदेश है। इसी प्रकार सब जगह प्ररूपणा करनी चाहिये। तृतीय पद्धकको ग्रहण करके द्वितीय स्पर्द्धकके ऊपर मिलानेपर औपचारिक स्पर्धक होता है। इस प्रकार जाकर अन्तिम स्पर्धकका औपचारिक द्विचरम स्पर्द्ध कके ऊपर प्रक्षेप करनेपर अनन्तभागवृद्धिका प्रथम स्थान होता है। इस प्रकार एक प्रक्षेपमें अनन्त स्पर्द्ध कोंके अस्तित्वकी प्ररूपणा की गई है शंका-स्पर्द्धकप्ररूपणा किसलिये की जा रही है ? समाधान-स्थान संज्ञावाले इन अविभागप्रतिच्छेदोंमें इन अविभागप्रतिच्छेदस्थानोंके आधारभूत परमाणु हैं और इनके नहीं है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये उक्त स्पर्द्धकप्ररूपणा की जा रही है। शंका-उनकी प्ररूपणा सूत्रमें क्यों नहीं की गई है ? समाधान नहीं, क्योंकि, एक श्रेणिके अविनाभावी स्थानोंकी प्ररूपणा कर चुकनेपर इससे ही उन एक श्रेणिमें स्थित परमाणुओं और अविभागप्रतिच्छेदोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। शंका-समान धनवाले परमाणुओंकी प्ररूपणा सूत्र में क्यों नहीं की गई है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वह कर ही दी गई है। क्योंकि यह सूत्र देशामर्शक है, अतएव प्रदेश प्ररूपणा भी इसीके द्वारा ही सूचित की गई है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४७ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया जहा बंधजहण्णहाणम्हि परूविदा तहा परूवेदव्या। णवरि संतकम्मपरमाणुं मोत्तण णवकबंधपरमाणूणमुक्कड्डिदपरमाणूहि सह णिसेगविण्णासकमो परूवेदव्वो। संतस्स पुण णिसेगविण्णासकमो णत्थि, ओकडुक्कड्डणाहि तस्स बंधसमए रचिदसरूवेण अवहाणाभावादो। एक्कम्हि परमाणुम्हि हिदअणुभागस्स हाणसण्णा ण घडदे, अणंतफद्दएहि वग्गणाहि विणा अणुभागट्ठाणासंभवादो १ ण एस दोसो, जहण्णबंधहाणस्स जहण्णफद्दयस्स जहण्णवग्गणमादि कादृण सव्ववग्गणाणं सव्वफद्दयाणं सव्वहाणाणं च एत्थेव उवलंभादो। जहा सदसंखा अक्खित्तएगादिसंखा तहा एदमणंतभागवडिहाणं पि सगकुक्खिणिक्खितअसेसहेहिमहाणं। तदो ण पुव्वुत्तदोसप्पसंगो त्ति । किं च, मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागो चउहाणीयो त्ति सुचसिद्धो। तस्स चउहाणसण्णा ण घडदे, सव्वधादित्तणेण एगहाणाभावादो। सम्मामिच्छत्ताणुभागस्स वि दुहाण ण जुञ्जदे, तस्स दारुसमाणहाणं मोत्तण अण्णहाणामावादो। अह देसघादिजहण्णफद्दयस्स जहण्णाविभागपडिच्छेदप्पहुडि सव्वाविमागपडिच्छेदा एग-दो-तिण्णि-चत्तारिहाणसण्णिदा सव्वे मिच्छत्तस्स उक्कस्सहाणम्मि अस्थि ति जदि तस्स चदुहाणचे उच्चदि तो एकम्हि हाणे हेडिमासेसट्ठाणफद्दयक इस कारण जिस प्रकारसे जघन्य बन्धस्थानमें प्रदेशप्ररूपणा की गई उसी प्रकारसे यहाँ भी उसको प्ररूपणा करनी चाहिये । विशेषता इतनी है कि सत्कर्मपरमाणुको छोड़कर नवकबन्धपरमाणुओं सम्बन्धी निषेकोंके विन्यासक्रमकी प्ररूपणा उत्कर्षण प्राप्त परमाणुओंके साथ करनी चाहिये। परन्तु सत्त्वका निषेक विन्यासक्रम नहीं है, क्योंकि अपकर्षण व उत्कर्षणके साथ उसके पन्धसमयमें रचित स्वरूपसे रहनेका अभाव है। शंका-एक परमाणुमें स्थित अनुभागकी स्थान संज्ञा घटित नहीं होती, क्योंकि, वर्गणाओंके बिना अनन्त स्पर्द्ध कोंसे अनुभागस्थानकी सम्भावना नहीं है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जघन्य बन्धस्थान और जघन्य स्पर्धककी जघन्य वर्गणासे लेकर सब वर्गणायें, सब स्पर्द्धक और सब स्थान यहाँ ही पाये जाते हैं। जिस प्रकार सौ संख्या एक आदि संख्याओं में गर्भित है, उसी प्रकार यह अनन्तभागवृद्धिस्थान भी अपनी कुक्षिके भीतर समस्त नीचेके स्थानोंको रखनेवाला है, इसलिये पूर्वोक्त दोषका प्रसंग नहीं आता है । दूसरे, मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुभाग चतुःस्थानीय है यह सूत्रसिद्ध है। उसकी चतुःस्थान संज्ञा घटित नहीं होती, क्योंकि सर्वघाती प्रकृति होनेसे उसके एक स्थानका अभाव है। सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागके भी द्विस्थानरूपता योग्य नहीं है, क्योंकि, उसके एक दार समान स्थानको छोड़कर अन्य स्थानोंका अभाव है। देशघाती जघन्य स्पद्ध कके जघन्य अविभागप्रतिच्छेदसे लेकर एक, दो, तीन व चार स्थान संज्ञायुक्त सब अविभागप्रतिच्छेद मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थानमें विद्यमान हैं, अतएव यदि उसके चतुःस्थानरूपता कही जाती है तो एक स्थानमें नीचेके समस्त स्थान स्पर्द्धक और वर्गणाओंके अस्तित्वको क्यों नहीं कहते; क्योंकि, उससे यहाँ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,२०४ ग्गणाणमस्थि किण्ण बुच्चदे, विसेसाभावादो। __'एसा अणंतभागवड्डी उक्कड्डणादो ण होदि, बंधादो चेव होदि । तं जहा-जहण्णकसायोदयहाणपक्खेवुत्तरअणुभागबंधज्झवसाणहाणेण जेण वा तेण वा जोगेण वड्डिदूण बंधे अणंतभागवड्डिहाणं उप्पजदि। संपहि एदस्स णवगबंधस्स फद्दयरचणं कस्सामो। तं जहा--जहण्णहाणादो अणुमागेण अहियपरमाणू समयपबद्धम्मि अवणिय पुध 8वेदूण पुणो जहण्णहाणसेसपरमाण सन्वे घेत्तण रचणाए कीरमाणाए जहण्णहाणजहण्णवग्गणप्पहुडि जाव तस्सेव उकस्सवग्गणा इत्ति ताव एदेसु सरिसधणिया होदूण सव्वे पदंति । पुणो अवणिदपरमाणू अणंता अस्थि, तेसु पक्खेवजहण्णफद्दयमेत्तपरमाणू घेत्तण जहासरूवेण जहण्णहाणचरिमफद्दयस्स उवरिमे देसे हविदे पक्खेवपढमफद्दयं समुप्पजदि । पुणो तस्सेव विदियफद्दयमेत्तपरमाणू घेत्तूण पक्खेवपढमफद्दयस्सुवरि अंतरमुल्लंघिय ढविदे विदियफद्दयमुप्पजदि । एवं पुणो पुणो घेत्तण फद्दयरचणा कायव्वा जाव पुध हवियपरमाणू समत्ता त्ति । एत्थ एगपरमागुडिदउकस्साणुभागो ढाणं णाम । एत्थ जहण्णहाणे अवणिदे सेसं वड्डी होदि । एदिस्से पमाणं सन्यजीवरासिणा जहण्णहाणे भागे हिदे लद्धमत्तं होदि । कोई विशेषता नहीं है। यह अनन्तभागवृद्धि उत्कर्षणसे नहीं होती है, केवल बन्धसे ही होती है। यथाजघन्य कषायोदयस्थान प्रक्षेपसे अधिक अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानसे व जिस किसी भी योगसे वृद्धिंगत हो बन्धमें अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। __ अब इस नवकबन्धकी स्पर्द्धकरचनाको करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्थानसे अनुभागमें अधिक परमाणुओंको समयप्रबद्धमेंसे कम करके पृथक् स्थापित कर फिर जघन्य स्थानके शेष सब परमाणुओंको ग्रहण कर रचनाके करनेपर जघन्य स्थानकी जघन्य वर्गणासे लेकर उसीकी उत्कृष्ट वर्गणा तक इनमें समान धन युक्त होकर सब गिरते हैं। फिर कम किये गये जो अनन्त परमाणु हैं उनमेंसे प्रक्षेपरूप जघन्य स्पर्द्धक प्रमाण परमाणुओंको ग्रहण कर उन्हें यथाविधि जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पद्ध कके उपरिम देशके ऊपर स्थापित करनेपर प्रक्षेप रूप प्रथम स्पर्द्धक उत्पन्न होता है। फिर उसीके द्वितीय स्पद्धक प्रमाण परमाणुओंको ग्रहण कर प्रक्षेप रूप प्रथम स्पर्द्ध कके ऊपर अन्तरको लाँधकर स्थापित करनेपर द्वितीय स्पर्द्धक उत्पन्न होता है । इस प्रकार बार बार ग्रहण करके पृथक् स्थापित परमाणुओंके समाप्त होने तक स्पद्धक रचना करनी चाहिये। यहाँ एक परमाणुमें स्थित उत्कृष्ट अनुभागका नाम स्थान है। इसमेंसे जघन्य स्थानको कम कर देनेपर शेष वृद्धि होती है। इसका प्रमाण सब जीवराशिका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना मात्र है। १ ताप्रतौ 'जा एसा' इति पाठः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१४६ संपहि पढममणंतभागवड्डिहाणं सव्वजीवरासिणा खंडिय लद्धे पडिरासिदपढमअणंतभागवड्डिहाणे पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्डिहाणं होदि । पुव्विल्लहाणंतरादो एवं हाणंतरं अणंतभागब्भहियं । केत्तियमेत्तेण ? सव्वजीवरासिवग्गेण जहण्णहाणे भागे हिदे जं लद्धं तेत्तियमेशेण । अणंतरहेट्टिमहाणपक्खेवफद्दयंतरादो एदस्स पक्खेवस्स फद्दयंतरमगंतभागब्महियं । कुदो ? पुविल्लविहन्जमाणरासीदो संपहि [ य-] विहजमाणरासीए अणंतभागब्भहियत्तादो अणंतरहेहिमपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो संपहियपक्खेवफद्दयसलागाणं तुल्लत्तादो । पक्खेवफद्दयसलागाणं तुल्लनं कधं णवदे ? सव्वेसिमणंतभागवड्डीणं पक्खेवफद्दयसलागाओ अण्णोणं समाणाओ, असंखेजभागवड्डिहाणपक्खेवाणं पि फद्दयसलागाओ अण्णोण्णेहि तुल्लाओ, संखेजभागवड्डिहाणपक्खेवफद्दयसलागाओ वि परोप्परं तुलाओ, एवं संखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणवड्डि-अणंतगुणवड्डिफद्दयसलागाणं पि तुल्लत्तं वत्तव्यमिदि जिणवयणादो। अणंतभागवड्डीसु हेहिमपक्खेवफद्दयंतरादो उवरिमपक्खेवफदयंतरमणंतभागभहियमिदि वयणादो वा णव्वदे ? फद्दयसलागासु विसरिसासु संतासु कधमणंतभागब्भहियचंण घडदे ? उच्चदे-रूवाहियसव्वजीवरासिणा अणंतरहेडिमअणंतमा अब प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानको सब जीवराशिसे खण्डित कर जो लब्ध हो उसे प्रति. राशिभूताप्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें मिलानेपर द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। पूर्वके स्थानान्तरसे यह स्थानान्तर अनन्तवें भागसे अधिक है। कितने मात्रसे अधिक है ? सब जीवराशिके वर्गका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्रसे अधिक है। अनन्तर अधस्तन स्थान सम्बन्धी प्रक्षेप रूप स्पर्द्धकके अन्तरसे इस प्रक्षेपके स्पर्द्धकका अन्तर अनन्तवें भागसे अधिक है, क्योंकि, पूर्वोक्त विभज्यमान राशिसे इस समयकी विभज्यमान राशि अनन्तवें भागसे अधिक है, तथा अनन्तर अधस्तन प्रक्षेप स्पर्द्ध कशलाकाओंसे इस समयकी प्रक्षेप स्पर्द्धकशलाकायें तुल्य हैं। शंका-प्रक्षेप स्पर्द्ध कशलाकाओंकी तुल्यता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-सब अनन्तभागवृद्धियोंकी प्रक्षेपस्पर्द्ध कशलाकायें परस्परमें समान हैं, असं. ख्यातभागवृद्धिस्थानों सम्बन्धी प्रक्षेपोंकी भी स्पर्द्ध कशलाकायें परस्परमें तुल्य हैं, संख्यातभागवृद्धिग्थानों सम्बन्धी प्रक्षेपोंकी स्पद्ध कशलाकायें भी परस्पर तुल्य हैं। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि सम्बन्धी स्पर्द्धकशलाकाओंकी भी समानता बतलानी चाहिये। इस जिनवचनसे उनकी तुल्यता जानी जाती है। अथवा, वह "अनन्तभागवृद्धियोंमें अधस्तन प्रक्षेप स्पद्धकोंके अन्तरसे उपरिम प्रक्षेप स्पर्द्धकोंका अन्तर अनन्तवें भागसे अधिक है। इस वचनसे जानी जाती है। शंका-स्पर्द्धकशलाकाओंके विसदृश होनेपर अनन्तवें भागसे अधिकता कैसे घटित नहीं होती है ? समाधान-इसका उत्तर कहते हैं। अनन्तर अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानमें एक अधिक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [ ४, २, ७, २०४. ५० ] वड्डाणे भागे हिदे हाणंतरं होदि । पुणो तं चेव' फद्दयसलागाहि खंडिदेगखंड फद्दयंतरं होदि । पुणो तहि चेव' ट्ठाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे उवरिमट्ठाणंतरं होदि । पुणो तम्हि द्वाणंतरे उवरिमफद्दयसलागाहि भागे हिदे तत्थतणफद्दयंतरं होदि । संपहि पुव्विलफद्दयस लागाहिंतो उवरिमट्ठाणफद्दयसलागाओ जदि [वि] एगरूवेण अहियाओ होंति तो वि पुव्विल्लभागहारादो उवरिमाणफद्दयंतरभागहारो अनंतभागन्महियो ति हेडिमफद्दयंतरादो उवरिपक्खेवफद्दयंत रमणंतभागहीणं होज । ण च एवमणग्भुवगमादो । तदो सव्वपक्वाणं फक्ष्यसलागाओ सजादिपक्खेवसलागाहि सरिसाओ त्ति घेत्तव्वं । सेसं पुव्वं व वक्तव्वं || सव्वजीवरासिणा विदियअनंतभागवड्ढिट्ठाणे भागे हिदे जं लद्धं तं तम्मि चेव पडिरासिय पक्खिते तदियमणंतंभागवडिद्वाणं होदि । एदं द्वाणंतरमणंतरादीदट्ठाणंतरादो अनंतभागभहियं । एदम्हि द्वाणंतरे फद्दयसलागाहि भागेर हिदे फद्दयंतरं होदि । एदं च फहयंतरं पुव्विलफद्दयंतरादो अनंतभागन्भहियं । कुदो ? फद्दयसलागाहि तुल्लतादो । पुण सव्वजीवरासिणा तदियअनंतभागवड्ढिट्ठाणे भागे हिदे जं लद्धं तं तम्हि चेव पडिरासिय पक्खित्ते च उत्थमणंतभागवड्ढिड्डाणं होदि । एत्थ विद्वाणंतरफद्दयंतराणं परिक्खा सब जीवराशिका भाग देनेपर स्थानान्तर होता है । फिर उसी स्थानान्तरको स्पर्द्ध कशलाकाओं से खण्डित करनेपर एक खण्ड प्रमाण स्पर्द्ध कान्तर होता है । फिर उसी स्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर ऊपरका स्थानान्तर होता है । फिर उस स्थानान्तर में उपरिम स्पर्द्ध कशलाका ओंका भाग देनेपर वहांका स्पद्ध कान्तर होता है । अब पूर्वकी स्पद्ध कशलाकाओंसे उपरिम स्थानकी स्पर्द्ध कशलाकायें यद्यपि एक अंकसे अधिक होती हैं तो भी पूर्वके भागहारसे उपरिम स्थान सम्बन्धी स्पर्द्ध कान्तरका भागहार चूंकि अनन्तवें भागसे अधिक है । अतएव अधस्तन स्पद्ध कान्तर से उपरिम प्रक्षेपस्पद्ध कान्तर अनन्तवें भागसे हीन होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार नहीं किया गया है । इस कारण सब प्रक्षेपोंकी स्पर्द्धकशलाकायें सजाति प्रक्षेप स्पर्द्ध कशलाकाओंके समान हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । शेष कथन पहिलेके ही समान कहना चाहिये । सब जीवराशिका द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसे उसमें ही प्रतिराशि करके मिलानेपर तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है । यह स्थानान्तर अनन्तर अतीत स्थानान्तरकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे अधिक है । इस स्थानान्तर में स्पर्द्धक शलाकाओं का भाग देनेपर स्पर्द्धकान्तर होता है । यह स्पर्द्धकान्तर पूर्वके स्पर्द्धकान्तरकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे अधिक है, क्योंकि, वह स्पर्द्धकशलाकाओंके समान है । फिर सब जीवराशिका तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान में भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसीमें प्रतिराशि करके मिलानेपर चतुर्थ अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। यहांपर भी स्थानान्तर और १ - प्रत्योः 'तञ्चैव' इति पाठः । २ प्रतिषु तम्हि चेव फद्दयसलागहि खंडिदेगखंड फद्दयंतर होदि । पुण तहि चेव हाणे इति पाठः । ३ ताप्रतौ 'फड्डयसलागाहि [ दे ] भागे' इति पाठः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५१ पुव्वं व कायया । एवं णेयव्वं' जाव कंदयमेत्तअणंतभागवड्डि-हाणाणि समत्ताणि ति । असंखेजभागपरिवड्डी काए परिवड्डीए ? ॥२०५॥ एदं पुच्छासुत्तं जहण्णपरित्तासंखेजमादि कादण जाव उक्कस्समसंखेजासंखेज्जे त्ति एदाणि 'असंखेज्जसंखाहाणाणि अवलंबिय हिदं। एवं पुच्छिदे उत्तरसुत्तेण परिहारो उच्चदे असंखेजलोगभागपरिवड्डीए एवदिया परिवढी ॥२०६॥ असंखेज्जलोग इदि वुत्ते जिणदिट्ठभावाणमसंखेज्जाणं लोगाणं गहणं कायव्वं, विसिट्ठोवएसाभावादो । पढमअणंतभागवाड्डिकंदयस्स चरिमअणंतभागवड्डिहाणे असंखेज्जलोगेहि भागे हिदे भागलद्धे तम्हि चेव पक्खित्ते पढमअसंखेज्जभागवड्डिाणमुप्पज्जदि । एसो पक्खेवो अविभागपडिच्छेदूणो ढाणंतरं होदि । एदं द्वाणंतरं हेडिमहाणंतरादो अणंतगुणं । को गुणगारो ? असंखेज्जलोगेहि ओवट्टिय स्वाहियसव्वजीवरासी । असंखेज्जभागवडिपक्खेवं ठविय एत्थतणफद्दयसलागाहि ओवट्टिदे असंखेज्जभागवविपक्खेवस्स फद्दयंतरं होदि । एदं फद्दयंतरं हेहिमपक्खेवफइयंतरादो अणंतगुणं । अणंतगुणतं कधं स्पर्द्धकान्तरकी परीक्षा पहिलेके ही समान करनी चाहिये। इस प्रकार काण्डक मात्र अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके समाप्त होने तक ले जाना चाहिये। असंख्यातभागवृद्धि किस वृद्धिके द्वारा होती है ? ॥ २०४ ॥ यह पृच्क्षासूत्र जघन्य परीतासंख्यातसे लेकर उत्कृष्ट असंख्यातसंख्यात तक इन असंख्यात संख्याके स्थानोंका अवलम्बन करके स्थित है इस प्रकार पूछनेपर उत्तर सूत्रसे उसका परिहार कहते हैं उक्त वृद्धि असंख्यात लोक भागवृद्धि द्वारा होती है। इतनी मात्र वृद्धि होती है । २०५॥ ___'असंख्यात लोक' ऐसा कहनेपर जिन भगवानके द्वारा जिनका स्वरूप देखा गया है ऐसे असंख्यात लोकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इस सम्बन्धमें विशिष्ट उपदेशका अभाव है। प्रथम अनन्तभागवृद्धिकाण्डकके अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें असंख्यात लोकोंका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसको उसीमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिका प्रथम स्थान उत्पन्न होता है। यह प्रक्षेप एक अविभागप्रतिच्छेदसे रहित होकर स्थानान्तर होता है। यह स्थानान्तर अधस्तन स्थानान्तरसे अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोकोंसे अपवर्तित एक अधिक सब जीवराशि है। असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको स्थापित करके यहांकी स्पर्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपका स्पर्धकान्तर होता है। यह स्पर्धकान्तर अधस्तन प्रक्षेपके स्पर्धकान्तरसे अनन्तगुणा है। १ अप्रतौ "एवं कोणेयवं' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'असंखेज्जासंखा' इति पाठः। ३ ताप्रतौ'-परिवडी[ए, इति पाठः। ४ मप्रतिपाटोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'पडिछेदाणो' ताप्रती 'पडिच्छेदाणं' इति पाठः। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०६. णव्वदे ? भागहारमाहप्पादो। तं जहा-हेहिमअणंतभागवड्डिफद्दयसलागाहि स्वाहियसव्वजीवरासिं गुणेदूण चरिमअणंतभागवड्डिहाणे भागे हिदे फद्दयंतरं होदि । अणंतभागवड्डिपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो असंखेज्जभागवड्डिपक्खेवफद्दयसलागाओ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण ? असंखेज्जदिमागमेण । तत्तो संखेज्जमागवडिपक्खेवफद्दयसलागाओ विसेसाहियायो । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जदिमागमेण । तत्तो संखेज्जगुणवविफद्दयसलागाओ संखेज्जगुणाओ। को गुणगारो १ संखेज्जा समया। तत्तो असंखेज्जगुणवड्डीए फद्दयसलागाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? असंखेज्जसमया । अणंतगुणवडिफद्दयसलागाओ अणंतगुणाओ । पुणो एत्थ असंखेज्जभागवडिपक्खेवसलागाहि असंखेज्जलोगे गुणिय चरिमअणंतभागवड्डिाणे भागे हिदे असंखेज्जभागवड्डिपक्खेवस्स फद्दयंतरं होदि । हेड्डिमफद्दयंतरेण उवरिमफद्दयंतरे भागे हिदे जं भागलद्धं सो गुणगारो । एदम्हादो असंखेजभागवडिट्ठाणादो उवरिमकंदयमेत्तअणंतभागवड्डिहाणाणं परूवणा पुवं व कायवा। णवरि असंखेजभागवड्डिफद्दयंतरहाणंतरेहिंतो उवरिमअणंतभागवडिपक्खेवाणं द्वाणंतरफद्दयंतराणि अणंतगुणवड्डिहीणाणि । हेट्ठिमकंदयमेत्तमणंतभागवड्डिहाणाणं 'हाणंतरफद्दयंतरेहितो शंका-वह उससे अनन्तगुणा है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह भागहारके माहात्म्यसे जाना जाता है। यथा-अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्पर्धक शलाकाओंसे एक अधिक सब जीवराशिको गुणित करके अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेपर स्पर्धकान्तर होता है। अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकाओंसे असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकायें विशेष अधिक हैं। कितने मात्र विशेषसे वे अधिक हैं? वे असंख्यातवें भाग मात्रसे अधिक हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकायें विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे वे अधिक हैं ? वे संख्यातवें भागमात्रसे अधिक हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकायें संख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिकी स्पर्धकलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात समय है। उनसे अनन्तगुणवृद्धिकी स्पर्धकालाकायें अनन्तगुणी हैं। पुनः यहां असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपकी शलाकाओंसे असंख्यात लोकोंको गुणित करके अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेपर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपका स्पर्धकान्तर होता है। अधस्तन स्पर्धकान्तरका उपरिम स्पर्धकान्तरमें भाग देनेपर जो लब्ध हो वह गुणकार होता है। इस असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपरके काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंकी प्ररू समान करनी चाहिये । विशेष इतना है कि असंख्यातभागवृद्धिके स्पर्धकान्तरों और स्थानान्तरोंसे उपरिम अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर अनन्तगुणवृद्धिसे हीन हैं। काण्डक प्रमाण अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तरों और स्पधकान्तरोंसे ऊपरके काण्डक प्रमाण १ अप्रतौ 'अणंतर-' इति पाठः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २०६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५३ उवरिमकंदयमेत्तअणंतभागवड्डिहाणाणं हाणंतरफद्दयाणि असंखेज्जभागब्भहियाणि । एत्थ कारणं चिंतिय वत्तव्वं । विदियकंदयमेत्तअणंतभागवडिहाणाणं चरिमहाणे असंखेज्जलो. गेहि भागे हिदे जं लद्धं तं तम्हि चेव पडिरासिय पक्खित्ते 'विदियमसंखेज्जभागववि. ट्ठाणं होदि । एदम्हादो पक्खेवादो एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे हाणंतरं होदि । एदं हाणंतरं हेहिमासेसअणंतभागवड्डिहाणंतरेहितो अणंतगुणं । उवरिमासेसअणंतभागवड्डिाणंतरेहितो वि अणंतगुणमेव । एत्थ कारणं जाणिय परूवेदव्वं । हेहिमअसंखेज्जभागवड्डिहाणंतरादो एदं ठाणंतरमसंखेजभागब्भहियं । [ केत्तियमेत्तेण ? ] एगअसंखेजभागवड्डिपक्खेवस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । एवं फद्दयंतराणं परिक्खा कायव्वा । एवं कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डीणं जाणिदूण परूवणा कायव्वा । णवरि हेहिमअणंतभागवड्डिट्ठाणंतरेहितो असंखेजभागवड्डिविसयम्हि हिदअणंतभागवड्डिटाणाणं हाणंतरफद्दयंतराणि असंखेजभागभहियाणि । संखेजभागवड्डिविसयम्मि द्विदाणं संखेजभागभहियाणि । संखेजगुणवड्डिविसयम्मि हिदाणं संखेजगुणब्भहियाणि । असंखेजगुणवड्डिविसयम्मि हिदाणं असंखेजगुणाणि । अणंतगुणवड्डिविसयम्मि हिदाणमणंतगुणाणि । एवमसंखेजभागवड्डि-संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-[ असंखेज्जगुणवड्डि-] अणंतगुणवड्डिहाणाणं अनन्तभागवृद्धिस्थानांके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर असंख्यातवें भागसे अधिक हैं। यहां कारणको विचारकर कहना चाहिये । काण्डक प्रमाण द्वितीय अनन्तभागवृद्धिके स्थानोंमेंसे अन्तिम स्थानमें असंख्यात लोकोंका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसीमें प्रतिराशि करके मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिका द्वितीय स्थान होता है। इस प्रक्षेपमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्थानान्तर होता है । यह स्थानान्तर अधम्तन समस्त अनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरों से अनन्तगुणा है । वह उपरिम समत्त अनन्तभागवृद्विस्थानांसे भी अनन्तगुणा ही है। यहां कारण जानकर बतलाना चाहिये। अधस्तन असंख्यातभागवृद्धिस्थानान्तरसे यह स्थानान्तर असंख्यातवें भागसे अधिक है। । कितने मात्रसे वह अधिक है?] एक असंख्यातभागवृद्धि प्रक्षेपके असंख्यातवें भाग मात्रसे अधिक है। इस प्रकार स्पर्धकान्तरोंकी परीक्षा करनी चाहिये । इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धियोंकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि अघस्तन अनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे असंख्यातभागवृद्धिके विषयमें स्थित अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तर और स्पर्द्वकान्तर असंख्यातवें भागसे अधिक है । संख्यातभागवृद्धिके विषयमें स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर संख्यातवें भागसे अधिक हैं। संख्यातगुणवृद्धिके विषय में स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर संख्यातगुणे अधिक हैं। असंख्यातगुणवृद्धिके विषयमें स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर असंख्यातगुणे हैं । अनन्तगुणवृद्धि के विषयमें स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर अनन्तगुणे हैं । इस प्रकार असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, [असंख्यातगुणवृद्धि ] १ ताप्रतौ 'लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पडिरासिय विदिय- इति पाठः । २ प्रतिषु 'वड्डिाणाणं' इति पाठः। छ. १२-२०. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०.७ हाणंतरफद्दयंतराणंच पंच-चदु-तिण्णि-दु-एगविहवड्डीयो जहाकमेण वत्तव्याओ। एवमसंखेन्जलोगमेत्तछहाणम्मि द्विदअसंखेज्जभागवड्डीणं परूवणा कायव्वा । संखेजभागवड्डी काए परिवड्डीए ॥२०७ ।। एदं पुच्छासुत्तं दोण्णि आदि कादूण जाव उक्कस्ससंखेज्जयं ति ताव एदाणि संखेज्जवियप्पट्टाणाणि अवेक्खदे' । एदस्स णिण्णयत्थं उत्तरसुत्तं भणदि जहण्णयस्स असंखेजयस्स रूवूणयस्स संखेजुभागपरिवड्ढी, एवदिया परिवड्डी ॥ २०८॥ 'जहण्णयस्स असंखेजयस्स रूवूणयस्स' इदि भणिद उकस्सं संखेजयं घेत्तव्वं। उज्जुएण उक्कस्ससंखेन्जेण इत्ति अभणिदूण सुत्तगउरवं कादण किमटुं उच्चदे 'जहण्णयस्स' असंखेजयस्स रूवणयस्स' इत्ति? उक्कस्ससंखेजयस्स पमाणेण सह संखेजभागवड्डीए पमाणपरूवणटुं । परियम्मादो उक्कस्ससंखेज्जयस्स पमाणमवगदमिदि ण पञ्चवट्ठाणं काहुँ जुत्तं, तस्स सुत्तत्ताभावादो । एदस्स णिस्सेसस्स आइरियाणुग्गहणेण पदविणिग्गयस्स एदम्हादो पुधत्तविरोहादो वा ण तदो उकस्ससंखेजयस्स पमाणसिद्धी । एदेण उक्कस्ससंखेजेण रूवाहियकंदएण गुणिदकंदयमेत्ताणमणंतभागवड्डीणं चरिमअणंतभाणवड्डिहाणे भागे हिदे जं भागऔर अनन्तगुणवृद्धि स्थानोंके स्थानान्तरों और स्पर्धकान्तरोंके यथाक्रमसे, पांच, चार, तीन, दो और एक वृद्धियां कहनी चाहिये । इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षटस्थानमें स्थित असंख्यात. भागवृद्धियों की प्ररूपणा करनी चाहिये। संख्यातभागवृद्धि किस वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त होती है ? ॥ २०७॥ यह पृच्छासूत्र दो से लेकर उत्कृष्ट संख्यात तक इन संख्यात विकल्पोंकी अपेक्षा करता है इसके निर्णयके लिये आगेका सूत्र कहते हैं एक कम जघन्य असंख्यातको वृद्धिसे संख्यातभागवृद्धि होती है। इतनी वृद्धि होती है ॥ २०८ ॥ 'एक कम जघन्य असंख्यात' के कहनेपर उत्कृष्ट संख्यातको ग्रहण करना चाहिये । शंका-सीधेसे उत्कृष्ट संख्यात न कहकर सत्रको बड़ा करके 'एक कम जघन्य असंख्यात' ऐसा किसलिये कहा जा रहा है ? समाधान उत्कृष्ट संख्यातके प्रमाणके साथ संख्यातभागवृद्धिके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिये वैसा कहा गया है । यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण परिकर्मसे अवगत है, तो ऐसा प्रत्यवस्थान करना योग्य नहीं है, क्योंकि, उसमें सूत्ररूपता नहीं है। अथवा, आचायके अनुग्रहसे परिपूर्ण होकर पद रूपसे निकले हुए इस परिकमके चूंकि इससे पृथक् होनेका विरोध है, अतएव भी उससे उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण सिद्ध नहीं होता। इस उत्कृष्ट संख्यातका एक अधिक काण्डकसे गुणित काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंसे १ अ-या-ताप्रतिषु 'उवेक्खदे' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'वुच्चदे १ जहण्णयस्स' इति पाठः। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५५ लद्धं तं तम्हि चेव पडिरासिय पक्खित्ते पढमसंखेजभागवड्डिाणमुप्पजदि । एदम्हादो एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे द्वाणंतरं होदि । एदं हेहिमअणंतभागवड्डिहाणंतरेहितो अणंतगुणं । असंखेज भागवड्डिहाणंतरेहितो असंखेजगुणं । उवरिमअगंतगुणवड्डीए हेहिमअणंतभागवड्डिाणंतरेहिंतो अणंतगुणं । असंखेजगुणवड्डीए हेढिमअसंखेजभागवड्डिहाणत. रेहितो असंखेजगुणं । अणंतगुणवड्डीए हेहिमसंखेज भागवड्डिट्ठाणंतरेहिंतो संखेजभागहीणं संखेजगुणहीणं असंखेजगुणहीणं वा । एवं फद्दयंतराणं पि थोवबहुत्तं जाणिय वत्तव्वं । असंखेजलोगमेत्तछहाणभंतरे हिदसंखेजभागवड्डीणमेवं चेव परूवणा कायव्वा । संखेनगुणपरिवढी काए परिवड्डीए ? ॥२०६॥ सुगमं । जहण्णयस्स असंखेजयस्स रूवूणयस्स संखेजगुणपरिवड्डी, एवदिया परिवडी ॥२१०॥ ___ कंदयमेत्तसंखेज्जमागवड्डीयो गंतूण पुणो उवरि संखेज्जभागवड्डिविसयम्मि हिदचरिमअणंतभागवड्डिहाणे उक्कस्ससंखेजेण गुणिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । पुणो हेहिमट्ठाणम्मि पडिरासिदम्मि इमाए वड्डीए पक्वित्ताए पढमं संखेज्जगुणवड्डिहाणं होदि । उकस्ससंखेज्जमेत्तउव्वंकेसु एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे होणंतरं [होदि। एदं ढाणंतरं]हेडिमउव्वंकट्ठाणंअन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसमें ही प्रतिराशि करके मिलानेपर संख्यातभागवृद्धिका प्रथम स्थान उत्पन्न होता है। इसमेंसे एक अविभाग तिच्छेदके कम करनेपर स्थानान्तर होता है। यह अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा है। असंख्यात. भागवृद्धि स्थानान्तरोंसे असंख्यातर णा है। उपरिम अनन्तगुणवृद्धिके अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा है। असंख्यातगुणवृद्धिके अधस्तन असंख्यातभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा है । अनन्तगुणवृद्धिके अधस्तन संख्यातभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे संख्यातवें भागसे हीन, संख्यातगुणाहीन अथवा असंख्यातगुणा हीन है। इस प्रकार स्पद्धकान्तरोंके भी अल्पबहत्वको जानकर कहना चाहिये। असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंके भीतर स्थित संख्यातभागवृद्धियोंकी इसी प्रकार ही प्ररूपणा करनी चाहिये। संख्यातगुणवृद्धि किस वृद्धिसे वृद्धिंगत है ? ॥ २० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह एक कम जघन्य असंख्यातकी वृद्धिसे वृद्धिंगत है। इतनी मात्र वृद्धि होती है॥ २१० ॥ ___ काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँ जाकर फिर आगे संख्यातभागवृद्धिके विषयमें स्थित अन्तिम अनन्तभागवृद्धिग्थानको उत्कृष्ट संख्यातसे गुणित करनेपर संख्यातगुणवृद्धि होती है । फिर प्रतिगशिभूत अधस्तन स्थानमें इस वृद्धिको मिलानेपर प्रथम संख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण ऊवकोंमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्थानान्तर होता है। यह Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २११. तरेहिंतो अणंतगुणं। चत्तारिअंकट्ठाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । पंचंकट्ठाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । उवरिमअहंक-हेहिमउव्वंकहाणंतरेहितो अणंतगुणं । पढमकहाणम्हि उवरिमपढमसत्तंकादो हेडिमचत्तारिअंकहाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । विदियसंखेजगुणवड्डीए हेट्टिमसंखज्जमागवड्डिहाणंतरेहिंतो संखेज्जगुणं संखेज्जभागहीणं संखेज्जगुणहीणं असंखेज्जगुणहीणं वा । इमं चेव संखेज्जगुणवड्ढेि उक्कस्ससंखेज्जमेत्तउव्वकं संखेज्जगुणवड्डिअभंतरफद्दयसलागाहि ओवट्टिय रूवे अवणिदे फद्दयंतरं होदि । एदं हेहिमअणंतभागवड्ढिपक्खेवफद्दयंतरेहितो अणंतगुणं । चत्तारिअंकफद्दयंतरेहितो असंखेज्जगुणं। पंचंकपक्खेवफद्दयंतरेहितो असंखेज्जगुणं । एवमुवरिमफद्दयंतरेहि वि सह जाणिदण सण्णियासो काययो । एवमसंखज्जलोगमेत्तछटाणभंतरे हिदसंखेज्जगुणवड्डीणं परूवणा कायव्वा । एत्थ गंथबहुत्तभएण जपण लिहिदं तमेदेण उवदेसेण भणिय गेण्हियव्वं । असंखेजगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए ॥२१॥ सुगमं । असंखेज़लोगगुणपरिवड्डी, एवदिया परिवड्डी ॥२१२॥ कंदयमेत्तछअंकेसु गदेसु समयाविरोहेण वड्डिदउवरिमछअंकविसयम्मि विदचरिमउव्वंके असंखज्जेहि लोगेहि गुणिदे असंखज्जगुणवड्डी उप्पज्जदि । उव्वंकं पडिरासिय स्थानान्तर अधस्तन ऊर्वक स्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा, चतुरंक स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, पंचांक स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, उपरिम अष्टांक और अधस्तन ऊर्वकस्थानान्तरीसे अनन्तगुणा, प्रथम षस्थानमें उपरिम सप्तांकसे व अधस्तन चतुरंकस्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा तथा द्वितीय संख्यातगुणवृद्धिसे अधस्तन संख्यातभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे संख्यातगुणा, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणाहीन अथवा असंख्यातगुणा हीन है। इसी संख्यातगुणवृद्धिको उत्कृष्ट संख्यात मात्र ऊवकको संख्यातगुणवृद्धिके भीतर स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित कर एक अंकके कम करनेपर स्पर्धकान्तर होता है। यह अधस्तन अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपस्पर्द्धकान्तरोंसे अनन्तगुणा, चतुरंकरपद्धकान्तरोंसे असंख्यातगुणा और पंचांकप्रक्षेपस्पर्धकान्तरोंसे असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार उपरिम स्पर्धकान्तरोंके भी साथ जानकर तुलना करनी चाहिये। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंके भीतर स्थित संख्यातगुणवृद्धियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। यहाँ ग्रन्थविस्तारके भयसे जो नहीं लिखा गया है उसे इस उपदेशसे कहकर ग्रहण करना चाहिये। असंख्यातगुणवृद्धि किस वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत है ? ॥ २११ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह असंख्यात लोकोंसे वृद्धिंगत है । इतनी वृद्धि होती है ।। २१२ ॥ काण्डक प्रमाण छह अंकोंके बीतनेपर यथाविधि वृद्धिको प्राप्त उपरिम षडंकके विषयमें स्थित अन्तिम ऊर्वकको असंख्यात लोकोंसे गुणित करनेपर असंख्यातगुणवृद्धि उत्पन्न होता है । ऊर्वकको Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५७ तत्थ तम्मि पक्खित्ते असंखेज्जगुणवड्डिहाणं होदि । असंखेज्जगुणवड्ढोए एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे हाणंतरं होदि । एदं हेहिमअणंतभागव ड्डिहाणंतरेहितो अणंतगुणं । असंखज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डिाणंतरेहितो असंखेज्जगुणं । उवरिमगुणवड्डिहाणादो हेट्ठिमअणंतभागवड्डिाणंतरेहिंतो अणंतगुणं। असंखेज्जभागवड्डि. हाणंतरेहितो असंखेज्जगुणं । संखेज्जभागवड्डिहाणंतरेहितो संखेज्जगुणं संखेज्जभागहीणं संखेज्जगुणहीणं असंखेज्जगुणहीणं वा। संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डिहाणंतरेहितो असंखेज्जगुणहीणं । उवरि जाणिय णेयव्वं । इमाए असंखेज्जगुणवड्डीए एत्थतणफद्दयसलागाहि ओवट्टिदाए फद्दयं होदि । एत्थ एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे फद्दयंतरं होदि । एदं पि हेट्ठिम-उवरिमफद्दयंतरेहि सह सण्णिकासिदव्वं । अणंतगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए ? ॥२१३॥ . सुगमं । सव्वजीवेहि अणंतगुणपरिवड्डी, एवदिया परिवड्डी ॥२१४॥ हेडिमउव्वंके सव्वजीवरासिणा गुणिदे अणंतगुणवड्डी होदि । तं चेत्र पडिरासिय अणंतगुणवद्धिं पक्खित्ते अणंतगुणवड्डिाणं होदि । एदाए चेव वड्डीए अणंतगुणवड्डिफद्दयसलागाहि ओवट्टिदाए फद्दयं होदि । एत्थ वि ढाणंतर-फद्दयंतरसण्णिकासो कायव्यो । प्रतिराशि करके उसमें उसे मिलानेपर असंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। असंख्यातगुणवृद्धिमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्थानान्तर होता है। यह अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा; असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिस्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, उपरिम गुणवृद्धिस्थानसे नीचेके अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा, असं. ख्यातभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, संख्यातभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे संख्यातगुणा, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीन, तथा संख्यातगुणवृद्धि व असंख्यातगुणवृद्धिस्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा हीन है। आगे जानकर ले जाना चाहिये । इस असंख्यातगुणवृद्धिको यहाँकी स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर स्पर्द्धक होता है। इसमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्पर्द्धकान्तर होता है। इसकी भी अधस्तन व उपरिम स्पर्द्धकान्तरोंके साथ तुलना करनी चाहिये। अनन्तगुणवृद्धि किस वृद्धिसे वृद्धिंगत है ? ॥ २१३ ॥ यह सूत्र सुगम है। अनन्तगुणवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिंगत है। इतनी मात्र वृद्धि होती है ॥ २१४ ॥ अधस्तन ऊवकको सब जीवराशिसे गुणा करनेपर अनन्तगुणवृद्धि होती है । उसीको प्रतिराशि करके अनन्तगुणवृद्धिको मिलानेपर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है। इसी वृद्धिको अनन्तगुणवृद्धि स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर स्पर्द्धक होता है। यहाँपर भी स्थानान्तर और स्पर्द्ध Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, २, ७, २१४. एवमसंखेज्जलोगमेतछट्टादि अनंतगुणवड्डीणं परूवणा कायव्वा । एदेण सुत्तेण अनंतवणिधा परूविदा | १५८ ] संधि देणेव सामासियभावेण सूचिदं परंपरोवणिधं भणिस्सामो । तं जहा-जहण्णहाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे जं भागलद्धं तम्मि जहण्णद्वाणं पडिरासिय पक्खित्ते पढममणंतभागवड्डिहाणं होदि । पुणो विदिये अनंतभागवड्डिहाणे भण्णमाणे पढम अणंतभागवड्डिड्डाणम्मि वड्ढिदपक्खेवे अवणिदे जहण्णड्डाणं होदि । पुणो सब्बजीवरासिं विरलिय जहणहाणे समखंड करिय दिपणे एकेकस्स रूक्स पक्वपमाणं पावदि । पुणो अवणिदपक्खेवं पि एदिस्से विरलणाए समखंड काढूण दिण्णे एकेकस्स रुवस्स सव्वजीवरासिणा सगलपक्खेवं खंडेदूण एगखंडपमाणं पावदि । पुणो दस्स सगलपक्खेव अणंतिमभागस्स पिसुल इत्ति सण्णा होदि । पुणो एत्थ एगरूवं हे हिमसग - लपक्खवमेगपिसुलं च घेत्तूण पढमअणंतभागवड्डिहाणं पडिरासिय पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्डिड्डाणमुपज्जदि । संपहि जहणट्ठाणं पेक्खिदूण विदियमणंतभागवड्ढिड्डाणं दोहि पक्खवेहि एग पिसुलेण च अहियं होदिति । एदमधियपमाणं जहण्णहाणादो आणिज्जदे । तं जहासव्वजीव सिद्धं विरलेदूण जहण्णड्डाणाणं समखंड करिय दिष्णे रूवं पडि दो-दोपक्खेव कान्तरोंसे तुलना करनी चाहिये । इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें स्थित अनन्तगुणवृद्धियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये । इस सूत्र के द्वारा अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा की गई है । अब इसी सूत्र के द्वारा देशामर्शक रूप से सूचित परंपरोपनिधाको कहते हैं । इस प्रकार हैजघन्य स्थान में सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसको जधन्य स्थानकी प्रतिराशि करके मिलाने पर प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है । पुनः द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थानकी प्ररूपणा में प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानमेंसे वृद्धिप्राप्त प्रक्षेपको कम करनेपर जघन्य स्थान होता है । पुनः सब जीवराशिका विरलन करके जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । अब कम किये गये प्रक्षेपको भी इस विरलनके समान खण्ड करके देने पर एक एक अंकके प्रति सब जीवराशिसे सकल प्रक्षेपको खण्डित कर एक खण्ड प्रमाण प्राप्त होता है । सकलप्रक्षेपके अनन्तवें भाग प्रमाण इसकी पिशुल संज्ञा है । यहाँ एक अंक, अधस्तन सकल प्रक्षेप और एक पिशुलको भी ग्रहण करके प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानको प्रतिराशि कर मिला देनेपर द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । अब जघन्य स्थानकी अपेक्षा द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थान दो प्रक्षेपों और एक पिशुल से अधिक होता है । जधन्य स्थानसे इम अधिकता के प्रमाण को लाते हैं । यथा - सब जीवराशिके अर्ध भागका विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकसे प्रति दो दो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५९ पमाणं पावदि । पुणो एदेसिमुवरि एगपिसुलागमणमिच्छामो त्ति दुगुणसव्वजीवगसिंहेहा विरलेद्ण उवरिम विग्लणाए एगरूवधरिददोपक्खेवे घेत्तूण समखण्डं कादूण दिण्णे विरलिदरूवं पडि एगेगपिसुलपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगेगपिसुलं घेत्तूण उवरिमविरलणाए एगरूवधरिददोपक्खवेसु दिण्णे हेहिमविरलण मेत्तद्धाणं गंतूण एगरूवपरिहाणी दिस्सदि । एदस्स पिसुलस्स दोहि पक्खेवेहि सह आगमणे इच्छिञ्जमाणे दुगुणं रूवाहियं सयजीवरासिं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सव्वजीवरासिअद्धम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स चदुब्भागो किंचूर्ण आगच्छदि । केत्तियो'णूणो ? एगरूवस्स अणंतिमभागेण । संपधि एदम्मि किंचूणेगरूवचदुब्भागे उवरिमविरलणाए सव्यजीवरासिदुभागमेतीए अवणिदे सेसं किंचूर्ण सव्वजोवरासिअद्धं भागहारो होदि । पुणो एदेण जहण्णहाणे भागे हिदे एगपिसुलसहिददोपक्खेवा आगच्छति । एदेसु जहण्णहाणस्सुवरि पक्खित्तेसु विदियमणंतभागवड्डिहाणं होदि । संपहि तदियअणंतभागवड्डिहाणं भणिस्सामो । तं जहा-विदियट्ठाणम्मि एगपिसुले दोपक्खेवेसु अवणिदेसु जहण्णहाणं होदि । तम्मि सव्वजीवरासिणा भागे हिदे प्रक्षेपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। अब इनके ऊपर चूंकि एक पिशुलका लाना अभीष्ट है, अतएव दगणी सब जीवराशिका नीचे विरलन कर उपरिम विरलन गशिके एक अंकके प्रति प्राप्त दो प्रक्षेपोंको ग्रहण कर समखण्ड करके देनेपर विरलित अंकके प्रति एक एक पिशुलका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इनमेंसे एक एक पिशुलको ग्रहण कर उपरिम विग्लनके एक अंकके प्रति दो प्रक्षेपोंमें देनेपर अधस्तन विरलन मात्र अध्वान जाकर एक अंककी हानि देखी जाती है। इस पिशुलके दो प्रक्षेपोंके साथ लानेकी इच्छा करनेपर एक अधिक दुगुणी सब जीवराशि जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जावेगी तो सब जीवराशिके आधेमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फालगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम चतुर्थ भाग आता है। शंका-वह कितना कम? समाधान-वह एक अंकके अनन्तवें भागसे कम है। अब एक अंकके कुछ कम इस चतुर्थ भागको सब जीवराशिके अर्ध भाग प्रमाण उपरिम विरलनमेंसे कम कर देनेपर शेष कुछ कम सब जीवराशिका अर्ध भाग भागहार होता है । इसका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक पिशुल सहित दो प्रक्षेप आते हैं। इनको जघन्य स्थानके ऊपर मिलानेपर द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। ___ अब तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थानकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-द्वितीय स्थानमें से एक पिशुल और दो प्रक्षेपोंको कम करनेपर जघन्य स्थान होता है। उसमें सब जीवराशिका १ ताप्रतौ 'केत्तिएणूणो' इति पाठः । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. एगपक्खेवो आगच्छादि । इमं पुध हविय पुणो तेणेव सव्वजीवरासिणा दोपक्खेवेसु भागे हिदेसु दोपिसुलाणि आगच्छंति । पुणो एदाणि दो वि पिसुलाणि पुग्विल्लपक्खेवपस्से ठविय पुणो तेणेव भागहारेण एगपिसुले भागे हिदे एगं पिसुलापिसुलमागच्छदि । पुणो एगपक्खवं दोपिसुलाणि एगं पिसुलापिसुलं च घेत्तण विदियवडिहाणं पडिरासिय पक्खित्ते तदियं वड्डिाणं होदि । एदं तदियवड्डिाणं जहण्णहाणं पेक्खिदूण तीहि पक्खेवेहि तीहि पिसुलेहि एगेण पिसुलापिसुलेण च अहियं होदि । ... पुणो एदेसिं जहण्णट्ठाणादो आणयणविधि भणिस्सामो। तं जहा-सव्वजीवरासितिभागं विरलिय जहण्णहाणं समखण्डं करिय दिण्णे विरलिदरूवं पडि तिपिणतिण्णिपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो एदिस्से' विरलणाए हेहा सव्वजीवरासिं विरलेदण उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदं समखण्डं कादृण दिण्णे एककस्स रूवस्स तिण्णि-तिण्णिपिसुलपमाणं पावदि । पुणो एदिस्से विरलणाए हेडा तिगुणं सव्वजीवरासिं विरलेदृण मज्झिमविरलणाए एगरूवधरिदं घेत्तूण समखण्डं कादूण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगपिसुलापिसुलपमाणं पावदि । पुणो तिगुणं सत्रजीवरासिं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सव्वरासिमेत्तमज्झिमविरलणम्हि कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स तिभागो किंचूणो आगच्छदि । पुणो इमं सव्वजी भाग देनेपर एक प्रक्षेप आता है । इसको पृथक् स्थापित करके उसी सब जीवराशिका दो प्रक्षेपोंमें भाग देनेपर दो पिशुल आते हैं। फिर इन दोनों ही पिशुलोंको पूर्व प्रक्षेपके पासमें स्थापित कर फिर से उसी भागहारका एक पिशुल में भाग देनेपर एक पिशुलापिशुल आता है । पुनः एक प्रक्षेप, दो पिशुल और एक पिशुलापिशुलको ग्रहण कर द्वितीय वृद्धिस्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर . तृतीय वृद्धिस्थान होता है। यह तृतीय वृद्धिस्थान जघन्य स्थानकी अपेक्षा तीन प्रक्षेपों, तीन पिशुलों और एक पिशुलापिशुलसे अधिक होता है। अब इनकी जघन्य स्थानसे लानेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है-सब जीवराशिके तृतीय भागका विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर विरलित अंककेप्रति तीन-तीन प्रक्षेपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस विरलनके नीचे सब जीवराशिका विरलनकर उपरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यकोसमखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति तीनतीन पिशलोंका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस विरलनके नीचे तिगुणी सब जीवराशिका विरलन कर मध्यम विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहणकर समखड करके देनेपर एक-एक अंकके प्रति एक एक पिशुलापिशुलका प्रमाण प्राप्त होता है । अब एक अधिक तिगुणी सब जीवराशि जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो सब जीवराशि प्रमाण मध्यम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम १ ताप्रतौ ‘एदेसि' इति पाठः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४. ] वयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १६१ वरासिम्हि सोहिय सुद्धसेसं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणार किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए श्रवट्टिदाए अनंतभागहोणो एगरुवस्स विभागो आगच्छदि । एदं सव्वजीवरासितिभागम्मि सोहिय सुद्धसेसेण जहडाणे भागे हिदे तिष्णि पक्खेवाणि निष्णि पिसुलाणि एगं पिसुलापिसुलं च आगच्छदि । पुणो एदम्मि जहण्णद्वाणं पडिरासिय पक्खित्ते तदियं वड्ढिड्डाणमुप्पञ्जदि । एदेण पण अंगुलस्स असंखेज दिमागमेत्त उव्वंकडाणाणं पुध पुध परूवणा कायव्वा जाव पढम असंखेज भागवडीए हेट्टिम उच्च कहाणे त्ति । I पुणो कंदयमेतद्वाणं गंतूण डिदचरिमअनंतभागवड्डिद्वाणस्स भागहार परूवणा कीरदे । तं जहा - तत्थ एगकंदयमेत्तपक्खेवा अस्थि, एगादिएगुत्तरकमेण पक्खेववुड्डिदंसणादो | रूवूणकंदयस्स संकलणमेतपिसुलाणि अस्थि, पढममणंतभागवड्डिट्ठाणं मोत्तूण उवरि संकलणागारेण पिलाणं वड्ढिदंसणादो । दुरूवूणकंदयस्स संकलणासंकलणमेत्तपिलापिसुलाणि अस्थि, तदिय अनंतभागवड्ढिड्डाणप्पहुडि उवरि संकलणासंकलणसरूवेण पिसुलापिसुलाणं वडिदंसणादो । तिरूवूणकंदयस्स तदियवारसंकलणमेतचुण्णियाओ अस्थि, उड्डाणपहुड तदियवारसंकलणाकमेण चुणियाणं वड्डिदंसणा दो एवं कंदयगच्छो गादिएगुत्तरकमेण हायमाणो गच्छदि जाव एगरूवावसेसो त्ति । पक्खेवा एगा एक तृतीय भाग आता है । इसको सब जीवराशियों में से कम करके जो शेष रहे उसमें एक अधिक जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका अनन्तवें भागसे हीन तृतीय भाग आता है । इसको सब जीवराशिके तृतीय भाग में से कम करके शेषका जघन्यस्थानमें भाग देनेपर तीन प्रक्षेप, तीन पिशुल और एक पिशुलापिशुल आता है । अब इसे जघन्य स्थानको प्रतिराशिकर उसमें मिला देनेपर तृतीय वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । इस बीजपदसे प्रथम असंख्यातभागवृद्धिके अधस्तन ऊर्वक स्थान तक अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र ऊर्वकस्थानों की पृथक् पृथक् प्ररूपणा करना चाहिये । अब काण्डक प्रमाण अध्वान जाकर स्थित अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानके भागहारकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-उसमें एक काण्डक प्रमाण प्रक्षेप हैं, क्योंकि, एकको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक एक अधिक क्रमसे प्रक्षेप्रकी वृद्धि देखी जाती है । एक कम काण्डकके संकलन प्रमाण पिशुल हैं, क्योंकि, प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानको छोड़कर आगे संकलन के आकार से पिशुलोंकी वृद्धि देखी जाती है । दो कम काण्डकके दो वार संकलन प्रमाण पिशुलापिशुल हैं, क्योंकि, तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान से लेकर आगे दो बार संकलन स्वरूपसे पिशुलापिशुलोंकी वृद्धि देखी जाती है । तीन कम काण्डकके तीन बार संकलन प्रमाण चूर्णिकायें हैं, क्योंकि, चतुर्थ स्थान से लेकर तीन वार संकलनके क्रमसे चूर्णिकाओंकी वृद्धि देखी जाती है। इस प्रकार काण्डकगच्छ एकको आदि लेकर एक एक अधिक क्रमसे हीन होता हुआ एक रूप शेष रहने तक जाता छ. १२-२१ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २१४ दिकमेण, पिसुलाणि संकलणसरूवेण, पिसुलापिसुलाणि विदियवार संकलण सरूवेण, चुण्णियाओ तिण्णिवार संकलणासरूवेण, चुण्णाचुण्णियाओ चउत्थवारसंकलणसरूवेण, भिण्णाओ पंचमवार संकलणसरूवेण, भिण्णाभिण्णाओ छट्ठवारसंकलणसरूवेण गच्छति । एवं छिण्ण-छिण्णा छिष्ण तुट्ट तुट्टतुट्ट दलिद-दलिदद लिदादीणं पिणेदव्वं । एदेसिमाणयणसुतं - वृद्धार्भाजितश्च पदवृद्धैः । गच्छ संपातफलं 'समाहतः सन्निपातफलम् ॥ संपहिएदेसिं सव्वेसिं पि जहण्णद्वाणादो आणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहांपढमकंदपणोवट्टिदसव्वजीवरासिं विरलिय जहण्णट्ठाणं समखंड काढूण दिण्णे एक्केकस्स रूवस्स कंदयमेत्ता सयलपक्खेवा पावेंति । पुणो एदिस्से विरलगाए हेट्ठा रूवूणकंदयद्धेगोवट्टिदसव्वजीवरासिं विरलेदूण उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदं समखंडं काढूण दिण्णे एक्केकस्स वस्स रूवूणकंदयस्स संकलणमेत्त पिसुलाणि पावेंति । पुणो एदिस्से विदियविरलगाए हेट्ठा रूवूणकंदय संकलणगुणिद सव्व जीवरासिं दुरूवूणकंदयस्स विदियचार संकलणाए ओट्टिय लद्धं विश्लेदूण विदियविरलणाए एगरूवधरिदं समखंड करिय दिण्णे एकेक्कस्स रूवस्त दुरूवूणकंदयस्स विदियवारसंकलणामेतपिलापिसुलाणि पावंति । एवं कंदयम है | प्रक्षेप एक आदि क्रमसे, पिशुल संकलन स्वरूपसे, पिशुलापिशुल द्वितीय वार संकलन स्वरूपसे, घूर्णिकायें तीन वार संकलन स्वरूपसे, चूर्णाचूर्णिकार्ये चतुर्थ वार संकलन स्वरूपसे, भिन्न पंचम वार संकलन स्वरूपसे तथा भिन्नाभिन्न छठे वार संकलन स्वरूपसे जाते हैं । इसी प्रकार छिन्न, छिन्नाछिन्न, त्रुटित, त्रुटितात्रुटित, दलित और दलितादलित आदिकों के भी ले जाना चाहिये । इनके लानेका सूत्र - एक एक अधिक होकर पद प्रमाण वृद्धिंगत गच्छको पद प्रमाण वृद्धिको प्राप्त हुए एक आदि अंकों से भाजित करनेपर संपातफल अर्थात् एक संयोगी भंगोंका प्रमाण आता है । इनको परस्पर गुणित करनेसे सन्निपातफल अर्थात् द्विसंयोगी आदि भंग आते हैं ।। अब इन सभी के जघन्य स्थानसे लानेकी विधिका कथन करते हैं । वह इस प्रकार हैप्रथम काण्डकसे अपवर्तित सब जीवराशिका विरलन करके जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति काण्डक प्रमाण सकलप्रक्षेप प्राप्त होते हैं। फिर इस विरलनके नीचे एक कम काण्डकके अर्ध भागसे अपवर्तित सब जीवराशिका विरलनकर उपरिम विरलन के एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक कम काण्डक संकलन प्रमाण पिशुल प्राप्त होते हैं। फिर इस द्वितीय विरलनके नोचे एक कम काण्डकके संकलनसे गुणित सब जीवराशिको दो कम काण्डकके द्वितीय वार संकलनसे अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके द्वितीय विरलनके एक अंक के प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर एक अंकके प्रति दो कम काण्डकके द्वितीय वार संकलन प्रमाण पिशुलापिशुल प्राप्त होते हैं। इस प्रकार काण्डक प्रमाण विरलन राशियोंको जान करके १ - श्रापत्योः 'समाहितः' इति पाठः । २ - श्रा प्र० ५ पृ० १६३, क० पा० २, पृ० ३०० । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १६३ त्तानो विरलणाओ जाणिदण विरलेदव्यागो। तत्थ चउत्थादिविरलणाओ अप्पहाणाश्रो त्ति छोद्दिदूण तदिय-विदिय-पढमाणं पक्खेवंसाणमाणयणं बुच्चदे। तं जहा-रूवाहियतदियविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लव्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स किंचूण-बे-तिभागो भागच्छदि । तम्मि मज्झिमविरलणाए अवणिय रूवाहियं काऊण ताए फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धं किंचूणरुवस्सद्धं उवरिमविरलणाए अवणिदाए जहण्णहाणे भागे हिदे लद्धं जहण्णहाणं पडिरासिय पक्खित्ते चत्तारिअंकस्स हेहिमउव्वंकट्ठाणं होदि। पुणो तं ठाणमसंखेज्जेहि लोगेहि ओवट्टिय तम्मि चेव पडिरासीकदे पक्खित्ते असंखेजभागवड्डि. हाणं होदि। संपहि जहरणट्ठाणादो असंखेज्जभागवड्डिहाणं उप्पाइज्जदे । तं जहा-चत्तारिअंकदो हेडिमउव्वंकम्हि कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवेसु रूवणकंदयस्स संकलणमेत्तपिसुलेसु दुरूवणकंदयविदियवारसंकलणमेत्तपिसुलापिसुलेसु सेसचुण्णियभागेसु च अवणिदेसु जहण्णहाणं होदि । पुणो असंखेज्जलोगे विरलिय जहण्णहाणं समखंडं करिय दिण्ण एकेकस्स रुवस्स असंखेज्जभागव ड्डिपक्खेवो होदि । पुणो पुचमवणिदकंदयमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवादि पि समखंडं कादूण दिण्णे जहासरूवेण पावदि । पुणो एदस्स एगभागहारेणागमणकिरियं कस्सामो। तं जहा–असंखेज्जलोगे विरलिय जहण्णट्ठाणं समखंड विरलन करना चाहिए। उनमें चतुर्थ आदि विरलन राशियां चूंकि अप्रधान हैं, अतएव उनको छोड़कर तृतीय, द्वितीय और प्रथम प्रक्षेपांशोंके लानेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक अधिक तृतीय विरलन मात्र अध्यान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फल गुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकके कुछ कम दो तृतीय भाग आते हैं। उनको मध्यम विरलनमेंसे कमकर एक अधिक करके उससे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करके प्राप्त हुए एक रूपके कुछ कम अर्ध भागको उपरिम विरलनमेंसे कम कर देनेपर जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर चतुरंकके नीचेका ऊर्वक स्थान होता है। फिर उस स्थानको असंख्यात लोकोंस अपवर्तित कर प्रतिराशीकृत उसी में मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। __ अब जघन्य स्थानसे असंख्यातभागवृद्धिस्थानको उत्पन्न कराते हैं। यथा-चतुरंकसे नीचेके ऊर्वकमेंसे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपों, एक कम काण्डकके संकलन प्रमाण पिशलों, दो कम काण्डकके द्वितीयवार संकलन प्रमाण पिशुलापिशुलों तथा शेष चूर्णिकभागोंको कम करने पर जघन्य स्थान होता है। फिर असंख्यात लोकोंका विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति असंख्यातभागवृद्धिका प्रक्षेपहोता है। फिर पहिले कम कियेगये काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप आदिको भी समखण्ड करके देनेपर यथा स्वरूपसे प्राप्त होता है। अब इसके एक भागहार रूपसे लानेकी क्रिया करते हैं। वह इस प्रकार है-असंख्यात लोकों Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४ कादण दिण्णे जहण्णट्ठाणस्स असंखज्जदिभागो एककस्स रूवस्स पावदि । पुणो असंखेज्जेहि लोगेहि प्रोवट्टिदसव्यजीवरासिं' हेहा विरलिय उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रुवस्स एगेगअणंतभागवड्डिपक्खेवो पावदि । पुणो एगकंदएणोवट्टियं विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवा पावेंति । पुणो सेसाणं पि आगमणहं भागहारम्हि अणंतिमभागो असंखेज्जदिभागो च अवणेदव्यो । 'एदमुवरिमरूवधरिदेसु दादृण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहा–रूवाहियविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लन्मदि तो उवरिमविरलणम्हि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । तं उवरिमविरलणाए अवणिय सेसेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे लद्ध पडिरासीकयजहण्णस्सुवरि पक्खित्ते असंखज्जभागवड्डिहाणं होदि । संपहि एदस्सुवरि अणंतभागवड्ढीणं कंदयमेत्ताणमुप्पायणविहाणं जाणिदूण वत्तव्वं । __संपहि विदियअसंखेजभागवड्विउपायणविहाणं वुच्चदे। तं जहा-तदो हेहिमउव्वंकस्सुवरि असंखेजभागवड्डि-अणंतभागवड्डिपक्खेवेसु च अवणिदेसु सेसं जहण्णट्ठाणं होदि । तम्मि असंखेजेहि लोगेहि भागे हिदे असंखेजभागवड्डिपक्खेवो आगच्छदि । का विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देने पर एक एक अंक के प्रति जघन्य स्थानका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। फिर असंख्यात लोकोंसे अपवर्तित सब जीवरा 'शका नीचे विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है। फिर एक काण्डकसे अपवर्तित उसे विरलित कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होते हैं। फिर शेष रहे उनको भी लानेके लिये भागहारमेंसे अनन्तवें भाग व असंख्यातवें भागको भी कम करना चाहिये। इसे उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्योंमें देकर समकरण करनेपर हीन अंकोंका प्रमाण बतलाते हैं । वह इस प्रकार है-एक अधिक विरलन मात्र अध्वान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका अनन्तवां भाग आता है। उसको उपरिम विरलनमेंसे कम कर शेषका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर लब्धको प्रतिराशीकृत जघन्य स्थानके ऊपर मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। अब इसके आगे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंके उत्पन्न करानेकी विधि जानकर कहना चाहिये। अब द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिके उत्पन्न करानेकी विधि कहते है । वह इस प्रकार हैउससे अधस्तन ऊवकके ऊपर असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपोंको कम करनेपर शेष जघन्य स्थान होता है। उसमें असंख्यात लोकांका भाग देनेपर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त १ अप्रतौ 'जीवरासिंहि' इति पाठः। २ अप्रतो 'एव' इति पाठः। ३ अ-श्राप्रत्योः 'पडिरासीय' इति पाठः। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १६५ एदं पुध दृविय पुणो अवणिदपक्खेवेसु अणंतभागवडिपक्खेवा अप्पहाणा ति ते छोद्दिय असंखेजभागवड्विपक्खेवे असंखेजलोगेण खंडिदे तत्थ एगखंडमसंखेजभागवड्विपिसुलं होदि । एदं पिसुलं पुव्विल्लपक्खेवं च घेत्तूण चरिमउव्वंकं पडिरासिय पक्खित्ते विदियमसंखेजभागवड्डिहाणमुप्पजदि। पुणो एदं. जहण्णहाणादो दोहि असंखेञ्जभागवड्डिपक्खेवेहि एगपिसुलेण च अहियं होदि । एदं दुअहियदव्वं जहण्णहाणस्स केवडियो भागो होदि ति पुच्छिदे-असंखेज्जलोगे विरलिय जहण्णहाणे समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगो असंखेज्जभागवड्डीहिपक्खेवो पावदि । पुणो दोपक्खेवे इच्छामो त्ति पुव्विल्लभागहारस्स अद्धेण मागे हिदे रूवं पडि दो-दोपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो एदाणमुवरि एगअसंखेज्जभागवड्डिपिसुलागमणमिच्छामो त्ति पुव्विल्लविरलणाए' हेट्टा दुगुणअसंखेज्जलोगे विरलिय उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे एगेगपिसुलपमाणं पावदि । पुणो एदं विरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स चदुब्भागं किंचूणमागच्छदि । पुणो एदम्मि उवरिमविरलणाए सोहिदे सुद्धसेसं भागहारो होदि । एदेण जहण्णहाणे भागे हिदे दोप होता है । इसको पृथक् स्थापित कर फिर कम किये गये प्रक्षेपोंमें चूंकि अनन्त भागवृद्धिप्रक्षेप अप्रधान हैं, अतएव उनको छोड़कर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको असंख्यात लोकसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड असंख्यातभागवृद्धिपिशुल होता है । इस पिशुल और पूर्वके प्रक्षेपको ग्रहण कर अन्तिम ऊवंकको प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वितीय असख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। यह जघन्य स्थान की अपेक्षा दो असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपों और एक पिशुलसे अधिक होता है। शंका - यह अधिक द्रव्य जघन्य स्थानके कितनेवें भाग प्रमाण होता है ? समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि असंख्यात लोकोंका विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देने पर एक एक अंकके प्रति एक असंख्यातवृद्धि प्रक्षेप प्राप्त होता है। पुनः चूंकि दो प्रक्षेप अभीष्ट हैं अतः पूर्वके भागहारके अर्ध भागका भाग देनेपर एक अंकके प्रति दो दो प्रक्षेपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इनके ऊपर एक असंख्यातभागवृद्धि पिशुलका लाना अभीष्ट है, अतः पूर्व विरलनके नीचे दुगुणे असंख्यात लोकोंका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक पिशलका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर एक अधिक इस विरलन प्रमाण जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम चतुर्थ भाग आता है फिर इसको उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर जो शेष रहे वह भागहार होता है । इसका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर दो प्रक्षेप और एक पिशुल प्राप्त होता है । इसको १ अ-श्राप्रत्योः 'विरलणा', तापतौ 'विरलगा [ए]' इति पाठः । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. क्खेवा एगपिसुलं च लभदि । पुणो एदम्मि जहण्णहाणे पडिरासिय पक्खित्ते विदियमसंखेज्जभागवड्डिहाणाप्पज्जदि । पुणो एदस्सुवरि सव्यजीवरासी भागहारो होदूण ताव गच्छदि जाव कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिहाणाणं चरिम उव्वंकहाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरिमतदियअसंखेज्जभागवड्डिहाणम्हि' भण्णमाणे चरिमउव्वंकस्सुरिमअसंखेज्जभागवड्डिपक्खेवे अवणिय पुध हविय जहण्णहाणं होदि, अप्पहाणीकयअणंतभागवड्डिपक्खेवत्तादो। पुणो असंखेज्जलोगेहि जहण्णहाणे भागे हिदे एगो पक्खेवो आगच्छदि । इमं पुध हविय पुणो पुव्विल्ल असंखज्जलोगेहि चेव दोसु पक्खवेसु अवहिरिदेसु 'असंखज्जभागवड्डिपिसुलाणि आगच्छति । एदे पुध हविय पुणो तेणेव भागहारेण असंखेज्जभागवड्डिपिसुले खंडिदे एगं पिसुलापिसुलमागच्छदि । पुणो एगमसंखेज्जभागवड्डिपक्खवं तिस्से वड्डीए दोपिसुलाणि एगं पिसुलापिसुलं च घेत्तण चरिमउव्वंक पडिरासिय पक्खित्ते तदियअसंखेज्जभागवड्डिहाणं होदि । तदियअसंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं णाम जहण्णट्ठाणादो तीहि असंखेज्जभागवड्डिपक्खवेहि तीहि असंखेज्जभागवड्डिपिसुलेहि एगेण पिसुलापिसुलेण च अधियं होदि । “पुणो एदमहियदव्वं जहण्णहाणादो उप्पाइज्जदे। तं जहा-असंखेजालोगाणं तिभागं" विरलेदुण जहण्णहाणं समखंडं कादूण जघन्य स्थानमें प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । फिर इसके आगे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तिम ऊर्वकस्थान तक सब जीवराशि भागहार होकर जाती है। पुनः इसके ऊपरके तृतोय असंख्यातभागवृद्धिस्थानका कथन करनेपर अन्तिम ऊर्वकके ऊपरके असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको कम करके पृथक स्थापित करनेपर जघन्य स्थान होता है, क्योंकि, यहाँ अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपको प्रधान नहीं किया गया है। फिर असंख्यात लोकोंका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक प्रक्षेप आता है। इसको पृथक् स्थापित करके फिर पूर्वके असं. ख्यात लोकोंसे ही दो प्रक्षेपोंके अपहृत करनेपर असंख्यातभागवृद्धिपिशुल आते हैं। इनको सा भागहारसे असंख्यातभागवृद्धि पिशुलको खण्डित करनेपर एक पिशला पिशुल आता है । अब एक असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप, उसी वृद्धिके दो पिशुलों और एक पिशुला. पिशुलको ग्रहण कर अन्तिम ऊर्वकको प्रतिराशि करके मिलानेपर तृतीय असंख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। तृतीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान जघन्य स्थानकी अपेक्षा तीन असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपों, तीन असंख्यातभागवृद्धिपिशुलों और एक पिशुलापिशुलसे अधिक है। अब जघन्य स्थानसे इस अधिक द्रव्यको उत्पन्न कराते हैं । यथा-असंख्यात लोकोंके तृतीय भागका विरलन करके १ा-ताप्रतिषु 'वडिहाणेहि' इति पाठः । २ अ-अप्रात्योः 'दो' इति पदं नोपलभ्यते. ताप्रतौ तूपलभ्यते । ३ अ-श्रा-ताप्रतिषु 'तेहि' इति पाठः। ४ अा-अा-ताप्रतिषु 'एदमादियदव्वं' इति पाठः। ५ ताप्रतिपाणेऽयम् । अा-अाप्रत्योः '-लोगाणंतिभागं' इति पाठः। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१६७ दिपणे एककस्स रूवस्स तिण्णि-तिण्णिपक्खेवपमाणं पावदि। पुणो एदिस्से विरलणाए हेट्ठा असंखेज्जलोगे विरलिय 'एगरूवधरिदतिण्णिपक्खेवे घेत्तण समखंडं करिय दिण्णे एक्कक्कस्स रुवस्स तिण्णि तिणि पिसुनाणि पावंति । पुणो एदिस्से विदियविरलणाए हेट्ठा तिगुणमसंखेचलोगे विरलिय उवरिमएगेगरूवधरिद तिण्णि-तिण्णिपिसुलाणि घेत्तूण समखंडं करिय दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगपिसुलापिसुलपमाणं पावदि । पुणो एस विरलणं रूवाहियं गंतण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो मज्झिमविरलणम्मि किं लभामो ति एमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए किंचणो एगरूवस्स तिभागो भागच्छदि । पुणो एदं मज्झिमविरलणाए सोहिय सुद्धसेसं रूवाहियमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स तिभागो किंचूणो आगच्छदि। पुणो एदमुवरिमविरलणम्हि सोहिय जहण्णहाणे भागे हिदे तिण्णिपक्खेवा तिण्णिपिसुलाणि एगं पिसुलापिसुलं च आगच्छदि । पुणो एदम्मि जहण्णट्टाणस्सुवरि पक्खित्ते तदियमसंखेजभागवड्डिहाणं होदि । एदेण वीजपदेण उवरि वि णेयव्वं जाव अंगुलस्स असंखेजदिभागमेताणमसंखेजभागवड्डिहाणाणं चरिमअसंखेज्जभागवड्विट्ठाणे त्ति । पुणो चरिमअसंखेज्जभागवड्डिहाणस्स भागहारो उच्चदे। तं जहा-अंगुलस्स जघन्य स्थानको समखण्ड करके देने पर एक एक अंकके प्रति तीन तीन प्रक्षेपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस विरलनके नीचे असंख्यात लोकोंका विरलन कर एक अंकके प्रति प्राप्त तीन प्रक्षेपोंको ग्रहणकर समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति तीन तीन पिशुल प्राप्त होते हैं। फिर इस द्वितीय विरलनके नीचे तिगुणे असंख्यात लोकोंका विरलन करके उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त तीन तीन पिशुलोंको ग्रहण कर समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक पिशुलापिशुलका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः एक अधिक इस विरलन प्रमाण जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो मध्यम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम एक तृतीय भाग आता है। फिर इसको मध्यम विरलनमेंसे कम करके जो शेष रहे उससे एक अधिक मात्र अध्वान जाकर यदि एक अककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी: इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अकका कुछ कम एक तृतीय भाग आता है। फिर इसको उपरिम विरलनमेंसे कम करके जघन्य स्थानमें भाग देनेपर तीन प्रक्षेप, तीन पिशुल और एक पिशुलापिशुल श्राता है । पुनः इसको जघन्य स्थानके ऊपर मिला देनेपर तृतीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । इस बीज पदसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थानों में अन्तिम असंख्यातभाग वृद्धिाथान तक ले जाना चाहिये। अब अन्तिम असंख्यातभागवृद्धिस्थानके भागहारको कहते हैं । वह इस प्रकार है- अंगुलके १ अ-श्राप्रत्योः -धरिदे' इति पाठः । २ अ-श्रा-प्रत्योः ‘-धरिदं' इति पाठः । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. असंखेज्जदिमागेण असंखेजलोगमोबट्टिय किंचणं कादण जहण्णहाणे भागे हिदे जं भागलद्धं तम्हि कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डिपक्खेवा रूवूणकंदयस्स संकलणमेत्ताणि असंखेज्जभागवड्डिपिसुलाणि दुरूवणकंदयस्स संकलणासंकलणमेत्तअसंखेज्जभागवड्डिपिसुलापिसुलाणि सेसचुण्णाणि च आगच्छति। एवं सुद्धं घेत्तूण' जहण्णहाणेसु उवरि पक्खित्ते चरिमअसंखेज्जभागवड्डिहाणं उप्पजदि। पुणो एदस्सुवरि सव्वजीवरासी भागहारो होदण कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिाणाणि गच्छंति' जाव चरिमअणंतभागवड्डिाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि पढमसंखञ्जभागवडिहाणं होदि। तम्मि उप्पाइजमाणे चरिमअणंतभागवड्डिट्ठाणस्सुवरि वड्डिददव्वे अवणिदे जहण्णहाणं होदि । पुणो उक्कस्ससंखेजं विरलेदुण जहण्णहाणं समखंडं कादण दिण्णे संखेजभागवडिपक्खेवो आगच्छदि । अवणिदपक्खेवेसु संखेजरूवेहि ओवट्टिदेसु लद्धदव्यमप्पहाणं, संखेजभागवडिपक्खेवस्स असंखेज्जभागत्तादो। पुणो तम्मि आणिजमाणे हेट्ठा असंखेज्जलोगे विरलिय संखेज्जभागवड्डिपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रुवस्स असंखेजभागवडिपक्खेवस्स संखेजदिभागो पावदि । पुणो सगलपक्खेवमिच्छामो त्ति असंखेज्जलोगे उक्कस्ससंखेज्जेणोट्टिय विरलेदूण संखेज्जभागवड्विपक्खेवं समखंडं कादृण दिण्णे विरलणरूवं पडि असंख्यातवें भागसे असंख्यात लोकोंको अपवर्तित कर कुछ कम करके जघन्य स्थानमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसमें काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप, एक कम काण्ड कके संकलन प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिपिशुल दो कम काण्डकके संकलनासंकलन प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिपिशुला पिशुल और शेष चूर्ण आते हैं। इस सबको ग्रहण करके जघन्य स्थानके ऊपर मिलानेपर अन्तिम असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । पुनः इसके आगे सब जीवराशि भागहार होकर अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थान तक काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान जाते हैं। फर इसके आगे प्रथम संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इसको उत्पन्न कराने में अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानके ऊपर वृद्धिप्राप्त द्रव्यको कम करनेपर जघन्य स्थान होता है। अब उत्कृष्ट संख्यातका विरलन करके जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर संख्यातभागवृद्धि प्रक्षेप आता है। कम किये हुए प्रक्षेपोंको संख्यात अंकोंसे अपवर्तित करनेपर जो द्रव्य लब्ध हो वह अप्रधान है, क्योंकि, वह संख्यातभागवृद्धि प्रक्षेपके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसको लाते समय नीचे असंख्यात लोकोंका विरलन कर संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपका संख्यातवां भाग प्राप्त होता है। अब चूंकि सकल प्रक्षेपका लाना अभीष्ट है, अतः असंख्यात लोकोंको उत्कृष्ट संख्यातसे अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको समखएड करके देनेपर विरलन अंकके प्रति असंख्यातभा १ अप्रतौ 'एदं घेत्तण' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'यागच्छंति' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'श्रद्ध'-इति पाठः। ४ प्रतिषु-'वस्स अणंत असंखे-इति पाठः। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६६ ४,२, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे चेयणभावविहाणे विदिया चूलिया असंखेज्जभागवडिसगलपक्खेवो पावदि । पुणो कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डिपक्खेवे इच्छामो त्ति एगदएण इदाणींतणविरलिदरासिमोवट्टिय विरलेदृण संखेज्जभागवड्डिपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे कंदयमेत्ता असंखेज्जभागवड्डिपक्खेवा 'विरलणरूवं पडि पार्वति । पुणो कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवे इच्छामो त्ति कंदयगुणिदसव्वजीवरासिं विरलिय कंदयमेत्तअसंखेजभागवड्डिपक्खेवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु एक्केकस्स रूवस्स अणंतभागवडिपक्खेवस्स असंखेज दिमागो पावदि । पुणो सगलमणंतभागवड्विपक्खेवमिच्छामो त्ति असंखेजलोगेहि कंदयगुणिदसधजीवरासिमोवट्टिय विरलेदूण मज्झिमविरलणाए एगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे रूवं पडि सगलपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो कंदयसहिदकंदयवग्गेण ओवट्टिय विरलेदूण मज्झिमविरलणाए एगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे समकंदय-कंदयवग्ग मेत्तअणंतभागवड्ढिपक्खेवा होति । पुणो समकरणं कादण अवणयणरूवाणं पमाणं वुच्चदे-हेटिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो मज्झिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए अोवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । एदं मज्झिमविरलणाए सोहिय सुद्धसेसं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरल गवृद्धिका सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है। पुनः काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिपक्षेपोंकी चूंकि तुच्छा है. अतएव एक काण्डकसे इस समयकी विरलित राशिको अपवर्तित करके विरलित कर संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको समखएड करके देनेपर काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप विरलन अंकके प्रति प्राप्त होते हैं। पुनः काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपोंके लानेकी इच्छा है, अतएव काण्डकसे गुणित सब जीवराशिका विरलन कर काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। अब चूंकि अनन्तभागवृद्धिका सकल प्रक्षेप अभीष्ट है, अतएव असंख्यात लोकों द्वारा काण्डकप्ते गुणित सब जीवराशिका अपवर्तन कर विरलित करके मध्यम विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक अङ्कके प्रति सकल प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर उसे काण्डक सहित काण्डकके वर्गसे अपवर्तित करके विरलित कर मध्यम विरलनके एक अङ्कके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर काण्डकके साथ काण्डकवर्ग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप होते हैं। फिर समीकरण करके हीन अङ्कोंका प्रमाण बतलाते हैं-एक अधिक अधस्तन विरलन जाकर यदि एक अङ्ककी हानि पायी जाती है तो मध्यम विरलनमें कितने अवोंकी हानि पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अङ्कका अनन्तवां भाग आता है। इसको मध्यम विरलनमेंसे कम करके जो शेष रहे उससे एक अधिक जाकर यदि एक अङ्ककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी. १ प्रतिषु 'विरलणरूवं ति' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्राप्रत्योः 'समकंदयवग्ग', तापतौ मप्रतिसमः पाठः । छ. १२-२२. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,२१४. णाए कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो लब्भदि । एदमुक्कस्ससंखेजम्हि सोहिय'सेसेण जहण्णहाणे भागे हिदे एगो संखेजभागवडिपक्खेवो कंदयमेत्ता असंखजभागवड्डिपक्खेवासकंदय-कंदयवग्गमेत्ता अणंतभागवड्डिपक्खेवा च लभंति । पुणो एत्तियदव्वं जहण्णहाणं पडिरासिय पक्खित्ते पढमसंखेज्जभागवड्डिहाणमुप्पजदि । ____एत्थ अणंतभागवड्डीए उव्वंकसण्णा, असंखेजभागवड्डी चत्तारिअंको, संखेजभागवड्डी पंचको, संखेजगुणवड्डी छअंको, असंखेजगुणवड्डी सत्तंको, अणंतगुणवड्डी अट्ठको त्ति घेत्तव्यो । एदीए सण्णाए एगछहाणसंदिट्ठी जोजेयव्यो । संपहि पयदं उच्चदे-अणंतभागवड्डिपक्खेवा जे एत्थ एगभागहारेण आणिदा सकंदय कंदयवग्गमेत्ता ते सरिसा ण होति", अणंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डिसरूवेण तेसिमवढाणादो। असंखेज्जभागवडिपक्खेवा वि सरिसा ण होति, अण्णोण्णं पेक्खिदूण असंखेज्जभागवड्डीए अवहाणादो । तदो एगभागहारेण आणयणं ण जुज्जदे । अह पिसुलपिसुलापिसुलादीणं पुध पुध भागहारे उप्पाइय भागहारपरिहाणि कादण एगभागहारेण इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अङ्कका असंख्यातवां भाग पाया जाता है । इसको उत्कृष्ट संख्यातमें से कम करके शेषका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप, काण्डक प्रमाण असंख्यातभाग वृद्धिप्रक्षेप और काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप पाये जाते हैं। इतने द्रव्यको जघन्य स्थानको प्रतिराशि कर उसमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। यहां अनन्तभागवृद्धिकी उर्वक संज्ञा, असंख्यातभागवृद्धिकी चतुरंक, संख्यातभागवृद्धिकी पंचांक, संख्यातगुणवृद्धिकी षडंक, असंख्यातगुणवृद्धिकी सप्तांक और अनन्तगुणवृद्धिकी अष्टांक संज्ञा जानना चाहिये। इस संज्ञासे एक षट्स्थान संदृष्टिकी योजना करनी चाहिये। अब यहां प्रकृतका कथन करते हैं शंका-काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण जो अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप एक भागहारके द्वारा लाये गये हैं वे सदृश नहीं हैं, क्योंकि, उनका अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि स्वरूपसे अवस्थान है । असंख्यातभागवृद्धिके प्रक्षेप भी सदृश नहीं होते, क्योंकि, उनका परस्परकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि स्वरूपसे अवस्थान है। इसीलिये उनका एक भागहारसे लाना योग्य नहीं है। यदि कहा जाय कि पिशुल व पिशुलापिशुल आदिकोंके पृथक पृथक् भागहारोंको उत्पन्न कराकर भागहारकी हानि कराकर एक भागहारके द्वारा वे लाये जा सकते हैं तो यह भी घटित १ अप्रतौ'-संखेज सोहिय' इति पाठः। २ अ-अाप्रत्योः 'कंदयमेत्तो' इति पाठः। ३ ताप्रतावतोऽग्रे [कंदयमेत्ता असंखे०भागवडिपक्खेवा ] इत्यधिकः पाठः कोष्ठकान्तर्गतः । ४ उव्वंकं चउरंकं प-छस्सत्तंक अअंकं च । छन्वडीणं सण्णा कमसो संदिष्टिकरण ॥गो०जी०३२५, ५ मप्रतौ 'सारिसाणि होति' इति पाठः। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४. ] बेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १७१ आणिअंति त्तिणेदं पि घडदे, एगभवम्मि संखेजकिरियस्त्र पुरिसस्स असंखेज किरियासु वावारविरोहादो । तदो पुव्त्रपरूविभागहारपरूवणं ण घडदे त्ति १ सुचमेदं, किंतु असरित्तं पक्खेवाणमविवक्खिय सरिसा इदि बुद्धीए संकल्पिय भागहारपरूवणा कीरदें (श्रीवयणेण कथं ण कम्मबंधो' १ दमलीयवयणं, एवंतग्गहाभावादो। ण च एदेण वयणेण मिच्छाणाणमुप्पाइजदे, असंखेजेहि वासेहि पुध पुध तेरासियं काऊण उप्पादभागहारेहिंतो समुप्पण्णणाणसमाणसुदणाणुप्पत्तदो । ण च अंतेवासीणमाहरिया सव्वमुत्तत्थं भणति, तहाविहसत्तीए अभावादो) कथं पुण सयलसुदणाणुप्पत्ती १ ण एस दोसो, अणुत्तोवग्गह- ईहावाय धारणाहि तदुष्पत्तदो । उत्तं च पण वणिज्जा भावा अतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अांतभागो सुदणिबद्धो ॥ १० ॥ आचार्यः पादमाचष्ट पादः शिष्यः स्वमेधया । तद्विद्यसेवया पादः पादः कालेन पच्यते ॥ ११ ॥ नहीं होता है, क्योंकि, संख्यात क्रिया युक्त पुरुषके असंख्यात क्रियाओंमें व्यापारका विरोध है । इस कारण पूर्व रूपित भागहारकी प्ररूपणा घटित नहीं होती ? समाधान - यह सत्य है, किन्तु प्रक्षेपांकी असमानताकी विवक्षा न कर बुद्धिसे उन्हें सदृश कल्पित कर भागहारकी प्ररूपणा की जा रही है । शंका- इस असत्यभाषणसे कर्मबन्ध कैसे न होगा ? समाधान - यह असत्यभाषण नहीं है, क्योंकि, इसमें एकान्त आग्रहका अभाव है । इस वचनसे मिथ्याज्ञान भी नहीं उत्पन्न कराया जा रहा है, क्योंकि, उसके द्वारा असंख्यात वर्षो से पृथक् पृथक् त्रैराशिक करके उत्पन्न कराये गये भागहारोंसे उत्पन्न ज्ञानके समान श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे, आचार्य शिष्यों के लिये समस्त सूत्रार्थको नहीं कहते हैं, क्योंकि, वैसी सामर्थ्य नहीं है । शंका- तो फिर पूर्ण श्रुतज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अनुक्तावग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके द्वारा वह उत्पन्न हो सकता है । कहा भी है वचनके अगोचर अर्थात् केवल केवलज्ञान के विषयभूत जीवादिक पदार्थों के अनन्तवें भागमात्र प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकरकी सातिशय दिव्यध्वनिके द्वारा प्रतिपादनके योग्य हैं । तथा प्रतिपादन के योग्य उक्त जीवादिक पदार्थोंका अनन्तवाँ भाग मात्र श्रुतनिबद्ध है ॥ १० ॥ आचार्य एक पादको कहते हैं, एक पादको शिष्य अपनी बुद्धिसे ग्रहण करता है, एक पाद उसके जानकार पुरुषोंकी सेवासे प्राप्त होता है, तथा एक पाद समयानुसार परिपाकको प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ १ प्रतौ 'कमबंधो' इति पाठः । २ गो० जी० ३३४. विशेषा० १४१ । ३ श्र श्राप्रत्योः 'पद-' इति पाठः । ४ मप्रतिपाठोऽयम् । श्रामत्योः पादः शिष्यस्य' मेधया, ताप्रतौ 'पादः शिष्यस्य मेधया' इति पाठः । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. - एदिस्से संखेजभागवड्डीए उवरि सव्वजीवरासी भागहारो होदूण गच्छदि जाव कंदयमेतअणंतभागवडिहाणाणं चरिमउव्वंकटाणे त्ति । पुणो असंखेअभागवड्डिहाणं होदि । एदस्स भागहारो असंखेज्जा लोगा। एवं सकंदय-कंदयवग्गमेत्ताणि अणंतभागवड्डिहाणाणि कंदयमेत्ताणि असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि च गंतूण विदियसंखेज्जभागवड्डिहाणमुप्पजदि। जहण्णहाणं पुण पेक्खिदूण पढमसंखेजभागवड्डिहाणादो उवरि दुगुणवड्डीदो हेहा सव्वत्थ संखेज्जभागवड्डी चेव । संपहि एत्तो प्पहुडि उवरिमसंखेजभागवड्डीणं परवणाए कीरमाणाए अणंतभागवड्डिअसंखेजभागवड्डीयो छोद्दिदूण परूवणं कस्सामो । कुदो ? तासिं वड्डीणं अइत्थोवत्तणेण पहाणत्ताभावादो। ___ संपहि विदियसंखेजभागवड्डिहाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा–हेहिमउवंकस्सुवरि वड्डिददव्वं पुध हविदे सेसं जहण्णट्ठाणं' होदि । पुणो तम्हि उकस्ससंखेज्जेण भागे हिदे एगो संखेज्जभागवड्डिपक्खेवो लब्भदि । एदं पुध दृविय पुणो उक्कस्ससंखेज्जेण भागे हिदे एगो संखेजभागवड्डिपक्खवो लब्भदि । एदं पुध ढविय पुणो उकस्ससंखज्जेण पुध पुध दृविदसंखेजभागवड्ढिपक्खेवे भागे हिदे एगं संखेजमागवड्ढिपिसुलं लब्भदि त्ति' । इस संख्यातभागवृद्धिके आगे सब जीवराशि भागहार होकर काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तिम ऊर्वक स्थानतक जाती है। फिर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इसका भागहार असंख्यात लोक है। इस प्रकार काण्डक सहित काण्डकके वग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान और काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान जाकर द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । परन्तु जघन्यस्थानकी अपेक्षा प्रथम असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपर और दुगुणवृद्धिसे नीचे सर्वत्र संख्यातभागवृद्धि ही होती है। ___ अब यहाँ से लेकर उपरिम संख्यातभागवृद्धियोंकी प्ररूपणा करने में अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिको छोड़कर प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि, बहुत थोड़ी होनेसे उन वृद्धियों की प्रधानता नहीं है। अब द्वितीय संख्यातभागवृद्धिकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-अधस्तन ऊर्वकके ऊपर वृद्धिप्राप्त द्रव्यको पृथक् स्थापित करनेपर शेष रहा जघन्य स्थान होता है। फिर उसमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है। इसको पृथक स्थापित कर फिर उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है। इसको पृथक् स्थापितकर फिर उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है । इसको पृथक् स्थापित कर फिर पृथक् पृथक् स्थापित संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिपिशुल होता है। इस प्रकार एक प्रक्षेप और एक पिशुलको .१ अप्रतौ 'जहण्णहाणो' इति पाठः । २ श्र-अप्रत्योः 'लब्भदि तो', ताप्रतौ 'लब्भदि तो (ति) इति पाठः। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ ७३ एवमेगपक्खवमेगपिसुलं च घेत्तूण उवरिमउव्वंकं पडिरासिय पक्खित्ते विदियसंखेजभागवड्डिहाणं होदि । विदियसंखेज्जभागवड्डिहाणं णाम जहण्णट्ठाणं पेक्खिदूण दोहि संखेज्जभागवड्डि पक्खवेहि एगेण संखेज्जभागवड्डिपिसुलेण च अहियं होदि । देसिं जहणहाणादी उत्पत्ती बुच्चदे । तं जहा - उक्कस्ससंखेज्जयस्स अद्धं विरलेदूण जहणणं समखर्ड कादृण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स दो-दोसगलपक्खेवा पावेंति । पुणो एदस्स हेट्ठा दुगुणमुक्कस्ससंखेज्जं विरलेदूण उवरिमए गरूवधरिदं समखंड दादूण दिणे रूवं पडि एगेग पिसुलपमाणं पावदि । पुणो एदमुवरिमरूवधरिदेसु' दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं परूवणं कस्सामो । तं जहा - रूवाहियहेट्ठि मविरलणमेत्तद्धाणं गंतू जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणि दिच्छाए ओट्टिदाए किंचूणो एगरूवस्स चदुष्भागो आगच्छदि । एदमुवरिमविरलणाए सोहिय सुद्ध सेसेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे वेपक्खेवा एगपिसुलं च लब्भदि । पुल जहणणं पडिरासिय पक्खित्ते विदियसंखेज्जभागवड्ढिट्ठाणमुप्पज्जदि । एवमुवरिमसंखेज्जभागवड्ढिट्ठाणाणं सव्वेसिं पि जाणिदूण भागहारो परूवेदव्वो जाव चरिमसंखेज्जभागवड्डिड्डाणे ति । तदुवरि संखेज्जगुणवड्डिड्डाणं होदि । संपहि संखेज्जभागवड्डिकमेण जहण्णडाणादो अणुभागहाणेसु वढमाणेसु केत्तिय ग्रहण कर उपरिम ऊर्वकको प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वितीय संख्यात भागवृद्धिग्थान होता है । द्वितीय संख्यात भागवृद्धिस्थान जघन्य स्थानकी अपेक्षा दो संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपों और एक संख्यात भागवृद्धिपिशुलसे अधिक होता है । इनकी जघन्य स्थानसे उत्पत्तिको कहते हैं । वह इस प्रकार है - उत्कृष्ट संख्यातके अर्ध भागका विरलनकर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति दो दो प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । फिर इसके नोचे दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति एक एक पिशुलका प्रमाण प्राप्त होता है । इसको उपरिम अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यों में देकर समीकरणं करनेपर हीन अंकोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र अध्वान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम चतुर्थभाग आता है । इसको उपरिम विरलनमें से कम करके शेषका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर दो प्रक्षेप और एक पिशुल प्राप्त होता है । फिर लब्धको प्रतिराशीकृत जघन्य स्थान में मिलानेपर द्वितीय असंख्यात भागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार अन्तिम असंख्यात भागवृद्धिस्थानतक सभी उपरिम असंख्यात भागवृद्धिस्थानोंके भागद्दारकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । इससे आगे संख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है । अब संख्यात भागवृद्धिक्रमसे जघन्य स्थानसे अनुभागस्थानोंके बढ़नेपर कितना अध्वान १ - श्रामत्योः 'एदमुवरि रूवधरिदेसु'; ताप्रतौ 'पदमुवरिमधरिदेसु' इति पाठः । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड २,७,२१४. मद्धाणं गंतूण दुगुणवड्डी होदि त्ति जाणावणहं परूवणा कीरदे । तं जहा-एत्थ बालजणाणं बुद्धिजणणटं तीहि पयारेहि दुगुणवड्डिपरूवणा कीरदे'। कधं तिविहा परूवणा कीरदे ? थूला मज्झिमा सुहमा चेदि । तत्थ ताव थला परूवणा कस्सामो-जहण्णट्ठाणादो उवरि उक्स्स संखेज्जमेत्तेसु संखेज्जभागवड्डिहाणेसु गदेसु दुगुणवड्डी होदि । कुदो ? उक्कस्ससंखेजमेत संखेज्जभागपक्खेवेहि एगजहण्णठाणुप्पत्तीदो बड्डिजणिदजहण्णहाणेण सह ओघजहण्णट्ठाणस्स तत्तो दुगुणत्तदंसणादो। कधमेदिस्से परूवणाए थूलतं ? पिसुलादीणि मोत्तण पक्खेवेहितो चेव उप्पण्णजहण्णट्ठाणेण दुगुणत्तपरूवणादो। संपहि मज्झिमपरूवणा कीरदे । तं जहा-अंगुलस्स असंखज्जदिभागमेत्तेसु संखेज्जमागवड्डिहाणेसु उक्कस्ससंखेज्जमेत्त संखेज्जभागवड्डिहाणाणं पढमट्ठाणप्पहुडि रचणं कादण तत्थ उक्कस्ससंखेज्जयस्स तिण्णिचदुब्भागमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण दुगुणवड्डी होदि । उक्कस्ससंखेज्जय मिदि संदिट्ठीए सोलस घेत्तव्वा । उकस्ससंखेज्जस्स जहण्णहाणे भागे हिदे संखेज्जमागवड्डी होदि। तम्मि जहण्णहाणे पक्खित्ते पढमसंखेज्जभागवड्डिहाणं उप्पज्जदि । दोपक्खेवेसु एगपिसुले च जहण्णहाणे पक्खित्ते विदियसंखेज्जभागवडिष्टाणं होदि । तिसु पक्खेवेसु तिसु पिसुलेसु एगपिसुलापिसुले च जहण्णहाणे पडिरासिय जाकर दुगुणी वृद्धि होती है, यह जतलानेके लिये प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-यहाँ अज्ञानी जनोंके बुद्धि उत्पन्न करानेके लिये तीन प्रकारसे दुगुणवृद्धिकी प्ररूपणा करते हैं। कैसे तीन प्रकारसे प्ररूपणाकी जाती है ? वह स्थूल, सूक्ष्म और मध्यमके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें पहिले स्थल प्ररूपणा करते है-जघन्य स्थानके आगे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके बीतनेपर दुगुणवृद्धि होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यातभागप्रक्षेपोंसे एक जघन्य स्थानके उत्पन्न होनेसे वृद्धिजनित जघन्य स्थानके साथ ओघ जघन्य स्थान उससे दुगुणा देखा जाता है। शंका-यह प्ररूपणा स्थूल कैसे है ? समाधान-कारण कि इसमें पिशुलादिकोंको छोड़कर प्रक्षेपोंसे ही उत्पन्न जघन्य स्थानसे दुगुणत्वकी प्ररूपणा की गई है। अब मध्यम प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र संख्यातभागवृद्धिस्थानों में उत्कृष्ट संख्यात मात्र संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके प्रथम स्थानसे लेकर रचना करे। उनमें उत्कृष्ट संख्यातका तीन चतुर्थभाग (3) मात्र अध्वान आगे जाकर दुगुणवृद्धि होती है। उत्कृष्ट संख्यातके लिये संदृष्टिमें सोलह (१६) अङ्क ग्रहण करने चाहिये। उत्कृष्ट संख्यातका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर संख्यातभागवृद्धि होती है। उसको जघन्य स्थानमें मिलानेपर प्रथम संख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। दो प्रक्षेपों और एक पिशुलको जघन्य स्थानमें मिलानेपर द्वितीय संख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। तीन प्रक्षेपों, तीन पिशुलों और एक पिशुला १ अप्रतौ 'कीरदे' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते इति पाठः । २ तापतौ-संखेजमेत्तसंखेज्जमेत्त' इति पाठः। . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १७५ पक्खित्ते तदियसंखेज्जभागवड्डिहाणं होदि । चदुसु पक्खेवेसु छसु पिसुलेसु चदुसु पिसुलापिसुलेसु एगपिसुलापिसुलपिसुले' च जहण्णहाणं पडिरासिय पक्खित्ते चउत्थसंखेज्जभागवड्डिहाणं होदि । एवमुवरि वि जाणिदण णेयव्वं । णवरि पक्खेवा एगादिएगुत्तरकमेण वड्ति । पिसुलाणि रूवणचडिदद्धाणसंकलणासरूवेण बटुंति । पिसुलापिसुलाणि दुरूवूणचडिदद्धाणविदियवारसंकणसरूवेण वड्डंति । पिसुलापिसुलापिसुलाणि तिरूवणचडिदद्धाणतदियवारसंकलणसरूवेण गच्छति । एवमुवरिमाणं पि वत्तव्वं । तेसिमेसा संदिट्टी ० ० ० ०००००००००००० ०००००००००००० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ०००००००००० ००००००००० ०००००००० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० पिशुलको जघन्य स्थानमें प्रतिराशि करके मिलानेपर तृतीय संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। चार प्रक्षेपों, छह पिशुलों, चार पिशुलापिशुलों और एक पिशुलापिशुलपिशुलको जघन्य स्थानमें प्रतिराशि करके मिलानेपर चतुर्थ संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस प्रकारसे आगे भी जानकर ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रक्षेप एकसे लेकर एक अधिक क्रमसे बढ़ते हैं। पिशुल एक कम बीते हुए अध्वानके सङ्कलन स्वरूपसे बढ़ते हैं। पिशुलापिशुल दो कम गये हुए अध्वानके द्वितीय बार सङ्कलनके स्वरूपसे बढ़ते हैं। पिशुल्मपिशलापिशुल तीन कम गये हुए अध्वानके तृतीय वार संकलन स्वरूपसे जाते हैं। इस प्रकारसे आगे भी कहना चाहिये। उनकी यह संदृष्टि है (मूल में देखिये) १ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्राप्रत्योः 'एगपिसुलापिसुले' इति पाठः। २ अ-श्रा-प्राप्रतिषु तारम्भे शत्यमेकमधिके तथा समाप्तौ शून्यद्वयमुपलभ्यते । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २१४. ir एत्थ पक्वा बारस १२ । पिसुलाणि छासही ६६ । पिसुलापिसुलाणि वीसुत्तर विसमेत्ताणि २२० । एवं द्वविय दुगुणवड्डी बुच्चदे । तं जहा - उक्कस्ससंखेज्ज - यस्स तिष्णिचदुब्भागमेत्ता पक्खेवा अस्थि' १२ । ते पुध हविय पुणो एत्थ उकस्ससंखेज्जयस्स चदुब्भागमेत्ता सगलपक्खेवा जदि होंति तो दुगुणड्डिड्डाणं होदि । ण च एत्तिमत्थि । तदो एत्थ दुगुणवड्डी ण उप्पज्जदि ति ? ण, पिसुलेहिंतो उकस्ससंखेज्जयस्स चदुभागमेत पक्नेवुवलंभादो । तं जहा - उक्कस्स संखेज्जतिष्णिचदुब्भागस्स रूवू संकलणमेत्ताणि पिसुलाणि उक्कस्ससंखेज्जयस्स तिष्णिचदुब्भागमुवरि चडिदूण हिदसंखेज्जभागवड्डिाणम्मि अस्थि । तेसिमेगादिएगुत्तरकमेण द्विदाणं समकरणे कीरमाणे पढमिल्लमेगपिसुलं घेत्तूण चरिम पिसुलेसु पक्खित्ते उक्कस्ससंखेज्जयस्स तिण्णिचदुब्भागमेतपिसुलाणि होंति । विदियद्वाणदिदो पिसुलाणि घेत्तूण दुचरिमपिसुलेसु दुरूवूणेसु पक्खित्ते एत्थ वि उकस्ससंखेज्जयस्स तिष्णिचदुब्भागमे तपिसुलाणि होंति । तदियड्डाणदितिणिपिलाणि घेत्तूण तिचरिमपिसुलेसु तिरूवूणेसु पक्खित्ते उक्कस्ससंखेजयस्स तिष्णिचदुब्भागमे तपिसुलाणि होंति । एवं सव्वेसिं समकरणे कदे उक्कस्तसंखेज्जयस्स संदृष्टिमें यहाँ प्रक्षेप बारह ( १२ ), पिशुल छयासठ (६६) और पिशुलापिशुल दो सौ बीस (२२० ) मात्र हैं । इस प्रकार स्थापित करके दुगुणी वृद्धिकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है शंका–उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग ( १६ x ३ = १२ ) मात्र प्रक्षेप हैं । इनको पृथ स्थापित करके फिर यहाँ उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग मात्र सकल प्रक्षेप यदि होते हैं तो दुगुणी बुद्धिका स्थान होता है परन्तु इतना है नहीं । अतएव यहाँ दुगुणी वृद्धि नहीं उत्पन्न होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि पिशुलोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग मात्र प्रक्षेप पाये जाते हैं। यथा- उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग मात्र आगे जाकर स्थित संख्यात भागवृद्धिस्थानमें उत्कृष्ट संख्यातके एक कम तीन चतुर्थ भागके संकलन प्रमाण पिशुल हैं। एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे स्थित उनका समीकरण करनेमें प्रथम स्थानके एक पिशुलको ग्रहणकर अन्तिम पिशुलोंमें मिलानेपर उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग मात्र पिशुल होते हैं । द्वितीय स्थान में स्थित दो पिशुलोंको ग्रहणकर दो कम द्विचरम पिशुलोंमें मिलानेपर यहाँ भी उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग मात्र पिशुल होते हैं तृतीय स्थानमें स्थित तीन पिशुलोंको ग्रहणकर तीन त्रिचरम पिशुलोंमें मिलानेपर उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग मात्र पिशुल होते हैं । इस प्रकार सबका समीकरण करनेपर उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग आयत और एक कम तीन चतुर्थ । १ प्रतिषु १२ संख्येयम् 'ते पुत्र इविः' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१६९ तिण्णि वदुब्भागायामं रूवूणतिण्णिचदुब्भागद्धविक्खंभखेत्तं होदूण चेहदि । तं चेदं ०००००००००००० ११०००००००००००० २०००००००००००० ०००००००००००० ०००००००००००० ०००००० CM पुणो एत्थ उक्कस्ससंखेज्जयस्स चदुब्भागविक्खंभेण । तिण्णिचदुब्भागायामेण तच्छेदूण पुध हवेदव्वं । तं च एदं-४०००००००००००० ०००००००००००० ०००००००००००० |१००००००००००० ३ सेसखेत्तमुक्कम्ससंखज्जयस्स तिण्णिचदुब्भागाया | १२०००००००००००० ८०००००००००००० उक्कस्ससंखेज्जयस्सेव अद्धरूवूणहमभागविक्खंभखेत्तं होदृण चेदि । पुणो एदं तिण्णिखंडाणि कादण तत्थ तदिखंडम्हि उक्कस्ससंस्खेज्जयस्स अट्ठमभागमेत्तपिसुलाणि घेत्तण विदयखंडम्मि ऊणपंतीए ढोइदे' पढम-विदियखंडाणि उक्कस्ससंखेज्जयस्स चदुब्भागायामेण तस्स अहमभागविक्खंभेण चेट्ठति । पुणो तत्थ विदियखंडं घेत्तूण पढमखंडस्सुवरि ठविदे उकस्ससंखेज्जयस्स चदुब्भाग भागके अर्ध भाग प्रमाण विस्तृत क्षेत्र होकर स्थित होता है । वह यह है ( संदृष्टि मूलमें देखिये)। फिर इसमेंसे उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग विष्कम्भ और उसके तीन चतुर्थ भाग आयामके प्रमाणसे छीलकर पृथक् स्थापित करना चाहिये । वह यह है-(मूलमें देखिये।) शेष क्षेत्र उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग आयत और उत्कृष्ट संख्यातके ही अर्ध अंकसे कम आठवें भाग विस्तृत क्षेत्र होकर स्थित होता है ( संदृष्टि मूलमें देखिये )। फिर इसके तीन खण्ड करके उनमें तृतीय खण्डमेंसे उत्कृष्टसंख्यातके आठवें भाग मात्र पिशुलोको ग्रहणकर द्वितीय खण्डकी हीन पंक्तिमें मिलानेपर प्रथम और द्वितीय खण्ड उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग आयाम और उसके आठवें भाग विष्कम्भसे स्थित होते हैं । फिर उनमें से द्वितीय खण्डको ग्रहणकर प्रथम खण्डके ऊपर स्थापित करनेपर उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग विष्कम्भ और १ अ-अापत्योः 'धोइदे' इति पाठः। छ. १२-२२. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. विक्खंभायाम समचउरसखेत्तं होदि । एदं पुबिल्ल- ०००००००००००००००० खेत्तम्हि उकस्ससंखेज्जचदुब्भागविक्खंभम्मि तिण्णिच- । ००० ०००००००००००००००० १०००००००००००००००० दुब्भागायामम्मि संधिदे उक्कस्ससंखज्जायाम तच्चदु ४०००००००००००००००० भागविक्खंभं खेत्तं होदूण चिहदि । तस्स पमाणमेदं । इदि संदिहीए घेत्तव्वं । एत्थ उक्कस्ससंखज्जमत्तपिसुलाणि घेत्तूण एगो संखेज्जभागवड्डिपक्खेवो होदि ति उक्कस्ससंखेज्जयस्स चदुब्भागमेत्तसगलपक्खेवा लब्भंति । एदेसु पक्खवेसु [ ४ ] पुग्विल्ल उक्कस्ससंखेञ्जयस्स तिण्णिचदुब्भागमेत्तपक्खेवेसु [१२] पक्खित्तेसु [१६] उक्कस्ससंखेजमेत्तसंखेजभागवड्विपक्खेवा होति । एदे सव्वे मिलिदण एगं जहण्णहाणं होदि । एदम्मि' जहण्णट्ठाणे पक्खित्ते दुगुणवड्डी होदि । सेसपिसुलाणि पिसुलापिसुलाणि च तहा चेव चेट्ठति । एसो वि थूलत्थो । ___ संपधि एदम्हादो सुहुमत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा--उक्कस्ससंखजं छप्पण्णखंडाणि कादण तत्थ इगिदालखंडाणि पढमसंखेजभागवड्डिट्ठाणादो उवरि चडिदण उक्कस्ससंखेजमेत्तसंखेजभागवड्डिहाणाणं चरिम हाणादो पण्णारसखंडाणि हेहा ओसरिदूण तदित्थट्ठाणम्मि दुगुणवड्डिहाणमुप्पजदि । तं जहा-इगिदालमत्तखंडाणि उवरि चढिदूण द्विदतदित्थहाणम्मि इगिदालखंडमेत्ता चेव सगलपक्खेवा लभंति [ ४१] । आयाम युक्त सभचतुर क्षेत्र होता है । इसको उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग विष्कम्भ और उसके तीन चतुर्थ भाग आयामवाले पूर्वके क्षेत्रमें मिला देनेपर उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण आयाम और उसके चतुर्थ भाग मात्र विष्कम्भ युक्त क्षेत्र होकर स्थित रहता है। उसका प्रमाण यह है (मूलमें देखिये ), ऐसा संदृष्टिमें ग्रहण करना चाहिये। यहाँ चूंकि उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण पिशुलौंको ग्रहणकर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप होता है, अतएव समस्त प्रक्षेप उत्कृष्ट संख्यातके चतुर्थ भाग प्रमाण होते हैं। इन (४) प्रक्षेपोंको पहिले उत्कृष्ट संख्यातके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण (१२) प्रक्षेपोंमें मिलानेपर उत्कृष्ट संख्यात (१६) प्रमाण संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप होते हैं। ये सब मिलकर एक जघन्य स्थान होता है। इसे एक जघन्य स्थानमें मिलानेपर दुगुणी वृद्धि होती है। शेष पिशुल और पिशुलापिशुल उसी प्रकारसे स्थित रहते हैं । यह भी स्थूल अर्थ है। अब इसकी अपेक्षा सूक्ष्म अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- उत्कृष्ट संख्यातके छप्पन खण्ड करके उनसे इकतालीस खण्ड प्रथम संख्यातभागवृद्धिस्थानसे आगे जाकर उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्य तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तिम स्थानसे पन्द्रह खण्ड नीचे उतर कर वहाँ के स्थानमें दुगुणी वृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है। यथा-इकतालीस मात्र खण्ड ऊपर चढ़कर स्थित वहाँ के स्थानमें इकतालीस (४१) खण्ड प्रमाण ही सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं। १ प्रतिषु 'एगम्मि' इती पाठः। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१७१ संपहि एत्थ पण्णारसखंडमेत्तसगलपक्खेवेसु संतेसु एगं जहण्णढाणं उप्पजदि । तेसिं उप्पत्तिविहाणं वुचदे। तं जहा-तदित्थहाणपिसुलपमाणमिगिदालखंडसंकलणमत्तं' [४१]। रूवूणमिदि किण्ण भण्णदे ? ण, थोवभावेण अप्पहाणत्तादो। पुणो समकरणे कदे इगिदालखंडायाममिगिदालदुभागविक्खंभं च होदूण चेदि | २० ४१| एवं हिदक्खेत्तभंतरे पुबिल्लायामपमाणेण पण्णारसखंडमेत्तपिसुलविक्खंभं मोत्तूण एगखंडदुभागाहियपंचखंडविक्खंभं इगिदालखंडायामक्खेत्तं खंडेदूणमव- | ११ ।४१ णिय पुध हवेयव्वं पण्णारसखंडविक्खंभइगिदालखंडायामखेत्तग्गहणहं ।। २ - पुणो एत्थ एगखंडद्धविक्खंभेण इगिदालखडायामेण खेनं घेत्तूण | २ पुध हवेदव्यं ___पुणो एत्थ एगखडद्धविक्ख भेण एगखंडायामेण तच्छेदूण पुध छवेदव्वं ।। ३१ अब यहाँ पन्द्रह खण्ड प्रमाण सकल प्रक्षेपोंके होनेपर एक जघन्य स्थान उत्पन्न होता है। उनकी उत्पत्तिका विधान बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-बहाँ के स्थान सम्बन्धी पिशुलोंका प्रमाण इकतालीस खण्डोंके संकलन मात्र है (४१)। शंका-वह एक अंकसे कम है, ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान नहीं, क्योंकि, स्तोक स्वरूप होनेसे यहाँ उसकी प्रधानता नहीं है। फिर उनका समीकरण करनेपर इकतालीस खण्ड प्रमाण आयाम और इकतालीसके द्वितीय भाग प्रमाण विष्कम्भसे युक्त होकर क्षेत्र स्थित होता है-२०३४१ । इस प्रकारसे स्थित क्षेत्रके भीतर पन्द्रह खण्ड विस्तृत और इकतालीस खण्ड आयत क्षेत्रको ग्रहण करनेके लिये-पहिले आयामके प्रमाणसे पन्द्रह खण्ड मात्र पिशुलोंके बराबर विष्कम्भको छोड़कर एक खण्डके द्वितीय भागसे अधिक पांच खण्ड प्रमाण विस्तृत और इकतालीस खण्ण प्रमाण आयत क्षेत्रको खण्डित करके अलग करके पृथक स्थापित करना चाहिये ११४१। फिर इसमेंसे एक खण्डके अर्ध भाग मात्र विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड मात्र आयामसे क्षेत्रको ग्रहणकर पृथक् स्थापित करना चाहिये । ११। फिर इसमेंसे एक खण्डके अर्ध भाग मात्र विष्कम्भ और एक खण्ड मात्र आयामसे काटकर पृथक् स्थापित करना चाहिये । इस ग्रहण किये गये क्षेत्रसे शेष क्षेत्र .१ प्रतिषु 'भेत्त' इति पाठः । २ तापतौ २०४१ -एवंविधान संदृष्टिः। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. गहिदसेसखेतमेत्तियं होदि|३४| एदं खेचमायामेण अहखंडाणि कादण विक्खंभस्सुवरि संधिदे चत्तारिखंड विक्खंभ-पंचखंडायाम खेत्तं होदि __ एदं पंचखंड विक्खंभ-इगिदालखंडायामखेत्तस्स सीसम्हि हविदे पंचखंड विक्खंभं पणदालखंडायामखेत्तं होदि एवं तिण्णिखंडाणि कादण एगखंड विक्खंभस्सुवरि सेसदोखंडविक्खंभेसु ढोइदेसु विक्खंभायामेहि पण्णारसखंडमेत्तं समचउरसखेत्तं होदि एवं घेत्तण पण्णारसखंडविक्खंभइगिदालखंडायामखेत्तस्स सीसम्मि दृविदे पण्णारसखंडविक्खंभ-छप्पण्णखंडायामखेत्तं होदि आयामछप्पण्णखंडेसु उक्स्ससंखेजमेत्तपिसुलाणि होति । उक्कस्ससंखेजमेत्तपिसुलेहि वि एगो सगलपक्खेवो होदि, एगसगलपक्खेवे उकस्ससंखेज्जेण खंडिदे एगपिसुलुवलंभादो। तम्हा एत्थ पण्णारसखंडमेत्ता सगलपक्खेवा लभंति । एदेसु सगलपक्खेवेसु इगिदालखंडमेत्तसगलपक्खेवेसु पक्खित्तेसु छप्पण्णखंडमेत्ता सगलपक्खेवा होति । ते च सव्वे मेलिदूण एगं जहण्णहाणं, छप्पण्णखंडमेत्तसगलपक्खेवेहि उक्कस्ससंखेजमेत्तसगलपक्खेवउप्पत्तीदो । उकस्ससंखेजमेत्तपक्खेवेहि इतना होता है । इस क्षेत्रके आयामकी ओरसे आठ खण्ड करके विष्कम्भके ऊपर जोड़ देनेपर चार खण्ड विष्कम्भ और पाँच खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता हैं ४५। इसको पाँच खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रके शिरके ऊपर स्थापित करनेपर पाँच खण्ड विष्कम्भ और पैंतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है ५५ । इसके तीन खण्ड करके एक खण्ड के विष्कम्भके ऊपर शेष दो खण्डोंके विष्कम्भको जोड़ देनेपर विष्कम्भ और आयामसे पन्द्रह खण्ड मात्र समचतुष्कोण क्षेत्र होता है १५१५। इसको ग्रहणकर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रके शिरपर स्थापित करनेपर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और छप्पन खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है १५५५ । आयामके छप्पन खण्डोंमें उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुल होते हैं । उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुलोंसे भी एक सकल प्रक्षेप होता है. क्योंकि, एक सकल प्रक्षेपको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर एक पिशुल पाया जाता है। इसलिये इसमें पन्द्रह खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं। इन सकल प्रक्षेपोंको इकतालीस खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपोंमें मिलानेपर छप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं। वे सब मिलकर एक जघन्य स्थान होता है, क्योंकि छप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपों द्वारा उत्कृष्ट संख्यात मात्र सकल प्रक्षेप उत्पन्न होते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया १७३ ] जहण्णहाणं होदि त्ति कधं णव्वदे ? उक्कस्ससंखेन्जेण जहण्णहाणे खंडिदे तत्थ एगखंडस्स सगलपक्खेवो त्ति अब्भुवगमादो । एदम्मि जहण्णहाणे मूलिल्लजहण्णट्ठाणम्मि पक्खित्ते दुगुणवड्डी होदि । पुणो पुबिल्लअवणियह विदखेत्तं एगखंडद्ध विक्खंभं एगखंडायामं विखंभेण छप्पण्णखंडाणि कादण एगखंडस्सुवरि सेसखंडेसु हविदेसु एगखंडं बारहोत्तरसदेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ता सगलपक्खेवा होति । एदे सगलपक्खेवा सेस पिसुलापिसुलाणि च अधिया होति । एसा वि परूवणा थला चेव । ___अधवा, पुग्विल्लखेत्तस्स अण्णेण पयारेण खंडणविहाणं वुच्चदे। तं जहा-इगिदालमेत्तखंडाणि उवरि चडिदूण द्विदट्ठाणम्मि सवापिसुलाणि इगिदालीसखंडाणं संकलणमेत्ताणि हवंति । पुणो एदाणं एगादिएगुत्तरसंकलणसरूवेण हिदाणं तिकोणखेत्तागाराणं समकरणे कदे एगखंडद्धजुदवीसखंडविक्खंभ-इगिदालखंडायामं खेत्तं होदि । पुणो एत्थ पण्णारसखंड विक्खंभेण इगिदालखंडायामेण तच्छिय पुध दृविदे सेसखेत्तमिगिदालखंडायाम अद्धछट्टखंड विक्खंभं होदण चेहदि । पुणो एत्थ एगखंडद्धविवखंभ-इगिदालायामखेत्तमवणिय पुध टवेयव्वं । पुणो सेसखेत्तम्हि पंचखंड विक्खंभम्मि इगिदालखंडायामम्मि पंचखंड विक्खंभ-एक्कारसखाडायामखेत्तं छिदिय पुध हविय पुणो पंचखंडविक्खभं तीसखंडायाम सेसखेत्तं मज्झ सरिसदोखंडाणि कादण विदियखंडं परावत्तिय शंका-उत्कृष्ट संख्यात मात्र प्रक्षेपासे जघन्य स्थान होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-उसका कारण यह है कि जघन्य स्थानमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर उसमेंसे जो एक भाग प्राप्त होता है उसको सकल प्रक्षेप स्वीकार किया गया है। लके जघन्य स्थानमें मिलानेपर दुगुणी वृद्धि होती है। फिर एक खण्डके अर्ध भाग विष्कम्भ और एक खण्ड आयाम रूप पूर्व में अपनीत करके स्थापित क्षेत्रके विष्कम्भकी ओरसे छप्पन खण्ड करके एक खण्डके ऊपर शेष खण्डोंके स्थापित करनेपर एक खण्डको एकसौ बारहसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं । ये सकल प्रक्षेप और शेष पिशुलापिशुल अधिक होते हैं । यह प्ररूपणा भी स्थूल ही है। - अथवा, पूर्वोक्त क्षेत्रके खण्डनकी विधिका अन्य प्रकारसे कथन करते हैं। यथा-इकतालीस मात्र खण्ड आगे जाकर स्थित स्थानमें सब पिशुल इकतालीस खण्डोंके संकलन प्रमाण होते हैं। फिर एकसे लेकर एक एक अधिक रूप संकलन स्वरूपसे स्थित त्रिकोणाकार इस क्षेत्रका समीकरण करनेपर एक खण्डके अर्ध भाग सहित बीस खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है। फिर इसमेंसे पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयामसे छीलकर पृथक स्थापित करनेपर शेष क्षेत्र इकतालीस खण्ड आयाम और साढे पाँच खण्ड विष्कम्भसे युक्त होकर स्थित रहता है। फिर इसमेंसे एक खण्डके अर्ध भाग मात्र विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको अलग करके पृथक् स्थापित करना चाहिये। फिर पाँच खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त शेष क्षेत्र मेंसे पाँच खण्ड विष्कम्भ और ग्यारह खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको काटकर पृथक् स्थापित करके पश्चात् पाँच खण्ड विष्कम्भ और तीस खण्ड आयाम युक्त शेष क्षेत्रके मध्यमेंसे समान दो खण्ड करके द्वितीय खण्डको परिवर्तित Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. पढमखंडस्सुवरि ठविदे दसखंडविखभ-पण्णारसखंडायामखेत्तं होदण अच्छदि । संपहि पुन्नमवणिय पुध दृविदपंचखंड विक्खंभ-एकारखंडायामखेत्तं घेत्तण एदस्सुवरि दृविदे दक्षिण-पच्छिमदिसासु पण्णारसखंडमेत्तं पुव्वुत्तरदिसासु दस-एक्कारसखंडपमाणं होदूण चिट्ठदि । पुणो पुव्वमवणेदूण पुध दृविदखेत्तम्हि एगखंडद्धविक्खमम्मि इगिदालखंडायामम्मि एगखंडद्धविक्खंभ-सगलेगखंडायाम खेत्तं घेत्तूण पुध दृविय सेसक्खे. त्तायामद्वखंडाणि कादण परावत्तिय एगखंडस्सुवरि सेसखंडेसु दृविदेसु चत्तारिखंडविक्खभ पंचखंडायामं 'खेत्तं होदि । तम्मि पुव्विल्लखेत्ते समयाविरोहेण हविदे समचउरसं पण्णारसखंड विक्खभायाम खेतं होदि । एदं घेत्तूण पण्णारसखंडविक्खंभ-इगिदालखंडायामखेत्तस्सुवरि दृविदे पण्णारसखंड विखंभ-छप्पण्णखंडायामखेत्तं होदि । एत्थ एगपंतिसगलपक्खेवो होदि, उक्कस्ससंखेजमेत्तपिसुलाणं तत्थुवलंभादो। तेणेत्थ पण्णारसखंडमेत्ता सगलपक्खेवा होनि ति इगिदालखंडमेत्तसगलपक्खेवेसु पक्खित्तेसु छप्पण्णखंडमेत्ता सगलपक्खेवा होति । एदे सव्वे मिलिदूण जहण्णट्ठाणं, उक्कस्ससंखेजमेत्तसगलपक्खेवाणमेत्थुवलंभादो। एदम्हि जहण्णट्ठाणे पक्खित्ते दुगुणवड्डी होदि । पुणो एगखंडद्धविक्खभ-सगलेगखंडायामं पुबमवणिय पुध हविदखेत्तं विक्खंभेण छप्पण्ण कर प्रथम खण्डके ऊपर स्थापित करनेपर दस खण्ड विष्कम्भ और पन्द्रह खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होकर स्थित रहता है। अब पूर्वमें अपनीत करके पृथक् स्थापित पाँच खण्ड विष्कम्भ और ग्यारह खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको ग्रहणकर इसके ऊपर स्थापित करनेपर दक्षिणपश्चिम दिशाओं में पन्द्रह खण्ड मात्र और पूर्व-उत्तर दिशाओमें दस ग्यारह खण्ड प्रमाण होकर स्थित होता है । फिर एक खण्डके अर्ध भाग विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त पूर्वमें अपनयन करके पृथक् स्थापित क्षेत्रमेंसे एक खण्डके अर्ध भाग विष्कम्भ और सम्पूर्ण एक खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको ग्रहणकर पृथक स्थापित करके शेष क्षेत्रके आयामकी ओरसे आठ खण्ड करके परिवर्तितकर एक खण्ड के ऊपर शेष खण्डोंके स्थापित करनेपर चार खण्ड विष्कम्भ और पाँच खण्ड आयाम यक्त क्षेत्र होता है। उसको यथाविधि पहिलके क्षेत्रके ऊपर स्थापित करनेपर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और उतने ही आयामसे युक्त क्षेत्र होता है। इसको ग्रहणकर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रके ऊपर स्थापित करनेपर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और छप्पन खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है। यहाँ एक पंक्ति रूप सकल प्रक्षेप होता है, क्योंकि, वहाँ उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुल पाये जाते हैं। इसीलिये चूंकि यहाँ पन्द्रह खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं, अतएव इकतालीस खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपोके मिलानेपर छप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं। ये सब मिलकर जघन्य स्थान होता है, क्योंकि, यहाँ उत्कृष्ट संख्यात मात्र सकल प्रक्षेप यहाँ पाये जाते हैं। इसको जघन्य स्थानमें मिलानेपर दुगुणी वृद्धि होती है। फिर एक खण्डके अर्ध भाग विष्कम्भ और एक सम्पूर्ण खपड आयाम रूप पहिले अपनीत करके पृथक् १ अ-ताप्रत्योः -खंडायामखेत्तं' अप्रतौ 'खंडायामक्खेत्त' इति पाठः। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१७५ खंडाणि कादूण एगखंडस्स सीसे सेसखंडेसु संधिदेसु छप्पण्णखंडायामं एगखंडस्स बारहोत्तरसदभागविक्खंभखेत्तं होदि । एत्थ विक्खंभमेत्ता चेव सगलपक्खेवा उप्पजंति । पुणो सेसपिसुलापिसुलाणि वि सगलपक्खेवो कादूण पुग्विलेहि सह दुगुणवड्डिम्हि पक्खित्ते जहण्णहाणादो सादिरेयदुगुणमेत्तं होदि । संपहि जहण्णहाणं पेखिदूण तिगुणवड्डिहाणं दुगुणवड्डिहाणादो उवरि इगिदालदुभागमत्तखंडाणि तिहि खंडेहि अहियाणि गंतूण होदि । तं जहाइगिदालदुभागस्सुवरि तिसु खांडेसु पक्खियेसु साद्धतेवीसखंडाणि होति । दुगुणवड्डीए उवरि एत्तियमेत्तमद्धाणं गंतूण हिदहाणम्मि सगलप- (२३ | क्खेवा चडिदद्धाणमेत्ता होति । एदे पक्खेवा दुगुणवडिअद्धाणपक्खेवेहिंतो दुगुणा, उकस्ससंखेज्जेण दोसु जहण्णहाणेसु अक्कमेण खंडिज्जमाणेसु दोसगलपक्खेवुप्पत्तीदो। तेण एदेसु पक्खेवेसु दुगुणिदेसु एत्थ पुव्विल्लपक्खेवा सत्तेतालीसखंडमेत्ता होति । एदेहि पक्खेवेहि जहण्णहाणं ण उप्पज्जदि, अण्णेसिं णवणं खंडाणमभावादो। __ संपहि तेसिमुप्पत्तिविहाणं उच्चदे। तं जहा-साद्धतेवीसखंडगच्छस्स एगादिए. गुत्तरसंकलणतिकोणखेचं ठविय समकरणे कदे एगखंडतिण्णिचदुब्भागेण समहियएकारसखंडविक्खंभं | ११ | साद्धतेवीसखंडायाम खेतं । २३ | होदूण चेहदि । स्थापित क्षेत्रके विष्कम्भकी ओरसे छप्पन खण्ड करके एक खडके शिरपर शेष खंडोंके स्थापित करनेपर छप्पन खण्ड आयाम और एक खण्डके एक सौ बारहवें भाग विष्कम्भ युक्त क्षेत्र होता है। यहाँ विष्कम्भके बराबर ही सकल प्रक्षेप उत्पन्न होते हैं। फिर शेष पिशुलापिशुलोंको भी सकल प्रक्षेप करके पूर्व पिशुलापिशुलोंके साथ दुगुणी वृद्धि में मिलानेपर जघन्य स्थानकी अपेक्षा साधिक दुगुण मात्र होता है। अब जघन्य स्थानकी अपेक्षा तिगुणी वृद्धिका स्थान दुगुणवृद्धिस्थानसे आगे इकतालीसके द्वितीय भाग मात्र खण्ड तीन खण्डोंसे अधिक जाकर होता है। वह इस प्रकारसे-इकतालीस खण्डोंके द्वितीय भागके ऊपर तीन खण्डोंके मिलानेपर साढ़े तेईस खण्ड होते हैं | २३३ । दुगुण वृद्धिके आगे इतने मात्र स्थान जाकर स्थित स्थानमें सकल प्रक्षेप गत स्थानोंके बराबर होते हैं २३३ । ये प्रक्षेप दुगुणवृद्धिके स्थानों सम्बन्धी प्रक्षेपोंसे दुगुणे होते हैं, क्योंकि, दो जघन्य स्थानों में एक साथ उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर दो सकल प्रक्षेप उत्पन्न होते हैं। इसलिये इन प्रक्षेपोंको दूने करनेपर यहाँ पहलेके प्रक्षेप सैंतालीस खण्ड प्रमाण होते हैं। इन प्रक्षेपासे, जघन्य स्थान नहीं उत्पन्न होता है, क्योंकि, दूसरे नौ खण्डोंका यहाँ अभाव है। ____ अब उनकी उत्पत्तिके विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार है-साढ़े तेईस खण्ड गच्छके एकसे लेकर उत्तरोत्तर एक एक अधिक संकलन प्रमाण त्रिकोण क्षेत्रको स्थापित करके समीकरण करनेपर एक खण्डके तीन चतुर्थ भागसे अधिक ग्यारह खण्ड विष्कम्भ (११३ ) और साढ़े तेईस खण्ड (२३३ ) आयाम युक्त क्षेत्र होकर स्थित रहता है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४. णवरि एदं खेत्तं दोपिसुलवाहल्लमिदि कट्ट अब्भपटलं व मज्झे दोफालीश्री कादण एगफालीए उवरि विदियफालीए दृविदाए तिण्णिचदुब्भागाहियएकारसखंड विक्खंभं सत्तेतालीसखंडायामक्खेत्तं होदि । एत्थ तिण्णिचदुब्भागाहियदोखंड विक्खंभेण सत्तेत्तालखंडायामेण तच्छेदण अवणिय पुध दृविदे सेसखेत्तपमाणं. णवखंड विक्खंभं सत्तेतालखंडायाम होदि । पुणो पुव्वमवणेदूण पुध दृविदखेत्तम्हि' तिण्णिचदुब्भागविक्खंभेण सत्तेतालीसखंडायामेण तच्छेदूण पुध हविय सेसखेत्तं दोखंडविक्खंभं सत्तेत्तालीसखंडायाम मज्झे दोफालीयो कादण एगफालीए उवरि विदियफालीए संधिदाए एगखंडविक्खंभं चदुणवदिखंडायामं खेत्तं होदि । एत्थ एगासीदिमेत्तखंडवग्गो घेत्तण पदरागारेण ठइदे समचउरंसं णवखडयाम-विक्संभखेत्तं होदि । एदं घेत्तण पुव्वुत्तणवविक्खंभसगदालीसखंडायामखेत्तस्स पासे हविदे णवविक्खंभ-छप्पण्णायामखेत्तं होदि । एत्थ णवखंडमेत्तसगलपक्खेवा लभंति; एगोलीए उकस्ससंखेज्जमेत्तपिसुलुवलंभादो । एदे सगलपक्खेवे घेत्तूण सत्तेतालीसखंडमेत्तसगल पक्खेवेसु पक्खित्ते छप्पण्णखांडमेसा सगलपक्खोवा होति । एदेहि सगलपक्खोवेहि एगं जहण्णहाणं होदि, एदेसु छप्पण्णखंडेसु उक्कस्ससंखेजमेत्तसगलपक्खोवुलंभादो। एदम्मि उप्पण्णजहण्णहाणे दुगुणवड्डिहाणम्हि' विशेष इतना है कि यह क्षेत्र चूँकि दो पिशुल बाहल्य रूप है, इसलिये अभ्रपटलकेसमान बीचमेंसे दो फालियाँ करके एक फालिके ऊपर दूसरी फालिको स्थापित करनेपर तीन चतुर्थ भागोंसे अधिक ग्यारह खण्ड विष्कम्भ और सैतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है । इसमेंसे तीन चतुर्थ भागसे अधिक दो ख ग्ड विष्कम्भ और सैंतालीम खण्ड आयामसे काटकर पृथक स्थापित करनेपर शेष क्षेत्रका प्रमाण नौ खण्ड विष्कम्भ और सैंतालीस खण्ड आयामरूप होता है। फिर पहिले अपनयन करके पृथक स्थापित क्षेत्रमेंसे तीन चतुर्थ भाग विष्कम्भ और संतालीस खण्ड आयामसे क्षेत्रको काटकर पृथक स्थापित करके दो खण्ड विष्कम्भ और सैंतालीस खण्ड आयाम युक्त शेष क्षेत्रके बीच में से दो फालियाँ करके एक फालिके ऊपर दूसरी फालिको जोड़ देनेपर एक खण्ड विष्कम्भ और चौरानवें खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है। इसमेंसे इक्यासी मात्र खण्डोंके वर्गको ग्रहणकर प्रतराकारसे स्थापित करनेपर नौ खण्ड विष्कम्भ और नौ खण्ड आयाम युक्त समचतुष्कोण क्षेत्र होता है । इसको ग्रहणकर पूर्वोक्त नौ खण्ड विष्कम्भ और सैंतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रके पार्श्व भागमें स्थापित करनेपर नौ खण्ड विष्कम्भ और छप्पन खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है। यहाँ नौ खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं, क्योंकि, एक पंक्तिमें उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुलोंकी उपलब्धि है। इन सकल प्रक्षेपोंको ग्रहण करके सैंतालीस खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपोंमें मिलानेपर छप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं। इन सकल प्रक्षेपोंसे एक जघन्य स्थान होता है, क्योंकि, इन छप्पन खण्डों में उत्कृष्ट संख्यात मात्र सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं। उत्पन्न हुए इस जघन्य १ अप्रतौ 'हविदे खेत्तम्हि' इति पाठः । २ अापतौ 'वडिहाणेहि', ताप्रतौ 'वडिहाणे [ हि ]' इति पाठः । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१८५ पक्खिचे तिगुणवड्डिहाणं उप्पजदि। संपहि एगासीदिखंडेसु गहिदेस सेसखेत्तमेगखंडविक्खंभं तेरसखंडायाम एगखंडतिण्णिचदुब्मागविक्खंभसचेतालीसखंडायामखेचें च अधियं होदि । एदाणि दो वि खेत्ताणि एकदो करिय तिगुणहाणम्मि पक्खिचे सादिरेयतिगुणवड्डिहाण मुप्पज्जदि। तेणेसा परूवणा थलत्था । जदि थूलत्था, किमहं उच्चदे ? अव्वुप्पण्णजणवुप्पायणटुं । अथवा, इगिदालदुभागस्सुवरि सादिरेयदोखंडेसु पक्खिोसु तिगुणवड्डिअद्धाणं होदि, तत्थतणपिसुलापिसुलेसु दुरूवणगच्छतिभागगुणिदरूवणगच्छसंकलणमेचेसु पक्खिचेसु तिगुणहाणुप्पत्तीदो) संपहि तिगुणवड्डीए उवरि इगिदालखंडतिभाग किंचूणतिखंडाहियं गंतूण चदुगुणवड्डी उप्पज्जदि । केत्तिएणणाणं तिण्णं खंडाणं पक्खेवो कीरदे ? एगखंडतिभागेण ऊणाणं पक्खेवो कीरदे । चडिदद्धाणखंडपमाणमेदं | १६ | पुणो एत्तियमेत्तखंडायाम-विक्खंभेण तिण्णिपिसुलबाहल्लेण तिकोणंहोदण पिसुलखेतपागच्छदि । एत्थ पक्खेवा पुण तिगुणचडिदद्वाण मेत्ता लब्भंति । किमटुं पक्खोवाणं तिगुण कीरदे ? ण एस दोसो,तिसु जहण्णहाणेसु उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिज्जमाणेसुतिण्णं पक्खेवाणमस्थानमें दुगुणवृद्धिस्थानको मिलानेपर त्रिगुणवृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है । अब इक्यासी खण्डोंके ग्रहण करनेपर शेष क्षेत्र एक खण्ड विष्कम्भ और तेरह खण्ड आयाम युक्त तथा एक खण्डके तीन चतुर्थ भाग विष्कम्भ और सैतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र अधिक होता है। इन दोनों ही क्षेत्रोंको इकट्ठा करके त्रिगुणवृद्धिस्थानमें मिलानेपर साधिक त्रिगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस कारण यह स्थूलार्थ प्ररूपणा है। शंका-यदि यह प्ररूपणा स्थूलार्थ है तो उसका कथन किसलिये किया जा रहा है ? समाधान-उसका कथन अव्युत्पन्न जनोंको व्युत्पन्न करानेके लिये किया जा रहा है। अथवा, इकतालीस खण्डके द्वितीय भागके ऊपर साधिक दो खण्डोंके मिलानेपर त्रिगणवृद्धिका अध्वान होता है, क्योंकि, दो कम गच्छके तृतीय भागसे गुणित एक कम गच्छके संकलन प्रमाण वहाँ के पिशुलापिशुलोंको मिलानेपर तिगुणी वृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है। अब त्रिगुण वृद्धिके ऊपर कुछ कम तीन खण्डोंसे अधिक इकतालीस खण्डके तृतीय भाग प्रमाण जाकर चौगुणी वृद्धि उत्पन्न होती है। शंका-कितने मात्रसे हीन तीन खण्डों का प्रक्षेप किया जाता है ? समाधान - एक खण्डके तृतीय भागसे हीन तीन खपडोंका प्रक्षेप किया जाता है। गत अध्वानखण्डोंका प्रमाण यह है-१६। फिर इतने मात्र खण्ड आयाम व विष्कम्भ तथा तीन पिशुल बाहल्यसे त्रिकोण होकर पिशुलक्षेत्र आता है। परन्तु यहाँ प्रक्षेप गत अध्वानसे तिगुणे मात्र पाये जाते हैं।। शंका-प्रक्षेपोंको तिगुणा किसलिये किया जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीन जघन्य स्थानोंको उत्कृष्ट सख्यातसे खण्डित करनेपर एक साथ तीन प्रक्षेपोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। छ. १२-२४, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [२, ४, ७, २१४ कमेणुप्पत्तिदंसणादो। तेसिं पमाणमेदं ४९ । संपहि एत्थ सत्तखंडमेत्तपक्खेवा जदि होंति तो अण्णं जहण्णट्ठाणं उप्पजदि । सत्तखंडमेत्तपक्खेषा-१६।' णमेस्थतणपिसुलेहिंतो उप्पत्तिविहाणं वुचदे । तं जहा-१ 'एदस्स गच्छस्स संकलणाए। समकरणे कदे सछब्भागअखंडविखभं ? सतिभागसोलसखंडायाम |R खेत्तं होदि । संपहि तिण्णिपिसुलमेत्तो एदस्स खेत्तस्स पहवो होदि ति बाहल्लेण तिणि फालीयो कादण एगफालीए सेसदोफालीसु संधिदासु आयामो पुव्विल्लायामादो तिगुणो होदि | ४९ । विक्खंभो पुण पुचिल्लो चेव । एवंडिदखेत्तम्हि सत्तखंडविक्खंभेण एगूणवंचासखंडायामेण खेत्तं मोत्तण सच्छभागएगखंडविक्खंभं एगूणवंचासखंडायाम खेत्तं पादेद्ण पुध हविय पुणो एत्थ एगखंडछब्भागविक्खंभं एगूणक्चासखंडायाम तच्छेद्ण पुध दुवेदव्वं । पुणो एगखंड विक्खंभ-एगूणवंचासायामक्खेत्तं सत्तफालीयो कादूर्ण पदरागारेण दृहदे आयाम-विक्खंभेहि सत्तखंडपमाणसमचउरसखेत्तं होदि । पुणो एदम्मि सत्तविक्खंभएगूणवंचासायामक्खेत्तस्सुवरि ठविदे सत्तखंडविक्खंभ-छप्पण्णा ___ उनका प्रमाण यह है -४९ । अब यहाँ यदि सात खण्ड मात्र प्रक्षेप होते हैं तो अन्य जघन्य स्थान उत्पन्न होता है। यहाँ के पिशुलोंसे सात खण्ड मात्र प्रक्षेपोंकी उत्पत्तिके विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार है-१६३ इस गच्छके संकलनका समीकरण करनेपर छठे भाग सहित आठ (८) खण्ड विष्कम्भ और एक तृतीय भाग सहित सोलह ( १६) खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है। अब चूकि इस क्षेत्रका प्रभव तीन पिशुल प्रमाण होता है, अतएव इसकी बाहल्यकी ओरसे तीन फालियाँ करके एक फालिके ऊपर शेष दो फालियोंको रखनेपर पूर्व आयामसे तिगुणा आयाम होता है-१६१४३:४९। परन्तु विष्कम्भ पहिलेका ही रहता है। इस प्रकार स्थित क्षेत्र में सात खण्ड विष्कम्भ और उनचास खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको छोड़कर छठे भाग सहित एक खण्ड विष्कम्भ और उनचास खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको फाड़कर पृथक स्थापित करके फिर यहाँ एक खण्डके छह भाग विष्कम्भ एवं उनचास खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको काटकर पृथक स्थापित करना चाहिये। फिर एक खण्ड विष्कम्भ और उनचास खण्ड आयाम युक्त क्षत्रकी सात फालियाँ करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर आयाम व विष्कम्भसे सात खण्ड प्रमाण समचतुकोण क्षेत्र होता है। फिर इसको सात खण्ड विष्कम्भ और उनचास खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रके १ ताप्रतौ । १ | इति पाठः। २ प्रतिषु पोहवो होदि इति पाठः । । ३ ३ तापतौ 'खंडायामेण' इति पाठ । ४ अ-पाप्रत्योरनुपलभ्यमानोऽयं पाठस्ताप्रतितोऽत्र योजितः । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १८७ यामक्खेत्तं होदि । एत्थ सत्तखंडमेत्तपक्खेवा लभंति, छप्पण्णखंडमेत्तपिसुलेहि एगपक्खेवुप्पत्तीदो। पुणो एदे सत्तखंडमेत्तपक्खेवे घेत्तण एगूणवंचासखंडमेत्तपक्खेवेसु पक्खित्तेसु उक्कस्ससंखेजमेत्तसगलपक्खेवा होंति, छप्पण्णखंडमेत्तपक्खेवेहि उक्कस्ससंखेअमेत्तपक्खेवुप्पत्तीदो। एदेहि सव्वेहि पक्खेवेहि एगं जहण्णहाणं होदि । तम्मि 'तिसु जहण्णहाणेसु पक्खित्ते चदुगुणवड्डी होदि। पुणो पुव्वमवणिदछब्भागविक्खंभएगूणवंचासखंडायामक्खेत्ते समकरणं करिय पक्खित्ते सादिरेयचदुग्गुणवड्डिट्ठाणं होदि। सेसपिसुलापिसुलाणं पि जाणिय पक्खेवो कायव्यो। संपहि इगिदालदुभाग-तिभागादिसु पक्खेवखंडाणि णावट्ठिदसरूवेण गच्छंति, तहाणुवलंभादो। कुदो पुण पक्खेवपमाणमवगम्मदे ? ईहादो। तत्थ संदिही ४५ २३| ३ १६| ३ |१२२ १०२८ ११७१।६।१६।११५] १।४।१।। ४/३/१०/२ ३/३४ ०.९१०/१०/११११ १ /४/२/३/३/३ |३|३/२/२/२/२२२ २२२२११११११ ०१३१०७ ४११७१५१३११९७५३१२७१६२५२४ १२१३१४१५ १६:१७ ८१९२०/२१/२२२३२४/२५२६२७२८२९३०३१ XMor ४ एसा संदिही पिसुलाणि चेव अस्सिदृणुप्पण्णदुगुणवड्डीणमद्धाणपरूवणटुं इविदा, पिसुलापिसुलेहि विणा दुगुणत्तुवलंभादो। ऊपर रखनेपर सात खण्ड विष्कम्म और छप्पन खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र होता है। इसमें सात खण्ड मात्र प्रक्षेप पाये जाते हैं, क्योंकि, छप्पन खण्ड मात्र पिशुलोंसे एक प्रक्षेप उत्पन्न होता है । फिर इन सात खण्ड प्रमाण प्रक्षेपोंको ग्रहणकर उनचास खण्ड मात्र प्रक्षेपोंमें मिलानेपर उत्कृष्ट संख्यात मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं, क्योंकि, छप्पन खण्ड मात्र प्रक्षेपोंसे उत्कृष्ट संख्यात मात्र प्रक्षेप उत्पन्न होते हैं। इन सब प्रक्षेपोंसे एक जघन्य स्थान होता है। उसे तीन जघन्य स्थानोंमें मिलानेपर चतुर्गुणी वृद्धि होती है। फिर पहिले अलग किये गये छठे भाग [ सहित एक खण्ड ] विष्कम्भ और उनचास खण्ड आयाम युक्त क्षेत्रको समीकरण करके मिलानेपर साधिक चौगुणी वृद्धिका स्थान होता है । शेष पिशुलापिशुलोंका भी जानकर प्रक्षेप करना चाहिये। अब इकतालीस द्वितीय भाग और तृतीय भागादिकों में प्रक्षेपखण्ड अवस्थित स्वरूपसे नहीं जाते हैं, क्योंकि, वैसे पाये नहीं जाते हैं। शंका-फिर प्रक्षेपोंका प्रमाण कैसे जाना जाता है ? समाधान-वह ईहासे जाना जाता है। यहाँ संदृष्टि-(मूलमें देखिये)। यह संदृष्टि पिशुलोंका ही आश्रय करके उत्पन्न दुगुणवृद्धियोंके अध्वानकी प्ररूपणा करनेके लिये स्थापित की गई है, क्योंकि, पिशुलापिशुलोंके बिना दुगुणापन पाया नहीं जाता। १ ताप्रतौ 'दि (ति) सु' इति पाठः। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४,२, ७, २१४. संपहि एत्थ एगकंदयमेत्तसंखेज्जभागवड्डीसु पण्णाए पुध काढूण एगपंतियागारेण ठविदासु सव्वगुणहाणीणमद्भाणं सरिसं चेव, गुणहाणिअद्धाणाणं विसरिसत्तस्स कारणावलंभादो | ण ताव गुणहाणिं पडि पक्खेवपिसुलादीणं दुगुणत्तं गुणहाणीणं विसरिसतस कारणं, गुणहाणि पडि दुगुण- दुगुणपक्खेवक साउद यहाणगुणहाणीणं पि विसरिसत्तभुवमादो | ण च पक्खेवाणं गुणहाणिं पडि दुगुणत्तणेण विणा गुणहाणीणमवद्विदत्तं संभव, अण्णासि तवड्ढि -हाणीणं तेण विरोहुवलंभादो । ण च एत्थ पक्खेवादीणं दुगुणचमसिद्धं, अवद्विदभागहारेण दुगुण- दुगुणविहज्जमाणरासीसु ओगट्टिज्जमाणासु विहज्ज - मारा सिपडि भागबाहल्लस्सुवलंभादो छप्पण्णोवट्टिदउकस्स संखेज्जस्स इगिदालसाणं दुभाग-तिभागादिसु संकलिदेसु गुणहाणिअद्धाणस्स णावद्विदत्तमुवलंभदि त्तिणासंकणिजं, तेसु वि संकलिदेसु पढमगुणहाणिपमाणेणेव उप्पज्जेयब्वं, पढमगुणहाणिपक्खेवादी हिंतो दुगु विदियगुणहाणिपक्खेवादिसु संतेसु विदियगुणहाणीए श्रद्धाणस्स 'विसरिसत्तविरोहादो । पच्चक्खेण गुणहाणीणं सरिसत्तं बाहिञ्जदि ति णासंकणिज्जं, खंडाणं पक्खेव अब यहाँ एक काण्डक प्रमाण संख्यात भागवृद्धियोंको बुद्धिसे पृथक् करके एक पंक्तिके आकारसे स्थापित करनेपर सब गुणहानियोंका अध्वान समान ही रहता है, क्योंकि, गुणहानियों के अध्वानोंके असमान होनेका कोई कारण नहीं पाया जाता । यदि कहा जाय कि प्रत्येक गुणहानिमें प्रक्षेप व पिशुलादिकोंकी दुगुणता गुणहानियोंकी असमानताका कारण है, सो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि, प्रत्येक गुणहानि में दूने दूने प्रक्षेप, कषायोदयस्थान और गुणहानियोंकी भी असमानता स्वीकार की गई है । प्रत्येक गुणहानिमें प्रक्षेपोंके दूने होनेके बिना गुणहानियोंका अवस्थित रहना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि, उससे अन्य उक्त वृद्धि-हानियों का विरोध पाया जाता है । दूसरे, यहाँ प्रक्षेप आदिकों का दूना होना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, अवस्थित भागहारके द्वारा दूनी दूनी विभज्यमान राशियोंको अपवर्तित करनेपर विभज्यमान राशि मात्र प्रतिभाग बाहल्या पाया जाता है । 1 शंका- छप्पनसे अपवर्तित उत्कृष्ट संख्यातके इकतालीस अंशोंके द्वितीय व तृतीय भागादिकों के संकलनों में गुणहानिअध्वान अवस्थित नहीं पाया जाता है ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, उन संकलनोंको भी प्रथम गुणहानि के प्रमाणसे ही उत्पन्न होना चाहिये, क्योंकि, प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रक्षेपादिकों से द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी प्रक्षेपादिकोंके दूने होनेपर द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी अध्वानके विसदृश होने का विरोध है । शंका गुणहानियों की सदृशता तो प्रत्यक्ष से बाधित है ? समाधान - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, खण्डों के प्रक्षेपोंका विधान चूँकि अन्यथा १ ताप्रतौ 'विसरिसत्त-' इति पाठः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ ४, २, ७, २१४. ] drमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया विहाणपण हाणुवत्ती तत्थुष्पाइदगुणहाणिअद्वाणस्स पुधत्ताभावसिद्धीदो | ण च गुणहाणिश्रद्ध णस्स संखेज्जदिभागहीणत्तं संखेज्जगुणहीणत्तं वा वोत्तुं जुत्तं, गुणहाणिअद्धाणस्स णिस्सेसविलयत्तप्पसंगादो । ण च एवं अप्पिदद्गुणवड्डीदो अवराए दुगुणवड्डीए एगपक्वेवाहियमेत्ते दुगुणत्तप्पसंगादो । तं पि ण घडदे, पमाणविसय मुल्लंघिय अवदत्तादो | तम्हा सव्वासिं गुणहाणीणमद्वाणं सरिसं ति ददुव्वं । एवं संखेज्जगुणवड्डी चेव होतॄण नाव गच्छदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स रूवूणद्धछेदणयमे त्तगुणहाणीयो गदाओ ति । पढमदु गुणवड्डीदो जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धछेदणयमेत्तासु दु गुणवड्डीसु गदासु पढमा असंखेज्जगुणवड्डी उप्पज्जदि, जहण्णपरित्तासंखेज्जेण जहण्णट्ठाणे गुणिदे तदित्थाणुष्पत्तदो | एत्तो पहुडि उवरि सव्वत्थ असंखेज्जगुणवड्डी चैव जाव अकमितदणंतर उन्के त्ति । पढमअकप्पहूडि जाव पज्जवसाणउव्वंके त्ति ताव सव्वट्टाणाणि जहण्णडाणादो अर्णतगुणाणि, अकेसु पुध पुध सव्वजीवरासिगुणगारुवलंभादो । संपहि वड्डीणं जहणडाणमवलंबिय विसयपमाणपरूवणा कीरदे । तं जहाअनंतभागवड्डीए विसओ एगकंदयमेतो, उवरि असंखेज भागवड्डिसणादो | संपहि असंखेज भागवड्ढिविसयस्स पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा -- - कंदय सहिदकंदयवग्गमेत्तो बनता नहीं है, अतएव वहाँ उत्पन्न कराये गये गुणहानिअध्वानकी अभिन्नता ( सदृशता ) सिद्ध है | गुणहानिअध्वान संख्यातवें भागसे हीन अथवा संख्यातगुणा हीन है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे गुणहानिअध्वानके पूर्णतया नष्ट हो नेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर विवक्षित दुगुणवृद्धि की अपेक्षा इतर दुगुणवृद्धिके एक प्रक्षेपकी अधिकता मात्र से दूने होनेका प्रसंग आता है । वह भी घटित नहीं होता है, क्योंकि, प्रमाणविषयताका उल्लंघन करके उसका अवस्थान है । इस कारण सब गुणहानियोंका अध्वान सदृश है, ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार संख्यातगुणवृद्धि ही होकर तब तक जाती है जब तक कि जघन्य परीता संख्यात के एक अंकसे दीन अर्धच्छेदों के बराबर गुणहानियाँ समाप्त नहीं होती हैं । प्रथम दुगुणवृद्धिसे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर दुगुणवृद्धियों के समाप्त होनेपर प्रथम असंख्यात - गुणवृद्धि उत्पन्न होती है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातसे जघन्य स्थानको गुणित करनेपर वहाँका स्थान उत्पन्न होता है। इससे आगे अष्टांकके अधस्तन तदनन्तर ऊर्वक तक सर्वत्र असंख्यात - 'गुणवृद्धि ही है। प्रथम अष्टांकसे लेकर अन्तिम ऊर्वक तक सब स्थान जघन्य स्थानसे अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अष्टांकों में पृथक् पृथक् सब जीवराशि गुणकार पाया जाता 1 अब जघन्य स्थानका आलम्बन करके वृद्धियोंके विषय के प्रमाणकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है - अनन्तभागवृद्धिका विषय एक काण्डक प्रमाण है, क्योंकि, आगे असंख्यात - भागवृद्धि देखी जाती है । अब असंख्यात भागवृद्धि विषयक प्रमाणकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है - असंख्यात भागवृद्धिका विषय एक काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७, २१४. असंखेज्जभागवड्डीए विसो । तं जहा-एकिस्से असंखेज्जभागवड्डीए जदि रूवाहियकंदयमेत्तात्री असंखेज्जभागवड्डीओ लब्भंति तो कंदयमेत्तासु असंखेज्जभागवड्डीसु केत्तियाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्तो असंखेजभागवड्डिविसओ होदि । ___ संपहि संखेज्जभागवड्डिविसयस्स पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा-रूवाहिय'कंदएण एगकंदए गुणिदे दोणं संखेज्जभागवड्डीणं अंतरं होदि । पुणो तत्थ पढमसंखेजभागवड्डिट्ठाणे पक्खित्ते रूवाहियमंतरं होदि । पुणो एकसंखेजभागवड्डीए जदि एत्तियो संखेजभागवड्डिविसओ लब्भदि तो उक्कस्ससंखेचं छप्पण्णखंडाणि कादण तत्थ इगिदालखंडेसु जत्तियाणि रूवाणि तत्तियासु संखेजभागवड्डीसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए संखेजभागवड्डिविसो होदि । संपहि संखेज्जगुणवड्डिविसयस्स पमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-पुन्विल्लसंखेज्जभागवड्डिविसयं ठविय तेरासियकमेण जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धछेदणएहि रूवूणएहि सव्व गुणहाणिअद्धाणाणि सरिसाणि त्ति गुणिदे संखेज्जगुणवड्डिविसयो होदि । संपहि असंखेज्जगुणवड्डिविसयप्पमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-संखेज्जभागवड्डि विसओ अणंतरोवणिधाए अंगुलस्स असंखेज्जदि,भागमेत्तो। एदस्स असंखेज यथा-एक असंख्यातभागवृद्धिमें यदि एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियों में वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक काण्डकके साथ काएडकके वर्ग मात्र असंख्यातभागवृद्धिका विषय होता है। अब संख्यातभागवृद्धिके विषयप्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है--एक अधिक काण्डकसे एक काण्डकको गुणित करनेपर दोनों संख्यातभागवृद्धियोंका अन्तर होता है। फिर उसमें प्रथमसंख्यातभागवृद्धिके स्थानको मिलानेपर एक अंकसे अधिक अन्तर होता है। अब एक संख्यातभागवृद्धिमें यदि संख्यातभागवृद्धिविषयक इतना अन्तर पाया जाता है तो उत्कृष्ट संख्यातके छप्पन खण्ड करके उनमेंसे इकतालीस खण्डोंमें जितने अंक है उतनी मात्र संख्यातभागवृद्वियोमें वह कितना पाया जावेगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर संख्यातभागवृद्धिका विषय होता है। __ अब संख्यातगुणवृद्धिके विषयप्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- पूर्वोक्त संख्यातभागवृद्धिके विषयको स्थापित करके त्रैराशिक क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातके एक अंकसे हीन अर्धच्छेदोंसे सब गुणहानिअध्वानोंको सदृश होनेके कारण गुणित करनेपर संख्यातगुणवृद्धिका विषय होता है। __ अब असंख्यातगुणवृद्धिके विषयप्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-संख्यातभागवृद्धिका विषय अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अंगलके असंख्यातवें भाग मात्र है। इसके असंख्या १ ताप्रतौ 'दुरूवाहिय' इति पाठः । १ अप्रतौ 'रूवूणसव्व' इति पाठः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१६१ दिभागे चेव अणंतभागवड्डि-असंखेज्जभागवाड्डि-संखेज्जभागवडि-संखेज्जगुणवड्डीओ समत्ताओ त्ति संखेज्जभागवड्डिअद्धाणस्स असंखेज्जा भागा, संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डिअद्धाणाणि च संपुण्णाणि असंखेज्जगुणवाड्डिविसो होदि । संपहि पढमअट्ठकप्पहुडि जाव उव्वंके त्ति ताव अणंतगुणवड्डीए विसओ । एत्थ तिणि अणिओगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्यावहुंगं चेदि । परूवणाए अस्थि एगाणुमागदुगुणवड्डिहाणंतरंणाणादुगुणवड्डिसलागाओ च । पमाणं-एगाणुभागदुगुणवड्डिहाणंतरमंगुलस्स असंखेजदिभागो । णाणादुगुणवड्डिहाणंतरसलागारो असंखेजा लोगा। अप्पाबहुगं-एगाणुभागदुगुणवड्डिाणंतरं थोवं । णाणादुगुणवड्डिट्ठाणंतरसलागाओ असंखे. जगुणाओ। अवहारो-जहण्णट्ठाणफद्दयपमाणेण सव्वाणफद्दयाणि अणंतेण कालेण अवहिरिज्जति । एवं सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णट्ठाणप्पहुडि उवरिमट्ठाणपमाणेण सव्वट्ठाणाणि अणंतेण कालेण अवहिरिज्जति ति वत्तव्वं । णवरि चरिमअहंकप्पडि जाव पज्जवसाणउव्वंके ति ताव एदेसि हाणाणं पमाणेण सवट्ठाणेसु अवहिरिज्जमाणेसु असंखेज्नेण कालेण अवहिरिजंति, कंदयमेत्तअसंखेज्जलोगेसु कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्तउक्कस्ससंखेज्जेसु अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअसंखेज्जलोगअण्णोण्णभत्थरासीसु च परोप्परं गुणिदासु वि अणंतरासिसमुप्पत्तीए अभावादो । पज्जवसाण उव्वंकपमाणेण सव्व तवें भागमें ही अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये वृद्धियाँ चूंकि समाप्त हो जाती हैं, अतएव संख्यातभागवृद्धिअध्वानका असंख्यातबहुभाग तथा संख्यातगुणवृद्धि एवं असंख्यातगुणवृद्धिका सम्पूर्ण अध्वान असंख्यातगुणवृद्धिका विषय होता है। __अब प्रथम अष्टांकसे लेकर ऊर्वक तक अनन्तगुणवृद्धिका विषय है । यहाँ तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा. प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणाकी अपेक्षा-एकानुभागदगुणवृद्धिस्थानान्तर और नानादुगुणवृद्धिशलाकायें हैं। प्रमाण-एकानुभागदुगुणवृद्धिस्थानान्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । नानादुगुणवृद्धिग्थानान्तरशलाकायें असंख्यात लोक प्रमाण हैं। अल्पबहुत्व-एकानुभागदुगुणवृद्धिस्थानान्तर स्तोक है। उससे नानादुगुणवृद्धिस्थानान्तरशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। अवहारकी प्ररूपणा करते हैं-जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्द्धकके प्रमाणसे सब स्थानों के स्पर्द्धक अनन्तकालसे अपहृत होते हैं । इसी प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य स्थानसे लेकर आगेके स्थानोंके प्रमाणसे सब स्थान अनन्तकालसे अपहृत होते हैं, ऐसा कहना चाहिये। विशेष इतना है कि अन्तिम अष्टांकसे लेकर अन्तिम ऊवक तक इन स्थानोंके प्रमाणसे सब स्थानोंके अपहृत करनेपर वे असंख्यातकालसे अपहृत होते हैं, कारण कि काण्डक प्रमाण असंख्यात लोकों, काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण उत्कृष्ट संख्यातों और अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात लोकोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशियोंको परस्पर गुणित करनेपर भी अनन्त राशिके उत्पन्न होनेकी सम्भावनाका अभाव है । अन्तिम ऊवकके प्रमाणसे सब स्थानोंको अपहृत करनेपर Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] छखंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २१४. हासु अवहिरिज्ज माणेसु केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? एगवारमवहिरिज्जंति, चरिमुव्वंकम्मि सव्वाणाणमुवलंभादो | दुचरिमउव्वं कट्ठाण पमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जंति ? सादिरेयएगरूवेण । तिचरिमउच्चकद्वाणपमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जति १ सादिरेयए गरूवेण । एवं णेयच्वं जाव दुगुणहट्टवरिमाणं 'ति । पुणो दुगुणहीणहाणपमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेण अव हरिज्जति ? दोहि रूवेहि । तत्तो हेडिम द्वाणपमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? संखेज्जेहि रूवेहि । एवं यव्वं जाव पजवसाणउव्यंकट्ठाणं जहण्णपरितासंखेज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तअणुभागट्टाणस्स उवरिमाणं ति । तत्तो हेहिमहापमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? जहण्णपरित्तासंखेज्जेण । एवं हेट्टिमअणुभागट्टाणाणं पमाणेण अवहिरिजमाणे असंखेज्जेण कालेन अवहिरिज्जति यव्वं जाव पढमअनंतगुणहाणीए उवरिमट्ठाणे ति ! सेसं चिंतिय वत्तत्रं गंधबहुतभरण जंण लिहिदल्लयं । अवहारो समत्तो । भागाभागो जधा अवहारकालो तथा वत्तव्यो । अप्पाबहुगं - सव्वत्थोवाणि जहफयाणि । अणुक्कस्सए द्वाणे फक्ष्याणि अनंतगुणाणि । को गुणगारो ? अवि वे कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? वे एक वार में अपहृत होते हैं, क्योंकि, अन्तिम ऊर्वक के सब स्थान पाये जाते हैं । द्विचरम ऊर्वकस्थान के प्रमाणसे सब स्थान कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे साधिक एक अंकके द्वारा अपहृत होते हैं । त्रिचरम ऊर्वक स्थान के प्रमाणसे वे कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे साधिक एक अंकके द्वारा अपहृत होते हैं | इस प्रकार दुगुणहीनस्थान से आगे के स्थान तक ले जाना चाहिये । पुनः दुगुणहीनस्थानके प्रमाणसे सब स्थान कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे दो अंकों के द्वारा अपहृत होते हैं। उससे नीचे के स्थानके प्रमाणसे वे कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे संख्यात अंकों द्वारा अपहृत होते हैं । इस प्रकार अन्तिम ऊर्वकस्थानको जघन्य परीता संख्यात से खण्डितकर उसमें से एक खण्ड मात्र अनुभागस्थानके उपरिम स्थानतक ले जाना चाहिये । उससे नीचे के स्थान के प्रमाणसे सब स्थान कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे जघन्य परीतासंख्यातके द्वारा अपहृत होते हैं । इस प्रकार से अधस्तन स्थानोंके प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे असंख्यात काल द्वारा अपहृत होते हैं, ऐसा प्रथम अनन्त गुणहानिके उपरिम स्थानतक ले जाना चाहिये । शेष अर्थ की प्ररूपणा विचारकर करना चाहिये, जो कि यहाँ ग्रन्थबहुत्वके भय से नहीं लिखा गया है । अवहार समाप्त हुआ । जैसा अवहारकाल कहा गया है वैसे ही भागाभागका कथन करना चाहिये । अल्पबहुत्वका कथन करते हैं - जघन्य स्थान में स्पर्द्धक सबसे स्तोक हैं । अनुत्कृष्ट स्थानमें उनसे अनन्तगुणे स्पर्द्धक हैं । गुणकार क्या है ? अविभागप्रतिच्छेदोंका आश्रय करके वह सब जीवांसे अनन्त १ ताप्रती 'जाव गुणहीणउवरिमाणं' इति पाठः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१९३ भागपलिच्छेदे पडुच्च सव्वजीवेहि अणंतगुणो फद्दयगणणाए अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो । उक्कस्सए हाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि । एवं छहाणपरूवणा' समत्ता। हेट्टाहाणपरूवणाए अणंतभागभहियं कंदयं गंतूण असंखेजभागब्भहियं हाणं ॥२१५ ॥ असंखेज्जभागवड्डिहाणं णिरंभिय हेडिमट्ठाणाणं परूवणहमिदं सुत्तमागयं । अणंतभागब्भहियहाणाणं कंदयं गंतूण असंखेजभागवड्डिहाणमुप्पज्जदि । किं कंदयपमाणं ? अंगुलस्स असंखेज्जदिमागो । तस्स को भागहारो ? विसिवदेसाभावादो [ण] णबदे । फद्दयवग्गणप्पमाणं व सव्वकंदयाण पमाणं सरिसं । कुदो णव्यदे ? अरिसंवादिगुरुवयणादो। चरिमसमयसुहुमसांपराइयजहण्णाणुभागबंधट्टाणप्पहुडि दुचरिमादिअणुभागबंधहाणाणमणंतगुणवड्डिअणुभागबंधदसणादो "जहण्णहाणादो अणंतभागष्भहियं कदयं गंतूण असंखेज्जभागवड्डिाणं होदि" त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे ? ण एस दोसो, जत्थ छविहवड्डिकमेण छब्धिहहाणिकमेण च अणुभागो बज्झदि तमासेज्ज तधापरूविदत्तादो।ण गुणा है, तथा स्पर्द्धकगणनाकी अपेक्षा अभवसिद्धिकोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र है। उनसे उत्कृष्ट स्थानमें विशेष अधिक स्पर्द्धक हैं। इस प्रकार षट्स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। ___ अधस्तनस्थानप्ररूपणामें अनन्तवें भागसे अधिक काण्डक प्रमाण जाकर असंख्यातवें भागसे अधिक स्थान होता है ॥ २१५ ॥ __ असंख्यातभागवृद्धिस्थानकी विवक्षाकर नीचेके स्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये यह सुत्र आया है। अनन्तवें भागसे अधिक स्थानोंका काण्डक जाकर असंख्यातभागवृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है। काण्डकका प्रमाण कितना है ? उसका प्रमाण अंगुलका असंख्यातवाँ भाग है। उसका भागहार क्या है ? विशिष्ट उपदेशका अभाव होनेसे उसका परिज्ञान नहीं है । स्पर्द्धककी वर्गणाओं के प्रमाणके समान सब काण्डकोंका प्रमाण सदृश है। वह किस प्रमाण से जाना जाता है ? वह गुरुके विसंवाद रहित उपदेशसे जाना जाता है। शंका-अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके जघन्य अनुभागबन्धस्थानसे लेकर द्विचरम आदि अनुभागबन्धस्थानोंका अनुभागबन्ध चूँकि अनन्तगुणवृद्धि युक्त देखा जाता है, अतरव "जघन्य स्थानसे अनन्तवें भागसे अधिक काण्डक जाकर असंख्यातभागवृद्धिका स्थान होता है" ऐसा जो कहा गया है वह घटित नहीं होता है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जहाँपर छह प्रकारकी वृद्धि अथवा छह प्रकारकी हानिके क्रमसे अनुभाग बंधता है उसका आश्रय करके उस प्रकारकी प्ररूपणा की गई १ अ-याप्रत्योः 'छट्टणवपरूवणा' इति पाठः । २ अ-याप्रत्योः 'विसुट्टवदेसाभावो णव्वदे' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'वड्ढदि' इति पाठः। छ. १२-२५ • Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१६. च सुहुमसांपराइयगुणहाणम्हि छव्विहाए वड्डीए बंधो अस्थि, विरोहादो। पुणो कत्तो प्पहुडि एसा हेट्टाहाणपरूवणा कीरदे ? सुहुमेइंदियजहण्णहाणप्पहुडि कीरदे । एदम्हादो हेट्ठिमट्ठाणेसु एगं हाणं णिभिय परूवणा किण्ण कीरदे ? ण, हेहा एदम्हादो ऊणसंतहाणामावादो। चरिमसमयखीणकसायस्स संतहाणप्पहुडि परूवणा किण्ण कीरदे ? ण, तत्तो प्पहुडि हाणाण छविहबड्डीए अभावादो । जेणेदं सुत्तं देसामासियं तेण अणंतभागब्भहियहाणाणं कंदयं गंतूण संखेजभागवड्डी संखेजगुणवड्डी असंखेजगुणवड्डी अणंतगणबड्डी च उप्पजदि त्ति घेत्तव्यं' । संखेजभागवड्डिहाणणिरुंभणं काऊण हेट्ठिमहाणपरूवण उवरिमसुत्तं भणदि असंखेजभागभहियं कंदयं गंतूण संखेज्जभागभहियं हाण॥२१६॥ कंदयमेत्ताणि असंखेजभागभहियहाणाणि जाव ण गदाणि ताव णिच्छएण संखेअभागवड्डिट्ठाणं ण उप्पजदि त्ति भणिदं होदि । असंखेजभागवड्डीणं विच्चालेसु अणंतहै । परन्तु सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें छह प्रकारको वृद्धिसे बन्ध नहीं होता, क्योंकि, उसमें विरोध है। शंका-तो फिर कौनसे जघन्य स्थानसे लेकर यह अधस्तनस्थानप्ररूपणा की जा रही है ? समाधान-वह सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य स्थानसे लेकर की जा रही है। शंका-इससे नीचेके स्थानोंमेंसे एक स्थानकी विवक्षाकर वह प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, नीचे इससे हीन सत्त्वस्थानका अभाव है। शंका-अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषायके सत्त्वस्थानसे लेकर उक्त प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उस स्थानसे लेकर जो स्थान हैं उनके छह प्रकार की वृद्धि सम्भव नहीं है। यह सूत्र चूँकि देशामर्शक है अतएव अनन्तवें भागसे अधिक स्थानोंका काण्डक जाकर संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि उत्पन्न होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। अब संख्यातभागवृद्धिस्थानकी विवक्षा करके अधस्तन स्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं - __असंख्यानवें भागसे अधिक काण्डक जाकर संख्यातवें भागसे अधिक स्थान होता है ।। २१६ ॥ _असंख्यातवें भागसे अधिक काण्डक प्रमाण स्थान जबतक नहीं बीतते हैं तबतक निश्चयसे संख्यातभागवृद्धिका स्थान नहीं उत्पन्न होता है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। १ अा-ताप्रत्योः 'वत्तव्वं' इति पाठः । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २१७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १९५ भागवड्डीयो वि कंदयमेताओ अत्थि, तारो कि ण परूविदाओ ? ण एस होदि दोसो, "अणंतभागभहियं कंदयं गंतूण असंखेजभागभहियहाणं होदि" त्ति पुन्विल्लसुत्तादो चेव तदवगमादो उवरिमसुत्तेण भण्णमाणत्तादो वा। संपहि संखेञ्जगुणवड्डिमाधारं कादूण हेहिमाणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि संखेजभागब्भहियं कंडयं गंतूण संखेजगुणभहियं ठाणं॥२१७॥ संखेजभागवड्डीयो कंदयभेत्ताओ जाव ण गदाओ ताव संखेजगुणवड्डी ण उप्पञ्जदि, कंदयमेत्ताओ संखेजभागवड्डीयो गंतूण चेव उप्पजदि ति चेत्तव्वं । असंखेजगुणवड्डिमाधारं कादृण हेट्ठिमसंखेजगुणवड्डिपमाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि संखेजगुणब्भहियं कंदयंगंतूण असंखेज्जगुणभहियं ठाणं ॥२१॥ ___ असंखेजगुणवड्डी उप्पजमाणा संखेजगुणवड्डीणं कंडयं गंतूण चेव उप्पजदि, अण्णहा ण उप्पजदि त्ति घेत्तव्वं । अणंतगुणवड्डिणिरु भणं काण हेट्ठिमाणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागयं असंखेजगुणब्भहियं कंडयं गंतूण अणंतगुणन्भहियं हाणं॥२१॥ शंका-असंख्यातभागवृद्धियों के बीच बीचमें अनन्तभागवृद्धियाँ भी काण्डक प्रमाण होती हैं, उनकी सूत्र में प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, “अनन्तवें भागसे अधिक काण्डक प्रमाण जाकर असंख्यातवें भागसे अधिक स्थान होता है" इस पूर्वोक्त सूत्रसे उसका ज्ञान हो जाता है। अथवा, उसका कथन आगे कहे जानेवाले सूत्रके द्वारा किया जायगा। अब संख्यातगुणवृद्धिको आधार करके नीचेके स्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं संख्यात भागसे अधिक काण्डक जाकर संख्यातगुणा अधिक स्थान होता है ॥ २१७ ॥ जबतक संख्यातभागवृद्धियाँ काण्डक प्रमाण नहीं वीतती हैं तबतक संख्यातगुणवृद्धि नहीं उत्पन्न होती है, किन्तु काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँ जाकर ही वह उत्पन्न होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। अब असंख्यातगुणवृद्धिको आधार करके उससे नीचेकी संख्यातगुणवृद्धिके प्रमाण की प्ररूपणा करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं संख्यातगुणा अधिक काण्डक जाकर असंख्यातगुणा अधिक स्थान होता है ॥२१८॥ असंख्यातगुणवृद्धि उत्पन्न होती हुई संख्यातगुणवृद्धियोंके काण्डकके वीतने पर ही उत्पन्न होती है, इसके बिना वह उत्पन्न नहीं होती; ऐसा ग्रहण करना चाहिये। अब अनन्तगुणवृद्धिकी विवक्षा करके नीचे के स्थानों की प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र प्राप्त होता है - असंख्यातगुणा अधिक काण्डक जाकर अनन्तगुणा अधिक स्थान उत्पन्न होता है ॥ २१६ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २२०. अणंतगुणवड्डी उप्पज्जमाणा सव्वा वि असंखेज्जगुणवड्डीणं कंदयं गंतृण चेव उप्पज्जदि, ण अण्णहा इदि ददुव्यं । पढमा हेहाहाणपरूवणा समत्ता । अणंतभागभहियाणं' कंडयवग्गं कंडयं च गंतूण संखेज्जभागब्भहियहाणं ॥ २२० ॥ एसा विदिया हेटाहाणपरूवणा किमहमागदा ? संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवडिअसंखेजगुणवड्डि-अणंतगुणवड्डीणं च हेहिमअणंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डि-संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डीणं पमाणपरूवणटुं। संखेन्जमागवड्डी उप्पजमाणा अणंतभागवड्डीणं कंदयवग्गं कंदयब्भहियं गंतूण चेव उप्पजदि १६, ण अण्णहा, विरोहादो। एदेसिमुप्पायण विहाणमणुवायादो उच्चदे । कोऽनुपातः १ त्रैराशिकम् । तं जहा--एक्किस्से असंखेज्जभागवड्डीए हेट्ठा जदि कंदयमेत्ताओ अणंतभागवड्डीयो लब्भंति तो रूवाहियकंदयमेताणमसंखेज्जभागवड्डीणं केत्तियाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्ताओ अणंतभागवड्डीयो लभंति । पुव्वं संखेज्जभागवड्डीदो हेढा अनन्तगुणवृद्धि उत्पन्न होती हुई सब ही असंख्यातगुणवृद्धियोंके काण्डकको बिताकर ही उत्पन्न होती है, इसके बिना वह उत्पन्न नहीं होती; ऐसा समझना चाहिये । प्रथम अधस्तनस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। अनन्तभाग अधिक अर्थात् अनन्तभागवृद्धियोंके काण्डकका वर्ग और एक काण्डक जाकर संख्यातभागवृद्धिका स्थान होता है।॥ २२० ॥ शंका-यह द्वितीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा किस लिये प्राप्त हुई है ? समाधान- वह संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि व अनन्तगुणवृद्धि इनके तथा नीचेकी अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि; इन वृद्धियोंके भी प्रमाण की प्ररूपणा करनेके लिये प्राप्त हुई है। ___ संख्यातभागवृद्धि उत्पन्न होती हुई अनन्तभागवृद्धियोंके एक काण्डकसे अधिक काण्डकके वर्गको विताकर ही उत्पन्न होती है (४४४+४), इसके बिना वह उत्पन्न नहीं होती; क्योंकि, उसमें विरोध है। इनके उत्पन्न करानेकी विधि अनुपातसे कहते हैं। शंका-अनुपात किसे कहते हैं ? समाधा-त्रैराशिकको अनुपात कहते हैं। यथा-एक असंख्यातभागवृद्धिके नीचे यदि काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियाँ ती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर काण्डक सहित काण्डकके वगै प्रमाण अनन्तभागवृद्धियाँ पायी जाती हैं १ ताप्रती 'अणतभागभहियं' इति पाठः। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २२१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१९७ कंदयमेत्ताओ चेव असंखज्जभागवड्डीयो सुत्तण परूविदाओ। संपहि तेरासिए'कीरमाणे रूवाहियकंडयादो अणंतभागवड्डिहाणाणं उप्पायणं कधं जुज्जदे ? ण एस दोसो, संखज्जभागवड्डीए हेट्ठा असंखेज्जभागवड्डीयो कंदयमेत्ताओ चेव, किंतु अण्णेकिस्से असंखेन्जभागवड्डीए विसयं गंतण असंखेज्जभागवड्डिपाओग्गद्धाणे असंखेज्जभागवड्डी अहोदूण' संखेजभागवड्डिसमुप्पत्तीदो। असंखेजभागभहियाणं कंदयवग्गं कंदयं च गंतूण संखेजगुणब्भहियट्ठाणं ॥ २२१ ॥१६ एदेसिमुप्पायणविहाणं उच्चदे । तं जहा- एकिस्से संखेजभागवड्डीए हेट्ठा जदि कंदयमेत्ताओ असंखेज्जभागवड्डीयो लभंति तो रूवाहियकंदयमत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए कंदयसहियकंदयवग्गमेत्ताओ असंखेज्जभागवड्डीयो होति । सेसं सुगमं ।। संखेजभागब्भहियाणं कंदयवग्गं कंदयं च गंतूण असंखेज्जगुणब्भहियट्ठाणं ॥२२२ ॥१६ तं जहा–एक्किस्से संखेजगुणवड्डीए हेहा जदि कंदयमेत्ताओ संखेज्जभाग___शंका-पहिले संख्यातभागवृद्धिके नीचे काण्डक प्रमाण ही असंख्यातभागवृद्धियाँ सूत्र द्वारा बतलाई गई हैं। अब त्रैराशिक करनेपर एक अधिक काण्डकसे 'अनन्तभागवृद्धिस्थानोंका उत्पन्न कराना कैसे योग्य है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संख्यातभागवृद्धिके नीचे असंख्यातभागवृद्धियाँ काण्डक प्रमाण ही होती हैं, किन्तु अन्य एक असंख्यातभागवृद्धिके विषयको प्राप्त होकर असंख्यातवृद्धिके योग्य अध्वानमें असंख्यातभागवृद्धि न होकर संख्यातभागवृद्धि उत्पन्न होती है । __ असंख्यातभागवृद्धियाँका काण्ड कवर्ग व एक काण्डक जाकर संख्यातगुणवृद्धिका स्थान होता है ॥ २२१ ॥ १६+४ इनके उत्पन्न करानेकी विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है- एक संख्यातभागवृद्धिके नीचे यदि काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ होती हैं । शेष कथन सुगम है। संख्यातभागवृद्धियोंका काण्डकवर्ग और एक काण्डक जाकर (१६+४) असंख्यातगुणवृद्धिका स्थान होता है ।। २२२ ॥ यथा-एक संख्यातगुणवृद्धिके नीचे यदि काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँ पायी १ प्रतिषु 'तेराचीए' इति पाठः। २ अ-श्रा प्रत्योः 'बाहोदूण' इति पाठः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २२३. वड्डीओ लब्भंति तो वाहियकंदयमंत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदार कंदयसहिदकंदयवग्गमेताओ संखेज्जभागवड्डीयो लब्धंति । सेसं सुगमं । संखेज्जगुण भहियाणं कंदयवग्गं कंदयं च गंतूण अनंतगुणग्भहियं ट्ठाणं ॥ २२३ ॥ १६ एदेसिं उत्पत्तिविहाणं उच्चदे । तं जहा - - एकिस्से अनंतगुणवड्डीए हेट्ठा जदि कंदयमेचाणि संखेजगुणवड्ढिट्ठाणाणि लब्भंति तो रूवाहियकंदयमेत्ताणमसंखेज्जगुणवाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए कंदय सहिदकंदयगमेाणि संखेजगुणवड्डिद्वाणाणि अकादो हेड्ट्ठा लद्वाणि होंति । एवं विदिया हेडाट्ठाणपरूवणा समत्ता । संखेज्जगुणस्स eat अनंतभाग भहियाणं कंदयघाणो बेकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२४ ॥ दिया हाणपरूवणा किमहमागदा ? संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डि-अनंतगुणवड्डीणं हेदो' अनंतभागवड्डि-असंखेज भागवड्ढि संखेज्जभागवड्डीणं जहाकमेण ક १६ १६ ४ जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण संख्यात भागवृद्धियाँ पायी जाती हैं। शेष कथन सुगम है । संख्यातगुणवृद्धियोंका काण्डकवर्ग और एक काण्डक ( १६+४) जाकर अनन्तगुणवृद्धिका स्थान होता है ।। २२३ ॥ इनके उत्पन्न कराने की विधि बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- एक अनन्तगुणवृद्धि के नीचे यदि काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर अष्टांक के नीचे काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थान पाये जाते हैं । इस प्रकार द्वितीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। संख्यातगुणवृद्धि नीचे अनन्तभागवृद्धियों का काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक ( ४° + (४* × २ ) + ४ ) होता है ।। २२४ ॥ शंका - तृतीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ? समाधान - वह संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, इन वृद्धियों के नीचे क्रमशः अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागवृद्धि, इनका प्रमाण बतलानेके प्राप्त हुई है। १ श्रापत्योः 'हेहादो' इति पाठः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २२५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १९९ पमाणपरूवणहूँ । एदस्स अस्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एकिस्से संखेज भागवड्डीए हेडा जदि कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्ताणि अणंतभागवड्डिट्ठाणाणि लभंति तो रूवाहियकंदयमेत्ताणं संखेजभागवड्डिहाणाणं किं लभामो त्ति कंदयवग्गं कंदयं च दो पडिरासीयो करिय जहाकमेण एगकंदएण एगरूवेण च गुणिय मेलाविदे एगकंदयघणो बे-कंदयवग्गा कंदयं च उपलब्भदे। असंखेज्जगुणस्स हेह्रदो' असंखेज्जभागभहियाणं कंदयघणो बेकंदयवग्गा कंदयं च ॥२२५॥ ६ Amar १५ एदस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-एकस्स संखेज्जगुणवडिहाणस्स हेह्रदो जदि कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्ताणि असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि लब्भंति तो रूवाहियकंदयमेत्तसंखेज्जगुणवड्डिहाणाणं किं लभामो त्ति पुव्वं व दुप्पडिरासिं कादण कमेणेगकंदएणेगरूवेण च गुणिय मेलाविदे एगो कंदयघणो बेकंदयवग्गा कंदयं च उपलब्भदे। अणंतगुणस्स हेट्टदो संखेज्जभागब्भहियाणं कंदयघणो वेकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२६॥ mmoc इसकी अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक संख्यातभागवृद्धिके नीचे यदि काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान पाये जाते हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके नीचे वे कितने पाये जावेंगे, इस प्रकार काण्डकवर्ग और काण्डक प्रमाण दो प्रतिराशियाँ करके क्रमशः एक काण्डक और एक अंकसे गुणित करके मिला देनेपर एक काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक पाया जाता है। असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके नीचे असंख्यातभागवृद्धियोंका एक काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक [४+(४२x२)+४] होता है ॥ २२५ ॥ इसका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक संख्यातगुणवृद्धिस्थानके नीचे यदि काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान पाये जाते हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके वे कितने पाये जावेंगे इस प्रकार पहलेके समान दो प्रतिराशियाँ करके क्रमशः एक काण्डक और एक अंकसे गुणित करके मिलानेपर एक काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक पाया जाता है। अनन्तगुणवृद्धिस्थानके नीचे संख्यातभागवृद्धिस्थानोंका एक काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक [४+(४२४२)+४] होता है ॥ २२६ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] छक्खंडागमे वेयणप्रखंड [४, २, ७, २२७. एदस्स अत्थो उच्चदे-एकस्स असंखेज्जगुणस्स हेहदो जदि कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्ताणि संखेज्जभागवड्डिहाणाणि लभंति तो रूवाहियकंदयमेत्ताणमसंखेज्जगुणवड्डिहाणाणं किं लभामो त्ति फलं दुप्पडिरासीकदं कमेणेगकंदयेणेगरूवेण च गुणिय मेलाविदे कंदयघणो वेकंदयवग्गा कंदयं च लब्भदे । एवं तदिया हेट्टाहाणपरूवणा समत्ता। १अ-बाप्रत्योः 'हेहादो' इति पाठः। २५६ ६४ असंखेजगुणस्स हेट्टदो अणंतभागभहियाणं कंदयवग्गावग्गो | तिष्णिकंदयघणा तिण्णिकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२७॥ commmcc चउत्थी हेहाहाणपरूवणा किमहमागदा ? असंखेज्जगुणब्भहिय-अणंतगुणब्भहियहाणाणं हेहिम अणंतभागवड्डिहाणाणं' पमाणपरूवणहूं। एदस्स सुत्तस्स अत्थो चुच्चदे। तं जहा-कंदयघणं दोण्णिकंदयवग्गे कंदयं च दुप्पडिरासिं करिय हवेदूण एगदएण एगरूवेण च जहाकमण गुणिदे कंदयवग्गावग्गो तिण्णिकंदयघणा तिण्णिकंदयवग्गा कंदयं च उप्पजदि त्ति । इसका अर्थ कहते हैं-एक असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके नीचे यदि काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थान पाये जाते हैं तो एक अधिक काण्डक प्रभाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानों के नीचे वे कितने पाये जावेंगे, इस प्रकार दो प्रतिराशि रूप किये गये फलको क्रमशः एक काण्डक और एक अंकसे गुणित करके मिला देनेपर एक काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक पाया जाता है। इस प्रकार तृतीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। असंख्यातगुणवृद्धि के नीचे अनन्तभागवृद्धियोंका एक काण्डकवर्गावर्ग, तीन काण्डकघन, तीन काण्डकवर्ग और एक काण्डक [४२ = १६, १६' = २५६, २५६+(४.४३)+(४२४३)+४] होता है ।। २२७ ॥ शंका-चतुर्थ अधस्तनस्थानप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ? । समाधान-वह असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि स्थानोंके नीचेके अनन्तभागवृद्धि स्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिये प्राप्त हुई है। इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक काण्डकघन, दो काण्डक वर्गों और एक काण्डकको दो प्रतिराशि रूप करके स्थापित कर एक काण्डक और एक अंकसे क्रमशः गुणित करनेपर एक काण्डकवर्गावर्ग, तीन काण्डकघन, तीन काण्डकवर्ग और एक काण्डक उत्पन्न होता है। १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ:ताप्रत्योः 'हेहिमश्रणंतभागवादि-असंग्वेज्जभागवड्डिाणाणं' इति पाठः। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०१ | २५६ ६४ अनंत गुणस्स हेट्ठदो असंखेज्जभागव्भहियाणं कंदयवग्गावग्गो ६४ तिष्णिकंदयघणा तिष्णिकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२८ ॥ २, ७, २२८. ] १६ १६ १६ ४ एसिमंकाणमुपत्ती भण्णमाणाए पुव्वं व चत्तव्यं, विसेसाभावादी । एवं चउत्थी हाणपरूवणा समत्ता । वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया अनंत गुणस्स दो अनंतभागग्भहियाणं कंदयो 'पंचहदो चत्तारिकंदयवग्गावग्गा छकंदयघणा चत्तारिकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२६ ॥ १ छ. १२-२६. एदेसिमंकाणमुप्पत्तिविहाणं बुच्चदे । तं जहा - कंदयवग्गावग्गं तिष्णि कंदयघणे अनन्तगुणवृद्धि के नीचे असंख्यात भागवृद्धियों का एक काण्डकवर्गावर्ग, तीन काण्डकघन, तीन काण्डकवर्ग और एक काण्डक होता [ (४४१६) + (४°<३)+ (४३) x ४ ] है || २२८ ॥ इन अंकों की उत्पत्तिका कथन करते समय पहिले के समान प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि समें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार चतुर्थी अधस्तनस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई । अनन्तगुणवृद्धिके नीचे अनन्तभागवृद्धियोंका पाँच वार गुणित काण्डक, चार काण्डकवर्गावर्ग, छह काण्डकघन, चार काण्डकवर्ग और एक काण्डक [ ( ४ × ४× ४× ४× ४) + (४ × ४ × १६ × ४ ) + (४ ×६) + (४'×४)+४] होता है ।। २२६ ॥ इन अंकों के उत्पादनकी विधि कही जाती है । वह इस प्रकार है प्रतौ 'कंदयपंचहदो' श्रापतौ 'कंदयपंचद्ददो' इति पाठः । १०२४ २५६ २५६ २५६ २५६ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ १६ १६ १६ १६ ४ - एक काण्डक वर्गावर्ग, तीन Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४,२, ७, २३०. तिष्णिकंदयवग्गे कंदयं च दोसु द्वाणेसु द्वविय जहाकमेण रूवेण कंदएण' च गुणिय मेलाविदे कंदओ पंचहदो चत्तारिकंदयवग्गावग्गा छकंदयघणा चत्तारिकंदयवग्गा कंदयं च उपजदि । एवं पंचमी हेद्वाद्वाणपरूवणा समत्ता । समयपरूवणदाए चदुसमइयाणि अणुभागबंधज्भवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा ॥ २३०॥ संतपरूवणमकाऊण पमाणप्पा हुआ णं चेत्र परूवणा किमहं कीरदे ? ण एस दोसो, एदेहि दोहि अणियोगद्दारेहि अवगदेहि तदवगमादो | ण च संतरहियाणं पमाणं थोवबहुत्तं च संभव, विरोहादो। अधवा, अविभागपडिच्छेद परूवणादिअणियोगद्दारेहि चेव अणुभागबंधट्टाणाणं कालविसेसिदाणं तस्स परूवणा कदा, एगसमयादिकालेण अविसेसिदाणं संतस्स गगणकुसुमसमाणत्तप्पसंगादो | | जहण्णाणुभागबंधद्वाणपहुडि जाव उकस्साणुभागबंधट्ठाणे त्ति एदेसिमसंखेज लोग मेत्ताण मणुभागबंधद्वाणाणं पण्णाए एगपतीए आयारेण रचणाए कदाए तत्थ हेहिमाणि असंखेजलोगमेत्तअणुभागबंधद्वाणाणि चदुसमइयाणि । एगसमयमादिं काढूण उक्कस्सेण णिरंतरं चत्तारिसमयं बज्झतित्ति भणिदं होदि । उवरि किण्ण बज्यंति १ सभावियादो । कडकनों, तीन काण्डक वर्गों और एक काण्डकको दो स्थानों में स्थापित करके क्रमशः एक अंक और काण्डक द्वारा गुणित करके मिलानेपर पाँचवार गुणित काण्डक, चार काण्डकवर्गावर्ग, छह काण्डघन, चार काण्डकवर्ग और एक काण्डक उत्पन्न होता है । इस प्रकार पंचम अधस्तनस्थान प्ररूपणा समाप्त हुई । समयप्ररूपणा में चार समयवाले अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं || २३० ॥ शंका-सत्प्ररूपणा न करके प्रमाण और अल्पबहुत्व की ही प्ररूपणा किसलिये की जा रही है । समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इन दो अनुयोगद्वारोंके अवगत हो जानेपर उनके द्वारा सत्प्ररूपणा का अवगम हो जाता है। कारण कि सत्त्वसे रहित पदार्थों का प्रमाण और अल्पबहुत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसमें विरोध है । अथवा, अविभागप्रतिच्छेद आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा ही कालसे विशेषित अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंके सत्त्वकी प्ररूपणा की जा चुकी है, क्योंकि, एक समय आदि कालकी विशेषता से रहित उनके सत्व के आकाशकुसुमके समान होने का प्रसंग आता है जघन्य अनुभागबन्धस्थान से लेकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानतक इन असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थानोंकी बुद्धिसे एक पंक्तिके आकार से रचना करनेपर उनमेंसे नीचे के असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थान चार समयवाले हैं । अभिप्राय यह है कि ये स्थान एक समय से लेकर उत्कर्षसे निरन्तर चार समयतक बंधते हैं । शंका- चार समय से आगे वे क्यों नहीं बँधते हैं ? १ - श्रापत्योः 'जहाकमेण रूपेण रूवेण कंदएण' इति पाठः । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणमद्दाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया पंचसमइयाणि अणुभागबंधज्भवसाणहाणाणि २, ७, २३१. ]. लोगा ॥ २३१ ॥ चदुसमइयपाओग्गअणुभागबंधहाणेसु जमुक्कस्साणुभागबंधहाणं तत्तो उवरिमअणुभागबंधाणं पंचसमइयं । तमणुभागबंधहाणमादिं कारण असंखेजलोगमेत्तअणुभागधाणि पंचसमइयाणि, एगसमयमादि काढूण उकस्सेण पंचसमयं वज्यंति ति उत्तं होदि । एवं छसमइयाणि सत्तसमइयाणि असमइयाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जा लोगा ॥ २३२ ॥ पंचसमइया अणुभागबंधहाणेहिंतो उवरि असंखेज्जलोग मेत्ताणि अणुभागबंधट्ठाणाणि छसमइयाण होंति । तेहिंतो उवरि सत्तसमइयाणि 'अणुभागबंधहाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि होंति । तेहिंतो उवरि अहसमइयाणि अणुभागबंधद्वाणाणि असंखेज्जलोग मे चाणि होंति । पुणरवि सत्तसमइयाणि अणुभागवंधज्भवसाणाणाणि असंखेज्जा लोगा ॥ २३३ ॥ असमय अणुभागबंधट्ठाणेहिंतो हेट्ठा जेण अणुभागबंधडाणाणि सत्तसमइयपाओसमाधान - वे स्वभावसे ही चार समयके आगे नहीं बंधते हैं । पाँच समयवाले अनुभागवन्धाध्यसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ।। २३१ ॥ चार समय योग्य अनुभागबन्धस्थानोंमें जो उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान है उससे आगेका अनुभागबन्धस्थान पाँच समयवाला है । उस अनुभागबन्धस्थान से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थान पाँच समयवाले हैं, अर्थात् वे एक समयसे लेकर उत्कर्ष से पाँच समयतक बंधते हैं । इस प्रकार छह समय, सात समय और आठ समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २३२ ॥ [ २०३ असंखेज्जा पाँच समय योग्य स्थानोंसे आगे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थान छह समय योग्य हैं। उनसे आगे सात समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। उनसे आगे आठ समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । फिरसे भी सात समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २३३ ॥ चूँकि आठ समय योग्य अनुभागबन्धस्थानोंके नीचे सात समय योग्य अनुभागबन्धस्थानोंकी १ मप्रतौ श्रयं सदृष्टिः नीपलभ्यते शेषप्रतिषु तु अस्ति । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,२३४. ग्गाणि पुव्वं परूविदाणि तेण' पुणरवि त्ति भणिदं । एसो' 'पुणरवि' त्ति सदो उवरिमछप्पंच-चदुसमइयअणुभागबंधट्ठाणेसु अणुवट्टावेदव्यो । अणुभागबंधट्टाणाणमणुभागबंधज्मवसाणववएसो कधं जुजदे ? ण एस दोसो, कजे कारणोवयारेण तेसिं तदविरोहादो । अणुभागवंधझवसाणहाणाणि णाम जीवस्स परिणामो अणुभागबंधट्ठाणणिमित्तो । तेणेदस्स सण्णा' अणुभागबंधज्झवसाणहाणं होदि त्ति जुञ्जदे । एदाणि सत्तसमयपाओग्गअणुभागबंधट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि होति । कुदो ? साभावियादो। एवं छसमइयाणि पंचसमइयाणि चदुसमइयाणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजा लोगा ॥ २३४ ॥ उवरिमसत्तसमइयअणुभागबंधहाणेहिंतो उवरिमाणि छसमइयाणि अणुभागवंधहाणाणि असंखेजलोगमेताणि । तेहिंतो उवरि पंचसमइयाणि अणुभागबंधहाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि । तेहिंतो उवरि चदुसमइयाणि अणुभागबंधहाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि । सेसं सुगम। प्ररूपणा पहले की जा चुकी है, अतएव सूत्रमें 'पुणरवि' अर्थात् 'फिरसे भी'पदका प्रयोग किया गया है । इस 'पुणरवि' शब्दकी अनुवृत्ति आगेके छह, पाँच और चार समय योग्य अनुभागबन्ध. स्थानोंमें लेनी चाहिये। शंका - अनुभागबन्धस्थानोंकी अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा कैसे योग्य है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्यमें कारणका उपचार करनेसे उनकी उपर्युक्त संज्ञा करनेमें कोई विरोध नहीं है। अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानका अर्थ अनुभागबन्धस्थानमें निमित्तभूत्त जीवका परिणाम है। इस कारण इस अनुभागबन्धस्थानकी संज्ञा अनुभागबन्धाभ्यवसानस्थान उचित है। ये सात समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है इसी प्रकार छह समय योग्य, पाँच समय योग्य और चार समय योग्य अनुभागबन्याध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २३४ ॥ उपरिम सात समय योग्य अनुभागबन्धस्थानोंसे ऊपरके छह समय योग्य अनुभागबन्ध. स्थान असंख्यात लोक मात्र हैं। उनसे आगे पाँच समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। उनसे आगे चार समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष कथन सुगम है। ............................ १ प्रतिषु 'केण' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'भणिदं ? एसो' इति पाठः। ३ भाप्रतौ 'कारणेवयारादो तेसि इति पाठः।४ प्रतिषु सण्णा अणुभागबंधहाणस्स होदि इति पाठः। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,'४, ७, २३५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२०५ ___ उवरि तिसमझ्याणि बिसमइयाणि अणुभागबंधझवसाणहाणाणि असंखेज्जा लोगा ॥ २३५ ॥ उवरिमचदुसमइएहिंतो उवरिमाणि तिसमइयाणि विसमइयाणि च अणुभागबंधट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि होति त्ति घेत्तव्यं । एत्थतण उबरिसदो हेहा सिंघावलोअण-' कमेण उवरिं णदीसोदक्कमेण अणुवट्टावेदव्वो, अण्णहा तदत्थपडिवत्तीए अभावादो । एवं पमाणपरूवणा समत्ता। एत्थ अप्पाबहुअं॥२३६॥ कादव्वमिदि अज्झाहारेयव्वं । किमट्ठमप्पाबहुअं कीरदे ? ण एस दोसो, अप्पाबहुए अणवगए अवगयपमाणस्स अणवगयसमाणत्तप्पसंगादो। सव्वत्थोवाणि अट्ठसमइयाणि अणुभागबंधझवसाणहाणाणि ॥२३७॥ केहितो थोवाणि ? उवरि भण्णमाणहाणेहिंतो । कुदो ? साभावियादो। दोसु वि पासेसु सत्तसमइयाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ॥ २३८ ॥ आगे तीन समय योग्य और दो समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २३५ ॥ उपरिम चार समय योग्य अनुभागबन्धस्थानोंसे ऊपरके तीन समय योग्य और दो समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहाँ सूत्र में प्रयुक्त 'उवरि' शब्दकी अनुवृन्ति पीछे सिंहावलोकनके क्रमसे और आगे नदीस्रोतके क्रमसे कर लेनी चाहिये, क्योंकि, इसके विना अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं बनती है। इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। यहाँ अल्पबहुत्व करने योग्य है ।। २३६ ॥ सूत्रमें 'कादव्वं' अर्थात् करने योग्य है, इस पदका अध्याहार करना चाहिये । शंका- अल्पबहुत्व किसलिये किया जा रहा है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अल्पबहुत्वके ज्ञात न होने पर जाने हुए प्रमाणके भी अज्ञात रहनेके समान प्रसंग आता है । आठ समय योग्य अनुभागवन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ २३७॥ किनसे वे स्तोक हैं ? वे आगे कहे जानेवाले स्थानोंसे स्तोक हैं, क्योंकि ऐसा, स्वभावसे है। दोनों ही पावभागोंमें सात समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान दोनों ही तुल्य होकर पूर्वोक्त स्थानोंसे असंख्यातगुणे हैं ॥ २३८ ॥ १ अ-आप्रत्योः 'संघावलोच' इति पाठः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] खंडागमे वेणाखंड [ ४, २, ७, २४०. को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । कुदो एदं णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो । एसो अविभागपलिच्छेदाणं गुणगारो ण होदि, किं तु द्वाणसंखाए । अविभागपडिच्छेदस्स गुणगारो किण्ण होदि ? ण, अनंतगुणहीणप्पसंग दो' । तं पि कुदो णव्वदे ? अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्तअणुभागबंधट्ठाणेसु अदिकतेसु असंखेजसव्वजीवरा सिमेत्तगुणगारुवलंभादो । एवं समइयाणि पंचसमइयाणि चदुसमइयाणि ॥ २३६ ॥ एवमिदि णिसो मिट्ठ कदो १ दोसु वि पासेसु ट्ठिदछ - पंच-चदुसमइयअणुभागाणा गहण तत्तुल्लत्तपदुप्पायण असंखेजलोगगुणगारजाणावणङ्कं च । उवरि तिसमइयाणि ॥ २४० ॥ तिसमइयाणि अणुभागबंध ज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । एत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा । एदस्स सुत्तस्स असंपुण्णत्तं किमिदि ण पसजदे ? ण, उवरिमसुत्तस्स गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है । यह कहाँ से जाना जाता है ? वह परम गुरुके उपदेश से जाना जाता है । यह अविभागप्रतिच्छेदों का गुणाकार नहीं है, किन्तु स्थानसंख्याका गुणकार है । शंका- यह अविभागप्रतिच्छेदका गुणकार क्यों नहीं है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर उसके अनन्तगुणे हीन होनेका प्रसंग भाता है । शंका - वह भी कहाँ से जाना जाता है ? समाधान -कारण यह कि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनुभागबन्धस्थानोंके अतिक्रान्त होनेपर असंख्यात सब जीवराशि प्रमाण गुणकार पाया जाता है । इसीप्रकार छह समय योग्य, पाँच समय योग्य और चार समय योग्य स्थानोंका अल्पबहुत्व समझना चाहिये || २३६ ॥ शंका- सूत्र में ' एवं ' पदका निर्देश किसलिये किया गया है ? समाधान- दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित छ, पाँच और चार समय योग्य अनुभागस्थानोंका ग्रहण करने के लिए, उनकी समानता बतलानेके लिये, तथा असंख्यात लोक गुणकार बतलाने के लिये उक्त पदका निर्देश किया गया है । आगेके तीन समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान उनसे असंख्यात - गुणे हैं ॥ २४० ॥ तीन समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । यहाँ गुणकार असंख्यात लोक हैं । शंका- इस सूत्र के अपूर्ण होनेका प्रसंग क्यों नहीं आता है ? १ प्रतौ 'ण, अनंतगुणप्पसंगादो', ताप्रतौ 'ण, अनंतगुणा ( १ ) श्रणंतगुणहीणत्तपसंगादो' इति पाठः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २४१. ] वेयणमहाहिमारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया अवयवाणमेत्थ अणुवहिभावेण एदस्स असंपुण्णत्ताणुववत्तीदो । विसमइयाणि अणभागबंधज्झवसाणद्वाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४१॥ [ २०७ एत्थ उवरिसो अणुवट्टदे | अथवा अत्थावत्तीए चेव उवरितं णव्वदे । सेसं सुगमं । एदं चैव सुत्तमणुभागबंध ज्झवसाणहाणाणं पि जोजेयव्वं, विसेसाभावादो । अणुभागबंधट्टाणाणं परूवणाए अणुभागबंधज्झवसाणडाणाण परूवणा किमहं कीरदे ? ण, अणुभागबंधहाणाणि सहेउआणि णिरहेउआणि ण होंति त्ति जाणावणडं तक्कारणपरू करदे | अणुभागहाणप डिबद्धत्तादो' अणुभागबंधज्भवसाणद्वाणपरूवणासंबद्धा ति ? अणुभागबंधकवसाणट्ठाणा विभाग * पडिच्छेदाणमणतत्तं कत्तो णव्वदे" १ तकजकम्मपरमाणूणम विभागपडिच्छेदस्स आणंतियण्णहाणुववत्तीदो । अणुभागट्टाणाणं संखामाहपाणावण पुव्युत्तप्पाबहुअस्स सव्वपदेसु अवट्ठिदकमेण तेउकाइयकाय हिदी चैव गुणगारो होदित्ति जाणावणां च उत्तरसुत्तं भणदि समाधान- नहीं, क्योंकि, आगे के सूत्रके अवयवोंकी यहाँ अनुवृत्ति होनेसे इस सूत्र की अपूर्णता घटित नहीं होती । दो समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान उससे असंख्यातगुणे हैं ॥ २४९ ॥ यहाँ 'उपरि' शब्दकी अनुवृत्ति आती है । अथवा, अर्थापत्तिसे ही उपरित्वका ज्ञान हो जाता है। शेष कथन सुगम है। इसी सूत्रकी योजना अनुभागबन्धस्थानोंकी भी करनी चाहिये, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है । शंका- अनुभागबन्धस्थानोंकी प्ररूपणा में अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा किसलिये की जा रही है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनुभागबन्धस्थान सहेतुक हैं, निर्हेतुक नहीं हैं; इस बातका ज्ञान कराने के लिये उनके कारणोंकी प्ररूपणा की जा रही है। अनुभागस्थानोंसे सम्बद्ध होने के कारण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा असंबद्ध भी नहीं है । शंका- अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंके अविभागप्रतिच्छेदों की अनन्तता कहाँ से जानी जाती है ? समाधान -- उनके कार्यभूत कर्मपरमाणुओं के अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अनन्तता चूँकि उसके विना बन नहीं सकती है, अतएव इसीसे उनकी अनन्तता सिद्ध है । अनुभागस्थानोंकी संख्याका माहात्म्य जतलाने के लिये तथा पूर्वोक्त अल्पबहुत्वका गुणकार सब पदोंमें अवस्थित क्रमसे तेककायिक जीवोंकी कायस्थिति ही होती है, इस बातको भी जतलाने के लिये आगेका सून्न कहते हैं । १ अप्रतौ अणुमत्थिभावेण प्रतौ 'अणुभागमत्थिभावेण ताप्रतौ श्रणुमत्थि [ वत्ति ] भावेण ' इति पाठः । २ अ श्राप्रत्योः ‘- द्वाणाणि ', ताप्रतौ "डाणाणि ( णं )' इति पाठः । ३ ताप्रतौ 'कीरदे, अणुभागबंधद्वाणपढिबद्धत्तादो ।' इति पाठः । ४ आता प्रत्योः 'हाणं विभाग - ' इति पाठः । ५ ताप्रतौ'- मणतत्तं ( १ ) कत्तो णव्वदे इति पाठः । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २,७, २४५. सुहुमतेउकाइया' पवेसणेण असंखेजा लोगा ॥ २४२॥ अण्णकाइएहिंतो आगंतूण सुहमअगणिकाएसु उववादो पवेसणं णाम । तेण पवेसणेण विसेसियतेउक्काइया जीवा असंखेजलोगमेत्ता होदण थोवो भवंति उवरि भण्णमाणपदेहितो। अगणिकाइया असंखेजगुणा ॥२४३ ॥ अगणिकाइयणामकम्मोदइल्ला सव्वे जीवा अगणिकाइया णाम । ते असंखेजगुणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो । को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं । कायहिदी असंखेजगुणा ॥ २४४ ॥ अण्णकाइएहिंतो अगणिकाइएसु उप्पण्णपढमसमए चेव अगणिकाइयणामकम्मस्स उदओ होदि । तदुदिदपढमसमयप्पहुडि उक्कस्सेण जाव असंखेजा लोगा ति तदुदयकालो होदि । सो कालो अगणिकाइयकायहिदी णाम । सा अगणिकाइयरासीदो असंखेजगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४५ ॥ अणुभागहाणाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि च असंखेजगुणा ति भणिदं सूक्ष्म तेजकायिक जीव प्रवेशकी अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २४२ ॥ अन्यकायिक जीवोंमेंसे आकर सूक्ष्म अग्निकायिक जीवोंमें उत्पन्न होनेका नाम प्रवेश है। उस प्रवेशसे विशेषताको प्राप्त हुए तेजकायिक जीव असंख्यात लोक प्रमाण होकर आगे कहे जानेवाले पदोंकी अपेक्षा स्तोक हैं। उनसे अग्निकायिक जीव असंख्यातगणे हैं ॥ २४३ ॥ अग्निकायिक नामकर्मके उदयसे संयुक्त सब जीव अग्निकायिक कहे जाते हैं। वे पूर्वोक्त जीवोंसे असंख्यातगुणे हैं क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्तमें संचित होते हैं। गुणकार क्या हैं ? गुणकार अन्तर्मुहूर्त है । अग्निकायिकोंकी कायस्थिति उनसे असंख्यातगुणी है ॥ २४४ ॥ अन्यकायिक जीवोंमेंसे अग्निकायिक जीवों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही अग्निकायिक नामकर्मका उदय होता है। उसके उदय युक्त प्रथम समयसे लेकर उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण उसका उदयकाल है। वह काल अग्निकायिकोंकी कायस्थिति कहा जाता है। वह ( कायस्थिति ) अग्निकायिक जीवोंकी राशिसे असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है। अनुभागबन्धाध्यवसानवस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २४५॥ अनुभागस्थान और अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं, यह अभिप्राय है। १ श्र-अआप्रत्योः 'तेउक्काइय' इति पाठः। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २४७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२०९ होदि । क, एदं लब्मदे ? दोणं पि अत्थाणं वाचगभावेण एदस्स सुत्तस्स उवलंभादो । एत्थ गुणगारपमाणमसंखेजा लोगा । तं कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो। . . वड्डिपरूवणदाए अस्थि अणंतभागवड्डि-हाणी असंखेज्जभागवड्डिहाणी संखेजभागवहि-हाणी संखेजगुणवड्डि-हाणी असंखेजगुणवडिहाणी अणंतगुणवडि-हाणी ॥ २४६ ॥ ___एदेण सुत्तेण छण्णं वड्डि-हाणीणं संतपरूवणा कदा। छहाणपरूवणाए चेव अवगदसंताणं छण्णं वड्डि-हाणीणं ण एत्थ परूवणा कीरदे ?, पुणरुत्तदोसप्पसंगादो ? ण एत्थ पुणरुत्तदोसो ढुक्कदे, वड्डि-हाणीणं कालस्स पमाणप्पाबहुगपरूवणटुं छण्णं वड्डिहाणीणं संतस्स संभालणकरणादो। अधवा', अणंतगुणवड्डि-हाणिकालो त्ति कालसहस्स अज्झाहारे कदे छण्णं वड्डि-हाणीणं कालस्स संतपरूवणा त्ति कट्ट ण पुणरुत्तदोसो ढुक्कदे । पंचवडि-पंचहाणोओ केवचिरं कालादो होंति ? ॥ २४७॥ एदं पुच्छासुत्तं एगसमयमादि कादण जाव कप्पो त्ति' एदं कालं अवेक्खदे । शंका- यह कैसे पाया जाता है ? समाधान-कारण कि यह सूत्र इन दोनों ही अर्थों के वाचक स्वरूपसे पाया जाता है। यहाँ गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? वह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। वृद्धिप्ररूपणाकी अपेक्षा अनन्तभागवृद्धि-हानि, असंख्यातभागवृद्धि-हानि संख्यातभागवृद्धि-हानि, संख्यातगुणवृद्धि हानि, असंख्यातगुण वृद्धि-हानि और अनन्तगुणवृद्धि-हानि होती है ॥ २४६ ॥ इस सूत्रके द्वारा छह वृद्धियों व हानियोंकी प्ररूपणा की गई है। शंका --छह वृद्धियों व हानियोंका अस्तित्व चूंकि षट्स्थानप्ररूपणासे ही जाना जा चुका है अतएव उनकी प्ररूपणा यहाँ नहीं की जानी चाहिये, क्योंकि, पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है ? समाधान-यहाँ पुनरुक्त दोष नहीं आता है, क्योंकि, वृद्धियों व हानियोंके कालके प्रमाण व अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये इस स्त्र द्वारा छह वृद्धियों व हानियोंके अस्तित्वका स्मरण करण्या गया है। अथवा अनन्तगुणवृद्धि-हानिकाल इस प्रकार काल शब्दका अध्याहार करनेपर छह वृद्धियों व हानियोंके कालकी यह सत्प्ररूपणा है, ऐसा मानकर पुनरुक्त दोष नहीं आता है। पाँच वृद्धियाँ व हानियाँ कितने काल तक होती हैं ? || २४७ ॥ यह पृच्छासूत्र एक समयसे लेकर जहाँ तक सम्भव है उतने कालकी अपेक्षा करता है। १ अ-आप्रत्यो पलभ्यते पदमिदम् , ताप्रती तूपलभ्यते तत् । २ आप्रतौ 'जाव उक्करसो त्ति' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'उवेक्खदे' इति पाठः । छ. १२-२५. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २४८. जहण्णेण एगसमओ ॥ २४८ ॥ एदाओ पंचवड्डि-हाणीयो एगसमयं चेव कादूण विदियसमए अणप्पिदवड्डि-हाणीसु गदे संते एगसमो लब्भदि । उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो ॥ २४६ ॥ पंचण्णं वड्डि-हाणीणं मझे जदि एक्किस्से बड्डीए हाणीए वा सुदु दीहकालमच्छदि तो आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तं चेव अच्छदि, णो आवलियादिकंतं कालं', साभावियादो। अणंतभागवड्डिविसयं पेक्खिदूण असंखेजभागवड्डिविसओ अंगुलस्स असंखेज. दिभागगुणो' त्ति असंखेजभागवड्डिकालो असंखेजपलिदोवममेत्तो किण्ण जायदे ? ण, विसयगुणगारपडिभागेण अणुभागबंधकाले इच्छिञ्जमाणे अणंतगुणवड्डि-हाणीणमसंखेजलोगमेत्तबंधकालप्पसंगादो। ण च एवं, सुत्ते तासिमंतोमुहुत्तमेत्तउक्कस्सकालणिदेसादो । अणंतगुणवडि-हाणीयो केवचिरं कालादो होति ? || २५० ॥ सुगमं । जहण्णण एगसमओ॥ २५१ ॥ कुदो ? अणंतगुणवड्डिबंधमणंतगुणहाणिबंधं च एगसमयं कादूण विदियसमए जघन्यसे ये एक समय होती हैं ॥ २४८ ॥ इन पाँच वृद्धियों व हानियोंको एक समय ही करके द्वितीय समयमें अविवक्षित वृद्धियों व हानियोंके प्राप्त होनेपर इनका एक समय काल उपलब्ध होता है। वे उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक होती हैं ॥ २४ ॥ पाँच वृद्धियों व हानियों के मध्यमें यदि एक वृद्धि अथवा हानिमें अतिशय दीर्घ काल तक रहता है तो वह आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही रहता है, आवलीका अतिक्रमण कर वह अधिक काल तक नहीं रहता, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। शंका - अनन्तभागवृद्धिके विषयकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धिका विषय चूंकि अंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित है, अतएव असंख्यातभागवृद्धिका काल असंख्यात पल्योपम प्रमाण क्यों नहीं होता है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि विषयगुणकारके प्रतिभागसे अनुभागबन्धके कालको स्वीकार करनेपर अनन्तभागवृद्धि व हानि सम्बन्धी बन्धकालके असंख्यात लोक मात्र होनेका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, सूत्र में उनके उत्कृष्ट कालका निर्देश अन्तर्मुहूते मात्र काल ही किया है। अनन्तगुणवृद्धि और हानि कितने काल तक होती हैं ? ॥२५०॥ यह सूत्र सुगम है। जघन्यसे एक समय तक होती हैं ॥ २५१ ॥ कारण कि अनन्तगुणवृद्धिबन्ध और अनन्तगुणहानिबन्धको एक समय करके द्वितीय समय१ प्रतिषु 'श्रावलियादिकालं' इति पाठः। २ आप्रतौ 'असंखे० भागमेत्तगुणो' इति पाठः। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २५२ ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२११ अणप्पिदवड्डि-हाणीणं गदस्स तासिं एगसमयकालदसणादो । उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५२ ॥ एदासिं दोण्णं वड्डि-हाणीणं मझे एक्किस्से वड्डीए हाणीए वा सुट्ट जदि दीहकालमच्छदि तो अंतोमुहुत्तं चेव णो अहियं, जिणोवएसाभावादो। विसुज्झमाणो णिरंतरमंतोमुहुत्तकालमसुहाणं पयडीणमणुभागट्ठाणाणि अणंतगुणहाणीए बंधदि, सुहाणमणंतगुणवड्डीए । संकिलेसमाणो असुहाणं पयडीणमणुभागट्टाणाणि णिरंतरमंतोमुहुत्तकालमणंतगुणवड्डीए सुहाणमणुभागट्ठाणाणि अणंतगुणहाणीए बंथदि ति भणिदं होदि । एदेहि दोहि अणियोगदारेहि सूचिदमणुभागवड्डि-हाणिकालाणमप्पाबहुगं वत्त इस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवो अणंतभागवड्डि-हाणिकालो। असंखेज्जभागवड्डि-हाणिकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ? कुदो ? अणंतभागवड्डि-हाणिविसयादो असंखेज्जभागवड्डि-हाणिविसयस्स असंखेज्जगुणत्तवलंभादो। संखेज्जभागवड्डि-हाणिकालो संखेज्जगुणो। कुदो ? असंखेज्जभागवड्वि-हाणिविसयं पेक्खिदूण संखेज्जभागवड्डि-हाणिविसयस्स संखेज्जगुणत्तवलंभादो। तं च संखेज्जगुणत्तं कत्तो णव्वदे ? जुत्तीदो । सा च जुत्ती पुवं परूविदा ति णेह परू में अविवक्षित वृद्धि अथवा हानिके बन्धको प्राप्त हुए जीवके उनका एक समय काल देखा जाता है। उत्कृष्टसे वे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती हैं ॥ २५२ ॥ ___ इन दो वृद्धि हानियोंके मध्यमें एक वृद्धि अथवा हानिमें अतिशय दीर्घ काल तक यदि रहता है तो अन्तर्मुहूर्त ही रहता है, अधिक काल तक नहीं; क्योंकि, वैसा जिन भगवान्का उपदेश नहीं है । विशुद्धिको प्राप्त होनेवाला जीव निरन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागस्थानीको अनन्तगुणहानिके साथ बाँधता है तथा शुभ प्रकृतियोंके अनुभागस्थानोंको अनन्तगुणवृद्धिके साथ बाँधता है। इसके विपरीत संक्लेशको प्राप्त होनेवाला जीव अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागस्थानोंको निरन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणवृद्धिके साथ बाँधता है तथा शुभ प्रकृतियोंके अनुभागस्थानोंको अनन्तगुणहानिके साथ वाँधता है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। इन दो अनुयोगद्वारोंके द्वारा सूचित अनुभागकी वृद्धि एवं हानिके काल सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है अनन्तभागवृद्धि व हानिका काल सबसे स्तोक है। उससे असंख्यातभागवृद्धि व हानिका काल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है, क्योंकि, अनन्तभागवृद्धि व हानिके विषयकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि व हानिका विषय असंख्यातगुणा पाया जाता है। उससे संख्यातभागवृद्धि व हानिका काल संख्यातगुणा है, क्योंकि, असंख्यातभागवृद्धि व हानिके विषयकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि व हानिका विषय संख्यातगुणा पाया जाता है। शंका-वह संख्यातगुणत्व किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह युक्तिसे जाना जाता है। और वह युक्ति चूंकि पहिले बतलायी जा चुकी Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २५३. . २१२ ] विज्जदे । संखेज्जगुणवड्डि-हाणिकालो संखेज्जगुणो । कुदो १ पुव्विल्लत्रिसयादो एदासिं विसयस्स संखेज्जगुणत्तदंसणादो । असंखेजगुणवड्ढि हाणिकालो असंखेज्जगुणो । कुदो ? पुव्विल्लवड्डि- हाणिविसयादो एदासिं विसयस्स जुत्तीए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । को गुणणारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । अनंतगुणवड्डि- हाणिकालो संखेज्जगुणो । कुदो ! पुव्विल्लविसयादो एदासिं वड्डि-हाणीणं विसयस्स जुत्तीए असंखेज्जगुणत्तदंसणादो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । वड्डिकालो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ! हेट्टिमासेसवड्डिकालमेत्तेण । हाणिकालो वि वड्डिकालेण सह किष्ण परूविदो | ण, वड्डिकाण हाणिकालो समाणो त्ति पुध परूवणाए फलाभावादो | एवं वड्डिकालप्पा बहुगं समत्तं । एवं वड्डि परूवणा गदा | जवमज्झपरूवणदाए अनंतगुणवड्डी अनंतगुणहाणी च जवमज्झं ॥ २५३ ॥ एदं किं कालजवम आहो जीवजवमज्झमिदि ? जीवजवमज्यं ण होदि, अणु-. भागहाणे जीवाणमवद्वाणकमस्स पुव्वमपरूविदत्तादो । तदो कालजवमज्झमेदं । जदि एवं तो जवमज्झपरूवणा ण कायव्वा, समयपरूवणाए चैव असंखेज्जलोग मेत्ताण अतएव उसकी प्ररूपणा यहाँ नहीं की जाती है । उससे संख्यातगुणवृद्धि और हानिका काल संख्यातगुणा है, क्योंकि, पूर्वकी वृद्धि और हानिके विषय की अपेक्षा इनका विषय संख्यातगुणा देखा जाता है । उससे असंख्यातगुणवृद्धि और हानि का काल असंख्यात गुणा है, क्योंकि, पूर्वकी वृद्धि और हानिके विषय की अपेक्षा इनका विषय युक्तिसे असंख्याक्र्गुणा पाया जाता है । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है। उससे अनन्तगुणवृद्धि और हानिका काल असंख्यातगुणा है, क्योंकि, पूर्वकी वृद्धि व हानिके विषयकी अपेक्षा इन वृद्धि-हानियों का विषय युक्तिसे असंख्यातगुणा देखा जाता है | गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । वृद्धिका काल उससे विशेष अधिक है । कितने मात्रसे वह विशेष अधिक है ? वह अधस्तन समस्त वृद्धियोंके कालसे विशेष अधिक 1 शंका- वृद्धिकालके साथ हानिकालकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, हानिकाल वृद्धिकालके बराबर है, अतः उसकी अलग से प्ररूपणा करना निष्फल है । इस प्रकार वृद्धि कालका अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार वृद्धिप्ररूपणा समाप्त हुई । मध्यकी प्ररूपणा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि यवमध्य है || २५३ || शंका- यह क्या कालयवमध्य है अथवा जीवयवमध्य ? समाधान - वह जीवयवमध्य नहीं है, क्योंकि, अनुभागस्थानों में जीवोंके अवस्थानके क्रमकी पहिले प्ररूपणा नहीं की गई है। इस कारण यह कालयवमध्य है । शंका- यदि ऐसा है तो फिर यत्रमध्यकी प्ररूपणा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, समय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २५४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१३ महसमइयाणमणुभागहाणाणं कालमस्सिदण जवमझत्तसिद्धिदो ? सच्चमेदं, कालजवमझ समयपरूवणादो चेत्र सिद्धमिदि, किं तु तस्स जवमझस्स पारंभो परिसमत्ती च काए वड्डीए हाणीए वा जादा त्ति ण णव्वदे। तस्स पारंभपरिसमत्तीओ एदासु वड्डिहाणीसु जादाओ त्ति जाणावणहूं जवमज्मपरूवणा आगदा । अणंतगुणवड्डीए जवमज्झस्स आदी होदि, पुव्वमुद्दित्तादो गुरूवएसादो वा । परिसेसियादो अणंतगुणहाणीए परिसमत्तो होदि त्ति घेत्तव्वं । जेणदं सुत्वं देसामासियं तेण जवमझादो हेडिम-उवरिमचदु-पंच-छ-सत्तसमयपाओग्गहाणाणं तिसमय-विसमयपाओग्गहाणाणं च पारंभो अणंतगुणवड्डीए 'परिसमत्ती अणंतगुणहाणीए त्ति सिद्धं । संपहि सबढाणाणं पञ्जवसाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि' पजुवसाणपरूवणदाए अणंतगुणस्स उवरि अणंतगुणं भविस्सदि त्ति पज्जवसाणं ॥ २५४ ॥ सुहुमेइंदियजहण्णहाणप्पहुडि पुव्वफ्रूविदासेसट्ठाणाणं पज्जवसाणं अणंतगुणस्सुवरि अणंतगुणं होहिदि त्ति अहोदूण द्विदं । एवं पञ्जवसाणपरूवणा समत्ता । प्ररूपणासे ही आठ समय योग्य असंख्यात लोकमात्र अनुभागस्थानोंको कालका आश्रय करके यवमध्यपना सिद्ध है। समाधान-सचमुच में यह कालयवमध्य समयप्ररूपणासे ही सिद्ध है, किन्तु उस यवमध्यका प्रारम्भ और समाप्ति कौनसी वृद्धि अथवा हानिमें हुई है, यह नहीं जाना जाता है। इस कारण उसका प्रारम्भ और समाप्ति इन वृद्धि हानियोंमें हुई है, यह जतलानेके लिये यवमध्यप्ररूपणा प्राप्त हुई है। अनन्तगुणवृद्धिसे यवमध्यका प्रारम्भ होता है, क्योंकि, वह पूर्वमें उद्दिष्ट है अथवा गुरुका वैसा उपदेश है। पारिशेष रूपसे अनन्तगुणहानिसे उसकी समाप्ति होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है अतएव यवमध्यसे नीचेके और ऊपरके चार, पाँच, छह और सात समय योग्य स्थानोंका तथा तीन समय व दो समय योग्य स्थानोंका प्रारम्भ अनन्तगुणवृद्धिसे और समाप्ति अनन्तगुणहानिसे होती है, यह सिद्ध है। अब सब स्थानोंकी पर्यवसान प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं पर्यवसानप्ररूपणामें अनन्तगुणके ऊपर अनन्तगुणा होगा यह पर्यवसान है॥ २५४॥ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य स्थानसे लेकर पहिले कहे गये समस्त स्थानोंका पर्यवसान अनन्तगुणके ऊपर अनन्तगुणा होगा, इस प्रकार न होकर स्थित है। इस प्रकार पर्यवसानमरूपणा समाप्त हुई। १ अ-आप्रत्योः ‘भणिदं' इति पाठः । २ श्राप्रतौ 'श्राहोदूणिष्ठिदं', ताप्रतौ 'अहोदू [ण ] णिदिई' इति पाठः। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २५५. अप्पाबहुए ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगदाराणि अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ २५५ ॥ अणंतगुणवड्डीए असंखेजगुणवड्डीए संखेजगुणवड्डीए संखेजभागवड्डीए असंखेजभागवड्डीए अणंतभागवड्डीए अणंतरहेहिमट्ठाणं पेक्खिदण द्विदट्ठाणाणं' जा थोवबहुत्त परूवणा सा अणंतरोवणिधा। जहण्णट्ठाणं पेक्खि दूण अणंतभागभहियादिसरूवेण हिदट्ठाणाणं जा थोवबहुत्तपरूवणा सा परंपरोवणिधा । एवमेत्थ दुविहं चेव अप्पाबहुअं होदि, तदियस्स अप्पाबहुगभंगस्स असंभवादो। तत्थ अणंतरोवणिधाए सव्वत्थोवाणि अणंतगुणब्भहियाणि हाणाणि ॥ २५६ ॥ जदि वि एदमप्पाबहुगं सबढाणाणि अस्सिदूणवद्विदं तो वि अव्वुप्पण्णजणस्स वुप्पत्तिजणणट्टमेगछट्ठाणमस्सिदूण अप्पाबहुगपरूवणा कीरदे । जेण एगछट्ठाणम्मि अणंतगुणवड्डिहाणमेक्कं चेव तेण सव्वत्थोवमिदि भणिदं । असंखेज्जगुणभहियाणि हाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥२५७॥ ___एत्थ गुणणारोएगकंडयमेत्तो होदि, एगछहाणब्भंतरे कंदयमेत्ताणं चेव असंखज्जगुण वड्डीणमुवलंभादो। संखेज्जगुणब्भहियाणि हाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २५८ ॥ अल्पबहुत्व-इस अधिकारमें अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा ये दो अनुयोगद्वार होते हैं ॥ २५५ ॥ ____ अनन्तगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिमें अनन्तर अधस्तन स्थानको देखते हुए अवस्थित स्थानोंकी जो अल्पबहुत्वप्ररूपणा है वह अनन्तरोपनिधा कहलाती है। जघन्य स्थानकी अपेक्षा करके अनन्तवें भागसे अधिक इत्यादि स्वरूपसे स्थित स्थानोंकी जो अल्पबहुत्वप्ररूपणा है वह परम्परोपनिधा है। इस प्रकार यहाँ दो प्रकारका ही अल्पबहुत्व होता है, क्योंकि, तृतीय अल्पबहुत्वभंगकी यहाँ सम्भावना नहीं है। उनमें अनन्तरोपनिधासे अनन्तगुणवृद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ २५६ ॥ यद्यपि यह अल्पबहुत्व सब स्थानोंका आश्रय करके स्थित है तो भी अव्युत्पन्न जनको व्युत्पन्न करानेके लिये एक षट्स्थानका आश्रय करके अल्पबहुत्वप्ररूपणा की जा रही है। चूंकि एक पदस्थानमें अनन्तगुणवृद्धिस्थान एक ही है, अतएव 'सबसे स्तोक' ऐसा कहा गया है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २५७ ॥ यहाँ गुणकार एक काण्डकमात्र है, क्योंकि एक षट्स्थानके भीतर काण्डक प्रमाण ही असंख्यातगुणवृद्धियाँ पायी जाती है। - उनसे संख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे हैं ॥ २५८ ॥ १ प्रतिषु 'वडिहाणाणं' इति पाठः। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४, २, ७, २५९. ] . वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१५ एत्थ गुणगारो रूवाहियकंदयं । कुदो ? कंदयमेत्तछांकाणि गंतूण एगसत्तंकुप्पत्तीदो । जदि कंदयमेत्ताणि संखेजगुणवड्डिहाणाणि गंतूण एगमसंखेजगुणवड्डिहाणमुप्पजदि तो एगं चेव कंदयं गुणगारो होदि, ण रूवाहियकंदयं; एगछट्ठाणम्मि कंदयमेत्ताणं चेव असंखेजगुणवड्डीणमुवलंभादो ? ण एस दोसो, कंदयमेत्ताणि असंखेजगुणवड्डिट्ठाणाणि उप्पन्जिय अण्णेगमसंखेजगुणवड्डिहाणं होहिदि त्ति अहोदूण जेण पढमछट्ठाणं द्विदं तेण अण्णेगासंखेजगुणवड्डीए अभावे वि तदो हेट्ठिमकंदयमेत्तसंखेजगुणवड्डीयो लभंति । तेण रूवाहियकंदयं गुणगारो । एदं कारणं उवरि सव्वत्थ वत्तव्यं । एत्थ एदेसिमाणयणविहाणं उच्चदे-एगअसंखेजगुणबड्डीए जदि कंदयमेत्ताओ संखेजगुणवड्डीयो लभंति तो रूवाहियकंदयमेत्ताणमसंखेजगुणवड्डीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणि दिच्छाए ओवट्टिदाए एगछट्ठाणभंतरसंखेजगुणवड्डिट्ठाणाणि उप्पजंति । एदेसु कंदयमेत्तअसंखेजगुणवड्डिठ्ठाणेहि ओवट्ठिदेसु रूवाहियकंदयमे त गुणगारो होदि । संखेज्जभागभहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २५६ ॥ को गुणगारो ? रूवाहियकंदयं । तं जहा-रूवाहियकंदयगुणिदकंदयमेत्त'संखेजगुणवड्डीसु | ४ | ५ | रूवाहियकंदएण गुणिदासु एगछटाणमंतरसंखेज्जभागवड्डिहाणाणि यहाँ गणकार एक अंकसे अधिक काण्डक है, क्योंकि, काण्डक प्रमाण छह अंक जाकर एक सात अंक उत्पन्न होता है। शंका-काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थान जाकर एक असंख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है तो एक ही काण्डक गुणकार होता है, न कि एक अंकसे अधिक काण्डक, क्योंकि, एक षट्स्थानमें काण्डक प्रमाण ही असंख्यातगुणवृद्धियां पायी जाती हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होकर अन्य एक असंख्यातगणवृद्धिस्थान होगा, ऐसा न होकर चूंकि प्रथम षट्स्थान स्थित है अतएव अन्य एक असंख्यातगणवृद्धिका अभाव होनेपर भी उससे नीचेके काण्डक प्रमाण संख्यात गुणवृद्धियां पायी जाती हैं। इस कारण एक अंकसे अधिक काण्डक गुणकार होता है। यह कारण आगे सब जगह बतलाना चाहिये। यहां इनके लानेकी विधि बतलाते हैं -एक असंख्यातगुणवृद्धिके यदि काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियां पायी जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियोंके वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक षस्थानके भीतर संख्यातगणवृद्धिस्थान उत्पन्न होते हैं। इनको काण्डक प्रमाण असंख्यातगणवृद्धिस्थानोंके द्वारा अपवर्तित करनेपर एक अधिक काण्डक प्रमाण गुणकार होता है। उनसे. संख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ।। २५९ ॥ गुणकार क्या है ? गुणक र एक अंकसे अधिक काण्डक है । वह इस प्रकारसे-एक अधिक काण्डकसे गुणित काण्डक (४४५) प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंको एक अधिक काण्डके १ अ-अाप्रत्योः 'मेत्ते', ताप्रतौ 'मेचे ()। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६० होति | ४ | ५ | ५ || एदेसु संखेज्जगुणवड्डिट्ठाणेहि ओवट्टिदेसु रूवाहियकंदयं गुणगारो लब्भदे। असंखेजभागभहियाणि ठाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २६० ॥ एत्थ वि गुणगारो रूवाहियकंदयं । कुदो ? संखेज्जभागवड्डिहाणाणि ठविय रूवाहियकंदएण गुणिदे एगछट्ठाणभंतरे असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि समुप्पज्जंति | ४ | ५ | ५ | ५, हेहिमरासिणा तेसु ओवट्टिदेसु' गुणगारुप्पत्तीदो। अणंतभागब्भहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २६१ ॥ एत्थ वि गुणगारो रूवाहियकंदयं । कुदो ? रूवाहियकंदएण असंखेजभागवड्डि. हाणेसु गुणिदेसु एगछट्ठाणभंतरे अणंतभागवड्डिाणाणमुप्पत्तीदो | ४ | ५ | ५ | ५ |५|| एदाणि एगछहाणभंतरअणंतगुणवड्डि | १ | असंखेजगुणवड्डि । ४ । संखेजगुणवड्डि |४|५२ संखेजभागवड्डि |४|५|५| असंखेजभागवड्डि | ४|५|५|५| अणंतभागवड्डि | ४ |५| ५ | ५ |५| हाणाणि हविय एगछट्ठाणभंतरे जदि एत्तियाणि अप्पिदहाणाणि लब्भंति तो असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणं किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सव्वछट्ठाणाणमणंतगुणवड्डि-असंखेजगुणवड्डि-संखेजगुणद्वारा गणित (४४५४५) करनेपर एक षट्स्थानके भीतर संख्यातवृद्धिस्थान हैं। इनको संख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके द्वारा अपवर्तित करनेपर एक अंकसे अधिक काण्डक गुणकार पाया जाता है। उनसे असंख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६० ॥ यहाँपर भी गुणकार एक अंकसे अधिक काण्डक है, क्योंकि, संख्यातभागवृद्धिस्थानोंको स्थापित कर एक अधिक काण्डकसे गुणित करनेपर एक षट्स्थानके भीतर असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होते हैं-४४५४५४५, क्योंकि, उनको अधस्तन राशिसे अपवर्तित करनेपर गुणकार उत्पन्न होता है। उनसे अनन्त भागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६१ ॥ यहाँपर भी गणकार एक अधिक काण्डक है,। क्योंकि, एक अधिक काण्डकसे असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंको गुणित करनेपर एक षट्स्थानके भीतर अन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होते हैं ४४५४५४५४५। एक षटम्थानके भीतर इन अनन्तगुणवृद्धिस्थानों (१),असंख्यातगणवृद्धिस्थानों (४), संख्यातगणवृद्धिस्थानों (४४५), संख्यातभागवृद्धिस्थानों (४४५४५), असंख्यातभागवृद्धिस्थानों । ४४५४५४५), और अनन्तभागवृद्धिस्थानों ( ४४५४५४५४५) को स्थापित कर एक षटस्थानके भीतर यदि इतने विवक्षित स्थान पाये जाते हैं तो असंख्यात लोक मात्र षटस्थानोंके वे कितने पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर समस्त षट्स्थानोंकी अनन्तगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, १ प्रतिषु 'वडिदेसु' इति पाठः । २ प्रतिषुः | ४ ४ | इति पाठः। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१७ वडि-संखेज्जभागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डि-अणंतभागवड्डिट्ठाणाणि होति । जहा एगछहाणस्स अप्पाबहुगं भणिदं तहा णाणाछट्ठाणाणं पि वत्तव्वं, गुणगारं पडि भेदाभावादो । एवमणंतरोवणिधाअप्पाबहुगं समत्तं । परंपरोवणिधाए सव्वत्थोवाणि अणंतभागब्भहियाणि हाणाणि ॥२६२॥ कुदो ? एगकंदयपमाणत्तादो। असंखेजभागभहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २६३॥ । एत्थ गुणगारो रूवाहियकंदयं । तं जहा–एगउव्वंककंदयादो उवरि जदि रूवाहियकंदयमेत्ताओ असंखेज्जभागवड्डीयो लब्भंति तो कंदयमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि आगच्छति । पुणो हेहिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय गुणगारो साहेयव्वो। संखेजभागभहियट्ठाणाणि संखेजगुणाणि ॥ २६४ ॥ कुदो ? पढमपंचकस्स हेहिमसव्वद्धाणमेगं कादृण तस्सरिसेसु उकस्सं संखेज्ज छप्पण्णखंडाणि कादण तत्थ इगिदालखंडमेत्तसंखेज्जभागवड्डिअद्धाणेसु गदेसु जेण दुगुणवड्डी उप्पज्जदि तेण दुगुणवड्डीदो हेहिमअणंतभाग-असंखेज्जभागवड्डिअद्धाणादो उवरिमसव्वद्धाणं संखेज्जभागवड्डीए विसो होदि । तेणेगमद्धाणं ठविय इगिदालखंडेसु असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिके स्थान होते हैं। जिस प्रकार एक षट्स्थानके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है उसी प्रकारसे नाना षट्स्थानोंके भी अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये, क्योंकि, गुणकारके प्रति कोई भेद नहीं है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। परम्परोपनिधामें अनन्तभागवृद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ २६२ ॥ कारण कि वे एक काण्डकके बराबर हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६३ ॥ यहाँ गुणकार एक अंकसे अधिक काण्डक है। वह इस प्रकारसे-एक ऊर्वक काण्डकसे आगे यदि एक अंकसे अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो काण्डक प्रमाण उनके कितनी असंख्यात भागवृद्धियाँ पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान आते हैं। पश्चात् अधस्तन राशिसे उपरिमराशिको अपवर्तित करके गुणकारको सिद्ध करना चाहिये। उनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान संख्यातगुण हैं ॥ २६४॥ कारण यह कि प्रथम पंचांकके नीचेके सब अध्वानको एक करके उत्कृष्ट संख्यातके छप्पन खण्ड करके उनमेंसे उसके सहस इकतालीस खण्ड प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके बीतनेपर चूंकि दुगुणवृद्धि उत्पन्न होती है अतएव दुगुणवृद्धिसे नीचेका तथा अधस्तन अनन्तभागवृद्धि व असंख्यातभागवृद्धिके अध्वानसे ऊपरका सब अध्वान संख्यातभागवृद्धिका विषय होता है। इसलिये छ. १२-२८. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,७, २६५. एगरूवमवणिय सेससव्वखंडेहि गुणिदे संखेजभागवडिविसओ होदि । एदम्मि हेट्ठिमरा- . सिणा भागे हिदे लद्धसंखेजरूवाणि गुणगारो होदि । संखेजगुणब्भहियाणि हाणाणि संखेजगुणाणि ॥२६५॥ को गुणगारो ? संखेजरूवाणि । तं जहा-जहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणयमेतदुगुणवड्डिअद्धाणेसु गदेसु पढममसंखेजगुणवड्डिहाणं उप्पजदि । दुगुणवड्डिअद्धाणाणि च सव्वाणि सरिसाणि त्ति एगं गुणहाणिअद्धाणं ठविय जहण्णपरित्तासंखेजछेदणेहि रूवूणेहि गुणिदे संखेजगुणवड्डिअद्धाणं होदि । तम्हि संखेजभागवड्डिअद्धाणेण भागे हिदे गुणगारो होदि। असंखेजगुणब्भहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥२६६॥ एत्थ गुणगारो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो १. अणंतरोवणिधाए जा संखेज्जभागवड्डो तिस्से असंखेज्जे भागे संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डि विसयं सव्वमवरुधिय हिदत्तादो। अणंतगुणब्भहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥२६७॥ एत्थ गुणगारो असंखेज्जलोगा। कुदो ? पढमअहंकप्पहुडि उवरिमअसंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणावहिदसव्वाणुभागबंधट्ठाणाणं जहण्णहाणादो अणंतगुणत्तुवलंमा । एवमएक अध्वानको स्थापित करके इकतालीस खण्डोंमेंसे एक अंक कम करके शेष सब खण्डोंके द्वारा गुणित करनेपर संख्यातभागवृद्धिका विषय होता है । इसमें अधस्तन राशिका भाग देने पर प्राप्त हुए संख्यात अंक गुणकार होते हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिस्थान संख्यातगुणे हैं ।। २६५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात अंक हैं। यथा-जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेद प्रमाण दुगुणवृद्धिस्थानोंके वीतनेपर प्रथम संख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। दुगुणवृद्धिस्थान चूंकि सब सदृश हैं, अतएव एक गुणहानि अध्वानको स्थापित कर जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंसे गुणित करनेपर संख्यातगुणवृद्धि अध्वान होता है। उसमें संख्यातभागवृद्धिअध्वानका भाग देनेपर गुणकारका प्रमाण होता है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६६ ॥ यहाँ गुणकार अंगुलका असंख्यातवाँ भाग है, क्योंकि, अनन्तरोपनिधामें जो संख्यातभागवृद्धि है उसके असंख्यातवें भागमें संख्यागुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिके सब विषयका अवरोध करके स्थित है। उनसे अनन्तगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६७ ॥ ___ यहाँ गुणकार असंख्यात लोक हैं, क्योंकि, प्रथम अष्टांकसे लेकर आगेके असंख्यात लोक मात्र षस्थानोंमें अवस्थित समस्त अनुभागबन्धस्थान जघन्य स्थानसे अनन्तगुणे पाये जाते हैं। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.) वैयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१९ प्पाबहुगे समत्ते अणुभागबंधझवसाणपरूवणा समत्ता । संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदाणं अणुभागसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणं कस्सामो । पुव्वं परूविदबंधहाणाणं एण्हिं' भण्णमाणसंतकम्मट्ठाणाणं च को विसेसो ? उच्चदे-बंधेण जाणि णिप्फज्जति ठाणाणि ताणि बंधहाणाणि । अणुभागसंते घादिज्जमाणे जाणि णिष्फजंति हाणाणि ताणि वि कणि वि' बंधट्ठाणाणि चेव भण्णंति, बज्झमाणाणुभागट्टाणेण समाणत्तादो। जाणि पुण अणुभागहाणाणि घादादो चेव उप्पज्जति, ण बंधादो, ताणि अणुभागसंतकम्मट्ठाणाणि भण्णंति । तेसिं चेव हदसमुप्पत्तियहाणाणि विदिया सण्णा । बंधट्ठाणपरूवणं मोत्तण पढमं हदसमुप्पत्तियहाणपरूवणा किण्ण कदा ? ण, बंधादो उप्पज्जमाणाणं हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं अणवगयबंधट्ठाणस्स अंतेवासिस्स पण्णवणोवायाभावादो। संपहि सुहमणिगोदअपज्जत्तजहण्णाणुभागहाणप्पहुडि जाव पज्जवसाणअणुभागट्ठाणे ति ताव एदाणि असंखेज्जलोगमेतबंधसमुप्पत्तियहाणाणि एगसेडिआगारेण रचेदण पुणो एदेसिं बंधट्ठाणाणं घादकारणाणं असंखेज्जलोगमेत्तज्झवसाणट्ठाणाणं जहण्णपरिणामट्टाणमादि कादूण जावुकस्सझवसाणहाणपज्जवसाणाणमेगसेडिआगारेण वामपा इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर अनुभागबन्धाध्यवसानप्ररूपणा समाप्त हुई। अव इस सूत्रसे सूचित अनुभागसत्कर्मस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। शंका-पहिले कहे गये बन्धस्थानोंमें और इस समय कहे जानेवाले सत्त्वस्थानोंमें क्या समाधान-इस शंकाका उत्तर कहते हैं । बन्धसे जो स्थान उत्पन्न होते हैं वे बन्धस्थान कहे जाते हैं। अनुभागसत्त्वके घाते जानेपर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उनमेंसे कुछ तो बन्धस्थान ही कहे जाते हैं, क्योंकि, वे बांधे जानेवाले अनुभागस्थान के समान हैं । परन्तु जो अनुभागस्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं, बन्धसे उत्पन्न नहीं होते हैं; वे अनुभागसत्त्वस्थान कहे जाते हैं। उनकी ही हतसमुत्पत्तिकस्थान यह दूसरी संज्ञा हैं। . शंका-बन्धस्थान प्ररूपणाको छोड़कर पहिले हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर जो शिष्य बन्धस्थानके ज्ञानसे रहित है उसको बन्धसे उत्पन्न होनेवाले हतसमुत्पत्तिकस्थानोंका ज्ञान करानेके लिये कोई उपाय नहीं रहता। अब सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर पर्यवसान अनुभागस्थान तक इन असंख्यात लोक मात्र बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंको एक पंक्तिके आकारसे रचकर फिर इन बन्धस्थानोंके घातके कारणभूत असंख्यात लोक मात्र अध्यक्सानस्थानोंमें जघन्य परिणामस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अध्यवसानस्थान पर्यन्त स्थानोंको एक पंक्तिके आकारसे वाम पार्श्वभागमें १ अ-आप्रत्योः 'एण्ह' इति पाठः। २ श्राप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६७. सेण रचणं कादण तदो घादहाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एगेण जीवेण सव्वुक्कस्सेण घादपरिणामट्ठाणेण परिणमिय चरिमाणुभागबंधट्ठाणे घादिदे चरिमअणंतगुणवड्डिट्ठाणादो हेट्ठा अणंतगुणहीणं होदण तदणंतरहेट्ठिमउव्वंकादो अणंतगुणं होदूण दोणं पि विच्चाले अण्णं हदसमुप्पत्तियहाणं उप्पज्जदि । एदेण उक्कस्सविसोहिहाणेण धादिज्जमाणचरिमाणुभागबंधहाणं किं सव्वकालमटुंकुव्वंकाणं विच्चाले चेव पददि आहो कया वि बंधट्ठाणसमाणं होद्ण पददि त्ति ? अटुंकुव्वंकाणं विचाले चेव पददि, घादपरिणामेहिंतो उप्पज्जमाणस्स हाणस्स बंधट्ठाणसमाणत्तविरोहादो। जदि घादिज्जमाणमणुभागट्ठाणं णियमेण बंधट्ठाणसमाणो ण होदि तो एइंदिएसु सगुक्कस्सबंधादो उवरि लब्भमाण असंखेज्जलो. गमेत्तछट्ठाणधादे संतकम्मट्ठाणाणि चेव उप्पज्जेज्ज । ण च एवं, अणुभागस्स अणंतगुणहाणिं मोत्तण सेसहाणीणं तत्थाभावप्पसंगादो। जदि एवं तो क्खहि एवं घेत्तव्वं । घादपरिणामा दुविहा–संतकम्मट्ठाणणिबंधणा बंधट्ठाणणिबंधणा चेदि । तत्थ जे संतकम्मट्ठाणणिबंधणा परिणामा तेहितो' अटुंकुव्वंकाणं विचाले संतकम्मट्ठाणाणि चेव उप्पज्जंति, तत्थ अणंतगुणहाणिं मोत्तूण अण्णहाणीणमभावादो। जे बंधहाणणिबंधणा परिणामा तेहिंतो छबिहाए हाणीए बंधट्ठाणाणि चेव उप्पज्जंति, ण संतकम्मट्ठा रचकर पश्चात् घातस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवके द्वारा सर्वोत्कृष्ट घातपरिणामस्थानसे परिणत होकर अन्तिम अनुभागबन्धस्थानके घाते जानेपर अन्तिम अनन्तगुणवृद्धिस्थानसे नीचे अनन्तगुण हीन होकर तदनन्तर अधस्तन ऊवंकसे अनन्तगुण होकर दोनोंके बीचमें अन्य हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। शंका-इस उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानके द्वारा घाता जानेवाला अन्तिम अनुभागबन्धस्थान क्या सर्वदा अटांक और ऊर्वकके बीचमें ही पड़ता है या कदाचित् बन्धस्थानके समान होकर पड़ता है ? समाधान-वह अष्टांक और ऊर्वकके बीचमें ही पड़ता है, क्योंकि, घातपरिणामोंसे उत्पन्न होनेवाले स्थानके बन्धस्थानके समान होनेका विरोध है। शंका-यदि घाता जानेवाला अनुभागस्थान नियमसे बन्धस्थानके समान नहीं होता है तो एकेन्द्रियोंमें अपने उत्कृष्ट बन्धसे ऊपर पाये जानेवाले असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंका घात होनेपर सत्त्वस्थान ही उत्पन्न होने चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा होनेपर अनुभागकी अनन्तगुणहनिको छोड़कर शेष हानियोंके वहाँ अभावका प्रसंग आता है। ___समाधान-यदि ऐसा है तो ऐसा ग्रहण करना चाहिए कि घातपरिणाम दो प्रकारके हैंसत्कर्मस्थाननिबन्धन घातपरिणाम और बन्धस्थाननिबन्धन घातपरिणाम । उनमें जो सत्कर्मस्थान निबन्धन परिणाम हैं उनसे अष्टांक और ऊर्वकके बीच में सत्कर्मस्थान ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, वहाँ अनन्तगुणहानिको छोड़कर अन्य हानियोंका अभाव है । जो बन्धस्थाननिबन्धन परिणाम हैं उनसे छह प्रकारकी हानि द्वारा बन्धस्थान ही उत्पन्न होते हैं, न कि सत्कर्मथान; क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। १ अप्रतौ 'णिबंधणा परिणामेहितो' इति पाटः । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २,७,२६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२१ णाणि । कुदो ? साभावियादो। तेण एदेहितो घादट्ठाणाणि चेव उप्पज्जंति, ण बंधट्टाणाणि त्ति सिद्धं । संतवाणाणि अट्ठक-उध्वंकाणं विच्चाले चेव होंति, चत्तारि-पंच-छ-सत्तंकाणं विचालेसु ण होति ति कधं णव्वदे ? "उक्कस्सए अणुभागबंधट्टाणे एगबंधट्टाणं । तं चेव संतकम्मट्ठाणं । दुचरिमे अणुभागबंधट्टाणे एवमेव । एवं पच्छाणुपुव्वीए णेयव्वं जाव पढमअणंतगुणहीणं बंधट्ठाणमपत्तं ति । पुव्वाणुपुबीए गणिज्जमाणे जं चरिममणंतगुणं बंधढाणं तस्स हेट्टा अणंतरमणंतगुणहीणं । एदम्हि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । ताणि चेव संतमकम्मट्ठाणाणि" एदम्हादो पाहुडसुत्तादो' । चरिममुव्वकं घादयमाणो किमट्ठकपढमफद्दयादो हेट्टा अणंतगुणहीणं करेदि आहो ण करेदि ति ? अणंतगुणहीणं करेदि । कुदो णव्वदे ? आइरियोवदेसादो । कंदयघादेण अणुभागे घादिदे वि सरिसा पदेसरचणा किण्ण जायदे ? होदु णाम, इच्छिज्जमाणत्तादो। ण च विसरिसेसु भागहारेसु सरिसविहज्जमाणरासीदो लब्भमाणफलस्स इसलिये इनसे घातस्थान ही उत्पन्न होते हैं, बन्धस्थान नहीं उत्पन्न होते; यह सिद्ध है। शंका-सत्त्वस्थान अष्टांक और ऊर्वकके बीचमें ही होते हैं, चतुरंक, पंचांक, षडंक और सप्तांकके बीचमें नहीं होते हैं; यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह “उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानमें एक बन्धस्थान है। वही सत्कर्मस्थान है। द्विचरम अनुभागबन्धस्थानमें इसी प्रकार क्रम है । इसी प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि प्रथम अनन्तगुणहीन बन्धस्थान प्राप्त नहीं होता । पूर्वानुपूर्वी से गणना करनेपर जो अन्तिम अनन्तगुण बन्धस्थान है उसके नीचे अनन्तर स्थान अनन्तगुण हीन है। इस बीचमें असंख्यात लोक प्रमाण घातस्थान हैं। वे ही सत्कर्मस्थान हैं।" इस प्राभृतसूत्रसे जाना जाता है। शंका-अन्तिम ऊर्वकको घातनेवाला जीव क्या अष्टांकके प्रथम स्पर्द्धकसे नीचे अनन्तगुणहीन करता है या नहीं करता है? समाधान-वह अनन्तगुणहीन करता है। शंका-वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह आचार्यके उपदेशसे जाना जाता है। शंका-काण्डकघातसे अनुभागको घातनेपर भी समान प्रदेशरचना क्यों नहीं होती है ? समाधान-यदि वह समान होती है तो हो, क्योंकि, हमें वह अभीष्ट है। किन्तु विसहस भागहारोंमें सदृश विभज्यमान राशिसे प्राप्त होनेवाले फलको सदृशता घटित नहीं हैं, क्योंकि, . १ अाप्रतौ 'संतकम्माणि' इति पाठः । २ उक्कस्सए अणुभागबंधहाणे एग संतकम्मं । तमेगं संतकम्मठाणं । दुचरिमे एवमेव । एवं ताव जाव पच्छाणुपुवीए पढममणंतगुणहीणबंधहाणमपत्तं ति ।...तस्स हेहा अणंतरमणतगुणहीणम्मि एदम्मि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि ।...ताणि चेव संतकम्महाणाणि इति पाठः। जयध अ० पत्र ३७० । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] छक्खंडागमे वेयणाखंड - [४, २, ७, २६७. सरिसत्तं घडदे, विरोहादो । किं च बज्झमाणसमए चेव पदेसरचणाए विसेसहीणकमेण अवट्ठाणणियमो, ण सव्वकालं, ओकड्डुक्कड्डणाहि विसोहि'-संकिलेसवसेण वड्डमाणहीयमाणपदेसाणं णिसित्तसरूवेण अवहाणाभावादो। संपहि एदं हदसमुप्पत्तियट्ठाणं एत्थ सबजहण्णं, उक्कस्सविसोहीए सव्वुक्कस्सविसेसपच्चयसहिदाए घादिदत्तादो। पुणो अण्णेग"जीवेण दुचरिमविसोहिट्ठाणेण उपरिमउव्वंके घादिदे अटुंकुव्वंकाणं दोणं पि विच्चाले पुन्चुप्पण्णट्ठाणस्सुवरि अणंतभागब्भहियं होदूण विदियं हदसमुप्पत्तियट्ठाणं उप्पज्जदि । एत्थ जहण्णहाणे केण भागहारेण भागे हिदे वड्डिपक्खेवो आगच्छदि ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणेण सिद्धाणमणंतभागेण भागहारेण जहपणट्ठाणे भागे हिदे पक्खेवो आगच्छदि । जहण्णट्ठाणं पडिरासिय तम्हि पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्डिहाणं उप्पज्जदि । संपहि एत्थ सव्वजीवरासिमागहारं मोत्तण सिद्धाणमणंतिमभागे भागहारे कीरमाणे "अणंतभागपरिवड्डी काए परिवड्डीए ? सव्वजीवेहि ।" इच्चेदेण सुत्तण' कधं ण विरुज्झदे ? ण एस दोसो, बंधट्ठाणाणि अस्सिदण तं सुत्तं परविदं, ण संतढाणाणि, बंध-संतढाणाणमेगत्ताभावादो । बंधवड्डिक्कमेण एत्थ उसमें विरोध है। दूसरे, बन्ध होनेके समयमें ही प्रदेशरचनाके विशेष हीनक्रमसे रहनेका नियम है, न कि सर्वदा; क्योंकि, विशुद्धि व संक्लेशके वश होकर अपकर्षण व उत्कर्षण द्वारा बढ़ने व घटनेवाले प्रदेशोंके निषिक्त स्वरूपसे रहनेका अभाव है। ___ अब यह हतसमुत्पत्तिकस्थान यहाँ सबसे जघन्य है, क्योंकि, सर्वोत्कृष्ट विशेष प्रत्ययोंसे सहित उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा वह घातको प्राप्त हुआ है। फिर अन्य एक जीवके द्वारा द्विचरम विशुद्धिस्थानसे उपरिम ऊर्वंकके घातनेपर अष्टांक और ऊर्वक दोनोंके ही बीचमें पूर्वोत्पन्न स्थानके आगे अनन्तवें भागसे अधिक होकर दूसरा हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। शंका-यहाँ जघन्य स्थानमें किस भागहारका भाग देनेपर वृद्धिप्रक्षेप आता है ? समाधान- अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र भागहारका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर प्रक्षेपका प्रमाण आता है। जघन्यस्थानको प्रतिराशि करके उसमें उसे मिलानेपर द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। शंका-अब यहाँ सब जीवराशि भागहारको छोड़कर सिद्धोंके अनन्तवें भागको भागहार करनेपर "अनन्तभागवृद्धि किस वृद्धिके द्वारा होती है ? वह सब जीवोंके द्वारा होती है।" इस सूत्रके साथ क्यों न विरोध आवेगा? ____ समाधान - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, उस सूत्रकी प्ररूपणा बन्धस्थानोंका आश्रय करके की गई है, सत्त्वस्थानोंका आश्रय करके नहीं की गई है। कारण कि बन्धस्थान और सत्त्वस्थानका एक होना सम्भव नहीं है। १ प्रतिषु 'विहि' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-बा-ताप्रतिषु 'परूवेण' इति पाठः। ३ प्रतिषु "एवं' इति पाठः । ४ ताप्रतौ 'एत्थ सव्वजहण्णुकस्स-' इति पाठः । ५ अ-श्राप्रत्योः 'अणेण' इति पाठः। ६ भावविधान ११३-१४ इति पाठः। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,२, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२३ इच्छिजमाणे को दोसो ? ण, सधजीवरासिणा संतवाणे गुणिदे अट्ठकादो अणंतगुणं होदूण संतट्ठाणस्सुप्पत्तिप्पसंगादो। ण चाटुंकादो उपरि संतढाणाणं संभवो, सम्वेसिं संतवाणाणमटुंकुव्वंकाणं विच्चाले चेव उप्पत्ती होदि त्ति गुरुवदेसादो । संतट्टाणेसु विरोहदंसणादो सव्वजीवरासिगुणगारो मा होदु णाम, सेसगुणगार-भागहारा बंधट्टाणसमाणा किण्ण होति, विरोहाभावादो १ ते चेव' होंतु णाम जदि विरोधो पत्थि । एत्थ पुण ते ण होंति, विरोहुवलंभादो। एत्थ पुण केण विरोहो ? गुरूवदेसेण । केरिसो एत्थ गुरूवदेसो ? संतकम्मट्ठाणेसु अणंतभागवड्डि-अणंतगुणवड्ढीणं भागहार-गुणगारा अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता त्ति । अण्णासु वड्डि हाणीसु बंधट्ठाणसमाणत्तं होदु णाम, पडिसेहाभावादो।। पुणो अण्णेण जीवेण तिचरिमअन्झवसाणपरिणदेण तम्हि चेव चरिमउव्वंके घादिदे तदियअणंतभागवड्डिहाणमुप्पज्जदि । एगादो चरिमुव्वंकट्ठाणादो कधमणेगाणं ... शंका-बन्धवृद्धिके क्रमसे यहाँ स्वीकार करनेपर क्या दोष है ? समाधान नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेसे सर्व जीवराशिके द्वारा सत्त्वस्थानको गुणित करनेपर अष्टांकसे अनन्तगुणा होकर सत्त्वस्थानकी उत्पत्तिका प्रसंगआता है। परन्तु अष्टांकसे ऊपर सत्त्वस्थान सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, समस्त सत्त्वस्थानोंकी उत्पत्ति अष्टांक और ऊर्वकके बीच में ही होती है. ऐसा गुरुका उपदेश है। शंका-सत्त्वस्थानों में विरोधके देखे जानेसे सब जीवराशि गुणकार न होवे, किन्तु शेष गुणकार और भागहार बन्धस्थान समान क्यों नहीं होते; क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं है ? । समाधान-वे वहाँ भले ही वैसे हो जहाँ कि विरोधकी सम्भावना न हो। परन्तु यहाँ वे वैसे नहीं होते हैं, क्योंकि, विरोध पाया जाता है। . शंका-परन्तु यहाँपर किसके साथ विरोध आता है ? समाधान-गुरुके उपदेशके साथ विरोध आता है ? शंका- यहाँ गुरुका उपदेश कैसा है ? समाधान - सत्कर्मस्थानोंमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिका भागहार और गुणकार दोनों अभव्य जीवोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं, ऐसा गुरुका उपदेश है । अन्य वृद्धियों और हानियोंमें वे भले ही बन्धस्थानके समान हों, क्योंकि, इसका वहाँ प्रतिषेध नहीं है। पुनः त्रिचरम अध्यवसानस्थानसे परिणत हुए अन्य जीवके द्वारा उसी अन्तिम ऊर्वकका घात किये जानेपर तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। शंका-एक अन्तिम ऊर्वकस्थानसे अनेक सत्त्वस्थानोंकी उत्पत्ति कैसे सम्भव है ? १ अ-ताप्रत्योः 'च्चेव' इति पाठः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७, २६७. संतहाणाणं उप्पत्ती ? ण, घादकारणपरिणामभेदेण घादिदसेसाणुभागस्स वि भेदगमणं पडि विरोहाभावादो । घादपरिणामेसु जहा अणंतगुणवडि-अणंतभागवड्डीणं सव्वजीवरासी चेव गुणगारो भागहारो च जादो तहा संतकम्मट्ठाणेसु धादिदपरिणामाणुसारेण छवड्डिमु. वगएसु सधजीवरासी चेव गुणगारो भागहारो च किण्ण पसज्जदे ? ण, संतकम्मट्ठाणुप्पत्तिणिमित्तघादपरिणामाणमणंतगुणभागवड्डीसु सिद्धाणभणंतभागमेत्तभागहार-गुणगारे' मोत्तण सव्वजीवरासिभागहार-गुणगाराणं तत्थाभावादो। बंधट्टाणागारेण जे घादणि मित्ता परिणामा तेसिमणंतभागवड्डि-अणंतगुणवड्डीयो सब्बजीवरासिभागहार-गुणगारेहि वड्डेति । तेहि घादिदसेसाणुभागहाणं पि कारणाणुरूवेण चेदि त्ति घेत्तव्यं । पुणो अण्णेण चदुचरिमअज्झवसाणहाणपरिणदेण चरिमउव्वंके घादिदे चउत्थमणंतभागवड्डिाणं होदि । एवं हदसमुप्पत्तियहाणाणि असंखेज्जलोगछहाणपरिणाममेत्ताणि कमेण छबिहाए वड्डीए उप्पादेदव्वाणि जाव सव्वजहण्णविसोहिहाणेण पज्जवसाणउव्वक घादिय उप्पाइयउक्कस्साणुभागहाणे ति । संपहि बंधससुप्पत्तियहाणाणं चरिमउव्वंकमस्सिदूण चरिमअटक-उव्यंकाणं विचाले हदससुप्पत्तियट्ठाणाणि एत्तियाणि चेव उप्प समाधान-नहीं, क्योंकि घातके कारणभूत परिणामोंके भिन्न होनेसे घातनेसे शेष रहे अनुभागके भी भिन्न होनेमें कोई विरोध नहीं है । शंका-जिस प्रकार घातपरिणामोंमें अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिका गुणकार व भागहार सब जीवराशि ही हुई है, उसी प्रकार घातित परिणामोंके अनुसार छह प्रकारकी वृद्धिको प्राप्त हुए सत्कर्मस्थानों में सब जीवराशि ही गुणकार और भागहार होनेका प्रसंग क्यों न होगा? समाधान नहीं क्योंकि सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत घातपरिणामोंकी अनन्तगुणवृद्धि व अनन्तभागवृद्धिमें सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र भागहार और गुणकारको छोड़कर वहाँ सब जीवराशि भागहार व गुणकार होना सम्भव नहीं है। बन्धस्थानोंके आकारसे जो घातके निमित्तभूत परिणाम हैं उनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि सब जीवराशि रूप भागहार व गुणकारसे वृद्धिको प्राप्त होती हैं । उनके द्वारा घातनेसे शेष रहा अनुभागस्थान भी कारणके अनुरूप ही रहता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। पुनः चतुश्चरम अध्यवसानस्थान स्वरूपसे परिणत अन्य जीवके द्वारा अन्तिम ऊर्वकका घात किये जानेपर चतुर्थ अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंके बराबर हतसमुत्पत्तिकस्थानोंको क्रमशः छह प्रकारकी वृद्धिके द्वारा तब तक उत्पन्न कराना चाहिये जब तक कि सर्वजघन्य विशुद्धिस्थानके द्वारा पर्यवसान ऊवकको घातकर उत्पन्न कराया गया उत्कृष्ट अनुभागस्थान प्राप्त नहीं होता। अब बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंके अन्तिम ऊर्वकका आश्रय करके अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके बीचमें हतसमुत्पत्तिकस्थान इतने मात्र ही होते हैं, अधिक नहीं होते, क्योंकि, कारणके १ प्रतिषु 'गुणगारेण' इति पाठः। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२५ ज्जंति, णाहियाणि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्ति विरोहादो। संतकम्मट्ठाणाणं कारणं छविहवड्डीए वड्ढिदधादपरिणामा । तेहिंतो परिणाममेत्ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि उप्पज्जंति । अणंतभागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणवड्डि-अणंतगुणवड्डीहि एगछट्ठाणं होदि। एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणाणि । अण्णेगं रूवूणछट्ठाणं च जदि बि अहंक-उव्यंकाणं विञ्चाले उप्पण्णं तो वि अहंकजहण्णफद्दयं ण पावेंति, संतकम्महाणे सव्वजीवरासिगुणगाराभावादो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तगुणगारेसु असंखेज्जलोगमेत्तेसु संवग्गिदेसु वि सव्वजीवरासिपमाणाणुवलंभादो। एत्थ अप्पप्पणो वड्डिपक्खेवाणं पिसुलापिसुलादीणं' पिसुलाणं च पमाणाणयणे भागहारुप्पायणविहाणे वड्डिपरिक्खाए च अविभागपडिच्छेदपरूवणाए हाणपरूवणाए कंदयपरूवणाए ओज-जुम्मपरूवणाए छडाणपरूवणाए हेहाहाणपरूवणाए पञ्जवसाणपरूवणाए अप्पाबहुवपरूवणाए च अणुभागबंधट्ठाणवरूवणाभंगो। णरि सव्वत्थ सबजीवरासी भागहारो गुणगारो वा ण होदि त्ति अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो चेव गुणगारो भागहारो च होदि । के वि आइरिया संतढाणाणं सव्वजीवरासी गुणगारो ण होदि, अहंक-उव्वंकाणं विच्चालेसु चेव संतकम्मट्ठाणाणि होति ति वक्खाणवयणेण सह विरोहादो । किंतु भागहारो सयजीवरासी चेव होदि, विरोहाभावादो ति भणंति । परिणामेसु वि ऐसो बिना कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है। सत्त्वस्थानोंका कारण छह प्रकारकी वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत घातपरिणाम हैं। उनसे परिणामोंके बराबर ही सत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इनके द्वारा एक षट्स्थान होता है। ऐसे असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं । एक अंकसे हीन अन्य एक षट्स्थान यद्यपि अष्टांक और अवकके मध्यमें उत्पन्न हुआ है तो भी अष्टांक जघन्य स्पर्द्धकको नहीं पाते हैं, क्योंकि सत्कर्मस्थानमें सब जीवराशि गुणकार नहीं है। इसका भी कारण यह है कि असंख्यात लोकप्रमाण सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र गुणकारोंको संवर्गित करनेपर भी सब जीव. राशिका प्रमाण नहीं पाया जाता है। यहाँपर अपने अपने वृद्धिप्रक्षेपों पिशुलापिशुलादिकों और पिशुलोंके प्रमाणके लाने में, भागहारके उत्पादनविधानमें, और वृद्धिपरीक्षामें अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओज-युग्मप्ररूपणा, षस्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थान प्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा ये सब अनुभागबन्धस्थानप्ररूपणाके समान हैं । विशेष इतना है कि सर्वत्र सब जीवराशि भागहार अथवा गुणकार नहीं होता है। किन्तु अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र ही गुणकार अथवा भागहार होता है। कितने ही आचार्य कहते हैं कि सत्त्वस्थानोंका गुणकार सब जीवराशि नहीं होता है, क्योंकि वैसा होनेपर अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालोंमें ही सत्त्वस्थान होते हैं इस व्याख्यानके साथ विरोध आता है। किन्तु भागहार सब जीवराशि ही होता है, क्योंकि, उसमें कोई विरोध १ अ-ताप्रत्योः 'पिसुलापिसुलादीणं च' इति पाठः । छ. १२-२६. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [ ४, २, ७, २६७. चेव कमो होदि, कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति । तं जाणिय वत्तव्वं । पुणो चरिमपरिणामेण पज्जवसाणदुचरिम उबंके धादिदे हदसमुप्पत्तियसव्वजहण्णहाणस्स हेटा अणंतभागहीणं होदण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणमुप्पजदि । एदं हाणं सबजीवरासिणा रूवाहिएण उवरिमट्टाणे खंडिदे तत्थ एगखंडेण हीणं होदि, समाणपरिणामेण घादिदत्तादो । पुणो दुचरिमपरिणामेण पज्जवसाणदुचरिमउव्वंके धादिदे पढमपरिवाडीए उप्पण्णहदसमुप्पत्तियसव्वजहण्णट्ठाणेण असरिसं होदूण विदियपरिवाडीए विदियं घादहाणं उप्पज्जदि । एदेसि दोण्णं हाणाणं असरिसत्तणेण च णव्वदे' जहा संतकम्मट्ठाणेसु परिणामेसु च सव्व जीवरासी चव भागहारोण होदि त्ति । पुणो तिचरमादिपरिणामट्ठाणेहि दुचरिमउव्वंके घादिजमाणे परिणामहाणमेत्ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि होति । ( एवं विदियपरिवाडी समत्ता) संपहि तदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा-चरिमपरिणामेणेव पञ्जवसाणतिचरिमउव्वंके घादिदे विदियपरिवाडीए उप्पण्णहदसमुप्पत्तियसव्वजहण्णहाणस्स हेहा वामपासे अणंतभागहीणं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं उप्पजदि । पुणो तेणेव दुचरिमपरिणामेण तिचरिमे उव्वंके घादिदे अण्णंढाणमुप्पजदि । एवं परिणामट्टाणमेत्ताणि चेव संतकम्मनहीं है । परिणामों के विषयमें भी यही क्रम है, क्योंकि, कारणके अनुसार ही कार्य पाया जाता है। उसका जान कर कथन करना चाहिए। पुनः अन्तिम परिणाम के द्वारा पर्यवसान द्विचरम ऊर्वकके घाते जानेपर सर्वजघन्य हतसमुत्पत्तिकस्थानके नीचे अनन्तवें भागसे हीन होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। यह स्थान एक अधिक सब जीवराशिके द्वारा उपरिम स्थानको खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे हीन होता है, क्योंकि वह समान परिणामके द्वारा घातको प्राप्त हुआ है। फिर द्विचरम परिणामके द्वारा पर्यवसान द्विचरम ऊर्वकके घाते जानेपर प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न हतसमुत्पत्तिक सर्वजघन्य स्थानसे असमान होकर द्वितीय परिपाटीसे द्वितीय घातस्थान उत्पन्न होता है। इन दोनों स्थानोंके विसदृश होनेसे जाना जाता है कि सत्कर्मस्थानोंमें और परिणामों में सब जीवराशि ही भागहार नहीं होता है। पश्चात् त्रिचरमादिक परिणामस्थानोंके द्वारा द्विचरम ऊवकके घाते जानेपर परिणामस्थानोंके बराबर ही सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं । इस प्रकार द्वितीय परिपाटी समाप्त हुई। अब तृतीय परीपाटीकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अन्तिम परिणाम के द्वारा ही पर्यवसान चरम ऊवकके घाते जानेपर द्वितीय परिपाटीसे उत्पन्न हतसमुत्पत्तिक सर्वजघन्य स्थान के नीचे वाम पाश्वमें अनन्तवें भागसे हीन होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। फिर उसी द्विचरम परिणामके द्वारा त्रिचरम ऊवकके घाते जानेपर अन्य स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार तृतीय परिपाटीसे परिणामस्थानांके बराबर ही सत्कर्मस्थानीको उत्पन्न कराना चाहिये। १ताप्रतौ ‘णजदे' इति पाठः । २-अ-पाप्रस्योः अद्धाणि'; ताप्रती 'श्र (ल) द्धाणि' इति पाठः। ३-अ-याप्रत्योः 'उव्वंको' इति पाठः। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वैयणभावविहाणे विदिया चूलिया . [२२७ ट्ठाणाणि तदियपरिवाडीए उप्पादेदव्वाणि । एवं तदियपरिवाडी गदा। संपहि चउत्थपरिवाडी उच्चदे। तं जहा-तेणेव चरिमपरिणामेण पञ्जवसाणचदुचरिमउव्वंके धादिदे तदियपरिवाडीए उप्पण्णहदसमुप्पत्तियसव्व जहणट्ठाणस्स हेटा अणंतभागहीणं होदण अण्णमपुणरुत्तहाणमुप्पञ्जदि । एवमेत्थ वि परिणामट्ठाणमेत्ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि । एवं चउत्थपरिवाडी गदा।। संपहि पंचमपरिवाडी उच्चदे । तं जहा–चरिमपरिणामेण पंचचरिमउव्वंके घादिदे चउत्थपरिव डीए उप्पण्णजहण्णट्ठाणस्स हेट्ठा अणंतभागहीणं होदण अण्णं ठाणं उप्पअदि । एवं दुचरिमादिपरिणामेहि तं चेव हाणं घादिय पंचमपडिवाडीए द्वाणाणमुप्पत्ती वत्तव्या । एवं सेसबंधट्ठाणाणि चरिमादिसवपरिणामेहि घादाविय ओदारेदव्वं जाव चरिमअहंके त्ति । एवमोदारिदे हाणाणं विक्खंभो छट्ठाणमेत्तो आयामो पुण विसोहिट्ठाणमेतो होदण चिट्ठदि । एवं उप्पण्णासेसट्टाणाणि अपुणरुत्ताणि चेव, सरिसत्तस्स कारणाणुवलंभादो । पढमपत्तीए पढमढाणादो विदियपंतीए विदियट्ठाणं सरिसं ति णासंकणिजं ? पढमपंतिपढमट्ठाणं रूवाहियसव्व जीवरासिणा खंडिय तत्थेगखंडेणूण विदियपंतिपढमट्ठाणमभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतिमभागेण खंडिय तत्थेगखंडेणाहियस्स इस प्रकार तृतीय परिपाटी समाप्त हुई। अब चतुर्थ परिपाटीकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है - उसी अन्तिम परिणामके द्वारा पर्यवसान चतुश्चरम ऊर्वकका घात होनेपर तृतीय परिपाटीसे उत्पन्न हतसमुत्पत्तिक सर्वजघन्य स्थानके नीचे अनन्तवें भागसे हीन होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकारसे यहाँपर भी परिणामस्थानोंके बराबर ही सत्कर्मस्थानोंको उत्पम्न कराना चाहिये। इस प्रकार चतुर्थ परिपाटी समाप्त हुई। अब पाँचवीं परिपाटीकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अन्तिम परिणामके द्वारा पंचचरम ऊर्वकके घातनेपर चतुर्थ परिपाटीसे उत्पन्न जघन्य स्थानके नीचे अनन्तवें भागसे हीन होकर अन्य स्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार द्विचरमादिक परिणामांके द्वारा उसी स्थानको घातकर पाँचवौं परिपाटीसे स्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करना चाहिए । इस प्रकार चरम आदि सब परिणामोंके द्वारा शेष बन्धस्थानोंका घात कराकर अन्तिम अष्टांक प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। इस प्रकारसे उतारनेपर स्थानोंका विष्कम्भ षट्स्थान प्रमाण और आयाम विशुद्धिस्थानोंके बराबर होकर स्थित होता है। इस प्रकारसे उत्पन्न हुए समस्त स्थान अपुनरुक्त ही होते हैं, क्योंकि, उनके समान होने का कोई कारण नहीं पाया जाता है। प्रथम पंक्तिके प्रथम स्थानसे द्वितीय पंक्तिका द्वितीय स्थान सहश है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, प्रथम पंक्तिके प्रथम स्थानको एक अधिक सब जीवराशिसे खण्डित कर उसमें एक खण्डसे हीन द्वितीय पंक्तिके प्रथम स्थानको अभव्योंसे अनन्तगुणे एवं सिद्धोंके अनन्तवें भागसे खण्डित कर उसमें एक खण्डसे अधिक द्वितीय Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६७. विदियपंतिविदियट्ठाणस्स सरिसत्तविरोहादो। एवं सवपंतिविदियट्ठाणाणमसरिसत्तं परूवेदव्वं, समाणजाइत्तादो । एदेहितो सयपंतिसव्वट्ठाणाणमसरिसत्तं तकणिज्जं'। संपहि दुचरिमअट्ठकस्स हेट्ठा तदणंतरहेट्ठिमउव्वंकादो उवरिदोण्णं पि बंधट्ठाणाणं विच्चाले उप्पज्जमाणसंतढाणाणं परवणं कस्सामो। तं जहा-एगेण जीवेण एगछट्टाणेणूणउक्कस्साणुभागसंतकम्मिएण उकस्सपरिणामेण चरिमुव्बंके घादिदे दुचरिमअट्ठकस्स हेट्ठा अणंतगुणहीणं तस्सेव हेट्ठिमउव्वंकट्ठाणादो उवरि अणंतगुणं होदण अण्णं हदसमुप्पत्तियट्ठाणमुप्पजदि। पुणो दुचरिमपरिणामट्ठाणण तम्हि चेव चरिम उव्वंके घादिदे विदियमणंतभागवड्डिधादट्ठाणं उप्पञ्जदि । पुणो एत्थ वि पुरविहाणेण तिचरिमादिविसोहिट्ठाणेहि तं चेव चरिमउव्वकं घादिय परिणामट्ठाणमेत्ताणि चेव हदसमुप्पत्तियट्टाणाणि उप्पादेदव्वाणि । एवं चरिमबंधट्ठाणादो असंखेजलोगछट्ठाणमेत्ताणि रूवूणछट्ठाणसहिदहाणाणि उप्पण्णाणि । पुणो एदेसिं द्वाणाणं हेट्ठा परिणामट्ठाणमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पजति । तं जहा-चरिमपरिणामेण दुचरिमबंधट्ठाणे घादिदे पुबिल्ल जहण्णट्ठाणादो हेट्ठा अणंतभागहीणं होदूण अण्णट्ठाणं उप्पजदि । पुणो दुचरिमपरिणामेण तम्हि चेव ढाणे घादिदे अणंतभागब्भहियं होदण अण्णं द्वाणमुपजदि । एवमणेण विहाणेण तिचरिमादिसम्बपरिणामट्ठाणेहि पुव्वं णिरुद्ध पंक्ति सम्बन्धी द्वितीय स्थानके उससे सदृश होनेका विरोध है। इस प्रकार सब पंक्तियों सम्बन्धी द्वितीय स्थानोंकी असमानताका कथन करना चाहिये, क्योंकि वे सब एक जातिके हैं। इनसे सब पंक्तियों सम्बन्धी स्थानोंकी असमानताकी तर्कणा ( अनुमान ) करना चाहिये। _ अब द्विचरम अष्टांकके नीचे और तदनन्तर अधस्तन अटांकके ऊपर दोनों ही बन्धस्थानों के मध्यमें उत्पन्न होनेवाले सत्त्वस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है एक षट्स्थानसे रहित उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले एक जीवके द्वारा उत्कृष्ट परिणामके बलसे अन्तिम ऊवकके घाते जानेपर द्विचरम अष्टांकके नीचे अनन्तगुणा हीन और उसीके अधस्तन ऊर्वक स्थानसे ऊपर अनन्त. गुणा होकर अन्य हतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होता है। फिर द्विचरम परिणामस्थानके द्वारा उसी अन्तिम ऊवकके घातेजानेपर द्वितीय अनन्त भागवृद्धिघातस्थान उत्पन्न होता है। फिर यहाँपर भी पूर्व विधानसे त्रिचरम आदि विशुद्धिस्थानोंके द्वारा उसो अन्तिम ऊर्वकको घातकर परिणामस्थानोंके बराबर ही हतसमुस्पत्तिक स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार अन्तिम बन्धस्थ नसे असं. ख्यातलोक षट्स्थानप्रमाण एक कम षट्स्थान सहित स्थान उत्पन्न होते हैं । पुनः इन स्थानोंके नीचे परिणामस्थानों के बराबर हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं । यथा - अन्तिम परिणामके द्वारा द्विचरम बन्धस्थानके घाते जानेपर पूर्व जघन्य स्थानसे नीचे अनन्तभाग हीन होकर अन्य स्थान उत्पन्न होता है। फिर द्विचरम परिणामके द्वारा उसी स्थानके घाते जानेपर अनन्तवें भागसे अधिक होकर अन्य स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस विधिसे त्रिचरम १-अ-ताप्रत्योः 'तक्कणेज' इति पाठः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२९ बंधट्ठाणे घादिजमाणे पुव्वुप्पण्णट्ठाणाणं हेट्ठा परिणामट्ठाणमेत्ताणि चेव घादिदट्ठाणाणि उप्पजंति एवं तिचरिमादिअणुभागबंधट्टाणाणि धादिय अटुंक-उव्वंकाणं विच्चाले विच्चाले छट्ठाणमेत्ताओ संतहाणपंतीयो परिणामट्ठाणमेत्तायामाओ उप्पाएदव्वाश्रो) एत्थ पुणरुत्तट्टाणपरूवणा पुत्र व कायव्वा । एवं दुचरिमअट्ठक-उव्यंकाणं विच्चाले संतकॅम्मट्ठाणपरूवणा कदा। संपहि दोछट्ठाणेहि परिहीणअणुभागबंधट्ठाणे पुव्वं व धादिजमाणे तिचरिमअट्ठक उव्वंकाणं विच्चाले असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि रूवूणछट्ठाणसहियाणि उप्पजति । अहियाणि किण्ण उप्पजंति ? ण संतकम्मट्ठाणकारणविसोहिद्वाणाणं अब्भहियाणमभावादो । पुणो दुचरिमादिट्ठाणेसु धादिज्जमाणेसु एककम्हि अणुभागबंधहाणे विसोहिट्ठाणमेत्ताणि चेव संतकम्मट्टाणाणि लब्भंति । एवं तिचरिमअहंक-उव्वंकाणं विच्चाले उप्पजमाणअसंखेञ्जलोगमेत्तसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणा कदा होदि । एवं चदुचरिम-पंचचरिमादिअसंखेजलोगमेतबंधसमुप्पत्तिय अट्ठक-उव्वंकाणं विच्चालेसु पुव्वापरायामेण दक्खिणुत्तरविक्खंभेण असंखेजलोगमेत्ताणि संतकम्महाणपदराणि उप्पजंति । किं सव्वेसिं अहंक-उव्वंकाणं विच्चालेसु परिणामट्ठाणमेत्तायामेण छट्ठाणमेत्त आदि सब परिणामोंके द्वारा पूर्व विवक्षित बन्धस्थानके घाते जानेपर पहिले उत्पन्न हुए स्थानोंके नीचे परिणामस्थानोंके बराबर ही घातित स्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार त्रिचरम आदि अनुभाग बन्धस्थानोंको घातकर अष्टांक और उवकके बीच-बीच में परिणामस्थान प्रमाण आयामवाली षट्स्थानके बराबर सत्त्वस्थानपंक्तियोंको उत्पन्न कराना चाहिये । यहाँ पुनरुक्त स्थानोंकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करनी चाहिये । इस प्रकार द्विचरम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें सत्कर्मस्थानों की प्ररूपणा की गई है। अब दो षस्थानोंसे होन अनुभागबन्धस्थानको पहिलेके समान घातनेपर विचरम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें एक कम षट्स्थान सहित असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान उत्पन्न होते हैं। शंका-अधिक क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सत्त्वस्थानोंके कारणभूत विशुद्धिस्थान अधिक नहीं हैं। पुनः द्विचरम आदि स्थानोंके घातनेपर एक एक अनुभागबन्धस्थानमें विशुद्धिस्थानोंके बराबर ही सत्कर्मस्थान पाये जाते हैं। इस प्रकार त्रिचरम अष्टांक और उर्वकके मध्यमें उत्पन्न होनेवाले असंख्यात लोक प्रमाण सत्कर्मस्थानोंकीप्ररूपणा समाप्त होती है। ___ इस प्रकार चतुश्चरम और पंचचरम आदि असंख्यातलो प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवंकके अन्तरालों में पूर्व पश्चिम आयाम और दक्षिण उत्तर विष्कम्मसे असंख्यात लोक मात्र सत्कर्मस्थानप्रतर उत्पन्न होते हैं। शंका-क्या सब अष्टांक और ऊर्वंकके अन्तरालोंमें परिणामस्थानोंके बराबर आयाम और १-अ-आप्रत्योः 'अहियाण किण्ण उप्पजते' इति पाठः। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २६७. विक्खंभेण संतकम्मट्ठाणपदराणि उप्पजंति आहो णेदि पुच्छिदे सुहुमणिगोदअपजत्तजहण्णट्ठाणस्स उवरि संखजाणं खंडसमुप्पत्तियअट्ठक-उव्वंकाणं अंतराणि मोत्तूण उवरिमअसंखेजलोगमेत्तअटुंकुव्वंकंतरेसुसम्बेसु उपजंति। हेहिमसंखेजअहंक-उव्वंकाणं विच्चालेसु हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि ण उप्पजति त्ति कुदो' णव्वदे? आइरियोवदेसादो अणुभागवड्डिहाणिअप्पाबहुगादो वा । तं जहा-सव्वत्थोवा हाणी, वड्डी विसेसाहिया त्ति । एगसमएण जत्तियमुक्कस्सेण वड्डिदृण बंधदि पुणो तं सव्वुक्कस्सविसोहीए एगवारेण एगाणुभागकंदयघादेण घादेदुं ण सक्कदि त्ति जाणावणटुं पदिदप्पाबहुगं कधं णाणासमयपबद्धवड्डीए णाणाखंडयघादुप्पण्णहाणीए च ? उच्चदे ण एस दोसो, एदस्स अप्पाबहुअसुत्तस्स उभयत्थ पउत्तीए विरोहाभावादो। कथमेगमणेगेसु वट्टदे ? ण, एगस्स मोग्गरस्स अणेगखप्परुप्पत्तीए वावारवलंभादो (कसायपाहुडस्स अणुभागसंकमसुत्तवक्खाणादो वा णव्वदे जहा सव्वत्थ ण उप्पजंति ति। तं जहा- अणुभागसंकमे चउवीसअणियोगदारेसु समत्तेसु भुजगारपदणिक्खेववड्डीओ भणिय पच्छा अणुभागसंकमहाणपरूवणं षट्स्थानमात्र विष्कम्भसे सत्कर्मस्थानप्रतर उत्पन्न होते हैं अथवा नहीं होते हैं ? समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर में कहते हैं कि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य स्थानके ऊपर संख्यात खण्डसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालोंको छोड़कर उपरिम असंख्यात लोकमात्र सब अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालों में उत्पन्न होते हैं।। शंका- अधस्तन संख्यात अष्टांक और ऊर्वंकके अन्तरालोंमें हतसमुत्पत्तिक स्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह आचार्यों के उपदेशसे जाना जाता है । अथवा अनुभागवृद्धि हानिके अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा-हानि सबमें स्तोक है । वृद्धि उससे विशेष अधिक है। शंका-एक समय में उत्कृष्टरूपसे जितना वृद्धिंगत होकर बाँधता है उसे सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा एक बारमें एक अनुभागकाण्डकसे घातनेको समर्थ नहीं है, इस बातके जतलानेके लिये जो अल्पबहुत्व आया है उसकी प्रवृत्ति नाना समयप्रबद्धोंकी वृद्धि और नानाकाण्डकघातोंसे उत्पन्न हानिमें कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस अल्पबहुत्वसूत्रकी दोनों जगह प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका-एक अनेक विषयों में कैसे प्रवृत्ति कर सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, एक मुद्गरका अनेक खप्परोंकी उत्पत्तिमें व्यापार पाया जाता है। अथवा कसायपाहुड़के अनुभागसंक्रमसूत्रके व्याख्यानसे जाना जाता है कि उक्त स्थान सर्वत्र नहीं उत्पन्न होते हैं । यथा-अनुभागसंक्रममें चौबीस अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर भुजा १ तापतौ 'उप्पजंति त्ति । कुदो' हति पाठः । २ अ-याप्रत्यो 'बडिदेण', ताप्रती 'वहिदेण ( वदे ? ण,) इति पाठः। n International Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ २३१ भणदि) उक्कस्मए अणुभागबंधट्ठाणे एगसंतकम्मट्ठाणं । तमेगं चेव संकमट्ठाणं । दुचरिमे अणुभागबंधट्टाणे एगं संतकम्मट्ठाणं । एगं चेव संकमहाणं । एवं पच्छाणुपुव्वीए ताव णेयव्वं जाव पढमअणंतगुणहीणहाणमपत्तं त्ति । पुणो पुव्वाणुपुबीए गणिजमाणे जं चरिममणंतगुणबंधट्ठाणं तस्स हेट्ठा जमणंतरमणंतगुणहीणबंधट्ठाणं तस्स उवरि एदम्हि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्टाणाणि । ताणि संतकम्मट्ठाणाणि चेव । ताणि चेव संकमट्ठाणाणि' । तदो पुणो बंधट्ठाणाणि संक्रमट्ठाणाणि च ताव तुल्लाणि होदण ओयरंति जाव पच्छाणुपुव्वीए विदियमणंतगुणहीणं बंधट्ठाणमपत्तं त्ति । तदो विदियअणंत गुणहीणबंधट्ठाणस्स उपरि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एदाणि संतकम्मट्ठाणाणि चेव । एदाणि चेव संकमट्ठाणाणि । पुणो एवं पच्छाणुपुबीए गंतूण तदियअणंतगुणहीणट्ठाणस्स उवरिलंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एदाणि संतकम्मट्ठाणाणि । एदाणि चेव संकमट्ठाणाणि । पुणो एवं गंतूण चउत्थअणंतगुणहीणबंधट्ठाणस्स उवरिमअंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एदाणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि । एदाणि चेव संकमट्ठाणाणि च । एवं णेयव्वं जाव अप्पडिसिद्ध अंतरे त्ति । हेट्ठा जाणि चेव बंधट्ठाणाणि ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि संकमट्ठाणाणि चे ति एसो अत्थो विउलगिरिमत्थयत्थेण पच्चक्खीकयतिकालगोयरछदव्वेण वड्डमाणभडारएण गोदमथेरस्स कहिदो । कार, पदनिक्षेप और वृद्धिको कहकर पश्चात् अनुभागसंक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं-उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानमें एक सत्त्वस्थान है। वह एक ही संक्रमस्थान है। द्विचरम अनुभागबन्धस्थानमें एक सत्कर्मस्थान है। यह एक ही संक्रमस्थान है। इस प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक प्रथम अनन्त गुणहीन स्थान प्राप्त नहीं होता। पश्चात् पूर्वानुपूर्वी से गणना करनेपर जो अन्तिम अनन्तगुणा बन्धस्थान है उसके नीचे जो अनन्तर अनन्तगुणा हीन बन्धस्थान है उसके ऊपर अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान है। वे सत्कमस्थान ही है। वे ही संक्रमस्थान हैं। तत्पश्चात् बन्धस्थान और संक्रमस्थान तब तक समान होकर उतरते हैं जब तक पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थान नहीं प्राप्त होता । पश्चात् द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकमात्र घातस्थान हैं। ये सत्कर्मस्थान ही हैं। ये ही संक्रमस्थान हैं । फिर इसी प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे जाकर तृतीय अनन्तगुणहीन स्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान है। ये सत्कमस्थान है। ये ही संक्रमस्थान है। फिर इसी प्रकार जाकर चतुर्थ अनन्तगुण बन्धस्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान हैं। ये ही सत्कर्मस्थान हैं और ये ही संक्रमस्थान भी हैं। इस प्रकारसे अप्रतिसिद्ध अन्तर तक ले जाना चाहिये । नीचे जो बन्धस्थान है वे ही सत्कर्मस्थान हैं और वे ही संक्रमस्थान भी हैं । इस अर्थकी प्ररूपणा विपुलाचलके शिखरपर स्थित व तीनों कालांके विषयभूत छह द्रव्योंका प्रत्यक्षसे अवलोकन १ जयध. अ. पत्र ३७०। २ अ-आप्रत्योः 'विदियमणंत' इति पाठः। ३ अ-पाप्रत्योः 'अपडिसिद्ध इति पाठः। ४ श्राप्रती 'संतकम्माणाणि चेति संकमाणाणि च एसो' इति पाठः। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७,२६७. पुणो सो अत्थो आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहरभडारयं संपत्तो। पुणो तत्तो आइरियपरंपराए आगंतूण अञ्जमंखु-णागहत्थिभडारयाणं मूलं पत्तो । पुणो तेहि दोहि वि कमेण जदिवसहभडारयस्स वक्खाणिदो । तेण वि अणुभागसंकमे सिस्साणुग्गहटुं चुण्णिसुत्ते लिहिदो। तेण जाणिजदि जहा सव्वटुंकुव्यंकाणं विच्चालेसु घादट्टाणाणि णस्थि त्ति । एवं हदसमुप्पत्तियाणपरूषणा समत्ता ।) एत्तो उवरि 'हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-जहण्णविसो. हिट्ठाणप्पहुडि जाव उक्कस्सविसीहिट्ठाणे त्ति ताव एदाणि असंखेजलोगमेत्तविसोहिट्ठाणाणि धादिदसेसाणुभागघादकारणाणि एगसेडिसरूवेण रचेदूण पुणो एदेसि दक्षिणपासे सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णट्ठाणप्पहुडि असंखेज्जलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियट्ठाणाणि एगसेडिसरूवेण रचेदूण पुणो सुहुमणिगोदअपज्जत्तजहण्णट्ठाणस्सुवरि संखेजाणं छट्ठाणाणं अट्ठकुव्वंकट्ठाणाणि मोत्तण पुणो तदणंतरअप्पडिसिद्ध अटुंकप्पहुडि जाव चरिमअटुंके ति ताव एदेसिमसंखेजलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियअटुंकुव्वंकाणमंतरेसु पुत्वावरायामेण असंखेजलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि रचेदण पुणो तत्थ चरिमबंधसमुप्पत्तियअहंकुव्वंकाणं मज्झे असंखेजलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियहाणाणि होति । पुणो एदेसु हाणेसु असंखेजलोगमेत्तअट्ठकाणि रूवूणछट्ठाणं च अस्थि । करनेवाले वर्धमान भट्टारक द्वारा गौतम स्थविरके लिए की गई थी। पश्चात् वह अर्थ आचार्य परम्परासे आकर गुणधर भट्टारकको प्राप्त हुआ। फिर उनके पाससे वह आचार्य परम्परा द्वारा आकर आर्यमा और नागइस्ती भट्टारकके पास आया। पश्चात् उन दोनों ही द्वारा क्रमसे उसका व्याख्यान यतिवृषभ भट्टारकके लिये किया गया। उन्होंने भी उसे शिष्योंके अनुग्रहार्थ चूर्णिसूत्र में लिखा है । उससे जाना जाता है कि समस्त अष्टांकों और ऊर्वकके अन्तरालोंमें घातस्थान नहीं है । इस प्रकार हतसमुत्पत्तिकस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। इसके आगे हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य विशुद्धिस्थानसे लेकर उत्कृष्ट विशुद्धस्थान तक घातनेसे शेष रहे अनुभागके घातने में इन असंख्यात लोकप्रमण विशुद्धिस्थानोंको एक पंक्तिके रूफ्से रचकर फिर इनके दक्षिण पाश्व भागमें सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यातलोक प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंको एक पंक्ति स्वरूपसे रचकर तत्पश्चात् सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य स्थानके आगे संख्यात षस्थानों सम्बन्धी अष्टांग व ऊर्वंक स्थानोंको छोड़कर फिर तदनन्तर अप्रतिषिद्ध अष्टांकसे लेकर अन्तिम अष्टांक तक इन असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पतिक अष्टांक और ऊवक स्थानोंके अन्तरालोंमें पूर्व-पश्चिम आयामसे असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थानोंको रचकर फिर वहाँ अन्तिम बन्धसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके मध्यमें असंख्यातलोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। इन स्थानों में असंख्यात लोक प्रमाण अष्टांक और एक अंकसे रहित एक पदस्थान भी है। १ अापतौ 'हदसमुप्पत्तिय' इति पाठः। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया (२३३ तत्थ ताव चरिमउव्वंकवादणविहाणं भणिस्सामो-उक्कस्सपरिणामट्ठाणेण पजवसाणउव्वंके घादिदे चरिमअट्ठकस्स हेट्टा अणंतगुणहीणं, तस्सेव हेहिमउव्वंकट्ठाणस्सुवरि अणंतगुणं होदूण दोण्णं पि अंतरे पढमं हदहदसमुप्पत्तियट्टाणं उप्पजदि । पुणो अणंतभागहीणदुचरिमहाणेण तम्हि चेव पजवसाणाणुभागे घादिदे पुव्वुप्पण्णट्ठाणस्सुवरि अणंतभागमाहियं होदूण विदियं हदहदसमुप्पत्तियहाणमुप्पजदि। कुदो ? अणंतभागहीणविसोहिहाणेण धादिदत्तादो। एवं जाए जाए हाणीए समण्णिदेण परिणामट्ठाणेण पञ्जवसाणहाणं धादिजदे ताए ताए सण्णाए सहिदाणि घादघादट्ठाणाणि उप्पज्जंति । एवं कदे चरिमअटुंकउव्वंकाणं विच्चाले परिणामट्टणमेत्ताणि चेव हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि होति । पुणो उव्वंकस्स परिणामट्ठाणेण पजवसाणदुचरिमउव्वंके धादिदे सव्वजहण्णहदहदसमुप्पत्तियहाणस्स हेहा अणंतभागहीणं होदण वामपासे पढमट्ठाणमुप्पज्जदि । पुणो एदम्हादो अणुभागट्ठाणादो परिणाममेत्ताणि चेत्र हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि पुव्वं व उप्पादेदव्वाणि । पुणो तेणेव उक्कस्सपरिणामट्ठाणेण तिचरिमउव्वंके धादिदे पुव्वुप्पण्ण. पंतीए जहण्णट्ठाणादो अणंतभागहीणं होदण अण्णं हाणं उप्पजदि । एवं एत्थ वि परिणामट्ठाणमेत्ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि उप्पजंति । पुणो चदुचरिमादिघादट्ठाणाणि कमेण घादिय परिणामट्टाणमेत्ताणि धादघादट्टाणाणि उप्पादेदव्वाणि । एवं कदे छट्ठा. णविक्खंभपरिणामट्ठाण मेत्तायाम यादघादहाणपदरं होदि ! उनमें पहिले अन्तिम अवस्थानके घातने की विधि बतलाते उत्कट परिणामस्थानके द्वारा पर्यवसान ऊवकके घाते जानेपर अन्तिम अष्टांकके नीचे अनन्तगुणाहीन व उसके ही अध. स्तन ऊर्वकस्थानके ऊपर अनन्तगुणा होकर दोनोंके ही मध्यमें प्रथम हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। पश्चात् अनन्तवें भागसे हीन द्विचरम स्थानके द्वारा उसी पर्यवसान अनुभागके घाते जानेपर पूर्व उत्पन्न स्थानके ऊपर अनन्तवें भागसे अधिक द्वितीय हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है; क्योंकि, वह अनन्तभागहीन विशुद्धिस्थान द्वारा घातको प्राप्त हुआ है। इस प्रकार जिस जिस हनिसे सहित परिणामस्थानके द्वारा पर्यवसानस्थान घाता जाता है उस उस संज्ञासे सहित घातघात उत्पन्न होते हैं। इस विधानसे अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें परिणामस्थानोंके बराबर ही हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। पश्चात् ऊर्वकके परिणामस्थान द्वारा पर्यवसान द्विचरम ऊवकके घाते जानेपर सर्वजघन्य हतहतसमुत्पत्तिकस्थानके नीचे अनन्तभागहीन होकर वाम पार्श्वभागमें प्रथम स्थान उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् इस अनुभागस्थानसे परिणामस्थानोंके बराबर ही हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको पहिलेके हो समान उत्पन्न कराना चाहिये। फिर उसी उत्कृष्ट परिणामस्थानके द्वारा त्रिचरम ऊर्वकके घाते जानेपर पूर्व उत्पन्न पंक्तिके जघन्य स्थानसे अनन्तभागहीनहोकर अन्य स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकारसे यहाँपर भी परिणामस्थानोंके बराबर ही सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं । तत्पश्चात् क्रमसे चतुश्चरम आदि घातस्थानोंको क्रमसे घातकर परिणामस्थानोंके बराबर घातघातस्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये। ऐसा करनेपर षस्थान विष्कम्भव परिणामस्थान आयाम युक्त घातघातस्थानप्रतर होता है। छ. १२-३०. . ** Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४} छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २६७. एवं विदट्ठाणेसु अपुणरुत्तट्ठाणपरूवणं कस्सामो-एत्थ हेहिमपढमढाणपंतीए जं जहण्णट्ठाणं तमपुणरुत्तं, तेण समाणण्णट्ठाणामावादो' । जं विदियट्टाणं तं पुणरुत्तं, उवरिमविदियपरिवाडीए जहण्णट्ठाणेण समाणत्तादो। हेहिमतदियहाणं विदियपरिवाडीए विदियट्ठाणेण समाणं । एवं णेयव्वं जाव पढमपरिवाडीए पढमकंदयस्स चरिमउव्वंके त्ति । पुणो उवरिमचत्तारिअंकहाणमपुणरुत्तं, उवरि सगपणिहिट्ठिदहाणेण चत्तारिअंकस्स सरिसत्ताभावादो। पुणो तदणंतरउवरिमउव्वंकट्ठाणं पुणरुत्तं, विदियपरिवाडीए पढमचत्तारिअंकेण समाणत्तादो। एवं पुव्वं व विदियकंदयउव्वंकट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि चेव होदण गच्छंति, विदियपरिवाडीए विदियकंदयउव्वंकट्ठाणेहि समाणत्तादो । पुणो पढमपंतीए विदियचत्तारिअंकमपुणरुत्तं, उवरिमपंतीए सगोवरिट्ठिदउव्वंकाण समाणत्तामावादो। एवं भणिजमाणे पढमपंतीए सव्वुवंकट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि चेव होति । पुणो तेसिं पुणरुत्तट्ठाणाणमवणयणे कदे पढमाए हाणपंतीर चत्तारिअंक-पचंक छअंक-सत्तंकअट्ठकट्ठाणाणि चेव अपुणरुत्ताणि होदूण लभंति । जहा पढमपरिवाडीए उव्वंकट्ठाणाणि हेट्टदो विदियपरिवाडीए उव्वंकट्टाणेहि समाणाणि त्ति अवणिदाणि तहा विदियपरिवाडीए पढमउव्वंकं मोत्तूण सेसस्स उव्वंकट्ठणाणि तदियपरिवाडीए उव्वंकट्ठाणेहि समाणाणि इस प्रकारसे स्थित स्थानों में अपुनरुक्त स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं-यहाँ अधस्तन प्रथम स्थानपंक्तिका जो जघन्य स्थान है वह अपुनरुक्त है, क्योंकि, उसके समान अन्य स्थानका अभाव है। जो द्वितीय स्थान है वह पुनरुक्त है, क्योंकि, वह उपरिम द्वितीय परिपाटीके जघन्य स्थानके समान है। अधस्तन तृतीय स्थान द्वितीय परिपाटीके द्वितीय स्थानके समान है। इस प्रकारसे प्रथम परिपाटीसम्बन्धी प्रथम काण्डकके अन्तिम ऊबैंक तक ले जाना चाहिये। पुनः उपरका चतुरंकस्थान अपुनरुक्त है, क्योंकि, ऊपर अपनी प्रणिधिमें स्थित स्थानसे चतुरंककी समानताका अभाव है। तदनन्तर उपरिम ऊर्वकस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि, वह द्वितीय परिपाटीके प्रथम चतुरंकसे समान है। इस प्रकार पहिलेके समान द्वितीय काण्डकके ऊर्वक स्थान पुनरुक्त ही होकर जाते हैं, क्योंकि, वे द्वितीय परिपाटीके द्वितीय काण्डक सम्बन्धी ऊर्वकस्थानोंके समान हैं । पुनः प्रथम पंक्तिका द्वितीय चतुरंक अपुनरुक्त है, क्योंकि, उपरिम पंक्ति में अपने ऊपर स्थित ऊर्व से उसकी समानता नहीं है। इस प्रकार कथन करनेपर प्रथम पंक्तिके सब ऊर्वकस्थान पुनरुक्त ही हैं। पुनः उन पुनरुक्त स्थानोंका अपनयन करनेपर प्रथम स्थानपंक्तिके चतुरंक,पंचांक, षडंक, सप्तांक और अष्टांक ये स्थान ही अपुनरुक्त होकर पाये जाते हैं । जिस प्रकार प्रथम परिपाटीके ऊर्वंकस्थान चूंकि नीचे द्वितीय परिपाटीके ऊर्वकाथानोंसे समान हैं, अतः उनका अपनयन किया गया है, उसी प्रकार चूंकि द्वितीय परिपाटीके प्रथम ऊर्वकको छोड़कर शेष ऊर्वकस्थान तृतीय परिपाटीके ऊवकस्थानोंके समान हैं अतएव उनका अपनयन करना चाहिये । इस प्रकार पुनरुक्त १ अ-श्राप्रत्योः 'समाणहाणाभावादो' इति पाठः । २ प्रतिषु 'सगपणिदि' इति पाठः । ३ अ-श्राप्रत्योः '-छिद उव्वंकाण' इति पाठः। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७,२६७. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ २३५ ति श्रवणेदव्वाणि । एवं पुणरुत्तट्ठाणावणयणं करिय ताव णेदव्वं जाव कंदयमेतद्बाणसुवरि चडिण हिदट्ठाणपंती पत्ता त्ति । तत्थ जं पढमं ट्ठाणं तमपुणरुत्तं, उवरिमपंतीए केण वि द्वाणेण समाणत्ताभावादो । जं विदियं द्वाणं तं पि अपुणरुत्तं चेव, सगपंतीए जहण्णट्ठाणादो अर्णतभागन्महियस्स उवरिमपंतीए जहण्णट्ठाणेण सगपंतिजहण्णट्ठाणादो असंखेजभागब्भहिएण समाणत्तविरोहादो । एवमप्पिदपंतीए कंदयमेत्तसव्वुर्व्वकट्ठाण | णि अपुणरुत्ताणि चेव, सगपंतिजहण्णादो असंखेज्जभागन्भहिएहि उवरिमाणेहि हेहा तत्तो' अनंतभाग भहियाणं समाणत्त विरोहादो । पुणो हेडिमपंतीए पढमचत्तारिअंकद्वाणं उवरिमपंती' सगुवरिमउव्वंकट्ठाणेण समाणमिदि अवणेदव्वं । एवमेत्थ अप्पिदपरिवाडीए चित्तारिकाणाणि ताव पुणरुत्तट्ठाणाणि होतॄण गच्छति जाव अप्पिदपरिवाडीए पढमपंचकाणादो हेडिमचत्तारिअंकट्ठाणे त्ति । पुणो अप्पिदपरिवाडीए उवरिमसव्वद्वाणाणि अपुणरुत्ताणि चैव, उवरिमपंतिट्ठाणेहि तेसिं समाणत्ताभावादो । जहा पढमकंदयमेतद्वाणपंतीणं सरिसासरिसपरिक्खा कदा तहा विदियकंदयसaagri पि परिक्खा कायव्वा । णवरि असंखेजभागग्भहियद्वाणं जम्हि कंदए जहण्णं स्थानोंका अपनयन करके तबतक ले जाना चाहिये जबतक कि काण्डक प्रमाण अध्वानके आगे जाकर स्थित स्थानपंक्ति प्राप्त नहीं होती है । उसमें जो प्रथम स्थान है वह अपुनरुक्त है, क्योंकि, वह उपरिम पंक्तिके किसी भी स्थानके समान नहीं हैं। जो द्वितीय स्थान है वह भी अपुनरुक्त ही है, क्योंकि, अपनी पंक्ति के जघन्य स्थानकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे अधिक उक्त स्थानकी, उपरिम पंक्ति के जघन्य स्थानसे जो कि अपनी पंक्तिके जघन्य स्थानकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक . है, समानताका विरोध है । इस प्रकार विवक्षित पंक्तिके काण्डक प्रमाण सब ऊर्वक स्थान अपुनरुक्त ही होते हैं, क्योंकि, अपनी पंक्तिके जघन्य स्थानकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक उपरिम स्थानोंसे नीचे उक्त स्थानकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे अधिक स्थानोंकी समानताका विरोध है । पुनः अधस्तन पंक्तिका प्रथम चतुरंक स्थानान्तर चूंकि उपरिम पंक्ति के अपने ऊर्वकस्थानके समान है, अतः उसका अपनयन करना चाहिये । इस प्रकारसे यहाँ विवक्षित परिपाटीके चतुरंकस्थान तब तक पुनरुक्तस्थान होकर जाते हैं जब तक कि विवक्षित परिपाटी के प्रथम पंचांकस्थानसे नीचेका चतुरंकरथान नहीं प्राप्त होता है । पुनः विवक्षित परिपाटी के उपरिम सब स्थान अपुनरुक्त ही होते हैं, क्योंकि, उनकी उपरिम पंक्ति के स्थानोंसे समानता नहीं है । जिस प्रकार से प्रथम काण्डक प्रमाण स्थान पंक्तियोंकी समानता व असमानताकी परीक्षा की गई है उसी प्रकार से द्वितीय काण्डकके सब स्थानोंकी भी परीक्षा करनी चाहिये। विशेष इतना है कि जिस काण्डक में असंख्यातवें भागसे अधिक स्थान जघन्य है उसके अनन्तर अधस्तन १ श्रतोऽग्रे तात 'अणंतभाग भहियाणं श्रकाणंतर उवरिमपंतीए सगुवरिमउव्वंकसमाणत्तविरोधादो । पुणो मितीए पढमचत्तारिाणेय समारामिदि श्रवणेदव्वं । एवमेत्थ ईदृक् पाठः समुपलभ्यते । २ श्र श्राप्रत्योः '- काणंतरउवरिम - ताप्रतावसंबद्धोऽत्र पाठः प्रतिभाति । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६७. तत्तो अणंतरहेडिमअसंखेजभागब्भहियट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि । जम्हि कंदए संखेजभागभहियं द्वाणं जहणं होदि तत्तो हेहिमपंतीए संखेजभागब्भहियाणि हाणाणि पुणरुताणि । एवं सव्वत्थ वत्तव्वं । एत्थ पुणरुत्ताणि अवणिय अपुणरुत्ताणि घेत्तव्वा । ___ एदेण बीजपदेण' दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमादिअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चालेसु हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव एदेसि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं पढमअटुंके त्ति । एत्थ जहण्णबंधहाणप्पहुडि जहा संखेजटुंकुव्वंकाणं अंतरेसु घादट्ठाणाणि पडिसिद्वाणि तथा एदेसि पि घादट्ठाणाणं हेहा संखेज्जटुंकुव्वंकाणंतरेसु घादघादहाणाणं पडिसेहो किण्ण कारदे ? ण, सुत्ताणमाइरियवयणाणं च पडिसेहपडिबद्धाणमणुवलंभादो । विधोए विणा कधं सव्वत्थर्सेकुव्वंकंतरेसु धादघादपरूवणा कीरदे ? ण एत्थ अम्हाणमाग्गहो' सव्वटुंकुव्वंकट्ठाणंतरेसु घादधादट्ठाणाणि होति चेवे त्ति । किंतु विहि-पडिसेहो णत्थि त्ति जाणावणटुं परविदं । एवं कदे एककहदसमुप्पत्तियअट्ठकट्ठाणस्स हेट्ठा असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पण्णाणि होति । पुणो पच्छाणुपुव्वीए ओदरिदृण बंधसमुप्पत्तियदुचरिमअट्ठक-उव्वंकाणमंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पअसंख्यातवें भागसे अधिक स्थान पुनरुक्त हैं, और जिस काण्डकमें संख्यातवें भागसे अधिक स्थान जघन्य होता है उससे अधस्तन पंक्तिके संख्यातवें भागसे अधिक स्थान पुनरुक्त है, ऐसा सब जगह कथन करना चाहिये । यहाँ पुनरुक्त स्थानोंका अपनयन करके अपुनरुक्त स्थानोंको ग्रहण करना चाहिये। इस बीज पदके द्वारा इन हतसमुत्पत्तिक स्थानोंके प्रथम अष्टांक तक द्विचरम, त्रिचरम व चतुश्चरम आदि अष्टांक एवं ऊवक स्थानोंके अन्तरालोंमें हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये। शंका-यहाँ जिस प्रकार जघन्य बन्धस्थानसे लेकर संख्यात अष्टांक और ऊबंक स्थानोंके अन्तरालोंमें घातस्थानोंका प्रतिषेध किया गया है उसी प्रकार इन घातस्थानोंके भी नीचे संख्यात अष्टांक व ऊर्वक स्थानोंके अन्तरालोंमें घातघातस्थानोंका प्रतिषेध क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि प्रतिषेधसे सम्बद्ध न तो सूत्र पाये जाते हैं और न आचार्य वचन ही। शंका-विधिके बिना सर्वत्र अष्टांक और ऊर्वकस्थानोंके अन्तरालों में घातघातस्थानोंकी प्ररूपणा कैसे की जाती है ? समाधान-हमारा यह आग्रह नहीं है कि सब अष्टांक और ऊर्वङ्क स्थानोंके अन्तरालोंमें घातघातस्थान होते ही हैं, किन्तु उनकी विधि व प्रतिषेध नहीं है, यह जतलानेके लिये उनकी प्ररूपणा की गई है। इस प्रकारसे एक एक हतसमुत्पत्तिकस्थानके नीचे असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। पुनः पश्चादानुपूर्वीसे उतर कर बन्धसमुत्पत्तिक द्विचरम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। फिर इन स्थानों के १मप्रति पाठोऽयम् । अ-श्रा-ताप्रतिषु 'जीवपदेण' इति पाठः। २ श्राप्रतौ 'एत्थ अंकाणमागहो' इति पाठः। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७, ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ २३७ चियाणाणि उप्पण्णाणि । पुणो एदेसिं ट्ठाणाणं चरिमअहंकप्पहुडि जाव पढमअके त्ति ताव एदेसिमकुव्वंकाणं अंतरेस असंखेज्जलोगमेत्ताणि हृदहदसमुप्पत्तियट्टणाणि उपज्जति । पुणो हे ओदरिदूण बंधसमुप्पत्तियतिचरिमट्ठकुब्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियछद्वाणाणि अत्थि । पुणो एदेसिं द्वाणाणं असंखेज्जलोगमेत्तअटुंकुच्वंकंतरे असंखेज्ज लोग मे तहद हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि रूवूणछट्ठाण सहिदाणि उप्पज्जति । एवं बंधसमुप्पत्तियचदुचरिम-पंचचरिमादिअहंकंतरेसु' ट्ठिदाणं पच्छाणुपुवीए जाणिदृण दव्वं जाव अपडिसिद्धपदम अट्ठेके ति । तदो बंधसमुप्पत्तियअप्पडिसिपढमकुव्वंकाणं विचाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अस्थि, पुणो एदेसिं द्वाणाणं चरिमअहं कुव्वं काण मंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि हृदहदसमुप्पत्तियछड्डाणाणि छाणसहियाणि उप्पज्जंति । एवं पडिलोमेण जाणिदूण णेयव्वं जाव एदेसिं हदसमुपपत्तिणाणं पढमअट्ठेके ति । एसा ताव हृदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं एगा परिवाडी उत्ता होदि । संपहि हद हदसमुपपत्ति यद्वाणाणं विदियपरिवाडीए भण्णमाणाए बंधसमुप्पत्तियचरिमअर्द्धक-उच्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अस्थि । पुणो एदेसिं ट्ठाणाणं चरिमअक उच्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हृदहदसमुपचियaणाणि उप्पण्णाणि । पुणो एदेसिं हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं पढमपरिवाडीए समुप्पण्णाणं अन्तिम अष्टांकसे लेकर प्रथम अष्टांक तक इन अष्टांक और ऊर्वक स्थानोंके अन्तरालों में असंख्यात लोक प्रमाण हतहृतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं । फिर नीचे उतर कर बन्धसमुत्पत्तिक त्रिचरम अष्टक और ऊर्वक स्थानोंके अन्तरालोंमें असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकपद्स्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके असंख्यात लोक प्रमाण अष्टांक व ऊर्वकके अन्तरालोंमें एक अंकसे कम षटूस्थान सहित असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार बन्धसमुत्पत्तिक चतुश्चरम व पंचचरम आदि अष्टांक ( व ऊर्वक) के अन्तरालों में स्थित उनको पश्चादानुपूर्वी से जानकर ले जाना चाहिये जब तक अप्रतिसिद्ध प्रथम अष्टांक नहीं प्राप्त होता । पश्चात् बन्धसमुत्पत्तिक अप्रतिसिद्ध प्रथम अष्टांक व ऊर्वक के अन्तराल में असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल में एक कम षट्स्थान सहित असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार प्रतिलोमसे जानकर इन इतसमुत्पत्तिक षट्स्थानोंके अष्टांक तक ले जाना चाहिये। यह हतहतसमुत्पत्ति स्थानोंकी एक परिपाटी कही गई है । अब हतहृतसमुत्पत्तिक पदूस्थानोंकी द्वितीय परिपाटीकी प्ररूपणा में बन्धसमुत्पतिक अन्तिम अष्टक और ऊके मध्य में असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। फिर इन स्थानोंके अन्तिम अष्टक और ऊर्वकके अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हवहतसमुत्पत्तिक षट्स्थान उत्पन्न होते हैं । फिर प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न इन हतसमुत्पत्तिक स्थानोंके अन्तिम अष्टांक और १ प्रतिषु ' - पंचचरिमा वि श्रद्वंकंतरेसु' इति पाठः । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६७ चरिमअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चाले पुणो विदियपरिवाडीए असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियछट्ठाणाणि रूवूणछट्ठाणसहगदाणि हेहिमअंकुसायारहाणेहि सेडिबद्धेहि पुष्फपहिण्णएहि च सहियाणि उप्पज्जंति । पुणो एदेसिं चेव हाणाणं दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिम-पंचचरिमादिहदहदसमुप्पत्तियअटुंक-उव्वंकाणं विचाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पाइय ओदारेदव्यं जाव एदेसिं चेव हाणाणं पढमअहंक-उव्वंकंतरे ति । एवं सेसपढमपरिवाडिसमुप्पण्णहदहदसमुप्पत्तियअहुंकुव्वंकाणं विचाले विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि उप्पादेदूण ओदारेदव्वं जाव अप्पडिसिद्धबंधसमुप्पत्तियपढमअटुंक-उव्वंकविच्चाले त्ति । पुणो एदम्हि विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्टाणाणि अस्थि । पुणो एदेसिं द्वाणाणं' चरिमहदसमुप्पत्तियअट्ठकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अत्थि। पुणो एदेसिं द्वाणाणं' चरिमहदहदसमुप्पत्तियअटुंकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अस्थि । पुणो एदेसि हाणाणं चरिमहदहदसमुप्पत्तियअट्ठकुव्वंकाणं विचाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि उप्पज्जति । एवं चेव अप्पिददुचरिम-तिचरिमअट्ठकुव्वंकाणं अंतरेसु असंखेज्जलोगमेत्ताणि ऊवकके अन्तरालमें एक कम षस्थानके साथ अधस्तन अंकुशाकार श्रेणिबद्ध एवं पुष्पप्रकीर्णक स्थानोंसे सहित होकर फिरसे द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होते हैं । पश्चात् इन्हीं स्थानोंके द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम और पंचचरम आदि हतहतसमु. त्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके अन्तरालमें द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसम्त्पत्तिकस्थानोंको उत्पन्न कराकर इन्हीं स्थानोंके प्रथम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल तक उतारना चाहिये। इस प्रकार प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न शेष हतहतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके मध्य में द्वितीय परिपाटीसे हतहतसमुत्पत्तिक स्थानोंको उत्पन्न कराकर अप्रतिषिद्ध बन्धसमुत्पत्तिक प्रथम अष्टांक और ऊवकके अन्तराल तक उतारना चाहिये । पुनः इस अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके अन्तिम हतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊबकके अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। पुनः इन स्थानोंके अन्तिम हतहत. समत्पत्तिक श्रष्टांक और ऊवकके अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके अन्तिम हतहतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊबकके अन्तरालमें द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोकमात्र हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकारसे विवक्षित द्विचरम व त्रिचरम अष्टांक व उर्वकके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोक प्रमाण १ अतोऽग्रे ताप्रतिपाठ:-चरिमहदहदसमुप्पचियअहंकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियहाणाणि अस्थि । पुणो एदेसिं हाणाणं चरिमहदसमुप्पत्तियअहंकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तिय. उप्पज्जति । एवं चेव..."। २ अतोऽग्र अाप्रतिपाठस्त्वेवंविधोऽस्तिहदहदसमुप्पत्तियअहंकु० विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्ति हाणाणि उप्पज्जति एवं चेव.....। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२३९ विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि उप्पादिय' ओदारेदव्वं जाव एदेसिं चेव पढमपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्टाणपढमअट्ठकउव्वंकविच्चाले त्ति । पुणो एदेण कमेण एत्थुप्पण्णविदियपरिवाडिघादधादट्ठाणाणं जाणिदूण परूवणा कायव्वा । एवं कदे हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं विदियपरिवाडी समत्ता होदि । पुणो एदेण कमेण बंधसमुप्पत्तियचरिम-अटुंक-उव्यंकाणं विच्चाले संपहि विदियपरिवाडीए समुप्पण्णहदहदसमुप्पत्तियचरिमअट्ठकट्ठाणमादि कादूण पच्छाणुपुव्वीए ताव ओदारेदव्वं जाव बंधसमुप्पत्तियअप्पडिसिद्धपढमअटुंक-उव्वंकविच्चाले [त्ति । ] विदियपरिवाडीए उप्पण्णहदहदसमुप्पत्तियअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चालेसु पुणो वि असंखेज्जलोगमेत्तहदहदसमुप्पत्तियट्ठाणेसु तदियपरिवाडीए उप्पाइदेसु तदियहदहदसमुप्पत्तियहाणपरूवणा समत्ता होदि । एवं अणंतरुप्पण्णुप्पण्णअट्ठकुव्वंकाणं विच्चालेसु घादघादट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव संखेज्जाओ परिवाडीओ गदाओ ति । पुणो पच्छिमघादधादट्ठाणमटुंकुव्वंकविच्चालेसु धादघादट्ठाणाणि ण उप्पज्जंति, सव्वपच्छिमाणं घादघादट्ठाणाणं घादाभावादो।। संखेज्जासु घादपरिवाडीसु गदासु पुणो सव्वपच्छिमस्स अणुभागस्स घादिदसेसस्स घादो णत्थि ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। सरागाणमाइ हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको उत्पन्न कराकर इन्हीं प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंके प्रथम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल तक उतारना चाहिये। पुनः इस क्रमसे यहाँ उत्पन्न द्वितीय परिपाटीके घातघात स्थानोंकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये। ऐसा करनेपर हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी द्वितीय परिपाटी समाप्त होती है। - पश्चात् इस क्रमसे बन्धसमुत्पत्तिक अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालमें अभी द्वितीय परिपाटीसे उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिक अन्तिम अष्टांकस्थानसे लेकर पश्चादानुपूर्वीसे बन्धसमुत्पत्तिक अप्रतिषिद्ध प्रथम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल तक उतारना चाहिये। द्वितीय परिपाटीसे उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके अन्तरालोंमें फिरसे भी असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको तृतीय परिपाटीसे उत्पन्न करानेपर तृतीय हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त होती है। इस प्रकार अनन्तर पुनः पुनः उत्पन्न हुए अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालोंमें घातघातस्थानोंको संख्यात परिपाटियाँ समाप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिये परन्तु पश्चिम घातघातस्थानोंके अष्टांक और ऊर्वङ्कके अन्तरालोंमें घातघातस्थान उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि, सर्वपश्चिम घातघातस्थानोंका घात सम्भव नहीं है। शंका-संख्यात घातपरिपाटियोंके समाप्त होनेपर फिर घातनेसे शेष रहे सर्वपश्चिम अनुभागका घात नहीं होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? १प्रतिषु 'अंतरेसु असंखेज्जलोगमेत्ताणि बिदियपरिवाडीए हदहदसमुप्प० असंखे० उप्पादिय' इति पाठः। २ अप्रतौ 'असंखेजात्रो', अाप्रती 'संखेज्ज-संखेज्जाश्रो' इति पाठः। ३ताप्रतौ 'णत्थि ति। कुदो' इति पाठः। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २६७. रियाणं वयणं ण प्पमाणमिदि ण वोत्त जुत्तं, अविरुद्धविसेसणेण ओसारिदरागादिभावादो । ण च अविरुद्धाइरियपरंपरागदउवएसो एसो चप्पलो होदि, अव्ववत्थापत्तीदो। णाणावरणीयस्स सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियट्ठाणाणि । हदसमुप्पत्तियहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणगारो असंखेज्जा लोगा। हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एत्थ वि गुणगारो असंखेज्जा लोगा। एसा ताव णाणावरणीयस्स तिविहा हाणपरूवणा परूविदा । एवं सेससत्तण्णं पि कम्माणं तिविही हाणपरूवणा जाणिदण परवेदव्वा । णवरि आउअस्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण अपज्जत्तसंजुत्ततिरिक्खाउअजहण्णाणुभागे पबद्धे तमेगं बंधसमुप्पत्तियट्ठाणं । पुणो पक्खेवुत्तरे पबद्धे विदियबंधसमुप्पत्तियहाणं । आउअस्स जहण्णहाणप्पहुडि असंखेज्जलोगमेत्ताणि परिणामहाणाणि होति । जत्तियाणि परिणामट्ठाणाणि तत्तियाणि चेव अणुभागवंधसमुप्पत्तियहाणाणि । हदसमुप्पत्तिय-हदहदसमुप्पत्तियहाणपरूवणाए कीरमाणाए णाणावरणभंगो । एवमणुभाभागबंधज्झवसाणहाणपरूवणा णाम विदिया चूलिया समत्ता। समाधान-वह अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। यदि कहा जावे कि आचार्य चूंकि सराग होते हैं, अतएव उनके वचन प्रमाण नहीं हो सकते; सो ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि, अविरुद्ध इस विशेषणसे रागादिभावका निराकरण किया गया है। कारण कि अविरुद्ध आचार्यपरम्परासे आया हुआ यह उपदेश मिथ्या नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर अव्यवस्थाका होना अनिवार्य है। ज्ञानावरणीयके बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यात. गुणे हैं। गुणकार असंख्यात लोक है। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणे हैं । यहाँपर भी गुणकार असंख्यात लोक है । यह ज्ञानावरणीयकी तीन प्रकारकी स्थानप्ररूपणा कही गई है। इसी प्रकारसे शेष सातों कर्मोकी तीन प्रकारकी स्थानप्ररूपणाको जानकर कहना चाहिये। विशेष इतना है कि आयुकर्मका परिवर्तमान मध्यम परिणामके द्वारा अपर्याप्त संयुक्त तिर्यश्च आयुके जघन्य अनुभागको बाँधनेपर वह एक बन्धसमुत्पत्तिकस्थान होता है । पुनः उसे एक प्रक्षेप अधिक बाँधनेपर द्वितीय बन्धसमुत्पत्तिकस्थान होता है। आयुके जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात लोक प्रमाण परिणामस्थान होते हैं । जितने परिणामस्थान हैं उतने ही उसके अनुभागबन्धसमुत्पत्तिक स्थान हैं। हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक स्थानोंकी प्ररूपणाके करनेपर वह ज्ञानावरणके समान है। इस प्रकार अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानप्ररूपणा नामकी द्वितीय चूलिका समाप्त हुई। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६८.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२४२ तदिया चूलिया जीवसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि-एयहाणजीवपमाणाणुगमो णिरंतरहाणजीवपमाणाणुगमो सांतरट्टाणजीवपमाणाणुगमो णाणाजीवकालपमाणाणुगमो वडिपरूवणा जवमज्झपरूवणा फोसणपरूवणा अप्पाबहुए ति ॥ २६८॥ ___जीवसमुदाहारो किमहमागदो ? पुव्वं परूविदबंधाणुभागहाणेसु असंखेज्जलोगमेत्तेसु जीवा किं सम्वेसुसरिसा आहो विसरिसा वा सरिसा [विसरसावा] ति पुच्छिदे एदेण सरूवेण तत्थ चिटंति त्ति जाणावण । अट्ठसु अणियोगद्दारेसु एयहाणजीवपमाणाणुगमो किमहमागदो ? एक्केक्कम्हि हाणे' जीवा जहणणेण एत्तिया होंति उकस्सेण वि एत्तिया त्ति जाणावणहूँ । णिरंतरहाणजीवपमाणाणुगमो किमट्ठमागदो ? णिरंतरजीवसहगदाणि अणुभागट्ठाणाणि जहण्णएण एत्तियाणि उक्कस्सेण वि एत्तियाणि वि होति ति जाणावणहूं। सांतरट्ठाणजीवपमाणुगमो किमट्ठागदो ? णिरंतरजीवविरहिदहाणाणि जहण्णेण एत्तियाणि तीसरी चूलिका जीवसमुदाहार इस अधिकारमें ये आठ अनुयोगद्वार हैं--एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥२६८॥ शंका-जीवसमुदाहार किसलिये आया है ? समाधान-पहिले जिन असंख्यात लोक प्रमाण बन्धानुभागस्थानोंकी प्ररूपणा की गई है सब स्थानों में जीव क्या सदृश होते हैं, विसदृश होते हैं, अथवा सदृश [विसहश होते हैं। ऐसा पूछे जानेपर वे वहाँ इस स्वरूपसे स्थित होते हैं, यह बतलानेके लिये जीवसमुदाहार यहाँ प्राप्त हुआ है। शंका-आठ अनुयोगद्वारोंमें एकस्थानजीवप्रमाणानुगम किसलिये आया है ? समाधान-एक एक स्थानमें जीव जघन्यसे इतने होते हैं, और उत्कृष्टसे इतने होते हैं; इस बातको बतलानेके लिये उपयुक्त अनुगम प्राप्त हुआ है। शंका-निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम किसलिये आया है ? समाधान-निरन्तर जीवोंसे सहित अनुभागस्थान जघन्यसे इतने और उत्कृष्टरूप भी इतने ही होते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ उक्त अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है। शंका-सान्तरस्थानजीवप्रमाणुगम किसलिये भाया है ? समाधान-निरन्तर जीवोंसे रहित स्थान जघन्यसे इतने और उत्कृष्टरूपसे भी इतनेही होते १ अ-आप्रत्योः 'हाणेण', ताप्रतौ 'हाणे [ण ]' इति पाठः । छ. १२-३१. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६६. उक्कस्सेण वि एत्तियाणि वि होंति त्ति जाणावणहं । णाणाजीवकालपमाणाणुगमो किमटुमागदो ? एक्केक्कम्हि' हाणे जीवा जहणणेण एत्तियं कालमुक्कस्सेण वि एत्तियं कालमच्छति त्ति जाणावणटुं । वड्डिपरूवणा किमहमागदा ? अणंतरोवणिधापरंपरोवणिधासरूवेण जीवाणं वड्डिपरूवण । जवमझपरूवणा किमहमागदा ? कमेण वड्डमाणाणं जीवाणं हाणाणमसंखेज्जदिमागे जवमझ होदण तत्तो उवरिमसव्वट्ठाणाणि जीवेहि विसेसहीणाणि होदण गदाणि त्ति जाणावणहं । फोसणपरूवणा किमट्ठमागदा १ अदीदे काले एगजीवेण एगमणुभागट्ठाणं एत्तियं कालं पोसिदमिदि जाणावणटुं। अप्पाबहुगं किमट्ठमागदं ? पुव्वुत्ततिविहाणुभागट्ठाणेसु जीवाणं थोवबहुत्तपरूवणहूँ । एयट्ठाणजीवपमाणाणुगमेण एककम्हि हाणम्हि जीवा जदि होंति एक्को वा दो वा तिण्णि वा जाव उकस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ॥ २६६ ॥ हैं, इस बात के ज्ञापनार्थ वह अधिकार प्राप्त हुआ है । शंका- नानाजीवकालप्रमाणानुगम किसलिये आया है ? समाधान- एक एक स्थानमें जीव जघन्यसे इतने काल तक और उत्कृष्टसे भी इतने काल तक रहते हैं, इसके ज्ञापनार्थ यह अधिकार आया है। शंका-वृद्धिप्ररूपणा किसलिये आयी है ? समाधान-वह अनन्तरोपनिधा और परम्परोनिधा स्वरूपसे जीवोंकी वृद्धिप्ररूपणा करनेके लिये आयी है। शंका-यवमध्बप्ररूपणा किसलिये आयी है ? समाधान-क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवोंके स्थानोंके असंख्यातवें भागमें यामध्य होकर उससे आगेके सब स्थान जीवोंसे विशेषहीन होकर गये हैं, यह बतलानेके लिये वृद्धिप्ररूपणा प्राप्त हुई है। शंका- स्पर्शनप्ररूपणा किसलिये आयी है ? समाधान-अतीत कालमें एक जीवके द्वारा एक अनुभागस्थानका इतने काल स्पर्शन किया गया है, यह जतलानेके लिये स्पशप्ररूपणा प्राप्त हुई है। शंका-अल्पबहुत्व किसलिये आया है ? समाधान-वह पूर्वोक्त तीन प्रकारके अनुभागस्थानोंमें जीवोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये आया है। एकस्थानजीवप्रमाणानुगमसे एक एक स्थानमें जीव यदि होते हैं तो एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग तक होते हैं ॥ २६ ॥ १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'एकम्हि' इति पाठः। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२४३ असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागट्ठाणाणि उड्डमेगपंत्तियागारेण पण्णाए हविय तत्थ एगेगअणुभागट्ठाणम्मि जहण्णुक्कस्सेण जीवपमाणं वुच्चदे। तं जहा-जहण्णेण एगो वा जीवो तत्थ होदि दो वा होति तिण्णि वा होंति एवमेगुत्तरवड्डीए एकेकअणुभागट्ठाणम्मि उक्कम्सेण जाव आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता होति । अणुभागहाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि, जीवरासी पुण अणंतो, तेण एककम्हि अणुभागट्ठाणे जहण्णुक्कस्सेण अणंतेहि जीवेहि होदव्वं, अणुभागट्ठाणाणि विरलेदूण जीवरासिं समखंडं कादण दिण्णे एकेक म्हि द्वाणम्मि अणंतजीवोवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, तसजीवे अस्सिदण जीवसमुदाहारस्स परूविदत्तादो । थावरजीवे अस्सिदूण किमटुं जीवसमुदाहारो ण परविदो ? ण, अणुभागहाणेसु तसजीवाणमच्छणविहाणे अवगदे थावरजीवाणं तत्थावट्ठाणविहाणस्स सुहेण अवगंतु सकिज्जमाणत्तादो । थावरजीवाणमवट्ठाणविहाणे अवगदे तसजीवाणमवट्ठाणविहाणं किण्णावगम्मदे ? ण, एकेक्कम्हि द्वाणम्हि तसजीवपमाणस्स णिरंतरं तसजीवेहि णिरुद्धहाणपमाणस्स' तसजीवविरहिदअणुभागट्ठाणपमाणस्स य' तत्तो अवगंतुमसक्किज्जमाणत्तादो। एवमेयहाणजीवपमाणाणुगमो समत्तो। असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागस्थानोंको ऊपर एक पंक्तिके आकारसे बुद्धिद्वारा स्थापित करके उनमेंसे एक एक अनुभागस्थानमें जघन्य व उत्कृष्टसे जीवोंके प्रमाणको कहते हैं। वह इस प्रकार है-उसमें जघन्यसे एक जीव होता है, दो होते हैं, अथवा तीन होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एककी वृद्धिपूर्वक एक एक अनुभागस्थानमें उत्कृष्टसे वे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण तक होते हैं। शंका-अनुभागस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, परन्तु जीवराशि अनन्तानन्त है; अतएव एक एक अनुभागस्थानमें जघन्य व उत्कृष्टसे अनन्त जीव होने चाहिये, क्योंकि, अनुभागस्थानोंका विरलन करके जीवराशिको समखण्ड करके देनेपर एक एक स्थानमें अनन्त जीव पाये जाते हैं ? __समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा त्रस जीवोंका आश्रय करके की गई है। शंका स्थावर जीवोंका आश्रय करके जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अनुभागस्थानों में त्रस जीवोंके रहनेके विधानको जान लेनेपर उनमें स्थावर जीवोंके रहनेका विधान सुखपूर्वक जाना जा सकता है। शंका-स्थावर जीवोंके रहनेके विधानको जान लेनेपर त्रस जीवोंके रहनेका विधान क्यों नहीं जाना जाता है ? समाधान --नहीं, क्योंकि, उससे एक एक स्थानमें त्रस जीवोंके प्रमाणको, निरन्तर स जीवोंसे निरुद्ध स्थानप्रमाणको तथा त्रस जीवोंसे रहित अनुभागस्थानोंके प्रमाणको जानना शक्य नहीं है। इस प्रकार एकस्थानजीवप्रमाणानुगम समाप्त हुआ। १ अप्रतौ 'णिरुद्धद्धाण' इति पाठः। २ अाप्रती 'अणुभागठाणस यइति पाठः। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,७, २७०. णिरंतरहाणजीवपमाणाणुगमेण जीवेहि अविरहिदट्टाणाणि एको वा दो वा तिण्णि वा उकस्सेण आवलियांए असंखेज्जदिभागो २७० जीवसहिदाणि हाणाणि एग-दो-तिण्णिहाणाणि आदि कादण जाव उकस्सेण णिरंतरं जीवसहिदहाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्ताणि चेव होति । संपहि कसायपाहुडे उवजोगो णाम अत्थाहियारो। तत्थ कसाउदयहाणणि असंखेज्जलोगमेताणि' । तेसु वट्टमाणकाले जत्तिया तसा संति' तत्तियमेत्ताणि आवुण्णाणि त्ति कसायपाहुडसुत्तेण भणिदं । तदो एसो वेयणसुत्तत्थो ण घडदे ? ण, सुत्तस्स जिणवयणविणिग्गयस्स अविरुद्धाइरियपरंपराए आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। कधं पुण दोण्णं सुत्ताणमविरोहो।? वुचदे-एत्थ वेयणाए जीवसहिदाणि हाणाणि णिरंतरं जदि होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि चेव होति त्ति भणिदं। कसायपाहुडे पुणो' जीवसहिदणिरंतरहा'णपमाणपरूवणा ण कदा, किं तु वट्टमाणकाले णिरंतराणिरंतरविसे. सणेण विणा जीवसहिदहाणाणं पमाणपरूवणा कदा। तेण जीवसहिदहाणाणि तत्थ निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगमसे जीवोंसे सहित स्थान एक, अथवा दो, अथवा तीन, इस प्रकार उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग तक होते हैं ।। २७० ॥ जीव सहित स्थान एक, दो व तीन स्थानोंसे लेकर उत्कृष्टसे निरन्तर जीव सहित स्थान आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं। शंका-कसायपाहुडमें उपयोग नामका अर्थाधिकार है। उसमें कषायोदयस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। उनमें वतमानकालमें जितने त्रस जीव हैं उतने मात्र पूर्ण हैं, ऐसा कसायपाहुडसूत्रके द्वारा बतलाया गया है । इसलिये यह वेदनासूत्रका अर्थ घटित नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, जिन भगवान् के मुखसे निकले और अविरुद्ध आचार्यपरम्परासे हुए सूत्रके अप्रमाण होनेका विरोध है। शंका-फिर इन दोनों सूत्रोंमें अविरोध कैसे होगा? समाधान-इसका उत्तर कहते हैं। यहाँ वेदना अधिकारमें, जाव सहित स्थान निरन्तर यदि होते हैं तो आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, ऐसा कहा गया है। परन्तु कसायपाहुडमें जीव सहित निरन्तर स्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा नहीं की गई है, किन्तु वहाँ वर्तमानकालमें निरन्तर व सान्तर विशेषणके बिना जीव सहित स्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है। इसलिए जीव सहित स्थान वहाँ प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। उतने होकरके भी त्रस १ संपहि एवं पुच्छाविसईकयत्थस्स परूवणं कुणमाणो तत्थ ताव कसायुदयहाणाणमियत्तावहारणहमुवरिमं सुत्ताह-कसाउदयहाणाणि असंत्रेजा लोगा। जयध. अ. प. ६१६.। २ ताप्रतौ 'होति' इति पाठः । ३ तत्य ताव वट्टमाणसमयम्मि तसजीवहिं केत्तियाणि हाणाणि अावूरिदाणि केत्तियाणि च सुण्णहाणाणि त्ति एदस्स णिद्धारणहमुवरिमसुत्तामोइण्णं-तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि श्रावुण्णाणि । जयध. अ. प. ६१६.। ४ श्राप्रतौ कसायपाहुडे सुणो', ताप्रती कसायपपाहुडे सु (पु)णो' इति पाठः। ५ अ-श्राप्रत्योः 'णिरंतरद्धाण' इति पाठः। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २७२. ] वेणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २४५ पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि होंति । होंताणि वि तसजीवमेत्ताणि द्वाणाणि तसजीवसहिदाणि वट्टमाणकाले होंति, एगेगुदयट्ठाणम्मि एगेगतसजीवे विदे जीवसहिदणाणं तसजीव मे ताणमुवलंभादो । एत्थ अणुभागबंधकवसाणट्ठाणेसु जीवसमुदाहारो रूविदो । तत्थ कसायपाहुडे कसा उदयड्डाणेसु । तदो दोण्णं' जीवसमुदाहाराणं एगमहिरणं णत्थि त्ति विरोहुन्भावणमजुत्तं । तम्हारे दोणं सुत्ताणं णत्थि विरोहोति सिद्धं | एवं णिरंतरट्ठाणजीवपमाणाणुगमो समत्तो । सांतरट्ठाणजीवपमाणागमेण जीवेहि विरहिदाणि द्वाणाणि एको वा दो वा तिणि वा उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ २७२ ॥ विरहिद मेमणुभागबंधट्ठाणं होदि । णिरंतरं दो वि होंति, तिणि वि होंति, एवं जाव उकस्सेण जीवविरहिदट्ठाणाणि णिरंतरमसंखेज्जलोग मेत्ताणि वि होंति, असंखेज्जलोगमेत अणुभागबंधट्ठाणेसु जदि वि लोगमेत्तट्ठाणाणि तसजीव सहगदाणि होंति तो वि जीवविरहिदडाणाणं णिरंतरमसंखेज्जलोगमेत्ताणं उवलंभादो | एवं सांतरहाणजीवपमाणागमो समत्तो । णाणाजीव कालप्रमाणागमेण एकेकम्हि द्वाणम्मि णाणा जीवा केवचिरं कालादो होंदि ? ॥ २७२ ॥ जीवांके बराबर स्थान त्रस जीवोंसे सहित वर्तमान कालमें होते हैं, क्योंकि, एक एक उदयस्थान में एक एक त्रस जीवको स्थापित करनेपर जीवों सहित स्थान त्रस जीवोंके बराबर पाये जाते हैं । यहाँ अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों में जीवसमुदाहार की प्ररूपणा की गई है, परन्तु वहाँ कषायपाहुड में कषायादयस्थानों में उसकी प्ररूपणा की गई है । अतः उन दोनों समुदाहारों का एक आधार न होने से विरोध बतलाना अनुचित है । इस कारण उन दोनों सूत्रोंमें कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध है । इस प्रकार निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम समाप्त हुआ । सान्तरस्थानजीव प्रमाणानुगमसे जीवोंसे रहित स्थान एक, अथवा दो, अथवा तीन, इस प्रकार उत्कृष्टसे असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं ।। २७१ जीवों से रहित एक अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होता है, निरन्तर दो भी होते हैं, और तीन भी होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्टसे जीव रहित स्थान निरन्तर असंख्यात लोक प्रमाण भी होते हैं. क्योंकि, असंख्यातलोक प्रमाण अनुभागबन्धस्थानों में यद्यपि लोक प्रमाण स्थान त्रस जीव सहित होते हैं तो भी जीव रहित स्थान निरन्तर असंख्यात लोक प्रमाण पाये जाते हैं । इस प्रकार सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम समाप्त हुआ । नानाजी कालप्रमाणानुगससे एक एक स्थानमें नाना जीवोंका कितना काल ॥ २७२ ॥ १ श्राप्रती 'तदोष्णं', ताप्रतौ 'तं दोष्णं' इति पाठः । २ - त्यो ' तं जहा', ताम्रतौ 'तं जहा ( तम्हा ) इति पाठः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] srisrगमे वेयणाखं [४, २, ७, २७३. एदं पुच्छासुतं समयावलिय-खणलव-मुहुत्त दिवस पक्ख-मास- उदु-अयण-संवच्छरमादि कारण जाव कप्पो त्ति एवं कालविसेसम वेक्खदे' । जहणेण एगसमओ ॥ २७३॥ कुदो ? एगस्स जीवस्स एगमणुभागबंध द्वाणमेगसमयं बंधिय विदियसमए वड्डिदूण अण्णमणुभागट्ठाणं बंधमाणस्स जहणणेण एगसमयकालुवलंभादो | उक्कस्सेण आवलिया असंखेज दिभागो ॥ २७४॥ एगो जीवो एकम्मिट्ठाणम्मि एगसमयमादि काढूण जावुकस्सेण श्रट्ट समयाति अच्छदि । जाब सो अण्णं द्वाणंतरं ण गच्छदि ताव अण्णेतु वि जीवेसु तत्थ आगच्छमाणेसु जीवेहि' अविरहिदं होतॄण जेण द्वाणमावलियाए असंखेज दिभागमेत्तकालं अच्छदि तेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो चेव एक्केकस्स ट्टणिस्स असुण्णकालो ति भणिदं । एवं णाणाजीवकालपमाणाणुगमो समत्तो । डिपरूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि - अनंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ २७५ ॥ परूवणा- पमाण भागाभागाणियोगद्दाराणि एत्थ किष्ण परुविदाणि ? ण ताब यह पृच्छासूत्र समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर से लेकर कल्पकाल पर्यन्त इस प्रकार कालविशेषकी अपेक्षा करता है । जघन्य काल एक समय है २७३ || कारण कि एक अनुभागबन्धस्थानको एक समय बाँधकर द्वितीय समय में वृद्धिको प्राप्त होकर अन्य अनुभागवन्धस्थानको बाँधनेवाले एक जीवका काल जघन्यसे एक समय पाया जाता है। उत्कृष्ट काल आवली के असंख्यातवें भाग है || २७४ ॥ एक जीव एक स्थानमें एक समयसे लेकर उत्कृष्टसे आठ समय तक रहता है । जब तक वह अन्य स्थानको नहीं प्राप्त करता है तब तक अन्य जीवोंके भी वहाँ आनेपर जीवोंके विरहसे रहित होकर चूँकि एक स्थान आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहता है, अतएव आवली असंख्यातवें भागमात्र ही एक एक स्थानका अविरहकाल होता है; यह सूत्रका अभिप्राय है । इस प्रकार नानाजीवकालप्रमाणानुगम समाप्त हुआ । वृद्धिप्ररूपणा इस अधिकारमें ये दो अनुयोगद्वार हैं— अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ।। २७५ ॥ शंका- यहाँ प्ररूपणा, प्रमाण और भागाभागानुगम अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? १ प्रतिषु ' - मुवेक्खदे' इति पाठः । २ प्रतौ 'जीवेसुहि' इति पाठः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २७६. ] वेयणमहाद्दियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २४७ परूवणा वुच्चदे, सेसाणियोगद्दारपरूवणण्णहाणुववत्तीदो चेव अणुभागट्ठाणेसु जीवाणमस्थित सिद्धीदो | ण पमाणाणियोगद्दारं पि वत्तव्यं, एयट्ठाणजीवपमाणाणुगमादो चेव तदवगमादो | ण भागाभागो, अप्पाबहुगादो चैव तदवगमादो | तेण अणंतरोवणिधा परंपरावणिधा चेदि दो चैव एत्थ अणियोगद्दाराणि । ण वड्डिणिबंधण संतादिपरूवणा' विजुज्ज, एहि दोहि अणियोगदा रेहिंतो चेव तदवगमादो । अणंतरोवणिधाए जहण्णए अणुभागबंधकवसाणहाणे थोवा जीवा ॥ २७६ ॥ दो ? अविसोही वट्टमाणजीवाणं पाएण संभवाभावादो । ते च आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चैव, एकेकडाणे एगसमएण सुट्टु जदि बहुवा जीवा होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेत्र होंति त्ति एयट्ठाणजीवपमाणानुगमाणियोगद्दारे परुविदत्तादों । हो वट्टमाणकालेण एगेगट्ठाणम्मि उक्कस्सेण जीवपमाणमावलियाए असंखेजदिभागो, एसा अतरोवणिधा च अदीदकालमस्सिदूण डिदा | कुदो णव्यदे ! सव्वाणुभागबंध ज्भवसाणहाणेसु एगसमयम्मि उक्कस्सेण संचिदएगट्ठाणजीवाणं बुद्धीए कय सहजोगाणं वड्डिपरूवणत्तादो । तदो एणे गट्ठाणम्मि अणतेहि जीवेहि होदव्यमिदि १ समाधान- प्ररूपणा के कहनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि, इसके बिना शेष अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणा चूँकि बनती नहीं है, अतः इसीसे अनुभागस्थानों में जीवोंका अस्तित्व सिद्ध है । प्रमाण नुयोगद्वार भी यहाँ कहने योग्य नहीं है, क्योंकि, एकस्थान जीवप्रमाणानुगमसे ही उसका परिज्ञान हो जाता है । भागाभागानुगम अनुयोगद्वार भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अल्पबहुत्व से ही उसका परिज्ञान हो जाता है । इसलिये यहाँ अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ये दो ही अनुयोगद्वार हैं । वृद्धिके कारणभूत सत् आदि अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा भी यहाँ योग्य नहीं है, क्योंकि, इन दो अनुयोगद्वारोंसे ही उनका अवगम हो जाता है। अनन्तरोपनिवासे जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव सब से स्तोक हैं ।। २७६ ॥ 1 कारण कि अतिशय विशुद्धिमें वर्तमान जीवोंकी प्रायः सम्भावना नहीं है । वे भी आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, क्योंकि, एक एक स्थानमें एक समय में यदि बहुत अधिक जीव होते हैं तो आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाणा ही होते हैं, ऐसा एकस्थानजीव प्रमाणानुगम अनुयोगद्वारमें कहा जा चुका है । शंका - वर्तमान कालमें एक एक स्थान में उत्कृष्टसे जीवांका प्रमाण आवली के असंख्यातवें भाग मात्र भले ही हो और यह अनन्तरोप निधा अतीत कालका आश्रय करके स्थित है । यह कहाँ से जाना जाता है ? वह सब अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंमें बुद्धिकृत सहयोग युक्त होते हुए एक समय में उत्कर्ष से संचित एक स्थानके जीवोंकी वृद्धि की जो प्ररूपणा की गई है, उससे जाना जाता है । इस कारण एक एक स्थानमें अनन्त जीव होने चाहिये ? १ प्रतौ 'संताहिपरूवणा-' इति पाठः । २ श्रान्ताप्रत्योः 'एगहाणाणं जीवाणं' इति पाठः । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, ७, २७७. ण एस दोसो, बहुएण वि कालेण वत्तिसरूवेणेव सत्तीणं वडि-हाणीए अभावादो। ण चोदंचणे समुद्दे वि पक्खित्ते बहुगं जलमस्थि त्ति सगप्पमाणादो वड्डिमं पाणियं माइ । एवमदीदे विःकाले वट्टमाणे इव एकेकम्हि अणुभागबंधट्ठाणे उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव जीवा होति त्ति । एगेगट्ठाणमहिटियसव्वजीवे वुद्धीए मेलाविय तेसिमणंताणमणंतरोवणिधा किण्ण वुच्चदे ? ण, एवं संते हेडिमचदुसमयपाओग्गहाणजीवेहिंतो जवमझादो उवरिमविसमयपाओग्गसव्वट्ठाणजीवाणमसंखेजगुणत्तप्पसंगादो । ण च एवं, विसययपाओग्गसव्वट्ठाणजीवा असंखेजगुणा त्ति उवरि भण्णमाणतादो । तदो एक्कक्कम्हि द्वाणम्मि जीवा आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव उकस्सेण होति त्ति घेत्तव्वं । विदिए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे जीवा विसेसाहिया ॥२७७॥ जहण्णट्ठाणादो असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि उवरि गंतूण जं द्वाणं द्विदं तं विदियमणुभागबंधझवसाणट्ठाणमिदि घेत्तव्यं । असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि उवरि चडिदूण द्विदट्ठाणस्स कधं विदियत्तं ? ण, वड्डिमस्तिदूण परूवणाए कीरमाणाए अण्णस्स विदिय समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बहुतकालमें भी व्यक्ति स्वरूपसे ही शक्तियोंकी हानि-वृद्धिका अभाव है । उदश्चनको समुद्र में भी (ऊँचे उठे हुए समुद्र में भी) फेकनेपर बहुत जल है इसलिए उसमें अपने प्रमाणसे अधिक पानी समा सकेगा ऐसा नहीं है। कारण कि उदश्चन (मिट्टीके पात्र विशेष ) को समुद्र में भी रखनेपर चूकि वहाँ बहुत जल भरा हुआ है, अतः उसमें उदश्चनमें अपने प्रमाणसे अधिक जल समा जावेगा; यह सम्भव नहीं है। इसी प्रकारसे अतीतकालमें वर्तमान कालके समान एक एक अनुभागस्थानमें उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही जीव होते हैं। शंका-एक एक स्थानको प्राप्त सब जीवोंको बुद्धिसे मिलाकर उन अनन्तानन्त जीवोंकी अनन्तरोपनिधा क्यों नहीं कही जाती है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर अधस्तन चार समय योग्य स्थानोंके जीवोंकी अपेक्षा यवमध्यसे ऊपरके दो समय योग्य सब स्थानोंके जीवोंके असंख्यातगुणे होनेका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, दो समय योग्य सब स्थानोंके जीव असंख्यातगुणे हैं, गे कहा जानेवाला है। इस कारण एक एक स्थानम जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उनसे द्वितीय अनुभागवन्धाध्यवसानास्थानमें जीव विशेष अधिक हैं ॥२७७॥ जघन्य स्थानसे आगे असंख्यातलोक मात्र स्थान जाकर जो स्थान स्थित है वह द्वितीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये: शंका-असंख्यातलोक प्रमाण स्थान आगे जाकर स्थित स्थान द्वितीय कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वृद्धिका आश्रय करके प्ररूपणाके करनेपर अन्य द्वितीय स्थान १ अ-आप्रत्योः ण चेदंचणे' इति पाठः । . . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २७८ ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २४६ सासंभवादो । ण च वड्डीए परूवमाणाए वड्डिविरहिदं द्वाणं विदियं होदि, अणवत्थापसंगादो | असंखेज लोगमेचट्ठाणाणि जीवाधारत्तणेण जहण्णट्ठाणेण समाणाणि त्ति कथं वदे १ ण, अण्णहा जवमज्झादो हेहा उवरिं च असंखेज्जलोग मेत्तद्गुणवड्डि- हाणिप्पसंगा । ण च एवं, जीव अणुभागबंधझवसाणदु गुणवड्ढिह । णिट्ठाणंतराणि वलिया असंखेजदिभागो त्ति उवरि परंपरोवणिधाए भण्णमाणत्तादो । किं चण निरंतरं सव्वाणे जीववड्डी होदि, जवमज्झम्मि आवलियाए असंखेज्जदिभागं मोत्तण असंखेज लोगमेत्तजीवप्पसंगादो । केत्तियमेत्तेण विसेसाहिया' ? एगजीवमेत्तेण । जहण्णजीवे विरलेदुण तेसु चेव विरलणरूवं पडि समखंडं काढूण दिण्णेसु तत्थ एगखंडमेल विसेसाहिया त्ति भणिदं होदि । तदिए अणुभागबंधज्भवसाणट्टाणे जीवा विसेसाहिया ॥ २७८ ॥ एत्थ विपुव्वं व अवद्विदमसंखेज लोग मे तद्धाणं गंतूण विदियो जीवो वड्डदि । हेडिमसव्वाणाणि जीवेहि जहण्णट्ठाणजीवेहिंतो एगजीवाहियड्डाणेण समाणाणि । कुदो ? साभावियादो । सम्भव नहीं है । वृद्धिकी प्ररूपणा करनेपर वृद्धिसे रहित स्थान दूसरा होता नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है । शंका- असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जीवाधार स्वरूपसे जघन्य स्थानके समान है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इसके विना यवमध्य से नीचे व ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण दु गुणवृद्धि हानिस्थानोंके होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, नानाजीवांसम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंके द्विगुणवृद्धि हानिस्थानान्तर आवलीके असंख्यातवें भाग हैं; ऐसा आगे परम्परोपनिधामें कहा जानेवाला है । दूसरे, सब स्थानों में निरन्तर जीववृद्धि होती हो, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, यवमध्य में आवलीके श्रसंख्यातवें भागको छोड़कर असंख्यात लोकमात्र जीवोंका प्रसंग आता है । शंका- कितने प्रमाणसे वे विशेष अधिक हैं ? समाधान - एक जीव मात्रसे वे विशेष अधिक हैं । जघन्य स्थानके जीवोंका विरलनकर उनको ही विरलन अंकके प्रति समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड मात्र से वे विशेष अधिक हैं, यह अभिप्राय है । उनसे तृतीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव विशेष अधिक हैं ।। २७८ ।। यहाँ पर भी पहिले के समान अवस्थित असंख्यात लोकमात्र अध्यान जाकर द्वितीय जीव बढ़ता है । अधस्तन सब स्थान जीवोंकी अपेक्षा जघन्य स्थानके जीवोंसे एक जीव अधिक स्थानके समान हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । १ - श्रापत्योः 'विसेसाहियाए', ताप्रती 'विसेसाहिया [ ए ]' इति पाठः । छ. १२-३२. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २७६. एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव जवमज्झं ॥ २७६ ॥ एदेण कमेण असंखेजलोगमेत्तद्धाणं गंतूण एगेगं जीवं वड्वाविय णेदव्वं जाव जवमझ ति । सव्वत्थ एगेगो चेव जीवो वड्ढदि त्ति कधं णव्वंदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियोवदेसादो । जेण गुणहाणिं पडि पक्खेवभागहारो दुगुणदुगुणक्कमेण जाव जवमझ ताब गच्छदि तेण पक्खेवो अवहिदो एगजीवमेत्तो चेव होदि त्ति आइरिया भणंति । एदमाइरियवयणं पमाणं कादण एगजीवो वड्डदि त्ति सद्दहेदव्य) - संपहि अणंतरोवणिधाए भावत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-जहण्णट्टाणजीवपमाणं विरलेदण तेसु चेव जीवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु एकेकस्स रूवस्स एगेगजीवपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगजीवं घेत्तण जहण्णए टाणे जीवा थोवा । विदिए जीवा तत्तिया चेव । एवमसंखेजलोगमेत्तट्ठाणेसु जीवा तत्तिया चेव होति । तदो उवरिमाणंतरट्ठाणे एगो जीवी पक्खिविदव्वो। पुणो वि असंखेजलोगमेत्तट्ठाणेसु जीवा तत्तिया चेव ! तदो विरलणाए विदियरूवधरिदजीवो तदणंतरउवरिमट्ठाणजीवेसु पक्खिविदव्यो । तदो एदस्स हाणस्स जीवेहि समाणाणि होदूण असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि गच्छति । तदो अणंतरउवरिमट्ठाणे तदियो जीवो वड्ढावेदव्वो। एवमणेण विहाणेण पुन्वुत्तद्धाणं धुवं कादूण एगेगजीवं वड्डाविय णेयव्वं जाव जहण्णट्ठाणजीवेहितो दुगुणजीवा ति । पढम इस प्रकार यवमध्य तक जीव विशेष अधिक विशेष अधिक हैं ॥ २७१ ॥ इस क्रमसे असंख्यातलोक मात्र अध्वान जाकर एक एक जीव बढ़ाकर यवमध्य तक ले जाना चाहिये। शंका-सर्वत्र एक एक ही जीव बढ़ता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह आचार्यके सूत्रविरोधसे रहित उपदेशसे जाना जाता है। चूंकि प्रत्येक गुणहानिमें यवमध्य तक प्रक्षेपभागहार दुगुणे दुगुणे क्रमसे जाता है, इसलिये प्रक्षेप अवस्थित होता हुआ एक जीव प्रमाण ही होता है; ऐसा आचार्य कहते हैं। प्राचार्यों के इस वचनको प्रमाण करके एक जीव बढ़ता है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिये। अब अनन्तरोपनिधाके भावार्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणका विरलनकर उन्हीं जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँ एक जीवको ग्रहणकर जघन्य स्थानमें जीव स्तोक हैं। द्वितीय स्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकार असंख्यातलोक मात्र स्थानोंमें जीव उतने मात्र हो होते हैं। उनसे आगेके अनन्तर स्थानमें एक जीवका प्रक्षेप करना चाहिये। फिर भी असंख्यात लोक मात्र स्थानोंमें जीव उतने मात्र ही होते हैं। तत्पश्चात विरलन राशिके द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक जीवका तदनन्तर आगेके स्थान सम्बन्धी जीवों में प्रक्षेप करना चाहिये। फिर इस स्थानके जीवोंसे समान होकर असंख्यातलोक मात्र स्थान जाते हैं। तत्पश्चात् अनन्तर आगेके स्थानमें तृतीय जीवको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार इस विधिसे पूर्वोक्त अध्वानको ध्रुव करके एक एक जीवको बढ़ाकर जघन्य स्थानके जीबोंसे दूने जीवोंके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २७६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया . [ २५१ दुगुणवड्डीए एगेगजीववड्डिदद्धाणं सरिसमिदि कधं णव्वदे ? गुरुवदेसादो। आइरियोवदेसो किण्ण चप्पलओ' १ गंगाणईए पवाहो म अविच्छेदेण आइरियपरंपराए आगदस्स अप्पमाणत्तविरोहादो।) पुणो पुन्विल्लभागहारादो दुगुणं भागहारं विरलिय दुगुणवड्डिजीवेसु समखंडं कोण दिण्णेसु रूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगजीवं घेत्तूण असंखेजलोगमेत्तेसु जोवेहि दुगुणवड्डिजीवसमाणेसु हाणेसु गदेसु तदो उवरिमठाणे पक्खित्ते तदित्थजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदुगुणवड्डीए' एगजीववड्डिदअद्धाणस्स अद्धं गंतूण विदियदुगुणवड्डीए एगो जीवो वड्ढदि । पुणो एत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण विदियो जीवो वड्ढदि । एवमणेण विहाणण णेयव्वं जाव विरलणमेत्तजीवा पइहा ति । ताधे चउग्गुणवड्डी होदि । विदियदुगुणवड्डिअद्धाणं पढमदुगुणवड्डिअद्धाणेण सरिसं । कुदो ? पढमदुगुणवड्डीए' एगजीववड्डिदद्धाणस्स दुभागमवद्विदं सरिसं गंतूण विदियदुगुणवड्डीए एगेगजीववड्डिसमुवलंभादो। पुणो चदुग्गुण-पढमदुगुणवड्डिभागहारं विरलेदृण चदुग्गुणवड्डिजीवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु रूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावदि । पुणो चदुग्गुणवड्डिजीवा आवलियाए शंका-प्रथम दुगुणवृद्धिमें एक एक जीवकी वृद्धिको प्राप्त अध्वान सदृश है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। शंका-आचार्यका उपदेश मिथ्या क्यों नहीं हो सकता है ? समाधान-गंगानदीके प्रवाहके समान विच्छेदसे रहित होकर आचायपरम्परासे आये हुए उपदेशके अप्रमाण होनेका विरोध है। ___पश्चात् पूर्व भागहारसे दुगुणे भागहारका विरलनकर दुगुणवृद्धियुक्त जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँ एक जीवको ग्रहण कर जीवोंसे अर्थात् जीवप्रमाणकी अपेक्षा दुगुणवृद्धि युक्त जीवोंके समान असंख्यातलोक मात्र स्थानोंके बीत जानेपर उससे भागेके स्थानमें उसे मिलानेपर वहाँ के जीवोंका प्रमाण होता है । विशेष इतना है कि प्रथम दुगुणवृद्धिमें गुणहानिमें एक जीवकी वृद्धि युक्त अध्वानका अर्ध भाग जाकर द्वितीय दुगुणवृद्धिमें एक जीव बढ़ता है। फिर इतना ही अध्वान जाकर द्वितीय जीव बढ़ता है। इस प्रकार इस विधिसे विरलन राशि प्रमाण जीवों के प्रविष्ठ होने तक ले जाना चाहिये । उस समय चतुगुणी वृद्धि होती है। द्वितीय दुगुणवृद्धिका अवान प्रथम दुगुणवृद्धिके अध्वानके सहश है, क्योंकि, प्रथम दुगुणवृद्धिमें एक जीवकी वृद्धि युक्त अध्वानका अर्ध भाग समानरूपसे अवस्थित जाकर द्वितीय दुगुणवृद्धिमें एक जीवकी वृद्धि पायी जाती है। - पुनः प्रथम दुगुणवृद्धिके भागहारसे चौगुणे भागहारका विरलन करके चौगुणी वृद्धि युक्त जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता १ प्रतिषु 'चप्फलो ' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'मेत्तेसु जीबेसु जीवेहि' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'समासेसु' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'पढमगुणहाणीए' इति पाठः । ५ तापतौ 'पढमगुणवड्डीए' इति पाठः।... Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २७६. असंखेअदिभागमेत्ता। तदणंतरउवरिमविदिए अणुभागबंधझवसाणट्ठाणे जीवा तत्तिया घेव । तदिए वि ठाणे तत्तिया चेव । एवमसंखेजलोगमेत्तचदुग्गुणवड्डिट्ठाणेसु गदेसु हेट्ठिमविरलणाए एगजीवं घेत्तूण तं तदित्थट्ठाणजीवेसु पक्खित्ते उवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदुगुणवड्डीए एगजीववड्डिअद्धाणस्स चदुब्भागे एत्थ एगेगो जीवो वड्ढदि । पुणो विदियचदुब्भागमेत्तद्धाणं जीवेहि अवट्ठिदं गंतूण विदियो जीवो अधियो होदि । तदियचदुब्भागमेत्तद्धाणं जीवेहि अवट्ठिदं गंतूण तदियो जीवो अधियो होदि । पुणो चउत्थचदुब्भागमेत्तद्धाणं जीवेहि अवद्विदं गंतूण चउत्थो जीवो अधियो होदि । एवमवद्विदं चउत्थभागद्धाणं गंतूण एगेगजीवो वड्ढावेदव्वो जाव विरलणमेत्ता जीवा पविट्ठा ति । ताधे अट्ठगुणवड्डिहाणं होदि । ____पुणो पढमदुगुणवड्डिभागहारअट्ठगुणं विरलिय अट्ठगुणवड्डिजीवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु रूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावदि । पुणो चउत्थदुगुणवड्डीए जहण्णट्ठाणे जीवा आवलियाए असंखेजदिभागो। विदिए ठाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं तत्तिया तत्तिया चेव जीवा होदण गच्छंति जाव असंखेजलोगमेत्तट्ठाणे त्ति । तदो हेडिम. विरलणाए एगजीवं घेत्तूण तदित्थट्टाणजीवेसु पक्खित्ते तदणंतरउवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदुगुणवड्डीए एगजीववड्डिअद्धाणादो एदिस्से दुगुण है। पुनः चौगुणी वृद्धियुक्त जीव आवालीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । तदनन्तर आगेके द्वितीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव उतने ही हैं । तृतीय स्थानमें भी उतने ही जीव हैं। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण चौगुणी वृद्धि युक्त स्थानोंके वीतनेपर अधस्तन विरलनके एक जीवको ग्रहण कर उसे वहाँ के स्थानोंके जीवों में मिलानेपर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि प्रथम दुगुण वृद्धि में एक जीववृद्धि युक्त अध्वानके चतुर्थ भागमें यहाँ एक जीव बढ़ता है । पुनः द्वितीय चतुर्थ भाग प्रमाण अध्वान जीवोंसे अवस्थित जाकर द्वितीय जीव अधिक होता है । तृतीय चतुर्थ भाग प्रमाण अध्वान जीवोंसे अवस्थित जाकर तृतीय जीव अधिक होता है। फिर चतुर्थ चतुर्थ भाग प्रमाण अध्वान जीवोंसे अवस्थित जाकर चतुर्थ जीव अधिक होता है। इस प्रकार अवस्थित चतुर्थे भाग प्रमाण अध्वान जाकर एक एक जीवको बढ़ाना चाहिये जब तक कि विरलन मात्र जीव प्रविष्ट होते हैं । तब अठगुणी वृद्धिका स्थान होता है। ___पश्चात् प्रथम दुगुणवृद्धिके भागहारसे अठगुने भागहारका विरलन कर अठगुणी वृद्धि युक्त जीवोंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः चतुर्थ दुगुणवृद्धिके जघन्य स्थानमें जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीय स्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकार उतने उतने ही जीव होकर असंख्यात लोक प्रमाण स्थानों तक जाते हैं। तत्पश्चात् अधस्तन विरलनके एक जीवको ग्रहण कर उसे वहाँ के स्थानके जीवों में मिलानेपर तदनन्तर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है। विशेष इतना है कि एक जीवकी वृद्धि युक्त अध्वानसे इस दुगुणवृद्धिका एक जीवकी वृद्धि युक्त अध्वान आठवें भाग प्रमाण होता Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २७९.] वयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २५३ वड्डीए एगजीववड्ढिडअद्वाणमट्टमभागो होदि । पुणो विदिय' अट्टमभागमेत्तद्धाणंगंतूण विदियो जीवो अधियो होदि । पुणो तदियअट्टमभागमेत्तद्भाणं गंतूण दियो जीव धियो होदि । चउत्थमट्टमभागं गंतूण चउत्थो जीवो अधिओ होदि । पंचमममभागं गंतूण पंचमो जीवो अधिओ होदि । छट्ठमट्टमभागं गंतूण छट्ठो जीवो अहिओ होदि । सत्तममट्टमभागं गंतूण सत्तमो जीवो अहिओ होदि । अहममहमभागं तू मो जीव अधिओ होदि । अणेण भागेण अट्टमभागं धुवं कादुण विरलणमेत्तजीवे परिवाडीए पविट्ठेसु सोलसगुणवड्डिड्डाणं होदि । एदं दुगुणवड्डिअद्धाणं पढमदुगुणवड्डाणेण समाणं, तत्थ एगजीववड्डिअद्वाणस्स अट्टमभागे एदिस्से गुणहाणीए एगजीववड्डिसणादी | 1 पुणो पढमद्गुणवडिअडाणं सोलसगुणं विरलेदूण सोलसगुणवड्डिजीवेसु समखंड काढूण दिसु एक्क्क्क्स्स रूवस्स एगेगजीवपमाणं पावदि । तदो पंचमद्गुणवड्डिपढमाभाग बंधवाणडाणजीवा आवलियाए असंखेजदिभागो । विदिए द्वाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं यव्वं जाव असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि त्ति । तदो हेड्डिमविरलणाए एगजीवं घेत्तण तदित्थद्वाणजीवेसु पक्खित्ते तदणंतरउवरिमाणजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदु गुणवड्डीए एगजीववड्ढिअद्वाणस्स सोलसभा एदिस्से गुणहाणीए एगो जीवो वहृदि चि घेत्तव्वं । पुणो विदियं सोलसभागं गंतूण विदियो जीवो हियो होदि । है । पश्चात् द्वितीय अष्टम भाग प्रमाण अध्वान जाकर द्वितीय जीव अधिक होता है । पुनः तृतीय अष्टमभाग प्रमाण अध्वान जाकर तृतीय जीव अधिक होता है । चतुर्थ अष्टम भाग जाकर चतुर्थ जीव अधिक होता है। पंचम अष्टम भाग जाकर पाँचवाँ जीव अधिक होता है । छठा अष्टम भाग जाकर छठा जीव अधिक होता है । सातवाँ अष्टम भाग जाकर सातवाँ जीव अधिक होता है। आठवाँ अष्टम भाग जाकर आठवाँ जीव अधिक होता है । इस भागले अष्टम भागको ध्रुव करके विरलन राशि प्रमाण जीवोंके परिपाटीसे प्रविष्ट होनेपर सोलहगुणी वृद्धिका स्थान होता है । यह गुणवृद्धिअध्वान प्रथम दुगुणवृद्धि अध्वानके समान है, क्योंकि, वहाँ एक जीववृद्धिअध्वानके आठवें भागमें इस गुणहानिमें एक जीवकी वृद्धि देखी जाती है पुनः प्रथम दुगुणवृद्धिके अध्वानको सोलहगुणा विरलन कर सोलहगुणी वृद्धि युक्त जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है । पश्चात् पांचवीं दुगुणवृद्धि के प्रथम अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानके जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । द्वितीय स्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र स्थानों तक ले जाना चाहिये । तत्पश्चात् अधरतन विरलन के एक जीवको ग्रहण कर उसे वहाँ के स्थानके जीवों में मिलानेपर तदनन्तर आगे स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि प्रथम दुगुणवृद्धि सम्बन्धी एक जीववृद्धि अध्वानके सोलहवें भाग में इस गुणहानिका एक जीव बढ़ता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । फिर द्वितीय सोलहवाँ भाग जाकर द्वितीय जीव अधिक होता है । इस प्रकार १ प्रतिषु 'पुणो विग्रह' इति पाठः । २ प्रतौ 'डाणाणि जीवा' इति पाठः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २७९. एवमेदं सोलसभागं धुवं कादण एगेगजीवं' वड्डाविय णेयव्वं जाव हेडिमविरलणमेत्तजीवा पविट्ठा त्ति । ताधे बत्तीसगुणवड्डी होदि । तदो एदं बीजपदेणाणणावहारिय उवरि यव्वं जाव दुरूवूणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेतदुगुणवड्डीयो उवरि चडिदाओ त्ति । पुणो पढमदुगुणवड्डिभागहारं जहण्णपरित्तासंखेन्जयस्स चदुब्भागेण गुणिय विरलेदूण एदाए दुगुणवड्डीए समखंडं कादण दिण्णाए एककस्स रूवस्स एगेगजीवपमाणं पावदि । तदो जवमज्झस्स हेहिमदुगुणवड्डिहाणे जीवा आवलियाए असंखेजदिभागो। विदिए अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणे जीवा तत्तिया चेव । तदिए अणुभागबंधझवसाणट्ठाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं णेयव्वं जाव पढमदुगुणवड्डीए एगजीवदुगुणवड्डिदद्धाणं जहण्णपरित्तासंखेजयस्स चदुब्भागेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तद्धाणमेदिस्से गुणहाणीए गदं ति । ताधे हेट्टिमविरलणाए एगरूवधरिदे जीवो पक्खिविदव्यो। पक्खित्ते उवरिमाणजीवपमाणं होदि । पुणो एदेणेव जीवपमाणेण अवहिदाणि होदूण पुव्विल्लद्धाणमेत्ताणि चेव ढाणाणि गच्छति । तदो हेटिमविरलणाए एगरूवधरिदेगजीवे तदित्थट्ठाणजीवेसु आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तजीवेसु पक्खित्ते उवरिमतदणंतरट्ठाणजोवपमाणं होदि । एवमवहिदमद्धाणं गंतूण एगेगजीवं वड्डिय णेयव्वं जाव हेट्टिमविरलणमेत्तसव्वे जीवा पविट्ठा ति । ताधे जवमज्झजीव माणं होदि । जहण्णट्ठाणजीवेसु जहण्णपरित्तासंखेज ........................... इस सोलहवें भागको ध्रुव करके अधस्तन विरलन राशि:प्रमाण जीवोंके प्रविष्ट होने तक एक एकजीवको बढ़ाकर ले जाना चाहिये । तब बत्तीसगुणी वृद्धि होती है । पश्चात् इस बीजपदसे इसका निश्चय कर दो अंकोंसे कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्द्धच्छेदों प्रमाण दुगुणवृद्धियाँ आगे जाने तक ले जाना चाहिये। पुनः प्रथम दुगुणवृद्धिके भागहारको जघन्य परीतासंख्यातके चतुर्थ भागसे गुणित करके विरलिन कर इस दुगुणवृद्धिको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। तब यवमध्यके अधस्तन दुगुणवृद्धिस्थानमें जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । द्वितीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव उतने ही हैं । तृतीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव उतने ही है। इस प्रकारसे प्रथम दुगुणवृद्धिमें एकजीवदुगुणवृद्धि युक्त अध्धानको जघन्य परीतासंख्यातके चतुर्थ भागसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण अध्वान इस गुणहानिका जाने तक ले जाना चाहिये। तब अधस्तन विरलन राशिके एक जीवका प्रक्षेप करना चाहिये । उसका प्रक्षेप करनेपर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। पश्चात् इसी जीवप्रमाणसे अवस्थित होकर पूर्वोक्त अध्वान प्रमाण ही स्थान व्यतीत होते हैं। तब अधस्तन विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको वहाँ के स्थानके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवों में मिलानेपर आगके तदनन्तर स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। इस प्रकारसे अवस्थित अध्वान जाकर एक एक जीवको बढ़ाकर अधस्तन विरलनराशि प्रमाण सब जीवोंके प्रविष्ट होनेतक ले जाना चाहिये । तब यवमध्यके जीवोंका प्रमाण होता है। जघन्य स्थानके जीवोंको जघन्य परीतासंख्यातके अर्ध भागसे गुणित करनेपर १ अ-श्राप्रत्योः 'कादूण ण एगेग' इति पाठः। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २८१.] बेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२५५ यस्स दुभागेण गुणिदेसु जवमझजीवा होति । जवमज्झादो हेडिमदुगुणहाणीओ जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धछेदणयमेत्ताओ होति त्ति वुत्तं होदि । जवमझादो हेट्ठिमदुगुणवड्डीयो जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धछेदणयमेत्तीयो ति कधं णव्वदे ? जुत्तीदो। का सा जुत्ती ? उवरि भणिस्सामो । तेण परं विसेसहीणा॥२८०॥ तेण जवमझेण परमुवरि जीवा विसेसहीणा होदण गच्छंति । कुदो ? साभावियादो तिव्वसंकिलेसेण जीवाणं पाएण संभवाभावादो वा। __ एवं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव उकस्सअणुभागबंधज्झवसाणहाणे त्ति ॥ २८१ ॥ एवं विसेसहीणा विसेसहीणा त्ति 'विच्छाणिदेसो । तेण जवमझादो उवरि सव्वट्ठाणाणि अणंतरोवणिधाए जीवेहि विसेसहीणाणि त्ति दडव्वं । एदस्स भावत्थो वुच्चदे । तं जहा-पढमदुगुणवड्डिभागहारं जहण्णपरित्तासंखेजयस्स दुभागेण गुणिय विरलेदूण जवमझजीवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु एकेकस्स रूवस्स एगेगजीवपमाणं पावदि । यवमध्यके जीव होते हैं। अभिप्राय यह है कि यवमध्यसे नीचेकी दुगुणहानियाँ जघन्य परीता. संख्यातके एक कम अर्घच्छेदोंके बराबर होती हैं। शंका- यवमध्मसे नीचेकी दुगुणवृद्धियाँ जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंके बराबर हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। समाधान-वह युक्तिसे जाना जाता है । शंका-वह युक्ति कौनसी है ? समाधान-उस युक्तिको आगे कहेंगे । इसके आगे जीव विशेष हीन हैं ।। २८० ॥ उससे अर्थात् ययमध्यसे आगे जीव विशेष हीन होकर जाते है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है, अथवा तीव्र संक्लेशसे युक्त जीवोंकी प्रायः सम्भावना नहीं है। इस प्रकार उत्कुष्ट अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान तक जीव विशेषहीन विशेषहीन होकर जाते हैं ।। २८१॥ इस प्रकार विशेषहीन विशेषहीन, यह वीप्सा निर्देश है। इसलिये यवमध्यसे आगे सब स्थान अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जीवोंसे विशेष हीन हैं, ऐसा समझना चाहिये । इसका भावार्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-प्रथम दुगुणवृद्धिके भागहारको जघन्य परीतासंख्यातके अर्धभागसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसका विरलन करके यवमध्यके जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। इसलिये इसको इसी प्रकारसे स्थापित १ अ-आप्रत्योः 'मिछा', ताप्रतौ 'भि (इ) च्छा' इति पाठः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २८१. तदो एदमेवं चेव हविय परूवणा कीरदे । तं जहा-जवमझजीवा आवलियाए असंअदिभागा। विदियहाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं तत्तिया तत्तिया चेव होदूण ताव गच्छति जाव पढमदुगुणवड्डिअद्धाणम्मि एगजीवपविठ्ठट्ठाणं' जहण्णपरित्तासंखेजयस्स चदुब्भागेण खंडिदएगखंडमेत्तद्धाणं गदं ति । ताधे हेहिमविरलणाए एगरूवधरिदं घेत्तण तदित्थट्ठाणजीवेसु अवणिदे तदुवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि। पुणो विदियखंडमेत्ताणि हाणाणि जीवेहि सरिसाणि होदृण गच्छंति तदो हेडिमविरलणाए विदियरूवधरिदएगजीवं घेत्तण तदित्यहाणजीवेसु अवणिदे तदणंतरउवरिमहाणजीवपमाणं होदि । पुणो तेण हाणेण जीवेहि सरिसाणि तदियखंडमेत्ताणि हाणाणि गंतूण तदियो जीवो परिहायदि । एवमेगेगखंडमेत्तद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणिं करिय णेयव्वं जाव हेट्टिमविरलणाए अद्धमेत्तजीवा परिहीणा त्ति । तदित्थट्ठाणाणं जीवा जवमज्झजीवे हिंतो दुगुणहीणा, हेट्टिमविरलण मेत्तजीवेसु समुदिदेसु जवमझजीवुप्पत्तीदो। पुणो दुगुणहाणीए जीवा आवलियाए असंखेजदिभागो। विदिए अणुभागट्ठाणे जीवा नत्तिया चेव । तदिए अणुभागहाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं तत्तिया तत्तिया चेव जीवा होदण ताव गच्छंति जाव जवमझगुणहाणिम्हि एगजीवपरिहीणट्ठाणादो दुगुणमेत्तद्धाणं करके प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-यवमध्यके जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीयस्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकारसे उतने उतने ही होकर प्रथम दुगुणवृद्धिके अध्वानमें से एक जीव प्रविष्ट स्थान | अध्वान ] को जघन्य परीतासंख्यातके चतुर्थ भागसे खण्डित करने ड प्रमाण अध्वानके वीतने तक जाते हैं। तब अधस्तन विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करके उसे वहांके स्थानके जीवोंमेंसे कम करने पर उससे आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। पश्चात् द्वितीय खण्ड प्रमाण स्थान जीवोंसे ( जीवप्रमाणप्ते ) सदृश होकर जाते हैं। फिर अधस्तन विरलनके द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको ग्रहण कर उसे वहांके स्थानसम्बन्धी जीवोंमेंसे कम करनेपर तदनन्तर अग्रिम स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। पश्चात् जीवोंकी अपेक्षा उस स्थानके सहश तृतीय खण्ड प्रमाण स्थानोंके वीतनेपर तृतीय जीवकी हानि होती है। इस प्रकारसे एक एक खण्ड प्रमाण अध्यान जाकर एक एक जीवकी हानिको करके अधस्तन विरलनके आधे मात्र जीवोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। वहांके स्थानोंसम्बन्धी जीव यवमध्यके जीवोंकी अपेक्षा दुगुणे हीन होते हैं, क्योंकि, अधस्तन विरलन प्रमाण जीवोंके समुदित होनेपर यवमध्य जीव उत्पन्न होते हैं। पुनः दुगुणहानिके जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। द्वितीय अनुभागस्थानमें जीव उतने ही होते हैं। तृतीय अनुभागस्थानमें जीव उतने ही होते हैं। इस प्रकार उतने उतने ही होकर यवमध्य गुणहानिमेंसे एक जीवकी हानि युक्त स्थानसे दूना मात्र अध्वान वीतने तक जाते हैं । तब अधरतन विरलन राशिके अर्धे भाग १ अप्रतौ 'पविठ्ठाण' इति पाटः । २ अप्रत्योः 'तदित्थट्टाणाणि' इति पाटः। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २८१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २५७ गदं ति । ताधे हेटिमविरलणाए अद्धमेत्तरूबाणमेगरूवधरिदेगजीवं घेत्तण तदित्यहाणजीवेसु अवणिदे तदणंतरउपरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि ।। किमहंजवमझादो उवरिमगुणहाणीसु गुणहाणिं पडि दुगुण-दुगुणमद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणी कीरदे ? जवमझहेट्ठिमगुणहाणीणं च उवरिमगुणहाणीणं पि सरिसत्तपदुप्पायणटुं। पुणो एत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण विदियजीवो परिहायदि । एवमेदमद्धाणं धुवं कादण एगजीवपरिहाणिं करिय ताव णेयव्वं जाव हेटिमविरलणाए चदुब्भागमेत्तजीवा परिहीणा त्ति । ताधे तदित्थट्ठाणजीवा जवमझजीवाणं चदुब्भागमेत्ता। ते च आवलियाए असंखेजदिभागो। तदुवरिमाणे जीवा तत्तिया चेव । तदियट्ठाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं सरिसा होदूण ताव गच्छंति जाव विदियगुणहाणीए एगरूवपरिहाणिट्ठाणादो दुगुणमद्धाणं गदं ति । ताधे हेहिमविरलणाए चदुब्भागमेत्तरूवाणमेगरूवधरिदेगजीवं घेत्तण तदित्थट्ठाणजीवेसु अवणिदे' उवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि । तत्थ जीवा आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तदो अवविदसरूवेण पुबिल्ल मद्धाणं गंतूण विदियजीवो परिहायदि । एवमवट्ठिदमद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणिं करिय ताव णेदव्वं जाव हेट्टिमविरलणाए अट्ठमभा प्रमाण अंकोंमेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको ग्रहण करके उसे वहांके स्थानसम्बन्धी जीवोंमेंसे कम कर देनेपर तदनन्तर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। शंका-यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानियोंमेंसे प्रत्येक गुणहानिमें दूना दूना अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि किसलिये की जाती है ? समाधान-यवमध्यसे नीचेकी गुणहानियों और ऊपरकी गुणहानियोंकी भी सहशता बतलानेके लिये एक एक जीवकी हानि की जाती है। फिर इतना ही अध्वान जाकर द्वितीय जीवकी हानि होती है। इस प्रकारसे इस अध्वानको ध्रुव करके एक जीवकी हानि कर अधस्तन विरलन राशिके चतुर्थ भाग प्रमाण जीवोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। उस समय वहांके स्थान सम्बन्धी जीव यवमध्य जीवोंके चतर्थ भाग प्रमाण होते हैं और वे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। उससे ऊपरके स्थानमें जीव उतने ही होते हैं । तृतीय स्थानमें जीव उतने ही होते हैं । इस प्रकार सदृश होकर वे तब तक जाते हैं जब तक कि द्वितीय गुणहानिके एक अंककी हानि युक्त स्थानसे दूना अध्वान नहीं बीत जाता। तब अधस्तन विरलनके चतुर्थ भाग प्रमाण अंकों में से एक अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको प्रहण कर उसे वहां के स्थान सम्बन्धी जीवोंमेंसे कम करनेपर अग्रिम स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। वहाँ जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। पश्चात् अवस्थित स्वरूपसे पूर्वोक्त अध्वान जाकर दूसरे जीवकी हानि होती है। इस प्रकारसे अवस्थित अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि करके अधस्तन विरलनके आठवें भाग १ मप्रतौ 'अवणि देसु' इति पाठः । छ. १२-३३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २८१. गमेत्तजीवा परिहीणा त्ति। ताधे तदित्थट्ठाणजीवाणं पमाणं जवमझस्स अट्ठमभागो। ते च आवलियाए असंखेजदिभागो । एवं णेयव्वं जाव जहण्णाणुभागबंधट्ठाणजीवेहिंतो दुगुणमेत्ता जीवा जादा त्ति । णवरि जवमझगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाणादो' विदियगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाणं दुगुणं', [होदि । ] तदियगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाणं चदुग्गुणं होदि। चउत्थगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाण मट्ठगुणं होदि । पंचमगुणहाणीए एगजीवपरिहीणद्धाणं सोलसगुणं होदि । एवं दुगुण-दुगुणकमेण सव्वत्थ णेयव्यं । पुणो अप्पिदगुणहाणीए वि समयाविरोहेण रूवाणं परिहाणीए कदाए जहण्णहा. जीवेहि सरिसा होति । पुणो पढमदुगुणवड्डीए एगरूवपरिहीणद्धाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण एगजीवपरिहीणद्धाणं दुगुणं होदि । पुणो एत्तियमेत्तमवहिदं गंतूण एगजीवपरिहाणि कादूण ताव णेयव्वं जाव जहण्णहाणजीवेहितो अद्धमेत्ता जादा त्ति । पुणो पढमदुगुणवड्डीए एगजीवपरिहीणद्धाणादो' चदुग्गुणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणिं कादूण ताव णेयव्वं जाव जहण्णट्ठाणजीवाणं चदुब्भागो हिदो त्ति । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव उक्कस्सट्ठाणजीवा त्ति । णवरि हेटिभ-हेहिमगुणहाणीसु एगेगरूवपरिहीणट्ठाणादो अणंतर प्रमाण जीवोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। तब वहांके स्थान सम्बन्धी जीवोंका प्रमाण यवमध्यके आठवें भाग होता है। वे भी आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। इस प्रकार जघन्य अनुभागबन्धस्थान सम्बन्धी जीवोंकी अपेक्षा दुनेमात्र जीवोंके होने तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि यवमध्यगुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वानकी अपेक्षा द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान दुगुना है । तृतीय गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान चौगुना है। चतुर्थ गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान अठगुना है। पंचम गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान सोलहगुना है। इस प्रकार सर्वत्र दूने दूने क्रमसे ले जाना चाहिये। पश्चात् विवक्षित गुणहानिर्म भी समयानुसार अंकोंकी हानिके करनेपर जघन्य स्थान के जीवोंके सदृश होते हैं। फिर प्रथम दुगुणवृद्धि में एक अंककी हानियुक्त अध्वानसे दूना अध्वान जाकर एक जीवकी हानि युक्त अध्वान दूना होता है। फिर इतना मात्र अध्वान अवस्थित जाकर एकजीवकी हानि करके उनके जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवों की अपेक्षा अर्ध भाग प्रमाण होने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्चात प्रथम दुगुणवृद्धिमें एक जीवकी हानियुक्त अध्वानसे चौगुणा अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि करके तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंका चतुर्थ भाग रहता है। इस प्रकार जानकर उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। विशेष इतना है कि अधस्तन अधस्तन गुणहानियों में एक एक अंककी हानि युक्त अध्वानसे अनन्तर १ अ-अाप्रत्योः 'पडिहीणद्धाणादो' इति पाठः। २ मप्रतौ 'चदुगुणं' इति पाठः। ३ अ-ताप्रत्योः 'हीणहाणं-' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'हीणहाणादो' इति पाठः । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २८१] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२५९ उवरिमगुणहाणीसु एगेगजीवपरिहीणद्धाणं' दुगुणं दुगुणं होदि । एवमद्धद्धेण जीवेसु गच्छमाणेसु उक्कस्सए हाणे जीवा संखेजा किण्ण होति त्ति भणिदे—ण, जहण्णट्ठाणप्पहुडि जावुक्कस्सट्टाणे त्ति जीवा सव्वट्ठाणेसु उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव होति त्ति सुत्तसिद्धत्तादो। जवमज्झादो हेद्विमगुणहाणीओ संखेजाओ, उवरिमाओ हेडिमगुणहाणिसलागाहिंतो असंखेजगुणाओ होदण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होति त्ति । एदस्स जुत्ती वुच्चदे । तं जहा–जाव जहण्णट्ठाणजीवपमाणं चेहदि ताव जवमझजीवाणमद्धछेदणए कदे तत्थुप्पण्णसलागाओ जवमझादो हेट्ठिमगुणहाणिसलागपमाणं होदि । पुणो जाव उक्कस्सहाणजीवपमाणं पावदि ताव जवमझजीवाणमद्धछेदणए कदे तत्थुप्पपणछेदणयमेतं जवमझादो उवरिमगुणहाणिसलागपमाणं जेण होदि तेण ताव जवमझजीवपमाणाणुगमं कस्सामो-जहण्णपरित्तासंखेज्जयं विरलेदूण एकेकस्स रूवस्स 'जहण्णपरित्तासंखेज्जयं दादण अण्णोण्णब्भासे कदे आवलिया उप्पज्जदि । ण च आवलियमेत्ता जवमझजीवा होति, सव्वट्ठाणेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव जीवा होंति ति सुत्तवयणेण सह विरोहादो। तेण जहण्णपरित्तासंखेज्जेण ऊपरकी गुणहानियों में एक एक जीवकी हानि युक्त अध्वान दूना दूना होता है। शंका-इस प्रकार अर्ध अर्ध भाग स्वरूपसे जीवोंके जाने पर उत्कृष्ट स्थानमें जीव संख्यात क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-ऐसी आशंका करने पर उत्तरमें कहते हैं कि वे वहाँ संख्यान नहीं होते हैं, क्योंकि, जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक सब स्थानों में जीव उत्कृष्टसे अवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, ऐसा सूत्रसे सिद्ध है। यवमध्यसे नीचेकी गुणहानियाँ संख्यात हैं। ऊपरकी गुणहानियाँ अधस्तन गुणहानिशलाकाओंसे असंख्यातगुणी होकर आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं। इसकी युक्ति कहते हैं । वह इस प्रकार है-जब तक जघन्य स्थानके जीवोंका प्रमाण रहता है तब तक यवमध्य जीवोंके अर्धच्छेद करनेपर वहाँ उत्पन्न हुई शलाकायें यवमध्यसे नीचेकी गुणहानिशलाकाओंके बराबर होती हैं। पश्चात् जब तक उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है तब तक यवमध्यजीवोंके अर्धच्छेद करनेपर उनमें उत्पन्न अर्धच्छेदोंके बराबर चूंकि यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानिशलाकाओंका प्रमाण होता है, अतएव पहिले यवमध्य जीवोंका प्रमाणानुगम करते हैं-जघन्य परीतासंख्यातका विरलन करके एक एक अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यातको देकर परस्पर गुणित करनेपर आवली उत्पन्न होती है। परन्तु आवली प्रमाण यवमध्य जीव हैं नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'सब स्थानोंमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही जीव होते हैं। इस सूत्रवचनके साथ विरोध होता है। इसलिये जघन्य परीतासंख्यातका प्रावली में भाग देने पर जो भाग लब्ध हो १ अप्रतौ 'हीणहाणं इति पाठः। २ अप्रतौ 'चिदि' इति पाठः। ३ भाप्रतौ ' छेदणयजवमझादों .. इति पाठः । ४ ताप्रती 'विरलेदूण एक्ककस्स रूवस्स [ जहण्णपरित्तासंखेजयं विरलेदूण ] जहण्ण' इति पाठः। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २८१. आवलियाए भागे हिदाए जं भागलद्धं 'तमुक्कस्सजवमज्झजीवपमाणं होदि, एत्तो अहियस्स आवलियाए असंखेजदिमागस्स अणुवलंमादो। उकस्ससंखेजं विरलेदूण एकेकस्स रूवस्स जहण्णपरित्तासंखेजयं दादण अण्णोण्णमासे कदे जवमझजीवा होति त्ति वुत्तं होदि । पुणो एदस्स आवलियाए असंखेजदिभागस्स जनिया अद्धछेदणयसलागा तत्तियमेत्ता जवमझस्स अद्ध छेदणया त्ति घेत्तव्वं । होता वि जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धछेदणएहि गुणिदुकस्ससंखेजमेत्ता । एवमुक्कस्सेण जयमझपरूवणं कदं । संपहि जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणयमेत्ताओ जवमझादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ होति त्ति ण वोत्त सकिञ्जदे, जवमझादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तं फिट्टिदूण संखेजगुणत्तप्पसंगादो। तं जहा-उकस्सट्ठाणजीवा जदि सुट्ट थोवा होति तो जहण्णपरित्तासंखेजमेत्ता चेव होंति, एदम्हादो ऊणावलियाए' असंखेजदिभागे घेप्पमाणे उक्कस्सट्ठाणजीवाणं संखेजत्तप्पसंगादो। ण च एवं, सव्वेसु हाणेसु असंखेजजीवन्भुवगमादो । तेण उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ रूवूणुक्कस्ससंखेजेण गुणिदजहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणयमेत्ताओ होति । एवं संते हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहि उपरिमणाणागुणहाणिसलागासु ओवट्टि दासु संखेजाणि रूवाणि आगच्छंति ति हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलावह उत्कृष्ट यवमध्य जीवोंका प्रमाण होता है, क्योंकि, इससे अधिक श्रावलीका असंख्यातवाँ भाग पाया नहीं जाता। उत्कृष्ठ संख्यातका विरलन करके एक एक अंकके प्रति जघन्य परोतासंख्यातको देकर परस्पर गुणित करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उतने यवमध्य जीव हो यह उसका अभिप्राय है। पुनः इस आवलीके असंख्यातवें भागकी जितनी अर्धच्छेदशलाकायें हों उतने मात्र यवमध्यके अर्धच्छेद होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उतने होकर भी वे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे गुणित उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्टसे यवमध्यकी प्ररूपणा की गई है। __ अब जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर यवमध्यसे नीचेकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं, ऐसा कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर यवम यसे नीचे की नानागुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा जो ऊपरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं, उनका वह असंख्यातगुणत्व नष्ट होकर संख्यातगुणत्वका प्रसङ्ग आता है। यथा- उस्कृष्ट स्थानके जीव यदि बहुत ही स्तोक हों तो वे जघन्य परीतासंख्तातके बराबर ही होते हैं, क्योंकि, इससे कम आवलीके असंख्यातवें भागको ग्रहण करनेपर उत्कृष्ट स्थान सम्बन्धी जीवोंके संख्यात होनेका प्रसङ्ग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, सब स्थानोंमें असंख्यात जीव स्वीकार किये गये हैं। इस कारण ऊपरकी नानागुणहानिशलाकायें एक कम उत्कृष्ट संख्यातसे गुणित जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर होती हैं। ऐसा होनेपर चूंकि अधस्तन नानागुणहानिशला. काओंसे उपरिम नानागुणहानिशलाकाओं को अपवर्तित करनेपर संख्यात अंक आते हैं, अतएव १ श्र-आप्रत्योः एदम्हादो श्रो श्रावलियाए' इति पाठः । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २८१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२६१ गाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ संखेजगुणा [ओ होति । ण च एवं, जवमझहेद्विमगुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमसव्वगुणहाणिसलागाओ असंखेजगुणाओ त्ति उवरि जवमज्झपरूवणाए भण्णमाणत्तादो। तदो जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणय. मेत्ताओ जवमझहेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ ण होति त्ति परिच्छिञ्जदे । तम्हा रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्ताओ हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ त्ति घेत्तव्वं, एवं गहिदे 'हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमगुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तु ववत्तीदो। संपहि रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तासु हेडिमगुणहाणिसलागासु संतासु जहा उवरिमगुणहाणिसलागाणमसंखेञ्जगुणत्तं होदि तहा परूवणं कस्सामो। तं जहाउक्कस्ससंखेजं विरलिय स्वं पडि जहण्णपरित्तासंखेजछेदणएसु दिण्णेसु जो एदेसि सव्वेसिं समासो सो जवमझजीवद्धछेदणयपमाणं । पुणो एत्थ एगेगरूवधरिदम्हि एगेगरूवे गहिदे उक्कस्ससंखेजमेत्तरूवाणि होति । पुणो ताणि पडिरासिय एगरूवधरिदेण रूवणजहण्णपरित्तासंखेजद्धच्छेदणयमेत्तण पडिरासिदउक्कस्ससंखेजमोवट्टिय लद्धं पुचिल्लमागहारादो संखेजगुणहीणं उक्स्ससंखेजमेत्तपुचिल्लविरलणाए पासे विरलिय पडिरासिद उक्कस्ससंखेजं समखंडं कादूण दिण्णे रूवं पडि जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धछेदणयपमाणं अधस्तन नानागुणहानिशलाकाओंसे उपरिम नानागुणहानिशलाकायें संख्यातगुणी होनी चाहिये। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, यवमध्यकी अधस्तन गुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा उपरिम सब गुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं, ऐसा अगे यवम यप्ररूपणामें कहा जानेवाला है। इसलिये यवमध्यकी अधस्तन गुणहानिशलाकायें जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर नहीं होती हैं, यह जाना जाता है। इस कारण एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अधच्छेदोंके बराबर अधस्तन गुणहानिशलाकायें होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा ग्रहण करनेपर अधस्तन नानागणहानिशलाओंकी अपेक्षा उपरिम गुणहानिशलाकाओंका असंख्यातगुणत्व बन जाता है। अब एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदों के बराबर अधस्तन गुणहानिशलाकाओंके होनेपर जिस प्रकारसे उपरिम गुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी होती हैं वैसी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट संख्यातका विरलन करके प्रत्येक अंकके प्रति जघन्य परीत संख्यातके अर्धच्छेदोंको देनेपर जो इन सबका जोड़ हो वह यवमध्य जीवोंके अर्धच्छेदोंका प्रमाण होता है । फिर यहाँ एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशिमेंसे एक एक अंकको ग्रहण करनेपर उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण अंक होते हैं। फिर उनको प्रतिराशि करके एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर एक अंकके प्रति प्राप्त राशिसे प्रतिराशि रूप उत्कृष्ट संख्यातको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो वह पूर्व भागहारकी अपेक्षा संख्यातगुणा हीन होता है । इसको उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण पूर्व विरलन राशिके पासमें विरलित करके प्रतिराशिभूत उत्कृष्ट संख्यातको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक १ ताप्रतौ 'गहिदेहि हेहिम' इति पाठः । २ प्रतिषु 'अद्धं' इति पाठः । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, २८१. पावदि, गहिदगहणादो । तत्थ एगरूवधरिदमैत्ताओ जवमझादो हेडिमगुणहाणिसलागाओ त्ति घेत्तव्यं । एदासिं सलागाणं विरलिय विगुणिदाणं अण्णोण्णब्भत्थरासिपमाणं जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्ध मेत्तं होदि । एदेण जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धण गुणगारगुणिजमाणसरूवेण अवट्ठिदेसु उवरिमविरलणमेत्तेसु जवमझजीवेसु ओवट्टिदेसु गुणगार-भागहारे सरिसे अवणिय रूवूणुवरिमविरलणमेत्तेसु जहण्णपरित्तासंखेज्जयम्स अद्धसु अण्णोण्णभत्थेसु संतेसु जहण्णट्ठाणजीवपमाणं होदि । जहण्णपरित्तासंखेञ्जवग्गचदुब्भागमेत्ता उक्कस्सट्ठाणजीवा जदि होति तो जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणय. सलामाओ रूवूणाम्रो दुरूवूणुवरिमविरलणाए गुणिदाओ जवमझादो उवरिमगुणहाणि. सलागपमाणं होदि। उवरिमविरलणा च असंखेजा, जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धबेदणएहि उक्कस्ससंखेजे भागे हिदे तत्थ एगभागेण अब्भहियउक्कस्ससंखेजपमाणत्तादो । तेण हेट्ठिमगुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमगुणहाणिसलागाओ असंखेजगुणा त्ति सिद्धं । ण च जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूबूणद्धछेदणयमेत्ताओ चेव जवमझादो हेट्ठिमगुणहाणिसलागाओ होंति त्ति णियमो अस्थि । किं तु एत्तियमेत्तासु हेहिमगुणहाणिसलागासु गहिदासु सुत्तविरोहो' णत्थि त्ति परूविदं । जहण्णपरित्तासंखेजयस्स रूवूणद्धछेदणय अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है, यहाँ गृहीतका ग्रहण है। उनमें एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशिप्रमाण यवमध्यसे नीचेकी गुणहानि शलाकायें होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इन शलाकाओंका विरलन करके दूना कर परस्पर गुणित करनेपर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह जघन्य परीतासंख्यातके अध भाग मात्र होता है। इस जघन्य परीतासंख्यातके अर्धे भागके द्वारा गुणकार गुण्य स्वरूपसे अवस्थित उपरिम विरलन प्रमाण यवमध्य जीवोंको अपवर्तित करने पर समान गुणकारों और भागहारोंका अपनयन कर एक कम उपरिम विरलन प्रमाण जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंको परस्पर गुणित करनेपर जघन्य स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । जघन्य परीतासंख्यातके वर्गके चतुर्थ भाग प्रमाण यदि उत्कृष्ट स्थानके जीव होते हैं तो जघन्य परीतासंख्यातकी एक कम अर्धच्छेदशलाकायें दो अंकोंसे हीन ऊपरकी विरलन राशिसे गुणित होकर यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानिशलाकाओंका प्रमाण होता है। उपरिम विरलन राशि भी असंख्यात हैं, क्योंकि, वे जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंका उत्कृष्ट संख्यातमें भाग देनेपर उसमें एक भागसे अधिक उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण होती हैं। इसीलिये अधस्तन गुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा उपरिम गुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं, यह सिद्ध होता है। यवमध्यसे नीचेकी गुणहानिशलाकायें जघन्य परीतासंख्यातके एक कम अर्धच्छेदोंके बराबर ही होती हैं, ऐसा नियम भी नहीं है। किन्तु अधस्तन गुणहानिशलाओंको इतनी मात्र ग्रहण करनेपर सूत्रविरोध नहीं है, ऐसी प्ररूपणा की गई है। जघन्य परीतासंख्यातके एक कम १ अ-आप्रत्योः 'सुत्तविरोहा' इति पाठः। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २८२] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २६३ प्पहुडि दुरूवूण-तिरूवूणादिकमेण ओवट्टिदाविय जवमझहेडिमगुणहाणिसलागाणं पमाणे परूविदे वि ण सुत्तविरोहो होदि ति वुत्तं होदि । हेडिमगुणहाणिसलागाओ एत्तियाओ चेव होति त्ति किण्ण बुच्चदे ? ण, तहाविहसुत्तवएसाभावादो' । ण च उकस्मट्ठाणजीवा जहण्णपरित्तासंखेज्जवरिमवग्गस्स चदुव्भागमेत्ता चेव होति ति णियमो अत्थि; ति-चत्तारिपंचादिजहण्णपरित्तासंखेजद्धाणमण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तेसु उक्कस्सट्ठाणजीवेसु गहिदेसु वि सुत्तविरोहाभावादो । एवमणंतरोवणिधा समत्ता। परंपरोवणिधाए अणुभागबंधज्झवसाणहाणजीवहिंतो तत्तो असंखेजुलोगं गंतूण दुगुणवहिदा ॥२८२॥ कुदो ? असंखेजलोगमेत्तअणुभागबंधज्झवसाणहाणेसु जीवा जहण्णाणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणजीवेहि सरिसा होदण पुणो तेसिमेगजीवेण । अहियत्तुवलंभादो। चदुसमइयहाणप्पहुडि जाव विसमइयाणमसंखेजदिभागो त्ति ताव सव्वट्ठाणाणि जीवेहिं सरिसाणि त्ति भणिदं होदि । अवद्विदमेत्तियमद्धाणं गंतूण एगेगजीववड्डीए जहण्णहाणजीवमेत्तेसु जीवेसु जहण्णट्ठाणजीवाणमुवरि वड्डिदेसु 'दुगुणवड्डिसमुप्पत्तीदो गुणहाणिअद्धाणमसंखेजलोगमेत्तं होदि त्ति घेत्तव्यं । अर्धच्छेदोंसे लेकर दो अंक कम, तीन अंक कम इत्यादि क्रमसे अपवर्तित कराकर यवमध्यकी अधस्तन गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेपर भी सूत्र विरोध नहीं होता है, यह उसका अभिप्राय है। शंका- अधस्तन गुणहानिशलाकायें इतनी ही होती हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वैसा सूत्रोपदेश नहीं है। उत्कृष्ट स्थानके जीव जघन्य परीतासंख्यातके उपरिम वर्गके चतुर्थ भाग प्रमाण ही होते हैं, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, तीन, चार, पाँच आदि जघन्य परीतासंख्यातके अर्ध भागोंको परस्पर गुणित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र उत्कृष्ट स्थानके जीवोंको ग्रहण करनेपर भी सूत्र विरोध नहीं होता है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधामें जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानके जो जीव हैं उनसे असंख्यात लोकमात्र जाकर वे दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं ।। २२॥ कारण यह है कि असंख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों में जीव जघन्य अनुभागवन्धाध्यवसानस्थानके जीवोंसे समान होकर फिर वे एक जीवसे अधिक पाये जाते हैं। चार समय योग्य स्थानांसे लेकर दो समय योग्य स्थानोंके असंख्यातवें भाग तक सब स्थान जीवोंकी अपेक्षा समान हैं, यह अभिप्राय है। इतना भात्र अवस्थित अध्वान जाकर एक एक जीवकी वृद्धि द्वारा जघन्य स्थानसम्बन्धी जीवोंके ऊपर जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंके बराबर जीवोंके बढ़ जानेपर दूनी वृद्धिके उत्पन्न होने के कारण गुणहानिअध्वान असंख्यात लोकमात्र होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। १ प्रतिषु 'सुटुवए साभावादो' इति पाठः। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगम। २६४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २८३. एवं दुगुणवड्डिदा जाव जवमज्झं ॥ २८३ ॥ सुगममेदं, अणंतरोवणिधाए परूविद विसेसत्तादो। जवमझादो हेडिमदुगुणवड्डिअद्धाणाणि सरिसाणि, पढमदुगुणवड्डिप्पहुडि उवरिमदुगुणवड्डीसु दुगुणवढेि पडि हेडिमदुगुणवड्डीए एगजीवव ड्डिदअद्धाणस्स अद्धद्धं गंतूण एगेगजीववड्डीए उवलंभादो। जवमज्झादो उवरिमदुगुणहाणीयो वि हेड्डिमदुगुणहाणीहि अद्धाणेण समाणाओ, दुगुणदुगुणमद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणीदो । तेण परमसंखेजलोगं गंतूण दुगुणहीणा ॥२८४ ॥ एवं दुगुणहीणा जाव उकास्सियअणुभागबंधज्झवसाणहाणे त्ति ॥ २८५ ॥ एवं पि सुगमं । एगजीवअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवड्डि - हाणिहाणंतरमसंखेज्जा लोगा॥२८६॥ गुणहाणिअद्धाणं पुव्वं परू विद, पुणरिह किमटुं परूविज्जदे ? गुणहाणिअद्धाणादो णाणागुणहाणिसलागासु अाणिज्जमाणासु मंदमेहाविसिस्सजणसंभालणटुं परूविज्जदे । इस प्रकार यवमध्य तक वे दूनी दूनी वृद्धिसे युक्त हैं ॥ २८३ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसकी विशेषताकी प्ररूपणा अनन्तरोपनिधामें की जा चुकी है। यवमध्यसे नीचेके दुगुणवृद्धिअध्वान सदृश है, क्योंकि, प्रथम दुगुणवृद्धिसे लेकर आगेकी दुगुण वृद्धियोंमेंसे प्रत्येक दुगुणवृद्धिमें अधस्तन दुगुणवृद्धिके एक जीव वृद्धि युक्त अध्वानका आधा आधा भाग जाकर एक एक जीवकी वृद्धि पायी जाती है। यवमध्यसे ऊपरकी दुगुणहानियाँ भी अधस्तन दुगुणहानिसे अध्वानकी अपेक्षा समान हैं, क्योंकि, दूना दूना अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि होती है। उससे आगे असंख्यात लोक जाकर वे दूने हीन होते हैं ॥ २८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकारसे वे उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानके प्राप्त होने तक वे दूने दूने हीन हैं ॥ २८५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। एक जीवके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंसम्बन्धी दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यात लोकप्रमाण हैं ॥ २८६ ॥ शङ्का-गुणहानिअध्वानकी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है, उसकी प्ररूपणा यहाँ फिरसे किसलिये की जा रही है ? समाधान-गुणहानिअध्वानसे नानागुणहानिशलाकाओंको लाते समय मन्दबुद्धि शिष्योंको Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २८९.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२६५ णाणाजीवअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवडि-[ हाणि-] हाणंतराणि आवलियाए असंखेजदिभागो ॥ २८७॥ ___ एदस्स साहणं वुच्चदे । तं जहा-एगगुणहाणिअद्धाणमेत्तअसंखेज्जलोगअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणं जदि एगा दुगुणवड्डिसलागा लब्मदि तो सव्वाणुभागबंधज्झवसाणद्वाणाणं किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणाणादुगुणवड्डि-हाणि 'सलागाओ लभंति । _णाणाजीवअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतराणि थोवाणि ॥ २८८॥ कुदो ? आवलियाए असंखेज्जभागपमाणत्तादो। ___ एयजीवअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवडि-हाणिहांणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ २८६ ॥ कुदो ? असंखेज्जलोगपमाणत्तादो । एदमप्पाबहुगं पमाणपरूवणादो चेव अवगदमिदि णेव परूवेदव्वं ? ण, मंदमेहाविसिस्साणुग्गहढं परूवणाए कीरमाणाए दोसाभास्मरण कराने के लिये उसकी फिरसे प्ररूपणा की जा रही है। नाना जीवों सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यसानस्थानों सम्बन्धी दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।। २८७ ॥ इसका साधन कहते हैं। वह इस प्रकार है -- एक गुणहानिअध्वानके बराबर असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंके यदि एक दुगुणवृद्धिशलाका पायी जाती है तो समस्त अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंके कितनी दुगुणवृद्धिशलाकायें पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण नानादुगुणवृद्धि-हानि शलाकायें पायी जाती हैं। ___ नाना जीवों सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसानदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर स्तोक कारण कि वे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उनसे एक जीव सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसानदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ।। २८९ ॥ कारण कि असंख्यात लोक प्रमाण हैं । शङ्का-यह अल्पबहुत्व चूंकि प्रमाणप्ररूपणासे ही जाना जा चुका है, अतएव उसकी यहाँ प्ररूपणा नहीं करनी चाहिये समाधान-नहीं, क्योंकि, मन्दबुद्धि शिष्यांके अनुग्रहार्थ उसकी यहाँ प्ररूपणा करनेमें कोई दोष नहीं है। १ ताप्रतौ ‘णाणागुणवडिहाणि' इति पाठः । छ. १२-३४ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] डागमे वेयणाखंखं वादो । संपहि जवमज्भुप्पण्णपदेसपरूवणङ्कं जवमज्झपरूवणा कीरदे— जवमज्झपरूवणाए द्वाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्झं ॥ २६० ॥ [ ४, २, ७, २९०. वाणि असंखेज्जखंडाणि काढूण तत्थ एगखंडे जवमज्यं होदि । एदं जव मज्झट्ठिमचदुसमइयडाणप्पहुडि उवरि विसमयपाओग्गड णाणमसंखेज्जदिभागं गंतूण होदि । 'तिसमयपाओग्गडाणं चरिमसमयम्मि जवमज्भं किण्ण जायदे ? [ण, ] असंखेज्जलोग मेत्तगुणहाणिप्पसंगादो । एदं कुदो णव्वदे ! हेडिमट्ठाणेहिंतो असंखेज्जगुणतिसमयपाओग्गट्टाणे असंखेज्जलोगेहि गुणिदेसु विसमयपाओग्गड्डाणाणं पमाणुप्पत्ती दो । तं पि कुदो णव्वदे ९ पुव्वं परु विदअप्पाच हुगसुत्तादो । तं जहा - सव्वत्थोवा अहसमयपाओग्गअणुभागबंधकवसाणट्ठाणाणि । दोसु वि पासेसु सत्तसमयपाओग्गअणुभागबंधज्वसाणडाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु छसमयपाओग्गहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु पंचसमइयपाओग्गद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु चदुसमयपाओग्गट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि । *तिसमय पाओग्गद्वाणाणि असंखेगुणाणि । विसमयपाओग्गट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणागारो सव्वत्थ असंखेज्ज अब यवमध्य में उत्पन्न प्रदेशकी प्ररूपणा करनेके लिये यवमध्यकी प्ररूपणा करते हैं - यवमध्य की प्ररूपणा करनेपर स्थानोंके असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है ।। २६० ॥ सब स्थानों के असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड में यवमध्य होता है । यह यवमध्य के अधरतन चार समय योग्य स्थानों से लेकर ऊपर दो समय योग्य स्थानोंके असंख्यातवें भाग जाकर होता है । शंका- तीन समय योग्य स्थानोंके अन्तिम समय में यवमध्य क्यों नहीं होता है ? समाधान - [ नहीं, ] क्योंकि वैसा होनेपर असंख्यात लोक प्रमाण गुणहानियोंका प्रसंग आता है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अधस्तन स्थानांकी अपेक्षा असंख्यातगुणे तीन समय योग्य स्थानोंको असंख्यात लोकों से गुणित करनेपर चूँकि दो समय योग्य स्थानोंका प्रमाण उत्पन्न होता है, अतः इसीसे उक्त प्रसंग सुविदित है । शंका- वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह पूर्व में प्ररूपित अल्पबहुत्व सम्बन्धी सूत्रसे जाना जाता है। यथा-आठ समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे दोनों ही पार्श्व भागों में सात - समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दोनों ही पार्श्वभागों में छह समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दोनों ही पार्श्वभागों में पाँच सयय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं | उनसे दोनों ही पार्श्वभागों में चार समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे तीन समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दो समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं । १ ताप्रती 'ति (वि समय-' इति पाठः । २ अ-ताप्रत्योः 'समय' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'समय' हृति पाठः । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६७ ४, २, ७, २९३] वेयणमहाहियारे वेयणभावषिहाणे तदिया चूलिया लोगमेत्तो होदि ति सुत्तम्मि ण परू विदो। एदं सुत्तं वक्खाणेता के वि आइरिया गुणगारो कायहिदि ति भणंति, के वि सामण्णेण असंखेज्जा लोगा त्ति । तं जाणिय वत्तव्यं । जवमझस्स हेडिमट्ठाणाणि किं बहुगाणि आहो उवरिमाणि, उभयथा वि हाणाणमसंखेज्जदिमागे जवमज्झमि दि सिद्धीदो त्ति भणिदे तण्णिण्णयमुत्तरसुत्तं भणदि जवमज्झस्स हेट्टदो हाणाणि थोवाणि ॥ २६१ ॥ - सुगम। , उवरिमसंखेजुगुणाणि ॥ २६२॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कारणं पुष्वं 'परूविदमिदि णेह परूविज्जदे। फोसणपरूवणदाए तीदे काले एयजीवस्स उकस्सए अणुभागबं. धज्झवसाणहाणे फोसणकालो थोवो ॥ २६३ ॥ एत्थ संत-पमाणपरूवणाहि विणा अप्पाबहुगपरूवणा चेव किमटुं बुच्चदे ? ण ताव संतपरूवणा एत्थ कायव्वा, अप्पाबहुगेण चेवावगमादो। कुदो ? अविज्जमाणसंतस्स गणकार सब स्थानोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है, यह सूत्र में नहीं कहा गया है। इस सूत्रका व्याख्यान करनेवाले कितने ही आचार्य गुणकार कायस्थिति प्रमाण बतलाते हैं और कितने ही समान्य रूपसे उसका प्रमाण असंख्यात लोक बतलाते हैं। उसका जान करके कथन करना चाहिये। यवमध्यसे नीचेके स्थान क्या बहुत हैं अथवा ऊपरके, क्योंकि, दोनों प्रकारके ही स्थानोंके असंख्यातवें भागमें यवमध्य है, ऐसा सिद्ध है, इस प्रकार पूछे जानेपर उसका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- यवमध्यके नीचे के स्थान स्तोक हैं ॥ २६१ । यह सूत्र सुगम है। उनसे ऊपरके स्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २९२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ? कारण की प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है, अतएव उसकी यहाँ प्ररूपणा नहीं की जाती है। . स्पर्शनप्ररूपणाकी अपेक्षा अतीत कालमें एक जीवके उत्कृष्ट अनुभागवन्ध्राध्यवसानस्थानमें स्पर्शनका काल स्तोक है ॥ २६३ ॥ शंका-यहाँ सत्प्ररूपणा व प्रमाणप्ररूपणाके बिना अल्पबहुत्वप्ररूपणा ही किसलिये की जा रही है ? समाधान-यहाँ सत्प्ररूपणा करना योग्य नहीं है, क्योंकि, उसका ज्ञान अल्पबहुत्वसे ही १ अ-आप्रत्योः 'पुग्धं व परूविद-', तापतौ 'पुवं [वि] परूविद-' इति पाठः। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २९४. २६८ ] थोब हुत्तपरूवणाणुववत्तीदों । ण पमाणपरूवणा वि वत्तव्वा, एगेगजीवेण अदीदे काले एगेगड्डाणको सिदकालस्स उवदेसेण विणा वि अणतपमाणत्तसिद्धीदो । उक्कस्सअणुभागबंधवाणा फोसणकालो त्ति तीदे काले एगजीवेण विसमयपाओग्गसव्वाणुभागबंधवाणासु अच्छिदकालो घेत्तव्वो । कथं विसमयपाओग्गसव्वहाणाणं उक्कस्सडाणववएसो ? उच्च दे - उकस्सट्ठाण सहचारेण दोष्णं समयाणं उक्करसववएसो असिसहचरियस असिव्ववएसो व्व । उक्कस्सस्स अणुभागबंधकवसाणङ्काणमुकस्साणुभागबंधज्वसाणट्ठाणं । तत्थ फोसणकालो थोवो कुदो ? एगजीवस्स अइस किले से पाएण पदणाभावादो [२] | ण च एसो तत्थ निरंतर मच्छिदकालो, किं तु अंतरिय अंतरिय तत्थ अच्छिदकाले संकलिदे थोवो ति भणिदं । जहणए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे फोसणकालो असंखेज्जगुणो ॥ २६४ ॥ [४] जहण्णाणुभागबंधज्भवसाणड्डाणे ति मणिदे हेडिमचदु 'समयपाओग्गसव्वद्वाणाणं गहणं । 'कथं तेसिं सव्वेसिं जहण्णववएसो ? उच्चदे - चदुष्णं समयाणं जहण्णड्डाण सह हो जाता है। कारण कि जिसका अस्तित्व न हो उसके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा नहीं बनती है । प्रमाणप्ररूपणा भी कहने के अयोग्य हैं, क्योंकि, एक एक जीवके द्वारा अतीत कालमें एक एक स्थानके स्पर्शन किये जानेका काल अनन्त है, इस प्रकार उपदेशके बिना भी उसका अनन्त प्रमाण सिद्ध है । उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानस्पर्शन काल से अतीत कालमें एक जीवके द्वारा दो समय योग्य सब अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों में रहनेका काल ग्रहण करना चाहिये । शंका- दो समय योग्य सब स्थानोंकी उत्कृष्ट स्थान संज्ञा कैसे घटित होती है ? समाधान - इस शंकाका उत्तर कहते हैं । उत्कृष्ट स्थानके साथ रहनेके कारण दो समयोंकी उत्कृष्ट संज्ञा है, जैसे असि युक्त पुरुषकी असि यह संज्ञा होती है । उत्कृष्टका अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान, इस प्रकार यहाँ पष्ठीतत्पुरुषसमास है । उसमें स्पर्शनका काल स्तोक है । इसका कारण यह है कि एक जीवका प्रायः अतिशय संक्लेशमें पतन नहीं होता है [२] । और यह वहाँ निरन्तर रहनेका काल नहीं है, किन्तु बीच बीचमें अन्तर करके वहाँ रहनेके कालका संकलन करनेपर उसे स्तोक ऐसा कहा गया है । संख्यातगुणा उससे जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान में स्पर्शन काल है ॥ २९४ ॥ [४] जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान ऐसा कहनेपर नीचे के चार समय योग्य सब स्थानोंका ग्रहण किया गया है । शंका- उन सबकी जघन्य संज्ञा कैसे है ? समाधान - जघन्य स्थानके साथ रहने के कारण चार समयोंकी जघन्य संज्ञा कही जाती १ अप्रतौ 'समय' इति पाठः । २ - श्राप्रत्योः 'कटं', ताम्रतौ 'कडं ( वं )' इति पाठः । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२६९ चारेण जहण्णसण्णा । तस्स हाणाणि जहण्णाणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि । तत्थ फोसणकालो असंखेज्जगुणो। कुदो ? असंखेज्जवारं चदुसमयपाओग्गट्ठाणेसु परिभमिय सई विसमयपाओग्गट्टाणाणं गमणादो। कंदयस्स फोसणकालो तत्तियो चेव ॥ २६५ ॥ पुव्वं परूविदस्सेव किमहं परूवणा कीरदे, परूविदपरूवणाए फलाभावादो ? ण एस दोसो, जहण्णाणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणे त्ति वयणादो उप्पण्णसंसयस्स सीसस्स संदेहणिवारणहं तदुप्पत्तीदो। जवमज्झफोसणकालो असंखेजगुणो ॥ २६६ ॥ [८] जवमझे त्ति भणिदे अट्ठसमयपाओग्गसव्वहाणाणं गहणं । तेसिमदीदकाले एगजीवेण फोसिदकालो असंखेज्जगुणो। कुदो ? मज्झिमपरिणामेहि जवमझट्ठाणेसु असंखेज्जवारं परिभमिय सई चदुसमयपाओग्गट्ठाणाणं गमणसंभवादो। कंदयस्स उवरि फोसणकालो असंखेजगुणो ॥२६७॥ [३।२] कुदो ? अट्ठसमयपाओग्गट्टाणेहिंतो तिसमय-विसमयपाओग्गट्ठाणाणमसंखेज्ज. गुणत्तादो। है । उसके स्थान जघन्य अनुभागस्थान कहे जाते हैं। उनमें रहनेका काल असंख्यातगुणा है, क्योंकि, असंख्यातबार चार समय योग्य स्थानों में परिभ्रमण करके एक बार दो समय योग्य स्थानोंको प्राप्त होता है। काण्डकका स्पर्शनकाल उतना ही है ॥ २९५ ॥ शंका-पहिले जिसकी प्ररूपणा की जा चुकी है उसीकी फिरसे प्ररूपणा किसलिये की जा रही है, क्योंकि, प्ररूपितकी प्ररूपणा करने में कोई लाभ नहीं है ? । समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान इस कथन से उत्पन्न हुए सन्देहसे युक्त शिष्यके उस सन्देहको दूर करनेके लिये प्ररूपितकी भी प्ररूपणा बन जाती है। उससे यवमध्यका स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है ।। २९६ ॥ [८] यवमध्य ऐसा कहनेपर आठ समय योग्य सब स्थानोंको ग्रहण करना चाहिये। अतीत कालमें एक जीवके द्वारा उनका स्पर्शनकाल असंख्यातगणा है। कारण यह है कि मध्यम परिणामों के द्वारा यवमध्यस्थानों में असंख्यात वार परिभ्रमण करके एक बार चार समय योग्य स्थानोंमें जाना सम्भव है उससे काण्डकके ऊपर स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है ॥ २६७ ॥ [२] इसका कारण यह है कि पाठ समय योग्य स्थानोंकी अपेक्षा तीन समय व दो समय योग्य स्थान असंख्यातगणे पाये जाते हैं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं ... .. [४, २, ७, २६८. जवमज्झस्स उवरि कंदयस्स हेट्टदो फोसणकालो असंखेजगुणो ॥ २६८॥[७।६। ५ ] किं कारणं ? जदि वि सत्त-छ-पंचसमयपाओग्गहाणाणि तिसमय-विसमयपाओग्गट्ठाणाणं असंखेज्जदिभागो तो वि एदेसि फोसणकालो असंखेज्जगुणो, मझिमपरिणामेहि असंखेज्जवारं परिणमिय सइं तिसमय-विसमयपाओग्गट्टाणगमणुवलंभादो'। कंदयस्स उवरि जवमज्झस्स हेट्टदो फोसणकालो तत्तियो चेव ॥ २६६ ॥ [७।६। ५] कुदो ? समाणसंखत्तादो' मज्झिमपरिणामेहि बज्झमाणत्तणेण भेदाभावादो च । जवमझस्स उवरि फोसणकालो विसेसाहिओ ॥३०॥ [७।६।५।४।३।२] सत्त-छ-पंचसमयपाओग्गहाणफोसणकालस्सुवरि चदु-ति-दोण्णि-समयपाओग्गढाणाणं फोसणकालप्पवेसादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? सत्त-छ-पंचसमयपाप्रोग्गहाणाणं फोसणकालस्स असंखेज्जदिमागो। . उससे यवमध्यके ऊपर और काण्डकके नीचे स्पर्शनका काल असंख्यातगुणा है ॥२९८॥ [७।६।५] शंका- इसका कारण क्या है? समाधान-यद्यपि सात, छह और पाँच समय योग्य स्थान तीन समय व दो समय योग्य स्थानोंके असंख्यातवें भाग हैं तो भी इनका स्पर्शनकाल असंख्यातगणा है, क्योंकि, मध्यम परिणामोंके द्वारा असंख्यात बार सात, छह और पाँच समय योग्य स्थानों में परिभ्रमण करके एक बार तीन समय व दो समय योग्य स्थानों में गमन पाया जाता है। काण्डकके ऊपर और यवमध्यके नीचे स्पर्शनकाल उतना ही है ।। २९९ ॥ [७।६। ५] इसका कारण यह है कि एक तो उनकी संख्या समान है, दूसरे मध्यम परिणामों के द्वारा बध्यमान स्वरूपसे उनमें कोई भेद भी नहीं है। . उनसे यवमध्यके ऊपर स्पर्शनकाल विशेष अधिक है ॥ ३०० ॥ [७।६।५।४।३।२] कारण कि सात, छह व पाँच समय योग्य स्थानोंके स्पर्शनकालके ऊपर चार, तीन व दो समय योग्य स्थानोंके स्पर्शनकालका यहाँ प्रवेश है। विशेषका प्रमाण कितना है ? वह सात, छह व पाँच समय योग्य स्थानों सम्बन्धी स्पर्शनकालके असंख्यातवें भाग मात्र है। १ ताप्रती -दाणाणमणुवलंभादो' इति पाठः । २ मप्रतौ 'समयाणसंखत्तादो' इति पाठः । .... Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ३०३. वैयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२१ - कंदयस्स हेह्रदो फोसणकालो विसेसाहिओ ॥३०१॥ [४।५।६।७।८।७।६। ५] केत्तियमेत्तो विसेसो ? सगकालस्स असंखेज्जा भागा' विसेसो। तं जहाजवमझकालब्भंतरे चदुसमयपाओग्गट्ठाणकालमत्तं घेत्तण उवरिमसत्त-छ-पंचसमयपाओग्गट्ठाणकालाणं उवरि दृविदे एत्तियं होदि [४ । ५। ६ । ७।७।६। ५ । ४] । एसो कालो तिसमय-विसमयपाओग्गहाणाणं कालं मोत्तण सेसकाले पेक्खिय दुगुणहाणी । पुणो जवमझकालस्स अवणिदसेसा असंखेज्जा भागा अत्थि । पुणो ते घेत्तूण हेटिमतिसमय-विसमयपाओग्गहाणकालम्मि सोहिदे सुद्धसेसं विसमय-तिसमयपाओग्गहाणकालस्स असंखेज्जा भागा होदि । पुणो एदम्मि पुव्वुत्तदुगुणकालम्मि सोहिदे किंचूणदुगुणकालो चिट्ठदि । तेण विसेसाहियो ति कालो परूविदो। कंदयस्स उवरि फोसणकालो विसेसाहिओ ॥३०२॥ [५।६।७।८।७।६।५।४।३।२] केत्तियमेत्तो विसेसो ? उवरिमतिसमय-विसमयपाओग्गट्टाणकालमेत्तो। सव्वेसु हाणेसु फोसणकालो विसेसाहिओ॥३०३॥ [४।५।६।७।८।७।६।५।४।३।२] इससे काण्डकके नीचे स्पर्शनकाल विशेष अधिक है ॥ ३०१ ॥ ४, ५, ६, ७, ८, ७, ६, ५, विशेष कितना है ? वह विशेष अपने कालके असंख्यात बहुभाग प्रमाण है। यथायवमध्यकालके भीतर चार समय योग्य स्थानोंके काल मात्रको ग्रहण कर उपरिम सात, छहब पाँच समय योग्य स्थानों सम्बन्धी कालोंके ऊपर स्थापित करनेपर इतना होता है-४, ५, ६, ७, ७,६,५,४ । यह काल तीन समय व दो समय योग्य स्थानोंसम्बन्धी कालोंको छोड़कर शेष कालोंकी अपेक्षा करके दुगणा हीन है। पुनः यवमध्यकालकाकम करनेसे शेष रहा असंख्यात बहुभाग है। उसको ग्रहण कर अधस्तन तीन समय और दो समय योग्य स्थानों के कालमेंसे कम कर देने पर शेष दो समय व तीन समय योग्य स्थानोंके कालका असंख्यात बहुभाग रहता है। इसको पूर्वोक्त दुगुने कालमेंसे कम कर देनेपर कुछ कम दुगुणा काल रहता है। इसीलिये विशेष अधिक काल की प्ररूपणा की गई है। इससे काण्डकके ऊपर स्पर्शनकाल विशेष अधिक है ॥ ३०२ ॥ ५, ६, ७, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, विशेष कितना है ? वह ऊपरके तीन समय और दो समय योग्य स्थानों सम्बन्धी कालके बराबर है। इससे सब स्थानों में स्पर्शनकाल विशेष अधिक है ।। ३०३ ।।। ४, ५, ६, ७, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १ प्राप्रतौ 'असंखेजभाग', ताप्रतौ 'असंखेजभागो' इति पाठः । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २७२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ३०४ केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेडिमचदुसमयपाओग्गहाणकालमेत्तो । एवं अभवसिद्धियपाओग्गे । एवं फोसणपरूवणा समत्ता । अधवा, उक्करसज्भवसाणट्ठाणे ति मणिदे विसमयपाओग्गाणं चरिमं घेप्पदि । (जहण्णज्झवसाणट्ठाणे ति भणिदे चदुसमयपाओग्गाणं जहण्णं घेप्पदि त्ति के वि आइरिया भणंति । तण्ण घडदे, उक्कस्ससंकिलेसम्मि णिवदणवारेहिंतो उक्कस्सविसोहीए पदण. वाराणमसंखेज्जगुणत्तविरोहादो। कंदयस्स फोसणकालो तत्तियो चेवे ति वुत्ते उवरि चदुसमयपाओग्गट्ठाणाणं चरिमाणकालो गहिदो त्ति भणंति । एदं पि ण घडदे, एक्कस्स ट्ठाणस्स कंदयत्तविरोहादो उक्कस्सविसोहीए परिणमणवारेहिंतो मज्झिमसंकिलेसपरिणमणवाराणं समाणत्तविरोहादो। तम्हा विदियअप्पाबहुगपरूवणा एत्थ ण परूविदा।) अप्पबहुए ति उकस्सए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे जीवा थोवा॥३०४॥ . कुदो ? विसमयपाओग्गट्ठाणकालस्स थोवत्तुवलंभादो । जहण्णए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे जीवा असंखेज्जगुणा॥३०५॥ कुदो णव्वदे ? पुव्विल्लकालादो एदस्स कालो असंखेज्जगुणो त्ति सुत्तवयणादो विशेष कितना है ? वह अधस्तन चार समय योग्य स्थानों सम्बन्धी कालके बराबर है। इस प्रकार अभवसिद्धिक योग्य स्थानमें प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार स्पर्शनप्ररूपणा समाप्त हुई। अथवा, उत्कृष्ट अध्यवसानस्थान ऐसा कहनेपर दो समय योग्य स्थानोंका अन्तिम स्थान ग्रहण किया जाता है । जघन्य अनुभागस्थान ऐसा कहनेपर चार समय योग्य स्थानोंका जघन्य स्थान ग्रहण किया जाता है; ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि, ऐसा होनेपर उत्कृष्ट संक्लेशमें पड़नेके वारोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट विशुद्धिमें पड़नेके वारों के असंख्यात गुणे होनेका विरोध होता है। ___काण्डकका स्पर्शनकाल उतना ही है, ऐसा कहनेपर ऊपर चार समय योग्य स्थानोंमें अन्तिम स्थानके कालको ग्रहण किया गया है। ऐसा वे कहते हैं। परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, एक स्थानके काण्डक होनेका विरोध है, तथा उत्कृष्ट विशुद्धिमें परिणत होनेके वारोंकी अपेक्षा मध्यम संक्लेशमें परिणत होनेके वाराकी समानताका विरोध है। इस कारण द्वितीय अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा यहाँ नहीं की गई है। अल्पबहुत्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसानमें जीव स्तोक हैं ॥३०४॥ कारण यह कि दो समय योग्य स्थानोंका काल स्तोक पाया जाता है। उनसे जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव असंख्यातगुण हैं ॥ ३०५ ॥ शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-पूर्वके कालका अपेक्षा इसकी काल असंख्यातगुणा है, इस सूत्रवचनसे जाना Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ७, ३११. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया नव्वदे जहा चदुसमयपाओग्गट्ठाणेसु परिभवंति जीवा बहुगा ति । कंदयस्स जीवा तत्तिया चेव ॥ ३०६ ॥ कुदो ? दोष्णं कालादो भेदाभावादो । जवमज्झस्स जीवा असंखेज्जगुणा ॥३०७॥ कुदो ? कंदयकालादो जवमज्भकालस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । कंदयस्स उवरिं जीवा असंखेज्जगुणा ॥ ३०८ ॥ कुदो ? जवमज्झट्ठाणेहिंतो तिसमइयविसमइयपाओग्गट्ठाणाणमसंखेज्जगुणत्तु वलंभादो | जवमज्झस्स उवरि कंदयस्स हेट्टिमदो जीवा असंखेजुगुणा ॥ ३०६ ॥ दो संखेज्जगुणफोसणकालत्तादो । कंदयस्स उवरि जवमज्झस्स हेट्ठिमदो जवमज्झस्स हेट्ठिमदो जीवा तत्तिया चेव ॥ ३१० ॥ कुदो ? फोसणकालट्ठाणसंखाहि समाणत्तादो' | जवमज्झस्स उवरिं जावा विसेसाहिया ॥ ३११ ॥ सुगमं । जाता है कि चार समय योग्य स्थानोंमें जीव बहुत भ्रमण करते हैं । काण्डकके जीव उतने ही हैं ॥ ३०६ ॥ कारण कि दोनोंमें कालकी अपेक्षा कोई भेद नहीं हैं । उनसे यवमध्य जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३०७ ॥ [ २.७३ कारण कि काण्डककालकी अपेक्षा यवमध्यकाल असंख्यातगुणा पाया जाता है । उनसे काण्डकके ऊपर जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३०८ ॥ कारण कि यवमध्यके स्थानों की अपेक्षा तीन समय व दो समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे पाये जाते हैं। उनसे यवमध्यके ऊपर और काण्डकके नीचे जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ३०९ ॥ कारण कि यहाँ असंख्यातगुणा स्पर्शनकाल पाया जाता है । कडक ऊपर और यवमध्यके नीचे जीव उतने ही हैं ।। ३१० ॥ कारण कि यहाँ स्पर्शनकाल और स्थानसंख्या की अपेक्षा समानता है । उनसे यवमध्यके ऊपर जीव विशेष अधिक हैं ।। ३११ ॥ यह सूत्र सुगम है । १ मप्रतिपाठोऽयम् । श्रश्रा-ताप्रतिषु 'पमाणत्तादो' इति पाठः । छ. १२-३५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ३१२, कंदयस्स हेह्रदो जीवा विसेसाहिया ॥३१२॥ एदं पि सुगम। कंदयस्म उवरिं 'जीवर विसेसाहिया ॥३१३॥ सुगमं । सव्वेसु हाणेसु जीवा विसेसाहिया ।।३१४॥ सुगमं । एवमणप्पाबहुगे समत्ते जीवसमुदाहारे ति तदिया चूलिया समत्ता । एवं वेयणभावविहाणे त्ति समत्तमणियोगगद्दारं । उनसे काण्डकके नीचे जीव विशेष अधिक हैं ॥ ३१२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उनसे काण्डकके ऊपर जीव विशेष अधिक हैं ॥ ३१३ ॥ यह सूत्र सुगम है। उनसे सब स्थानोंमें जीव विशेष अधिक हैं ॥ ३१४ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त हो जानेपर जीवसमुदाहार नामकी तृतीय चूलिका समाप्त होती है। इस प्रकार वेदनाभावविधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ श्राप्रतौ 'उवरिम-' इति पाठ।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदणापचयविहाणाणियोगद्दार वेयणपञ्चयविहाणे त्ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं, अणवगयाहियारस्स अंतेवासिस्स परूवणाए फलाभावादो। सव्वं कम्मं कज्जं चेव, अकजस्स कम्मस्स सप्तसिंगस्सेव अभावावत्तीदो। ण च एवं, कोहादिकजाणमत्थित्तण्णहाणुववत्तीदो कम्माणमस्थित्तसिद्धीए । कज्जं पि सव्वं सहेउअं चेव, णिकारणस्स कजस्स अणुवलंभादो। तम्हा सुत्तेण विणा वि कम्माणं सहेउअत्तसिद्धीदो पञ्चय विहाणं णाढवेदव्वमिदि' ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-कम्माणं कज्जत्तं सकारणत्तं च जुत्तीए सिद्धं चेव । किंतु पञ्चयस्स विहाणं पवंचो भेदो अणेण परूविजदे कारणविसयविप्पडिवत्तिणिराकरणहूँ । (णेगम-ववहार-संगहाणंणाणावरणीयवेयणापाणादिवादपच्चए॥२॥) पाणादिवादो णाम' पाणेहितो पाणीणं विजोगो। सो जतो मण-वयण-कायवावावेदनाप्रत्ययविधान अधिकार प्राप्त है ॥ १॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण करानेवाला है, क्योंकि अधिकारसे अनभिज्ञ शिष्यके प्रति की जानेवाली प्ररूपणाका कोई फल नहीं है। शंका-सब कर्म कार्यस्वरूप ही है, क्योंकि, जो कर्म अकार्यस्वरूप होते हैं उनका खरगोशके सींगके समान अभावका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, क्रोधादिरूप कार्योंका अस्तित्व बिना कर्मके बन नहीं सकता, अतएव कर्मका अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि, कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। इस कारण चूकि सूत्रके बिना भी कर्मोंकी सकारणता सिद्ध है, अतः प्रत्ययविधानका प्रारम्भ करना उचित नहीं है ? - समाधान- यहाँ उपर्युक्त शंकाका उत्तर कहा जाता है-कोकी कार्यरूपता और सकारणता तो युक्तिसे ही सिद्ध है । किन्तु उनके कारण विषयक विरोधका निराकरण करनेके लिये इस अधिकारके द्वारा प्रत्यय अर्थात् करणके विधान अर्थात् प्रपंच या भेदकी प्ररूपणा की जा रही है। नैगम, व्यवहार और संगहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना प्राणातिपात प्रत्ययसे होती है ॥ २॥ प्राणातिपातका अर्थ प्राणोंसे प्राणियोंका वियोग करना है । वह जिन मन, वचन या कायके १ अ-आप्रत्योः ‘णादवेदव्वमिदि' पाठः । २ ताप्रतौ 'पाणादिवादो णाम' इत्येतावानयं पाठः सूत्रान्तर्गतोऽस्ति । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ८, २. रादीहिंतो ते व पाणादिवादो । के पाणा १ चक्खु -सोद-घाण - जिन्भा- पासिंदिय-मण-वयणकायबलुस्सासणिस्सासाउआणि त्ति दस पाणा । पचओ कारणं णिमित्तमिच्चणत्थंतरं । पाणादिवादी च सो पच्चश्रो च पाणादिवादपचओ । पाणादिवादो णाम हिंसाविसयजीववावारो । सो च पञ्जाओ । तदो ण सो कारणं, पजायस्स' एयंतस्स कारणत्तविरोहादो त्ति ? ण, पञ्जायस्स पहाणी भूदस्स आयड्डियपरवक्खस्स कारणत्तवलंभादो । तम्हि पाणादिवादपच्चर णाणावरणीयवेयणा होदि । कथं पच्चयस्स सत्तमीए उत्पत्ती ? ण, पाणादिवादपच्चयविसए णाणावरणीयवेयणा वट्टदि त्ति संबंधिजमाणे सत्तमीविहत्तीए इसइयाए उत्पत्तिं पडि विरोहाभावादो। अधवा, तइयत्थे सत्तमी दट्ठव्वा । तधा च पाणादिवादपच्चएण णाणावरणीयवेयणा होदि ति सिद्धो सुत्तट्ठो । पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबंधस्स पच्चओ होज तो तिहुवणे द्विदकम्मइयखंधा णाणावरणीयपच्चएण अकमेण किण्ण परिणमंते, कम्मजोगत्तं पडि विसेसाभावादो ? ण, तिहुवण अंतर कमइय व्यापारादिकोंसे होता है वे भी प्राणातिपात ही कहे जाते हैं । शंका- प्राण कौनसे हैं ? समाधान चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा व स्पर्शन, ये पाँच इन्द्रियाँ; मन, वचन और काय, ये तीन बल; तथा उच्छ्रास- निःश्वास एवं आयु. ये दस प्राण हैं । प्रत्यय, कारण और निमित्त, ये समानार्थक शब्द हैं । प्राणातिपात रूप जो प्रत्यय वह प्राणातिपातप्रत्यय, इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है । शंका- प्राणातिपातका अर्थ हिंसा विषयक जीवका व्यापार है । वह चूँकि पर्याय स्वरूप है अतः वह कारण नहीं हो सकता, क्योंकि, एकान्त पर्यायके कारणताका विरोध है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहाँ पर्याय प्रधान है और परपक्ष आकर्षित होकर उसमें गृहीत है इसलिए उसे कारण मानने में कोई विरोध नहीं है । उक्त प्राणातिपात प्रत्ययके होनेपर ज्ञानावरणीय वेदना होती है । शंका - प्रत्यय शब्द की सप्तमी विभक्ति कैसे संगत है ? समाधान- नहीं, क्योंकि प्राणातिपात प्रत्यय के विषय में ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना होती है, ऐसा सम्बन्ध करनेपर विषयार्थक सप्तमी विभक्तिकी उपपत्ति में विरोध नहीं आता । अथवा, तृतीया विभक्तिके अर्थ में सप्तमी विभक्ति समझना चाहिये। इस प्रकार प्राणातिपात प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है, यह सूत्रका अर्थ सिद्ध होता है । शंका- यदि प्राणातिपात ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण है तो तीनों लोकों में स्थित कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणीय पर्याय स्वरूपसे एक साथ क्यों नहीं परिणत होते हैं, क्योंकि, उनमें कर्मयोग्यता की अपेक्षा समानता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, तीनों लोकोंके भीतर स्थित कार्मण स्कन्धमें देश विषयक १ प्रतिषु 'पजचयस्स -' इति पाठः । २ श्राप्रतौ 'आयदिय' शेषपत्योः 'आयट्टिय' इति पाठः । ३ - प्रत्योः ' ' - पच्चए हि' इति पाठः । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ८, २.] वेयणमहाहियारे वेयणपञ्चविहाणं [ २७७ यखंधेहि देसविसयपञ्चासत्तीए अभावादो । वुत्तं च ( एयक्खेत्तोगाढ सव्वपदेसेहि कम्मणो जोग्गं'। . बंधड़ जहुत्तहेदू सादियमहणादिय वा वि ॥१॥) जदि एयक्खेतोगाढा कम्मइयखंधा पाणादिवादादो कम्मपजाएण परिणमंति तो सव्ववलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चएण सव्वे कम्मइयखंधा अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होति । ण च एवं, विदियादिसमएसु कम्मइयखंधाभावेण सयजीवाणं णाणावरणीयबंधस्स अभावप्पसंगादो। ण च एवं, सबजीवाणं णिबाणगमणप्पसंगादो? एत्थ परिहारो वुच्चदे-पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए वि ण सव्वे कम्मइयक्खंधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणमंति, पत्तं दझ दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो । किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती पत्थि ? साभावियादो । कम्मइयक्खंधा किं जीवेण समवेदा संता णाणावरणीयपज्जाएण परिणमंति आहो असमवेदा" १ णादिपक्खो, ओरालिय-वेउव्विय-आहार-तेजइयसरीरसण्णिदणोकम्मवदिरि प्रत्यासत्तिका अभाव है। कहा भी है सूक्ष्म निगोद जीवका शरीर धनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र जघन्य अवगाहनाका क्षेत्र एक क्षेत्र कहा जाता है। उस एक क्षेत्रमें अवगाहको प्राप्त व कर्मस्वरूप परिणमनके योग्य सादि अथवा अनादि पुद्गल द्रव्यको जीव यथोक्त मिथ्यादर्शनादिक हेतुओंसे संयुक्त होकर समस्त प्रात्मप्रदेशोंके द्वारा बाँधता है ॥१॥ शंका-यदि एक क्षेत्रावगाहरूप हुए कार्मण स्कन्ध प्राणातिपातके निमित्तसे कर्म पर्यायरूप परिणमते हैं तो समस्त लोकमें स्थित जीवोंके प्राणातिपात प्रत्ययके द्वारा सभी कार्मण स्कन्ध एक साथ ज्ञानावरणीय रूप पर्यायसे परिणत हो जाने चाहिये। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर द्वितीयादिक समयोंमें कार्मण स्कन्धोंका अभाव हो जानेसे सब जीवोंके ज्ञानावरणीयका बन्ध न हो सकनेका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा सम्भवं नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे समस्त जीवोंके मुक्ति प्राप्तिका प्रसंग अनिवार्य है ? समाधान- उपर्युक्त शंकाका परिहार कहा जाता है-एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्तिके होनेपर भी सब कार्मण स्कन्ध एक समयमें ज्ञानावरणीय स्वरूपसे नहीं परिणमते हैं, क्योंकि, इन्धन आदि दाह्य वस्तुको जलानेवाली अग्निके समान जीवमें उस प्रकारकी शक्ति नहीं है। शंका-जीवमें वैसी शक्तिके न होनेका क्या कारण है ? समाधान-उसमें वैसी शक्ति न होनेका कारण स्वभाव ही है। शंका-कार्मण स्कन्ध क्या जीवमें समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्यायरूपसे परिणमते हैं अथवा असमवेत होकर ? प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक १ अ-आप्रत्योः 'जोग' इति पाठः। २ गो०,क०, १८५। ३ अ-श्रापत्योः पादोदो' इति पाठः । ४ श्राप्रतौ 'अकम्मेण' इति पाठः। ५ अाप्रतौ 'असमदणादि-' इति पाठः। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] छ खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ८, २. तस्स कम्मइयक्खंधस्स कम्म सरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवलंभादो । उवलंभे वा पत्तेयसरीरवग्गणाए द्वाणपरूवणाए कीरमाणाए ओरालिय- वेउचिय-तेजा-कम्मइयसरीराणि अस्सिदूष जहा परूवणा कदा एवं जीवसमवेदकम्मइयखंधे वि अस्सिदूण परूवणा करेज्ज | ण च एवं तहाणुवलंभादो । ण विदिओ' वि पक्खो जुञ्जदे, जीवे समवेदा कम्मइयक्खंधाणं णाणावरणीय सरूवेण परिणमणविरोहादो । अविरोहे वा जीव संसारावस्थाए अमुत्तो होज, मुत्तदव्वे हि संबंधाभावादो। ण च एवं, जीवगमणे सरीरस्स संबंधाभावेण 'अगमणप्पसंगादो, जीवादी पुघभूदं सरीरमिदि अणुहवाभावादो च । ण पच्छा दोण्णं पि संबंधो, कारणे अक्कमे संते कजस्स कमुप्पत्तिविरोहादोत्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे - जीवसमवेदकाले चैव कम्मइयक्खंधा ण णाणावरणीय सरूवेण परिणमंति [त्ति ] ण पुव्वुत्तदोसा दुकंति । कधमेगो पाणादिवादो कमेण दोण्णं कजाणं संपादओ ? ण, एयादो मोग्गरादो घादावयवविभागड्डाणसं चालणक्खे तंतरवत्ति खप्पर काम कमेणुष्पत्तिदंसणादो । कधमेगो पाणादिवादो अणंते कम्मइय और तैजस शरीर संज्ञावाले नोकर्मसे भिन्न और कर्मस्वरूपसे अपरिणत हुआ कार्मण स्कन्ध जीव में समवेत नहीं पाया जाता । अथवा यदि पाया जाता है तो प्रत्येक शरीरकी वर्गणा के स्थानों की प्ररूपणा करते समय औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीरका आश्रय करके जैसे प्ररूपणा की गई है, इस प्रकार जीव समवेत कार्मण स्कन्धोंका आश्रय करके भी स्थान प्ररूपणा करनी चाहिये थी । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पायी नहीं जाती । दूसरा पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, जीवमें असमवेत कार्मण स्कन्धों के ज्ञानावरणीय स्वरूपसे परिणत होने का विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो संसार अवस्था में जीवको अमूर्त होना चाहिये, क्योंकि, मूर्त द्रव्योंसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीवके गमन करनेपर शरीरका सम्बन्ध न रहनेसे उसके गमन न करनेका प्रसंग आता है। दूसरे, जीवसे शरीर पृथक है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनोंका सम्बन्ध होता है, ऐसा भी सम्भव नहीं है; क्योंकि, कारण क्रम रहित होनेपर कार्यकी क्रमिक उत्पत्तिका विरोध है ? समाधान- यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं । यथा - जीवसे समवेत होने के समय में कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणीय स्वरूपसे नहीं परिणमते हैं । अतएव पूर्वोक्त दोष यहाँ नहीं ढूँकते । शंका - प्राणातिपात रूप एक ही कारण युगपत् दो कार्यों का उत्पादक कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि एक मुद्गरसे घात, अवयवविभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रान्तरकी प्राप्तिरूप खप्पर कार्योंकी युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है । शंका- प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्मण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानावरणीय १ - प्रत्योः 'वीइंदिश्रो' ताप्रती 'वीइज्जो' इति पाठः । २ ताप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । ३ प्रतौ ' श्रागमण' इति पाठः । ४ अ श्रापत्योः 'कम्मइयक्खधाण' ताप्रतौ 'कम्मइयक्खंधा [ णं ]' इति पाठः । ५ - प्रत्योः 'क्खेत्तंतरावेति' इति पाठः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ८, ३. ] वेयणमहाहियारे वेयणपञ्चयविहाणं [२७९ क्खंधे णाणावरणीयसरूवेण अकमेण परिणामावेदि, बहुसु एकस्स अक्कमेण वृत्तिविरोहादो ? ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो। (मुसावादपच्चए ॥३॥) असंतवयणं मुसावादो। किमसंतवयणं ? मिच्छत्तासंजम-कसाय-पमादुट्ठावियो वयणकलावो । एदम्हि मुसावादपञ्चए मुसावादपच्चएण वा णाणावरणीय वेयणा जायदे । कम्मबंधो हि णाम सुहासुहपरिणामे हितो जायदे, सुद्धपरिणामे हितो तेसिं दोण्णं पि णिम्मूलक्खओ। (ओदइया बंधयंरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा। _परिणामिओ दु भावो करणोहयवजियो होदि' ॥२॥) इदिवयणादो। असंतवयणं पुण ण सुहपरिणामो, णो असुहपरिणामो, पोग्गलस्स तप्परिणामस्स वा जीवपरिणामत्त विरोहादो। तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्स कारणं । णासंतवयणकारणकसाय-पमादाणमसंतवयणववएसो, तेसिं कोह-माण-मायालोहपच्चएसु अंतब्भावेण पउणरुत्तियप्पसंगादो। ण पाणादिवादपञ्चो वि, भिण्णजीव स्वरूपसे कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतोंमें एककी युगपत् वृत्तिका विरोध है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारणके अनन्त शक्तियुक्त होनेसे वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। मृषावाद प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥३॥ ३ ॥ . . असत् वचनका नाम मृषवाद है। शंका-असत् वचन किसे कहते हैं? समाधान-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमादसे उत्पन्न वचन समूहको असत् वचन कहते हैं। इस मृषावाद प्रत्ययमें अथवा मृषावाद प्रत्ययके द्वारा ज्ञानावरणीय वेदना होती है। . शंका-कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामोंसे होता है और शुद्ध परिणामांसे उन (शुभ व अशुभ) दोनोंका ही निर्मूल क्षय होता है; क्योंकि 'औदयिक भाव बन्धके कारण और औपशमिक, क्षायिक व मिश्र भाव मोक्षके कारण हैं। पारिणामिक भाव बन्ध व मोक्ष दोनोंके ही कारण नहीं हैं ।। २ ।। ऐसा आगमवचन है। परन्तु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम है; क्योंकि, पुद्गलके अथवा उसके परिणामके जीवपरिणाम होनेका विरोध है । इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि असत्य वचनके कारणभूत कषाय और प्रमादकी असत्य वचन संज्ञा है सो यह कहना भी ठीक नहीं है,क्योंकि उनका क्रोध, मान, माया व लोभ प्रत्ययोंमें अन्तर्भाव होनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है । इसी १ पु.७ पृ. ६., क. पा. १.पृ. ६. इति पाठः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ८, ३. विसयस्स पाण-पाणि विओगस्स' कम्मबंधहेउत्तविरोहादो। ण च पाण-पाणि विप्रोगकारणजीवपरिणामो पाणादिवादो, तस्स राग-दोस-मोहपच्चएसु अंतब्भावेण पउणरुत्तियप्पसंगादो त्ति ? एस्थ परिहारो वुच्चदे-सव्वस्स कन्जकलावस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो ति णए अवलंबिजमाणे कारणादो कन्जमभिण्णं, कजादो कारणं पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च । कारणेकार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्न । णाणावरणीयबंधणिबंधणपरिणाम प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीयका प्रत्यय नहीं होसकता,क्योंकि,अन्य जीवविषयक प्राण-प्राणिवियोगके कर्मबन्धमें कारण होनेका विरोध है। यदि कहा जाय कि प्राण व प्राणीके वियोगका कारणभूत जीवका परिणाम प्राणातिपात कहा जाता है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उसफा राग, द्वेष एवं मोह प्रत्ययों में अन्तर्भाव होनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है। . समाधान-उपर्युक्त शंकाका परिहार कहा जाता है । यथा-सत्ता आदिकी अपेक्षा सभी कार्यकलापका कारणसे अभेद है, इस नयका अवलम्बन करनेपर कारणसे कार्य अभिन्न है तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है, क्योंकि, असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता है, नियत उपादानकी अपेक्षाकी जाती है, किसी एक कारणसे सभी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा असत् कार्यके साथ कारणका सम्बन्ध भी नहीं बन सकता। विशेषार्थ-यहाँ कार्यका कारणके साथ अभेद बतलानेके लिये निम्न पाँच हेतु दिये गये हैं-(१) यदि कारणके साथ सत्ताको अपेक्षा भी कार्यका अभेद न स्वीकार कारणके द्वारा असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकेगा, जैसे-खरविषाणादि । अतएव कारणव्यापारके पूर्व भी कारणके समान कार्यको मी सत् ही स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार सत्ताकी अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं रहता। (२) दूसरा हेतु 'उपादानग्रहण' दिया गया है। उपादानग्रहणका अर्थ उपादान कारणोंके साथ कार्यका सम्बन्ध है। अर्थात् कायसे सम्बद्ध होकर ही कारण उसका जनक हो सकता है, न कि उससे असम्बद्ध रहकर भी। और चूंकि कारणका सम्बन्ध असत् कार्यके साथ सम्भव नहीं है, अतएव कारणव्यापारसे पहिले भी कार्यको सत स्वीकार करना ही चाहिये (३) अब यहाँ शंका उपस्थित होती है कि कारण अपनेसे असंबद्ध कार्यको उत्पन्न क्यों नहीं करते हैं ? इसके समाधानमें 'सर्वसम्भवाभाव' रूप यह तीसरा हेतु दिया गया है। अभिप्राय यह है कि यदि कारण अपनेसे असम्बद्ध कार्यके उत्पादक हो सकते हैं तो जिस प्रकार मिट्टीसे घट उत्पन्न होता है उसी प्रकार उससे पट आदि अन्य कार्य भी उत्पन्न हो जाने चाहिये, क्योंकि, मिट्टीका जैसे पट आदिसे कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही घटसे भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार सब कारणोंसे सभी कार्यों के उत्पन्न होने रूप जिस अव्यवस्थाका प्रसंग आता है उस अव्यवस्थाको टालनेके लिए मानना पड़ेगा कि घट मिट्टी में कारणव्यापार के पूर्व भी सत् ही था। वह केवल कारणव्यापारसे अभिव्यक्त किया जाता है । (४) पुनः शंका उपस्थित होती है कि असम्बद्ध रहकर भी कारण जिस १ अ-श्राप्रत्योः 'विसयोगस्त तापतौ 'वियोगस्स' इति पाठः। २ प्रतिषु 'वियोग' इति पाठः। ३ असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच सत्कार्यम् ॥ सांख्यकारिका ६.। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ८, ४.] वेयणमहाहियारे वेयणपचयविहाणं [૨૮૨ णिदो वट्टदे पाण-पाणिवियोयो वयणकलावो च। तम्हा तदो तेसिमभेदो। तेणेव कारण णाणावरणीयबंधस्स तेसिं पच्चयत्तं पि सिद्धं । एवंविहववहारो किमहं कीरदे १ सुहेण णाणावरणीयपञ्चयपडिबोहणटुं कलपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहटुं च । (अदत्तादाणपच्चए ॥४॥) अदत्तस्स अदिण्णस्स आदाणं गहणं अदत्तादाणं' सो चेव पचओ अदत्तादाणपञ्चओ, तम्हि अदत्तादाणपच्चयविसए णाणावरणीयवेयणा होदि । एत्थ वि जेण 'आदीयदे अणेण आदीयद इदि आदाणं' तेण अदिण्णत्थो तग्गहणपरिणामो च अदत्तादाणं । ण च पाणादिवाद-मुसावाद-अदत्तादाणाणमंतरंगाणं कोधादिपच्चएसु अंतब्भावो, कधंचि कार्यके उत्पादनमें समर्थ है उसे ही उत्पन्न करेगा, न कि अन्य अशक्य कार्योंको । अतएव उपयुक्त अवस्थाकी सम्भावना नहीं है ? इसके उत्तर में 'समर्थ कारणके द्वारा शक्य ही कार्य किया जाता है' यह चतुर्थ हेतु दिया गया है । अर्थात् कारणमें विद्यमान कार्यजनन रूप शक्ति यदि सर्व कायविषयक है तब तो उपर्युक्त अवस्था ज्योंकी त्यों बनी रहती है। परन्तु यदि वह शक्ति शक्य टादि कार्यविषयक ही है तो भला अविद्यमान घटादि कार्यों में उक्त शक्तिकी सम्भावना ही कैसे की जा सकती है ? अतएव उक्त अव्यवस्थाके निवारणार्थ कार्यको 'सत्' ही स्वीकार करना चाहिये । (५) पाचौं हेतु 'कारणभाव' है। इसका अभिप्राय यह है कि कार्य चूंकि कारणात्मक ही है, उससे भिन्न नहीं है। अतएव सत् कारणसे अभिन्न कार्य कभी असत् नहीं हो सकता। इस प्रकार इन पाँच हेतुओंके द्वारा कार्यके 'सत्' सिद्ध हो जानेपर सत्तादिक धर्मोकी अपेक्षा कार्य अपने कारणसे स्वयमेव अभिन्न सिद्ध हो जाता है। अथवा, 'कारणमें कार्य है। इस विवक्षासे भी कारणसे कार्य अभिन्न है। प्रकृतमें प्राणप्राणिवियोग और वचनकलाप चूंकि ज्ञानावरणीयबन्धके कारणभूत परिणामसे उत्पन्न होते हैं अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबन्धके प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं। शंका-इस प्रकारका व्यवहार किसलिये किया जाता है ? समाधान-सुखपूर्वक ज्ञानावरणीयके प्रत्ययोंका प्रतिबोध करानेके लिये तथा कार्यके प्रतिषेध द्वारा कारणका प्रतिषेध करनेके लिये भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है। अदत्तादान प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ४ ॥ अदत्त अर्थात् नहीं दिये गये पदार्थका आदान अर्थात् ग्रहण करना 'अदत्तादान' है। अदत्तादान ऐसा जो वह प्रत्यय अदत्तादानप्रत्यय, इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है । उस अदत्तादान प्रत्ययके विषयमें ज्ञानावरणीय वेदना होती है। यहाँ भी चूँकि 'जिसके द्वारा ग्रहण किया जाय या जो ग्रहण किया जाय' इस प्रकार आदान शब्दकी निरुक्ति की गई है अतएव उससे अदत्त पदार्थ और उसके ग्रहण करनेका परिणाम दोनों ही अदत्तादान ठहरते हैं। प्राणातिपात, मृषावाद और अदत्तादान इन अन्तरंग प्रत्ययोंका क्रोधादिक प्रत्ययोंमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता, 'अदत्तादाणगहण', ताप्रतौ 'अदचादाणं [ गहणं ]' इति पाठः ब. १२-३६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] -: छपखंडागमे वैयणाखंड [४,२, ८, ५. तत्तो' तेसिं भेदुवलंभादो । एत्थ 'बझगत्थाणं पुव्वं पञ्चयत्तं परूवेदव्यं । ण च पमादेण विणा तियरणसाहणहं गहिदवज्झट्ठो णाणावरणीयपचओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस पञ्चयत्तविरोहादो। (मेहुणपच्चए ॥ ५ ॥ त्थी-पुरिसविसयवावारो मण-वयण-कायसरूवो मेहुणं ) तेण मेहुणपचएण णाणावरणीयवेयणा जायदे । एत्थ वि अंतरंगमेहुणस्सेव बहिरंगमेहुणस्स आसवभावो वत्तव्यो। ण च मेहुणं अंतरंगरागे णिपददि, तत्तो कधंचि एदस्स मेदुवलंमादो। (परिग्गहपञ्चए ॥६॥ (परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणामः। एदेहि परिग्गहेहि णाणावरणीयवेयणा समुपज्जदे । एत्थ बहिरंगस्स परिग्गहस्स पुत्वं व पच्चयभावो वत्तव्यो) (रादिभोयणपच्चए॥ ७॥ भुज्यत इति भोजनमोदनः भुक्तिकारणपरिणामो वा भोजनं । रत्तीए भोयणं क्योंकि, उनसे इनका कथंचित् भेद पाया जाता है। यहाँ बाह्य पदार्थोंको पूर्वमें प्रत्यय बतलाना चाहिये । इसका कारण यह है कि प्रमादके बिना रत्नत्रयको सिद्ध करनेके लिये ग्रहण किया गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीयके बन्धका प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि, जो प्रत्ययसे उत्पन्न नहीं हुआ है उसे प्रत्यय स्वीकार करना विरुद्ध है। मैथुन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ५॥ स्त्री और पुरुषके मन, वचन व काय स्वरूप विषयव्यापरको मैथुन कहा जाता है। उस मैथुनप्रत्यय द्वारा ज्ञानावरणीयकी वेदना होती है। यहाँपर भी अन्तरंग मैथुनके ही समान बहिरंग मैथुनको भी कारण बतलाना चाहिये। मैथुन अन्तरंग रागमें गर्भित नहीं होता, क्योंकि, उससे इसमें कथंचित् भेद पाया जाता है। परिग्रह प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ६ ॥ 'परिगृह्यते इति परिग्रहः' अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है।' इस निरुक्तिके अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है, तथा 'परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः' जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्तिके अनुसार यहाँ बाह्य पदार्थके ग्रहणमें कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है। इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे ज्ञानावरणीयकी वेदना उत्पन्न होती है। यहाँ बहिरंग परिग्रहको पहिलेके समान कारण बतलाना चाहिये। रात्रिभोजन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ।। ७॥ 'भुज्यते इति भोजनम्' अर्थात् जो खाया जाता है वह भोजन है, इस निरुक्तिके अनुसार १ अ-ताप्रत्योः 'कथंचिदत्तो', अआप्रतौ 'कथंचिददत्तो' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'बज्झगंधाणं', ताप्रतौ 'बज्झगंधा (था) णं' इति पाठः।। ........... Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ८,८.] वेयणमहाहियारे वेयणपञ्चयविहाणं [२६३ रादिभोयणं । तेण रोदिभोयणपञ्चएण णाणावरणीयवेयणा समुप्पज्जदे । जेणेदं सुतं देसामासियं तेणेत्थ महु-मांस-पंचुंवर-णिवसण-हुल्ल'भक्खण-सुरापान-अवेलासणादीणं पि णाणावरणपच्चयत्तं परू वेदव्व) एवमसंजमपञ्चओ परूविदो। संपहि कसायपच्चयपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि(एवं कोह-माण-माया-लोह-राग-दोस-मोह-पेम्मपच्चए ॥८॥ हृदयदाहांगकंपाक्षिरागेन्द्रियापाटवादि'निमित्तजीवपरिणामः क्रोधः । विज्ञानश्वर्य-जाति-कुल-तपो-विद्याजनितो जीवपरिणामः औद्धत्यात्मको मानः । स्वहृदयप्रच्छादानार्थमनुष्ठानं माया। बाह्यार्थेसु ममेदं बुद्धिर्लोभः । माया-लोभ-वेदत्रय-हास्य-रतयो रागः । क्रोध मानारति-शोक-जुगुप्सा-भयानि द्वेषः । क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरतिशोक-भय जुगुप्सा-स्त्री-पुं-नपुंसकवेद-मिथ्यात्वानां समूहो मोहः । मोहपञ्चयो कोहादिसु पविसदि त्ति किण्णावणिज्जदे १ ण, अवयवावयवीणं वदिरेगण्णयसरूवाणमणेगेगसंखाणं ओदनको भोजन कहा गया है। अथवा [ भुज्यते अनेनेति भोजनम्' ] इस निरुक्ति के अनुसार आहारग्रहणके कारणभूत परिणामको भी भोजन कहा जाता है। रात्रिमें भोजन रात्रि भोजन, इस प्रकार यहाँ तत्पुरुष समास है । उक्त रात्रिभोजन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीयको वेदना उत्पन्न होती है। चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है अतः उससे यहाँ मधु, मांस, पाँच उदुम्बर फल, निन्ध भोजन और फूलोंके भक्षण, मद्यपान तथा असामयिक भोजन आदिको भी ज्ञानावरणीयका प्रत्यय बत ना चाहिये। इस प्रकार असंयम प्रत्ययकी प्ररूपणा की गई। अब व.षाय प्रत्ययकी प्ररूपणाके लिये आगेका सूत्र कहा जाता है ___इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम प्रत्ययोंसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ८॥ ... हृदयदाह, अंगकम्प, नेत्ररक्तता और इन्द्रियोंकी अपटुता आदिके निमित्तभूत जीवके परिणामको क्रोध कहा जाता है। विज्ञान, ऐश्वर्य, जाति, कुल, तप और विद्या इनके निमित्तसे उत्पन्न उद्धतता रूप जीवका परिणाम मान कहलाता है । अपने हृदय के विचारको छुपानेकी जो चेष्टा की जाती है उसे माया कहते हैं । बाह्य पदार्थों में जो 'यह मेरा है' इस प्रकार अनुराग रूप बुद्धि होती है उसे लोभ कहा जाता है। माया, लोभ, तीन वेद, हास्य और रति इनका नाम राग है। क्रोध, मान, अरति. शोक, जुगुप्सा और भय, इनको द्वेष कहा जाता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व इनके समूहका नाम मोह है। ___ शंका-मोहप्रत्यय चूंकि क्रोधादिकमें प्रविष्ट है अतएव उसे कम क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि क्रमशः व्यतिरेक व अन्वय स्वरूप, अनेक व एक संख्यावाले, १ प्रापतौ 'कुल्ल' इति पाठः । २ तापतौ 'रागैद्रियपाटवादि' इति पाठः ।... Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ८, ९. कारण-कआणं एगाणेगसहावाणमेगत्तविरोहादो। प्रियत्वं प्रेम । एदेसु पादेकं पच्चयसदो जोजणीयो कोहपञ्चए माणपचए मायपच्चए लोहपञ्चए रागपञ्चए दोसपच्चए मोहपच्चए पेम्मपञ्चए त्ति । एदेहि पच्चएहि णाणावरणीयवेयणा समुप्पजदे । पेम्मपच्चयो लोभ-रागपचएसु पविसदि त्ति पुणरुत्तो किण्ण जायदे ? ण, तेहिंतो एदस्स कथंचि भेदुवलंभादो । तं जहा-बज्झत्थेसु ममेदं भावो लोभो । ण सो पेम्मं, ममेदं बुद्धीए अपडिग्गहिदे वि दक्खाहले परदारे वा पेम्सुवलंभादो। ण रागो पेम्मं, माया-लोह-हस्स-रदि-पेम्मसमूहस्स रागस्स अवयविणो अवयवसरूवपेम्मत्त विरोहादो। (णिदाणपच्चए॥६॥ चकवट्टि-बल णारायण-सेहि-सेणावइपदादिपत्थणं णिदाणं) सो पञ्चओ, पमादमूलत्तादो मिच्छत्ताविणाभावादो वा। तेण णाणावरणीयवेयणा संपजदे। ण च एसो पञ्चओ मिच्छत्तपच्चए पविसदि, मिच्छत्तसहचारिस्स मिच्छत्तेण एयत्त विरोहादो। ण पेम्मपचए पविसदि, संपयासंपयविसयम्मि पेम्मम्मि संपयविसयम्मि णिदाणस्स पवेसविरोहादो । किमहं पुधसुत्तारंभो ? मिच्छत्त-कोह-माण-माया-लोभ-राग-दोस-मोह-पेम्मा कारण व कार्य रूप तथा एक व अनेक स्वभावसे संयुक्त अवयव अवयवीके एक होनेका विरोध है। प्रियताका नाम प्रेम है। इनमेंसे प्रत्येकमें प्रत्यय शब्दको जोड़ना चाहिये-क्रोधप्रत्यय, मानप्रत्यय, मायाप्रत्यय, लोभप्रत्यय, रागप्रत्यय, द्वेषप्रत्यय, मोहप्रत्यय और प्रेमप्रत्यय इनके द्वारा ज्ञानावरणीयकी वेदना उत्पन्न होती है। शंका-चूंकि प्रेमप्रत्यय लोभ व रागप्रत्ययों में प्रविष्ट है अतः वह पुनरुक्त क्यों न होगा? समाधान-नहीं, क्योंकि उनसे इसका कथंचित् भेद पाया जाता है । वह इस प्रकारसेबाह्य पदार्थों में 'यह मेरा है' इस प्रकारके भावको लोभ कहा जाता है। वह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि, 'यह मेरा है' ऐसी बुद्धिके अविषयभूत भी द्राक्षाफल अथवा परस्त्रीके विषयमें प्रेम पाया जाता है राग भी प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि, माया, लोभ, हास्य, रति और प्रेमके समूह रूप अवयवी कहलानेवाले रागके अवयव स्वरूप प्रेम रूप होनेका विरोध है। निदान प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ९ ॥ चक्रवर्ती बलदेव, नारायण, श्रेष्ठी और सेनापति आदि पदोंकी प्रार्थना अर्थात् अभिलाषा करना निदान है । वह प्रमादमूलक अथवा मिथ्यात्वका अविनाभावी होनेसे प्रत्यय है । उससे ज्ञानावरणीयकी वेदना उत्पन्न होती है। यह प्रत्यय मिथ्यात्व प्रत्ययमें प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि, वह मिथ्यात्वका सहचारी (अविनाभावी) है, अतः मिथ्यात्वके साथ उसकी एकताका विरोध है ! वह प्रेम प्रत्ययमें भी प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि, प्रेम सम्पत्ति एवं असंपत्ति दोनोंको विषय करने. वाला है, परन्तु निदान केवल सम्पत्तिको ही विषय करता है। अत एव उसका प्रेममें प्रविष्ट होना विरुद्ध है। शंका-निदान प्रत्ययकी प्ररूपणाके लिये पृथक सूत्र किसलिये रचा गया हैं ? Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८५ ४, २, ८, १०.] वेषणमहाहियारे वेयणपञ्चविहाणं दिमूलो अणंतसंसारकारणो णिदाणपच्चो त्ति जाणावणटुं पुध सुत्तारंभो कदो। । अभक्खाण-कलह-पेसुण्ण-रइ-अरइ-उवहि-णियदि'-माण-माय मोसमिच्छणाण-मिच्छदंसण-पओअपच्चए ॥१०॥ क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः परेष्वविद्यमानदोषोभावनमभ्याख्यानम् । क्रोधादिवशादसि-दंडासभ्यवचनादिभिः परसन्तापजननं कलहः । परेषां क्रोधादिना दोषोद्भावनं पैशुन्यम् । नप्त-पुत्र कलत्रादिषु रमणं रतिः । तत्प्रतिपक्षा अरतिः। उपेत्य क्रोधादयो धीयंते अस्मिन्निति उपधिः, क्रोधाद्युत्पत्तिनिवन्धनो बाह्यार्थ उपधिः । सोऽपि ज्ञानावरणीयबन्धनिबन्धनः, तेन विना कषायाभावतो बन्धाभावात् । निकृतिवेचना, मणि-सुवर्ण-रूप्याभासदानतो द्रव्यान्तरादानं निकृतिरित्यर्थः । मानं प्रस्थादिः हीनाधिकगावमापनः । सोऽपि कूटव्यवहारहेतुत्वाद् ज्ञानावरणीयस्य प्रत्ययः । मेयो यव-गोधू. मादिः । सोऽपि ज्ञानावरणीयस्य प्रत्ययः, मातुरसद्व्यवहारस्य निवन्धनत्वात् । कधं मेयस्य मायत्वम् ? नैष दोषः।। ___समाधान-मिथ्यात्व. क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम आदिके निमित्तसे होनेवाला निदान प्रत्यय अनन्त संसारका कारण है; यह बतलने के लिये पृथक सूत्रकी रचना की गई है। __ अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माया, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग, इन प्रत्ययोंसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥१०॥ ____ क्रोध, मान, माया और लोभ आदिके कारण दूसरोंमें अविद्यमान दोषोंको प्रगट करना अभ्याख्यान कहा जाता है । क्रोधादिके वश होकर तलवार, लाठी और असभ्य वचनादिके द्वारा दूसरोंको सन्ताप उत्पन्न करना कलह कहलाता है। क्रोधादिके कारण दूसरोंके दोषोंको प्रगट करना पैशून्य है । नाती, पुत्र एवं स्त्री आदिकांमें रमण करनेका नाम रति हैं। इसकी प्रतिपक्षभूत अरति कही जाती है । 'उपेत्य क्रोधादयो धीयन्त अस्मिन् इति उपधिः' अर्थात् आकरके क्रोधादिक जहाँ पर पुष्ट होते हैं उसका नाम उपधि है, इस निरुक्तिके अनुसार क्रोधादि परिणामोंकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत बाह्य पदार्थको उपधि कहा गया है। वह भी ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण है, क्योंकि, उसके बिना कषायरूप परिणामका अभाव होनेसे बन्ध नहीं हो सकता। निकृतिका अर्थ धोखा देना है, अभिप्राय यह कि नकली मणि सुवर्ण चांदी देकर द्रव्यान्तरको प्राप्त करना निकृति कही जाती है। हीनता व अधिकताको प्राप्त प्रस्थ (एक प्रकारका माप) आदि मान कहलाते हैं । वे भी कूट अर्थात् असत्य व्यवहारके कारण होनेसे ज्ञानावरणीयके प्रत्यय हैं। मापने के योग्य जौ और गेहूँ आदि मेय कहे जाते हैं । वे भी ज्ञानावरणीयके प्रत्यय हैं, क्योंकि, वे मापनेवालेके असत्य व्यवहारके कारण हैं।। शंका-मेयके स्थानमें माय शब्दका प्रयोग कैसे दिया गया ह .. १ अ-आप्रत्योः 'णयरदि' इति पाठः। २ अ-अाप्रत्योः 'माया', इति पाठः। । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] डागमे वेयणाखंड 'एए छच्च समाणा दोषिण य संझक्खरा सरा अट्ठ । अण्णोष्णस्स परोप्पर मुर्वेति सव्वे समावेस ' ॥ ३ ॥ इत्यनेन सूत्रेण प्राकृते एकारस्य आकारविधानात् । मोषस्तेयः । ण मोसो अदतादाणे पविस्सदि, हदपदिदपमुकणिहिदादाणविसयम्मि अदत्तादाणम्मि एदस्स पवेस - विरोहादो । बौद्ध-नैयायिक सांख्य-मीमांसक चार्वाक-वैशेषिकादिदर्शन रुच्यनुविद्धं ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् । मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताणि मिच्छदंसणं । मण वचि कायजोगा" पओओ । देहि सव्वेहि णाणावरणीयवेयणा समुप्पजदे । कोध-माण- माया-लोभ-राग-दोस-मोहपेम्म णिदाण- अभक्खाण- कलह-पेसुण्ण-रदि- अरदि-उवहिणियदि माण- माय - मोसेहि कसापच्चओ परुविदो । मिच्छणाण-मिच्छदंसणेहि मिच्छत्तपच्चओ णिद्दिट्ठो । पत्रऐण जोगवच्चओ परुविदो । पमादपच्च ओ एत्थ किण्ण वृत्तो ! ण, एदेहिंतो बज्भपादावलंभादो । कधमेयं कज्जमणेगेहिंतो उप्पज्जदे ? ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघस्स अण्णादो वि उत्पत्तिदंसणादो । पुरिसं पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचण ४ [ ४, २, ८, १०. समाधान - 'यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अ, आ, इ, ई, उ और ऊ, ये छह समान स्वर और ए व ओ, ये दो सन्ध्यक्षर, इस प्रकार ये सब आठ स्वर परस्पर आदेशको प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥' इस सूत्र से प्राकृत में एकारके स्थान में आकार किया गया है। मोषका अर्थ चोरी है । यह मोष अदत्तादान में प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि हृत, पतित, प्रमुक्त और निहित पदार्थ के ग्रहणविषयक अदत्तादान में इसके प्रवेशका विरोध है । बौद्ध, नैया' यिक, सांख्य, मीमांसक, चर्वाक और वैशेषिक आदि दर्शनों की रुचिसे सम्बद्ध ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है । मिथ्यात्व के समान जो हैं वे भी मिथ्यात्व है, उन्हींको मिथ्यादर्शन कहा जाता है । मन, वचन एवं कायरूप योगों को प्रयोग शब्द से ग्रहण किया गया है । इन सबसे ज्ञानावरणीयकी वेदना उत्पन्न होती है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति उपधि, निकृति, मान, माया और मोष, इनसे कषाय प्रत्ययकी प्ररूपणा की गई है । मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शनसे मिथ्यात्व प्रत्ययकी प्ररूपणा की गई है। प्रयोगसे योग प्रययकी प्ररूपणा की गई है । शंका- यहां प्रमाद प्रत्यय क्यों नहीं बतलाया गया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इन प्रत्ययोंसे बाह्य प्रमाद प्रत्यय पाया नहीं जाता । शंका- -एक कार्य अनेक कारणोंसे कैसे उत्पन्न होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, एक कुम्भकारसे उत्पन्न किये जानेवाले घटकी उत्पत्ति अन्यसे भी देखी जाती है । यदि कहा जाय कि पुरुषभेद से पृथक् पृथक् उत्पन्न होनेवाले कुम्भ, उदवन १ क० पा० १, पृ० ३२६, तत्र 'अण्णोण्णस्स परीप्परं' इत्येतस्य स्थाने 'अण्णोण्णरसविरोहा' इति पाठः । २ अ प्रत्योः 'पम्मूह', ताप्रतौ 'पण्णव' इति पाठः । ३ - श्रापत्योः 'पदेस' इति पाठः । ४ -'श्रप्रत्योः 'मिच्छत्ता मिच्छ-', 'मिच्छत्ताणि मिच्छा-' इति पाठः । ५ ताप्रतौ 'कायजोवा (गा )' इति पाठः । ताप्रतौ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,२,८, ११] वेयणमहाहियारे वेयणपच्चयविहाणं [२८७ सरावादरओ दीसंति ति चे १ ण, एत्थ वि कमभाविकोधादीहिंतो उप्पजमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंमादो। णाणावरणीयसमाणत्तणेण तदेकं चे? ण, बहूहितो समुप्पजमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तवलंभादो। होदु णाम णाणावरणीयस्स एदे पच्चया णइगम-ववहारणएसु, ण संगहणए; तत्थ उपसंहारिदासेसकजकारणकलावे कारणभेदाणुववत्तीदो ? ण, संगहम्मि पहाणीकयम्मि संगहिदासेसविसेसम्हि कज-कारणमेदुववत्तीदो। (एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ११ ॥ जहा णाणावरणीयस्स पचयपरूवणा कदा तहा सेससत्तणं पच्चयपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगपञ्चएहि परिणयजीवेण सह एगोगाहणाए द्विदकम्मइयवग्गणाए पोग्गलक्खंधा एयसरूवा कधं जीवसंबंधेण अट्ठभेदमाढ उकते १ ण, मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगपञ्चया'वटुंभवलेण समुप्पण्णट्ठसत्तिसंजुत्तजीवसंबंधेण कम्महयपोग्गलक्खंधाणं अट्ठकम्मायारेण परिणमणं पडि विरोहाभावादो। व शराव आदि भिन्न भिन्न कार्य देखे जाते हैं तो इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकोंसे उपन्न होनेवाले ज्ञानावरणीय कर्मका द्रव्यादिकके भेदसे भेद पाया जाता है। . शंका-ज्ञानावरणीयत्वकी समानता होनेसे वह ( अनेक भेद रूप होकर भी) एक ही है ? समाधान-इसके उत्तरमें कहते हैं कि इस प्रकार यहाँ भी बहुतोंके द्वारा उत्पन्न किये जानेवाले घटोंके भी घटत्व रूपसे अभेद पाया जाता है। शंका- नैगम और व्यवहार नयको अपेक्षा ये भले ही ज्ञानावरणीयके प्रत्यय हों, परन्तु संग्रह नयकी अपेक्षा वे उसके प्रत्यय नहीं हो सकते; क्योंकि, उसमें समस्त कार्य-कारण समूहका उपसंहार होनेसे कारणभेद बन नहीं सकता ? . समाधान - नहीं, क्योंकि, संग्रह नयको प्रधान करनेपर समस्त विशेषोंका संग्रह होते हुए भी कार्य कारणभेद बन जाता है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के प्रत्ययोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥११॥ जैसे ज्ञानावरणीय कर्मके प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही शेष सात कर्मों के भी प्रत्ययोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। शंका-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग प्रत्ययोंसे परिणत जीवके साथ एक अवगा. हनामें स्थित कामण वगणाके पौद्गलिक स्कन्ध एक स्वरूप होते हुए जीवके सम्बन्धसे कैसे आठ भेदको प्राप्त होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययोंके आश्रयसे उत्पन्न हुई आठ शक्तियोंसे संयुक्त जीवके सम्बन्धसे कार्मण पुद्गल-स्कन्धोंका आठ कर्मों के भाकारसे परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है। १ प्रतिषु 'पजाया-' इति पाठः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ८, १२ (उज्जुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा जोगपञ्चए पयडिपदेसग्गं ॥ १२ ॥ ) पडदेस जादणाणावरणीयवेयणा जोगपच्चए जोगपच्चएण होदि, पर्याडपदेसग्गमिदि किरियाविसेसणत्तेण अन्भुवगदत्तादो। ण च जोगवड्डि-हाणीयो मोत्तूण अण्णेहिंतो णाणावरणीयपदेसग्गस्स वड्डि हाणि' वा पेच्छामो । तम्हा णाणावरणीयपदेसग्गवेयणा जोगपश्च्चएण होदु णाम, ण पयडिवेयणाजोगपच्चएण होदि; तत्तो तिस्से वड्डिहाणीमवलंभादोत्ति भणिदे - ण, जोगेण विणा पाणावरणीयपयडीए पादुब्भावादंसणादो जेण विणा जं नियमेण गोवलब्भदे तं तस्स कज्जमियरं च कारणमिदि सयलणइयाइय अजणप्पसिद्धं । तम्हा पदेसग्गवेयणा व पयडिवेयणा वि जोगपच्चएणे ति सिद्धं । २८८ ] कसायपञ्चए हिदि- अणुभागवेयणा ॥ १३ ॥ णाणावरणीय द्विदिवेषणा अणुभागवेयणा च कसायपच्चरण होदि, कसायवड्डिहाणीहिंतो हिदि-अणुभागाणं वड्डि- हाणिदंसणादो। ण पाणादिवाद-मुसावादादत्तादाणमेहुण परिग्गह-रादिभोयणपच्चर णाणावरणीयं बज्झदि, तेण त्रिणा वि अप्पमत्तसजदा दिसु ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना योगप्रत्ययसे प्रकृति व प्रदेशाग्ररूप होती है ॥ १२ ॥ प्रकृति व प्रदेशाग्र स्वरूपसे उत्पन्न ज्ञानावरणीयकी वेदना योगप्रत्ययके विषयमें अर्थात् योग प्रत्यय से होती है, क्योंकि, 'पयडि-पदेसग्गं' इस पदको सूत्र में क्रियाविशेषण रूप स्वीकार किया गया है । शंका- चूंकि योगों की वृद्धि अथवा हानिको छोड़कर अन्य कारणोंसे ज्ञानावरणीयके प्रदेश की हानि अथवा वृद्धि नहीं देखी जाती है, अतएव ज्ञानावरणीयकी प्रदेशाप्रवेदना भले ही योग प्रत्यय से हो; परन्तु उसकी प्रकृतिवेदना योग प्रत्यय से नहीं हो सकती, क्योंकि, उससे इसकी प्रकृति वेदनाकी वृद्धि व हानि नहीं पायी जाती है। समाधान- इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगके विना ज्ञानावरणीयकी प्रकृतिवेदनाका प्रादुर्भाव नहीं देखा जाता। जिसके बिना जो नियमसे नहीं पाया जाता है वह उसका कार्य व दूसरा कारण होता है, ऐसा समस्त नैयायिक जनोंमें प्रसिद्ध है । इस कारण प्रदेशाप्रवेदना के समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्ययसे होती है, यह सिद्ध है । कषाय प्रत्ययसे स्थिति व अनुभाग वेदना होती है ।। १३ ।। ज्ञानावरणीय की स्थितिवेदना और अनुभागवेदना कषायसे होती है, क्योंकि, कषायकी वृद्धि और हानिसे स्थिति व अनुभागकी वृद्धि व हानि देखी जाती है । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन प्रत्ययोंसे ज्ञानावरणीयका बन्ध नहीं होता है, १ प्रतिषु ' वड्डिहाणि' इति पाठः । २ प्रतिषु 'जोगेण वि णाणा-' इति पाठः । ३ ताप्रतौ 'पादुब्भावा (व)' दंसणादो' इति पाठः । ४ श्रप्रतौ 'पदेसग्गवेयणो व' ताप्रतौ 'पदेसग्गो - ( ग्ग ) वेयणो (णे ) व' इति पाठः । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८ ४, २, ८, १३.] वेयणमहाहियारे वेयणपच्चयविहाणं बंधुवलंभादो। ण कोह-माण-माय-लोमेहि बझा, कम्मोदइल्लाणं तेसिमुदयविरहिदद्धाए तब्बंधुवलंभादो। ण णिदाणभक्खाण-कलह-पेसुण्ण-रइ-अरह-उवहि-णियदि-माण-मायमोस-मिच्छाणाण मिच्छदसणेहि, तेहि विणा वि सुहुमसपिराइयसंजदेसु तब्बंधुवलंभादो। यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोग-कसाएहि चेव होदि ति सिद्धं । वुत्तं च जोगा पडि-पदेसे हिदि अणुभागे कसायदो कुणदि' ॥४॥ जदि एवं तो दव्याट्ठियणएसु पुविल्लेसु तीसु वि पाणादिवादादीणं पञ्चयत्तं कत्तो जुजदे ? ण, तेसु संतेसु णाणावरणीयपंधुवलंभादो। नावश्यं कारणाणि कार्यवन्ति भवन्ति, कुम्भमकुर्वत्यपि' कुम्भकारे कुम्भकारव्यवहारोपलम्भात् । ण च पर्यायभेदेन वस्तुनो मेदः, तद्व्यतिरिक्तपर्यायाभावात् सकललोकव्यवहारोच्छेदप्रसंगाच। न्यायश्चच्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम् , न तद्वहिर्भूतो न्यायः, तस्य न्यायाभासत्वात् । ततस्तत्र तेषां कारणत्वं युज्यत इति । ......... क्योंकि, उनके बिना भी अप्रमत्तसंयतादिकों में उसका बन्ध पाया जाता है। क्रोध, मान, माया व लोभसे भी उसका बन्ध नहीं होता, क्योंकि, कर्मके उदयसे होनेवाले उक्त क्रोधादिकोंके उदयसे रहित कालमें भी उसका बन्ध पाया जाता है। निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन इनसे भी उसका बन्ध नहीं होता, क्योंकि, उनके बिना भी सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें उसका बन्ध पाया जाता है। जो जिसके होनेपर ही होता है और जिसके न होनेपर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इसी कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषायसे ही होती है, यह सिद्ध होता है। कहा भी है 'योग प्रकृति व प्रदेशको तथा कषाय स्थिति व अनुभागको करती है ॥४॥ शंका-यदि ऐसा है तो पूर्वोक्त तीनों ही द्रव्यार्थिक नयोंकी अपेक्षा प्राणातिपातादिकोंको प्रत्यय बतलाना कैसे उचित है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनके होनेपर ज्ञानावरणीयका बन्ध पाया जाता है। कारण कार्यवाले अवश्य हों, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, घटको न करनेवाले भी कुम्भकार के 'कुम्भकार' शब्दका व्यवहार पाया जाता है। दूसरे पर्यायके भेदसे वस्तुका भेद नहीं होता है, क्योंकि, वस्तुसे भिन्न पर्यायका अभाव है, तथा इस प्रकारसे समस्त लोक व्यवहारके नष्ट होनेका भी प्रसंग आता है । न्यायकी चर्चा लोक व्यवहारकी प्रसिद्धिके लिये ही की जाती है। लोकव्यवहारके बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल न्यायाभास ही है। इसीलिये उक्त प्राणातिपातादिकोंको प्रत्यय बतलाना योग्य ही है। १ जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागा कसायदो होति । गो० क० २५७ । २ प्रतिषु 'कुम्भमकुम्भयत्यपि इति पाठः। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ८, १४. एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १४॥ सव्वेसिं कम्माणं डिदि-अणुभाग-पयडि-पदेसमेदेण बंधो चउविहो चेव । तत्थ पयडि-पदेसा जोगादो ठिदि-अणुभागा कसायदो त्ति सत्तण्णं पि दो चेव पचया होति । कधं दो चेव पञ्चयो अट्टण्णं कम्माणं बत्तीसाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत्तं पडिवज्जते ? ण, असुद्धपज्जवट्टिए उजुसुदे अणंतसत्तिसंजुत्तेगदव्वत्थित्तं पडि विरोहा. भावादो । वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो' ण तत्थ दवमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते-ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपजाए पडुच्च अवट्टियस्म सगासेसावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमावण्णम्स' वत्थुस्स अणप्पिदपज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अस्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि। (सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥ १५ ॥) कुदो ? तत्थ समासाभावादो । तं जहा-पदाणं समासो णाम किमत्थगओ पदगओ तदुभयगदो वा ? ण ताव [अत्थगओ, दोण्णं पदाणमत्थाणमेयत्ताभावादो। ण जिस प्रकार ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयके प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोके प्रत्ययोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥१४॥ स्थिति, अनुभाग, प्रकृति और प्रदेशके भेदसे सब कर्मोंका बन्ध चार प्रकार ही है। उनमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, इस प्रकार सातों ही कर्मोंके दो ही प्रत्यय होते हैं। ___शंका-उक्त दो ही प्रत्यय आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप बत्तीस बन्धोंकी कारणताको कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि अशुद्धपर्यायार्थिक रूप ऋजुसूत्र नयमें अनन्त शक्ति युक्त एक द्रव्यके अस्तित्वमें कोई विरोध नहीं है। शंका-वर्तमान कालविषयक ऋजुसूत्र नयकी विषयभूत वस्तुका द्रवण नहीं होनेसे चूंकि उसका विषय द्रव्य हो नहीं सकता, अतः ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? समाधन-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि, वर्तमानकाल व्यंजनपर्यायोंका पालम्बन करके अवस्थित है एवं अपने समस्त अवयवोंको प्राप्त है अतः उसके दव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा, विवक्षित पर्यायसे वर्तमानताको प्राप्त वस्तुकी अविवक्षित पर्यायोंमें द्रवणका विरोध न होनेसे ऋजुसूत्र नयके विषयमें द्रव्य सम्भव ही है। शब्द नयकी अपेक्षा अवक्तव्य है ॥ १५ ॥ कारण यह है कि उस नयमें समासका अभाव है । वह इस प्रकारसे-पदोंका जो समास होता है वह क्या अर्थगत है, पदगत है, अथवा तदुभयगत है ? अर्थगत तो हो नहीं सकता, १ अ-आप्रत्योः 'दमणाभावादो' इति पाठः। २ अ-श्रापत्योः '-मावसण्णस्स' इति पाठः। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २,८, १५.] वैयणमहाहियारे वेयणपञ्चयविहाणं [२६१ ताव ] दोण्णं पदाणमत्थाण'मेयसं, तस्स आधाराभावादो। ण ताव पुन्वपदमाधारो, उत्तरपदुच्चारणस्स विहलत्तप्पसंगादो। ण उत्तरपदं पि, पुवपदुच्चारणस्स णिप्फलत्तप्पसंगादो। ण दो वि पदाणि आहारो, एयस्स णिरवयवस्स दोसु अवट्ठाणविरोहादो। ण च दोसु अत्थेसु एयत्तमावण्णेसु समासो वि अस्थि, दुब्भावेण विणा समासविरोहादो । ण पदगो वि, दोसु वि पदेसु एयत्तमावण्णेसु दोण्णं पदाणमसवण्ण'प्पसंगादो । ण च एवं, दोहिंतो वदिरित्ततदिएग पदाणुवलंभादो । उवलंभे वा ण सो समासो, दुब्भावेण विणा समासविरोहादो । णोभयगदो वि,उभयदोसाणुसंगादो । तम्हा समासो पत्थि त्ति सिद्धं । तेण जोगसद्दो जोगत्थं भणदि, पच्चयसद्दो पञ्चयटुं भणदि त्ति दोहि वि पदेहि एगो अत्थो ण परूविजदे । तेण जोगपचए पयडि-पदेसग्गं, कसायपचए हिदि-अणुभोगवेयणा इदि अवत्तव्वं । अधवा, ण संतं कन्जमुप्पज्जदि, संतस्स उप्पत्तिविरोहादो । ण चासंतं, खरसिंगस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो । ण च संतमसंतं उप्पज्जदि', उभयदोसाणुसंगादो। तदो कज्जकारण कि दो पदोंके अर्थों में एकता सम्भव नहीं है। दो पदों के अर्थों में एकता इसलिये सम्भव नहीं है कि उसके आधारका अभाव है। यदि आधार है तो क्या उसका पूर्व पद आधार है अथवा उत्तर पद ? पूर्व पद तो आधार हो नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर उत्तर पदका उच्चारण निष्फल ठहरता है। उत्तर पद भी आधार नहीं हो सकता, क्योंकि, इस प्रकारसे पूर्व पदका उच्चारण व्यर्थ ठहरता है। दोनों पद भी आधार नहीं हो सकते, क्योंकि, निरवयव एक अर्थका दो अवस्थान विरुद्ध है । यदि कहा जाय कि एकताको प्राप्त हुए दो अर्थों में समास हो सकता है, सो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, द्वित्वके विना समासका विरोध है। पद्गत (द्वितीय पक्ष ) समास भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, दोनों पदोंके एकताको प्राप्त होनेपर दोनों पदोंके असवर्णताका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि, दो पदोंको छोड़कर कोई तृतीय एक पद पाया नहीं जाता। अथवा यदि पाया जाता है तो वह समास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, द्वित्वके विना समासका विरोध है । उभय (अर्थ व पद ) गत भी समास नहीं हो सकता, क्योंकि, दोनों पक्षों में दिये गये दोषोंका प्रसंग आता है। इस कारण समास सम्भव नहीं है, यह सिद्ध है। अब समासका अभाव होनेसे चूंकि योग शब्द योगार्थको कहता है और प्रत्यय शब्द प्रत्ययार्थको कहता है, अतः दोनों ही पदोंके द्वारा एक अर्थकी प्ररूपणा नहीं की जा सकती है । इसो कारण शब्द नयकी अपेक्षा 'योगप्रत्ययसे प्रकृति व प्रदेशाग्ररूप तथा कषाय प्रत्ययसे स्थिति व अनुभाव रूप वेदना होती है' यह कहा नहीं जा सकता। ___ अथवा, सत् कार्य तो उत्पन्न होता नहीं, है, क्योंकि सत्की उत्पत्तिका विरोध है। असत् कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर गधेके सींगकी भी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। सदसत् कार्य भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, इसमें दोनों पक्षों में दिये गये दोषोंका प्रसंग १ अ-आप्रत्योः ‘पदाणमद्धाण', ताप्रतौ ‘पदाणमद्धा (स्था) ण-' इति पाठः।' २ अ-आप्रत्योः -मस्सवण्ण-,ताप्रतौ'-मस्सवण-' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'तदिएण' इति पाठः। ४-अापत्योः 'संगदो' इति पाठः। ५ श्राप्रती 'संतमसंतं च उप्पज्जदि' इति पाठः। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bird वैयणाखंड [ ४, २, ८, १५. २९२ ] कारणभावो णत्थि त्ति णाणावरणीयपयडि-पदेसग्गवेयणा जोगपच्चए, ट्ठिदि-अणुभागवेयणा कसायपच्चए ति अवत्तव्वं । अधवा, ण समाणकाले वट्टमाणाणं कज्ज-कारणभावो जुज्जदे, दोपणं संताणमसंताणं संतासंताणं च कज्ज - कारणभावविरोहादो । अविरोहे वा एगसमए चैव सव्वं उपज्जिदूण विदियसमए कज्ज - कारणकलावस्स णिम्मूलप्पलओ हज्ज | ण च एवं तह । णुवलंभादो । ण च भिण्णकालेसु वट्टमाणाणं कज्ज - कारणभावो, दोष्णं संताणमसंताणं च कज्जकारणभावविरोहादो । ण च संतादो असंतस्स उप्पत्ती, विकादो' गयणकुसुमाणं पि उप्पत्तिप्पसंगादो। ण च असंतादो संतस्स उप्पत्ती, गद्दहसिंगादो दद्दरूष्पत्तिप्पसंगादो । ण च असंतादो असंतस्स उत्पत्ती, गद्दहसिंगादो गयणकुसुमाणमुपपत्तिप्पसंगा । तदो कज्ज-कारणभावो णत्थि त्ति अवत्तव्यं । अधवा, तिण्णं सद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंधोदयजणिदअण्णाणं वेचणा । णसा जोग-कसाएहिंतो उष्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उष्पत्तिविरोहादो | णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो उप्पज्जदि, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो । तेण तिष्णं सद्दणयाणं णाणावरणीयवेयणापचओ अवत्तव्वो । आता है । इस कारण कार्यकारणभाव न बन सकनेसे 'ज्ञानावरणीयको प्रकृति व प्रदेशाम रूप वेदना योगप्रत्ययसे तथा स्थिति व अनुभागरूप वेदना कषायाप्रत्ययसे होती है' यह उक्त नयकी अपेक्षा अवक्तव्य है । अथवा, समानकालमें वर्तमान वस्तुओं में कार्यकारणभाव युक्त नहीं है, क्योंकि, उन दोनोंके सत्, असत् व उभय, इन तीनों पक्षों में कार्य-कारणका विरोध है । और यदि विरोध न माना जाय तो एक समय में ही समस्त कार्यके उत्पन्न हो जानेपर द्वितीय समयमें कार्य-कारण कलापका निर्मूल नाश हो जावेगा । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । समास - कालसे भिन्न कालों में भी वर्तमान उनके कार्य-कारणभाव नहीं बनता, क्योंकि, उन दोनोंके सत्, असत् व उभय, इन तीनों पक्षों में कार्यकारणभावका विरोध है । यदि सत्से असत् की उत्पत्ति स्वीकार की जाय तो वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर विन्ध्याचल से आकाश कुसमोंके भी उत्पन्न होने का प्रसंग आत्ता है । असत्से सत्की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर असत् गर्दभसगसे मेंढककी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। इसी प्रकार असत्से असत्की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर गर्दभसींगसे आकाशकुसुमोंके उत्पन्न होनेका प्रसंग आता है । इस कारण चूंकि कार्य-कारणभाव बनता नहीं है, अतएव ज्ञानावरणकी वेदना अवक्तव्य है । अथवा तीनों शब्द नयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी पौद्गलिक स्कन्धों के उदयसे उत्पन्न अज्ञानको ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है । परन्तु वह योग व कषायसे उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है उससे शक्ति विशेषकी उत्पति माननेमें विरोध है । तथा उदयगत कर्म द्रव्यस्कन्ध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि, [इन नयोंमें] पर्यायोंसे भिन्न द्रव्य का अभाव है । इस कारण तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदनाका प्रत्यय अवक्तव्य है । १ आ-ताप्रत्योः 'विज्झादो' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'अण्णाणवेयणा' इति पाठः । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६ ४,२,८,१६.] वेयणमहाहियारे वेयणपञ्चयाविहाणे एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१६॥ सुगम । एवं वेयणपचयविहाणे ति समत्तमणिगोगद्दारं । इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषयमें भी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ १६ ॥ यह सूत्र सुगम है विशेषार्थ-यहां सात नयों की अपेक्षा कौन वेदना किस प्रत्ययसे होती है यह बतलाया गया है । नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं इसलिए इनकी अपेक्षा ज्ञानावरण आदिके बन्ध प्राणातिपात आदि जितने भी कारण होते हैं अर्थात् जिनके सद्भावमें ज्ञानावरणादि कर्मोका बन्ध होता है वे सब प्रत्यय कहे जाते हैं । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा प्रकृति और प्रदेशबन्ध योगप्रत्यय और स्थिति व अनुभागबन्ध कषाय प्रत्यय होता है। कारण कि बन्धके ये दो ही साक्षात् प्रत्यय हैं । यद्यपि ऋजुसूत्रनय कार्य-कारणभावको ग्रहण नहीं करता परन्तु अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें यह सब बन जाता है इसलिए उक्त प्रकारसे कथन किया है। इस प्रकार वेदनप्रत्ययविधान अनुयोग द्वार समाप्त हुआ। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वेयणसामित्तविहाणाणियोगद्दार वेयणसामित्तविहाणे ति ॥ १॥ मंदमेहावीणमंतेवासीणमहियारसंभालणहमिदं सुत्तं परविदं । जं जेण कम्मं बद्धं तस्स' वेयणाए सो चेव सामी होदि ति विणोवदेसेण णजदे। तम्हा वेयणसामित्तविहाणे ति अणिओगद्दारं णाढवेदव्यमिदि. १ जदि जदो उप्पण्णो तत्थेव चिटेज कम्मक्खंधो तो सो चेव सामी होज । ण च एवं, कम्माणमेगादो उप्पत्तीए अभावादो । तं जहा–ण ताव जीवादो चेव कम्माणमुप्पत्ती, कम्मविरहिदसिद्धेहितो वि कम्मुप्पत्तिप्पसंगा । णाजीवादो चेव, जीववदिरित्तकालपोग्गलाकासेहितो वि तदुप्पत्तिप्पसंगादो। 'णासमवेदजीवाजीवेहिंतो चेव समुप्पजदि, सिद्धजीवपोग्गलहितो वि कम्मुप्पत्तिप्पसंगादो। ण च संजुत्तेहिंतो चेव तदुप्पत्ती, संजुत्तजीव-पोग्गलेहिंतो कम्मुप्पत्तिप्पसंगादो। अब वेदनस्वामित्व विधान प्रकृत है ॥१॥ मन्दबुद्धि शिष्योंको अधिकारका स्मरण कराने के लिये यह सूत्र कहा गया है। शंका-जिस जीवके द्वारा जो कर्म बांधा गया है वह उक्त कर्मकी वेदनाका स्वामी है, यह विना उपदेशके ही जाना जाता है। अत एव वेदनस्वामित्वविधान अनुयोगद्वारको प्रारम्भ नहीं करना चाहिये? समाधान-कर्मस्कन्ध जिससे उत्पन्न हुआ है वहाँ ही यदि वह स्थित रहे तो वही स्वामी हो सकता है। परन्तु ऐसा है नहीं; क्योंकि, कोंकी उत्पत्ति किसी एकसे नहीं है। इसीको स्पष्ट करते हैं यदि केवल जीवसे ही कर्मोंकी उत्पत्ति स्वीकार की जाय तो वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे कर्म रहित सिद्धोंसे भी कर्मोकी उत्पत्तिका प्रसंग आ सकता है । एकमात्र अजीवसे भी कर्मोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि, ऐसा होनेपर जीवसे भिन्न काल, पुद्गल एवं आकाशसे भी कर्मोंकी उत्पत्तिका प्रसंग अनिवार्य होगा। असमवेत (समवाय रहित) जीव व अजीव दोनोंसे भी कर्मोकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर [ समवाय रहित ] सिद्ध जीव और पुद्गलसे भी कर्मोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। इस प्रसंगके निवारणार्थ यदि संयुक्त जीव व अजीवसे ही कोंकी उत्पत्ति स्वीकार की जाती है तो वह भी नहीं बन सकती, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर संयुक्त जीव और पुद्गलसे भी उनकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। १ श्रा-ताप्रत्योः तिस्से' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः 'णादवेदव्वमिदि' पाठः। ३ प्रतिषु 'तदो' इति पार।४ताप्रतौ 'णो[अ] जीवादो' इति पाठः।५मप्रतिपाठोऽयम् । अ-पा-ताप्रतिषु 'ण समवेद' इति पाठः। ताप्रती 'संजुतेहिंत्तो' इति पाठः। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९५ ४, २, ३,२] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तविहाणे ण समवेदजीवाजीवेहितो वि तदुप्पत्ती, अजोगिस्स वि कम्मबंधप्पसंगादो । तम्हा मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणणक्खमपोग्गलदव्वाणि जीवो च कम्मबंधस्स कारणमिदि द्विदं। सो च जीव-पोग्गलाणं बंधो पवाहसरूवेण आदिविरहियो, अण्णहा अमुत्त-मुत्ताणं जीव. पोग्गलाणं बंधाणुववत्तीदो। बंधवत्तिं पडुच्च सादि-संतो, अण्णहा एगम्हि जीवे उप्पण्णदेवादिपज्जायाणमविणासप्पसंगादो । तम्हा दोहिंतो' तीहिं चदुहि वा उप्पन्जिय जीवम्मि एगीभावेण द्विदवेयणा तत्थ एगस्स चेव होदि, अण्णस्स ण होदि त्ति ण वोत्तसक्किजदे । एवं जादसंदेहस्स अंतेवासिस्स मदिवाउलविणासणटुं वेयणसामित्तविहाणमाढ. वेदव्य'मिदि। णेगम-ववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा ॥२॥ एत्थ वा सद्दा सव्वे समुच्चय? दट्टव्वा । सिया सद्दा दोण्णि-एक्को किरियाए वाययो, अवरो णइवादियो, तत्थ कस्सेदं गहणं ? णइवादियो घेत्तव्यो, तस्स अणेयंते वुत्तिदंसणादो। सव्वहाणियमपरिहारेण सो सव्वत्थपरूवओ,पमाणाणुसारित्तादो । उत्तं च इस आपत्तिको टालनेके लिये यदि समवेत (समवाय प्राप्त ) जीव व अजीवसे उनकी उत्पत्ति स्वीकार करते हैं तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर [ कर्मसमवेत ] अयोगकेवलीके भी कर्मबन्धका प्रसंग अवश्यम्भावी है। इस कारण मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगको उत्पन्न करने में समर्थ पुद्गल द्रव्य और जीव कर्मबन्धके कारण हैं, यह सिद्ध होता है। वह जीव और पुद्गलका बन्ध भी प्रवाह स्वरूपसे आदि विरहित अर्थात् अनादि है, क्योंकि, इसके विना क्रमशः अमर्त और मत जीव व पुद्गलका बन्ध बन नहीं सकता। बन्धविशेषकी अपेक्षा वह बन्ध सादि व सान्त है, क्योंकि इसके बिना एक जीवमें उत्पन्न देवादिक पर्यायोंके अविनश्वर होनेका प्रसंग भाता है । इस कारण दो, तीन अथवा चारसे उत्पन्न होकर जीवमें एक स्वरूपसे स्थित वेदना उनमेंसे एकके ही होती है, अन्यके नहीं होती, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार सन्देहको प्राप्त शिष्य की बुद्धिव्याकुलताको नष्ट करनेके लिये वेदनस्वामित्व विधानको प्रारम्भ करना योग्य है। नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानानरणीयकी वेदना कथंचित् जीवके होती है ॥ २॥ यहाँ सूत्रोंमें प्रयुक्त सब वा शब्दोंको समुच्चय अर्थमें समझना चाहिये । स्यात् शब्द दो हैंएक क्रियावाचक और दूसरा अनेकान्त वाचक । उनमें यहाँ किसका ग्रहण है ? यहाँ अनेकान्त वाचक स्यात् शब्दको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, उसकी अनेकान्त में वृत्ति देखी जाती है । उक्त स्यात् शब्द 'सर्वथा' नियमको छोड़कर सर्वत्र अर्थकी प्ररूपणा करनेवाला है, क्योंकि, वह प्रमाणका अनुसरण करता है। कहा भी है १ ताप्रतौ ‘दोहिं [तो]' इति पाठः । २ अप्रतौ 'वाउस', आप्रतौ 'वानोश्र' इति पाठः।। अ-श्राप्रत्योः मदवेदव्य' इति पाठः । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ३. (सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः' । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥१॥ ततः स्याजीवस्य वेदना । तं जहा-अणंताणंत विस्सासुवचयसहिदकम्मपोग्गल. खंधो सिया जीवो, जीवादो पुधभावेण तदणुवलंभादो। ण च अभेदे संते एगजोगक्खेमदा णत्थि त्ति वोत्त जुत्तं, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। एवं विहविवक्खाए सिया जीवस्स वेयणा त्ति सिद्धं। सिया णोजीवस्स वा ॥३॥ णोजीवो णाम अणंताणंतविस्सासुवचएहि उवचिदकम्मपोग्गलक्खंधो पाणधार. णाभावादो णाण-दसणाभावादो वा। तत्थतणजीवो वि सिया: णोजीवो; तत्तो पुधभूदस्स तस्स अणुवलंभादो। तदो' सिया णोजीवस्स वेयणा । कथमभिण्णे छट्ठीणिदेसो ? ण, खहरस्स खंभो त्ति अभेदे वि छट्ठीणिद्देसुवलंभादो । एदाणि दो वि सुत्ताणि संगहियणेगमस्स वि जोजेदव्वाणि, बहूणं पि जीव-णोजीवाणं जादिदुवारेण एयत्तववत्तीदो। सिया जीवाणं वा ॥४॥ हे अरजिन ? आपके न्यायमें 'सर्वथा' नियमको छोड़कर यथादृष्ट वस्तुकी अपेक्षा रखनेवाला 'स्यात्' शब्द पाया जाता है। वह आत्मविद्वेषी अर्थात् अपने आपका अहित करनेवाले अन्यके यहाँ नहीं पाया जाता ॥१॥ इस कारण कथंचित् जीवके वेदना होती है। वह इस प्रकार-अनन्तानन्त विस्रसोपचय सहित कर्मपुद्गलस्कन्ध कथश्चित् जीव है, क्योंकि, वह जीवसे पृथक् नहीं पाया जाता। अभेद होनेपर एक योग-क्षेमता (अभीष्ट वस्तुका लाभ व संरक्षण) नहीं रहेगी, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। इस प्रकारकी विवक्षासे कथंचित् जीवके वेदना होती है, यह सिद्ध है। कथंचित् वह नोजीवके होती है ॥३॥ अनन्तानन्त विनसोपचयोंसे उपचयको प्राप्त कर्म-पुद्गलस्कन्ध प्राणधारण अथवा ज्ञानदर्शनसे रहित होनेके कारण नोजीव कहलाता है । उससे सम्बन्ध रखनेवाला जीव भी कथंचित् नोजीव है, क्योंकि, वह उससे पृथग्भूत नहीं पाया जाता है। इस कारण कथंचित् नोजीवके वेदना होती है। शंका-अभेदमें षष्ठी विभक्तिका निर्देश कैसे किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'खैरका खम्भा यहाँ अभेदमें भी षष्ठीका निर्देश पाया जाता है । इन दोनों सूत्रोंको संगृहीत नैगम नयके भी जोड़ना चाहिये, क्योंकि, बहुत भी जीव और नोजीवों में जातिकी अपेक्षा एकता पायी जाती है। उक्त वेदना कथंचित् बहुत जीवोंके होती है ॥ ४ ॥ १ प्रतिषु 'मवेक्षकः इति पाठः । २ बृहत्स्व १०२ । ३ अ-श्रापत्योः 'सया' इति पाठः । ४ अ-ताप्रत्योः 'तदा' आप्रतौ 'तद' इति पाठः। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१७ ४,२, ६, ६.] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तबिहाणं जीवा एग-दु-ति-चदु-पंचिंदियभेदेण वा छक्कायभेदेण वा देसादिभेदेण वा अणेयविहा । णिच्चेयण-मुत्तपोग्गलक्खंधसमवाएण 'भट्ठसगसरुवस्स कधं जीवत्तं जुञ्जदे ? ण, अविणट्ठणाण-दसणाणमुवलंभेण जीवस्थित्तसिद्धीदो। ण तत्थ पोग्गलक्खंधो वि अस्थि, पहाणीकयजीवभावादो। ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चेव, परमत्थेण वि तत्तो तेसिमभेदुवलंभादो। एवंविहअप्पणाए णाणावरणीयवेयणा सिया जीवाणं होदि। कधमेक्किस्से वेयणाए भूओ सामिणो ? ण, अरहंताणं पूजा इच्चत्थ बहूणं पि एक्किस्से पूजाए सामित्तुबलंभादो। सिया णोजीवाणं वा ॥ ५ ॥ ___ सरीरागारेण द्विदकम्म-णोकम्मक्खंधाणि णोजीवा, णिच्चेयणत्तादो। तत्थ द्विदजीवा वि णोजीवा, तेसिं तत्तो भेदाभावादो। ते च णोजीवा अणेगा संठाण-देस-काल वण्ण-गंधादिभेदप्पणाए । तेसिं णोजीवाणं च णाणावरणीयवेयणा होदि । सिया जीवस्स च णोजोवस्स च ॥६॥) एक, दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियोंके भेदसे, अयवा छह कायोंके भेदसे, अथवा देशादिके भेदसे जीव अनेक प्रकारके हैं। शंका - चेतना रहित मूर्त पुद्गलस्कन्धोंके साथ समवाय होनेके कारण अपने स्वरूप (चैतन्य व अमूर्तत्व ) से रहित हुए जीवके जीवत्व स्वीकार करना कैसे युक्तियुक्त है ? ____समाधान नहीं, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुए ज्ञान दर्शनके पाये जानेसे उसमें जीवत्वका अस्तित्व सिद्ध है। वस्तुतः उसमें पुद्गलस्कन्ध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीवभावकी प्रधानता की गई है। दूसरे, जीवमें पुद्गलस्कन्धोंका प्रवेश बुद्धिपूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थतः भी उससे उनका अभेद पाया जाता है। इस प्रकारकी विवक्षासे ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् बहुत जीवोंके होती है। शंका-एक वेदनाके बहुतसे स्वामी कैसे हो सकते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'अरहन्तोंकी पूजा' यहाँ बहुतोंके भी एक पूजाका स्वामित्व पाया जाता है। कथंचित् वह बहुत नोजीवोंके होती है ॥ ५ ॥ शरीराकारसे स्थित कर्म व नोकर्म स्वरूप स्कन्धोंको नोजीव कहा जाता है, क्योंकि, वे चैतन्य भावसे रहित हैं। उनमें स्थित जीव भी नोजीब हैं, क्योंकि, उनका उनसे भेद नहीं है। उक्त नोजीव अनेक संस्थान, देश, काल, वर्ण व गन्ध आदिके भेदकी विवक्षासे अनेक हैं। उन नोजीवोंके ज्ञानावरणीय वेदना होती है। वह कथंचित जीव और नोजीब दोनोंके होती है ॥६॥ १ अ-प्रतौ 'अ' इति पाठः । छ. १२-३८ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ७. जीवस्स वि वेयणा भवदि, तेण विणा पोंग्गलादो चेव तदणुवलंभादो। णोजीवस्स वि भवदि, णोकम्मपोग्गलक्खंधेहि विणा जीवादो चेव तदणुवलंभादो। एवंविहणए जीवस्स च णोजीवस्स च णाणावरणीयवेयणा होदि । (सिया जीवस्स च णोजीवाणं च ॥७॥) जीवस्स एयत्तं जदा जादिदुवारेण गहिदं तदा णोजीवबहुतं देस-संठाण-सरीरारंभयपोग्गलभेदेण घेत्तव्वं । जदा जादीए विणा 'जीववत्तिगयमेगत्तमप्पियं होदि तदा कम्मइयक्खंधाणमणंताणमणेगसंठाणाण मणेगदेसट्टियाणमेगजीवविसयाणं भेदेण णोजीवबहुत्तं वत्तव्वं । एवंविहाए अप्पणाए जीवस्स च णोजीवाणं व वेयणा होदि । (सिया जीवाणं च णोजीवस्स च ॥८॥) जदा जादिदुवारेण णोजीवस्स एयत्तं विवक्खियं तदा काइंदिय-संठाण-देसादिभेदेण जीवाणं बहुत्तं घेत्तव्यं । जदा" णोजीवस्स वत्तिदुवारेण एयत्तमप्पियं तदा पदेसादिभेदेण जीवबहुत्तं घेत्तव्वं । एवंविहविवक्खाए सिया जीवाणं च णोजीवस्स च बेयणा होदि । जीवके भी वेदना होती है, क्योंकि, जीवके विना एकमात्र पुद्गलसे हो वह नहीं पायी जाती। उक्त वेदना नोजीवके भी होती है, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलस्कन्धोंके विना एक मात्र जीवसे ही वह नहीं पायी जाती है। इस प्रकारके नयमें ज्ञानावरणीयको वेदना जीवके भी होती है और नोजीवके भी होती है।। वह कथंचित् जीवके और नोजीवोंके होती है । ७॥ जब जातिकी अपेक्षासे जीवकी एकता ग्रहण की गई हो तब देश, संस्थान और शरीरके आरम्भक पुद्गलस्कन्धोंके भेदसे नोजीवोंके बहुत्वको ग्रहण करना चाहिये। जब जातिके विना जीवव्यक्तिगत एकताकी प्रधानता होती है तब अनेक संस्थानसे युक्त व अनेक देशों में स्थित एक जीव विषयक अनन्तानन्त कार्मण स्कन्धोंके भेदसे नोजीवोंके बहुत्वको कहना चाहिये। इस प्रकारकी विवक्षासे जीवके और नोजीवोंके भी उक्त वेदना होती है। वह कथंचित् जीवोंके और नोजीवके होती है ॥८॥ जब जाति द्वारा नोजीवकी एकता विवक्षित हो तब काय, इन्द्रिय, संस्थान और देश आदिके भेदसे जीवोंके बहुत्वको ग्रहण करना चाहिये। जब व्यक्ति द्वारा नोजीवकी एकता विवक्षित हो तब प्रदेशादिके भेदसे जीवोंके बहुत्वको ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकारकी विवक्षासे कथंञ्चित् जीवोंके और नोजीवके भी वेदना होती है। १ ताप्रतौ 'जीवड्डि (त्ति) गय' इति पाठः। २ अ-श्रापत्योः 'संठाण', ताप्रती 'संठा [णा] ण' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'जधा' इति पाठः। ४ अ-आप्रत्योः 'तथा' इति पाठः । ५ अ-आप्रत्योः 'जथा' इति पाठः । ational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ८, ११] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तविहाणं [२९९ ( सिया जीवाणं च णोजीवाणं च ॥६॥ जदा जीव-णोजीवाणं च अवयवविसयमणवयवविसयं च बहुत्तं विवक्खियं तदा जीवाणं च णोजीवाणं च वेयणा । एवं सत्तण्ण कम्माण ॥ १०॥ जहा णाणावरणीयवेयणा परूविदा तहा सत्तणं कम्माणं परूवेदव्वा, विसेसा भावादो। संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स वा ॥ ११ ॥ जो जस्स फलमणुभवदि तं तस्स होदि ति सयललोअप्पसिद्धो ववहारो। ण च कम्मफलं कम्माणि चेव भुंजंति, अप्पाणम्मि किरियाविरोहादो। णिचेयणतणेण णाणंदंसणविरहिदेसु पोग्गलक्खंधेसु णाणावरणीयवावारस्स वइफलप्पसंगादो च ण णोजीवस्स, किं तु जीवस्सेव । ण च जीवदव्ववदिरित्तो णोजीवो होदि, जीवेण सह एयत्तमावण्णस्स णोजीवत्तविरोहादो। एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहि सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो। एत्थ सिया सद्दो किण्ण पउत्तो ? ण एस दोसो, पयारंतराभावादो। जदि सुद्धसंगहणए वेयणाए सामिस्स अण्णो वि पयारो अत्थि तो सिया सद्दो वुचदे । कथंचित् वह जीवोंके और नोजीवोंके होती है ॥ ॥ जब जीवों और नोजीवोंके अवयवविषयक और अनवयवविषयक बहुत्वकी विवक्षा हो तब जीवोंके और नोजीवोंके वेदना होती है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें कहना चाहिये ॥ १० ॥ जैसे ज्ञानावरणीय कर्म सम्बन्धी वेदनाकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी वेदनाकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कुछ विशेषता नहीं है। संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है ॥ ११ ॥ जो जिसके फलका अनुभव करता है वह उसका स्वामी होता है, यह व्यवहार सकल जनोंमें प्रसिद्ध है। परन्तु कर्मके फलको कर्म ही तो भोगते नहीं हैं, क्योंकि, अपने आपमें क्रियाका विरोध है, तथा अचेतन होनेसे ज्ञान-दर्शनसे रहित पुद्गलस्कन्धोंमें ज्ञानावरणीयके व्यापारकी विफलताका प्रसंग होनेसे भी उसकी वेदना नोजीवके नहीं होती, किन्तु जीवके ही होती है। दूसरी बात यह है कि जीव द्रव्यसे भिन्न नोजीव है ही नहीं, क्योंकि, जीवके साथ एकताको प्राप्त पुद्गलस्कन्धके नोजीव होनेका विरोध है । यह कथन शुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा है, क्योंकि, जीवोंके और उनके साथ नोजीवोंकी एकता स्वीकार की गई है। शंका-यहाँ सूत्र में 'स्यात्' शब्द प्रयोग क्यों नहीं किया गया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहाँ दूसरा कोई प्रकार नहीं है। यदि शुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा वेदनाके स्वामीका कोई दूसरा भी प्रकार होता तो 'स्यात्' शब्दका प्रयोग १ताप्रतौ 'जीवाणं ताहि इति पाठ। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] इक्खंडागमे वेयणाखंडं [ ४, ६, ८, १२. ण च अत्थि तम्हा' सो ण पउत्तो त्ति । संपहि असुद्ध संगहणयविसए सामित्तपरूवणट्ट मुत्तरमुत्तं भणदि - जीवाणं वा ॥ १२ ॥ * संगहियणोजीव-जीवबहुत्तन्भुवगमादो । एदमसुद्धसंग हणयवयणं । सेसं जहा सुद्धसंगहस्स वृत्तं ता वत्तव्वं, "विसेसाभावादो । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १३ ॥ जहा सुद्धा सुद्धसंगहण अस्सिदृण णाणावरणीयवेअणाए सामित्त परूवणा कदा तो सत्तणं कम्माणं वेयणाए पुध पुध सामित्तपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो । सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स ॥ १४ ॥ किमहं जीव-वेयणाणं सदुजुसुदा बहुवयणं च्छंति ? ण एस दोसो, बहुत्ताभावाद । तं जहा -- सव्वं पि वत्थु एमसंखाविसिहं, अण्णहा तस्साभावप्यसंगादो । ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाकरना योग्य था । परन्तु वह है नहीं, अतएव उसका प्रयोग नहीं किया गया है । अब अशुद्ध संग्रह नयके विषय में स्वामित्वकी प्ररूपणा करनेके लिये आगे का सूत्र कहते हैंअथवा जीवोंके होती है ॥ १२ ॥ कारण कि संग्रहकी अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं । यह अशुद्धसंग्रह नयकी अपेक्षा कथन है । शेष प्ररूपणा जैसे शुद्ध संग्रह नयका आश्रय करके की गई है वैसे ही करना चाहिये, क्योंकि, इसमें उससे कोई विशेषता नहीं है । इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषय में कथन करना चाहिये ॥ १३ ॥ जिस प्रकार शुद्ध और अशुद्ध संग्रह नयोंका आश्रय करके ज्ञानावरणीयकी वेदना के स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मों की वंदना के स्वामित्व की प्ररूपणा पृथक्-पृथक् करनी चाहिये, क्योंकि उसमें कोई विशेषता नहीं है । शब्द और ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है ॥ १४ ॥ शंका - शब्द और ऋजुसूत्र ये दोनों नय जीव व वेदना के बहुवचनको क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहाँ बहुत्वकी सम्भावना नहीं है । वह इस प्रकार से - सभी वस्तु एक संख्या से सहित है, क्योंकि, इसके विना उसके अभावका प्रसंग आता है। एकत्वको स्वीकार करनेवाली वस्तुमें द्वित्वादिकी सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि, उनमें शीत १ ताप्रतौ 'ता' इति पाठः । २ मप्रतौ 'संगहा -' इति पाठः । ३ श्र श्रापत्योः 'एदमसुद्ध' इति पाठः । ४ प्रतौ 'अविसेसादो', आमतौ त्रुटितोऽत्र पाठः । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २,६, १५.] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तविहाणं [ ३०१ णलक्खणविरोहदंसणादो। ण च एगत्ताविसिहं वत्थु अत्थि जेण अणेगत्तस्स' तदाहारो होज्ज । एक्कम्हि खंभम्मि मूलग्ग-मज्झमेएण अणेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदेण' तत्थ एयत्तं मोत्तण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तवलंभादो । ण मूलगयमग्गगयं मझगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तण अणेयत्ताणुवलंभादो । ण तिण्णमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्वदिरेगेण तस्समूहाणुवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं । तेणेव कारणेण ण चेत्थ बहुवयणं पि । तम्हा सदुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्से त्ति भणिदं । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १५ ॥ जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा सत्तण्णं कम्माणं वेयणसामित्तं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो। एवं वेयणसामित्तविहाणं समत्तमणियोगदारं । व उष्णके समान सहानवस्थान रूप विरोध देखा जाता है। इसके अतिरिक्त एकत्वसे रहित वस्तु है भी नहीं जिससे कि वह अनेकत्वका आधार हो सके । शंका - एक खम्भेमें मूल, अन एवं मध्यके भेदसे अनेकता देखी जाती है ? समाधान-ऐसी आशंका होनेपर उत्तर देते हैं कि 'नहीं', क्योंकि, उसमें एकत्वको छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तम्भमें तो अनेकत्वकी सम्भावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मूलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी सम्भव नहीं है. क्योंकि, उनमें भी एकत्वको छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक एक वस्तुओंका समूह अनेकताका आधार है, सोयह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयों की अपेक्षा बहुत्व सम्भव नहीं है। इसीलिये यहाँ बहुवचन भी नहीं है। अतएव शब्द और ऋजुसूत्र नयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है, ऐसा कहा गया है। . इसी प्रकार इन दोनों नयोंकी अपेक्षा शेष सात कर्मोंकी वेदनाके स्वामित्वका कथन करना चाहिये ॥ १५ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी वेदनाके स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी वेदनाके स्वामित्वकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। ___ इस प्रकार वेदनस्वामित्वविधान अनुयोग द्वार समाप्त हुआ। १ प्रतिषु 'अणोगंतस्स' इति पाठः। २ ताप्रती 'भीणदे' इति पाठः। ३ अ-ताप्रत्योः ण च अत्थि' इति पाठः। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वेयणवेयणविहाणाणियोगद्दारं ) वेयणवेयणविहाणे त्ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं । किमट्टमहियारो संभालिज्जदे ? ण, अण्णहा परूवणाए फलाभावप्पसंगादो । का वेयणा ? वेद्यते वेदिष्यत इति वेदनाशब्दसिद्धः। अहविहकम्मपोग्गलक्खंधो वेयणा । णोकम्मपोग्गला वि वेदिज्जति ति तेसिं वेयणासण्णा किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, अट्ठविहकम्मपरूवणाए परूविज्जमाणाए णोकम्मपरूवणाए संभवाभावादो। अनुभवनं वेदना, वेदनायाः वेदना वेदनावेदना, अष्टकर्मपुद्गलस्कन्धानुभव इत्यर्थः । विधीयते क्रियते प्ररूप्यत इति विधानम्, वेदनावेदनायाः विधानं वेदनावेदनाविधानम् । तत्र प्ररूपणा क्रियत इति यदुक्तं भवति । सव्वं पि कम्म पयडि त्ति कटु णेगमणयस्स ॥ २॥ वेदनवेदनविधान अनुयोगद्वार अधिकार प्राप्त है ॥ १ ॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है। शंका- अधिकारका स्मरण किसलिये कराया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उसके विना प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है । शंका-वेदना किसे कहते हैं ? समाधान-'वेद्यते वेदिष्यत इति वेदना' अर्थात् जिसका वर्तमानमें अनुभव किया जाता है, या भविष्यमें किया जावेगा वह वेदना है, इस निरुक्तिके अनुसार आठ प्रकार के कर्म-पुद्गलस्कन्धको वेदना कहा गया है। शंका-नोकर्म भी तो अनुभवके विषय होते हैं, फिर उनकी बेदना संज्ञा क्यों अभीष्ट नहीं है? समाधान नहीं, क्योंकि; आठ प्रकारके कर्मकी प्ररूपणाका निरूपण करते समय नोकर्मप्ररूपणाकी सम्भावना ही नहीं है। __ अनुभवन करनेका नाम वेदना है। वेदनाकी वेदना वेदनावेदना है, अर्थात् आठ प्रकारके कर्मपुद्गलस्कन्धों के अनुभव करनेका नाम वेदनावे विधानम' अर्थात् जो किया जाय या जिसकी प्ररूपणा की जाय वह विधान है, वेदनावेदनाका विधान वेदनादेदनाविधान, इस प्रकार यहाँ तत्पुरुष समास है। उसके विषय में प्ररूपणा की जाती है, यह उसका अभिप्राय है। नैगम नयकी अपेक्षा सभी कर्मको प्रकृति मानकर यह प्ररूपपणा की जा रही है ॥२॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २,१०, २.] वेयणमहाहियारे वेयणत्रेयणविहाणं [३०३ __यदस्ति न तवयमतिलंध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:'। तस्स णइगमणयस्स अहिप्पारण बद्ध'-उदिण्णुवसंतभेदेण द्विदसव्वं पि कम्मं पयडी होदि, प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः। फलदातृत्वेन परिणतः कर्मपुद्गलस्कन्धः उदीर्णः । मिथ्यत्वाविरति-प्रमाद-कषाय-योगः कर्मरूपतामापाद्यमानः कार्मणपुद्गलस्कन्धो बध्यमानः । द्वाभ्यामाभ्यां व्यतिरिक्तः कर्मपुद्गलस्कन्धः उपशान्तः । तत्र उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेशः, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशान्तयोः, तत्र तदभावादिति ? न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धेः। तेण जो कम्मक्खंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडि सिद्धं । अधवा, जहा उदिण्णं वट्टमाणकाले फलं देदि, एवं बज्झमाणुवसंताणि वि वट्टमाणकाले वि देंति फलं, तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो। उकस्सहिदिसते उक्कस्साणुभागे च संते बज्झमाणे च सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो । भूद-भविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे। तेण णेगमणयस्स तिविहं पि कम्मं पयडि त्ति कट्ट इमा परूवणा कीरदे। ____जो सत् है वह भेद व अभेद दोनों का उल्लंघन करके नहीं रहता, इस प्रकार जो एकको विषय नहीं करता है, अर्थात् गौण व मुख्यताकी अपेक्षा दोनोंको ही विषय करता है इसे नैगमनय कहते हैं । उस नैगम नयके अभिप्रायसे बद्ध, उदीर्ण और उपशान्तके भेदसे स्थित सभी कर्म प्रकृतिरूप हैं, क्योंकि, 'प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्माको अज्ञानादिरूप फल किया जाता है वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्दकी व्युत्पत्ति है। शंका-- फलदान स्वरूपसे परिणत हुआ कर्म-पुद्गल स्कन्ध उदीणं कहा जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके द्वारा कर्म स्वरूपको प्राप्त होनेवाला कामण पुद्गलस्कन्ध बध्यमान कहा जाता है। इन दोनोंसे भिन्न कर्म-पुद्गलस्कन्धको उपशान्त कहते हैं। उनमें उदीर्ण कर्म-पुद्गलस्कन्धको प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूपसे परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म-पुद्गल स्कन्धोंकी यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूपका अभाव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालोंमें प्रकृति शब्दकी सिद्धि की गई है। इस कारण जो कर्म स्कन्ध वर्तमान कालमें फल देता है और जो भविष्यमें फल देगा, इन दोनों ही कर्मस्कन्धोंकी प्रकृति संज्ञा सिद्ध है । अथवा, जिस प्रकार उदयप्राप्त कर्म वर्तमान कालमें फल देता है उसी प्रकार बध्यमान और उपशम भावको प्राप्त कर्म भी वर्तमान कालमें भी फल देते हैं, क्योंकि, उनके बिना कर्मोदय का अभाव है । उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्वके होनेपर तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागके बंधनेपर सम्यक्त्व, संयम एवं संयमासंयमका ग्रहण सम्भव नहीं है। अथवा, भूत व भविष्य पर्यायोंको वर्तमान रूप स्वीकार कर लेनेसे नैगमनयमें यह व्युत्पत्ति बैठ जाती है । इसलिए नैगम नयकी अपेक्षा उक्त तीन प्रकारके कर्मको प्रकृति मानकर ..... १क० पा० १, पृ० २२१ । २ प्रतिषु 'बंध-' इति.पाठः। ........... Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०,३ णेगमणओ वज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं तिण्णं पि कम्माणं वेयणववएसमिच्छदि त्ति भणिदं होदि। णाणावरणीयवेयणा सिया बज्झमाणिया वेयणा ॥३॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा-एत्थ सियासदो अणेगेसु अत्थेसु जदि वि वट्टदे तो वि एत्थ अणेयंते घेत्तव्यो। प्रशंसास्तित्वानेकान्त-विधि-विचारणाद्यर्थेषु वर्तमानोऽपि स्याच्छब्दः अमुष्मिन्नेवार्थ गृह्यत इति कथमवगम्यते ? प्रकरणात् । जा णाणारणीयस्स वेयणा सा परूविज्जदे। किमहं णाणावरणीयवेयणा ति णिदिस्सदे। परूविज्जमाणपयडिसंभालणटुं। सिया बज्झमाणिया वेयणा होदि, तत्तो अण्णाणादिफलुप्पत्तिदंसणादो। बज्झमाणस्स कम्मस्स फलमकुणंतस्स कधं वेयणाववएसो ? ण, उत्तरकाले फलदाइत्तण्णहाणुववत्तीदो बंधसमए वि वेदणभावसिद्धीए । एत्थ कुदो एगवयणणिद्देसो ? जीव-पयडि-समयाणं बहुत्तेण विणा एगत्तप्पणादो। एत्थ जीव-पयडीणमेगवयण-बहुवयणाणि ठविय कालस्स एगवयणं च ११३ एदस्स सुत्तस्स आलावो वुच्चदे । यह प्ररूपणा की जा रही है। अभिप्राय यह है कि नैगम नय बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनों ही कर्मोकी वेदना संज्ञा स्वीकार करता है। ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है ॥३॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- यद्यपि 'स्यात्' शब्द अनेक अर्थोंमें वर्तमान है तो भी यहाँ उसे अनेकान्त अर्थमें ग्रहण करना चाहिये। शंका-प्रशंसा, अस्तित्व, अनेकान्त, विधि और विचारणा आदि अर्थों में वर्तमान भी 'स्यात्' शब्द अमुक अर्थमें ही ग्रहण किया जाता है, यह कैसे ज्ञात होता है। समाध न-वह प्रकरणसे ज्ञात हो जाता है। जो ज्ञानावरणीयकी वेदना है उसकी प्ररूपणा की जाती है। शंका-सूत्रमें 'ज्ञानावरणीयवेदना' यह निर्देश किस लिये किया गया है ? समाधान - उसका निर्देश प्ररूपित की जानेवाली प्रकृतिका स्मरण करनेके लिये किया गया है। कथञ्चित् बध्यमान वेदना होती है, क्योंकि, उससे अज्ञानादि रूप फलकी उत्पत्ति देखी जाती है। "'" शंका-चूंकि बाँधा जानेवाला कर्म उस समय फलको करता नहीं है, अतः उसकी वेदना संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान--नहीं, क्योंकि, इसके बिना वह उत्तरकालमें फलदाता बन नहीं सकता, अतएव बन्ध समयमें भी उसे वेदनात्व सिद्ध है। शंका-यहां एकवचनका निर्देश क्यों किया गया है ? समाधान-जीव, प्रकृति और समय, इनके बहुत्वको अपेक्षा न कर एकत्वकी मुख्यतासे एकवचनका निर्देश किया गया है। यहाँ जीव व प्रकृतिके एकवचन व बहुवचनको तथा कालके एकवचनको स्थापितकर इस Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२२] ४, २, १०, ४. ] वेणयमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३०५ तं जहा-एयजीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झमाणिया वेयणा । सुतेण अणुवइट्ठोणं जीव-पयडि-समयाणं कधमेत्थ णिद्देसो कीरदे ? पयडी ताव सुत्तद्दिट्ठा चेव, णाणावरणीयवेयणा इदि सुत्ते भणिदत्तादो। समओ वि सुत्तणिद्दिट्टो चेव, बज्झमाणिया इदि वट्टमाणणिद्देसादो । तहा जीवो वि सुत्तद्दिट्ठो, मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगपच्चयपरिणदजीवेण विणा बंधो णस्थि ति पच्चयविहाणे परूविदत्तादो। तदो जीवपयडि-समया सुत्तणिवद्धा चेवे ति दया । कालस्त बहुवयणमेत्थ किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, बंधस्स विदियसमए उवसंतभावमावज्जमाणस्स एगसमयं मोत्तूण बहूर्ण समयाणमणुवलंभादो। एत्थ जीव-पयडि-समय-एगवयण-बहुवयणाणमेसो पत्थारो १२१२ । एत्थ |११११ एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया त्ति एदं पढमपत्थारालावमस्सिदुण सुत्तमिदमवद्विदं । सिया उदिण्णा वेयणा ॥४॥ सूत्रका आलाप कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक समयमें बाँधी गई एक जीवकी एक प्रकृति कथश्चित् बध्यमान वेदना है। शंका-सूत्रमें अनिर्दिष्ट जीव, प्रकृति और समय, इनका निर्देश यहाँ कैसे किया जारहा है ? समाधान-प्रकृतिका निर्देश सूत्र में किया ही गया है, क्योंकि, 'ज्ञानावरणीय वेदना' ऐसा | गया है। समय भी सूत्रनिर्दिष्ट ही है, क्योंकि, 'बध्यमान' इस प्रकारसे वर्तमान कालका निर्देश किया गया है। जीव भी सूत्रोद्दिष्ट ही है, क्योंकि, मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग प्रत्ययसे परिणत जीवके बिना बन्ध नहीं हो सकता, ऐसी प्रत्ययविधानमें प्ररूपणा की जा चुकी है । इसलिये जीव, प्रकृति और समय, ये सूत्रनिबद्ध ही हैं, ऐसा समझना चाहिये । शंका-यहाँ कालको बहुवचन क्यों नहीं स्वीकार करते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, बन्धके द्वितीय समयमें उपशमभावको प्राप्त होनेवाले कर्मबन्धके एक समयको छोड़कर बहुत समय पाये नहीं जाते। यहाँ जीव, प्रकृति और समयके एकवचन व बहुवचनका यह प्रस्तार है जीव | एक एक अनेक अनेक प्रकृति एक अनेक एक अनेक मय एक एक एक एक यहाँ एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान है, इस प्रकार इस प्रथम प्रस्तारके आलापका आश्रय करके यह सूत्र अवस्थित है। __ ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् उदीर्ण वेदना है ॥४॥...... छ, १२-३६ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ५. 'णाणावरणीयवेयणा' इदि सव्वत्थ अणुवट्टदे । बंधसुत्ताणंतरं उदिण्णसुतं किमटुं बच्चदे ? ण, बज्झमाणुदिण्णवदिरित्तो सव्वो कम्मपोग्गलक्खंधो उवसंतसण्णिदो त्ति जाणावणटुं तदुत्तीदो। एस्थ जीव-पयडि-समयाणं एगवयण-बहुवयणाणि ठविय ३३३ पुणो एत्थ अक्खपरावलं करिय उप्पाइदउदिण्णसंदिट्ठी एसा जीव-पयडि-समय ११११२२२२ पडिबद्धा ११२२११२२ । एत्थ उवरिमपंती जीवाणं, मज्झिमपंती पयडीणं, हेहिमपंती १२१२१२१२ समयाणं। एत्थ एयस्स जीवस्स एयपयडी एयसमयपबद्धा सिया उदिण्णा वेयणा । एदेण पढमालावेण एदं सुत्तं परूविदं होदि । एत्थ उदिण्णे परूविजमाणे कधं कालस्स बहुत्तं लब्भदे ? ण, अणेगेसु समएसु बद्धाणमेगसमए उदओवलंभादो। सिया उवसंता वेणया ॥ ५ ॥ पुणो एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेग-बहुवयणाणि 'ज्ञानावरणीयवेदना' इसकी सब सूत्रोंमें अनुवृत्ति ली जाती है। शंका-बन्धसूत्र के पश्चात् उदीर्णसूत्र किसलिये कहा जा रहा है। समाधान-नहीं, क्योंकि, बध्यमान और उदीर्णसे भिन्न सब कम-पुद्गलस्कन्धको उपशान्त संज्ञा है, यह बतलाने के लिये बन्धसूत्रके पश्चात् उदीर्णसूत्र कहा गया है। यहाँ जीव, प्रकृति और समयके एकवचन व बहुवचनको स्थापित कर.......... पश्चात् अक्षपरावर्तन करके उत्पन्न की गई उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कन्धकी जीव, प्रकृति एवं समयसे सबद्ध यह संदृष्टि है जीव | एक एक एक एक अनेक अनेक अनेक अनेक प्रकृति एक | एक अनेक अनेक एक एक अनेक अनेक समय एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक यहाँ ऊपरकी पंक्ति जीवोंकी है, मध्यकी पंक्ति प्रकृतियोंकी है, और अधस्तन पंक्ति समयों की है। यहाँ एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई कथञ्चित् उदीर्ण वेदना है। इस प्रथम आलापसे इस सूत्रकी प्ररूपणा हो जाती है। शंका-यहाँ उदीकी प्ररूपणा करते समय कालका बहुत्व कैसे पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अनेक समयोंमें बाँधी गई प्रकृतियोंका एक समयमें उदय पाया जाता है। ज्ञानावरणीयवेदना कंचित् उपशान्त वेदना है ॥ ५ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन व बहु. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,२, १०, ६] वैयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३०७ ठविय १३३ अक्खपरावत्ति कादूण पत्थारो उप्पादेदव्यो । एदस्स संदिट्टी जीव-पयडि ११११२२२२ समयपडिबद्धा एसा ११२२११२२ । एत्थ उवरिमपंती जीवाणं, मज्झिमपंती पयडीणं, १२१२१२१२ हेहिमपंती समयाणं । एत्थ एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंता वेयणा त्ति एदेण पढमालावेण एवं सुत्तं परविदं होदि । अणेगसमयपबद्धाणं संतसरूवेण उवलंभादो एत्थ कालबहुत्तमुवलब्भदे । सेसं सुगमं । एवं बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेगसंजोगस्स एगवयणसुत्तालावो समत्तो। सिया बज्झमाणियाओ वेयणाओ॥६॥ एदस्स एगसंजोग-बहुवयणपढमसुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे बज्झमाणियाए जीवपयडीणमेय-बहुवयणाणि समयस्स एगवयणं च ठविय तेसिं तिसंजोगेण जादपत्थारं च ठवेदूर्ण एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा—समयगयं ताव बहुत्तं णत्थि, बज्भमाणस्स कम्मस्स तदसंभवादो। जीवसु पयडीसु च' तत्थ बहुत्तं लब्भइ । तत्थ बज्झमाणियाए वेयणाए बहुत्तमिच्छिादि णेगमणओ। तेणेदस्स पढमुवचनको स्थापित कर १११ अक्षपरातन करके प्रस्तारको उत्पन्न कराना चाहिये। इसकी जीव, प्रकृति और समयसे सम्बन्धित संदृष्टि यह है जीव एक | एक एक एक अनेक अनेक अनेक अनेक प्रकृति एक एक अनेक अनेक एक एक अनेक अनेक समय एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक इसमें ऊपरकी पंक्ति जीवोंकी, मध्य पंक्ति प्रकृतियोंकी, और अधस्तन पंक्ति समयोंकी है। यहाँ एक जीवकी एक प्रकृति एक सभयमें बाँधी गई कथञ्चित् उपशान्त वेदना है, इस प्रकार इस प्रथम आलापसे इस सूत्रकी प्ररूपणा हो जाती है। चूंकि अनेक समयों में बाँधी गई प्रकृतियाँ सत स्वरूपसे पायी जाती हैं, अतः यहाँ कालबहुत्व उपलब्ध है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त, इनके एक संयोगजनित एकवचन सूत्रका आलाप समाप्त हुआ। कथंचित् वध्यमान वेदनार्य हैं ॥ ६॥ बध्यमान वेदनाके बहुवचनसे सम्बन्धित इस प्रथम सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव और प्रकृतिके एक व बहुवचनोंको तथा समयके एकवचनको स्थापित कर उनके त्रिसंयोगसे उत्पन्न प्रस्तारको भी स्थापित करके इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैयहाँ समयगत बहुत्व नहीं है, क्योंकि, बध्यमान कर्मके उसकी सम्भावना नहीं है। जीवों और १ अप्रतौ 'जीवेसु पयडीसु जीवपयडीसु च' इति पाठः। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०,७. चारणं मोत्तण सेसाओ तिणि उच्चारणाओ होति । ताओ भणिस्सामो-एगस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ सिया बज्झमाणियाओ वेयणाओ । एत्थ एगा' उच्चारणसलागा लब्भदि [१] । अणेगेहि जीवेहि एया पयडी एगसमयपवद्धा सिया बज्झमाणियाओ वेयणाओ। एवं बेउच्चारणसलागा [२] । कथं जीवबहुत्तेण वेयणाबहुत्तं ? ण, एकिस्से वेयणाए जीवभेदेण भेदमुवगयाए बहुत्तविरोहाभावादो। अधवा, अणेयाणं जीवाणं अणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ सिया बज्झमाणियाओ वेयणाओ। एवं तिण्णि उच्चारणसलागाओ [३] । एवं बज्झमाणियाए बहुवयणसुत्तालावो समत्तो। सिया उदिण्णाओ वेयणाओ॥७॥ एदस्स उदिण्णबहुवयणसुत्तस्स आलावे' भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणं एगबहुवयणाणि ठविय तेसिमक्खसंचारअणिदपत्थारं च ठविय तत्थ एगवयणालावं पुव्वं परूविदं मोत्तूण सेससत्तालावे भणिस्सामो। तं जहा–एगस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उदिपणाओ वेयणाओ। एत्थ जदि वि एगेण जीवेण एया चेव पयडी उदए छुद्धा तो वि तिस्से बहुत्तं होदि, अणेगेसु समएसु पबद्धत्तादो । एत्थ प्रकृतियोंमें वहाँ बहुत्व पाया जाता है। नैगम नय बध्यमान वेदनाके बहुत्वको स्वीकार करता है। इसलिये इसके प्रथम उच्चारणको छोड़कर शेष तीन उच्चारणायें होती है। उनके उनको कहते हैं-एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई कथञ्चित् बध्यमान वेदनायें हैं। यहाँ एक उच्चारण शलाका पायी जाती है (१)। अनेक जीवोंके द्वारा एक समयमें बाँधी गई एक प्रकृति कथश्चित् बध्यमान वेदनायें हैं। इस प्रकार दो उच्चारणशलाकायें हुई (२)। शंका-जीवोंके बहुत्वसे वेदनाका बहुत्व कैसे सम्भव है ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, जीवोंके भेदसे भेदको प्राप्त हुई एक वेदनाके बहुत होने में कोई विरोध नहीं है। __ अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई कथञ्चित् बध्यमान वेदनाय हैं। इस प्रकार तीन उच्चारण शलाकायें हुई (३)। इस प्रकार बध्यमानके बहुवचन सम्बन्धी सूत्रका आलाप समाप्त हुआ। कथंचित् उदीर्ण वेदनायें हैं ॥ ७॥ इस उदीर्ण वेदनाओं सम्बन्धी बहुवचन सूत्रके अलापोंको प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति एवं समयके एक व बहुवचनों को स्थापित कर तथा उनके अक्षसञ्चारसे उत्पन्न प्रस्तारको भी स्थापित करके उनमेंसे पूर्वमें कहे गये एकवचन आलापको छोड़कर शेष सात आलापोंको कहते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई कथञ्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं। यद्यपि यहाँ एक जीवके द्वारा एक ही प्रकृति उदयमें निक्षिप्त की गई है तो भी वह बहुत होती है, क्योंकि, १ ताप्रतौ 'एगा' इत्येतत्पदं नास्ति । २ अप्रतौ 'अभावे' इति पाठः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०९ ४,२,१०, ८.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं एगा उच्चारणसलागा [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपत्रद्धाओ सिया उदिण्णाओ । एवं बेउच्चारणाओ [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। एवं तिणि उच्चारणाओ [३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धाओ सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। एत्थ जीवबहुत्तं पेक्खिय उदिण्णबहुत्तं गहियं । एवं चत्तारि उच्चारणाओ [४] अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। एवं पंच उच्चारणाओ [५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। एवं छ उच्चारणाओ [६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणं अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। एवं सत्त उच्चारणाओ [७] । एवं उदिण्णस्स बहुवयणसुत्तपरूवणा गदा। सिया उवसंताओ वेयणाओ॥८॥ एदस्स उवसंतबहुवयणसुत्तस्स आलावे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेय-बहुवयणाणि ठविय तेसिमक्खसंचारजणिदपत्थारं च ठवेदूण तत्थ एगवयणपढमालावं मोत्तण सेससहि वियप्पेहि एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणा कायव्वा । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवमेगुच्चारणा [१] । एसा वह अनेक समयोंमें बाँधी गई है। यहाँ एक उच्चारणशलाका हुई (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गईं कथञ्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार दो उच्चारणशलाकायें हुई (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई कथश्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन उच्चारणायें हुई (३)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथञ्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं। यहाँ जीवोंके बहुत्वकी अपेक्षा उदीर्ण वेदनाका बहुत्व ग्रहण किया गया है। इस प्रकार चार उच्चारणायें हुई (४)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई कथञ्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार पाँच उच्चारणायें हुई (५)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई कथञ्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं । इस प्रकार छह उच्चारणायें हुई (६) । अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई कश्चित् उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार सात उच्चारणायें हुई (७)। इस प्रकार उदीर्ण वेदनाके बहुवचन सम्बन्धी सूत्रकी प्ररूपणा समाप्त हुई। कथंचित् उपशान्त वेदनायें हैं ॥८॥ इस उपशान्त वेदनाके बहुवचन सम्बन्धी सूत्रके आलापोंका कथन करते समय जीव, प्रकृति और समय इनके एक व बहुवचनोंको तथा उनके अक्षसञ्चारसे उत्पन्न प्रस्तारको भी स्थापित करके उनमें एकवचन रूप प्रथम आलापको छोड़कर शेष सात विकल्पों द्वारा इस सूत्रके अथकी प्ररूपणा करनी चाहिये । वह इस प्रकारसे-एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई कथञ्चित् उपशान्त वेदनाओं स्वरूप है। इस प्रकार एक उच्चारणा हुई (१)। यद्यपि यह एक Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ९. जदि वि एकस्स जीवस्स एगा चेव पयडी होदि, तो वि अणेगेसु समएसु बद्धत्तादो उवसंतवेयणाए बहुत्तं जुज्जदे । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवं बेउच्चारणाओ [२] । अधवा, एयस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपवद्धाओ सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवं तिण्णि उच्चारणाओ [३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवं चत्तारि उच्चारणाओ [४] । एत्थ जीवबहुत्तं पेक्खिदण उवसंतवेयणाए एगसमयपबद्धएयपयडीए बहुत्तं गहिदं । अथवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवं पंच उच्चारणाओ [५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एणसमयपबद्धाओ सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवं छ उच्चारणाओ [६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ सिया उवसंताओ वेयणाओ। एवं सत्त उच्चारणा [७] । एवं उवसंतवेयणाए सत्तबहुवयणभंगा परूविदा। एवं बज्झमाण-उदिण्ण उवसंताणमेग-बहुवयणपडिबद्धसुत्तछक्क परूविय दुसंजोगभंगपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च ॥६॥ वेयणा इदि अणुवट्टदे। तेण वेयणासदोएदस्स सुत्तस्स अवयवभावेण दट्टयो। एदस्स जीवकी एक ही प्रकृति है, तो भी अनेक समयों में बांधे जानेके कारण यहाँ उपशान्त वेदनाका बहुत्व युक्तियुक्त है। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई कश्चित् उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो उच्चारणायें हुई (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गईं कथञ्चित् उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन उच्चारणायें हुई (३)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कश्चित् उपशान्त वेदनाओं स्वरूप है। इस प्रकार चार उच्चारणायें हुई (४)। यहाँ जीव बहुत्व की अपेक्षा करके उपशान्त वेदनारूप एक समयमें बाँधी गई एक प्रकृतिके बहुत्वको ग्रहण किया गया है। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई कथञ्चित् उपशान्त वेदनाओंरूप है। इस प्रकार पाँच उच्चारणायें हुई (५)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गईं कथञ्चित् उपशान्त वेदनायें है। इस प्रकार छह उच्चारणायें हुई (६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गईं कथश्चित् उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सात उच्चारणायें हुई (७)। इस प्रकार उपशान्त वेदना सम्बन्धी सात वहुवचन भंगोंकी प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाके एक व बहवचनोंसे सम्बद्ध छह सूत्रोंकी प्ररूपणा करके द्विसंयोगजनित भंगोंकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है ॥ ॥ यहाँ वेदना शब्दकी अनुवृत्ति ली गई है। इसलिये वेदना शब्दको इस सूत्रके वपअरूयव Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, १०. ] derमहाहियारे वेयणवेयण विहाणं [ ३११ सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे वज्झमाण - उदिष्णाणं दुसंजोगमुत्तपत्थारं विय | पुणो ११२२ १२१२ जीव-पय डि ११२२ बज्झमाणवेयणाए जीव - पयडि - समयपत्थारं १२१२ पुणो उदिष्णाए ११११ ११११२२२२ ११२२११२२ पुणो पच्छा बुच्चदे । तं जहा १२१२१२१२ समयाणं एग- बहुवयणपत्थारं च ठविय एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया तस्सेव जीवस्स एयपयडी समयबद्धा उदिण्णा सिया बज्झमाणिया च उदिष्णा च वेयणा । एवं दुसंजोग - पढमसुत्तस्स एगा चैव उच्चारणा । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च ॥ १० ॥ समझना चाहिये । इस सूत्र के अर्थकी प्ररूपणा करते समय बध्यमान और उदीर्ण वेदना के द्विसंयोग सूत्रप्रस्तारको बध्यमान एक एक अनेक अनेक उदीर्ण एक अनेक एक एक स्थापित करके पश्चात् बध्यमान वेदना जीव एक एक अनेक अनेक सम्बन्धी जीव, प्रकृति व समय इनके प्रस्तारको, प्रकृति एक अनेक एक अनेक तथा उदीर्ण समय एक एक एक एक वेदना सम्बन्धी जीव, प्रकृति और समय इनके एक व बहुवचनोंके प्रस्तारको भी जीव एक एक एक एक अनेक अनेक अनेक अनेक स्थापित प्रकृति एक एक अनेक अनेक एक एक अनेक अनेक करके पुनः पश्चात् प्ररूपसमय एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक की जाती है । वह इस प्रकार है - एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान और उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई उदीर्ण, यह कथञ्चित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है । इस प्रकार द्विसंयोगरूप प्रथम सूत्रकी एक ही उच्चारणा है । कथंचित् बध्यमान ( एक ) और उदीर्ण ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ १० ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] छखंडागमे वेयणाखंड [ ४,२, १०, ११ एत्थ वेणा त्ति अणुवट्टदे | तेण वेयणासदो असंतो वि अज्काहारेयव्वो सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च वेयणा त्ति । संपहि एदस्स अत्थपरूवणा करदे | तं जहा - एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स एयt पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च वेणाओ । एवं दुसंजोगविदियसुत्तस्स पढमुच्चारणा [१] अधवा, एयस्स जीवस्स एया पडी एयसमयबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपद्धाओ उदिण्णाओ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च वेयणा । दो भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ सिया बज्झमाणिया च उदिष्णाओ च वेयणा । एवं तिणि भंगा [ ३ ] । पुणो उदिण्णाए विदियसुत्तस्स सेसबहुवयणभंगा ण लब्भंति । कुदो १ बज्झमाण- उदिष्णाणमाधारभूद एगजीवभावादो | सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च ॥ ११ ॥ वेणाति अणुव । एदस्स सुत्तस्स भंगा वुच्चति । तं जहा – एयरस जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणिओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च वेयणाओ । एवं तदियसुत्तस्स एगो चैव भंगो [१] । पुणो बज्झमाण- उदिण्णाणं दुसंजोगतदियसुत्तस्स से सभंगा यहाँ 'वेदना' की अनुवृत्ति ली जाती है। इसलिये वेदना शब्दके न होते हुए भी उसका अध्याहार करना चाहिये - कथचित बध्यमान और उदीर्ण वेदना यें हैं। अब इस सूत्र के अर्थकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में नाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण; इस प्रकार कथञ्चित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं । इस प्रकार द्विसंयोगरूप द्वितीय सूत्रकी प्रथम उच्चारणा हुई ( १ ) । अथवा, एक जीव की एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गईं उदीर्ण, कथञ्चित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं । ये दो भंग हुए ( २ ) । अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, कथञ्चित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन भंग हुए ( ३ ) । पुनः उदीर्ण वेदना सम्बन्धी द्वितीय सूत्रके शेष बहुवचन भंग नहीं पाये जाते, क्योंकि, बध्यमान और उदीर्ण वेदना के आधारभूत एक जीवका प्रभाव है । कथंचित् बध्यमान वेदनायें और उदीर्ण वेदना है ॥ ११ ॥ 'वेदना' इसकी अनुवृत्ति है । इस सूत्र के भंग कहते हैं। यथा- एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गईं बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान वेदनायें और उदीर्ण वेदना है । इस प्रकार तृतीय सूत्रका एक ही भंग होता है ( १ ) पुनः बध्यमान और उदीर्ण सम्बन्धी द्विसंयोगवाले तृतीय सूत्रके शेष भंग नहीं पाये जाते, क्योंकि Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४, २, १०, १२.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं । ३१३ ण लभंति, जीवेहि विय हियरणत्तप्पसंगादो । सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च ॥ १२॥ वेयणा ति अणुवट्टदे । एदस्स बज्झमाण-उदिण्णाणं दुसंजोगचउत्थसुत्तस्स अत्थो वुञ्चदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ चज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिपणाओ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ । एवं चउत्थसुत्तस्स पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणा ओ। एसो विदियभंगो [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओपयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स अणे ओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स तिण्णि भंगा [३] । संपहि अज्झमाणउदिण्णाणं एयजीवमस्सिदण तिण्णि चेव भंगा होति, अहिया ण उप्पज्जंति, बज्झमाण-उदिण्णाणं वियहिअरणावत्तीदो। संपहि एदस्सेव दुसंजोगचउत्थसुत्तस्स बज्झमाण'-उदिण्णाणं णाणाजीवे अस्सिदूण सेसभंगे वत्तइस्सामो। तं जहा-अणेयाणं जीवाणं एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च जीवोंके साथ व्यभिचारका प्रसंग आता है। कथंचित् वध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं ॥ १२ ॥ 'वेदना' इसकी अनुवृत्ति है । अब बध्यमान और उदीर्ण सम्बन्धी द्विसंयोगवाले इस चतुर्थ सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रका प्रथम भंग हुआ (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान वेदनायें, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गईं उदीर्ण वेदनायें, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। यह द्वितीय भंग हुआ (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान वेदनायें, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण वेदनायें कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनाएं हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके तीन भंग होते हैं ( ३ )। अब बध्यमान और उदीर्ण वेदनाओंके एक जीवका आश्रय करके तीन ही भंग होते हैं, अधिक नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, बध्यमान और उदीर्णके व्यभिचारकी आपत्ति आती है। ___अब इस। द्विसंयोगवाले चतुर्थ सूत्रकी बध्यमान और उदीर्ण वेदनाओंके नाना जीवोंक। आश्रय करके शेष भंगोंको कहते हैं। यथा-अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण १ श्र-त्राप्रत्योः 'सुत्तबज्झमाण' इति पाठः। । छ, १२-४० । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड + [४, २, १०, १२. वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स चत्तारि भंगा [४]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स पंच भंगा [५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एवसमयपबद्धा च' बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ' पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ । एवं छ भंगा [६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणं एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ। एवं सत्त भंगा [७] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा' उदिण्णाओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ । एवमट्ठ भंगा [८] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ। एवं णव भंगा [8] | अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयपयडीओ एगसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वयणाओ । एवं दस भंगा [१०] । अधवा, अणयाणं जीवाणमणेयाओ पयवेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके चार भङ्ग हुए (४)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके पाँच भङ्ग हुए (५)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गईं उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार छह भङ्ग हुए (६)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गईं उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार सात भङ्ग हुए (७)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार आठ भङ्ग हुए (८)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्णः कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं। इस प्रकार नौ भङ्ग हुए (६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं । इस प्रकार दस भङ्ग हुए (१०)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक १ ताप्रतौ 'च' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते।। २ अ-प्राप्रत्योः 'जीवाणमेयाश्रो' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः 'पबद्धाओ', तापतौ 'पबद्धा [ो]' इति पाठः। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, १४.] वेयणमहाहियारे वैयणवेयणविहाणं | ३१५ डीओ एगसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च वेयणाओ। एवं चउत्यसुत्तस्स एक्कारस भंगा [११] | एवं बज्झमाणउदिण्णाणं दुसंजोगसुत्ताणमत्थपरूवणा कदा। संपहि बज्झमाण-उवसंताणं दुसंजोगजणिदवेयणाभंगपरूवणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि सिया बज्झमाणिया उवसंता च ॥ १३ ॥ वेयणा ति अणुवदे । एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे बज्झमाणाणुदिण्णाण व तिण्णि पत्थारे ठविय वत्तव्यं । तं जहा--एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्ममाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया बज्झमाणिया च उवसंता च वेयणा । एवं पढमसुत्तस्स एगो चेव भंगो [१] । सिया बज्झमाणिया' च उवसंताओ च ॥ १४॥ एदस्स विदियसुत्तस्स भंगपरूवणा कीरदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ' सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च वेयणा । एवं विदियसुत्तस्स पढमभंगो [१] । अधवा, एयरस जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीण वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके ग्यारह भंग हुए (११)। इस प्रकार बध्यमान और उदीर्ण वेदनाओंके द्विसंयोग सम्बन्धी सूत्रोंके अर्थकी प्ररूपणा की गई है। अब वध्यमान और उपशान्त वेदनाओंके द्विसंयोगसे उत्पन्न वेदनाभङ्गोंके प्ररूपणार्थ आगेका सूत्र कहते हैं कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है ॥ १३ ॥ 'वेदना' इसकी अनुवृत्ति है। इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय बध्यमान और उदीर्ण वेदनाके समान तीन प्रस्तारोंको स्थापित करके कथन करना चाहिये। वह इस प्रकारसे-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार प्रथम सूत्रका एक ही भङ्ग होता है (१)। कथंचित् बध्यमान ( एक ) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ १४ ॥ इस द्वितीय सूत्रके भङ्गोंकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार द्वितीय सूत्रका प्रथम भङ्ग हुआ (१)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक १ श्र-आप्रत्योः 'बन्झमाणियानो', ताप्रतौ 'बज्झमाणिया [ो]' इति पाठः । २ प्रतिषु 'उवसंता' इति पाठः। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, १०, १५. पयडीओ एयसमयपवद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च वेयणाओ एवं दो भंगा [२] । अधवा एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं तिण्णि भंगा [३] । एवं विदियसुत्तस्स तिण्णि चेव भंगा लभंति, ण सेसा; णिरुद्धगजोवत्तादो। सिया बज्झमाणियाओ च उवसंता च ॥ १५ ॥ एदस्म तदियसुत्तस्स भंगपरूवणा कीरदे। तं जहा–एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स एयपयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया बज्झमाणियाओ च उवसंता च वेयणा । एवं तदियसुत्तस्स एगो चेव भंगो [१] । सेसभंगा ण लब्भंति । कुदो ? णिरूद्धगजीवत्तादो। सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च ॥ १६ ॥ एदस्स चउत्थसुत्तस्स भंगपरूवणा कीरदे । तं जहा–एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एसो चउत्थसुत्तस्स पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्त अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स अणयाओ पयडीओ एयसमयपवद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भङ्ग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन भङ्ग हुए (३) । इस प्रकार द्वितीय सूत्रके तीन ही भङ्ग पाये जाते हैं; शेष नहीं पाये जाते; क्योंकि, यहाँ एक जीवकी विवक्षा है।। कथंचित बध्यमान (अनेक) और उपशान्त ( एक ) वेदना है ॥१५॥ इस तृतीय सूत्रके भोंकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार तृतीय सूत्रका एक ही भङ्ग है (१), शेष भङ्ग नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि, एक जीवकी विवक्षा है। कथंचित् बध्यमान ( अनेक ) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥१६॥ इस चतुर्थ सूत्रके भङ्गोंकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। यह चतुर्थ सूत्रका प्रथम भङ्ग है (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३१७ बेभंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ 'बज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स तिणि चेव भंगा होंति [३], वढिमा ण होति; रज्झमाण-उवसंतेसु णिरुद्धगजीवत्तादो। संपहि रज्झमाण-उवसंतेसु णाणाजीवे अस्सिदण चउत्थसुत्तस्स सेसभंगे वत्तइस्सामो। तं जहा-अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ! एवं चउत्थसुत्तस्स चत्तारि भंगा [४] । अधवा, अणयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं पंच भंगा [५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ [ एयसमयपबद्धाओ च ] उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं छ भंगा [६] । अधवा, अणेयाणं जीवाण प्रेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं सत्त भंगा [७] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमय सूत्रके दो भङ्ग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् वध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके तीन ही भङ्ग होते हैं (३), अधिक नहीं होते; क्योंकि बध्यमान और उपशान्त वेदनाओंमें एक जीवकी विवक्षा है। अब बध्यमान और उपशान्त वेदनाओंमें नाना जीवोंका आश्रय लेकर चतुर्थ सूत्रके शेष भङ्गोंको कहते हैं । यथा-अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके चार भङ्ग हुए (४)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवों की एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार पाँच भङ्ग हुए (५)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् वध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार छह भङ्ग हुए (६)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार सात भङ्ग हुए (७)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक १ ताप्रतौ -पबद्धाश्रो च बज्म- इति पाठः । २ ताप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१०, १७. पबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमट्ठ भंगा [८] । अधवा, अणे. याणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं णव भंगा [९] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं दस भंगा [१०] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चे जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया वज्झमाणियाओ च' उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स एक्कारस भंगा [११]। एवं बज्झमाण-उवसंताणं दुसंजोगसुत्तपरूवणा समत्ता। संपहि उदिण्ण-उवसंताणं दुसंजोगजणिदवेयणावियप्पपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि-- सिया उदिण्णा च उवसंता च ॥ १७ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणाए कीरमाणाए पुव्वं ताव उदिण्ण-उवसंताणं दुसंजोगसुत्तपत्थारं ठविय ११९२ पुणो उदिण्णस्स जीव-पयडि-समयाणमेग-बहुवयणाणं पत्थारं प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त. कथंचित बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार आठ भङ्ग हुए (८)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार नौ भङ्ग हुए (६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दस भङ्ग हुए (१०)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके ग्यारह भङ्ग हुए (११)। इस प्रकार बध्यमान और उपशान्त वेदनासम्बन्धी द्विसंयोगवाले सूत्रोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब उदीर्ण और उपशान्त प्रकृतियोंके द्विसंयोगसे उत्पन्न वेदनाविकल्पोंकी प्ररूपणा करनेके लिये अगला सूत्र कहते हैं कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है ॥ १७ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय पहिले उदीर्ण उपशान्त वेदनाके द्विसंयोग सूत्रके | उदीर्ण एक | एक अनेक अनेक प्रस्तारको स्थापित | उप करके फिर उदीर्ण वेदना सम्बन्धी जीव. १अ-अाप्रत्योः 'चेव' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः 'परूवणा' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः -मेगवक्यणार्ण' इति पाठः। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, १७] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३१९ ११११२२२२ उदिण्ण-उवसंत जीव-पयडि-समयपत्थारं ११२२११२२ च परिवाडीए १२१२१२१२ 'भंगायामपमाणं लहुओ गरुओ त्ति अक्खणिक्खेवो। तत्तो य दुगुण-दुगुणा पत्थारो विण्णसेयव्वो' ॥१॥' ११११२२२२॥ एदीए गाहाए ठविय ११२२११२२/ अत्थपरूवणा कायवा । अधवा, १११ । १२१२१२१२ १११ । १११ । बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंतेसुजीव-पयडि-समयाणमेग-बहुवयणाणि ठविय २२२ । २२२ 'पढमक्खो अंतगओ आदिगए संकमेदि बिदियक्खो। दोणि वि गंतूणतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥२॥' जीव | एक | एक एक | एक अनेक अनेक अनेक अनेक प्रकृति और समय, इनके एक व बहुवचनोंके प्रस्तारको प्रकृति एक | एक अनेक अनेक एक | एक अनेक अनेक २२० समय | एक |अनेका एक |अनेक एक |अनेक एक अनेक तथा [उदीर्ण] एवं उपशांत वेदनाके विषयमें जीव, प्रकृति और समयके प्रस्तारको भी परिपाटीसे, 'भंगोंके आयाम प्रमाण अर्थात् प्रथम पंक्तिगत भङ्गोंका जितना प्रमाण हो उतने बार लघु और गुरु इस प्रकारसे अक्षनिक्षेप किया जाता है। तथा आगे द्वितीयादि पंक्तियों में दुगुणे दुगुणे प्रस्तारका विन्यास करना चाहिये ॥१॥ इस गाथाके अनुसार स्थापित करके (संदृष्टि पहिलेके ही समान ) अर्थकी प्ररूपणा करनी चाहिये । अथवा, बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाके सम्बन्धमें जीव, प्रकृति और समय, इनके बध्यमान उदीर्ण उपशान्त करके | जीव प्रकृति समय | जीव प्रकृति समय | जीव प्रकृति समय एक व बहुवचनोंको स्थापित | एक | एक | एक | एक एक एक | एक एक एक अनेक अनेक . अनेक अनेक अनेक अनेक अनेक अनेक 'प्रथम अक्ष अन्तको प्राप्त होकर जब पुनः आदिको प्राप्त होता है तब द्वितीय अक्ष बदलता है। जब प्रथम और द्वितीय दोनों ही अक्ष अन्तको प्राप्त होकर पुनः आदिको प्राप्त होते हैं तब तृतीय अक्ष बदलता है ॥२॥ १ क. पा० २, पृ० ३०८ । २ प्रतिषु 'उदिण्णा' इति पाठः । ३ गा० जी० ४०, मूला० ११-२३, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१०, १८. एदीए गाहाए' पत्थारो आणिय ठवेयव्यो । पुणो पच्छा सुत्तपरूवणा कायव्वा । तं जहा–एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी 'एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवं पढमसुत्तस्स एको चेव भंगो ॥१॥ सिया उदिण्णा च उवसंताओ च ॥१८॥ एदस्स विदियसुत्तस्स भंगंपरूवणं कस्सामो। तं जहा--एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णा च उवसंताओ वेयणाओ। एवं विदियसुत्तस्स एसो पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बेभंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयममयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णा" च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं विदियसुत्तस्स तिण्णि चेव भंगा, णिरुद्धगजीवत्तादो। सिया उदिण्णाओ च उवसंता च ॥ १६ ॥ एदस्स तदियसुत्तस्स भंगपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया इस गाथाके अनुसार प्रस्तारको लाकर स्थापित करना चाहिये । पुनः पश्चात् सूत्रकी प्ररूपणा करनी चाहिये । यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है । इस प्रकार प्रथम सूत्रका एक ही भङ्ग है (१)। कथंचित् उदीर्ण (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ १८॥ इस द्वितीय सूत्रके भङ्गोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार द्वितीय सूत्रका यह प्रथम भङ्ग है (१)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार दो भङ्ग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार द्वितीय सूत्रके तीन ही भङ्ग हैं, क्योंकि, एक जीवकी विवक्षा है। कथंचित् उदीर्ण ( अनेक ) और उपशान्त ( एक ) वेदनायें हैं ॥ १६ ॥ इस तृतीय सूत्रके मङ्गोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति १ अ-श्राप्रत्योः ‘गाह' इति पाठः। २ अ अापत्योः 'एया' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'एयस्स' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'उदिण्णाश्रो', श्राप्रती 'प्रोदिण्णा' ताप्रतौ उदिण्णाश्रो' इति पाठः। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२१ ४, २, १०, २०.] वेणयमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ। एसो तदियसुत्तस्स पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ । एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ। एवं तिण्णि भंगा [३] । सेसा जीवबहुवयणभंगा उदिण्णगया एत्थ ण उच्चारिजति । कुदो ? उवसंतवेयणाए एयजीवम्मि अवट्ठाणादो उदिण्ण-उवसंताणं जीवं पडि वइयहियरणत्तप्पसंगादो । तेण तदियसुत्तस्स तिण्णि' चेव मंगा [३]। सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च ॥ २०॥ एदस्स चउत्थसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा--एयजीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ' च उवसंताओ च वेयणाओ । एसो चउत्थसुत्तस्स पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। यह तृतीय सूत्रका प्रथम भङ्ग है (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भङ्ग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन भङ्ग हैं (३)। उदीर्णगत शेष जीव बहुवचन भङ्गोंका यहाँ उच्चारण नहीं किया जाता है, क्योंकि, उपशान्त वेदनाका अवस्थान एक जीवमें होनेसे जीवके प्रति उदीर्ण और उपशान्त वेदनाओंकी व्यधिकरणताका प्रसङ्ग आता है । इस कारण तृतीय सूत्रके तीन ही भङ्ग हैं (३)। कथंचित् उदीर्ण ( अनेक ) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ २० ॥ इस चतुर्थ सूत्रके भङ्ग प्रमाणकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसीजीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त, कथश्चित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। यह चतुर्थ सूत्रका प्रथम भङ्ग है (१)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त: कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भङ्ग हुए (२)। अथवा एक जीवकी एक प्रकृति १ अ-ताप्रत्योः 'तिण्णेव' इति पाठः । २ तापतौः '-पबद्धा [उवसंताप्रो सिया] उदिण्णाश्नो' इति पाठः। छ. १२-४१ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४,२,१०, २०. ३२२ ] अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया उदिष्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं तिष्णि भंगा [३] | अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिष्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपवद्धा उवसंताओ, सिया उदिष्णाओ च उवसंताओ च वेणाओ । एवं चत्तारि भंगा [ ४ ] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ समयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव' जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयबद्धाओ वसंताओ, सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ व वेयणाओ' । एवं पंच भंगा [५] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं छ भंगा [ ६ ] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ असमयबद्धाओ उदिष्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं सत्त भंगा [७] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिष्णाओ, तस्सेव जीवस अणेयाओ पयडीओ एय समयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमट्ठ भंगा [ ८ ] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेय अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार तीन भङ्ग हुए ( ३ ) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चार भंग हुए (४) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार पाँच भङ्ग हुए ( ५ ) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार छह भङ्ग हुए (६) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्तः कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सात भङ्ग हुए (७) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशांत वेदनायें हैं । इस प्रकार आठ भङ्ग हुए ( ८ ) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गईं उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समय में बाँधी गइ उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और १ श्रान्ताप्रत्योः 'तस्स चेत्र' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । श्र श्रापत्योः 'उदिण्णा च वेयणाश्रो' ताप्रतौ 'उदिण्णा च [ उवसंताच ] वेयणा' इति पाठः । ३ - प्रत्यो: "सिया उदिष्णाश्रो च वेयणाश्रो' इति पाठः । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २०.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३२३ समयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं णव भंगा । एवमेयजीवमस्सिदण चउत्थसुत्तस्स णव चेव भंगा होति । ___ संपहि णाणाजीवे अस्सिदण तस्सेव चउत्थसुत्तस्स सेसभंगे वत्तइस्सामो। तं जहाअणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडो एयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ' च वेयणाओ। एवं दस भंगा [१०] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेकारस भंगा [११] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ व उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बारह भंगा [१२] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडो एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणम. णेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं तेरप भंगा [१३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चोदस्स भंगा [१४] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार नौ भंग हुए (९)। इस प्रकार एक जीवका आश्रय करके चतुर्थ सूत्रके नौ ही भंग होते हैं। ___ अब नाना जीवोंका आश्रय करके उसी चतुर्थ सूत्रके शेष भंगोंको कहते हैं। यथा-अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दस भंग हुए (१०)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्तः कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार ग्यारह भंग हुए (११)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बांधी उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार बारह भंग हुए (१२)। अथवा, अनेक जीवों की एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, सन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तेरह भंग हुए (१३)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चौदह भंग हुए (१४)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति १ ताप्रती 'उदिण्णा [ो च ] उवसंताओ' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'पबद्धाश्रो' इति पाठः। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, १०, २० अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं पण्णारस भंगा [१५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं सोलह भंगा [१६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेषणाओ। एवं सत्तरह भंगा [१७] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिप्रणाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं अट्ठारह भंगा [१८] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उपसंताओ च वेयणाओ। एवमेकोणवीस भंगा [१९] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं वीस भंगा [२०] । अधा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमेकवीस भंगा [२१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशन्त वेदनायें हैं। इस प्रकार पन्द्रह भंग हुए ( १५ ) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार सोलह भंग हुए (१६) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सत्तरह भंग हुए (१७) । अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार अठारह भंग हुए (१८)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें है। इस प्रकार उन्नीस भंग हुए (१६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार बीस भंग हुए (२०) । अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशांत; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार इक्कीस भंग हुए (२१)। अथवा, अनेक Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २०] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३२५ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपवद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बावीस भंगा [२२] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओं; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं तेवीस भंगा [२३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेत्र जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपत्रद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चउवीस भंगा [२४] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं पणुवीस भंगा [२५] । अधवा, एदे पणुवीस भंगा एवं वा उप्पादेदव्वा । तं जहा-एक्किस्से एगजीवउदिण्णुच्चारणाए जदि तिण्णिएगजीव उवसंतुच्चारणाओ लभंति तो तिण्णमेगजीवउदिण्णुच्चारणाणं केत्तियाओ उवसंतुच्चारणाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लभंति णव भंगा [९] पुणो एकिस्से णाणाजीवउदिण्णुच्चारणाए जदि चत्तारि जाणाजीव उवसंतुच्चारणाओ लब्भंति नो चदुण्णं णाणाजीवउदिण्णुचारणाणं केत्तियाओ उवसंतुचारणाओ लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सोलसुच्चारणाओ जीवों की अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त; वेदनायें हैं। इस प्रकार बाईस भंग हुए ( २२ ) । अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार तेईस भंग हुए ( २३)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वदनायें हैं । इस प्रकार चौबीस भंग हुए (२४)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें है। इस प्रकार पञ्चीस भंग हुए (२५)। अथवा, इन पञ्चीस भंगोंको इस प्रकारसे उत्पन्न कराना चाहिये। यथा-एक जीवसम्बन्धी उदीर्ण वेदनाकी एक उच्चारणामें यदि तीन एक जीव सम्बन्धी उपशान्त उच्चारणायें पायी जाती हैं तो एक जीव सम्बन्धी तीन उदीर्ण-उच्चारणाओंमें कितनी उपशान्त-उच्चारणायें प्राप्त होंगी. इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर नौ भंग प्राप्त होते हैं (६)। पुनः नाना जीवों सम्बम्धी एक उदीर्ण-उच्चारणामें यदि चार नाना जीवों सम्बन्धी उपशान्त-उच्चारणायें पायी जाती हैं तो नाना जीवों सम्बन्धी चार उदीर्ण-उच्चारणाओंमें कितनी उपशान्त-उच्चारणायें प्राप्त होंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर सोलह उच्चारणायें पायी जाती Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, २, १०, २१. लग्भंति [१६] 1) पुणो एदाओ सोलस पुबिल्लयाओ णव एगट्ठकदासु उदिण्णउवसंताणं दुसंजोगचउत्थसुत्तस्स पणुवीस भंगा हवंति । एवं बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेगदुसंजोगम्मि णिबद्धसुत्तपरूवणा समत्ता। - संपहि बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं तिसंजोगमस्सिदण वेयणावियप्पपरूवणट्टमुत्तरसुतं भणदि सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च ॥ २१ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे वज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेग-बहुवयणसदिहिं उविय ११३। पुणो एत्थ अक्खसंचारेण उप्पाइदतिसंजोगसुत्तपत्थारं ठविय |११११२२२२ ११२२११२२/ पुणो बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंतजीव-पयडि-समयाणमेय-बहुवयणसंदिट्ठीओ १२१२/१२१२/ हैं (१६)। अब सोलह ये और पूर्वकी नौ, इनको इकट्ठा करनेपर उदीर्ण व उपशान्त सम्बन्धी द्विसंयोग रूप चतुर्थ सूत्रके पच्चीस भंग होते हैं। इस प्रकार बध्यमान, उदीण और उपशान्त सम्बन्धी एक व दोके संयोगमें निबद्ध सूत्रकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त, इन तीनके संयोगका आश्रय करके वेदनाविकल्पोंकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं कथंचित् वध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है ॥ २१ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय बध्यमान उदीर्ण और उपशान्त, इनके एक म बध्य | उदीर्ण उपशान्त बहुवचनोंकी संदृष्टिको स्थापित करके एक । एक | एक पश्चात् यहाँ अक्षसंचारसे उत्पन्न | अनेक | कनेअ | अनेक | . कराये गये त्रिसंयोग रूप सूत्रके प्रस्तारको स्थापित कर बध्य. एक एक एक एक अनेक अनेक अनेक अनेक उदीर्ण एक | एक अनेक अनेक एक एक अनेक अनेक उपशा. एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक पुनः बध्यमान, उदीर्ण, उपशान्त, जीव, प्रकृति व समय, इनके एक व बहुवचनकी संदृष्टियोंको Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २२.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३२७ १११११११११११ परिवाडीए ठविय एदेहितो अक्खसंचारेणुप्पाइदतिण्णि वि पत्थारे च ठविय २२०/२२२२२०/ ११२२११११२२१२११११२२२२ एत्थ उवरिमपंती बज्झमाणिया मझिपंती १२१२११२२११२२११२२११२२ उदिण्णा हेहिमपंती उवसंता परूवणा कीरदे । १११११२१२१२१२१२१२१२१२ तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा चज्झपाणिया, ['तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा] तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवं पढमसुत्तस्स एको चेव भंगो [१] । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च ॥ २२ ॥ एदस्स तिसंजोगविदियसुत्तस्स भंगपरूवणा कीरदे। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया बध्यमान । उदीर्ण उपशान्त । एक एक एक एक एक एक एक | एक एक अनेक अनेक . अनेक अनेक अनेक अनेक अनेक . परिपाटीसे स्थापित करके इनसे अक्षसंचारके द्वारा उत्पन्न कराये गये तीनों ही प्रस्तारोंको स्थापित करके | यो एक एक अनेक एक | एक | एक |अनेक एक अनेक अनेक एक | एक एक एक | एक | अनेक एक | अनेक एक एक । अनेक अनेक एक । एक | अनेक एक अनेक अनेक अनेक एक अनेक अनेक अनेक एक अनेक एक । एद | एक अनेक | एक | एक अनेक अनेक अनेक एक | एक अनेक | एक अनेका अनेक एक अनेक अनेक अनेक । यहाँ ऊपरकी पंक्ति बध्यमान, मध्यम पंक्ति उदीर्ण व अधस्तन पंक्ति उपशान्तको प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है--एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, [ उसी विकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण], उसी जीवकी एकप्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् वध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार प्रथम सूत्रका एक ही भंग है (१) । __ कथंचित् बध्यमान, (एक ), उदीर्ण (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ २२ ॥ तीनोंके संयोगरूप इस द्वितीय सूत्रके भंगोंकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैएक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्तः कथश्चित १कोष्ठकस्थोऽयं पाठः प्रतिषु नोपलभ्यते। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ३२८ ] [ ४, २, १०, २३. च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं विदियसुत्तस्स पढमभंगो [१] । अधवा, यस जीवस्स एया पयडी 'एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एकसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपवद्धाओ वसंताओ, सिया बज्झपाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं वे भंगा [२] | अधवा, एयजीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चैव जीवस्स एया पयडी एयसमयपत्रद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं विदियसुत्तस्स तिण्णि चैव भंगा [३] । कुदो १ बज्झमाण - उदिण्णेसु एयवयणणिरोधादो | सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंता च ॥ २३ ॥ एदस्स तदियसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा – एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चैव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्माणिया च उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ । एवं तिसंजोगत दियसुत्तस्स पढमो भंग [१] । अधवा, यस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चैव जीवस्स एया पयडी एयसमयबद्धा उवसंता सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताच बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाऐं हैं । इस प्रकार द्वितीय सूत्रका प्रथम भंग है । अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उपशान्तः कथचित् बध्यमान, उदीर्ण, और उपशान्त वेदनाऐं हैं। इस प्रकार दो भंग हुए ( २ ) । अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समय में बाँधी गई उपशान्त; कथञ्चित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाऐं हैं । इस प्रकार द्वितीय सूत्रके तीन ही भंग होते हैं (३), क्योंकि, बध्यमान और उदीर्ण में एक वचनकी विवक्षा है | कथंचित् etara ( एक ), उदीर्ण ( अनेक ) और उपशान्त ( एक ) वेदना है ।। २३ ॥ इस तृतीय सूत्रके भंगों के प्रमाणकी प्ररूपणा करते । वह इस प्रकार है- एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई वध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई उपशान्त, कथश्चित् बध्यमान, उदीर्ण । और उपशान्त वेदनाऐं हैं । इस प्रकार तीनोंके संयोग रूप तृतीय सूत्रका यह प्रथम भंग है ( १ ) अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई उपशान्त; १. श्रापत्योः 'एया' इति पाठः । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २४.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३२९ वेयणाओ । एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बन्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणिया' च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं तदियसुत्तस्स तिण्णि चेव भंगा [३] । कारणं जाणिदण वत्तव्वं । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च ॥ २४ ॥ एदस्स तिसंजोगचउत्थसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा–एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बउझमाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स पढमभंगो [१]। अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उव. संताओ च वेयणाओ । एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एय कथञ्चित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कश्चित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार तृतीय सूत्रके तीन ही भंग हैं (३)। इसके कारणका जानकर कथन करना चाहिये। कथंचित् वध्यमान (एक), उदीर्ण ( अनेक ) और उपशान्त (अनेक) वेदनाएं हैं ॥ २४॥ . त्रिसंयोग रूप इस चतुर्थ सूत्रके भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैएक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कश्चित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रका यह प्रथम भंग है (१)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। अथवा, १ ताप्रती 'बज्झमाणिया [ो]' इति पाठः । २ अप्रतौ 'उवसंताश्रो', ताप्रतौ 'उवसंता [ो]' इति पाठः। छ. १२-४२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १०, २४. समयपबद्धा बज्भमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं तिण्णि भंगा [३] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सियो बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चतारि भंगा [४] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्त अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं पंच भंगा [५] । अधवा, एयस्स जीवस्स एयो पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ[एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ] अणेयसमयपबद्धाओ उपसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाश्रो । एवं छ भंगा [६] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च · उवसंताओ च वेयणाओ। एवं सत्त भंगा [७] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन भंग हुए (३)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चार भंग हुए (४)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बाँधी गई उदण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार पाँच भंग हुए (५)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण और उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गईं उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार छह भंग हुए (६)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण और उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सात भंग हुए (७)। अथवा, एक जीवकी एक Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २६.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३३१ तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओच उवसंताओ च वेयणाओ। एवमट्ट भंगा [८] । अधवा, एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया वज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चउत्थसुत्तस्स णव भंगा [९] । सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च उवसंता च ॥ २५ ॥ एदस्स पंचमसुत्तस्स भंगपमाणपरूवर्ण वत्तइस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया. पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च उवसंता च वेयणाओ। एवं पंचमसुत्तस्स एको चेव भंगो। सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च उवसंताओ च ॥२६॥ एदस्स तिसंजोगछट्ठसुत्तस्स भंगपमाणं वुच्चदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें इस प्रकार आठ भंग हुए (८)। अथवा, एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवको अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार चतुर्थ सूत्रके नौ भंग हैं (९)। कथंचित् वध्यमान (अनेक ), उदीर्ण (एक) और उपशान्त (एक), वेदना है ॥ २५ ॥ ___इस पाँचवें सूत्रकी भंगप्ररूपणाको कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् वध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है । इस प्रकार पाँचवें सूत्रका एक ही भंग है। कथञ्चित् बब्यमान (अनेक), उदीर्ण (एक) और उपशान्त (अनेक) वेदनाएं हैं।२६॥ ___ इस त्रिसंयोगी छठवें सूत्र के भङ्गों का प्रमाण कहते हैं । यथा - एक जीव की अनेक प्रकृ. तियाँ एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समय में बांधी गई उदीर्ण, Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, २७. सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेसो पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसममपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपवद्धाओ बज्ममाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं छट्ठसुत्तस्स तिण्णि चेव भंगा [३] । कारणं सुगमं । सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंता च ॥ २७॥ एदस्स सत्तमसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंता' च वेयणाओ । एवं पढमभंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ वज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार यह प्रथम भंग हुआ (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृ. तियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार दो भंग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवको अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार छठे सूत्रके तीन ही भंग हैं (३)। इसका कारण सुगम है। कथंचित् बध्यमान ( अनेक ), उदीर्ण (अनेक ) और उपशान्त (एक ) वेदना है ॥२७॥ इस सातवें सूत्रके भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी अनेक प्रकतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बांधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्तः कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार प्रथम भंग हुआ (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई , १ अ-प्राप्रत्योः 'उवसंताओ', ताप्रती 'उसंता [ओ] इति पाठः । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३३ ४, २, १०, २८.] वेयणमहाहियारे वैयणवेयणविहाणं पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाश्रो च उवसंता च वेयणाओ । एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमय. पबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्सेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ। एवं सत्तमसुत्तस्स वि तिण्णेव भंगा [३] | कारणं सुगमं । सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च ॥२८॥ एदस्स अट्ठमसुत्तस्स भंगपमाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ [एयसमयपबद्धाओ] बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंता: सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेगो भंगो [१] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमा. णियाओ', तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपरद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे भंगा [२] । अधवा, एयरस जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सातवें सूत्रके तीन ही भंग है (३)। इसका कारण सु कथंचित् वध्यमान (अनेक) उदीर्ण (अनेक) और उपशान्त ( अनेक) वेदनायें हैं ॥ २८ ॥ इस आठवें सूत्रके भंगप्रमाणको कहते हैं। यथा-एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ [ एक समयमें बाँधी गई ] बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बांधी गई बध्यमान; उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्तः कथंचित् बध्यमान, उदीण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी १ श्र-प्राप्रत्योः 'वा' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'उवसंता', ताप्रतौ 'उवसंता [श्रो] इति पाठः। ३ ताप्रतौ बज्झमाणियाओ[ उदिण्णा ] इति पाठः । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ) . छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १०, २८. अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ,. तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपवद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं तिणि भंगा [३] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चत्तारि भंगा [४] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्ममाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ['उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओपयडीओ एयसमयपबद्धाओ] उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं पंच भंगा [५] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं छ भंगा [६] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपवद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं सत्त भंगा [७] । अधवा, एयस्स जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तीन भंग हुए (३)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् वध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चार भंग हुए (४) । अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई । उदीण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई ] उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार पाँच भंग हुए (५)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान; उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार छह भंग हुए (६)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार सात भंग हुए (७)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी १ कोष्ठकस्थोऽयं पाठः प्रतिषु नोपलभ्यते । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २८. ] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३३५ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ एय. समयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमट्ट भंगा [८] । अधवा, एयस्स जीवस्त अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेय. जीवमस्तिदूण अट्ठमसुत्तस्स णव चेव भंगा होंति [९] । संपहि तस्सेव अट्ठमसुत्तस्स णाणाजीवे अस्सिदण बहुवयणभंगे वत्तइस्सामो। तं नहा-अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ; तेसिं चेव जीवाणमेया पयडो एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं दस भंगा [१०] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमा. णियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपत्रद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेक्कारस भंगा [११] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेंया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं बारह भंगा [१२] । जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् वध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें है। इस प्रकार आठ भंग हुए (८)। अथवा, एक जीवकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बांधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक जीवका आश्रय करके आठवें सूत्रके नौ ही भंग होते हैं (९)। अब नाना जीवोंका आश्रय करके उसी आठवें सूत्रके बहुवचन भंगोंको कहते हैं । यथाअनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हों जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बांधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण, और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दस भंग हुए (१०)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई वध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाये हैं। इस प्रकार ग्यारह भंग हुए (११)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् वध्यमान, उदीर्ण और उप Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, २८. अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं तेरह भंगा [१३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चोदस भंगा [१४] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमा. णियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं पण्णारह भंगा [१५] । अथवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णोओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं सोलह भंगा [१६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं सत्तरह भंगा [१७] । अधवा, शान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार बारह भंग हुए (१२)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तेरह भंग हुए (१३)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चौदह भंग हुए (१४)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यम उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार पन्द्रह भंग हुए (१५)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यभान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सोलह भंग हुए (१६)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त कथंचित् बध्यमान उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार सत्तरह भंग हुए (१७) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३७ ४, २, ५०, २८.) वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा' उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं अट्ठारह भंगा [१८] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्ममाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एय समयपबद्धाओ उदिण्णाओ तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णोओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेक्कोणवीस भंगा [१९] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धो बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं वीस भंगा [२०] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेक्कवीस भंगा [२१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवा. णमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णांओ च उवसंताओ च एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्ही जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार अठारह भंग हुए (१८)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार उन्नीस भंग हुए (१६)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण; उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान,उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार बीस भंग हुए (२०)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार इक्कीस भंग हुए (२१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान. उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंक एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें १ अ-ताप्रत्योः '-पबद्धाओ' इति पाठः । छ, १२-४३। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] छक्खंडागमे वेयणाखंडे [४,२, १०, २८. वेयणाओ । एवं बावीस भंगा [२२] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धो बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवं तेवीस भंगा [२३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ [उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ ] उवसंताओ', सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उपसंताओ च वेयणाओ। एवं चउवीस भंगा [२४] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणियोओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाश्री पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उपसंताओ च वेयणाओ। एवं पणुबीस भंगा [२५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धो उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ प उवसंताओ च वेयणाओ। एवं छव्वीस भंगा [२६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमय हैं। इस प्रकार बाईस भंग हुए ( २२)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएँ हैं। इस प्रकार तेईस भंग हुए (२३)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई वध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण; उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चौबीस भंग हुए (२४)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार पञ्चीस भंग हुए (२५)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार छब्बीस भंग हुए (२६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक १ताप्रतौ 'बज्झमाणिया| श्री तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णायो तेसिं चेव नीवाणमणेयाश्रो पयडीयो अणेयसमयपबद्धाश्रो उवसंतानो इति पाठः । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३३९ पबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं सत्तावीस भंगा [२७] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धामो यज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमट्टवीम भंगा [२८] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेक्कोणतीस भंगा [२६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बझमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिएणाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उपसंताओ, सिया बज्झमाणियाओचं उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं तीस भंगा [३०]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमय पबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा' उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेक्कतीस भंगा [३१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्म समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथांचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सत्ताईस भंग हुए (२७) । अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार अट्ठाईस भंग हुए (२८)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार उनतीस भंग हुए (२६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तीस भंग हुए (३०)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना हैं। इस प्रकार इकतीस भंग हुए (३१)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं १ अ-ताप्रत्योः 'समयपबद्धाओ', अाप्रतौ 'समयप०' इति पाठः। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १०, २८. माणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपपद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेवाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्ममाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बत्तीस भंगा [३२] । अधवा, अणेयाणं जीवाणं अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं तेत्तीस भंगा [३३] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ', सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चोत्तीस भंगा [३४]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसं. ताओ च वेयणाओ। एवं पंचतीस भंगा [३५] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणं अणेयाओ पयडीओ एगसमयपबद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार बत्तीस भंग हुए (३२)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार तेतीस भंग हुए (३३)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार चौंतीस भंग हुए (३४)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार पैंतीस भंग हए (३५)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्तः कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार १ अ-आप्रत्योः -मेथा ५० श्री च स. उवसं०', ताप्रतौ तेसिं० मेया उवसं' इति पाठः। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, २८. ] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३४१ एवं छत्तीस भंगा [३६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणं अणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणं अणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं सत्ततीस भंगा [३७] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंताओ', सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमट्ठतीस भंगा [३८] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणे. याओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेक्कोणचालीस भंगा [३६] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, तेसिं चे जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपत्रद्धाओ उवसंताओ; सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं चालीस भंगा [४०]। अधवा अणेयाणं जीवाणमणेयाओ पयडीओ एयसमयपबद्धाओ बज्झमाणियाओ, तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उदिण्णाओ, छत्तीस भंग हुए (३६)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार सैंतीस भंग हुए ( ३७)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार अड़तीस भंग हुए (३८)। अथवा, अनेक जीर्वोकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार उनतालीस भंग हए (३६)। अथवा अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनामें हैं। इस प्रकार चालीस भंग हुए (४०)। अथवा, अनेक जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीण, १ प्रतिषु 'मेया० समय उव०' इति पाठः। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१०,२९ तेसिं चेव जीवाणमणेयाओ पयडीओ अणेयसमयपबद्धाओ उवसंताओ, सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ च उपसंताओ च वेयणाओ। एवमिगिदालीस भंगा [४१] । अधवा, एकतालीस भंगा एवं वा उप्पादेदव्या । तं जहा-एगजीवमस्सिदण एक्किस्से उदिण्णुच्चारणाए जदि तिण्णि उवसंतउच्चारणाओ लब्भंति तो तिण्णमुदिण्णुचारणाणं केत्तियाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए' णव भंगा लभंति [ह] पुणो णाणाजीवे अस्सिदूण जदि एक्किस्से उदिण्णुच्चारणाए चत्तारि उवसंतुच्चारणाओ लभंति तो चदुण्णमुदिण्णुच्चारणाणं केत्तियाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सोलस भंगा लभंति १६] । पुणो एक्कस्स गाणाजीववज्झमाणभंगस्स जदि सोलस भंगा लब्भंति तो दोण्णं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए बत्तीस भंगा उप्पज्जति [३२] । एत्थ पुव्विल्लणवभंगेसु पक्खित्तेसु बज्झमाणउदिण्ण-उवसंताण तिसंजोगम्मि अट्ठमसुत्तस्स इगिदालीसभंगा होति [४१] । एवं णेगमणयम्मि वज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेगसंजोग-दुसंओग-तिसंजोगेहि णाणावरणीयपरूवणा कदा । एवं सचण्णं कम्माणं ॥ २६ ॥ जहा णाणावरणीयस्स वेयणवेयणविहाणं णेगमणयस्स अहिप्पारण परूविदं तहा उन्हीं जीवोंकी अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायों हैं । इस प्रकार इकतालीस भंग हुए (४१)। अथवा, इकतालीस भंगोंको इस प्रकारसे उत्पन्न कराना चाहिये। यथा-एक जीवका आश्रय करके यदि एक उदीर्ण-उच्चारणामें तीन उपशान्त-उच्चारणायें पायी जाती हैं तो तीन उदीर्ण-उच्चारणाओंमें वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर नौ उपशान्त उच्चारणायों पायी जाती हैं (६)। पुनः नाना जीवोंका आश्रय करके यदि एक उदीर्ण उच्चारणामें चार उपशान्त-उच्चारणाों पायी जाती हैं तो चार उदीर्ण-उच्चारणाओंमें वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर सोलह भंग पाये जाते हैं (१६)। पुनः नाना जीवों सम्बन्धी एक बध्यमान भंगमें यदि सोलह भंग पाये जाते हैं तो दो बध्यमान भंगोंमें कितने भंग पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर बत्तीस भंग उत्पन्न होते हैं (३२)। इनमें पूर्वोक्त नौ भंगोंको मिलाने पर बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त, इन तीनोंके संयोगसे आठवें सूत्र के इकतालीस भंग होते हैं (४१)। इस प्रकार नैगम नयकी अपेक्षा बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त; इनके एक, दो व तीनोंके संयोगसे ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणा की गई हैं। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के वेदनावेदनविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥२६॥ नैगम नयके अभिप्रायसे जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके वेदनावेदनविधानकी प्ररूपणा की गई है १ अ-आप्रत्योः 'अोवट्टिदाए ण लब्भंति' इति पाठः। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, ३०. ] वेयणमहाहियारे वेयणत्रेयणविहाणं [ ३४३ सत्तणं कम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । संपहि ववहारणयम स्सिदृण वेयणवेयण विहाणपरूवणमुत्तरमुत्तं मणदि सिया बज्झमाणिया ववहारणयस्स णाणावरणीयवेयणा २० वेयणा ॥ ३० ॥ दस्त अत्थे भण्णमाणे ताव जीव-पय डि-समयाण मे गवयणाणि जीवाणं बहुवयणं च वेदव्वं |१ १ || किमहं समय बहुवयणमवणिदं ? णाणावरणीयस्स बज्झमाणत्तमे गम्हि चैव समए होदि ति जाणावण । अदीदाणागदसमया एत्थ किण्ण गहिदा ? ण, अदीदे काले बद्धकम्मक्खंधाणमुवसंतभावेण बज्झमाणत्ताभावादी । णाणागाणं पिकमधाणं वज्झमाणत्तं, तेसिं संपहिजीवे अभावादो । तम्हा कालस्स एयत्तं चैव, ण बहुत्तमिदि सिद्धं । पयडीए बहुत्तं किमहमोसारिदं १ णाणावरणभावं मोत्ण तत्थ अण्णभावाणुवलंभादो । आवरणिज्जस्स भेरे आवरणपयडिभेदो होदि । उसी प्रकार शेष सात कर्मोंके वेदनावेदनविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। अब व्यवहार नयका आश्रय करके वेदनावेदनविधानकी प्ररूपणा करनेके लिये गेका सूत्र कहते हैं व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है ॥ ३० ॥ इस सूत्र के अर्थका कथन करते समय पहिले जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन तथा जीव प्रकृति समय एक अनेक जीवों के बहुवचन स्थापित करने चाहिये एक अनेक ० Jain Education international ० शंका-समय के बहुवचनको क्यों कम कर दिया गया है ? समाधान - ज्ञानावरणीयका 'बध्यमान' स्वरूप एक समयमें ही होता है, यह प्रगट करने के लिये समय के बहुवचनको कम किया गया है । शंका- अतीत और अनागत समयोंको यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया गया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अतीत कालमें बाँधे गये कर्मस्कन्धोंके उपशमभाव से परिणत होनेके कारण उनके उस समय बध्यमान स्वरूपका अभाव है। अनागत भी कर्मस्कन्ध बध्यमान नहीं हो सकते, क्योंकि, इस समय जीव में उनका अभाव है। इस कारण कालका एकवचन ही है, बहुवचन सम्भव नहीं है; यह सिद्ध है । शंका- प्रकृतिके बहुवचनको क्यों अलग किया गया है ? समाधान-- - चूँकि उसमें ज्ञानावरण स्वरूपको छोड़कर और कोई दूसरा स्वरूप नहीं पाया जाता है, अतः उसके बहुवचनको अलग किया गया है । आवरणीय (आवरण के योग्य) का भेद I Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ३०. ण चावरणिज्जस्स केवलणाणस्स भेदो अत्थि जेण पयडिमेदो होज्ज । तम्हा सिद्धमेयत्तं पयडीए । जीवस्स बहुत्तमत्थि । ण च जीवाहुत्तेण पयडिभेदो होज्ज, पयडीए एगसरूवत्तदसणादो। तम्हा' जीव-पयडि-समयाणमेयत्तं जीवबहुत्तं च बज्झमाणकम्मक्खंधस्स संभवदि त्ति सिद्धं । एत्थ अक्खपरावत्ते कदे बज्झमाणियाए वेयणाए जीव-पयडि-समयपत्थारो उप्पज्जदि । तस्ससंदिट्ठी एसा । एवं ठविय पुणो एदस्स पढमसुत्तस्स अत्थो बुञ्चदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झमाणिया वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झमाणिया वेयणा' । एवं बे भंगा [२] | जीवबहुत्तेण पयडिबहुत्तं पत्थि, किंतु कालबहुतेण चेव पयडिबहुत्तं होदि । तत्थ वि उवसंताए उदय-ओकड्डण-उक्कड्डण-परपयडिसंकमणादीहि पयडिभेदो णत्थि, किंतु बज्झमाणसमयबहुत्तेण चेव पयडिभेदो, तहा' लोए संववहारदसणादो । एवं बज्झमाणियाए वेयणाए चेव भंगा पढमसुत्तम्मि । होनेपर ही आवरण प्रकृतिका भेद होता है। परन्तु आवरण करनेके योग्य केवलज्ञानका कोई भेद है ही नहीं, जिससे कि प्रकृतिका भेद हो सके। इस कारण प्रकृतिका अभेद ( एकता) सिद्ध ही है। जीवोंका बहुत्व सम्भव है। यदि कहा जाय कि जीवोंके बहुत्वसे प्रकृतिका बहुत्व भी सम्भव है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्रकृतिमें एक स्वरूपता देखी जाती है। इस कारण बध्यमान कर्मस्कन्धके सम्बन्धमें जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन और जीवोंके बहुचनकी सम्भावना है, यह सिद्ध है। यहाँ अक्षपरावर्तन करनेपर बध्यमान वेदना सम्बन्धी जीव, प्रकृति व समयका प्रस्तार उत्पन्न | जीव | एक अनेक होता है। उसकी संदृष्टि यह है-प्रकृति एक | एक || इस प्रकार स्थापित करके इस प्रथम सूत्रका समय| एक एक अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् बध्यमान वेदना है । इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् बध्यमान वेदना है। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। जीवोंके बहुत्वसे प्रकृतिका बहुत्व नहीं होता है, किन्तु कालके बहुत्वसे ही प्रकृतिका बहुत्व होता है । कालबहुत्वमें भी उपशान्तमें उदय, अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृति संक्रमण आदिके द्वारा प्रकृतिभेद नहीं होता; किन्तु बध्यमान समयोंके बहुत्वसे ही प्रकृतिभेद होता है, क्योंकि, लोकमें वैसा संव्यवहार देखा जाता है। इस प्रकार प्रथम सूत्र में बध्यमान वेदनाके ही भंग हैं। १ प्रतिषु 'तं जहा' इति पाठः। २ ताप्रती 'वेयणा [ए]' इति पाठः । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्रा-काप्रतिषु 'तदा', ताप्रतौ 'तदा (था)' इति पाठः । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२२। । १२१२ ४, २, १०, ३२.] येयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३४५ (सिया उदिण्णा वेयणा ॥३१॥ संपहि एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेगवयणं जीव-समयाणं बहुवयणं च ठविय ३४३] एस्थ अक्खपरावते कदे उदिण्णवेयणाए जीव-पर्याडसमयाणं पत्थारो उप्पज्जदि)।११।। एत्थ उदिण्णाए णस्थि पयडिबहुवयणं, एक्किस्से णाणावरणीयपयडीए बहुत्ताभावादो। जीवाहवयणमत्थि । ण तत्तो उदिण्णबहुत्तं, समयबहुत्तादो चेव उदिण्णाए बहुत्तववहारुवलंभादो। ण च लोगववहारवाहिरं किं पि अस्थि, अव्यवहारणिज्जस्स अस्थित्तविरोहादो। संपहि एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा–एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उदिण्णा वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उदिण्णा वेयणा । एवमुदिण्णएगवयणसुत्तस्स बे भंगा [२] । (सिया उवसंता वेयणा ॥ ३२॥) कथंचित उदीर्ण वेदना है ॥ ३१ ॥ अब इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन तथा |जीव प्रकृति समय जीव व समयके बहुवचनको भीस्थापित करके एक एक एक | यहाँ अक्षपरावर्तन करनेपर उदीर्ण अनेक • अनेक | जीव एक एक अनेक अनेक वेदना सम्बन्धी जीव, प्रकृति व समयका प्रस्तार उत्पन्न होता है- प्रकृति एक एक | एक एक समय एक अनेक एक अनेक यहाँ उदीर्ण वेदनामें प्रकृतिका बहुवचन सम्भव नहीं है, क्योंकि, एक ज्ञानावरणीय प्रकृतिका बहुत होना असम्भव है । जीवबहुवचन सम्भव है। परन्तु उससे उदीर्ण प्रकृतिका बहुत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, समयबहुत्वसे ही उदीर्ण प्रकृतिके बहुत्वका व्यवहार पाया जाता है। और लोकव्यवहारके बाहिर कुछ भी नहीं है, क्योंकि, अव्यवहरणीय पदार्थके अस्तित्वका विरोध है। अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-एक जीषकी एक प्रकृत्ति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार उदीर्ण वेदना सम्बन्धी एकवचन सूत्रके दो भंग होते हैं (२)। कथंचित् उपशान्त वेदना है॥ ३२ ॥ .. छ, १२-४ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ३३. (एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणाए कीरमाणाए जीव-पयडि-समयाणमेगवयणं जीवसमयाणं बहुवयणं च ठविय ३१३ अक्खपरावत्ते कदे उवसंतवेषणाए जीव-पयडि-समयपत्थारो होदि१२ (संपहि ऐदस्स सुत्तस्स भंगुच्चारणं कस्सामो । तं जहाएयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंता वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंता वेयणा । एवमेदस्स वि सुत्तस्स बे चेव भंगा [२] | एवं वज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेयवयणपरूवणा कदा।) सिया उदिण्णाओ वेयणाओ॥३३॥ बज्झमाणियाए वेयणाए किण्ण बहुत्तं परूविदं १ ण, ववहारणयम्मि तिस्से बहुत्ताभावादो । ण ताव जीवबहुत्तेण बज्झमाणियाए बहुत्तं, जीवभेदेण तिस्से भेदववहाराणु इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति व समय, इनके एकवचन तथा जीव व जीव प्रकृति समय समयके बहुवचनको स्थापित | एक | एक | एक | कर अक्षपरावर्तन करनेपर उपशान्त वेदना अनेक . अनेक जीव | एक एक अनेक अनेक सम्बन्धी जीव, प्रकृति व समयका प्रस्तार होता है-प्रकृति एक एक एक | एक || अब इस समय एक अनेक एक अनेक सूत्रके भंगोंका उच्चारण करते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बांधी गई कथंचित् उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् उपशान्त वेदना है। इस प्रकार इस सूत्रके भी दो ही भंग है (२)। इस प्रकार बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाके एकवचनकी प्ररूपणा की गई है। कथंचित् उदीर्ण वेदनायें हैं ॥ ३३ ॥ शंका-बध्यमान वेदनाके बहुत्वकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान नहीं क्योंकि. व्यवहारनयकी अपेक्षा उसके बहत्वकी सम्भावना नहीं है। कारण कि जीवोंके बहुत्वसे तो बध्यमान वेदनाके बहुत्वकी सम्मावना है नहीं, क्योंकि, जीवोंके भेदसे उसके भेदका व्यवहार नहीं पाया जाता। प्रकृतिभेदसे भी उसका भेद सम्भव नहीं है, क्योंकि, एक ज्ञाना Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, ३५. ] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३४७ वलंभादो | ण पयडिभेदेण भेदो, एकिस्से णाणावरणीयपयडीए भेदववहारादंसणादो । ण समयभेदेण भेदो, बज्झमाणियाएं वट्टमाणविसयाए कालबहुत्ताभावादो । तम्हा बज्झमणिया वेणा त्थि बहुवयणमिदि घेत्तव्वं । संपहि उदिण्णाए विण जीवबहुत्तेण बहुत्तं, तहाविहववहाराभावादो | ण पयडिबहुतेण उदिष्णवेयणाए बहुत्तं निरुद्वेयपयडित्तादो । कालबहुतं चैव अस्सिदूण बहुवयणसुत्तभंगपरूवणा कीरदे । तं जहा - एयस्स जीवस्स एयपयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उदिण्णाओ वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पडी अणेयसमयपबद्धा सिया उदिष्णाओ वेयणाओ । एवमेदस्स सुत्तस्स वे चैव भंगा [२] । सिया उवसंताओ वेयणाओ ॥ ३४ ॥ एदस्स सुत्तस्स भंगपरूवणं कस्सामो । तं जहा - एयस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपत्रद्धा उवसंताओ वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाया पयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उवसंताओ । एवमेदस्स सुत्तस्स ने चैव भंगा [२] | संपहि दुसंजोग परूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि सिया बज्झमाणिया उदिण्णा च ॥ ३५ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्ये भण्णमाणे ताव बज्झमाण- उदिण्णाणं |१३ दुसंजोगसुत्तप वरणीय प्रकृतिके भेदका व्यवहार देखा नहीं जाता। समयभेदसे भी उसका भेद नहीं हो सकता, क्योंकि, वर्तमान कालको विषय करनेवाली बध्यमान वेदनामें कालके बहुत्वकी सम्भावना ही नहीं है । इस कारण बध्यमान वेदनाके बहुवचन नहीं है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । जीवबहुत्व उदीर्ण वेदनाका भी बहुत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा व्यवहार नहीं पाया जाता । प्रकृतिबहुत्वसे भी उदीर्ण वेदनाका बहुत्व असम्भव है, क्योंकि, एक ही प्रकृतिकी विवक्षा है । अतएव एक मात्र कालबहुत्वका आश्रय करके बहुवचनसूत्रके भंगों की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदनाऐं हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ ( १ ) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदनाऐं हैं। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भंग हुए (२) । कथंचित उपशान्त वेदनायें हैं ॥ ३४ ॥ इस सूत्र भंगों की प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ ( १ ) । अथवा अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई कथंचित् उपशान्त वेदनाऐं हैं । इस प्रकार इस सूत्र के दो ही भंग हैं (२) । अब दोके संयोगकी प्ररूपणा के लिये आगेका सूत्र कहते हैं कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है ।। ३५ ॥ इस सूत्र के अर्थका कथन करते समय पहिले बध्यमान और उदीर्ण दोनोंके संयोगरूप सूत्रके Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] क्खंडागमे देयणाखंड स्थारं । तेसिं जीव-पयडि-समयपत्थारे च दृविय १२ १११ |११ । १२१ पच्छा एदस्स सुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामी । तं अहा- एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चैव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिष्णा, सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च वेयणा' । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवामेया पयडी एयसप्रयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं वेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च वेयणा । एवमेदस्स दुसंजोगपढमसुत्तस्स वे चैव भंगा [२] । सिया बज्माणिया च उदिण्णाओ च ॥ ३६ ॥ ऐदस्स दुसंजोगविदियसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामा । तं जहा – एयरस जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चैव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयबद्धा उदिण्णाओ, सिया वन्झमाणिया च उदिण्णाओ च वेयणाओ । एव प्रस्तारको ब० उ० [ ४, २, १०, ३६ एक एक तथा उनके जीव, प्रकृति व समय सम्बन्धी प्रस्तारको भी स्थापित करके एक अनेक उदीर्ण जीव एक अनेक एक एक अनेक अनेक प्रकृति एक एक एक एक एक एक समय एक एक एक अनेक एक अनेक पश्चात् इस सूत्र के अंगोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है - एक जीवकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार एक भंग हुआ ( १ ) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार दोके संयोग रूप इस सूत्रके दो ही भंग हैं । (२) । कथंचित् बध्यमान (एक) और उदीर्ण ( अनेक ) वेदनायें हैं ।। ३६ ॥ दो संयोग रूप इस द्वितीय सूत्रके भंगप्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है - एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमे बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायें हैं । इस प्रकार एक भंग हुआ ( १ ) । अथवा, १ ताप्रतौ ' च वेयणा [ ए ]' इति पाठः । बध्यमान Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११२१२॥ ४, २, १०, ३७] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३४६ मेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, सिया बज्झमाणिया च' उदिण्णाओ च वेयणाओ [२] । एवं दुसंजोगविदियसुत्तस्स दो चेष भंगा। सिया बज्झमाणिया च उवसंता च ॥३७॥ एदस्स बज्झमाण-उवसंताणं दुसंजोगपढमसुत्तस्सत्थे भण्णमाणे ताव बज्झमाणाणं उवसंताणं दुसंजोगसुत्तपत्थारं |१३] पुणो बज्झमाण-उवसंतजीव-पयडि-समयपत्थारं च |१२|११२२ दृविय ११।१११ पच्छा एदस्स सुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहाएयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया बज्झमाणिया च उवसंता च वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बांधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदनायों हैं। इस प्रकार दोके संयोग रूप द्वितीय सूत्रके दो ही भंग हैं (२)। कथंचित् बध्यमान (एक) और उपशान्त (एक वेदना है ॥ ३७॥ बध्यमान और उपशान्त इन दोके संयोग रूप प्रथम सूत्रके अर्थका कथन करते समय पहिले व० उप० बध्यमान और उपशान्त इन दोके संयोग रूप सूत्रके प्रस्तार एक | एक | को तथा बध्यमान, उपशान्त, | एक अनेक बध्यमान उपशान्त जीव एक अनेक | एक एक अनेक अनेक जीव, प्रकृति और समय, इनके प्रस्तारको भी प्रकृति एक एक | एक | एक एक एक समय | एक एक | एक अनेक एक अनेक स्थापित करके पश्चात् इस सूत्रके भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'बज्झमाणियाश्रो', ताप्रती 'बज्झमाणिया [ो]' इति पाठः। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ३८. चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया बज्झमाणिया च उवसंता च वेयणा । एवमेत्थ दो चेव भंगा' [२] । सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च ॥ ३८ ॥ संपहि एदस्स विदियसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणिया च उवसंताओं च वेयणाओ। एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे भंगा [२] । एवं बज्झमाण-उवसंताणं दुसंजोगपरूवणा कदा । संपहि उदिण्ण-उवसंताणं दुसंजोगजणिदवेयणापरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि(सिया उदिण्णा च उवसंता च ॥३६ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे ताव उदिण्ण-उवसंतऐग-बहुवयण |३३ जणिदसुत्तपत्थारं १ ३२२ ठविय पुणो उदिण्ण'-उवसंताणं जीव-पयडि-समयएगवयणेहि अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है । इस प्रकार यहाँ दो ही भंग हैं (२)। कथंचित् बध्यमान (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ ३८॥ अब इस द्वितीय सूत्रके भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। इस प्रकार बध्यमान और उपशान्त इन दोके संयोगकी प्ररूपणा की गई है। अब उदीर्ण और उपशान्त इन दोके संयोगसे उत्पन्न वेदनाकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते है कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है ॥ ३९ ॥ इस सूत्रके अर्थका कथन करते समय पहिले उदीर्ण और उपशान्तके एक व बहुवचनसे उदर्ण एक | एक अनेक अनेक एक | एक | उत्पन्न सूत्रके प्रस्तारको स्थापित करके फिर उदीर्णव | उप०| एक अनेक एक अनेक अनेक अनेक १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भंगो' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'उदिण्णा' इति पाठः । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२१२१२ ४, २, १०, ४०.] वेंणयमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३५१ ११२२|११२२ जीवसमयाणं बहुक्यणेहि य उप्पण्णपत्थारं च ठवेदूण ११११११११ पच्छा भंगुप्पत्तिं वत्तइस्सामो) तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी ऐयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणं एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवं बे भंगा [२] उदिण्णुवसंताणं दुसंजोगपढमसुत्तस्स । सिया उदिण्णा च उवसंताओ च ॥४०॥ एदस्स विदियसुत्तस्स भंगे वत्तइस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया उदिण्णाओ' च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसययपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे भंगा [२] एदस्त सुत्तस्स। उपशान्त सम्बन्धी जीव, प्रकृति और समयके एकवचन तथा जीव व समयके बहुवचनसे उत्पन्न प्रस्तार उदीर्ण उपशान्त ... जीव | एक | एक अनेक अनेक एक | एक अनेक अनेक - स्थापित करके पश्चात् भंगोंकी प्रकृति| एक | एक एक | एक | एक | एक | एक | एक समय एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक उत्पत्तिको कहते हैं । यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; 'कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार उदीर्ण और उपशान्त इन दोके संयोग रूप प्रथम सूत्रके दो भंग हैं (२)। कथंचित् उदीणे (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ ४०॥ इस द्वितीय सूत्रके भंगोंको कहते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण. उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त: कथंचित उदीर्ण और उपशान्त वेदनाये हैं। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार इस सूत्रके दो भङ्ग हैं (२)। १ अ श्रा-काप्रतिषु 'उदिण्णाश्रो', तापतौ 'उदिण्णा [ओ]' इति पाठः । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ४१. सिया उदिण्णाओ च उवसंता च ॥४१॥ ऐदस्स तदियसुत्तस्स' भंगे वत्तहस्सामो । तं जहा-ऐयस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपरद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णाओ च उवसंता' च वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एय. समयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णाओ च उवसंतो च वेयणाओ । एवं बे भंगा [२] एदस्स सुत्तस्स । सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च ॥ ४२ ॥ एदस्स चउत्थसुत्तस्स भंगे वत्तइस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपवद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे चेव भंगा [२] । उदिण्ण-उवसंताणं दुसंजोगचउत्थसुत्तस्स । संपहि तिसंजोगजणिदवेयणविहाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि कथंचित् उदीर्ण ( अनेक ) और उपशान्त ( एक ) वेदनायें हैं ॥ ४१ ॥ इस तृतीय सूत्रके भङ्गोंको कहते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार इस सूत्रके दो भङ्ग हैं (२)। कथंचित् उदीर्ण ( अनेक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ ४२ ॥ इस चतुर्थ सूत्रके भङ्गोंको कहते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण; उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उिपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार उदीर्ण और उपशान्त इन दोके संयोग रूप चतुर्थ सूत्रके दो ही भंग हैं (२)। अब तीनोंके संयोगसे उत्पन्न वेदनाके विधानकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं १ ताप्रतौ 'एदरस सुत्तस्स' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'उवसंता [ो]' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'समय पबद्धाश्रो' इति पाठः। ४ प्रतिषु 'उदिण्णा' इति पाठः । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... .... ........ . |१२|११२२१११२२॥ ४, २, १०, ४३.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३५३ सिया बज्झमाणया च उदिण्णा च उवसता च ॥४३॥ एदस्स तिसंजोगपढमसुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेगवयणेहिं उदिण्ण-उवसंताणं बहुवयणेहि ११९ जणिदतिसंजोगसुत्तस्स पत्थार ११११ बज्झ "११२२/१ १२१२/ माण-उदिण्ण-उवसंताणं जीव-पयडि-समयपत्थारे च रविय | |११|११११११११| पच्छा |११/१२१२/१२१२| भंगुष्पत्ति भणिस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्ममाणिया, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उपसंता; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च वेय कथंचित् वध्यमान, उदीणे और उपशान्त वेदना है॥४३॥ - तीनोंके संयोग रूप इस प्रथम सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय बध्यमान, उदीर्ण और वध्य० उदीर्ण उप० उपशान्त, इनके एकवचन तथा उदीर्ण और उपशान्त, इनके पहुवचन | एक | एक | एक | से। • अनेक अनेक बध्य० एक एक | एक एक उत्पन्न तीनोंके संयोग रूप सूत्रके प्रस्तार उदीर्ण एक | एक अनेक अनेक तथा बध्यमान, उदीर्ण और उपशा एक |अनेक बध्यमान उदीर्ण एक अनेक एक | एक अनेक अनेक उपशान्त सम्बन्धी जीव प्रकृति व समयके प्रस्तारों प्रकृति एक | एक | एक | एक | एक | एक | समय | एक | एक | एक अनेक एक अनेक को भी स्थापित करके पश्चात् भंगोंकी उत्पत्तिको कहते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। छ, १२-१५। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१०, ४४. णाओ। एवमेगो भंगो [१]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया' पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी. एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेदस्स सुत्तस्स बे व भंगा [२] । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च ॥४४॥ एदस्स तिसंजोगविदियसुत्तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एयो पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धार उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवमेदस्स बे चेव भंगा [२] । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंता च ॥ ४५ ॥ एदस्स तदियसुत्तस्स आलावे भणिस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भंग हैं (२)। कथंचित् वध्यमान (एक), उदीर्ण (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥४४॥ तीनोंके संयोग रूप इस द्वितीय सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक मयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भंग हैं (२)। कथंचित् वध्यमान (एक), उदीर्ण (अनेक) और उपशान्त (एक) वेदना है ॥४५॥ इस तृतीय सूत्रके आलापोंको कहते हैं। वे इस प्रकार हैं-एक जीवकी एक प्रकृति एक १ ताप्रतौ 'अणेयाणं [ पयडीणं ] जीवाणमेय' इति पाठः । २ प्रतिषु '-पबद्धानो' इति पाठः । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०,४६] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३५५ पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ। एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी' अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सियो बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंता च वेयणाओ । एवमेदस्स सुत्तस्स बे चेव भंगा [२] । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च ॥४६॥ एवमेदस्स चउत्थसुत्तस्स भंगपरूवणं कस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपत्रद्धा उदिण्णाओ, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा' उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उदिण्णाओ, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समय में बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भङ्ग हैं (२)। कथंचित् वध्यमान (एक), उदीर्ण ( अनेक ) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ ४६॥ इस प्रकार इस चतुर्थ सूत्रके भङ्गोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान; उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं। ........ १ताप्रतावतोऽग्रे 'एयसमयपबद्धा उदिण्णा तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धो उवसंताश्री सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताश्रो च वेयणाश्रो, एवमेदस्स वे चेव भंगा २ इति पाठः। २ प्रतिषु '-पवद्धाश्रो' इति पाठः । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, १०,४७. तिसंजोगचउत्थसुत्तस्स वे चेव मंगा [२] । ए बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं एग-दु[-ति] संजोगेहि ववहारणयमस्सिदूण णाणावरणीयवेयणविहाणं परूविदं । · एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥४७॥ जहा णाणावरणीयस्स ववहारणयमस्सिदूण वेयणवेयणविहाणं परूविदं तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परवेदव्वा विसेसाभावादो। (संगहणयस्स णाणावरणीयवेदणा सिया बज्झमाणिया वेयणा ॥४८॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेगवयणं जीवबहुवयणं च इविय १११/ पुणो एत्थ अक्खपरावत्तं' करिय जणिद पत्थारं च ठवेदूण | १२ / अत्थ परूवणं कस्सामो) तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झइस प्रकार तीनोंके संयोग रूप चतुर्थ सूत्रके दो ही भङ्ग हैं ( २)। इस प्रकार व्यवहार नयका आश्रय करके बध्यमान, उदीर्ण और उप्रशान्त, इनके एक, दो [ और तीनोंके ] संयोगसे ज्ञानावरणीयकी वेदनाके विधानकी प्ररूपणा की गई है। . इसी प्रकार शेष सात कर्मों के वेदनाविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ७॥ जिस प्रकार व्यवहारनयका आश्रय करके ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदनाके विधानकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोकी वेदनाके विधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् वध्यमान वेदना है ॥४॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति और समय इनके एक वचन तथा जीव प्रकृति समय जीवके बहुवचन | एक | एक | एक | को स्थापित करके फिर यहाँ अक्षपरावर्तन करके उत्पन्न | जीव | एक अनेक हुए प्रस्तार प्रकृति एक | एक | को स्थापित करके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है समय | एक | एक | एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् बध्यमान वेदना है। इस प्रकार एक भङ्ग १ ताप्रतौ 'परावत्ति' इति पाठः । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, ४६.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३५७ माणिया वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमय. पबद्धा सिया बज्झमाणिया वेयणा । एवमेदस्स सुत्तस्स बे चेव भंगा [२] । सिया उदिण्णा वेयणा ॥४६॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेगवयणेहि जीवबहुवयणेण च | उप्पाइदपत्थारो ठवेदव्यो १२।। एसो संगहणओ तिण्णि वि काले काल. १११ २०० सामण्णेण संगहिदण गेण्हदि त्ति कालस्स बहुवयणं णेच्छदि । जीवेसु वि जीवसामण्णेण संगहिदेसु बहुत्तं णस्थि त्ति जीवबहुवयणं किण्णावणिज्जदे ? ण', संगहणयस्स सुद्धस्स विसए अप्पिदे जीवबहुत्ताभावो होदि चेव, किंतु असुद्धसंगहणओ अप्पिदो चि कट्टण जीवबहुत्तं विरुज्झदे । संपहि एवं ठविय एदस्स अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-- हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमै बाँधो गई कथंचित् बध्यमान वेदना है। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भङ्ग हैं (२)। .. कथंचित् उदी] वेदना है ॥ ४६॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन और जीव प्रकृति समय जीवके बहुवचन | एक | एक | एक | से उत्पन्न कराये गये प्रस्तारको स्थापित करना चाहिये-- अनेक| ० ० | . . . जीव | एक अनेक प्रकृति एक | एक | चूँ कि यह संग्रह नय तीनों ही कालोंको काल सामान्यसे संगृहीत करके ग्रहण करता है, अतएव वह कालके बहुवचनको स्वीकार नहीं करता। शंका-जीव सामान्यसे जीवोंके भी संगृहीत होनेपर चूँकि उनका भी बहुवचन सम्भव नहीं है, अतएव जीवोंके बहुवचनको कम क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यद्यपि शुद्ध संग्रहनयके विषयकी प्रधानता होनेपर जीवबहुत्वका अभाव होता ही है; किन्तु यहाँ चूंकि अशुद्ध संग्रहनय प्रधान है, अतः जीवबहुत्व विरुद्ध नहीं है। १ प्रतिषु | १२ | एवंविधोऽत्र प्रस्तारो लभ्यते । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'संगहिदेस' इति पाठः । | १२ | ३ ताप्रतौ 'ण' इत्येतस्य स्थाने 'एवं' इत्येतत्पदमुपलभ्यते। १२ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] - छक्खंडागमे देयणाखंड [४, २, १०, ५०. एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उदिण्णा वेयणा। एवमेगो भंगो [१]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उदिण्णा वेयणा । एवं वे भंगा [२] उदिण्णेगवयणसुत्तस्स । सिया उवसंता वेयणा ॥ ५० ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जीव-पयडि-समयाणमेगवयणेहि जीवबहुवयणेण च |३९१ | जणिदपत्थारं | १२ | ठविय एदस्स सुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंता वेयणा । एवमेगो भंगो। अधवा अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंता वेयणा । एवमेदस्स सुत्तस्स बे चेव भंगा [२] । सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च ॥५१॥ एदस्स दुसंजोगपढमसुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे बज्झमाण-उदिण्णाणं दुसंजोग अब इस प्रकारसे [प्रस्तारको ] स्थापित करके इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदना है । इस प्रकार उदीर्ण वेदना सम्बन्धी एकवचन सूत्रके दो भङ्ग हैं (२)। कथंचित् उपशान्त वेदना है ॥ ५० ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव, प्रकृति व समय, इनके एकवचन तथा जीवके जीव प्रकृति ममय जीव | एक अनेक बहुवचन | एक | एक | एक | से उत्पन्न हुए प्रस्तार प्रकृति एक | एक | को स्थापित करके अनेक समय एक | एक इस सूत्रके भङ्गोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् उपशान्त वेदना है। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भङ्ग हैं (२)। कथंचित् वध्यमान और उदीर्ण वेदना है ॥ ५१ ॥ दोके संयोग रूप इस प्रथम सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय बध्यमान व उदीर्ण इन दोके Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, ५२.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३५९ पत्थारं १ | तेसिं चेव जीव-पयडि-समयपत्थारं च ठविय १२ | १२ पच्छा परू ११ | ११ वणा कीरदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च वेयणा । एवमेदस्स सुत्तस्स दो चेव भंगा होंति [२] । सिया बज्झमाणिया च उवसंता च ॥ ५२ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे बज्झमाण-उवसंताणं दुसंजोगपत्थारं || | तेसिं बध्य०॥ संयोगसे उत्पन्न प्रस्तार को तथा उनसे ही सम्बन्ध रखनेवाले जीव, प्रकृति और बध्यमान । उदीर्ण । जीव एक अनेक एक अनेक समय; इनके प्रस्तार प्रकृति एक | एक | एक एक को भी स्थापित करके पश्चात् यह प्ररू समय एक | एक | एक एक पणा की जाती है। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण; कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भङ्ग होते हैं (२)। कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है ॥ ५२ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय बध्यमान और उपशान्त इन दोके संयोग रूप प्रस्तार ब० को तथा उन्हींसे सम्बन्ध रखनेवाले जीव, प्रकृति व समय इनके प्रस्तारको भी स्थापित ०४॥ १ श्रा-काप्रत्योः | ३ . तामती | २ | एवंविधोऽत्र प्रस्तारः । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] छक्खंडांगमे वेयणाखंड : . [४, २, १०, ५३. marti - प्रविय | १२ | १२ | पच्छा सत्तालावो वच्चदे । |११|११ तं जहा–एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया वज्झमाणिया च उवसंता च वेयणा । एवमेगा उच्चारणा [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उपसंता. सिया बज्ममाणिया च उवसंता च वेयणा । एवमेदस्स सुत्तस्स दो चेव उच्चारणाओ [२] । ... सिया उदिण्णा च उवसंता च ॥ ५३॥ एत्थ पुव्वं व उदिष्णुवसंतदुसंजोगपत्यारं | १ | तेसिं चेव जीव-पयडि-समय १९ अत्थो वुच्चदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी ११/११ ११ | ११ पत्थारं च ठविय | १२|१२| बध्यमान | उपशान्त एक अनेक एक अनेक प्रकृति एक | एक | एक एक समय| एक एक एक | एक करके पश्चात् सूत्रके आलापको कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक उच्चारणा हुई (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार इस सूत्रकी दो ही उच्चारणायें हैं (२)। कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है ॥ ५३ ॥ यहाँ पहिलेके समान उदीर्ण और उपशान्त, इन दोके संयोग रूप प्रस्तार |१|को तथा उन्हींसे उप०/१ उ० उदीण उपशान्त जीव एक अनेक एक अनेक सम्बन्ध रखनेवाले जीव, प्रकृति और समय, इनके प्रस्तार प्रकृति एक | एक एक एक को समय| एक एक एक एक Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०, ५४.] वेयणमहाहियारे वेयणवयणविहाणं [ ३६१ एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवमेया उच्चारणा [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवमेत्थ बे चेव उच्चारणाओ [२] । संपहि तिसंजोगजणिदवेयण वेयणविहाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि सिया बज्झमाणिया च गदण्णा च उवसंता च ॥ ५४॥ एदस्स अत्थे भण्णमाणे तिसंजोगसुत्तपत्थारं || तेसिं चेव [ जीव-] पयडि. समयपत्थारे च ठविय | १२|१२|१२| ११ | ११ | ११ | अत्या । अत्थो वुच्चदे । तं जहा–एयस्स जीवस्स |११| ११|११| एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झभी स्थापित करके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक उच्चारणा हुई (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त, कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार यहाँ दो ही उच्चारणायें हैं (२)। अब तीनोंके संयोगसे उत्पन्न वेदनाके विधानकी प्ररूपणा करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है ॥ ५४॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय तीनोंके संयोग रूप सूत्रके प्रस्तार उ० १ को तथा | वध्यमान | उदीर्ण । उपशान्त | उन्हींसे सम्बद्ध [जीव,] प्रकृति और समयके प्रस्तार: प्रकृति एक |एक | एक |एक एक |एक समय | एक | एक | एक एक | एक | एक को भी स्थापित करके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। छ. १२-१६ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,१०,५५. माणिया च उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवमेगो भंगो [१]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवं बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं तिसंजोगम्मि दो चेव भंगा [२] । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५५ ॥ जहा संगहणयमस्सिदूण णाणावरणवेयणावेयणाविहाणं परूविदं तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो।। उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा उदिण्णा' फलपत्तविवागा वेयणा ॥५६॥ __उदीर्णस्य फलं उदीर्णफलम्, तत्प्राप्तो विपाको यस्यां सा उदीर्णफलप्राप्तविपाका वेदना भवति; नापरा' । जो कम्मक्खंधो जम्हि समए अण्णाणमुप्पाएदि सो तम्हि चेत्र समए णाणावरणीयवेयणा होदि, ण उत्तरखणे; विणढकम्मपज्जायत्तादो। ण पुव्वखणे वि, तस्स अण्णाणजणणसत्तीए अभावादो । ण च वेयणाए अकारणं वेयणा होदि, अव्ववत्थापसंगादो । तम्हा बज्झमाण-उवसंतकम्माणि वेयणा ण होति, उदिण्णं चेव वेयणा होदि ति मणिदं होदि । इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनोंके संयोगमें दो ही भंग होते हैं (२)। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें कथन करना चाहिये ॥ ५५ ॥ जिस प्रकार संग्रह नयका आश्रय करके ज्ञानावरणीय कर्मके वेदनावेदनाविधानकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोके वेदनावेदनाविधानकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना उदीर्ण फलको प्राप्तविपाकवाली वेदना है ॥ ५६ ॥ उदीर्णका फल उदीर्णफल, उसको प्राप्त है विपाक जिसमें वह उदीर्णफलविपाक वेदना है। इतर नहीं है। अर्थात जो कर्मस्कन्ध जिस समयमें अज्ञानको उत्पन्न कराता है उसी समय ज्ञानावरणीयकी वेदना रूप होता है, न कि उत्तर क्षणमें; क्योंकि, उत्तर क्षणमें उसकी कर्म रूप पर्याय नष्ट होजाती है। पूर्व क्षण में भी उक्त कर्मस्कन्ध ज्ञानावरणीयकी वेदना रूप नहीं होता, क्योंकि, उस समय उसमें अज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है। और जो वेदनाका कारण ही नहीं है वह वेदना नहीं होता है, क्योंकि, वैसा होनेपर अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। इस कारण बध्यमान ब उपशान्त कर्म वेदना नहीं होते हैं, किन्तु उदीर्ण कर्म ही वेदना होता है; यह सूत्रका अभिप्राय है। १ प्रतिषु 'उदिण्णा-' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' प्राप्तविपाकवेदना परा' इति पाठः । वह Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १०,५८.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३६३ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५७॥ जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा सेससत्तणं कम्माणं परूवेदव्वं । सद्दणयस्स अवत्तव्यं ॥ ५८ ॥ कुदो ? तस्स विसए दव्वाभावादो। णाणावरणीय-वेयणासदाणं भिण्णत्थाणं भिण्णसरूवाणं समासाभावादो वा पुधभूदेसु अपुधभूदेसु च तस्सेदमिदि संबंधाभावादो वा तिण्णं सद्दणयाणमवत्तव्वं । एवं वेयणवेयणविहाणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें कहना चाहिये ॥ ५७ ॥ __जिस प्रकार ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षासे ज्ञानावरणीयके सम्बन्धमें प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें भी प्ररूपणा करना चाहिये। शब्द नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अवक्तव्य है ॥ ५८ ॥ इसका कारण यह है कि शब्द नयके विषयमें द्रव्यका अभाव है। अथवा, ज्ञानावरणीय और वेदना इन भिन्न अर्थ व स्वरूपवाले दोनों शब्दोंका समास न हो सकनेसे, अथवा पृथग्भूत और अपृग्भूत उनमें 'यह उसका है। इस प्रकारका सम्बन्ध न बन सकनेसे भी तीनों शब्द नयोंकी अपेक्षासे वह अवक्तव्य है। इस प्रकार वेदनावदनाविधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणगदिविहाणाणियोगदारं वेयणगदिविहाणे त्ति ॥१॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं । वेदनायाः गतिर्गमनं विधीयते प्ररूप्यते अनेनेति वेदनागतिविधानम् । कधं कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं जुज्जदे ? ण एस दोसो, जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभूदाणं कम्मक्खंधाणं पि संचरणं पडि विरोहामावादो। किमटुं वेदणागइविहाणं वुच्चदे ? जदि कम्मपदेसा द्विदा चेव होंति तो जीवण देसंतरगदेण सिद्धसमाणेण होदव्वं । कुदो ? सयलकम्माभावादो। ण ताव पुव्वसंचिदकम्माणि अत्थि, तेसिं पुव्वपदेसे थिरसरूवण अवट्टिदाणमेत्थ आगमणाभावादो। ण वट्टमाणकाले वि कम्मसंचओ अस्थि, मिच्छत्तादिपच्चयाणं कम्मेहि सह द्विदाणमेत्थ संभवाभावादो त्ति । ण कम्मरखंधाणमणवट्ठाणं पि जुज्जदे, सव्वजीवाणं मुत्तिप्पसंगादो । तं जहा-ण ताव अप्पिदविदियसमए कम्माणि अस्थि, अवठ्ठाणाभावेण णिम्मूलदो विणहत्तादो। ण उप्पण्णपढमसमए वि फलं देंति, बज्झमाणसमए कम्माणं विवागाभावादो। भावे वा कम्म-कम्मफलाणमेगसमए चेव संभवो होदूण विदियसमएसु वेदनागतिविधान अनुयोगद्वार अधिकार प्राप्त है ॥१॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण करानेवाला है। वेदनाकी गति अर्थात् गमनकी इसके द्वारा प्ररूपणा की जाती है अतएव वह वेदनागतिविधान कहलाता है। शंका-जीवप्रदेशोंमें समवायको प्राप्त हुए कर्मोंका गमन कैसे सम्भव है। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, योगके कारण जीवप्रदेशोंका संचरण होनेपर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धोंके भी संचारमें कोई विरोध नहीं आता। शंका-वेदनागतिविधान अनुयोगद्वार किसलिये कहा जा रहा है ? समाधान-यहि कर्मप्रदेश स्थित ही हों तो देशान्तरको प्राप्त हुए जीवको सिद्ध जीवके समान हो जाना चाहिए,क्योंकि उस समय उसके समस्त कर्मोंका अभाव है। यह कहना कि उसके पूर्वसंचित कर्म विद्यमान हैं, ठीक नहीं है, क्योंकि, वे पूर्व स्थानमें ही स्थिर रूपसे अवस्थित हैं, उनका यहाँ देशान्तरमें आना असम्भव है। वर्तमान कालमें भी उसके कर्मोंका संचय नहीं है, क्योंकि, कर्मों के साथ स्थित मिथ्यात्वादिकं प्रत्ययोंकी यहाँ सम्भावना नहीं है। कर्मस्कन्धोंका अनवस्थान स्वीकार करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर सब जीवोंकी मुक्तिका प्रसंग आता है। यथा-विवक्षित द्वितीय समयमें कर्मोंका अस्तित्व नहीं है, क्योंकि, अवस्थानके न होनेसे उनका निर्मूल नाश हो गया है। उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें वे फल नहीं देते हैं, क्योंकि, बन्ध होनेके समयमें कर्मोंका फल देना असम्भव है। अथवा, यदि बन्ध समयमें फलका देना स्वीकार किया जाय तो फिर कर्म और कर्मफल इन दोनोंकी एक समयमें ही सम्भावना होकर द्वितीय समयमें Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ११, २.] वयणगदिविहाणाणियोगद्दारं (३६५ बंधसंताभावो होज्ज, तत्थ बंधकारणमिच्छत्तादि कम्मफलाणमभावादो। एवं च संते तत्थ णिव्वुइए सव्वजीवविसयाए होदव्वं । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। ण चोहयपक्खो वि, उभयदोसाणुसंगादो त्ति पज्जवढियस्स सिस्सस्स' जीव-कम्माणं पारतंतियलक्खणसंबंधजाणावणटुं जीवपदेसपरिफंदहेदू चेव जोगो त्ति जाणावणटुं च वेयणगइविहाणं परूविज्जदे। णेगम-ववहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा सिया अवहिदा ॥२॥ राग-दोस-कसाएहि वेयणाहि वा भएण अद्धाणजणिदपरिस्समेण वा जीवपदेसेसु द्विदअद्दजलं व संचरंतेसु तत्थ समवेदकम्मपदेसाणं पि संचरणुवलंभादो। जीवपदेसेसु पुणो कम्मपदेसा द्विदा चेव, पुव्विल्लदेसं मोत्तण देसंतरे द्विदजीवपदेसेसु समवेदकम्मक्खंधुवलंभादो । कुदो एदमुपलब्भदे ? सियासढुच्चारणण्णहाणुववत्तीदो, देसे इव जीवपदेसेसु वि अद्विदत्ते अब्भुवगम्ममाणे पुन्वुत्तदोसप्पसंगादो च । अट्टण्णं मज्झिमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णस्थि त्ति तत्थ द्विदकम्मपदेसाणं पि अद्विदत्तं णत्थि बन्ध और सत्त्वका अभाव हो जाना चाहिये, क्योंकि, दूसरे समयमें बन्धके कारण मिथ्यात्वादिका तथा कर्मफलका अभाव है । और ऐसा होनेपर उस समय सब जीवोंकी मुक्ति हो जानी चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। यदि उभय पक्षको स्वीकार किया जाय तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर उभय पक्षों में दिये गये दोषोंका प्रसंग आता है । इस प्रकारसे पर्यायदृष्टिवाले शिष्यके लिये जीव व कर्मके पारतन्त्र्य स्वरूप सम्बन्धको बतलानेके लिये तथा जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दका हेतु योग ही है इस बातको भी बतलानेके लिये 'वेदनागतिविधान की प्ररूपणा की जा रही है। - नैगम, व्यवहार और संग्रह नयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् अवस्थित है ॥२॥ राग, द्वेष और कषायसे; अथवा वेदनाओंसे, भयसे अथवा अध्वानसे उत्पन्न परिश्रमसे मेघोंमें स्थित जलके समान जीवप्रदेशोंका संचार होनेपर उनमें समवायको प्राप्त कर्मप्रदेशोंका भी संचार पाया जाता है । परन्तु जीवप्रदेशोंमें कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि, जीवप्रदेशोंके पूर्वके देशको छोड़कर देशान्तरमें जाकर स्थित होनेपर उनमें समवायको प्राप्त कर्मस्कन्ध पाये जाते हैं। शंका-यह अर्थ किस प्रमाणसे उपलब्ध होता है ? समाधान-एक तो ऐसा अर्थ ग्रहण किये बिना ‘स्यात्' शब्दका उच्चारण घटित नहीं होता। दूसरे देशके समान जीवप्रदेशोंमें भी कर्मप्रदेशोंको अस्थित स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त दोषका प्रसंग आता है। इससे जाना जाता है कि जीव प्रदेशोंके देशान्तरको प्राप्त होनेपर उनमें कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं। शंका-यतः जीवके आठ मध्य प्रदेशोंका संकोच अथवा विस्तार नहीं होता अतः उनमें १ अ-श्रा-का प्रतिषु 'सिस्सस्स' इत्येतत्पदं नोपलभ्यले । २ प्रतिषु 'अहिद' इति पाठः । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ११, ३. त्ति । तदो सव्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अद्विदा होति ति सुत्तवयणं ण घडदे ? ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झिमजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदण एदस्स सुत्तस्स पवुत्तीदो । कधं पुण एसो अत्थविसेसो उवलब्भदे ? सियासहप्पओआदो । सिया हिदाहिदा ॥३॥ वाहि-वेयणा-सज्झसादिकिलेसविरहियस्स छदुमत्थस्स जीवपदेसाणं केसि पि चलणाभावादो तत्थ द्विदकम्मक्खंधा वि द्विदा चेव होति, तत्थेव केसिं जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ द्विदकम्मक्खंधा वि संचलंति, तेण ते अद्विदा ति भण्णंति । तेसिं दोणं समुदायो वेदणा त्ति एया होदि । तेण ठिदाहिदा ति दुस्सहावा भण्णदे। एत्थ जे अद्विदा' तेसिं कम्मबंधो होदु णाम, सजोगत्तादो। जे पुण द्विदा तेसिं जीवपदेसाणं णत्थि कम्मबंधो, जोगाभावादो । सो वि कुदो णवदे १ जीवपदेसाणं परिप्फंदाभावादो। ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु जोगो अत्थि, सिद्धाणं पि सजोगत्तावत्तीदो त्ति ? स्थित कर्मप्रदेशोंका भी अस्थितपना नहीं बनता और इसलिए सब जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्रवचन घटित नहीं होता ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, जीवके उन आठ मध्य प्रदेशोंको छोड़कर शेष जीवप्रदेशोंका आश्रय करके इस सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। शंका-इस अर्थविशेषकी उपलब्धि किस प्रकारसे होती है ? समाधान-उसकी उपलब्धि 'स्यात्' शब्दके प्रयोगसे होती है । उक्त वेदना कथंचित् स्थित-अस्थित है ॥ ३ ॥ व्याधि, वेदना एवं भय आदिक क्लेशोंसे रहित छद्मस्थके किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूँ कि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी छद्मस्थके किन्हीं जीव कि संचार पाया जाता है. अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते हैं. इसलिये वे अस्थित कहे जाते हैं । यतः उन दोनोंके समुदाय स्वरूप वेदना एक है अतः वह स्थितअस्थित इन दो स्वभाववाली कही जाती है। शंका-इनमें जो जीवप्रदेश अस्थित हैं उनके कर्मबन्ध भले ही हो, क्योंकि, वे योग सहित हैं। किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित हैं उनके कर्मबन्धका होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, वे योगसे रहित हैं। प्रतिशंका-वह भी किस प्रामणसे जान जाता है। प्रतिशंकाका समाधान-जीवप्रदेशोंका परिस्पन्द न होनेसे ही जाना जाता है कि वे योगसे रहित हैं। और परिस्पन्दसे रहित जीवप्रदेशोंमें योगकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर सिद्ध जीवोंके भी सयोग होनेकी आपत्ति आती है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अहिदा', ताप्रतौ 'अहि (हि)दा', मप्रतौ 'लद्धिदा' इति पाठः। २ ताप्रतो 'सजोगत्ता [दो] वत्तीदो' इति पाठः। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ११, ६.] वेयणगदिविहाणाणियोगहारं [ ३६७ एत्थ परिहारो वुच्चदे -मण-वयण-कायकिरियासमुप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम' । सो च कम्मबंधस्स कारणं । ण च सो थोवेसु जीवपदेसेसु होदि, एगजीवपयतस्स थोवावयवेसु चेव वुत्तिविरोहादो एकम्हि जीवे खंडखंडेण पयत्तविरोहादो वा । तम्हा द्विदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अत्थि त्ति णव्वदे । ण जोगादो णियमण जीवपदेसपरिप्फंदो होदि, तस्स तत्तो अणियमेण समुप्पत्तीदो। ण च एकांतेण णियमो णत्थि चेव, जदि उप्पज्जदि तो तत्तो चेव उप्पज्जदि ति णियमुवलंभादो। तदो द्विदाणं पि जोगो अस्थि त्ति कम्मबंधभूयमिच्छियव्वं । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥४॥ जहा णाणावरणीयस्स दुविहा गदिविहाणपरूवणा कदा तहा एदेसिं तिण्णं पि कम्माणं कायव्वं, छदुमत्थेसु चेव वट्टमाणतणेण भेदाभावादो। वेयणीयवेयणा सिया हिदा ॥ ५ ॥ कुदो ? अजोगिकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभादो। सिया अद्विदा॥६॥ शंकाका समाधान- यहाँ उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। मन, वचन एवं काय सम्बन्धी क्रियाकी उत्पत्ति में जो जीवका उपयोग होता है वह योग और वह कर्मबन्धका कारण है । परन्तु वह थोड़ेसे जीवप्रदेशोंमें नहीं हो सकता, क्योंकि, एक जीवमें प्रवृत्त हुए उक्त योगकी थोड़ेसे ही अवयवोंमें प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है, अथवा एक जीवमें उसके खण्ड-खण्ड रूपसे प्रवृत्त होनेमें विरोध आता है । इसलिये स्थित जीवप्रदेशोंमें कर्मबन्ध होता है, यह जाना जाता है। दूसरे योगसे जीवप्रदेशोंमें नियमसे परिस्पन्द होता है, ऐसा नहीं है; क्योंकि योगसे अनियमसे उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकान्ततः नियम नहीं है, ऐसी भी बात नहीं है; क्योंकि, यदि जीवप्रदेशोंमें परिस्पन्द उत्पन्न होता है तो वह योगसे ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित जीवप्रदेशोंमें भी योग होनेसे कर्मबन्धको स्वीकार करना चाहिये। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के विषयमें जानना चाहिये ॥४॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके गतिविधानकी दो प्रकारकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन कर्माकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, ये कर्म छद्मस्थोंके ही विद्यमान रहते हैं इसलिए इनकी प्ररूपणामें ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणासे कोई भेद नहीं है। वेदनीय कर्मकी वेदना कथंचित स्थित है ॥५॥ इसका कारण यह है कि अयोगकेवली जिनमें समस्त योगोंके नष्ट हो जानेसे जीवप्रदेशोंका संकोच व विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं। कथंचित् वह अस्थित है ॥ ६ ॥ १ ताप्रतौ 'उवजोगो णाम' इति पाठः । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, ११, ७. सुगममेदं; णाणावरणीयपरूवणाए चेव अवगदसरूवत्तादो। सिया हिदाहिदा ॥७॥ एदस्स वि णाणावरणीयभंगो। एवमाउव-णामा-गोदाणं ॥८॥ जहा वेयणीयस्स परूविदं तहा एदेसिं तिण्णं कम्माणं वत्तव्वं भेदाभावादो। उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा सिया हिदा ॥६॥ छदुमत्थेसु सजोगेसु कधं सव्वेसिं जीवपदेसाणं द्विदत्तं होदि उजुसुदणए ? को एवं भणदि' उजुसुदणओ सम्वेसि जीवपदेसाणं कम्हि वि काले द्विदत्तं चेव इच्छदि त्ति । किंतु जे द्विदा ते द्विदा चेव, ण अहिदा; ठिदेसु अद्विदत्तविरोहादो। एस उजुसुदणयाहिप्पाओ। सिया आठ्ठदा॥१०॥ जे अद्विदजीवपदेसा ते अद्विदा चेव ण तत्थ द्विदभूआ', द्विदाद्विदाणमेगत्थ एगसमए अवट्ठाणाभावादो। तेण कारणेण उजुसुदणए दुसंजोगभंगोणत्थि त्ति अवणिदो। यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, ज्ञानावरणीय कर्मकी प्ररूपणासे ही उसके स्वरूपका ज्ञान हो जाता है। कथंचित् वह स्थित-अस्थित है ॥ ७ ॥ इसकी भी प्ररूपणा ज्ञानावरणीयके ही समान है। इसी प्रकार आयु; नाम और गोत्र कर्मके सम्बन्धमें जानना चाहिये ॥ ८॥ जिस प्रकार वेदनीय कर्मके गतिविधानकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन कर्मों के गतिविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् स्थित है॥९॥ शंका-योगसहित छद्मस्थ जीवोंमें ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा सभी जीवप्रदेश स्थित कैसे हो सकते हैं ? समाधान-ऐसा कौन कहता है कि ऋजुसूत्र नय सब जीवप्रदेशोंको किसी भी कालमें स्थित ही स्वीकार करता है ? किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित हैं वे स्थित ही रहते हैं, उस कालमें वे अस्थित नहीं हो सकते । क्योंकि, स्थित जीवप्रदेशोंके अस्थित होनेका विरोध है। यह ऋजुसूत्र नयका अभिप्राय है। कथंचित् वह अस्थित है ॥१०॥ जो जीवप्रदेश अस्थित हैं वे अस्थित ही रहते हैं, न कि स्थित; क्योंकि, इस नयकी अपेक्षा स्थित-अस्थित जीवप्रदेशोंका एक जगह एक समयमें अवस्थान नहीं हो सकता। इस कारण ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा द्विसंयोग भंग नहीं है, अत: वह परिगणित नहीं किया गया है। पर इससे १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भण्णदि' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'छिदभूत्र', तापतौ 'हिदभूत्र (अं) इति पाठः। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. ४, २, ११, १२.] वेयणगदिविहाणाणियोगदारं [ ३६९ ण पुचिल्लणए अस्सिदण जा परूवणा कदा तिस्से असच्चत्तं, सियासद्देण तिस्से वि सच्चत्तपरूवणादो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ११ ॥ उजुसुदणयमस्सिदण जहा णाणावरणीयस्स परूवणा कदा तहा सेससत्तणं कम्माणं परूवणा कायव्वा, ठिदभावेण' अहिदभावेण च विसेसाभावादो । सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥ १२॥ कुदो ? तस्स विसए दव्वाभावादो तस्स विसये 'द्विदाद्विदाणमभावादो वा। तं जहा-ण ताव द्विदमत्थि, सव्वपयत्थाणमणिञ्चत्तब्भुवगमादो। ण अहिदभूयं पि, असंते' पडिसेहाणुववत्तीदो त्ति । - एवं वेयणगदिविहाणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । पूर्वोक्त नयोंका आश्रय करके जो प्ररूपणा की गई है वह असत्य नहीं ठहरती, क्योंकि, 'स्यात्' शब्दके द्वारा उसकी भी सत्यता प्ररूपित की गई है। इसी प्रकार सात कमौके विषयमें जानना चाहिये ॥ ११ ॥ ऋजुसूत्र नयका आश्रय करके जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, स्थित रूप व अस्थितरूपसे इसमें उससे कोई विशेषता नहीं है। शब्द नयकी अपेक्षा वह अवक्तव्य है ॥ १२ ॥ क्योंकि द्रव्य शब्द नयका विषय नहीं है, अथवा स्थित व अस्थित शब्दनयके विषय नहीं हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-उक्त नयका विषय स्थित तो बनता नहीं है, क्योंकि स्थत तो बनता नहीं है, क्योंकि, इस नयमें समस्त पदों व उनके अर्थों को अनित्य स्वीकार किया गया है। अस्थित स्वरूप भी नहीं बनता क्योंकि, असत्का प्रतिषेध बन नहीं सकता। इस प्रकार वेदनागतिविधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'ठिदाभावेण' इति पाठः ।। २.अ-श्रा-का-ताप्रतिषु 'तस्स वि हिदाहिदाण' इति पाठः । ३ अ-श्रा-काप्रतिषु 'असंखे' इतिपाठः। छ. १२-४७ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणअणंतरविहाणाणियोगद्दारं वेयणअणंतरविहाणे ति ॥ १॥ अहियारसंभालणसुत्तमेदं । किमट्ठमेसो अहियारो वुच्चदे ? पुव्वं वेयणवेयणविहाणे बज्झमाणं पि कम्मं वेयणा, उदिणं पि उवसंतं पि वेयणा ति परूविदं । तत्थ जंतं बज्झमाणकम्मं तं किं बज्झमाणसमए चेव विपच्चिदृण फलं देदि आहो विदियादिसमएसु फलं देदि ति पुच्छिदे एवं फलं देदि त्ति जाणावणटुं वेयणअणंतरविहाणमागदं । तत्थ बंधो दुविहो-अणंतरबंधो परंपरबंधो चेदि । को अणंतरबंधो णाम ? कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा' मिच्छत्तादिपञ्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणंतरबंधा'। कधमेदेसिमणंतरबंधत्तं ? कम्मइयवग्गणपज्जयपरिच्चत्ताणंतरसमए चेव कम्मपज्जएण परिणयत्तादो । को परंपरबंधो णाम ? बंधविदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । कधं बंधस्स परंपरा ? पढमसमए बंधो जादो, वेदना अनन्तरविधान अनुयोगद्वार अधिकार प्राप्त है ॥ १ ॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है। शंका-इस अधिकारकी प्ररूपणा किसलिये की जा रही है ? समाधान-पहिले वेदनावेदनाविधान अनुयोगद्वारमें बध्यमान कर्म भी वेदना है, उदीण और उपशान्त कर्म भी वेदना है। यह प्ररूपणा की जा चुकी है। उनमें जो बध्यमान कर्म है वह क्या बँधनेके समयमें ही परिपाकको प्राप्त होकर फल देता है, अथवा द्वितीयादिक समयोंमें फल देता है; ऐसा पूछे जानेपर 'वह इस प्रकारसे फल देता है। यह ज्ञात करानेके लिये वेदनाअनन्तरविधान अनुयोगद्वारका अवतार हुआ है। बन्ध दो प्रकारका है-अनन्तरबन्ध और परम्पराबन्ध । शंका-अनन्तरबन्ध किसे कहते हैं ? समाधान-कार्मण वर्गणा स्वरूपसे स्थित पुद्गलस्कन्धोंका मिथ्यात्वादिक प्रत्ययोंके द्वारा कर्म स्वरूपसे परिणत होने के प्रथम समयमें जो बन्ध होता है उसे अनन्तरबन्ध कहते हैं। शंका-इन पुद्गलस्कन्धोंकी अनन्तरबन्ध संज्ञा कैसे है ? समाधान-चूँकि वे कार्मण वर्गणा रूप पर्यायको छोड़नेके अनन्तर समयमें ही कर्म रूप पर्यायसे परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनन्तरबन्ध संज्ञा है। शंका-परम्पराबन्ध किसे कहते हैं ? समाधान-बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्मरूप पुद्गलस्कन्धों और जीवप्रदेशोंका जो बन्ध होता है उसे परम्पराबन्ध कहते हैं । १ ताप्रतौ 'पोग्गलक्खंधा [णं ] इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'समए अणंतरबंधो', ताप्रतौ समए [बंधो ] अणंतरबंधो' इति पाठः । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १२, ४. ] अतर विहाणाणियोगद्दारं [ ३७१ विदियसमए विसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तदियसमये वि बंधो चेव, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपरंपरा णाम । ताए बंधा परम्परबंधा त्ति दट्ठव्वा । गम-ववहाराणं णाणावरणीयवेयणा अणंतरबंधा' ॥ २ ॥ कुदो ? बंधपढमसमए चैव जीवस्स परतंतभावुप्पायणेण वेयणभावुवलंभादो उदिष्णदव्वादो बज्झमाणदव्वस्स भेदाभावादो वा बज्झमाणदव्वस्स णाणावरणीयवेयणभावो जुज्जदे | ण च अवस्थाभेदेण दव्वभेदो अस्थि, दव्वादो पुधभद अवत्थाणुवलंभादो । परंपरबंधा ॥ ३ ॥ परंपरबंधाविणणावरणीयवेयणा होदि । कुदो ? बंधविदियादिसमएस हिदकम्मक्खंधाणं उदिष्णकम्मक्खंधेहिंतो दव्वदुवारेण एयत्तुवलंभादो । तदुभयबंधा ॥ ४ ॥ णाणावरणीय वेणा तदुभयबंधा वि होदि, जीवदुवारेण दोष्णं पि' णाणावरणीयघाणमेव भादो | बंधोदय- संताणं वेयणाविहाणं वेयणावेयणविहाणे चेव परूदिदं शंका- बन्धकी परम्परा कैसे सम्भव है ? समाधान- प्रथम समय में बन्ध हुआ, द्वितीय समय में भी उन पुद्गलोंका बन्ध ही है, तृतीय समय में भी बन्ध ही है, इस प्रकारसे बन्धकी निरन्तरताका नाम बन्धपरम्परा है । उस परम्परासे होनेवाले बन्धोंको परम्पराबन्ध समझना चाहिये । नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अनन्तरबन्ध है || २ ॥ कारण कि बन्धके प्रथम समयमें ही जीवकी परतन्त्रता उत्पन्न करानेके कारण उसमें वेदनाव पाया जाता है । अथवा, उदीर्ण द्रव्यकी अपेक्षा बध्यमान द्रव्यमें चूँकि कोई भेद नहीं है, इसलिये इन दोनों नयोंकी अपेक्षा बध्यमान द्रव्यको ज्ञानावरणीयके वेदनास्वरूप मानना समुचित है । यदि कहा जाय कि अवस्थाभेदसे द्रव्यका भी भेद सम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, [ इन नयोंकी दृष्टिमें ] द्रव्यसे पृथग्भूत अवस्था नहीं पायी जाती है । वह परम्पराबन्ध भी है ॥ ३ ॥ ज्ञानावरणीयवेदना परम्पराबन्ध भी है, क्योंकि, बन्धके द्वितीयादिक समयों में स्थित कर्मोंकी उदीर्ण कर्मस्कन्धों के साथ द्रव्यके द्वारा एकता पायी जाती है । वह तदुभयबन्ध भी है ॥ ४ ॥ ज्ञानावरणीयवेदना तदुभयबन्ध भी है, क्योंकि, जीवके द्वारा दोनों ही ज्ञानावरणीय बन्धों के एकता पायी जाती है । बन्ध, उदय और सत्त्वके वेदनाविधानकी प्ररूपणा चूँकि वेदनावेदनविधानमें ही की जा चुकी है, अतएव इन सूत्रों का यह अर्थ नहीं है; इसलिये इनके अर्थकी १ ताप्रतौ 'बद्धा' इति पाठः । २ श्राकाप्रतिषु 'वा' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । ३ ताप्रतौ 'बद्ध' इवि पाठः । ४ अ श्राकाप्रतिषु 'वि' इति पाठः । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १२, ५. ति एदेसिं' सुत्ताणं ण एसो अत्थो ति एवमेदेसिमत्थपरूवणा कायव्वा । तं जहाणोणावरणीयकम्मक्खंधा अणंताणता णिरंतरमण्णोण्णेहि संबद्धा' होदुण जे द्विदा ते अणंतरबंधा णाम । एदेण एगादिपरमाणूणं संबंधविरहियाणं णाणावरणभावो पडिसिद्धो दहव्वो। अणंतरबंधाणं चेव णाणावरणीयभावे संपत्ते परंपरबंधा वि णाणावरणीयवेयणा होदि त्ति जाणावणटुं विदियसुत्तं परविदं । अणंताणंता कम्मपोग्गलक्खंधा अण्णोणसंबद्धा होदण सेसकम्मक्खंधेहिं असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम । एदे वि णाणावरणीयवेयणा होति त्ति भणिदं होदि । एदेण सव्वे णाणावरणीयकम्मपोग्गलखंधा एगजीवाहारा अण्णोण्णं समवेदा चेव होदण णाणावरणीयवेयणा होति ति एसो एयंतो णिरागरियो त्ति दव्यो । सेसं सुगम । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५ ॥ जहा णाणावरणीयस्स दोहि पयारेहि परंपराणंतर-तदुभयबंधाणं परूवणा कदा तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परूवणा कायव्वा । संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा अणंतरबंधा ॥६॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थ भण्णमाणे पुव्वं व दोहि पयारेहि अत्थो वत्तव्यो । प्ररूपणा इस प्रकारसे करनी चाहिये। यथा-जो अनन्तानन्त ज्ञानावरणीय कर्म रूप स्कन्ध निरन्तर परस्परमें संबद्ध होकर स्थित हैं वे अनन्तरबन्ध हैं। इससे सम्बन्ध रहित एक आदि परमाणुओंको ज्ञनावरणीयत्वका प्रतिषेध किया गया समझना चाहिये। अनन्तरबन्ध स्कन्धोंको ही ज्ञानावरणीयत्व प्राप्त होनेपर परम्पराबन्ध भी ज्ञानावरणीयवेदना होती है, यह जतलानेके लिये द्वितीय सूत्र की प्ररूपणा की गई है। जो अनन्तानन्त कर्म पुद्गलस्कन्ध परस्परमें सम्बद्ध होकर शेष कर्मस्कन्धोंसे असम्बद्ध होते हुए जीवके द्वारा इतर स्कन्धोंसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं वे परम्पराबन्ध कहे जाते हैं। ये भी ज्ञानावरणीयवेदना स्वरूप होते हैं, यह उसका अभिप्राय है। इससे एक जीवके आश्रित सब ज्ञानावरणीय कर्म रूप पुद्गलस्कन्ध परस्पर समवत होकर ज्ञानावरणीयवेदना स्वरूप होते हैं, इस एकान्तका निराकरण किया गया समझना चाहिये। शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषय में जानना चाहिये ॥५॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके परम्पराबन्ध, अनन्तरबन्ध और तदुभयबन्धकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मों के उन बन्धोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अनन्तरबन्ध है ॥ ६ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय पहिलके ही समान दो प्रकारसे अर्थका कथन करना चाहिये। १ ताप्रती 'ति । एदेसि' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्रा-का-ताप्रतिषु 'अस्थि' इति पाठः। ३ अ-श्रा-ताप्रतिषु 'संबंधं" काप्रतौ 'संबंधा' इति पाठः । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणप्रणंतरविहाणाणियोगहारं [ ३७३ परंपरबंधा ॥ ७॥ एत्थ वि पुवं व दोहि पयारेहि अत्थपरूवणा कायव्वा । तदुभयबंधा णत्थि । कुदो ? एदासु चेव तिस्से अंतब्भावादो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥८॥ जहा णाणावरणीयस्स संगहणयमस्सिदृण दोहि पयारेहि अत्थपरूवणा कदा तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परूवणा कायव्वा । उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा परंपरबंधा ॥६॥ अणंतरबंधा णस्थि णाणावरणीयवेयणा, परंपरबंधा चेव । कुदो ? उदयमागदकम्मक्खंधादो चेव अण्णाणभावुवलंभादो । विदियत्थे अवलंबिज्जमाणे कधमेत्थ परूवणा कीरदे ? वुच्चदे-एत्थ वि गाणावरणीयवेयणा परंपरबंधा चेव जीवदुवारेणेव सव्वेसिं कम्मक्खंधाणं बंधुवलंभादो। जीवदुवारेण विणा कम्मक्खंधाणमण्णोण्णेहि बंधो उवलंभदि ति चे ? ण, तस्स वि अण्णोण्णबंधस्त जीवादो चेव समुप्पत्तिदंसणादो। कम्मइयवग्गणावत्थाए वि एसो अण्णोण्णबंधो उवलब्भदि ति चे ? ण, एदस्स विसिट्ठस्स बंधस्स अणंताणंतेहि कम्मइयवग्गणक्खंधेहि णिप्फण्णस्स जीवादो चेव समुप्पत्तिदंसणादो । ण च वह परम्पराबन्ध भी है ॥ ७॥ यहाँ भी पहिलेके ही समान दो प्रकार से अर्थकी प्ररूपणा करनी चाहिये। वह तदुभयबन्ध नहीं है, क्योंकि, इन दोनों में ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषयमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥८॥ जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्मकी संग्रहनयकी अपेक्षा दो प्रकारसे प्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना परम्पराबन्ध है ॥४॥ [ इस नयकी अपेक्षा ] ज्ञानावरणीयवेदना अनन्तरबन्ध नहीं है, परम्पराबन्ध ही है; क्योंकि, उदयमें आये हुए कर्मस्कन्धों से ही अज्ञानभाव पाया जाता है। शंका-द्वितीय अथका अवलम्बन करनेपर यहाँ कैसे प्ररूपणा की जाती है ? समाधान-इस शंकाका उत्तर कहते हैं, द्वितीय अर्थका अवलम्बन करने पर भी ज्ञानावरणीयवेदना परम्पराबन्ध ही है,क्योंकि, जीवके द्वारा ही सब कर्मस्कन्धोंका बन्ध पाया जाता है। शंका-जीवका आलम्बन लिये बिना भी कमंस्कन्धोंका परस्पर बन्ध पाया जाता है? समाधान-नहीं, क्योंकि, उस परस्परबन्धकी भी उत्पत्ति जीवसे ही देखी जाती है। शंका-यह परस्परबन्ध कार्मण वर्गणाकी अवस्थामें भी पाया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अनन्तानन्त कार्मण वर्गणा रूप स्कन्धोंसे उत्पन्न इस विशिष्ट बन्धकी उत्पत्ति जीवसे ही देखी जाती है। अनन्तरबन्ध वेदना उदीर्ण होकर फलको प्राप्त हुए १ अ-श्रा-काप्रनिषु 'वेयणादो', ताप्रतौ 'वेयणा [ दो ]' इत्ति पाठः । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १२, १०. अणंतरबंधा उदिण्णफलपत्त विवागा, परंपरबद्धोए उदिण्णफलपत्तविवागत्तुवलंभादो । ण च समुदयकज्जमेकस्स होदि, विरोहादो । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १० ॥ सुगममेदं । सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥११॥ तिण्णं सद्दणयाणं विसए दव्वाभावादो, अणंतरबंधा-परंपरबंधा-तदुभयबंधा सद्दाणं पुधभूदअत्थपरूवयाणं' ण सद्ददो अत्थदो य समासाभावादो वा। एवं वेयणअणंतरविहाणे ति समत्तमणियोगद्दारं । विपाकवाली नहीं है, क्योंकि, परम्पराबद्ध वेदनामें ही उदीर्णफलप्राप्तविपाक पाया जाता है। और समुदायके द्वारा किया गया कार्य एकका नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें विरोध है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ १० ॥ यह सूत्र सुगम है। शब्द नयकी अपेक्षा वह अवक्तव्य है।॥ ११ ॥ कारण कि एक तो तीनों शब्द नयोंका विषय द्रव्य नहीं है। दूसरे अनन्तरबन्ध, परम्पराबन्ध और तदुभयबन्ध ये शब्द पृथक् पृथक् अर्थके वाचक होने से इनका शब्द और अर्थकी अपेक्षा समास नहीं हो सकता इसलिए वह इस नयकी अपेक्षा अवक्तव्य है इस प्रकार वेदनाअनन्तरविधान अनुयोगाद्वार समाप्त हुआ। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अत्थपरूवाणं', ताप्रतौ 'परूवणं ण ( याणं) इति पाठः। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं वेयणसण्णियासविहाणे ति ॥ १ ॥ एदमहियार संभालणमुत्तं, अण्णा अणुत्ततुल्लत्तपसंगादो | जो सो वेयणसण्णियासो सो दुविहो - सत्थाणवेयणसण्णियासो चेव परत्थाणवेयणसण्णियासो चेव ॥ २ ॥ दस अत्थो वच्च । तं जहा - अप्पिदेगकम्मस्स दव्व-खेत्त-काल- भावविसओ सत्थाणसणियासी णाम । अट्ठकम्मविसओ परत्थाणसण्णियासो णाम । सण्णियासो णाम किं ? ' दव्व-खेत-काल- भावेसु जहण्णुकस्सभेदभिण्णेसु एक्कम्हि णिरुद्धे' सेसाणि किमुकस्साणि किमणुक्कस्साणि किं जहण्णाणि किम जहण्णाणि वा पदाणि होति त्ति जा परिक्खा सोसण्यासो णाम । एवं सण्णियासो दुविहो चेव । सत्थाण-परत्थाणसंजोगेण वेदनासंनिकर्षविधान अनुयोगद्वार अधिकारप्राप्त है ॥ १ ॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है, क्योंकि, इसके बिना अनुक्तके समान होनेका प्रसंग आता है । जो वह वेदनासंनिकर्ष है वह दो प्रकार का है - स्वस्थान वेदनासंनिकर्ष और परस्थानवेदनासंनिकर्ष ॥ २ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं, वह इस प्रकार है- किसी विवक्षित एक कर्मका जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव विषयक संनिकर्ष होता है वह स्वस्थानसंनिकर्ष कहा जाता है और आठों कर्मों विषयक संनिकर्ष परस्थानसंनिकर्ष कहलाता है । शंका - संनिकर्ष किसे कहते हैं ? समाधान—जघन्य व उत्कृष्ट भेदरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावों में से किसी एकको विवक्षित करके उसमें शेष पद क्या उत्कृष्ट हैं, क्या अनुत्कृष्ट हैं, क्या जघन्य हैं और क्या अजघन्य हैं, इस प्रकारकी जो परीक्षा की जाती है उसे संनिकर्ष कहते हैं । इस प्रकार से संनिकर्ष दो प्रकारका ही है । शंका - स्वस्थान और परस्थानके संयोग रूप भेद के साथ तीन प्रकारका संनिकर्ष क्यों नहीं होता ? १ तो परत्थाण णाम सण्णियासो णाम किं दव्व-', श्राप्रतौ 'परत्थाण णाम सण्णियासो नाम कि अत्थो वुच्चदे दव्व-', काप्रतौ परत्थाणसण्णियासो णाम किं दव्व- ताप्रतौ 'परत्थाणसण्णियासो णाम । किं दव्व - ' इति पाठः । २ अ ा का प्रतिषु 'विरुद्धे', ताप्रतौ 'वि (णि) रुद्धे' इति पाठः । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] छक्खंडागमे वेषणाखंडं [ ४, २, १३, ३. सह तिविहो सणियासो किण्ण जायदे ? ण एस दोसो, दुसंजोगस्स पादेकंत भावेण ' तस्स अणुवलंभादो । जो सो सत्थाणवेयणसण्णियासो सो दुविहो– जहण्णओ सत्थाणवेयणसण्णियासो चेव उक्कस्सओ सत्याणवेयणसण्णियासो चेव ॥३॥ एवं सत्थाणवेयणसण्णियासो दुविहो चैव, जहण्णुक्कस्से हि विणा तदिय वियप्पाभावादो । जो सो जहण्णओ सत्याणवेयणसण्णियासो सो थप्पो ॥ ४ ॥ किम थप्पो कीरदे १ दोष्णमकमेण परूवणोवायाभावादो । उक्कस्सो किण्ण थप करदे ? ण एस दोसो, उक्कस्ससणिया से अवगदे तत्तो तदुप्पत्तीए जहण्णसण्णियासो सुहेणावगम्मदि त्ति मणेणावहारिय तस्स थप्पभावीकरणादो । पच्छाणुपुच्ची णिरुद्धा ति वा सो थप्पो ण कीरदे । जो सो उक्कस्सओ सत्थाणवेयणसण्णियासो सो चउव्विहोदव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि ॥ ५ ॥ समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, दोनोंके संयोगका प्रत्येकमें अन्तर्भाव होनेसे वह पृथकू नहीं पाया जाता है । जो वह स्वस्थान वेदनासंनिकर्ष है वह दो प्रकारका है— जघन्य स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष और उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष || ३ ॥ इस प्रकार से स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष दो प्रकारका ही है, क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्टके सिवा तीसरा कोई भेद नहीं है । जो वह जघन्य स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष है उसे स्थगित किया जाता है ॥ ४ ॥ शंका-उसे स्थगित क्यों किया जा रहा है ? समाधान - चूंकि दोनों की प्ररूपणा एक साथ नहीं की जा सकती है, अतः उसे स्थगित किया जा रहा है । शंका - उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष को स्थगित क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट संनिकर्षके परिज्ञात हो जानेपर उससे उत्पन्न होनेके कारण जघन्य संनिकर्षका ज्ञान सुखपूर्वक हो सकता है, ऐसा मनमें निश्चित करके उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्षको स्थगित नहीं किया गया है । अथवा, पश्चादानुपूर्वीकी विवक्षा होने से उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्षको स्थगित नहीं किया जाता है । जो वह उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष है वह चार प्रकारका है - द्रव्यसे, क्षेत्र से, कालसे और भावसे ॥ ५ ॥ १ ताप्रती ' पादेकं तब्भावेण' इति पाठः । २ अ ा प्रत्योः 'सण्णियासो अवगदे', काप्रतौ 'सण्णियासो अवगमदे' इति पाठः । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ७.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [ ३७७ एवं चउव्विहो चेव उक्कस्ससण्णियासो, दठव-खेत्त-काल-भावेहितो पुधभूद उक्स्स स्स एत्थ वेयणाए अणुवलंभादो । जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सा तस्स' खेत्तदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥६॥ __जस्स णाणावरणीयदबवेयणा उक्कस्सा होदि तस्स जीवस्स णाणावरणीयखेत्तवेयणा किमुक्कस्सा चेव होदि आहो किमणुकस्सा चेव होदि ति एदं पुच्छासुत्तं । एवं पुच्छिदे तस्स पुच्छंतस्स संदेहविणासणहमुत्तरसुत्तं भणदि णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा ॥७॥ कुदो १ सत्तमाएं पुढवीए चरिमसमयणेरइयम्मि पंचधणुस्सयउस्सेहम्मि उक्कस्सदव्वुवलंभादो। उक्कस्सदव्वसामियस्स खत्तं संखेज्जाणि पमाणघणंगुलाणि । कुदो ? पंचधणुस्सदुस्सेहट्ठमभागविक्खंभखेत्ते समीकरणे कदे संखेज्जपमाणघणंगुलुवलंभादो । समुग्धादगदमहामच्छउक्कस्सक्खेत्तं पुण असंखेज्जाओ सेडीओ। कुदो ? अट्ठमरज्जुआयामेण संखेज्जपदरंगुलेसु गुणिदेसु असंखेज्जसेडिमेत्तखेत्तुवलंभादो। एवं महामच्छ उक्कस्सखेत्तं पेक्खि दूण णेरइयस्स उकस्सदव्वसामियस्स' उक्कस्सखेत्तमूणमिदि कट्ट णियमा खेत्तवेयणा अणुक्कस्सा त्ति भणिदं । होता वि तत्तो असंखेज्नगुणहीणा, उक्कस्सदव्यसामि इस प्रकार उत्कृष्ट संनिकर्ष चार प्रकारका ही है, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे पृथग्भूत उत्कृष्ट संनिकषे यहाँ वेदनामें नहीं पाया जाता। जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है, उसके वह क्षेत्रको अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥६॥ जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी द्रव्य वेदना उत्कृष्ट होती है उसके ज्ञानावरणीयकी क्षेत्रवेदना क्या उत्कृष्ट ही होती है अथवा अनुत्कृष्ट ही, इस प्रकार यह पृच्छासूत्र है। इस प्रकार पूछनेपर उस पूछनोवले शिष्यका सन्देह नष्ट करनेके लिये आमेका सूत्र कहते हैं वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७॥ क्योंकि, सातवीं पृथिवीमें पांचसौ धनुष ऊँचे अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है । उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामीका क्षेत्र संख्यात प्रमाणघनांगुल मात्र होता है, क्योंकि, पांच सौ धनुष ऊंचे और उसके आठवें भागमात्र विष्कम्भवाले क्षेत्रका समीकरण करनेपर संख्यात प्रमाण घनांगुल उत्पन्न होते हैं । परन्तु समुद्घाताको प्राप्त हुए महामत्स्यका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यस्त जगश्रेणि प्रमाण है, क्योंकि, साढ़े सात राजु आयामसे संख्यात प्रतरांगुलोंको गुणित करनेपर असंख्यात जगणि प्रमाण क्षेत्र उपलब्ध होता है । इस प्रकार महामत्स्यके उत्कृष्ट क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामी नारकीका उत्कृष्ट क्षेत्र चूंकि हीन है, अतएव 'क्षेत्र वेदना नियमसे अनुत्कृष्ट होती है' ऐसा कहा है । ऐसी होती हुई भी वह उससे असंख्यातगुणी हीन है, क्योंकि, उत्कृष्ट १ प्रतिषु 'तत्थ' इति पाठः । २ प्रतिषु एवं' इति पाठः। ३ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सामित्तस्स', ताप्रतौ 'सामिस्स' इति पाठः। छ. १२-४८ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ८. यस्स' उक्कस्सखेत्तेण महामच्छुकस्सखेत्ते भागे हिदे सेडीए असंखेज्जदिभागुवलंभादो । सत्तमपुढविचरिमसमयणेरइयस्स उकस्सदव्यसामियस्स' मुक्कमारणंतियस्स उक्कस्सखेत्ते गहिदे संखेज्जगुणहीणा किण्ण लब्भदे ? ण, मुक्कमारणंतियस्स उक्कस्ससंकिलेसाभावेण उक्कस्सजोगाभावेण य उक्कस्सदव्यसामित्तविरोहादो। मुकमारणंतियस्स उक्कस्ससंकिलेसो ण होदि त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो 'असंखेज्जगुणहीणा' ति सुत्तादो । तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥८॥ सुगममेदं पुच्छासुत्तं । उक्कस्सा वा अणकस्सा वा ॥६॥ जदि रइयचरिमसमए उक्कस्सडिदिसंकिलेसो होज्ज तो कालदो वि णाणावरणीयवेयणा उक्कस्सा होज्ज, उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सहिदि मोत्तूण अण्णहिदीणं बंधाभा. वादो। जदि चरिमसमए उक्कस्सहिदिसंकिलेसो ण होदि तो णाणावरणीयवेयणा कालदो णियमा अणुक्कस्सत्तं पडिवज्जदे, चरिमसमए उक्कस्सद्विदिबंधाभावादो। उक्कस्सादो अणुक्कस्सं किं विसेसहीणं संखेनगुणहीणं ति पुच्छिदे तण्णिण्णयमुत्तरसुत्तं भणदिद्रव्य सम्बन्धी स्वामीके उत्कृष्ट क्षेत्रका महाम स्यके उत्कृष्ट क्षेत्रमें भाग देनेपर जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है। शंका-जो सप्तम पृथिवीग्थ अन्तिम समयवर्ती नारकी उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी है और जो मारणन्तिक समुद्घातको कर चुका है उसके उत्कृष्ट क्षेत्रको ग्रहण करनेपर वह (क्षेत्रवेदना) संख्यातगुणी हीन क्यों नहीं पायी जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मुक्त मारणान्तिक जीवके न तो उत्कृष्ट संक्लेश होता है और न उत्कृष्ट योग ही होता है। अतएव वह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी नहीं हो सकता। शंका-मुक्त मारणान्तिक जीवके उत्कृष्ट संक्लेश नहीं होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान-वह 'असंख्यातगुणी हीन है इसी सूत्रसे जाना जाता है। कालकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ॥८॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है। उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥४॥ यदि उक्त नारक जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश होता है तो कालकी अपेक्षा भी ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंका बन्ध नहीं होता है और यदि अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश नहीं होता है तो ज्ञानावरणीयवेदना कालकी अपेक्षा नियमतः अनुत्कृष्टताको प्राप्त होती है, क्योंकि, अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अभाव है। उत्कृष्ट की अपेक्षा वह अनुत्कृष्ट क्या विशेष हीन होती है या संख्यातगुणी हीन होती है, ऐसा पूछनेपर उसके निर्णय के लिये आगेका सूत्र कहते हैं १ काप्रतौ 'सामित्तयन्स' इति पाटः । २ अ-काप्रत्योः 'सामिस्स', अाप्रतौ 'सामित्तस्स' इति पाठः। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १३.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [३७६ उकस्सादो अणुकस्सा समऊणा ॥ १०॥ दुसमऊणादिवियप्पा किण्ण लब्भंते ? ण, णेरइयदुचरिमसमयम्मि उक्तस्सदव्वमिच्छिय उक्कस्ससंकिलेसे णियमिदम्मि उक्कस्सहिदि मोत्तूण अण्णद्विदीणं बंधाभावादो। ण च दुचरिमसमर उक्कस्सद्विदीए बंधीए' संतीए चरिमसमर समऊणत्तं मोत्तूण दुसमऊणत्तादिवियप्पो संभवदि, अधहिदीए' दुवादिहिदीणमकमेण गलणाभावादो । तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥११॥ सुगममेदं । उकस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ १२ ॥ जदि दुचरिमसमयणेरइयो उकस्ससंकिलेसेण उकस्सविसेसपच्चएण उक्कस्साणुभागं बंधदि तो भाववेयणा उक्कस्सा होदि। अध णस्थि उक्कस्सविसेसपञ्चओ तो णियमा अणुक्कस्सा त्ति भणिदं होदि । उक्कस्सं पेक्खिदूण अणुक्कस्सभावो छबिहासु हाणीसु कत्थ होदि ति पुच्छिदे तण्णिण्णयत्थमुत्तरसुत्तं भणदि उक्कस्सादो अणुक्कस्सा छहाणपदिदा ॥ १३ ॥ उक्कस्सं पेक्खिदूण अणुक्कस्सभावो अणंतभागहीण-असंखेज्जभागहीण-संखेज्जभागवह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय हीन होती है ॥ १० ॥ शंका-यहां दो समय हीन आदि विकल्प क्यों नहीं पाये जाते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, नारक भक्के द्वि चरम समयमें उत्कृष्ट द्रव्यका बन्ध हुआ ऐसा मान लेनेपर उत्कृष्ट संक्लेशके नियमित होनेपर वहां उत्कृष्ट स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंका बन्ध नहीं होता। और जब द्विचरम समयमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हुआ तो चरम समयमें एक समय हीन विकल्पको छोड़कर दो समय हीन आदि विकल्पोंकी सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि, अधःस्थिति गलनाके द्वारा एक साथ दो आदिक स्थितियोंका गलन नहीं हो सकता। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ॥ ११ ॥ यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट भी होती है अनुत्कृष्ट भी ॥ १२ ॥ यदि द्विचरम समयवर्ती नारकी जीव उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा और उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागको बाँधता है तो उसके भाव वेदना उत्कृष्ट होती है। यदि उसके उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय नहीं है तो नियमसे अनुत्कृष्ट वेदना होती है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय हैं। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट भाव छह प्रकारकी हानियोंमेंसे किस हानिमें होता है, ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना षट्स्थानपतित होती है ॥ १३॥ उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट भाव अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभाग१ काप्रतौ 'वंतीए' इति पाठः । २ अ-श्रा-ताप्रतिषु 'अवहिदीए' इति पाठः । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १४ हीण-संखेज्जगुणहीण-असंखेज्जगुणहीण-अणंतगुणहीणसरूवेण' अवविदछट्ठाणेसु पदिदो होदि । कथमेकसंकिलेसादो असंखेज्जलोगमेत्तअणुभागछट्ठाणाणं बंधो जुज्जदे ? ण एस दोसो, एक्कसंकिलेसादो असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणसहिदअणुभागबंधज्मवसाणट्ठाणसहकारिकारणाणं भेदेण सहकारिकारणमेत्तअणुभागट्टाणाणं बंधाविरोहादो। तेसिं छट्ठाणाणं णामणिदेसट्टमुत्तरसुत्तं भणदि अणंतभागहीणा वा असंखेजभागहीणा वा संखेजभागहीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा अणंतगुणहीणा वा ॥१४॥ __णेरड्यदुचरिमसमए उकस्ससंकिलेसेण अणंतभागहीणउक्कस्सविसेसपच्चएण अणंतभागहीणउकस्सअणुभागंबंधिय गेरइयचरिमसमए वट्टमाणस्स अणुभागो उक्कस्साणुभागादो अणंतभागहीणो । दुचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसेण चरिम-दुचरिमपक्खेवेहि ऊणमणुभागं बंधिय चरिमसमए वट्टमाणस्स सगुकस्साणुभागादो अणंतभागहाणी चेव । एवमंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवे जाव परिवाडीए हाइदूण बंधदि ताव अणंतभागहाणी चेव । पुणो पुविल्लअणंतभागवड्डिपक्खेवेहि सह असंखेज्जमागवड्डिपक्खेवे हीन; संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन स्वरूपसे अवस्थित छह स्थानपतित होता है। . शंका-एक संक्लेशसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग सम्बन्धी छह स्थानोंका बन्ध कैसे बन सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक संक्लेशसे, असंख्यात लोक प्रमाण छह स्थानोंसे सहित अमुभागबन्धाभ्यवसानस्थानोंके सहकारी कारणों के भेदसे सहकारी कारणों के बराबर अनुभागस्थानोंके बन्धमें कोई विरोध नहीं आता। __ उन छह स्थानोंके नामोंका निर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं वह अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन होती है ॥ १४ ॥ _नारक भक्के द्विचरम समयमें अनन्तभागहीन उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय संयुक्त उस्कृष्ट संक्लेशसे अनन्तभागहीन उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर नारक भवके चरम समयमे वर्तमान उक्त नारकीका अनुभाग उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन होता है। द्विचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशसे चरम और द्विचरम प्रक्षेपासे हीन अनुभागको बाँधकर चरम समयमें वर्तमान नारकी जीवके अपने उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तभागहानि ही होती है। इस प्रकार जब तक वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपोंको परिपाटीक्रमसे हीन करके अनुभागको बाँधता है तब तक अनन्तभागहानि ही चालू रहती है। बत्पश्चात् अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपों के साथ असंख्यातभागवृद्धि प्रक्षेपोंको हीन करके अनुभागके पूर्वोक्त १ अप्रतौ -'हीणकमेण सरूवेण' इति पाठः । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८१ ४,२, १३, १६.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं हाइदूण बंधे उक्कस्साणुभागादो एसो अणुभागो असंखेज्जमागहीणो । पुणो ततो हेट्ठिमपक्खवे परिहाइदण बद्धे वि असंखेज्जभागहाणी चेव । एवमसंखेज्जमागहाणीए' कदंयाहियकंदयमेत्तट्ठाणाणि ओसरिदूण जाव बंधदि ताव गिरंतरमसंखेज्जभागहाणी चेव होदि । तत्तो हेट्ठा संखेज्जभागहाणी चेव जाव पढमदुगुणहाणिं ण पावेदि । तम्हि पत्ते' य संखेज्जगुणहाणी होदि । एवमेदेण विहाणेण ओदारेदव्वं जाव उक्कस्ससंखेज्जगुणहीणहाणं पत्तं त्ति । तदो समयाविरोहेण हेट्ठा ओदरिदूण पढमसंखेज्जगुणहीणहाणं होदि । एवमसंखज्जगुणहीणकमेण ताव ओदारेदव्यं जाव चरिमअसंखेज्जगुणहीणट्ठाणं पत्तं त्ति । पुणो हेहिमउव्वंके बद्ध अणंतगुणहीणट्ठाणं होदि । एवमेत्तो प्पहुडि अणंतगुणहीणं होदूण ताव गच्छदि जाव असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि ओसरिदूण बद्धाणि त्ति । जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उकस्सा तस्स दव्वदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ १५ ॥ सुगममेदं पुच्छासुत्तं । णियमा अणुकस्सा ॥१६॥ उक्कस्सा ण होदि, महामच्छम्मि उक्तस्सओगाहणम्मि अट्ठमरज्जुआयामेण सत्तमपूढविं पडि मुक्कमारणंतियम्मि गुणिदुक्कस्ससंकिलेसाभावेण दव्वस्स उक्कस्सत्तविरोहादो। बाँधनेपर उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा यह अनुभाग असंख्यातभागहीन होता है। पश्चात् उससे नीचेके प्रक्षेपोंको हीन करके बाँधनेपर भी असंख्यातभागहानि ही होती है। इस प्रकार जब तक वह असंख्यातभागहानिसे एक काण्ड कसे अधिक काण्डक प्रमाण स्थान नीचे उतरकर अनुभाग बाँधता है तब तक निरन्तर असंख्यातभागहानि ही होती है। किन्तु उसके नीचे प्रथम दुगुणहानिके प्राप्त होने तक संख्यातभागहानि ही होती है और दुगुणहानिके प्राप्त होनेपर संख्यातगुणहानि होती है। इस प्रकार इस विधिसे उत्कृष्ट संख्यातगुणहीन स्थानके प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। तत्पश्चात् समयाविरोधसे नीचे उतरकर प्रथम असंख्यातगुणहीन स्थान होता है। इस प्रकार असंख्यातगुणहीन क्रमसे तब तक उतारना चाहिये जब तक कि अन्तिम असंख्यातगुणहीन स्थान प्राप्त नहीं होता है। पश्चात् अधरतन ऊवकका बन्ध होनेपर अनन्तगुणहीन स्थान होता है। इस प्रकार यहां से लेकर अनन्तगुण हीन होकर तब तक जाता है जब तक कि असंख्यात लोक प्रमाण छह स्थान नीचे उतर कर स्थान बंधते हैं। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ॥१५॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है। .. वह नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ॥१६॥ वह उत्कृष्ट नहीं होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट अवगाहनावाले महामत्स्यके साढ़ेसात राजु प्रमाण आयामसे सातवीं पृथिवीके प्रति मारणान्तिक सामुद्घातके करनेपर वहाँ गुणित उत्कृष्ट १ ताप्रती 'बद्ध वि असंखेजभागहाणीए' इति पाठः। २ तातौ 'पत्तेयासंखेज' इति पाठः। ३ अप्रतौ 'श्रोदारिय', काप्रतौ त्रुटितोऽत्र जातः पाठः। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १७ ण च सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमयम्मि उक्कस्सजोगसंकिलेसेण गुणिदभावणिबंधषण जादउक्कस्सदव्वं महामच्छम्मि होदि, विरोहादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जदि, अइप्पसंगादो। तम्हा दव्ववेयणा अणुकस्से त्ति भणिदं ।। चउहाणपदिदा-असंखेजभागहीणा वा संखेजुभागहीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ॥ १७ ॥ ___उक्कस्सखेत्तसामिदव्ववेयणा णियमेण अणुकस्सभावमुवगया सगओघुकस्सदव्वं पेक्खिदूण कधं होदि ति पुच्छिदे चउहाणपदिदा ति णिद्दिष्टुं । काणि ताणि चउट्ठाणाणि त्ति भणिदे तेसिं णामणिद्देसो कदो अणंतभागहीण-अणंतगुणहीणपडिसेहटुं। एत्थ ताव चदुण्णं हाणीणं परूवणा कीरदे । तं जहा-एगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवि. णेरइओ तेत्तीसाउद्विदीओ' सगभवद्विदीए चरिमसमए दामुक्कस्सं करिय कालं कादण तसकाइयेसु एइंदिएसु च अंतोमुहुत्तमच्छिय महामच्छो जादो, पज्जत्तयदो होदण अंतोमुहुत्तेण अद्धट्ठमरज्जुआयामपमाणं मारणंतियं कादूण उक्कस्सखेत्तसामी जादो। तकाले तस्स दव्वमोघुक्कस्सदव्वं पेक्खिदूण असंखेज्जभागहीणं होदि। पलिदोवमस्स असंखे. ज्जदिमागं विरलेदूण ओघुक्कस्सदव्वं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स गट्ठदव्वसंक्लेशका अभाव होनेसे उत्कृष्ट द्रव्य का सद्भाव माननेमें विरोध है । और सातवीं पृथिवीमें स्थित कीके चरम समयमें गुणित भावके कारणभूत उत्कृष्ट योग व संलशसे जो उत्कृष्ट द्रव्य होता है वह महामत्स्य के सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होने में विरोध आता है। कारणके बिना कहीं भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि, वैसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आता है । इसी कारण द्रव्यवेदना अनुत्कृष्ट होती है ऐसा कहा गया है। वह अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीन इन चार स्थानोंमें पतित है ॥ १७ ॥ __ उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामीकी द्रव्यवेदना नियमसे अनुत्कृष्ट भावको प्राप्त होकर अपने सामान्य उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा कैसी होती है, ऐसा पूछनेपर 'वह चतुःस्थानपतित होती है। ऐसा सूत्रमें निर्देश किया गया है । वे चतुःस्थान कौनसे हैं, ऐसा पूछनेपर अनन्तभागहीन और अनन्तगुणहीन नोंका प्रतिषेध करने के लिये उन चार स्थानोंके नामोंका निर्देश किया गया है। यहाँ पहिले चार हानियोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक गुणितकर्माशिक तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुःस्थितिवाला सातवीं पृथिवीका नारकी अपनी भवस्थितिके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट करके मरणको प्राप्त हो त्रसकायिक और एकेन्द्रियोंमें अन्तमुहूर्त तक रहकर महा. मत्स्य हुआ। वह अन्तर्मुहूर्तमें पर्याप्त होकर साढ़ेसात राजु आयाम प्रमाण मारणान्तिक समुद्घातकोकरके उत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी हुआ। उस समय उसका द्रव्य सामान्य उत्कृष्ट द्रव्य की अपेक्षा असं. ख्यातवेंभागहीन होता है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवेंभागको विरलितकर ओघ उत्कृष्ट द्रव्यको १ प्रतिषु णेरइयतेत्तिसाउहिदीश्रो इति पाठः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १७. ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [३८३ पमाणं पावदि । तत्थ एगखंडं णटुं। सेसबहुखंडाणि उक्कस्सखेत्तं कादूणच्छिद'महामच्छस्स उकस्सदव्वं होदि । पुणो एदम्हादो दव्वादो एंग-दोपरमाणुआदि कादूण ऊणियअसं. खेज्जभागहाणिपरूवणा ताव परूवेयव्वा जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्सदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडं परिहीणे त्ति । पुणो वि एगादिपरमाणुहाणि कादूण ताव णेयव्वं जाव ओघुक्कस्सदरमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदण तत्थ एगखंड णटुं ति । ताधे असंखेज्जभागहा. णीए अंतं' [होदण]संखज्जभागहाणीए च आदी जादा । एत्तो प्पहुडि संखेज्जभागहाणी चेवहोदण गच्छदि जाव रूवाहियमुक्कस्सदव्वस्स अद्धं चेट्ठिदं ति । पुणो तत्तो एगपरमाणुहाणीए जादाए दुगुणहाणी होदि । संपहि संखेज्जगुणहाणीए आदी जादा। पुणो उक्कस्सदव्वं तिण्णि खंडाणि कादूण तत्थ एगखंडेण सह उकस्सखेत्ते कदे दव्वं संखेज्जगुणहीणं होदि । पुणो उक्कस्सदव्वं चत्तारि खंडाणि कादण तत्थ एगखंडेण सह उक्कस्स. खेत्ते कदे दव्वं संखेज्जगुणहीणमेव होदि । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सदव्वं उक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ एपखंडेण सह उक्कस्सखेत्तं कादूण विदो त्ति । पुणो वि उवरि एवं जाणिदण णेयव्वं जाव उक्कस्सदव्वं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदण तत्थ एगखंडं रूवाहियं चेद्विदं ति । पुणो तमेगपरमाणुणा ऊणं करिय उक्कस्सखेत्ते कदे असंखे समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति नष्ट द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। उसमेंसे वहाँ एक खण्डनष्ट हुआ है, शेष बहुखण्ड प्रमाण उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित महामत्स्यका उत्कृष्ट द्रव्य होता है। पुनः इस द्रव्यमेंसे एक दो परमाणुओं लेकर हीन करते हुए असंख्यातभागहानिकी प्ररूपणा तब तक करनी चाहिये जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करनेपर .उसमेंसे एक खण्ड हीन नहीं हो जाता है। फिर भी एक आदिक परमाणुओंकी हानिको करके तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि ओघ उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण नष्ट नहीं हो जाता है। उस समय असंख्यातभागहानिका अन्त होकर संख्यातभागहानिका प्रारम्भ होता है। ___ यहांसे लेकर संख्यातभागहानि ही होकर जाती है जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यका एक अधिक आधा भाग स्थित रहता है । फिर उसमेंसे एक परमाणुकी हानि होनेपर दुगुणहानि होती है। अब संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ हो जाता है। पुनः उत्कृष्ट द्रव्यके तीन खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रके करनेपर द्रव्य संख्यातगुणा हीन होता है । पुनः उत्कृष्ट द्रव्यके चार खण्ड करके उसमेंसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रके करनेपर द्रव्य संख्यातगुणा हीन ही होता है । इस प्रकारसे उत्कृष्ट द्रव्यके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनमसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रको क स्थित होने तक ले जाना चाहिये। फिर भी आगे इसी प्रकारसे जानकर उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके उसमें से एक अधिक एक खण्डके स्थित होने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्च त् उसे एक परमाणुसे हीन करके उत्कृष्ट क्षेत्रके करनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। १ अश्रा काप्रतिषु 'अच्छिदं इति. पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अणंत' इति पाठः। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १८. ज्जगुणहाणी होदि । एत्तो प्पहुडि असंखेज्जगुणहीणं होदण दव्वं गच्छदि जाव तप्पा ओग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ओघुक्कस्सदव्वं खंडिय तत्थ एगखंडेण सह उक्कस्सखेत्तं कादण द्विदो त्ति । एदं जहण्णदव्वं केण लक्खणेण आगदस्स होदि त्ति भणिदे एगो जीवो खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण विवरीयगमणपाओग्गणिब्वियप्पकालावसेसे विवरीदं गंतूण महामच्छेसु उप्पज्जिय उक्कस्सखेत्तं कादण अच्छिदो तस्स होदि । एत्तो हेट्ठा एवं दव्वं ण हायदि, उक्कस्सदव्वादो णिव्ययप्पमसंखेज्जगुणहीणत्तमुवणमिय ट्टिदत्तादो। जम्हि जम्हि सुत्ते दव्वं चउट्टाणपदिदमिदि भणिदं तम्हि तम्हि एसो एत्थ उत्तकमो अवहारिय परूवेदव्यो । तस्स कालदो कि उकस्सा अणकस्सा ॥१८॥ एदं पुच्छासुत्तं सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ १६ ॥ जदि उक्कस्सखेत्तं कादण द्विदमहामच्छो उक्कस्ससंकिलेसं गच्छदि तो णाणावरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सिया चेव होदि, चरिमद्विदिपाओग्गपरिणामेसु पलिदोवमस्त असंखेज्जदिमागेण खंडिदेसु तत्थ चरिमखंडपरिणामेहि उकस्सहिदि मोत्तण अण्ण द्विदीणं बंधाभावादो। अह चरिमखंडपरिणामे मोत्तूण जदि अण्णेहि परिणामेहि द्विदिं बंधदि यहांसे लेकर तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे ओघ उत्कृष्ट द्रव्यको खण्डित करके उसमेंसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित होने तक द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होकर जाता है। शंका-यह जघन्य द्रव्य किस स्वरूपसे आगत जीवके होता है ? समाधान-ऐसा पूछे जानेपर उत्तरमें कहते हैं कि जो एक जीव क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके विपरीत गमनके योग्य निर्विकल्प कालके शेष रहनेपर विपरीत गमन करके महामत्स्योंमें उत्पन्न होकर उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित है उसके उक्त जघन्य द्रव्य होता है। इसके नीचे यह द्रव्य होन नहीं होता है, क्योंकि, वह उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा निर्किल्प असं. हीनताको प्रप्त होकर स्थित है । जिस जिस सूत्रमें 'द्रव्य चतुःस्थानपतित है। ऐसा कहा गया है उस उस सूत्रमें यहाँ कहे गये इस क्रमका निश्चय करके प्ररूपणा करनी चाहिये । उसके उक्त वेदना कालकी अपेक्षा-क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥१८॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है। उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ १९ ॥ यदि उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित महामस्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है तो ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट ही होती है, क्यों कि, अन्तिम स्थिति के योग्य परिणामों को पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उनमें अन्तिम खण्ड सम्बन्धी परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंका बन्ध नहीं होता और यदि वह अन्तिम खण्ड सम्बन्धी परिणामोंको छोड़कर अन्य परिणामों के द्वारा स्थितिको बाँधता है तो उक्त वदना कालकी Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २०. ] वेणसगियासविहाणाणियोगद्दारं तो अणुस्सा होदि, तेहि उक्कस्सडिदी चेव बज्झदि त्ति नियमाभावादो । उकस्सादो अणुकस्सा तिठ्ठाणपदिदा - असंखेज्जभागहींणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा ॥ २० ॥ किमङ्कं तिष्णं हाणीणं णामणिद्देसो कीरदे ? अनंतभागहाणि असंखेज्जगुणहाणि - अनंतगुणहाणीयो कालम्मि णत्थि त्ति जाणावणङ्कं । तत्थ ताव तासिं हाणीणं सरूवपरूवणं कस्साम । तं जहा — उकस्सखेत्तं काढूण अच्छिदमहामच्छेण तीसं सागरोवमकोMinist समऊणासु पबद्धासु णाणावरणीयकालवेयणा अणुक्कस्सा होदि, ओघुकस्सहिदि पेक्खिदूण समऊणत्तादो । एदिस्से हाणीए को भागहारो होदि । उक्कस्सट्ठिदी चेव । कुदो ? उक्कस्सट्ठिदिं विरलेदूण तं चैव समखंडं काढूण दिण्णे रूवं पडि एगेगरूवुवलंभादो । पुणो उक्कस्सखेत्तं काढूणच्छिदमहामच्छेण दुसमऊणुकस्साए द्विदीए ' पत्रद्धाएं असंखेज्जभागहाणी होदि । पुणो तेणेव तिसमऊणुक्कस्सट्ठिदीए पबद्धाएं असंखेज्जभागहाणी चैव होदि । एवमसंखेज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव उक्कस्सखेत्तं काढूणच्छिद महामच्छेण तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ जहण्णपरित्तासंखेज्जेण अपेक्षा अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि, उन परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट स्थिति ही बँधती है; ऐसा नियम नहीं है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन या संख्यातगुणहीन, इन तीन स्थानों में पतित है ।। २० ।। शंका- तीन हानियों के नामोंका निर्देश किसलिये किया जारहा है ? [ ३८५ समाधान-कालमें अनन्तभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि; ये तीन हनियाँ नहीं है, इसके ज्ञापनार्थ उन तीन हानियोंका नाम निर्देश किया गया है। अब सर्व प्रथम उन हानियोंके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकारसे - उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित महामत्स्यके द्वारा एक समय कम तीस कोड़ीकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थितियोंके बांधे जानेपर ज्ञानावरणीयकी कालवेदना अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि, ओघ उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा वह एक समय कम है । शंका- इस हानिका भागद्दार क्या है ? समाधान - उसका भागहार उत्कृष्ट स्थिति ही, है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिका विरलन करके उसी को समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति एक एक अंक पाया जाता है । पुनः उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित हुए महामत्स्यके द्वारा दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति के बांधे जानेपर असंख्यात भागहानि होती है । फिर उसी महामत्स्यके द्वारा तीन समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जाने पर असंख्यात भागहानि ही होती है । इस प्रकार असंख्यात भागहानि होकर तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित हुए महामत्स्यके द्वारा तीस कोड़ाकोड़ि १ श्रश्रा - कामतिषु - गुकस्सा हिदीए', ताप्रतौ ' -णुकरसहिदीए' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'उक्करसेण खेतं' इति पाठः । छ. १२४६ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] srisrगमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, २१. खंडेण तत्थ एगखंडेण ऊणउकस्सट्ठिदीए पबद्धाए वि असंखेज्जभागहाणी चैव होदि । तत्तो हुडि एगेगसमयपरिहाणीए बंधाविज्जमाणे' वि असंखेज्जभागहाणी' चेव होदि । पुणो एवं गंतूण उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडेण परिहीणउकस्सट्ठिदीए पबद्धाए संखेज्जभागपरिहाणी होदि । एत्तो पहुडि संखेज्जभागपरिहाणी चेव होतॄण गच्छदि जाव एगसमयाहियमद्धं चेट्टिदं ति । पुणो तत्तो एगसमयपरिहीणट्टिदीए पबद्धाए गुणहाणी होदि । एत्तो पहुडि संखेज्जगुणहाणी चेव होदूण गच्छदि जाव सत्तमपुढविपाओग्गअंतोकोडा कोडि त्ति । णवरि खेत्तं उक्कस्समेवे त्ति सव्वत्थ वत्तव्वं । तस्स भावदो किस्सा अणुक्कस्सा ॥ २१ ॥ सुगममेदं पुच्छासुतं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ २२ ॥ 3 तदुक्कस्सखेचमहामच्छेण उक्कस्ससंकिलिसेण उक्कस्सविसेसपचएण जदि उक्कस्साभागो बद्धो तो खेत्तेण सह भावो वि उक्कस्सो होज्ज । एदम्हादो अण्णस्स उक्कस्सखेतसामिजीवस्स भावो अणुक्कस्सो चेव, उक्कस्सविसेसपच्चयाभावादो | उकस्सादो अणुक्कस्सा छट्टाणपदिदा ॥ २३ ॥ सागरोपमको जघन्य परीता संख्यात से खण्डित करनेपर उनमें एक खण्ड से हीन उत्कृष्ट स्थिति बांधी जाती है तब तक असंख्यात भागहानि ही होती है। वहां से लेकर एक एक समयकी हानि युक्त स्थितिके बांधनेपर भी असंख्यात भागद्दानि ही होती है । पश्चात् इसी प्रकार से जाकर [ उत्कृष्ट स्थितिको ] उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें एक खण्डसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेपर संख्यात भागहानि होती है। यहांसे लेकर संख्यातभागहानि ही होकर जाती है जब तक उसका एक समय अधिक अर्ध भाग स्थित रहता है । तत्पश्चात् उसमें से एक समय हीन स्थिति के बांधे जानेपर दुगुणी हानि होती है । यहांसे लेकर सातवीं पृथिवीके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थिति बन्धके प्राप्त होने तक संख्यातगुणहानि ही होकर जाती है । विशेष इतना है कि क्षेत्र उत्कृष्ट ही रहता है, ऐसा सर्वत्र कहना चाहिये । उसके उक्त वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २१ ॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ २२ ॥ उक्त उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी महामत्स्य के द्वारा उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय रूप उत्कृष्ट संकेश से यदि उत्कृष्ट अनुभाग बाँधा गया है तो क्षेत्रके साथ भाव भी उत्कृष्ट हो सकता है । इससे भिन्न उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी जीवका भाव अनुत्कृष्ट ही होता है, क्योंकि, उसके उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययका अभाव है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट छह स्थानोंमें पतित है ।। २३ ।। 1 १ - श्रापत्योः 'बद्धाविज्जमाणे', का-ताप्रत्योः 'वड्डाविजमाणे' इति पाठः । २ - का-ताप्रतिषु 'संखेजहाणी', प्रतौ 'असंखे०हाणी' इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'विसेसणपच्चएण' इति पाठः । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २६. ] वे सणयासविहाणा णियो गद्दारं [ ३८७ एत्थ उकस्सदव्वे णिरुद्धे जहा भावस्स छट्टाणपदिदत्तं परुविदं तहा एत्थ वि णिस्सेसं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुकस्सा अणुक्कस्सा ॥ २४ ॥ एत्थ उकस्सपदअ। दिट्ठिदकिंसदो अणुक्कस्सपदे वि जोजेयव्वो । सेसं सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ २५ ॥ गुणिदक मंसियलक्खणेणागदचरिमसमयणेरइएण कय उकस्सदव्वेण उक्कस्सट्टिदीए पबद्धाए उकस्सकालवेयणाए सह दव्वं पि उक्करसं होदि । उक्कस्सकालेण सह एगादिपरमाणुपरिहीणउक्करसदव्वे कदे दव्ववेयणा अणुक्कस्सा होदि । उकस्सादो अणकस्सा पंचट्टाणपदिदा ॥ २६ ॥ तं जहा - उकस्सकाल सामिणो' एगपदेसूणउकस्सदव्वे कदे दव्वमणंत भागहीणं होदि । तेणेव दुपदेसूणुकस्सदव्वसंचए कदे दव्वमणंतभागहीणं चेव होदि । तिपदेसूणुकसदव्वसंच कदे वि अनंतभागहीणं चेव होदि । एवं ताव उक्कस्सकाल सामिदव्यमणंतभागहाणी गच्छदि जाव जहण्णपरित्ताणंतेण उक्कस्तदव्वं खंडेदूण तत्थ एगखंडेण यहाँ उत्कृष्ट द्रव्यकी विवक्षा होनेपर जिस प्रकार भावके छह स्थानोंमें पतित होनेकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहाँपर भी उसकी पूर्ण रूपसे प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २४ ॥ यहाँ उत्कृष्ट पदके आदिमें स्थित 'किं' शब्दको अनुत्कृष्ट पदमें भी जोड़ना चाहिये । शेष कथन सुगम है । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ।। २५ ।। गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आया है और जिसने द्रव्यको उत्कृष्ट किया है उस अन्तिम समयवर्ती नारक जीवके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर उत्कृष्ट काल वेदना के साथ द्रव्य भी उत्कृष्ट होता है । तथा उत्कृष्ट कालके साथ एक आदिक परमाणुसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यके करनेपर द्रव्य वेदना अनुत्कृष्ट होती है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना पाँच स्थानों में पतित है ।। २६ ॥ वह इस प्रकारसे उत्कृष्ट कालवेदना के स्वामी द्वारा एक प्रदेश कम उत्कृष्ट द्रव्यके करनेपर यह द्रव्य अनन्तवें भागसे हीन होता है। उक्त जीवके द्वारा ही दो प्रदेश कम उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करनेपर द्रव्य अनन्तभागहीन ही होता है। तीन प्रदेश कम उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करनेपर भी द्रव्य अनन्तभागहीन ही होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट कालवेदना के स्वामीका द्रव्य तब तक अनन्तभागहानिरूप होकर जाता है जब तक कि वह उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित १ - श्रा-का-ताप्रतिषु 'सामिश्रो' इति पाठः । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २६. परिहीणं ति । पुणो हेट्ठा वि अणंतभागहाणी चेव होदण गच्छदि जाव उक्कस्सअसंखेज्जेण उक्कस्सदव्वं खंडेदण तत्थ एगखंडेण परिहीण उक्स्सदव्वं ति । तत्तो पहुडि असं. खेज्जमागहाणी चेव होदण गच्छदि जाव उक्कस्सदव्वं उकस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थेगखंडेण परिहीणुक्कस्सदव्वे त्ति । तत्तो पहुडि संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव उक्कस्सदव्वस्स' अद्धं चेट्ठिदं ति । तत्तो प्पहुडि संखेज्जगुणहाणीए णेदव्वं जाव उक्कस्सदव्वं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदूण एगखडं चेद्विदं ति । ततो पहुडि असंखेज्जगुणहाणी चव होदूण गच्छदि जाव उकस्सदव्वस्स तप्पाओग्गो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो जादो त्ति । णवरि सव्वत्थ' कालो उक्कस्सो चेवे त्ति वत्तव्वं । संपहि' सव्वजहण्णदव्वपरूवणं कस्सामो। तं जहा-खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि सम्मत्तकंदयाणि अणंताणुबंधिविसंजोयण'. कंदयाणि च कादूण पुचकोडाउअमणुस्सेसु उववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सिओ संजमं पडिवण्णो । तदो देसूणपुरकोडिं संजमगुणसेडिणिजरं करेमाणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे मिच्छत्तं गंतूण णाणावरणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो जादो । तस्स कालवेयणा ............. करके उसमेंसे एक खण्डसे हीन नहीं हो जाता है । फिर नीचे भी अनन्तभागहानि ही होकर उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्डसेम्हीन उत्कृष्ट द्रव्यके होने तक जाती है। वहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें से एक खण्डसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यके होने तक असंख्यातभागहानि ही होकर जाती है । यहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यका अर्ध भाग स्थित होने तक संख्यातभागहानि होकर जाती है। पश्चात् वहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके उसमें से एक खण्डके स्थित होने तक संख्यातगुणहानिसे ले जाना चाहिये । यहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यका तत्प्रायोग्य पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग भागहार होने तक असंख्यातगुणहानि ही होकर जाती है । विशेषता यह है कि सर्वत्र काल उत्कृष्ट ही रहता है, ऐसा कहना चाहिये। ____ अब सर्वजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सम्यक्त्वकाण्डकों व संयमासंयमकाण्डकोंको, आठ संयमकाण्डकों व अनन्तानुबन्धिविसंयोजन काण्डकोंको करके पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । वहाँ गर्भसे से लेकर आठ वर्षका होकर संयमको प्राप्त हुआ। पश्चात् कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमगुणश्रेणिनिर्जराको करते हुए उसके संसारके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर ज्ञानावरणीयका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध हुआ । उसके कालवेदना उत्कृष्ट होती है । परन्तु द्रव्यवेदना १ ताप्रती 'दव्वं' इति पाठः । २ का-ता प्रत्योः 'पाश्रोग्ग-' इति पाठः। ३ श्र-पा-काप्रतिषु 'सव्वत्थो' इति पाठः। ४ अ-श्रा-का-ताप्रतिषु 'संपहि' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते, मप्रतौ तूपलभ्यते तत् । ५ श्र-पा-काप्रतिषु संजोयण' इति पाठः। ६ अ-अा-ताप्रतिषु 'देसूणपुवकोडिसंजम', काप्रती 'देसूणपुवकोडाउअमणस्सेसु उववण्णो संजम- इति पाठः । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २९.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहरं [ ३८६ उक्कस्सा' । दव्ववेयणा पुण णिबियप्पअसंखेजगुणहीणा । णवरि सम्मत्त-संजमासंजमकंदयाणि केत्तिएण वि ऊणा त्ति वत्तव्वं, अण्णहा मिच्छत्तगमणाणुववत्तीदो । दव्ववेयणा अणंतगुणहीणा किण्ण जायदे ? ण, अणंतगुणहीणजोगाभावादो। तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥२७॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणक्कस्सा वा ॥२८॥ उक्कस्सखेत्तसामिणा महामच्छेण उक्कस्सद्विदीए पबद्धाए कालेण सह खेत्तं पि उक्कस्सं होदि । उक्कस्सखेत्तमकाण उक्कस्सहिदीए पबद्धाए खेत्तवेयणा अणुक्कस्सा होदि । उकस्सादो अणकस्सा चउहाणपदिदा॥ २६ ॥ तं जहा-महामच्छेण एगपदेसूणउक्कस्सोगाहणाए सत्तमपुढविं पडि मुक्कमारणंतिएण उक्कस्सहिदीए पबद्धाए असंखेजभागहीणं खेत्तं । एवं मुहपदेसम्मि दो-तिण्णिपदेसप्पहुडि जाव उक्कस्सेण संखजपदरंगुलमेत्तपदेसा झोणा ति। तदो एगागासपदेसूणअट्ठमरणं मारणंतियं मेल्लाविय उक्कस्स हिदि बंधाविय णेयव्वं जाव विकल्परहित असंख्यातगुणी हीन होती है। विशेष इतना है कि सम्यक्त्वकाण्डक और संयमा. संयमकाण्डक कुछ कम होते हैं, ऐसा कहना चाहिए क्योंकि, इसके विना मिथ्यात्वको प्राप्त होना सम्भव नहीं है। शंका-द्रव्यवेदना अनन्तगुणी हीन क्यों नहीं होती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनन्तगुणे हीन योगका अभाव है। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥२७॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ २८ ॥ उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी महामत्स्यके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर कालके साथ क्षेत्र भी उत्कृष्ट है । उत्कृष्ट क्षेत्रको न करके उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर क्षेत्रवेदना अनुत्कृष्ट होती है। वह उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना चार स्थानोंमें पतित है ॥२९॥ वह इस प्रकारसे-एक प्रदेशसे हीन उत्कृष्ट अवगाहनाके साथ सातवीं पृथिवीके प्रति मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले महामत्स्यके द्वारा उस्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर उसका क्षेत्र असंख्यातवें भागसे हीन होता है। इस प्रकार मुखस्थानमें दो तीन प्रदेशोंसे लेकर उत्कृष्टरूपसे संख्यात प्रतरांगुल प्रदेशों के हीन होने तक [ उसका क्षेत्र असंख्यातवें भागसे होन रहता है, तत्पश्चात् एक आकाश प्रदेशसे हीन साढ़े सात राजु मात्र मारणान्तिक समुद्घातको कराकर व १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्रा-काप्रतिषु 'उक्कस्स-', ताप्रतौ 'उक्कस्स-' इति पाठः । २ अ-श्रा-का-ताप्रतिषु सामिणो' इति पाठः । ३ अ-श्राप्रत्योः 'हीणक्खेत्तं', काप्रती 'होणखेत्तं' इति पाठः । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ३०. उक्कस्सखेत्तमुक्करससंखेन्जेण खंडिय तत्थ एगखंडेण परिहीण उक्कस्सक्खेत्तं द्विदं ति । तत्तो प्पहुडि हेट्ठा संखेजभागहाणीए गच्छदि जाव उक्कस्सखेत्तस्स दोस्वभागहारो जादो त्ति । तदो पहुडि हेट्ठा संखेजगुणहाणी होदण गच्छदि जाव उकस्सखेत्तं जहण्णपरित्तासंखेजेण खंडेदूण एकखंडं द्विदं ति । तदो पहुडि असंखेजगुणहीणं होदूण गच्छदि जाव सत्थाणमहामच्छउक्कस्सओगाहणा त्ति । पुणो वि महामच्छोगाहणमेगेगपदेसेहि ऊणं करिय असंखेजगुणहाणीए णेदव्वं जाव सित्थमच्छस्स सव्वजहण्णसत्थाणोगाहणो' त्ति। पुणो सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा-सित्थमच्छेण सव्वजहण्णोगाहणाए वट्टमाणेण णाणावरणुक्कस्सहिदीए पवद्धाए कालवेयणा उक्कस्सा जादा । खेत्तवेयणा पुण णिव्वियप्पअसंखेजगुणहीणत्तमुवगया। तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥३०॥ सुगम । उक्कस्सा वा अणकस्सा वा ॥ ३१ ॥ जदिउक्कस्सट्ठिदीए सह उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सविसेसपञ्चएण उक्कस्साणुभागो पबद्धो तो कालवेयणाए सह भावो वि उक्कस्सो होदि । उक्कस्सविसेसपच्चयाभावे अणुक्कस्सो चेव । उक्कस्सादो अणुकस्सा छहाणपदिदा ॥ ३२ ॥ उत्कृष्ट स्थिति को बँधाकर उत्कृष्ट क्षेत्रको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें एक खण्डसे हीन उत्कृष्ट क्षेत्रके स्थित होने तक ले जाना चाहिये। वहाँसे लेकर नीचे उत्कृष्ट क्षे अङ्क भागहार होने तक संख्यातभागहानिसे जाता है। फिर वहांसे लेकर नीचे उत्कृष्ट क्षेत्रको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित कर उसमें एक खण्डके स्थित होने तक संख्यातगुणहानि होकर जाती है। फिर वहाँ से लेकर महामत्स्यकी उत्कृष्ट स्वस्थान अवगाहना तक असंख्यातगुणा हीन होकर जाता है । फिर भी महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहनाको एक एक प्रदेशोंसे हीन करके सिक्थ मस्यकी सर्वजघन्य स्वस्थान अवगाहना तक असंख्यात गुणहानिसे ले जाना चाहिये। अब सर्वपश्चिम विकल्पको कहते हैं। यथा-सर्वजघन्य अवगाहनामें विद्यमान सिक्थ मत्स्यके द्वारा ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके बाँधे जानेपर कालवेदना उत्कृष्ट हो जाती है। परन्तु क्षेत्रवेदना विकल्प रहित असंख्यातगुणी हीनताको प्राप्त है। उसके उक्त वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ३० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ३१ ॥ यदि उत्कृष्ट स्थितिके साथ उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययरूप उत्कष्ट संक्लेशके द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग बांधा गया है तो कालवेदनाके साथ भाव भी उत्कृष्ट होता है और उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययके अभावमें भाव अनुकृष्ट ही होता है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट छह स्थानों में पतित है ॥ ३२ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु ‘सत्थाणोगाहणो' इति पाठः । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ३५.] वेयणसपिणयासविहाणाणियोगद्दारं [ ३६१ एत्थ जहा उक्कस्सदव्वे णिरुद्ध भावस्स छट्ठाणपदिदत्तं परूविदं तहा एत्थ वि . परूवेदव्यं, विसेसाभावादो। जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उकस्सा तस्स दव्वदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ ३३ ॥ सुगममेदं । उकस्सा वा अणकस्सा वा ॥ ३४॥ दुचरिम-तिचरिमसमयप्पहुडि हेट्ठा जाव अंतोमुहुत्तं ताव पुव्वमेव जदि उक्कस्सागुभागं बंधिद्ण णेरइयचरिमसमए दव्वमुक्कस्सं कदं तो भावेण सह दव्वं पि उक्कस्सं होदि । अध' भावे उक्कस्से जादे वि जदि दव्वमुक्कस्सभावं ण वणउदि' तो दव्ववैयणा अणुक्कस्सा होदि त्ति गेण्हिदव्वं । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा पंचट्ठाणपदिदा॥ ३५ ॥ काणि पंच हाणाणि ? अणंतभागहीण--असंखेजभोगहीण-संखेज्जभागहीण-संखेजगुणहीण-असंखेजगुणहीणाणि त्ति पंचट्ठाणाणि । एदेसिं पंचट्ठाणाणं जहा उक्कस्सकाले णिरुद्ध दव्वस्स पंचविहा हाणपरूवणा कदा तधा एत्थ वि कायव्वा, अविसेसादो।। यहाँ जिस प्रकारसे उत्कृष्ट द्रव्यकी विवक्षामें भावके छह स्थानों में पतित होनेकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहाँ भी उसकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ३३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ३४ ॥ द्विचरम और त्रिचरम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक यदि पूर्व में ही सत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर नारक भवके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट कर चुका है तो भावके साथ द्रव्य भी उत्कृष्ट होता है। और यदि भावके उत्कृष्ट होनेपर भी द्रव्य उत्कृष्टताको प्राप्त नहीं होता है तो द्रव्यवेदना अनुत्कृष्ट ही होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट पाँच स्थानों में पतित है ॥ ३५॥ वे पाँच स्थान कौनसे हैं ? अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन ये वे पाँच स्थान हैं। उत्कृष्ट कालकी विवक्षामें जिस प्रकार इन पाँच स्थानोंसे सम्बन्धित द्रव्यकी पाँच प्रकार स्थानप्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहाँ भी करनी • चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अत्थ', ताप्रती 'अत्थ ( 2 )' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'ण अणमदि', आप्रतौ ‘ण वणवदि', ताप्रतौ ‘णवणमदि' इति पाठः । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] [४, २, १३, ३६. छक्खंडागमे वेयणाखंड तस्स खेत्तदो किमुक्कस्ता अणुकस्सा ॥३६॥ सुगमं । उकस्सा वा अणुकस्सा वा ॥३७॥ जदि उक्कस्साणुभागं पंधिय महामच्छेणुक्कस्सखेत्तं कदं तो भावेण सह खेतं पि उक्कस्सं होदि । अधवा, उक्कस्समणुभागं बंधिय जदि खेत्तमुक्कस्सं ण करेदि तो उक्कस्सभावे णिरुद्धे खेत्तमणुक्कस्सं होदि त्ति घेत्तव्वं । उक्कस्सादो अणकस्सा चउहाणपदिदा ॥३८॥ काणि चत्तारि हाणाणि ? असंखेजभागहाणि--संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि ति चत्तारि हाणाणि । एदेसिं चदुण्णं द्वाणाणं जधा उक्कस्सकाले णिरुद्ध परूवणा कदा तधा परूवणा कायव्वा । णवरि चरिमवियप्पे भण्णमाणे सव्वजहण्णोगाहणएइंदिएसु' उक्कस्साणुभागसंतकम्मिएसु चरिमा असंखेज्जगुणहाणी घेत्तव्वा । एईदिएसु कधमुक्कम्समावोवलद्धी ? ण एस दोसो, सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु उक्कस्ताणुभागं बंधिय तम्घादेण विणा एइंदियभावमुवगएसु जहण्णखेत्तेण सह उक्कस्सभावोवलंभादो। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥३६॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ।। ३७ ॥ यदि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर महामत्स्यके द्वारा उ कृष्ट क्षेत्र किया गया है तो भावके साथ क्षेत्र भी उत्कृष्ट होता है । अथवा, यदि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर क्षेत्रको उत्कृष्ट नहीं करता है तो उत्कृष्ट भावके विवक्षित होने पर क्षेत्र अनुत्कृष्ट होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट चार स्थानोंमें पतित है ॥ ३८ ॥ वे चार स्थान ये हैं-असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि । उत्कृष्ट कालकी विवक्षामें जिस प्रकार इन चार स्थानोंकी प्ररूपणा की जा चुकी है, उसी प्रकार यहाँ भी प्ररूपणा करनी चाहिये । विशेष इतना है कि अन्तिम विकल्पका कथन करते समय उकृष्ट अनुभागके सत्त्वसे संयुक्त सर्व जघन्य अवगाहनकाले एकेन्द्रिय जीवों में अन्तिम असंख्यातगुणहानिको ग्रहण करना चाहिये। शंका-एकेन्द्रियों में उत्कष्ट भावका पाया जाना कैसे सम्भव है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर उसके घातके बिना एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त होते हैं उनके जघन्य क्षेत्रके साथ उत्कृष्ट भाव पाया जाता है। १ ताप्रतौ 'जहण्णोगाहणा एइंदियेसु' इति पाठः। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ daणसणियासविहाणाणियो गद्दारं तस्स कालो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ३६ ॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ॥ ४० ॥ जदि उक्साणुभागसँतेण सह उक्कस्सा हिदी पत्रद्धा तो भावेण सह कालो वि उक्कस्सो होदि । अध उक्कस्साणुभागे संते वि उक्कस्सियं द्विदिं ण बंधदि तो उक्तभावे णिरुद्धे कालो अणुक्कस्सो होदि । उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छरण उक्कस्सियं चैव द्विदिं बंधदि, उक्कस्ससंकिले सेण विणा उक्कस्साणुभागबंधाभावादो । एवं संते कथमुक्कस्साणुभागे णिरुद्धे अणुक्कस्सट्ठिदीए संभवो त्ति ? ण एस दोसो, उक्करसाणुभागेण सह उक्कस्सट्ठिदिं बंधिय पडिभग्गस्स अघट्ठिदिगलणाए उक्कस्सहिदीद समऊणादिवियप्पुवलंभादो । ण च अणुभागस्स अधट्ठिदिगलणाए घादो अत्थि, सरिसधणियपरमाणूणं तत्थुवलंभादो । ण च उक्कस्साणुभागबंधस्स बद्धविदियसमए चेव घादो अस्थि, पडिभग्गपढमसमय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालो ण गदो ताव अणु-भागखंडयघादाभावादो । ४, २, १३, ४१. ] कस्सादो अणुकस्सा तिद्वाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा ॥ ४१ ॥ [ ३६३ उसके कालकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ||३६|| यह सूत्र सुगम है । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ४० ॥ यदि उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व के साथ उत्कृष्ट स्थिति बाँधी गई है तो भावके साथ काल भी उत्कृष्ट होता है । परन्तु यदि उत्कृष्ट अनुभाग के होनेपर भी उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बाँधता है तो उत्कृष्ट भाव विवक्षित होनेपर काल अनुत्कृष्ट होता है । शंका- चूंकि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव निश्चयसे उत्कृष्ट स्थितिको ही बाँधता है, क्योंकि, उत्कृष्ट संक्लेशके बिना उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता; अतएव ऐसी स्थिति में उत्कृष्ट अनुभागकी विवक्षा में अनुत्कृष्ट स्थितिकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागके साथ उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न हुए जीवके अधःस्थितिके गलनेसे उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय हीन आदि स्थिति विकल्प पाये जाते हैं । और अधः स्थितिके गलनेसे अनुभागका घात कुछ होता नहीं है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणु वहाँ पाये जाते हैं । यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट अनुभागबन्धका बन्ध होनेके द्वितीय समय में ही घात हो जाता है, तो यह भी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहुर्त काल नहीं बीत जाता है तब तक अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यात भागहीन, संख्यातभागहीन और संख्यातगुणहीन इन तीन स्थानों में पतित है ॥ ४१ ॥ छ. १२-५० Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ४१. उक्कस्साणुभागेण सह उक्कस्सटिदिं बंधिय पडिभग्गपढमसमए वट्टमाणस्स भावे उक्कस्से संते कालो असंखेज्जभागहीणो होदि, अधहिदीए गलिदेगसमयत्तादो । पडिभग्गविदियसमए वि असंखेज्जभागहाणी चेव होदि, अघहिदीए गलिददुसमयत्तादो। एवं ताव द्विदीए असंखज्जभागहाणी होदि जाव द्विदिखंडयपढमसमओ त्ति । पुणो हिदिखंडयउक्कीरणद्धाए पढमसमए गलिदे वि असंखेज्जमागहाणी चेव । उक्की. रणद्धाए विदियसमए गलिदे वि असंखज्जभागहाणी चेव । एवं ताव असंखेज्जमागहाणी होदि जाव द्विदिखंडयउक्कीरणद्धाए दुचरिमसमओ गलिदो त्ति । अणुभागो पुण उक्कस्सो चेव, तस्स धादोभावादो। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ छिदिघादे हंमते अणुभागा आऊआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा' वि हु आउववजाण हिदिघादो ॥ १॥ अणुभागे हंमते हिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ठिदिघादेण विणा विहु आउववजाणमणुभागो ॥२॥) एवं गंतूण पढमडिदिखंडयचरिमफालीए उकीरणद्धाएं चरिमसमएण सह पदिदाए वि असंखेज्जभागहाणी चेव होदि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तसन्चजहण्णहिदिखंडयपमाणेण धादिदत्तादो । संपहि एदेणेव उक्कीरणकालेण पुविलाडिदिखंडयादो समउत्तरहिदिखंडए पादिदे उत्कृष्ट अनुभागके साथ उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभन्न होनेके प्रथम समयमें वर्तमान जीवके भावके उत्कृष्ट होनेपर काल असंख्यातवें भागसे हीन होता है, क्योंकि, अधःस्थितिके द्वारा एक समय गल चुका है। प्रतिभन्न होनेके द्वितीय समयमें भी असंख्यातभागहानि ही होती है, क्योंकि, अधःस्थितिमें दो समय गल चुके हैं। इस प्रकारसे स्थितिकाण्डकके प्रथम समयके प्राप्त होने तक स्थितिमें असंख्यातभागहानि होती है। तत्पश्चात् स्थितिकाण्डक उत्कीरणकालके प्रथम समयके गलनेपर भी असंख्तभागहानि ही होती है। उत्कीरणकालके द्वितीय समयके गलनेपर भी असंख्यातभागहानि ही होती है। इस प्रकारसे तब तक असंख्यातभागहानि होती है जब तक स्थितिकाण्डक-उत्कीरणकालका द्विचरम समय गलता है। परन्तु अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है. क्योंकि, उसके घातकी सम्भावना नहीं है। यहाँ उपयुक्त गाथायें स्थितिघातके होनेपर सब आयुओंके अनुभागोंका नाश होता है। आयुको छोड़कर शेष काँका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥१॥ __ अनुभागका घात होनेपर सब आयुओंका स्थितिघात होता है। स्थितिघातके बिना भी आयुको छोड़कर शेष कमों के अनुभागका घात होता है ॥२॥ इस प्रकार जाकर प्रथम स्थितिकाण्डक सम्बन्धी अन्तिम फालीके उत्कीर्णकाल सम्बन्धी अन्तिम समयके साथ पतित होनेपर भी असंख्यातभागहानि हो होती है, क्योंकि, सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका घात हुआ है ! अब इसी उत्कीरणकालसे पहिले स्थितिकाण्डककी अपेक्षा एक समय अधिक स्थितिकाण्डकका १ ताप्रतौ 'विण' इति पाठः । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ४२.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [३६५ अण्णो असंखेज्जभागहाणिवियप्पो होदि । दुसमउत्तरद्विदिखंडए घादिदे अण्णो असंखेज्जभागहाणिवियप्पो होदि । एवं पेयव्वं जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्सहिदि खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तो हिदिखंडओ पदिदो त्ति । तो वि असंखेज्जभागहाणी चेव । एवं गंतूण उक्कस्ससंखेज्जेण उक्कस्सहिदि खंडिय तत्थ एगखंडमेत्ते द्विदिखंडए ताए चेव' उक्कीरणद्धाए धादिदे संखज्जभागहाणी होदि । अणुभागो पुणो उक्कस्सो चेव, तस्स घादाभावादो । एत्तो प्पहुडि समउत्तरकमेण द्विदिखंडओ वड्डाविय घादेदव्यो जाव संखेज्जभागहाणीए चरिमवियप्पो त्ति । पुणो तेणेव उक्कीरणकालेण उक्कस्सहिदीए अद्धे घादिदे संखज्जगुणहाणीए आदी होदि, दुगुणहीणत्तादो । तत्तो प्पहुडि समउत्तरादिकमेण हिदिखंडे घादिज्जमाणे संखेज्जगुणहाणी चेव होदि । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्साणुभागाविरोधिअंतोकोडाकोडि त्ति । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ ४२ ॥ जहा णाणावरणीयस्स दव्व खेत्त-काल-भावेसु एगणिरुंभणं कादूण सेसपरूवणा' कदा तहा एदेसि पि तिण्हं धादिकम्माणं परूवणा कायव्वा, दव्व-खेत्त-काल-भावसामितेण विसेसाभावादो। घात होनेपर असंख्यातभागहनिका अन्य विकल्प होता है। दो समय अधिक स्थितिकाण्डकका . घात होनेपर असंख्यातभागहानिका अन्य विकल्प होता है। इस प्रकार जघन्य परीतासंख्यातसे उत्कृष्ट स्थितिको खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र स्थितिकाण्डकके पतित होने तक ले जाना चाहिये । तो भी असंख्यात भागहानि ही रहती है । इस प्रकार जाकर उत्कृष्ट संख्यातसे उत्कृष्ट स्थितिको खण्डितकर उसमें एक खण्ड मात्र स्थितिकाण्डकका उसी उत्कीरण कालके द्वारा घात होनेपर संख्यातभागहानि होती है । परन्तु अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है, क्योंकि, उसका हुआ है । यहाँसे लेकर एक समय अधिकके क्रमसे स्थितिकाण्डकको बढ़ाकर संख्यातभागहानिके मन्तिम विकल्प के प्राप्त होने तक उसका घात करना चाहिये । फिर उसी उत्कीरणकालसे उत्कृष्ट स्थितिके अर्धभागका घात होनेपर संख्यागुणहानि प्रारम्भ होती है, क्योंकि, उक्त स्थितिमें दुगुणी हानि हो चुकती है। उससे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे स्थितिकाण्डकका घात होनेपर संख्यात-गुणहानि ही होती है। इस प्रकारसे उत्कष्ट अनुभागके अविरोधी अन्तःकोड़ाकोड़ि तक जाना चाहिये। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके विषयमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ४२ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमेंसे किसी एकको विवक्षित करके शेषोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन घासिया कर्मोकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके स्वामित्वसे उसमें कोई विशेषता नहीं है। १ अापतौ ' मेते डिदिखग्मेत्ताए चेव' इति पाठः । २ अ-बा-काप्रतिषु 'परूवणं' इति पाठः। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ४३. जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सा तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥४३॥ सुगम । णियमा अणुकस्सा असंखेजगुणहीणा ॥४४॥ कुदो ? सत्तम पुढविणेरइयस्स पंचधणुसदुस्सेहस्स उक्कस्सदव्वस्स मा विणासो होहदि ति उक्कस्स जोगविरोहिमारणंतियमणुवगयस्स' उक्कस्सोगाहणाए संखेज्जघणंगुलपमाणाए लोगपूरणउक्कस्सखेत्तादो असंखज्जगुणहीणत्तुवलंभादो। तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ ४५ ॥ .. सुगम । उकस्सा वा अणकस्सा वा ॥ ४६॥ णेरइयचरिमसमए वट्टमाणेण गुणिदकम्मंसिएण कयउक्कस्सदव्वसंचएण जदि उक्कस्सहिदी पबद्धा तो दव्वेण सह कालो वि उक्कस्सो होदि । अध तत्थ जदि उक्कस्सट्ठिदि ण बंधदि तो अणुक्कस्सा ति घेत्तव्यं । उकस्सादो अणुकस्सा समऊणा ॥४७॥ जिस जीवके वेदनीय कर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥४४॥ कारण कि पाँच सौ धनुष प्रमाण उत्सेधसे संयुक्त जो सातवीं पृथिवीका नारकी, उत्कृष्ट द्रव्यका विनाश न हो, इसलिये उत्कृष्ट योगके विरोधी मरणान्तिक समुद्घातको नहीं प्राप्त हुआ है। उसकी संख्यात घनांगुल प्रमाण उत्कृष्ट अवगाहना लोकपूरण उत्कृष्ट क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हीन पायी जाती है। उसके कालकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ४५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ४६॥ - जिसने उत्कृष्ट द्रव्यके संचयको किया है ऐसे नारक भवके अन्तिम समयमें वर्तमान गुणितकर्माशिकके द्वारा यदि उत्कृष्ट स्थिति बाँधी गई है तो द्रव्य के साथ काल भी उत्कृष्ट होता है। परन्तु यदि वह उक्त अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बाँधता है तो उसके कालवेदना अनुत्कृष्ट होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ..... वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय कम है॥४७ स १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-पा-काप्रतिषु ‘-मणुसगयस्स', ताप्रतौ -मणु [ स ] गयस्स' इति पाठः । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ५१] . वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं ३९७ कुदो ? णेरड्यदुचरिमसमयम्मि उक्कस्ससंकिलेसाविणाभाविम्हि बद्ध उक्कस्सद्विदीए चरिमसमयम्मि अधट्टिदिगलणेण एगसमयपरिहाणिदंसणादो। तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥४८॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥४६ ॥ सुहमसांपराइयखवगचरिमाणुभागवंधं पेक्खिदूण णेरइयचरिमसमयाणुभागस्स अणंतगुणहीणत्तुवलंभादो । कुदो ? सादावेदणीयस्स सुहस्स संकिलेसेण अणुभागहाणिदंसणादो। जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उकस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥५०॥ सुगमं। णियमा अणुकस्सा चउहाणपदिदा ॥५१॥ उक्कस्सा किण्ण जायदे ? ण, रइयचरिमसमयगुणिदकम्मंसियम्मि उक्कस्सभावेण अवविदवेयणीयदव्ववेयणाए लोगपूरणाए वट्टमाणसजोगिकेवलिम्हि संभवविरोहादो। संपहि दव्वस्स चउट्ठाणपदिदत्तं कधं णव्वदे ? सुत्ताणुसारिवक्खाणादो। तं कारण कि उत्कृष्ट संक्लेशक अविनाभावी नारक भावके द्विचरम समयमें बाँधी गई उत्कृष्ट स्थितिमेंसे चरम समयमें अधःस्थितिके गलनेसे एक समयकी हानि देखी जाती है। उसके भावकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ४८॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमतः अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित होती है ॥ ४ ॥ कारण यह कि सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभागकी अपेक्षा नारक जीवका अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभाग अनन्तगुणा हीना पाया जाता है, क्योंकि, साता वेदनीयके शुभ प्रकृति होनेसे संक्लेशके द्वारा उसके अनुभागमें हानि देखी जाती है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ५० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित होती है ॥ ५१ ॥ शंका-वह उत्कृष्ट क्यों नहीं होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, नारक भवके अन्तिम समयमें वर्तमान गुणितकांशिक जीवमें उत्कृष्ट स्वरूपसे अवस्थित वेदनीय कर्मकी द्रव्य वेदनाके लोकपूरण अवस्थामें रहनेवाले सयोगकेवलीमें होनेका विरोध है। शंका-यह अनुस्कृष्ट द्रव्य वेदना चार स्थानोंमें पतित है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह सूत्रका अनुसरण करनेवाले व्याख्यानसे जाना जाता है। यथा-एक Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, ५२. ३६८ ] जहा - गुणिदकम्मंसियो सचमपुढवीदो आगंतूण पंबिंदियतिरिक्खेसु अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो बादरपुढ विकाइएसु अंतोमुहुत्ताउअं बंधिय तत्थ उपज्जिय पच्छा मणुसेसु वासधत्ताअं बंधि कालं कादूणुप्पज्जिय संजमं घेत्तूण खवगसेडिमारुहिय केवलणाणं उपाय लोगपूरणं गदस्स खेत्तमुक्कस्सं जादं । तस्समए दन्वमसंखेज्जभागहीणं, उक्कसदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ एगखंडेण परिहीणउक्कस्तदव्यधारणादो | एवं संखेज्जभागहीण-संखेज्जगुणहीण असंखेज्जगुणहीणदव्वाणं पि जाणिदूण परूवणा कायव्त्रा । तस्स कालदो किमुकस्सा अणुक्कस्सा ॥ ५२ ॥ सुमं । णियमा अकस्सा असंखेजगुणहीणा ॥ ५३ ॥ कुदो ! लोगपूरणाए वमाणअंतोमुहुत्तमेत्तट्ठिदीए 'तीसंकोडा कोडिसागरोबमेहिंतो असंखेज्जगुणहीणत्तुत्रलंभादो । तस्स भावदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ ५४ ॥ सुगमं । कस्सा भाववेयणा ॥ ५५ ॥ की सातवीं पृथिवीसे आकरके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर बादर पृथिवीकायिक जीवों में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुको बन्धकर उनमें उत्पन्न हुआ । पश्चात् जब वह मनुष्यों में वर्ष पृथक्त्व आयुको बाँधकर मरणको प्राप्त हो उनमें उत्पन्न होकर संयमको ग्रहण करके क्षपकश्रेणिपर चढ़कर केवलज्ञानको उत्पन्न करके लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त होता है तब उसका क्षेत्र उत्कृष्ट होता है । उस समय में द्रव्य असंख्यातवें भागसे हीन होता है, क्योंकि, उत्कृष्ट द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डितकर उसमेंसे वह एक खण्डसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यको धारण करता है । इसी प्रकारसे संख्यात भागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन द्रव्योंकी भी प्ररूपणा जान करके करनी चाहिये । उसके कालकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ५२ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ५३ ॥ कारण कि लोकपूरण अवस्थामें रहनेवाली अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणी होन पायी जाती है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुस्कृष्ट ॥ ५४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उसके भाव वेदना उत्कृष्ट होती है ।। ५५ ।। १-काप्रतिषु 'तीसं' इति पाठः । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {४, २, १३, ५५] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [ ३९९ लोगपूरणगदकेवलिम्हि अणुक्कस्सा किण्ण जायदे ? ण, चरिमसमयसुहुमापरा. इयाणं विसरिसपरिणामाभावादो ।णच विसेसपञ्चयमेदो वि' अस्थि, सम्वेसु एगुक्कस्स. पचयस्सेव संभवुवलंभादो। ण च जोगमेदेण अणुभागस्स णाणत्तं जुज्जदे, जोगवड्डि-हाणीहितो अणुभागवड्डि-हाणीणमभावादो। सुहुमसापराइयचरिमसमए पबद्धउक्कस्साणुभागट्टिदी जेण बारसमुहुत्तमेत्ता तेण बारसहं मुहुत्ताणमन्भंतरे केवलणाणमुप्पाइय सव्वलोगमाऊरिय द्विदाणं भावो उक्कस्सो होदि । बहुएण कालेण कयलोगपूरणाणमुकस्सो ण होदि, बारसेहि मुहुत्तेहि उक्कस्साणुभागपरमाणूणं णिस्सेसक्खयदंसणादो। तम्हा लोगपूरणे भाववेयणा उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा होदि ति वत्तव्यमिदि ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा--लोगपूरणे भाववेयणा उक्कस्सा चेव, अण्णहा सुत्तस्स अप्प. माणत्तप्पसंगादो । ण च सुत्तमप्पमाणं होदि, तब्भावे तस्स सुत्तत्तविरोहादो । उत्तं च अर्थस्य सुचनात्सम्यक्सूतेर्वार्थस्य सूरिणा। सूत्रमुक्तमनल्पार्थ सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥३॥) ण च जुत्तिविरुद्धत्तादो ण सुत्तमेदमिदि वोत्तुं सक्किज्जेंदें, सुत्तविरुद्धाए जुत्तिशंका-लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त हुए केवलीमें वह अनुत्कृष्ट क्यों नहीं होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके विसदृश परिणामों है। इसके अतिरिक्त विशेष प्रत्ययभेद भी यहाँ नहीं है। क्योंकि. उक्त सभी जीवोंमें एक उत्कृष्ट प्रत्ययकी ही सम्भावना पायी जाती है । यदि कहा जाय कि योगके भेदसे अनुभागका भी भेद होना चाहिये, तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि, योगकी वृद्धि व हानिसे अनुभागकी वृद्धि व हानि सम्भव नहीं है। शंका-चूंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें बाँधी गई उत्कृष्ट-अनुभागस्थिति बारह मुहूर्त प्रमाण होती है, अतएव बारह मुहूर्तों के भीतर केवलज्ञानको उत्पन्नकर सब लोकको पूर्ण करके स्थित जीवोंका भाव उत्कृष्ट होता है। परन्तु बहुत कालमें लोकपूरण समुद्घातको करनेवाले जीवोंका भाव उत्कृष्ट नहीं होता है, क्योंकि, बारह मुहूर्तों में उत्कृष्ट अनुभागके परमाणुओंका निःशेष क्षय देखा जाता है। इसीलिये लोकपूरण अवस्थामें भाववेदना उस्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ऐसा कहना चाहिये ? समाधान-यहाँ उक्त शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-लोकपरण अवस्थामें भाववेदना उत्कृष्ट ही होती है, क्योंकि, ऐसा माननेके विना सूत्रके अप्रमाण ठहरनेका प्रसंग आता है। परन्तु सूत्र अप्रमाण होता नहीं है, क्योंकि, अप्रमाण होनेपर उसके सूत्र होनेका विरोध है। कहा भी है भली भाँत अर्थका सूचक होनेसे अथवा अर्थका जनक होनेसे बहुत अर्थका बोधक वाक्य सूत्रकार आचार्य के द्वारा यथार्थमें सूत्र कहा गया है ॥३॥ यदि कहा जाय कि युक्तिविरुद्ध होनेसे यह सूत्र ही नहीं है, तो ऐसा कहना शक्य नहीं है, १ श्रा-का-ताप्रतिषु 'वि' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते । २ श्राप्रतौ 'बारसमुहुत्तेण मेत्तेण बारसण्हं', बारमुहुत्तमेत्ता तेण बारसण्हं इति पाठः । ३ प्रतिषु 'सुत्तरसविरेहादो' इति पाठः । ४ ताप्रती 'सूत्रैर्वार्थस्य इति पाठः। ५ उद्धतमेतज यधवलायाम् ( १, पृ० १७१०)। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४००] • छक्मंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ५५. तामावादो । ण च अप्पमाणेण पमाणं वाहिज्जदे,विरोहादो। कासा पुण एत्थ हिरवज्ज-' सुत्ताणुकूला तंतजुत्ती ? वुच्चदे-वेयणीय उक्कस्साणुभागबंधस्स द्विदी बारसमुहुत्तमेत्ता। तत्थ सादावेदणीयचिराणहिदीए पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्ताए द्विदकम्मपोग्गला उक्कड्डिजति अणुभागेण । कुदो ? 'बंधे उक्कडदि' ति वयणादो । होदु णाम अणुभागस्स उक्कड्डणा, ण द्विदीए । कुदो १ पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्तहिदिदीहत्तणं णस्सिदण बारसमुहुत्तहिदिसरूवेण परिणदत्तादो ति । होदु णाम कैसि पि परमाणूणं द्विदीए ओकड्डणा', अण्णहा तत्थ गुणसेडीए अणुववत्तीदो। किंतु ण सव्वेसि कम्मपरमाणणं ठिदीणं ओकड्डणा, केसि पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तहिदीए अधहिदिगलिदसेसियाए अवठ्ठाणुवलंमादो। ण च अणुभागुक्कड्डणा वि सव्वेसिं कम्मपरमाणूणं होदि, थोवाणं चेव बज्झमाणाणुभागसरूवेण परिणामदंसणादो। तदो पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्तहिदीए द्विदकम्मक्खंधा उक्कस्साणुभागसरूवेण उक्कडिदा बारसमुहुत्ते मोत्तण पुवकोडिकालेण वि ण गलंति त्ति सिद्धं । तेण कारणेण लोगमावूरिदकेवलिम्हि वेयणीयमावो उक्कस्मो चेव, णाणुक्कस्सो। क्योंकि, जो युक्ति सत्रके विरुद्ध हो वह वास्तवमें युक्ति ही सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त अप्रमाणके द्वारा प्रमाणको बाधा भी नहीं पहुँचायी जा सकती है, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। शंका-तो फिर यहाँ सूत्रके अनुकूल वह निर्दोष तंत्रयुक्ति कौनसी है ? समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी स्थिति बारह मुहूर्त मात्र है । उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सातावेदनीयकी चिरकालीन स्थितिमें स्थित कर्मपुद्गल अनुभाग स्वरूपसे उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं, क्योंकि, 'बन्धमें उत्कर्षण होता' है। ऐसा सत्रवचन है। . शंका-अनुभागका उत्कर्षण भले ही हो, किन्तु स्थितिका उत्कर्षण सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिकी दीर्घता नष्ट हो करके बारह मुहूर्त प्रमाण स्थितिके स्वरूपसे परिणत हो जाती है ? __ समाधान-किन्हीं परमाणुओंकी स्थितिका अपकर्षण भले ही हो, क्योंकि, इसके विना उसमें गुणश्रेणिनिर्जरा नहीं बन सकती। किन्तु सभी कर्मपरमाणुओंकी स्थितियोंका अपकर्षण सम्भव नहीं है, क्योंकि, किन्हीं कर्मपरमाणुओंकी अधःस्थितिके गलनेसे शेष रही पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिका अवस्थान पाया जाता है । इसके अतिरिक्त अनुभागका उत्कर्षण भी सभी परमाणुओंका नहीं होता, क्योंकि, थोड़े ही कर्मपरमाणुओंका बाँधे जानेवाले अनुभागके स्वरूपसे परिणमन देखा जाता है। इस कारण पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिमें स्थित कर्मस्कन्ध उत्कृष्ट अनुभाग स्वरूपसे उत्कर्षणको प्राप्त होकर बारह मुहुर्तीको छोड़कर पूर्वकोटि प्रमाण कालमें भी नहीं गलते हैं, यह सिद्ध है। इसीलिये लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त केवलीमें वेदनीयका भाव उत्कृष्ट ही होता है, अनुत्कृष्ट नहीं होता। .. . अ-श्रा- काप्रतिषु 'णिखज-' इति पाठः । २ तापतौ 'उकड्डणा ए (ण) द्विदीए इति पाठः । ३ प्रतिषु 'श्रोकडुणाए' इति पाठः । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ६०.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [४०१ जस्स वेयणीयवेयणा कालदो उकस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥५६॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ ५७॥ जदि णेरइयचरिमसमए गुणिदकम्मंसिए कयउक्कस्सदव्ये वेयणीयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो दीसदि तो कालेण सह दव्वं पि उक्कस्सं होदि अध तत्तो हेट्टा उवरिं वा जदि उक्कस्सट्ठिदी बज्झदि तो उक्कस्सियाए कालवेयणाए उक्कस्सिया दव्ववेयणा ण लब्भदि त्ति अणुक्कस्सा त्ति' भणिदं । उकस्सादो अणुकस्सा पंचट्ठाणपदिदा ॥ ५८ ॥ काणि पंचट्ठाणाणि ? अणंतभागहाणि-असंखेज्जभागहाणि-संखेज्जभागहाणि-संखोज गुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि त्ति पंचट्टाणाणि। एदेसिं ठाणाणं परूवणा जहा णाणावरणीयस्स परूविदा तहा परूवेदव्वा ।। तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ ५६ ॥ सुगम । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा ॥ ६० ॥ जिसके वेदनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥५६॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ५७॥ यदि नारक भवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करनेवाले गुणितकर्माशिकके वेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दिखता है तो कालके साथ द्रव्य भी उत्कृष्ट होता है। परन्तु यदि उत्कृष्ट स्थिति उससे नीचे या ऊपर बंधती है तो उत्कृष्ट कालवेदनाके साथ उत्कृष्ट द्रव्यवेदना नहीं पायी जाती है, अतएव सूत्र में 'अनुरकृष्ट' ऐसा कहा है। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट पांच स्थानोंमें पतित है ॥ ५८ ॥ वे पाँच स्थान कौनसे हैं ? अनन्तभागहानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये वे पाँच स्थान हैं। इन स्थानोंकी प्ररूपणा जैसे ज्ञानावरणीयके विषयमें की गई है वैसे ही यहाँ भी प्ररूपणा करनी चाहिये। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ।। ५९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगणी हीन होती है ॥ ६०॥ १ ताप्रतौ 'लब्भदि त्ति भणिद' इति पाठः । छ. १२-५१ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ६१. कुदो ? अट्ठमरज्जूणमुक्कमारणंतिएण महामच्छेण उक्कस्सहिदीए' पबद्धाए संतीए तक्खेत्तस्स वि लोगपूरणगदकेवलिखेत्तादो असंखेज्जगुणहीणत्तुवलंभादो। तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६१ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा ॥ ६२॥ कुदो ? उक्कस्सहिदीए सह असादावेदणीयउक्कस्साणुभागे बद्ध वि तस्स अणुभागस्स सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमए पबद्धवाणुभागादो अणंतगुणहीणत्तुवलंभादो । एदं कुदो उपलब्भदे ? चउसद्विवदियअप्पाबहुगादो। जस्स वेयणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥६३ ॥ सुगमं। णियमा अणक्कस्सा चउहाणपदिदा॥६४॥ कुदो ? णेरइयचरिमसमए जादवेयणीयउक्कस्सदव्वस्स सुहुमसांपराइयचरिमसमए उक्कस्समावेण सह वृत्तिविरोहादो। तम्हा णियमा अणुक्कस्सत्तं सिद्धं । णियमा अणु कारण कि साढ़ेसात राजु प्रमाण मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले महामत्स्यके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बाँधनेपर उसका क्षेत्र भी लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवलीके क्षेत्रसे असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है। उसके भावकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥६१॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगणी हीन होती है ॥ ६२॥ कारण यह कि उत्कृष्ट स्थितिके साथ असाता वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेपर भी उसका अनुभाग सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें बाँधे गये अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन पाया जाता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। जिसके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ ६४॥ ___कारण कि नारक भवके अन्तिम समयमें उत्पन्न वेदनीयके उत्कृष्ट द्रव्यका सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट भावके साथ रहना विरुद्ध है। इस कारण वह नियमसे अनुत्कृष्ट होती है, यह सिद्ध है। नियमस्ते अनुत्कृष्ट भी होकर वह चार स्थानोंमें पतित है। यथा--एक १ अ-श्रा-काप्रतिषु -छिदीए' इति पाठः । बका नियमसपअनुकरे Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ६७.1 वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४०३ किस्सा वि होदूण चउहाणपदिदा । तं जहा–एगो गुणिदकम्मंसियो हेरइयचरिमसमए उक्कस्सं दव्वं काऊण णिग्गंतूण पंचिंदियतिरिक्खेसु उप्पन्जिय दो तिण्णिमवग्गहणाणि एइंदिएसु गमिय पुणो पच्छा मणुस्सेसुप्पज्जिय गमादिअट्ठवस्सियो संजमं पडिवण्णो । पुणो सव्वलहुएण कालेण खवगसे डिमारुहिय चरिमसमयसुहमसांपराइयो होदूण उक्क. स्साणुभागो पबद्धो, तस्स दबवेयणा असंखेज्जभागहीणा, गुणसेडिणिज्जराए गलिदासंखेज्जसमयपबद्धत्तादो। एत्तो प्पहुडि एगेगपरमाणुहाणिकमेण असंखेज्जभागहाणिसंखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीयो जाणिदण दव्वस्स परूवेदव्याओ जाव खविदकम्मंसियसव्वजहण्णदव्वं' हिदं ति ।। तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥६५॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ॥६६॥ जदि लोगपूरणे सजोगिकेवली वट्टदि तो भावेण सह खेत्तं पि उक्करसं होदि । अध ण वट्टदि भावो चेव उक्कस्सो, ण खेतं; लोगपूरणं मोत्तूण तस्स अण्णत्थ उक्कस्सत्ताभावादो। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ।। ६७॥ गुणितकौशिक जीव नारक भवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट द्रव्यको करके वहाँ से निकलकर पंचेन्द्रिय तिथंचोंमें उत्पन्न हो एकेन्द्रिय जीवोंमें दो तीन भवग्रहणोंको विताकर फिर पीछे मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्षका हो संयमको प्राप्त हुआ। पश्चात् सर्वलघु कालमें आपक श्रेणिपर चढ़कर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धको प्राप्त हुआ। उसके द्रव्यवेदना असंख्यातभागहीन होती है, क्योंकि, उसके गुणश्रेणिनिर्जरा द्वारा असंख्यात समयप्रबद्ध गल चुके हैं। यहाँ से लेकर एक एक परमाणुकी हानिके क्रमसे क्षपितकर्माशिकके सर्वजघन्य द्रव्यके स्थित होने तक द्रव्यके विषयमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिकी जानकर प्ररूपणा करनी चाहिये। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनत्कृष्ट भी ।। ६६ ॥ यदि सयोगकेवली लोकपूरण समुद्धातमें प्रवर्तमान हैं लो भावके साथ क्षेत्र भी उस्कृष्ट होता है। और यदि उसमें प्रवर्तमान नहीं हैं तो भाव ही उत्कृष्ट होता है, क्षेत्र उत्कृष्ट नहीं होता, क्योंकि, लोकपूरण समुद्घातको छोड़कर अन्यत्र उसकी उत्कृष्टताका अभाव है। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यातभागहीन और असंख्यातगणहीन इन दो स्थानों में पतित है ॥ ६७ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सव्वलहुएण दव्वं' इति पाठः। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,०२, १३, ६८. उक्कस्समावेण सह मंथे वट्टमाणस्स खेत्तं लोगपूरणखेत्तादो असंखेज्जमागहीणं, वादवलयावरुद्धखेतमेत्तेण परिहीणत्तादो। सत्थाण-दंड-कवाडगदकेवलिखेत्ताणि उक्कसाणुभागसहचडिदाणि पुण असंखेज्जगणहीणाणि, एदेहि तीहि वि खेत्तेहि पुध पुध घणलोगे भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलंभादो। तेण दुट्टाणपदिदा चेव अणुक्कस्सवेयणा त्ति सिद्ध। तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६८॥ सुगम । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणा ॥ ६६ ॥ जत्थ वेयणीयभाववेयणा उक्कस्सा तत्थ तस्स कालवेयणा अणुक्कस्सा चेव, सुहुमसांपराइयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेतद्विदीए अंतोमुहुत्तमेत्ताए वा उवलंभादो । होता वि असंखेज्जगुणहीणा चेव, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण तीसंकोडाकोडिसागरोवमेसु ओवट्टिदेसु असंखेज्जरूवोवलंभादो। एवं णामा-गोदाणं ॥ ७० ॥ जहा वेयणीयस्स उक्कस्ससण्णियासो कदो तहा णामा-गोदाणं पि कायन्वो, उत्कृष्ट भावके साथ मंथ समुद्घातमें वर्तमान केवलीका क्षेत्र लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान केवलीके क्षेत्रसे असंख्यातभागहीन होता है, क्योंकि, वह वातवलयसे रोके गये क्षेत्रके प्रमाणसे हीन है। उत्कृष्ट अनुभागके साथ आये हुए स्वस्थान, दण्डसमुद्घात और कपाटसमुद्घातको प्राप्त केवलीके क्षेत्र उससे असंख्यातगुणे हीन होते हैं, क्योंकि, इन तीनों ही क्षेत्रोंका पृथक , लोकमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। इस कारण अनुत्कृष्ट वेदना दो स्थानोंमें पतित है, यह सिद्ध है। उसके कालकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६८॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृप्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ६६ ॥ जहाँ वेदनीयकी भाववेदना उत्कृष्ट होती है, वहाँ उसकी कालवेदना अनुत्कृष्ट ही होती है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानसे लेकर आगे सब जगह पल्योपमके असंख्यात भाग मात्र स्थिति अथवा अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति पायी जाती है। उतनी मात्र होकर भी वह असंख्यातगुणी हीन ही होती है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागका तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्मोके विषयमें भी उक्त प्ररूपणा करनी चाहिये ॥७॥ जिस प्रकार वेदनीय कर्मके विषयमें उत्कृष्ट संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकार नाम और १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'उक्करसम्भावेण' इति पाठ । २ श्रा-काप्रत्योः ‘मववट्टमाणस्स', ताप्रती 'मंथे (मच्छे) वट्टमाणस्स' इति पाठः। ३ अप्रती 'संखेजगुणा' इति पाठः। ४ अ-श्राप्रत्यो 'अंतोमुहत्तमेत्ताणं उवलंभादो' काप्रतौ 'अंतोमुहत्तमेत्ताणि उवलंभादो' इति पाठः । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ७४.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४०५ दव्व-खेत्त-काल-भावुक्कस्ससामित्तएहि विसेसामावादो । जस्स आउअवेयणा दव्वदो उक्कसा तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ७१ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा ॥ ७२ ॥ कुदो णियमेण खेत्तस्स अणुक्कस्सत्तं ? लोगपूरणगदसजोगिकेवलिम्हि जादुक्कस्सखेत्तस्स उक्कस्सदव्यसामिजलचरम्मि अणुवलंभादो। असंखेज्जगुणहीणतं कत्तो णचदे ? उक्कस्सदवसामिजलचरखेत्तेण संखेज्जघणंगुलमत्तेण घणंगलस्स संखेज्जदिभागमेत्तण वा घणलोगे भागे हिदे असंखेज्जाबोवलंभादो। तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥७३॥ सुगम। णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा ॥ ७४ ॥ जलचरेसु उक्कस्सदव्वसामिएसु उक्कस्सहिदिबंधो किण्ण जायदे ? ण, आउअस्स पुव्वकोडितिभागमावाहं काऊण तेत्तीससागरोवमेसु बज्झमाणेसु चेव उक्कस्स. गोत्र कर्मों के विषयमें भी करना चाहिये, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्वामित्त्वसे उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके आयु कर्मको वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट होती है उसके वह क्या क्षेत्रसे उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७२ ॥ शंका-क्षेत्रकी नियमित अनुत्कृष्टता कैसे सम्भव है ? समाधान-इसका कारण यह है कि लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त सयोगकेवलीके जो उत्कृष्ट क्षेत्र होता है वह उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामी जलचर जीवमें नहीं पाया जाता। शंका-उसकी असंख्यातगुणहीनता किस प्रमाण से जानी जाती है ? समाधान-उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामी जलचर जीवका जो संख्यात घनांगुल प्रमाण अथवा घनांगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र होता है उसका घनलोकमें भाग देनेपर चूंकि असंख्यात रूप पाये जाते हैं, अतः इससे उसकी असंख्यातगुणी हीनता सिद्ध है।। उसके उक्त वेदना कालकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ७३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७४ ॥ शंका-जो जलचर जीव उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामी हैं उनमें उत्कृष्ट द्रव्यका बन्ध क्यों नहीं होता? समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण आयुकी आबाधाको करके तेतीस Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ७५. द्विदित्तवलंभादो। ण च तेत्तीससागरोवमाणमेत्थ बंधो संभवदि, अइसंकिलेसेण भुंजमाणाउअकम्मक्खंधाणं बहूणं गलणप्पसंगादो। तम्हा जलचरेसु उक्कस्सदव्वसामिएसु आउवबंधो अणुक्कस्तो चेव । होतो वि पुवकोडिमेत्तो चेव, हेडिमआउअवियप्पेसु चज्झमाणेसु आउअबंधगद्धाए थोवत्तप्पसंगादो । असंखेज्जगणहीणतं कत्तो णबदे ? सादिरेयपुरकोडीए तेत्तीससागरोवमेसु पुन्चकोडितिभागाहिएसु ओवट्टिदेसु असंखेज्जरूवोवलंभादो। तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ७५ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा ॥ ७६ ॥ किमहमुक्कस्सा भाववेयणा एत्थ ण होदि ? ण, अप्पमत्तसंजदेण बद्धदेवाउअम्मि जादुक्कस्साणुभागस्स तिरिक्खाउअम्मि वृत्तिविरोहादो। जलचराउअभावस्स उक्कस्सभावादो' अणंतगुणत्तं कत्तो णव्वदे ? तिरिक्खाउअअणुमागादो देवाउअअणुभागो अणंतगुणो त्ति भणिदचउसद्विवदियअप्पाबहुगादो णबदे। सागरोपम प्रमाण आयुको बाँधनेवाले जीवोंमें ही उत्कृष्ट स्थिति बन्ध पाया जाता है। परन्तु यहाँ तेतीस सागरोपमोंका बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर अत्यन्त संक्तशसे भुज्यमान आयु कर्मके बहुतसे स्कन्धोंके गलनेका प्रसंग आता है । इस कारण उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामी जलचर जीवोंमें आयुका बन्ध अनुत्कृष्ट ही होता है। अनुस्कृष्ट होकर भी वह पूर्वकोटि मात्र ही होता है, क्योंकि, नीचेके श्रायुविकल्पोंके चाँधनेपर आयुबन्धक कालके स्तोक होनेका प्रसंग आता है। शंका-उसकी असंख्यातगुणी हीनता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? . समाधान-साधिक पूर्वकोटिका पूर्वकोटित्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपमोंमें भाग देनेपर चूंकि असंख्यात रूप पाये जाते हैं, अतः इसीसे उसकी असंख्यातगुणहीनता सिद्ध है। उसके उक्त वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनत्कृष्ट ॥७५॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७६ ॥ शंका-यहाँ उत्कृष्ट भाववेदना क्यों नहीं होती है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अप्रमत्तसंयतके द्वारा बाँधी गई देवायुमें उत्पन्न उत्कृष्ट अनुभागके तियेच आयुमें रहनेका विरोध है। शंका-उत्कृष्ट भावकी अपेक्षा जलचर सम्बन्धी आयुका भाव अनन्तगुणा हीन है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। समाधान-यह “तिथंच आयुके अनुभागसे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा है" इस चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। . १ ताप्रतौ 'उक्कस्सदव्वादो' इति पाठ : Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ७८.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४०७ जस्स आउअवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥७७॥ सुगम । णियमा अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ॥ ७८ ॥ दबवेयणा उक्कस्सा किण्ण जायदे ? ण, दोहि आउअबंधगद्धाहि उक्कस्सजोगविसिट्ठाहि जलचरेसु संचिदुक्कस्सदव्वस्स केवलिम्हि तिहुवणं पसरिय द्विदम्मि संभवविरोहादो। कधं संखेज्जगणहीणतं ? ण, उक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए मणुसाउअंबंधिय मणुसेसु उप्पन्जिय गब्भादिअहवस्सेहि संजमं घेत्तूण सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण कालेण केवलणाणमुप्पाइय लोगमावूरिय द्विदम्मि जं दव्वं तस्स संखेन्जगुणहीणत्त्वलंभादो। दोहि बंधगद्धाहि संचिदुक्कस्सदव्वादो एदमेगबंधगद्धासंचिददव्वं किचूणद्धमेत्तं होदण मणुस्सेसु गलिदबहुसंखेज्जदिभागत्तादो संखेज्जगुणहीणं होदि ति भणिदं होदि। जहण्णबंधगद्धाए बद्धे वि उक्कस्सदव्वादो तिहुवणगयजिणोउवदव्वं' संखेज्ज जिस जीवके आयुकी वेदना क्षेत्रको अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ७७ ॥ • यह सूत्र सुगम है। _ वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन व असंख्यातगुणहीन इन दो स्थानोंमें पतित होती है ॥ ७८ ॥ शंका-द्रव्यवेदना उत्कृष्ट क्यों नहीं होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट योगसे विशेषताको प्राप्त हुए दो आयुबन्धक कालोंके द्वारा जो उत्कृष्ट द्रव्य जलचर जीवोंमें संचयको प्राप्त है उसकी तीन लोकोंमें फैलकर स्थित हुए केवलीमें सम्भावना नहीं है। शंका-वह संख्यातगुणा हीन कैरने है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट योगके द्वारा उत्कृष्ट बन्धककालमें मनुष्यायुको बाँधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो गर्भसे लेकर आठ वर्षों में संयमको ग्रहणकर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त कालमें केवलज्ञानको उत्पन्नकर लोकको पूर्ण करके स्थित हुए केवलीमें जो द्रव्य होता है वह संख्यातगुणा हीन पाया जाता है। दो बन्धककालों द्वारा संचयको प्राप्त हुए उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा यह एक बन्धककाल द्वारा संचित द्रव्य कुछ कम अर्ध भाग प्रमाण होकर मनुष्योंमें संख्यात बहुभागके गल जानेसे संख्यातगुणा हीन होता है, यह उसका अभिप्राय है। _ शंका-जघन्य बन्धक कालके द्वारा बाँधनेपर भी उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा लोक परणसमुद्घातमें वर्तमान केवलीका आयु द्रव्य चूंकि संख्यातगुणा हीन ही होता है, अतः उसकी असंख्यातगुणहीनता कैसे सम्भव है ? १ अ-बा-ताप्रतिषु 'जिणावुवदव्वं' इति पाठः। ... ....... ........... Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, ७९. गणहीणं चेव होदि ति कधमसंखेज्जगुणहीणत्तं ? ण, असंखेज्जगणहीणजोगेण मणुस्साउअंबंधिय मणुस्सेसु उप्पज्जिय केवलणाणमुप्पाइय सव्वलोगं गयकेवलिस्त असंखेज्जगुणहीणत्तुवलंमादो। तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥७६ ॥ सुगम । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा॥८०॥ लोगे आवुण्णे' जेण आउअट्ठिदी अंतोमुहुत्तमेत्ता चेव तेण कालवेवणा उक्कस्सद्विदीदो असंखेज्जगुणहीणा त्ति सिद्धं । तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥८१ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा ॥२॥ कुदो ? मणुस्साउअउक्कस्साणुभागादो अप्पमत्तसंजदेण बद्धदेवाउअउक्कस्साणुभा. गस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। - जस्स आउअवयणा कालदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥८३॥ समाधान-नहीं, क्योंकि, असंख्यातगुणहीन योगके द्वारा मनुष्यायुको बाँधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो केवलज्ञानको उत्पन्न करके सर्वलोकको प्राप्त केवलीका द्रव्य असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ७९ ॥ यह सूत्र सुगम है ? बह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ८॥ चूंकि लोकपूरण समुद्घातमें आयुकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है, अतएव कालवेदना उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हीन है; यह सिद्ध है। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥८१॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ॥ ८२ ॥ कारण यह कि मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अप्रमत्तसंयतके द्वारा बाँधी गई देवायुका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा हीन पाया जाता है । जिसके आयुकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥८३ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'आउवुण्णे' इति पाठः । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०९ ४, २, १३, ८४.] वेयणसपिणयासविहाणाणियोगहारं सुगमं। णियमा अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ॥८४॥ ___ तं जहा—उक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए मणुस्साउअं बंधिय मणुस्सेसु उप्पजिय संजमं घेत्तूण पुव्वकोडितिभागपढमसमए देवाउए पबद्धे' आउअस्स उक्कस्सहिदी होदि, पुव्वकोडितिभागाहियतेत्तीससागरोवमपमाणत्तादो। उवरि किण्ण उक्कस्सहिदी जायदे ? ण, अधढिदिगलणाए समयं पडि गलमाणियाए उवरि उक्कस्सत्तविरोहादो। एत्थ जं दव्वं तमुक्कस्सदव्वस्स संखेजदिभागो। कुदो ? सादिरेयछब्भागत्तादो । एवमुक्कस्सबंधगद्धाए दुभागेण आउवे बंधाविदे वि संखेज्जगुणहीणं' होदि, सादिरेयवारसभागत्तादो। एवं 'बंधगद्धमस्सिदूण एदं दव्वमुक्कस्सदव्वस्स संखेज्जदिभागो' चेव होदि । जोगमस्सिदण पुण संखेज्जगुणहीणमसंखेज्जगुणहीणं च संलब्भदि', संखेज्ज गुणहीण-असंखेज्जगणहीणजोगाणं संभवादो। तम्हा आउअदव्ववेयणा सगुक्कस्सदव्वं पेक्खिदण उक्कस्सकालाविणाभाविणी विट्ठाणपदिदा चेव होदि त्ति सिद्धं । यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन व असंख्यातगुणहीन इन दो स्थानों में पतित होती है ॥ ८४॥ वह इस प्रकारसे-उत्कृष्ट योगके द्वारा उत्कृष्ट बन्धककालमें मनुष्यायको बाँधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो संयमको ग्रहणकर पूर्वकोटित्रिभागके प्रथम समयमें देवायुके बाँधनेपर आयुकी उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि, वह पूर्वकोटित्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होती है। शंका-ऊपर उत्कृष्ट स्थिति क्यों नहीं होती ? समाधान-नहीं, क्योंकि ऊपर अधःस्थितिके गलनेसे प्रत्येक समयमें गलनेवाली उसके उत्कृष्ट होनेका विरोध है। यहाँ जो द्रव्य है वह उत्कृष्ट द्रव्यके संख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, वह साधिक छठे भाग प्रमाण है । इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धक कालके द्वितीय भागसे आयुके बँधानेपर भी द्रब्य संख्यातगुणा हीन ही होता है, क्योंकि, वह साधिक बारहवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार बन्धककालका आश्रय करके यह द्रव्य उत्कृष्ट द्रव्यके संख्यातवें भाग ही होता है । परन्तु योगका आश्रय करके वह संख्यातगुणा हीन और असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है, क्योंकि, संख्यातगुण हीन और असंख्यातगुण हीन योगों की सम्भावना है। इस कारण आयु कर्मकी द्रव्य वेदना अपने उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा करके उत्कृष्ट कालके साथ आविनाभाविनी होकर उक्त दो स्थानोंमें ही पतित होती है, यह सिद्ध है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'पबद्धो' इति पाठः । २ अ-श्रा काप्रतिषु 'असंखेजगुणहीणं' इति पाठः । ३ अ-श्रा-' काप्रतिषु पबंधा-' इति पाठः। ४ अ-आप्रत्योः 'संखेजदिभागे' इति पाठः। ५ ताप्रती 'लब्मदि' इति पाठः। छ. १२-५२ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ८५. तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ८५ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुणहीणा ॥८६॥ कुदो ? अद्धहरयणिमादि कादण जाव पंचधणुस्सद-पणवीसुत्तरदीहत्तवलक्खियाणं उक्कस्सकालसामित्तम्हि संभवंतक्खेत्ताणं घणलोगस्स असंखेज्जदिमागत्तवलंभादो । अद्धट्ठमरज्जूणं मुक्कमारणंतियमहामच्छखेतं कालसामिस्स उक्कस्समिदि किण्ण घेपदे ? ण एस दोसो, अबद्धाउआण बज्झमाणाउआणं च जीवाणं मारणंतियाभावादो । तस्स भावदो किमुक्कसा अणुक्कस्सा ॥८७॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा ॥ ८८ ॥ कुदो ? आउअस्स उक्कस्सकालवेयणा आउअबंधपढमसमए वट्टमाणपमत्तसंजदम्मि होदि । उक्कस्सभाववेयणा पुण आउअबंधगद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स अप्पमत्तसंजदम्मि पमत्त विसोहीदो अणंतगणविसोहिपरिणामस्स' होदि। तेण कारणेण उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ८५॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणीहीन होती है ॥ ८६ ॥ कारण कि साढ़े तीन रत्निसे लेकर पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण दीर्घतासे उपलक्षित जिन क्षेत्रोंकी उत्कृष्ट काल स्वामित्वमें सम्भावना है वे घनलोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण पाये जाते हैं। शंका-साढ़े सात राजु मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले महामत्स्यका क्षेत्र काल स्वामीका उत्कृष्ट क्षेत्र है, ऐसा ग्रहण क्यों नहीं करते ? _ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अबद्धायुष्क और वर्तमानमें आयुको बांधनेवाले जीवोंके मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ८७ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ॥ ८८ ॥ कारण यह कि आयुकी उत्कृष्ट कालवेदना आयुबन्धके प्रथम समयमें वर्तमान प्रमत्तसंयत जीवके होती है। परन्तु उसकी उत्कृष्ट भाववेदना आयुबन्धक कालके अन्तिम समयमें वर्तमान व प्र संयतकी विशुद्धिसे अनन्तगुणे विशुद्धिपरिणामवाले अप्रमत्तसंयत जीवके होती है। इसी कारणसे १ अाप्रतौ -विसोहीए परिणामस्स' इति पाठः। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १०.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४११ अणंतगुणविसोहिपरिणामेण बद्धाउअउ कस्साणुभागादो अणंतगुणहीणविसोहिपरिणामेण बद्धअणुभागो 'उक्कस्सकालाविणाभावी अणंतगुणहीणो त्ति' । जस्स आउअवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥८६॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा तिहाणपदिदा संखेजभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥६॥ तं जहा- उक्कस्सबंधगद्धाए उक्कस्सजोगेण य जदि मणुस्साउअंबंधिऊण मणुस्सेसु उप्पज्जिय संजमं घेत्तण उक्कस्साणुभागं बंधदि तो भावुक्कस्सम्मि दव्ववेयणा सगुक्कस्सदव्वं पेक्खिदूण संखज्जभागहीणा होदि। कुदो ? भुंजमाणाउअस्स सादिरेयबेतिभागमेतदव्वे गलिदे संते भावस्स उक्कस्सत्तुप्पत्तीदो। मणुस्साउए उक्कस्सबंधगद्धाए दुभागेण बंधाविदे छब्भागाहि चदुब्भागमेत्ता होदि । एवं गंतूण भावसामिस्स दो वि आउआणि उक्कस्सबंधगद्धाए दुभागेण बंधाविय भावे उक्कस्से कदे संखेज्जगुणहाणी होदि, ओघुक्कस्सदव्वं पेक्खिदूण भावसामिदव्वस्स तिभागत्तुवलंभादो । एवं अनन्तगुणे विशुद्धि परिणामके द्वारा बाँधी गई आयुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन विशुद्धिपरिणामके द्वारा बांधा गया अनुभाग उत्कृष्ट कालका अविनामावी व अनन्तगुणा हीन है। जिस जीवके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। - वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन व असंख्यातगणहीन इन तीन स्थानोंमें पतित होती है ॥ १० ॥ ___ वह इस प्रकारसे-उत्कृष्ट बन्धककाल और उत्कृष्ट योगके द्वारा यदि मनुष्यायुको बाँधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो संयमको ग्रहण करके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधता है तो भावकी उत्कृष्टतामें द्रव्यवेदना अपने उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातभाग हीन होती है, क्योंकि, भुज्यमान आयु सम्बन्धी साधिक दो त्रिभाग प्रमाण द्रव्यके गल जानेपर भावकी उत्कृष्टता उत्पन्न होती है। उत्कृष्ट बन्धककालके द्वितीय भागसे मनुष्यायुको बँधानेपर उक्त वेदना छह भागोंमें चार भाग प्रमाण होती है। इस प्रकार जाकर भावस्वामीके दोनों ही आयुओंको उत्कृष्ट बन्धक कालके द्वितीय भागसे बंधाकर भावके उत्कृष्ट करनेपर संख्यातगुणहानि होती है, क्योंकि, ओघ उत्कृष्ट द्रव्य की अपेक्षा भाव स्वामीका द्रव्य तृतीय भाग प्रमाण पाया जाता है। इस प्रकार बन्धक कालकी हानिसे संख्यात १ आप्रतौ 'विसोहिपरिणामेणाणुभागो बद्धउक्कस्स-' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'हीणा त्ति' इति पाठः। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] छ खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, ६१. धगद्धारहाणीदो संखेज्जगुणहाणी परूवेदव्वा । दो वि बंधगद्धाओ उक्कस्साओ' करिये असंखेज्जगुणहीणजोगेण बंधाविय भावे उक्कस्से कदे असंखेज्जगुणहाणी होदि । तम्हा उकस्सदव्वं पेक्खिदूण भावसामिदव्वं तिट्ठाणपदिदं ति घेतव्यं । तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६१ ॥ सुमं । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा ॥ ६२ ॥ कुदो ? भावसामि उक्कस्सखेत्तस्स वि घणलोगस्स असंखेज्जदिभागत्तुवलंभादो | ण च आउअस्सं उक्कस्सभावो लोगपूरणे संभवदि, बद्धाउआणं खवगसेडिमारुहणाभावादो । तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६३ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा चउट्टाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥ ६४ ॥ ठिदिबंधे उक्कस्से जादे पुणो पच्छा अंतोमुहुत्तट्ठिदीए गलिदाए चेव उक्कस्सभावबंध होदिति भावसामिकालवेयणा असंखेज्जभागहीणा । एवमसंखेज्जभागहीणा हानिकी प्ररूपणा करनी चाहिये । दोनों बन्धकवालोंको उत्कृष्ट करके असंख्यानगुणहीन योगसे बंधाकर भावके उत्कृष्ट करनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। इस कारण उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा करके भावस्वामीका द्रव्य तीन स्थानों में पतित है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उसके क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ९१ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ९२ ॥ कारणकी भावस्वामीका उत्कृष्ट क्षेत्र भी घनलोक असंख्यातवें भाग प्रमाण पाया जाता है । यदि कहा जाय कि आयुका उत्कृष्ट भाव लोकपूरण समुद्घातमें सम्भव है, तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि, वद्धायुष्क जीवोंके क्षपक श्रेणिपर आरोहण करना सम्भव नहीं है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट यह सूत्र सुगम है । ॥ ६३॥ वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यात भागहीन संख्यात भागहीन, संख्यातगुणto व असंख्यातगुणहीन | इन चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ ६४ ॥ स्थितिबन्धके उत्कृष्ट होनेपर फिर पश्चात् अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिके गल जानेपर ही चूिँ उत्कृष्ट भावबन्ध होता है, अतएव भावस्वामीकी कालवेदना असंख्यात भागहीन होती है । इस १ ताप्रतौ 'उक्करसाउ' इति पाठः । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ९५.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४१३ होदण ताव गच्छदि नाव उक्कस्साउअमुक्कस्ससंखेज्जेण खडिदण तत्थ एगखडमेत्तं मणुस्सेसु देवेसु च ण गलिदं ति । तम्हि संपुण्णे गलिदे संखेज्जभागहाणी होदि । तत्तो पहुडि उवरि संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जावुक्कस्सद्विदीए अद्धं गलिदं ति । तत्तो पहुडि उवरि संखेज्जगुणहाणी होदण गच्छदि जावुक्कस्सहिदि जहण्णपरित्तासंखे. ज्जेण खडिय तत्थ एगख डमेत्तं द्विदं ति । तत्तो प्पहुडि असंखेज्जगुणहाणी होण गच्छदि जाव बद्धाउअदेवचरिमसमओ त्ति । सव्वत्थ भावो उक्कस्सो चेव, सरिसधणियपरमाणुहाणीए भावहाणीए अभावादो। अंतोमुहुत्तचरिमसमयस्स कधमु कस्साणुभागसंभवो ? ण, तस्स अणुभागखंडयघादाभावादो। तम्हा चउट्ठाणपदिदा कालवेयणा ति सहहेयव्वं । चउहाणपदिदा ति ण वत्तव्वं, असंखेज्जभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा इच्चेदेणेव सिद्धत्तादो ? ण एस दोसो, दवट्ठियणयाणुग्गहट्टं तदुत्तीदो। ण च एक्कस्सेव' वयणस्स जिणा अणुग्गहं कुणंति, समाणत्ताभावेण जिणत्तस्सेव' अभावप्पसंगादो। एवमुक्कस्सओ सत्थाणवेयणासणियासो समत्तो।। जो सो थप्पो जहण्णओ सत्थाणवेयणसण्णियासो सो चउब्विहोदबदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि ॥ ५ ॥ प्रकार असंख्यातभागहीन होकर तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट आयुको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड प्रमाण मनुष्यों और देवोंमें नहीं गलित हो जाता है। उसके सम्पूर्ण गल जानेपर संख्यातभागहानि होती है । वहाँ से लेकर आगे उत्कृष्ट स्थितिका अर्ध भाग गलित होने तक संख्यातभागहानि होकर जाती है। उससे लेकर आगे उत्कृष्ट स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित कर उनमें एक खण्डके स्थित होने तक संख्यातगुणहानि होकर जाती है। उससे आगे बद्धायुष्क देवके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणहानि होकर जाती है। भाव सर्वत्र उत्कृष्ट ही रहता है, क्योंकि समान धनवाले परमाणुओंकी हानिसे भावहानिका अभाव है शंका-अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागकी सम्भावना कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकाण्डकघातका अभाव है। इसलिये कालवेदना उक्त चार स्थानोंमें पतित है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिये। शंका-वह 'चार स्थानोंमें पुतित है। यह नहीं कहना चाहिये, क्योंकि "असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहान और असंख्यातगुणहान इस सूत्राशस ही वह सिद्ध है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्याथिक नयके अनुग्रहार्थ 'वह चार स्थानोंमें पतित है। यह कहा गया है। जिन भगवान् किसी एक ही वचनका अनुग्रह नहीं करते हैं, क्योंकि, ऐसा मानने पर[ दोनों वचनोंमें ] समानताका अभाव होनेसे जिनत्वके ही अभावका प्रसंग आता है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान वेदना संनिकर्ष समाप्त हुआ। जिस जघन्य स्वस्थान वेदनासंनिकर्षको स्थगित किया था वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकारका है ॥ ६५ ॥ १ श्राप्रती 'एक्किस्सेव' इति पाठः । २ अप्रतौ 'सगाणत्ताभावादोण जिणत्तस्सेव'. अाप्रती 'समाणत्ताभावोण जिणा तस्सेव', काप्रतौ 'समाणत्ताभावा ण जिणा तरसेव' इति पाठः। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, १६. सणियासी चउत्रिहो चैव होदि, दव्व-खेत्त-काल-भावेहिंतो वदिरित्तस्स अण्णस्स पंचमस्स अभावादो । जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेतदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ६६ ॥ ४१४ ] for पुरस्सरा चेव अत्थपरूवणा कीरदे ? सोदुमिच्छंताणं चेव अत्थपरूपणा कीरदे, ण अण्णेसिमिदि जाणावणः अण्णहा परूवणाए विहलत्तप्पसंगादो | उक्तं च बुद्धिविहीन श्रोत वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम् ।. नेत्रविहीनेभर विलास- लावण्यवत्स्त्रीणाम् ॥ ४ ॥ ) धारण- गहण समत्थाणं चैव संजदाणं 'विणयालंकाराणं वक्खाणं कादव्यमिदि भणिदं होदि । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ ६७ ॥ कुदो ? सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स तिसमयआहार-तिसमयतन्भवत्थस्स "जहण्णजोगिस्स जहण्णोगाहणादो घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागपमाणादो णाणावरणजहण्ण संनिकर्ष चार प्रकारका ही है, क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे भिन्न अन्य पाँचवें संनिकर्षका अभाव है । जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ६६ ॥ शंका - प्रश्नपूर्वक ही अर्थकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान - सुनने की इच्छा रखनेवाले जीवोंके लिये ही अर्थकी प्ररूपणा की जाती है, अन्यके लिये नहीं; यह जतलानेके लिये प्रश्नपूर्वक अर्थप्ररूपणा की जाती है, क्योंकि, इसके बिना प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। कहा भी है जिस प्रकार पति अन्धे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल ) है, इसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होनेपर पुरुषोंका वक्तापन भी व्यर्थ है ॥ ४ ॥ धारण व अर्थग्रहण समर्थ तथा विनयसे अलंकृत ही संयमी जनोंके लिये व्याख्यान करना चाहिये, यह उसका अभिप्राय है । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ ६७ ॥ कारण यह कि त्रिसमयवर्ती आहारक व तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान जघन्य योगवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अवगाहनाकी १ - कातिषु 'विणाया-' इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'तन्भवत्थजहण्ण-' इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' - पमाणात्तादो । णाणावरण' इति पाठः । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १०२.] वेयणसणियासविहाणाणियोगदारं [ ४१५ दवसामिचरिसमयखीणकसायस्स अद्धहरयणिउस्सेहस्स जहण्णोगाहणाए वि घणंगलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताए असंखेज्जगुणत्तवलंभादो।। तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१८॥ सुगम।। जहण्णा ॥ ६ ॥ कुदो ? खीणकसायचरिमसमए वट्टमाणणाणावरणीयजहण्णदव्वस्स एगसमयट्टिदिदंसणादो, अण्णहा दबस्स जहण्णत्ताणुववत्तीदो। तस्स भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१०॥ सुगम। जहण्णा ॥ १०१॥ कुदो ? अपुव्वकरण-अणियट्टिकरण सुहुमसांपराइय-खीणकसाएहि अणुभागखंडयघादेण अणुसमओवट्टणाए च च्छिज्जिदूण जहण्णदव्वम्मि द्विदअणुभागस्स जहण्णभावुवलंभादो। जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१०२॥ अपेक्षा ज्ञानावरणीय कर्मके जघन्य द्रव्यके स्वामी व साढ़े तीन रनि प्रमाण शरीरोत्सेधसंयुक्त अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय जीवकी घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अवगाहना भी असंख्यातगुणी पायी जाती है। • उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥९८॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य होती है ॥ ९६ ॥ कारण यह कि क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें वर्तमान जीवके ज्ञानावरणीय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यकी एक समय स्थिति देखी जाती है, क्योंकि, इसके विना द्रव्यकी जघन्यता बन नहीं सकती। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य होती है ॥ १०१ ॥ कारण कि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्परायिक और क्षीणकषाय जीवोंके द्वारा किये गये अनुभागकाण्डक घात और अनुसमयापवर्तनासे छिदकर जघन्य द्रव्यमें स्थित अनुभागके जघन्यपना पाया जाता है। जिसके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१०२॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६] छक्खडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १०३. सुगमं । णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा असंखेजभागभहिया, वा संखेज्जभागभहिया वा संखेजगुणब्भहिया वा असंखेजगुण भहिया वा ॥ १०३ ॥ तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण विपरीयं गंतूण सुहुमणिगोदअपज्जत्तएसु जहण्णजोगेसु उप्पज्जिय तिसमयतब्भवत्थस्स जहणिया खेत्तवेयणा जादा। तत्थ जं दव्वं तं पुण खीणकसायचरिमसमयओघजहण्णदव्वं पेक्खिदण असंखेज्जभागमहियं होदि । को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । किमट्ठमसंखेज्जदिभागब्भहियं १ खविदकम्मंसियकालभंतरे खविज्जमाणदव्वस्स असंखेज्जेसु भागेसु गढेसु असंखेज्जदिमागमेत्तदव्वस्स अविणासुवलंभादो । पुणो एदस्स दव्वस्सुवरि एगेगपरमाणु वडिदे वि दधस्स असंखेज्जभागवड्डी चेव । एवमसंखेज्जमागब्भहियसरूवेण णेयव्वं जाव जहण्णदव्यमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तं जहण्णदव्वस्सुवरि वविदं ति । तदो संखेज्जभागवड्डीए आदी होदि । एत्तो प्पहुडि परमाणुत्तरकमेण संखेज्जभाग यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगण अधिक और असंख्यातगण अधिक इन चार स्थानोंमें पतित होती है ॥१०३। वह इस प्रकारसे-क्षपितकांशिक स्वरूपसे आकरके विपरीत स्वरूपको प्राप्त हो जघन्य योगवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान जीवके क्षेत्रवेदना जघन्य होती है । परन्तु उसके जो द्रव्य होता है वह क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बधी ओघ जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। उसका प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यावाँ भाग है। शंका-असंख्यातवें भागसे अधिक किसलिये है ? समाधान-इसका कारण यह है कि क्षपितकर्माशिककालके भीतर क्षयको प्राप्त कराये जानेवाले द्रव्यके असंख्यात बहुभागोंके नष्ट हो जानेपर असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्यका अविनाश पाया जाता है। फिर इस द्रव्यके ऊपर एक एक परमाणुकी वृद्धिके होने पर भी द्रव्यके असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार असंख्यातवें भाग अधिक स्वरूपसे जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्रकी जघन्य द्रव्यके ऊपर वृद्धि हो जाने तक ले जाना चाहिये। पश्चात् संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है । यहाँसे लेकर परमाणु अधिक क्रमसे संख्यातभागवृद्धि तब - १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भागवाहिया' इति पाठः, प्रतिष्विमास्वग्रे सर्वत्र 'अब्भहिय' इत्येतस्य स्थाने प्रायः 'अवहिय' एव पाठः उपलभ्यते । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१७ ४,२, १३, १०६ ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं वड्डी ताव गच्छदि जाव जहण्णदव्वस्सुवरि 'अण्णेगजहण्णदव्वमेत्तं वविदं ति। ताधे संखेज्जगुणवड्डीए आदी होदि । एत्तो उवरि परमाणुत्तरकमेण वड्डमाणे संखेज्जगुणवड्डी चेव होदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण गुणिदं ति । तत्तो पहुडि उरिमसंखेज्जगुणवड्डी चेव होदूण गच्छदि जाव जहण्णक्खेत्तसहचारिउक्तस्सदव्वं ति । केण लक्खणेणागदस्स उक्कस्सदव्वं जायदे ? गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए दव्वमुक्कस्सं करिय पंचिंदियतिरिक्खसु उप्पज्जिय पुणो तिसमयआहार-तिसमयतब्भवत्थजहण्णजोगसुहुमणिगोदअपज्जत्तएसु उप्पण्णस्स उकस्सं जायदे । एदेण कारणेण दव्वं चउट्ठाणपदिदं चेवे त्ति घेत्तव्यं । तस्स कालदो किं जहण्णा [ अजहण्णा ]॥ १०४॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १०५ ॥ कुदो ? खीणकसायचरिमसमयजहण्णदव्वकालेण एगसमयपमाणेण जहण्णखेत्तसहचारिणाणावरणीयकाले सागरोवमस्स तिष्णिसत्तभागमेत्ते पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण परिहीणे भागे हिदे असंखज्जरूवोवलंभादो। तस्स भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१०६॥ तक जाती है जब तक जघन्य द्रव्यके ऊपर अन्य एक जघन्य द्रव्य प्रमाण वृद्धि होती है । तब संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। इससे आगे परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिके चालू रहनेपर जघन्य परीतासंख्यातसे गणित मात्र होने तक संख्यातगुणवृद्धि ही होती है उससे लेकर आगे जघन्य क्षेत्रके साथ रहनेवाले उत्कृष्ट द्रव्य तक असंख्यातगुणवृद्धि ही होकर जाती है । शंका-किस स्वरूपसे आये हुए जीवके उत्कृष्ट द्रव्य होता है ? समाधान-गुणितकांशिक स्वरूपसे आकरके सप्तम पृथिवीस्थ नारकीके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट करके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो । पुनः त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान जघन्य योगवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उत्कृष्ट द्रव्य होता है। इसी कारणसे द्रव्य चार स्थानोंमें ही पतित है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१०४॥ यह मूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १०५॥ कारण कि क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यके एक समय प्रमाण कालका जघन्य क्षेत्र के साथ रहनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भाग प्रमाण ज्ञानावरणीय कालमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१०६ ॥ १ प्रतिषु 'श्रणेग' इति पाठः। . छ. १२-५३ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] छक्खंडागमे बेपणाखंड [४, २, १३, १०७. सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १०७॥ कुदो? जहण्णक्खेत्तसहचारिणाणावरणीयअणुभागस्स अपुधकरण-अणियट्टिकरणसुहुमसांपराइय-खीणकसायपरिणामेहि खंडयसरूवेण अणुसमओवट्टणाए च जहण्णाणुभागस्सेव धादाभावादो। सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स अणुभागो वि घादं पत्तो तो वि जहण्णाणुभागादो अणंतगुणत्तं मोत्तूण ण सेसपंचअवस्थाविसेसे पडिवज्जदे, अक्खवगविसोहीहि धादिज्जमाण-'अणुमागस्स खवगेहि घादिज्जमाण-अणुभागंपेक्खिदण अणंतगुणत्तुवलंभादो' । एत्थ उवउज्जती गाहा (सुहुमणुभागादुवरि अंतरमकादं ति उघादिकम्माणं। कैवलिणो वि य उवरिं भवओग्गह अप्पसत्थाणं ।।५।।) जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १०८ ॥ सुगम । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचहाणपदिदा अणंतभागब्भहिया वा असंखेज्जभागब्भहिया वा संखेजभागब्भहिया वा संखेजगुणब्भहिया वा असंखेजगुणब्भहिया वा ॥ १०६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १०७ ॥ कारण कि जघन्य क्षेत्रके साथ रहनेवाले ज्ञानावरणीयके अनुभागका अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्परायिक और क्षीणकषाय परिणामों द्वारा काण्डक स्वरूपसे और अनुसमयापवर्तनासे जघन्य अनुभागके समान घात नहीं होता है। यद्यपि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका अनुभाग भी घातको प्राप्त हो चुका है तो भी वह जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणत्वको छोड़कर शेष पाँच अवस्थाविशेषोंमें प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अक्षपकके विशुद्ध परिणामों द्वारा घाता जानेवाला अनुभाग क्षपकों द्वारा घाते जानेवाले अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा पाया जाता है। यहाँ उपयोगी गाथा ............॥५॥ जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है या अजघन्य ॥१०८ ।। यह सत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य अनन्तभाग अधिक, असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगण अधिक और असंख्यातण अधिक, इन पाँच स्थानों में पतित है ॥ १० ॥ १ अपा-काप्रतिषु - ज्जमाण अणुभागं इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अणतगुणहीणत्तवलभादो इनि पाठः । ताप्रती 'मकदं तिघादि-' इति पाठः । ४ मप्रतौ 'चवोग्गह' इति पाठः। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १११] वेयणसणियासविहाणाणियोगदारं [४१ खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खीणकसायचरिमसमए द्विदस्स कालेण सह दव्वं पि जहण्णं, खविज्जमाणकम्मपदेसाणं सम्वेसि पि खविदत्तादो। एदस्स जहण्णदव्वस्सुवरि एग-दोआदिकम्मपोग्गलेसु वड्डिदेसु दव्ववेयणा अजहण्णत्तं पडिवज्जदे । सा वि' पंचट्ठाणपदिदा होदि, ण छहाणपदिदा होदि, एत्थ छट्ठाणस्स संभवाभावादो। काणि ताणि पंचट्ठाणाणि त्ति तण्णिण्णयत्थमुत्तरसुत्तावयवो मणिदो। एदेसिं पंचणं पि ट्ठाणाणं परूवणा कीरदे । तं जहा-जहण्णट्ठाणस्सुवरि एगपरमाणुम्हि वड्डिदे अणंतभागमहियं द्वाणं होदि । एदमादि कादण ताव अणंतभागवड्डी होदूण गच्छदि जाव जहण्णदव्वे उकस्सअसंखज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडण जहण्णदव्वं वड्डिदं ति । तदो प्पहुडि परमाणुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डी होदण ताव गच्छदि जाव जहण्णदव्वमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदण तत्थ एगखंडमेत्तं पविट्ठ ति । एत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जभागवड्डी। एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव असंखेज्जगुणवड्डि त्ति । एत्थ चरिमवियप्पो गुणिदकम्मंसियमस्सिदण वत्तव्यो । सेसं सुगमं । तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥११०॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया॥ १११ ॥ ___ क्षपितकांशिक स्वरूपसे आकरके क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित हुए जीवके कालके साथ द्रव्य भी जघन्य होता है, क्योंकि, यहाँ क्षयको प्राप्त कराये जानेवाले सभी कर्मप्रदेशोंका क्षय हो चुकता है । इस अजघन्य द्रव्यके ऊपर एक दो आदि कर्मपुद्गलोंकी वृद्धिके होनेपर द्रव्यवेदना अजघन्य अवस्थाको प्राप्त होती है। वह भी पाँच स्थानोंमें पतित होती है, छह स्थानोंमें पतित नहीं होती; क्योंक, यहाँ छठे स्थानकी सम्भावना नहीं है। वे पाँच स्थान कौनसे हैं, इसका निर्णय करनेके लिये आगेका सत्रांश कहा गया है। इन पाँचों स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्थान के ऊपर एक परमाणुकी वृद्धि होनेपर अनन्तभाग अधिक स्थान होता है। इससे लेकर तब तक अनन्तभागवृद्धि होकर जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यातसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे जघन्य द्रव्य वृद्धिको प्राप्त होता है । उससे लेकर एक परमाणु अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि होकर तब तक जाती है जब तक कि जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खख्ड मात्र द्रव्य प्रविष्ट होता है। यहाँसे लेकर आगे संख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार जान करके असंख्यातगुणवृद्धि तक ले जाना चाहिये । यहाँ अन्तिम विकल्पका गुणितकांशिकको आभित कर कथन करना चाहिये । शेष कथन सुगम है। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १११॥ १ मप्रतौ 'ण वि इति पाठः। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ११२ कुदो ? जहण्णकालसहचारिअद्भुहरयणि उव्विद्धखीणकसायजहण्णक्खेत्तस्स वि अंगुलस्स संखेज्जदिमागस अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तसुहुमणिगोदजहण्णक्खेत्तं पेक्खिदण असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो।। तस्स भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥ ११२॥ सुगमं । जहण्णा ॥११३॥ कुदो ? खीणकसायचरिमसमए जहण्णकालोवलक्खिदकम्मक्खंधस्स जहण्णाणुमागं मोत्तूण अण्णाणुभागवियप्पाभावादो। जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥११४॥ सुगम । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा ॥ ११५ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जहा जहण्णकाले णिरुद्ध दव्वस्स पंचट्ठाणपदिदत्तं परूविदं तहा एत्थ वि परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । कारण कि जघन्य कालके साथ रहनेवाला अंगुलके संख्यातवें भाग मात्र क्षीणकषायका साढ़े तीनरनि प्रमाण ऊंचा जघन्य क्षेत्र भी अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणा पाया जाता है। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उसके उक्त वेदना जघन्य होती है ॥ ११३ ॥ कारण कि क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य कालसे उपलक्षित कर्मस्कन्धके जघन्य अनुभागको छोड़कर अन्य अनुभागविकल्पोंका अभाव है। जिसके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११४॥ यह सूत्र सुगम है। वह उसके जघन्य भी होती है और अजघन्य भी, जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानोंमें पतित है ॥ ११५ ॥ इस सूत्रके अर्थका कथन करते समय जिस प्रकारसे जघन्य कालको विवक्षित करके द्रव्यके पाँच स्थानोंमें पतित होने की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहाँ भी उसकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १२१.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४२१ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ११६॥ सुगम । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ ११७॥ कुदो? खीणकसायचरिमसमयजहण्णाणुभागसहचारिजण्णखेत्तस्स वि सुहुमणिगोदापज्जत्तजहण्णखेत्तमंगुलस्स असंखेज्जदिमागंपेक्खिण असंखेज्जगुणत्तवलंभादो। तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ११८॥ . सुगमं । जहण्णा ॥ ११ ॥ कुदो ? खीणकसायचरिमसमयम्मि जहण्णमावेण विसिट्टकम्मपरमाणूणं जहण्णकालं मोत्तूण कालंतराभावादो । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ १२०॥ जहा णाणावरणीयस्स दव्वादीणं सण्णियासो कदो तहा एदेसि पि तिण्णं धादिकम्मोणं कायव्वो। जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १२१ ॥ उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ११६॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ ११७॥ कारण यह कि क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य अनुभागके साथ रहने वाला जघन्य क्षेत्र भी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकके अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य क्षेत्रको अपेक्षा असंख्यातगुणा पाया जाता है। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११८॥ यह सूत्र सुगम है। वह उसके जघन्य होती है ॥ ११ ॥ कारण कि क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य भावके साथ विशिष्ट कर्मपरमाणुओं के जघन्य कालको छोड़कर अन्य कालका अभाव है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके जघन्य वेदनासंनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ १२० ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके द्रव्यादिकोंका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकार इन तीनों घातिया कर्मों के संनिकर्षको भी करना चाहिये। __ जिसके वेदनीय कर्मको वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके वह क्या क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है या अजघन्य । १२१ ॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं. [४, २, १३, १२२ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १२२ ॥ कुदो ? अद्धहरयणि उस्सेहमणुस्से हितो हेडिमउस्सेहमणुस्साणं अजोगिचरिमसमए अवट्ठाणाभावादो। ण च आहुट्ठस्सेहओगाहणाए घणंगुलस्स संखेज्जदिभागं मोत्तूण तदसंखेज्जदिभागत्तं, अणुवलंभादो। ण च जहण्णखेत्तमंगुलस्स संखेज्जदिभागो, तदसंखेच. दिमागत्तण साहियत्तादो। तम्हा तत्तो एदस्स सिद्धमसंखज्जगुणत्तं । तस्स कालदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१२३ ॥ सुगम । जहण्णा ॥ १२४॥ अजोगिचरिमसमयजहण्णदव्वम्हि जहण्णकालं' मोत्तण कालंतराभावादो। तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १२५ ॥ सुगमं । जहण्णा [ वा ] अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १२६॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। १२२ ॥ कारण कि अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें साढ़े तीन रनि उत्सेधवाले मनुष्योंकी अपेक्षा नीचेके उत्सेध युक्त मनुष्योंका रहना सम्भव नहीं है । और साढ़े तीन रखि उत्सेध रूप अवगाहना घनांगुलके संख्यातवें भागको छोड़कर उसके असंख्यातवें भाग हो नहीं सकती, क्योंकि, वह पायी नहीं जाती है। इसके अतिरिक्त जघन्य क्षेत्र घनांगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण हो, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, वह उसके असंख्यातवें भाग स्वरूपसे सिद्ध किया जाचुका है। इस कारण उसकी अपेक्षा इसका असंख्यातगुणत्व सिद्ध ही है। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १२३ ॥ यह सूत्र सुगम है। उसके वह जघन्य होती है ॥ १२४ ॥ कारण कि अयोगकेवलीके अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यमें जघन्य कालको छोड़कर अन्य कालका अभाव है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१२५ ॥ . यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १२६ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'जहण्णाकालं' इति पाठः। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १२९.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४२३ जदि असादोदयेण णिव्वुओ होदि तो दव्वेण सह भावो वि जहण्णी होदि, अजोगिदुचरिमसमए गलिदसादावेदणीयत्तादो खवगपरिणामेहि घादिय अणंतिमभागे' दृविदअसादोणुमागत्तादो च । अध सादोदएण जइ सिज्झइ तो अणंतगुणभहिया, अजोगिदुचरिमसमए उदयाभावेण विण?असादत्तादो सुहुमसांपराइयचरिमसमए बद्धसादुक्कस्साणुभागस्स पादाभावादो असादुक्कस्साणुभागादो सादुक्कस्साणुभागस्स' अणंतगुणत्तवलंभादो। जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहपणा ॥ १२७॥ सुगम । णियमा अजहण्णा' चउहाणपदिदा ॥ १२८ ॥ चउहाणपदिदात्ति वुत्ते असंखेज्जभागब्भहिय-संखेज्जभागबमहिय-संखेज्जगुणमाहियअसंखज्जगुणमहिया त्ति घेत्तव्वं । एदेसिं चदुट्ठाणाणं परूवणा जहा णाणावरणीयजहण्णखेत्ते णिरुद्ध तद्दव्वस्स कदा तधा कायव्वा । तस्स कालदो किं जहण्णा [ अजहण्णा ] ॥ १२६ ॥ यदि जीव असाता वेदनीयके उदयके साथ मुक्त होता है तो द्रव्यके साथ भाव भी जघन्य होता है, क्योंकि, अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें साता वेदनीय गल चुका है तथा असाताके अनुभागको क्षपक परिणामोंसे घात करके अनन्तवें भागमें स्थापित किया जाचुका है, परन्तु यदि साता वेदनीयके उदयके साथ सिद्ध होता है तो वह अनन्तगुणी अधिक होती है, क्योंकि, अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें उदय न रहनेके कारण असाता वेदनीयके नष्ट हो जानेसे तथा सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें बांधे गये साता वेदनीयके अनुभागका घात न हो सकनेसे असाता वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा साताका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। जिसके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१७॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ।। १२८. ।। 'चार स्थानों में पतित होती है' ऐसा कहनेपर असंख्यात भाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगुण अधिक और असंख्यातगुण अधिक, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ज्ञानावरणीयके जघन्य क्षेत्रको विवक्षितकर जैसे उसके द्रव्य सम्बन्धी इन चार स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही यहाँ उनकी प्ररूपणा करना चाहिये। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १२६ ।। १ का तापत्योः 'अणंतिमभावो' इति पाठः । २ का-ताप्रत्योः 'भागादो वि सादुक्कस्साणु-' इति पाठः । ३ ताप्रती 'जहण्णा' इति पाठः। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १३०. सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १३०॥ कुदो ? अजोगिचरिमसमयकम्माणं जहण्णकालमेगसमयं पेक्खिदूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेणूणसागरोवमतिण्णिसत्तभागमेत्तहिदीए जहण्णखेत्तसहचारिणीए असंखे. ज्जगुणत्तुवलंभादो। तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१३१ ॥ सुगम । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १३२॥ कुदो ? खवगपरिणामेहि पत्तघादअसादावेदणीयभावस्स अजोगिचरिमसमए जहण्णत्तभुवगमादो। जहण्णखेत्तवेयणीयभावस्स खवगपरिणामेहि घादाभावादो इमो भावो तत्तो अणंतगुणो त्ति दट्टयो । जस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१३३ ॥ सुगमं। जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपाददा॥ १३४॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १३० ॥ कारण कि अयोगकेवलीके अन्तिम समय सम्बन्धी कमों के एक समय रूप जघन्य कालकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भाग मात्र जघन्य क्षेत्रके साथ रहनेवाली स्थिति असंख्यातगुणी पायो जाती है। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजधन्य ॥ १३१ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १३२ ।। कारण कि क्षपक परिणामोंके द्वारा घातको प्राप्त हुआ असातावेदनीयका भाव अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जघन्य स्वीकार किया गया है। अतएव जघन्य क्षेत्रके साथ रहनेवाले वेदनीयके भावका क्षपक परिणामोंके द्वारा घ.त न होनेसे यह भाव उससे अनन्तगुणा है, ऐसा समझना चाहिये। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जहण्ण होती है उसके वह क्या द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है या अजघन्य ॥१३३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानों में पतित है ।। १३४ ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४२५ ४, २, १३, १३८ ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं जदि खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण अजोगिचरिमसमए जहण्णकालेण परिणदो होज्ज तो कालेण सह दव्वं पि जहण्णत्तमल्लियइ । अध खविद-गुणिद घोलमाणा वा गुणिदकम्मंसिया वा अजोगिचरिमसमए जहण्ण कालेण जदि परिणमंति तो पंचट्ठाणपदिदा अजहण्णा दव्ववेयणा होज्ज । जहा णाणावरणीयजहण्णकाले णिरुद्धे तद्दव्वस्स पंचढाणपरूवणा कदा तधा एत्थ वि कायव्या, विसेसाभावादो। तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१३५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १३६ ॥ कुदो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिमागं सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणं पेक्खिदूण अजोगिजहण्णोगाहणाए अंगुलस्स संखेज्जदिमागमेत्ताए असंखेज्जगुणतुवलंभादो । तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १३७ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा अणंतगुणब्भाहया ॥ १३८॥ असादोदएण खवगसेडिं चढिय अजोगिचरिमसमए वट्टमाणस्स भाववेयणा यदि क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके जीव अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जघन्य कालसे परिणत होता है तो कालके साथ द्रव्य भी जघन्यताको प्राप्त होता है। परन्तु यदि क्षपित-गुणित-घोलमान अथवा गुणितकर्माशिक जीव अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जघन्य कालसे परिणत होते हैं तो वह द्रव्यवेदना पाँच स्थानों में पतित होकर अजघन्य होती है। जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके जघन्य कालकी विवक्षामें उसके द्रव्यके सम्बन्धमें पाँच स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे यहाँ भी करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १३५ ।। यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १३६ ।। कारण यह कि सूक्ष्म निगोद जीवकी अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र जघन्य अवगाहनाकी अपेक्षा अंगुलके संख्यातवें भाग मात्र अयोगकेवलीकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी पायी जाती है। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १३७ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १३८ ॥ असातावेदनीयके उदयके साथ क्षपकश्रेणि पर चढ़कर अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें छ. १२-५४ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, १३६. जहण्णा, तस्स दुचरिमसमए विणट्ठसादावेदणीयत्तादो। अध सादोदएण जदि खवगसेडिमारुहिय अजोगिचरिमसमए द्विदो होदि तो भाववेयणा अजहण्णा। कुदो ? असादावेदणीयभावस्सेव सादावेदणीयभावस्स सुहत्तणेण घादाभावादो। अजहण्णा होता वि जहण्णादो अणंतगुणा, संसारावत्थाए सादाणुभागादो अणंतगुणहीणअसादाणुभागे खवगसेडीए बहूहि अणुभागखंडयघादेहि अणंतगुणहाणीए' घादिदे संते अजोगिचरिमसमए जो सेसो भावो सो जहण्णो जादो तेण तत्तो एसो सादाणुभागो अणंतगुणो, घादाभावेण - उक्कस्सत्तादो। जस्स वेयणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १३६ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा ॥ १४०॥ जदि सुद्धणयविसयखविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण चरिमसमयअजोगी जादो तो भावेण सह दव्वं पि जहण्णं चेव, विसरिसत्तस्स कारणामावादो। अह असुद्धणयविसयखविदकम्मंसियो खविदघोलमाणो गुणिदघोलमाणो गुणिदकम्मंसियो वा खवगवर्तमान जीवके भाववेदना जघन्य होती है, क्योंकि, उसके द्विचरम समयमें साता वेदनीयका उदय नष्ट हो चुका है। परन्तु यदि साता वेदनीयके उदयके साथ क्षपकश्रेणिपर चढ़कर अयोगकेवलीके अन्तिम समय में स्थित होता है तो भाव वेदना अजघन्य होती है। क्योंकि, असाता वेदनीयके भावके समान शुभ होनेसे साता वेदनीयके भावका घात सम्भव नहीं है। अजघन्य होकर भी वह जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणो होती है, क्योंकि, संसारावस्थामें साता वेदनीयके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन असातावेदनीयके अनुभागका क्षपकौणिमें बहुतसे अनुभाग काण्डकघातोंसे अनन्त गुणहानि द्वारा घात किये जानेपर अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जो भाव शेष रहा हैवह जघन्य हो चुका है। इसलिये उससे यह साताका अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह घात रहित होनेसे उत्कृष्ट है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१३९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानों में पतित होती है ॥ १४० ॥ __ यदि शुद्ध नयके विषयभूत क्षपितकर्मा शिक स्वरूपसे आकरके अन्तिम समयवर्ती अयोगी हुआ है तो भावके साथ द्रव्य भी जघन्य ही होता है, क्योंकि, उसके विसदृश होनेका कोई कारण नहीं है। परन्तु अशुद्ध नयका विषयभूत क्षपितकर्माशिक, क्षपितघोलमान, गुणित १ ताप्रती 'अणंतगुणहाणीहि' इति पाठः। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४, २, १३, १४५] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४२७ सेडिमारुहिय जदि चरिमसमयअजोगी जादो तो भावो जहण्णो चेव, दव्वं होदि पुण अजहण्णं, जहण्णकारणामावादो। होतं पि जहण्णदव्वं पेक्खिदूण अणंतभागब्भहियं असंखेज्जभागन्भहियं संखेज्जभागमाहियं संखज्जगुणब्महियं असंखेज्जगुणब्भहियं च होदि । कुदो ? जहण्णदव्वस्सुवरि परमाणुत्तरकमेण दव्वविहाणे परूविदपंचवुड्डित्तादो। तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १४१ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १४२ ॥ कुदो ? सुहुमणिगोदअपज्जसजहण्णोगाहणाए अजोगिजहण्णोगाहणाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागुवलंभादो। तस्स कालदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१४३॥ सुगमं । जहण्णा ॥ १४४॥ कुदो ? जहण्णभावम्मि द्विददव्वस्स एगसमयडिदिदंसणादो । जस्स आउअवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१४५ ।। घोलमान अथवा गुणितकौशिक जीव क्षपक श्रेणिपर चढ़कर यदि अन्तिम समयवर्ती अयोगी हुआ है तो भाव जघन्य ही होता है, परन्तु द्रव्य अजघन्य होता है; क्योंकि, उसके जघन्य होनेका कोई कारण नहीं है। अजघन्य हो करके भी वह जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा अनन्तवें भ अधिक, असंख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातगुणा अधिक और असंख्यातगुणा अधिक होता है, क्योंकि, जघन्य द्रव्यके ऊपर परमाणु अधिक क्रमसे द्रव्यविधानमें कही गई पाँच वृद्धियाँ होती हैं। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१४१ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगणी अधिक होती है ॥ १४२ ॥ कारण कि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे अयोगकेवलीकी जघन्य अवगाहनाको अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य होती है ॥ १४४ ॥ कारण कि जघन्य भावमें स्थित द्रव्यकी एक समय स्थिति देखी जाती है। जिस जीवके आयुकी वेदना द्रव्यको अपेक्षा जघन्य होती है उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१४५ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण माहया ॥ १४६ ॥ कुदो ? आउअजहण्णखे तेण सुहुमणिगोदअपज्जत्तएस लद्वेण' अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण जहण्णदव्वसामि ओगाहणाए पंचधणुस्सद उस्सेहादो णिप्पण्णाए ओवट्टिदा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तरूवोवलं भादो । तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १४७ ॥ सुमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ १४८ ॥ कुदो ! एगसमयपमाणेण जहण्णकालेण अंतोमुडुत्तमेतदीवसिहाए ओवट्टिदाए अंतमुत्तमेतगुणगारुवलंभादो । तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १४६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणन्भहिया ॥ १५० ॥ [ ४, २, ११३, १४६. कुदो ! आउअस्स जहण्णभावो अपज्जत्तसंजुत्ततिरिक्खाउ अजहण्णबंधम्मि जादो, जहण्णदव्वसामिभावो पुण सण्णिपंचिंदियपज्जत्त संजुत्तबद्धआउअजहण्णदव्वसंबंधी । यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। १४६ ।। कारण कि सूक्ष्म निमोद लब्ध्यपर्याप्तकों में प्राप्त अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आयु कर्मके जघन्य क्षेत्रसे पाँच सौ धनुष उत्सेधसे उत्पन्न जघन्य द्रव्य के स्वामीकी अवगाहनाको अपवर्तित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र रूप पाये जाते हैं । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १४७ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १४८ ॥ कारण कि एक समय प्रमाण जघन्य कालसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दीपशिखा को अपवर्तित करनेपर अन्तर्मुहूर्त मात्र गुणकार पाया जाता है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १४९ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १५० ॥ कारण यह कि आयु कर्मका जघन्य भाव अपर्याप्त के साथ तिर्यंच आयुके जघन्य बन्ध में होता है । परन्तु जघन्य द्रव्यके स्वामीका भाव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के साथ बाँधी गई आयुके १ प्रतिषु 'श्रद्धेण' इति पाठः । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १५४.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [४२६ तेण आउअजहण्णभावादो दीवसिहाजहण्णदव्वनावो अणंतगुणो त्ति सिद्धं । जस्स आउअवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो' किं जहण्णा अजहण्णा ॥१५१॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणभहिया ॥ १५२ ॥ तं जहा-जहण्णखेत्तट्ठियआउअदव्वं जदि वि जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्धाए च बद्धं होदि तो वि दीवसिहादव्वादो पंचिंदियजहण्णजोगेण एइंदियउकस्सजोगादो असंखेज्जगुणेण बद्धादो' असंखज्जगुणं । कुदो ? दीवसिहादव्वम्मि व भवस्स तदियसमयद्विदसुहुमेइंदियअपज्जत्तयम्मि असंखजगुणहाणिमेत्तणिसेगाणं गलणाभावादो दीवसिहा. दव्वेण जहण्णखेत्तट्ठियदव्वे भागे हिदे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागुवलंभादो वा । तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५३ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणभहिया ॥ १५४ ॥ जघन्य द्रव्यसे सम्बन्ध रखनेवाला है। इस कारण आयुके जघन्य भावकी अपेक्षा दीपशिखा रूप जघन्य द्रव्यका भाव अनन्तगुणा है, यह सिद्ध है। जिस जीवके आयुकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १५१ ॥ यह सूत्र सुगम है। . वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १५२ ॥ वह इस प्रकारसे-यद्यपि जघन्य क्षेत्रमें स्थित आयु कर्मका द्रव्य जघन्य योग और जघन्य बन्धक कालके द्वारा बांधा गया है तो भी वह एकेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट योगसे असंख्यातगुणे ऐसे पंचेन्द्रिय जीवके जघन्य योगके द्वारा बाँधे गये दीपशिखाद्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, दीपशिखाद्रव्यके समान भवके तृतीय समयमें स्थित सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके [ द्रव्यमेंसे ] असंख्यात गुणहानि प्रमाण निषेकोंके गलनेका अभाव है, अथवा दीपशिखा द्रव्यका जघन्य क्षेत्रस्थित द्रव्यमें भाग देनेपर अंगुलका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१५३।। यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १५४ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'दव्व' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'बंध' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'बंधादो' इति पाठः । ४ श्राप्रती 'क्वम्मि व भयस्स', ताप्रतौ 'दव्वमिव भावस्स' इति पाठः । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, १५५. कुदो? जहण्णकाल मेगसमयमेत्तं पेक्खिदूण जहण्णखेत्ता उअट्ठिदीए अंतो मुहुत्तमेत्ताए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५५ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा छट्ठाणपदिदा ॥ १५६ ॥ विहासा - जदि आउअं मज्झिमपरिणामेण बंधिय जहण्णक्खेत्तं करेदि तो खेत्तेण सह भावो वि अहण्णो' । अण्णहा पुण अजहण्णा, होता वि छट्ठाणपदिदा भावम्मि छपियारेहि वड्डिसणादो । जस्स आउअवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५७ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया ॥ १५८ ॥ कुदो ? जहण्णदव्वेण गतमयपबद्धं अंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ कारण कि एक समय प्रमाण जघन्य कालकी अपेक्षा जघन्य क्षेत्रस्थित आयु कर्मकी अन्तमुहूर्त मात्र स्थिति असंख्यातगुणी पायी जाती है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १५५ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह जघन्य भी होती हैं और अजघन्य भी । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानों में पतित है ॥ १५६ ॥ उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- यदि आयुको मध्यम परिणाम से • बाँधकर जघन्य क्षेत्र करता है तो क्षेत्र के साथ भाव भी जघन्य होता है । परन्तु इससे विपरीत अवस्था में भाव वेदना अजघन्य होती है । अजघन्य होकर भी वह छह स्थानों में पतित होती है, क्योंकि, भावमें छह प्रकारों से वृद्धि देखी जाती है। जिस जीवके आयुकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १५७ ।। यह सूत्र सुगम है । वह उसके नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। १५८ ॥ कारण कि एक समयप्रबद्धको अंगुलके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें से एक १ प्रतिषु 'जहण्णा' इति पाठः । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १६२ ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [ ४३१ एगखंड मे तेण जहण्णकालदव्वे एगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागमेत्ते भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलं भादो । तस्स सुगमं । खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५६ ॥ णियमा अजहण्णा' असंखेज्जगुण भहिया ॥ १६० ॥ * कुदो ? आउअजहण्णखेत्तेण अंगुलस्स संखेज्जदिभागमे तजहण कालजहण्णखेत्ते ' भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो | तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १६२ ॥ कथम जो गिचरिम समय जहण्णदव्वभावो जहण्णभावादो अनंतगुणो ? ण एस दोसो, सहावदो चैव तिरिक्खाउआणुभागादो मणुसाउअभावस्य अनंतगुणत्ता । खवगसेडीए पत्तघादस्स भावस्स कघमणंतगुणत्तं ? ण, आउअस्स खवगसेडीए पदेसस्स गुणसेड - जिराभावो व डिदि - अणुभागाणं घादाभावादो । १६१ ॥ खण्ड मात्र जघन्य द्रव्यका एक समय प्रबद्ध के संख्यातवें भाग मात्र जघन्य कालके साथ रहनेवाले द्रव्य में भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं । उसके क्षेत्रको अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजयन्य ॥ १५६ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १६० ॥ कारण कि आयुके जघन्य क्षेत्रका अंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण जघन्यकाल सम्बन्धी जघन्य क्षेत्र में भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १६१ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १६२ ॥ शंका- अयोगकेवली के अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यका भाव जघन्य भावकी अपेक्षा अनन्तगुणा कैसे है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्वभावसे ही तिर्यंच आयुके अनुभागसे मनुव्यायुका भाव अनन्तगुणा है । शंका- क्षपकश्रेणिमें घातको प्राप्त हुआ अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणिमें आयुकर्मके प्रदेशकी गुणश्रेणिनिर्जरा के अभाव के समान स्थिति और अनुभाग के घातका अभाव है । १ ताप्रतौ ' जहण्णा' इति पाठः । २ - प्रत्योः '- मेत्तजहण्णखेत्ते इति पाठ: । ३ - काप्रत्योः '- णिजराभावोवद्विदिश्रणुभागाणं', श्राप्रतौ 'णिजराभावो व दिअणुभागाणं', ताप्रतौ 'णिजराभावो वट्टिदश्रणुभागाणं' इति पाठः । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १६३. जस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६३ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया ॥ १६४ ॥ कुदो ? जहण्णदव्वेण एगसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागेण जहण्णभावआउअदव्वे भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलंभादो । कुदो असंखेज्जरूवोवलद्धी ? जहण्णभावाउअदवम्मि बंधगद्धासंखेज्जदिमागमेत्तसमयपवद्धाणमुवलंभादो। तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६५ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहपणा वा। जहण्णादो अजहण्णा चउठाणपदिदा ॥ १६६॥ जदि मज्झिमपरिणामेहि तिरिक्खाउअं बंधिय जहण्णक्खेत्तं करेदि तो भावेण सह खत्तं पि जहण्णं चेव । अध' मज्झिमपरिणामेहि आउअंबंधिय जहण्णक्खेत्तं ण जिस जीवके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१६३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १६४ ॥ कारण कि एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य द्रव्यका जघन्य भाव युक्त आयुके द्रव्यमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं । शंका-असंख्यात रूप कैसे प्राप्त होते हैं। समाधान-क्योंकि जघन्य भाव युक्त आयुके द्रव्यमें बन्धक कालके असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्ध पाये जाते हैं, अतएव असंख्यात रूप पाये जाते हैं। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य चार स्थानों में पतित है॥१६६ ॥ यदि मध्यम परिणामोंके द्वारा तियच आयुको बाँधकर जघन्य क्षेत्रको करता है तो भावके साथ क्षेत्र भी जघन्य ही होता है। परन्तु यदि मध्यम परिणामोंके द्वारा आयुको बाँधकर जघन्य १ अ-प्रा-काप्रतिषु 'अयं' इति पाठः। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १७१ ] वेयणसणियासविहाणाणियोगदारं [ ४३३ करेदि तो भावो जहण्णो होद्ण खेत्तवेयणा अजहण्णा होदि । होता वि चउट्ठाणपदिदा, खेत्तम्हि असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्ज भागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणबड्डीओ मोत्तूण अण्णव डीणमभावादो । तस कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६७ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया ॥ १६८॥ कुदो ? जहण्णकालेण जहण्णभावकाले भागे हिदे अंतोमुहुत्तमे त्तगुणगारुवलंभादो । जस्स णामवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया ॥ १७० ॥ कुदो ? णामजदृण्णखेत्तेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमे तेण अजोगिचरिमसमयजहण्णदव्वज हण्णखेत्ते संखेज्जंगुलमेते भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो । तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७१ ॥ सुगमं । क्षेत्रको नहीं करता है तो उसके भावके जघन्य होते हुए भी क्षेत्र वेदना अजघन्य होती है । अजघन्य होकर भी वह चार स्थानों में पतित है, क्योंकि क्षेत्रमें असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिको छोड़कर अन्य वृद्धियोंका अभाव है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १६७ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। १६८ ।। कारण कि जघन्य कालका जघन्य भाव सम्बन्धी कालमें भाग देनेपर अन्तर्मुहूर्त मात्र गुणकार पाया जाता है । जिस जीवके नामकर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १६९ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १७० ॥ कारण कि नामकर्म सम्बन्धी अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य क्षेत्रका अयोग केवली के अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यके संख्यात अंगुल प्रमाण जघन्य क्षेत्र में भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७१ ॥ यह सूत्र सुगम है । छ. १२-५५ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १७२. जहण्णा ॥ १७२ ॥ तत्थ जहण्णदव्वम्मि एगसमयट्ठिदि मोत्तूण 'अण्णहिदीणमभावादो। तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७३ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १७४॥ कुदो ? सव्वविसुद्धण सुहुमणिगोदेण हदसमुप्पत्तियं कादूण उप्पाइदणामजहण्णाणुभागं पेक्खिय सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्धण बद्धजसकित्तिउक्कस्साणुभागस्स सुहुत्तादो घादवज्जियस्स' अणंतगणत्तुवलंभादो। जस्स णामवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१७५ ॥ सुगम । णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा ॥ १७६ ॥ तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण जदि तिचरिमभवे सुहुमेइंदिएसु उप्पज्जिय जहण्णखेत्तं कदं होदि तो दव्बमसंखेज्जभागब्भहियं, एकम्हि मणुस्सभवे संजम वह जघन्य होती है ॥ १७२ ॥ कारण कि वहाँ जघन्य द्रव्यमें एक समय मात्र स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंका अभाव है। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १७४ ॥ कारण यह कि सर्वविशुद्ध सूक्ष्म निगोद जीवके द्वारा हतसमुत्पत्ति करके उत्पन्न कराये गये नाम कर्मके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके द्वारा बाघे गये यश कीर्ति के उत्कृष्ट अनुभागके शुभ होनेसे चूंकि उसका घात होता नहीं है, अत एव वह उससे अनन्तगुणा पाया जाता है। जिसके नाम कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ १७६ ॥ वह इस प्रकारसे-क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके यदि त्रिचरम भवमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर जघन्य क्षेत्र किया गया है तो द्रव्य असंख्यातवें भागसे अधिक होता है, १ अ-कापत्योः 'अण्णे' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'वडीयस्स', ताप्रती वड्डियन्स' इति पाठः । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १८०.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४३५ गुणसेडीए विणासिज्जमाणअसंखेजसमयपबद्धाणमेत्थुवलंभादो। पुणो एदस्स दव्व. स्सुवरि परमाणुत्तरकमेण चड्ढावेदव्वं जाव जहण्णदव्यमुक्कस्ससंखज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तं वड्डिदे त्ति । ताधे दव्वं संखेज्जभागमहियं होदि । एवं संखेज्जगुणब्भहियअसंखेज्जगुणब्भहियत्तं च जाणिदण परूवेदव्वं । तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७७॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया ॥ १७८॥ कुदो ? ओघजहण्णकालमेगसमयं पेक्खिदूण खेत्त-दव्व-कालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेणूणसागरोवमवेसत्तभागस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७६ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा। जहण्णादो अजहण्णा छट्ठाणपदिदा ॥ १८०॥ जदि जहण्णोगाहणाए द्विदजीवेण मज्झिमपरिणामेहि णामभावो बद्धो' तो खेत्तेण क्योंकि, यहाँ एक मनुष्य भवमें संयम गुणश्रणि द्वारा नष्ट किये जानेवाले असंख्यात समयप्रबद्ध पाये जाते हैं । फिर इस द्रव्यके ऊपर परमाणु अधिकके क्रमसे जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें एक खण्ड मात्रकी वृद्धि हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। उस समय द्रव्य संख्यातवें भागसे अधिक होता है। इसी प्रकारसे संख्यातगुणी अधिकता और असंख्यातगुणी अधिकताकी भी जानकर प्ररूपणा करनी चाहिये। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७७ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १७८ ।। कारण कि एक समय प्रमाण ओघ जघन्य कालकी अपेक्षा क्षेत्र व द्रव्य सम्बन्धी जो काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागेरापमके सात भागोंमेंसे दो भाग प्रमाण है वह असंख्यातगुणा पाया जाता है। उसके भावको अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानोंमें पतित होती है ॥ १८० ॥ यदि जघन्य अवगाहनामें स्थित जीवके द्वारा मध्यम परिणामोंसे नामकर्मका अनुभाग १ अ-आ-काप्रतिषु 'बंधो' इति पाठः। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] ariडागमे वेषणाखंड [४, २, १३, १८१. सह भावो वि जहण्णो होदि । [ अह ] अजहण्णो बद्धो तो तस्स भाववेपणा अजहण्णा' 'साच अनंतभागन्महिय असंखेज्जभागव्भहिय-संखेज्जभागन्भहिय-संखेज्जगुणन्भहिय- असंखेज्जगुणग्भहिय- अनंतगुणन्भहियत्तेण छट्टा णपदिदा | जस्स णामवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदी किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८१ ॥ गमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाण - पदिदा ॥ १८२ ॥ खविदकम्मं सियलक्खणेण सुद्धणयविसएण परिणदेण जीवेण अजो गिचरिमसमए जदि पदेसो जहणो कदो तो कालेण सह दव्वं पि जहण्णं होदि । अह अण्णा तो दव्वम जहण्णं; जहण्णकारणाभावादा' । होतं पि पंचट्ठाणपदिदं परमाणुचरादिकमेण निरंतरं असंखेज्जगुणवड्डीए दव्वस्स पज्जवसाणुवलंभादो । तस्स खेतो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८३ ॥ सुगमं । बाँधा गया है तो क्षेत्रके साथ भाव भी जघन्य होता है । [ परन्तु यदि उक्त जीवके द्वारा नाम कर्मका अनुभाग ] अजघन्य बाँधा गया है तो भाववेदना अजघन्य होती है। उक्त अजघन्य भाव वेदना अनन्तभाग अधिक, असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगुण अधिक, असंख्यातगुण अधिक और अनन्तगुण अधिक स्वरूप से छह स्थानों में पतित है । जिस जीवके नाम कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८९ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानों में पतित है ॥ १८२ ॥ शुद्ध नयके विषयभूत क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे परिणत जीवके द्वारा यदि अयोगकेवली के अन्तिम समय में प्रदेश जघन्य कर दिया गया है तो कालके साथ द्रव्य भी जघन्य होता है । परन्तु यदि ऐसा नहीं किया गया है तो द्रव्य अजघन्य होता है, क्योंकि, उक्त अवस्था में उसके जघन्य होने का कोई कारण नहीं है । अजघन्य होकर भी वह पाँच स्थानोंमें पतित होता है, क्योंकि, उत्तरोत्तर परमाणु अधिक आदिके क्रमसे निरन्तर जाकर असंख्यातगुणवृद्धि में द्रव्यका अन्त पाया जाता है । उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८३॥ यह सूत्र सुगम है । १ ताप्रतौ 'भाववेयणा जहण्णा इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'कारणभावादो' इति पाठः । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणसविणयासविहाणाणियोगद्दारं णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ १८४ ॥ कुदो ? जहण्णखेत्तेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागपमाणेण अजोगिजहण्णखेत्ते संखेज्जघणंगुलमेत्ते भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलंभादो | तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणग्भहिया ॥ १८६॥ कुदो ? मज्झिमपरिण | मेहि कदणाम जहण्णभावं पेक्खिदूण सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्वेण बद्धजसगित्तिउक्कस्साणुभागस्स सुहभावेण घादवज्जियस्स अजोगिचरिमसमए अवदिस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो । जस्स णामवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ? ॥ १८७ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा चउट्ठाणपदिदा ॥ १८८ ॥ ४, २, १३, १८.] खविदकम्मंसियलक्खणेणागदेण तिचरिमभवे जदि भावो मज्झिमपरिणामेण बंधिय हदसमुप्पत्तियं काढूण जहण्णो कदो [ तो ] तत्थ दव्वमसंखेज्जभागव्महियं होदि, वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १८४ ॥ कारण कि अंगुल असंख्यातवें भाग प्रमाण जवन्य क्षेत्रका संख्यात घनांगुल प्रमाण प्रयोगकेवली के जघन्य क्षेत्रमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं । उसके भावको अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १८५ ।। यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १८६ ॥ कारण कि मध्यम परिणामोंके द्वारा किये गये नामकर्मके जघन्य भावकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके द्वारा बाँधा गया यशःकीर्तिका उत्कृष्ट अनुभाग शुभ होने के कारण घातसे रहित होकर अयोगिकेवली के अन्तिम समय में स्थित अनन्तगुणा पाया जाता है । जिस जीवके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८७ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ।। १८८ ॥ [ ४३७ कारण यह कि क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आये हुए जीवके द्वारा त्रिचरम भवमें मध्यम परिणाम से बाँध कर हतसमुत्पत्ति करके यदि भाव जघन्य किया गया है तो वहाँपर द्रव्य असंख्यातवें Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, १३, १८९. अगलिदासंखेज्जसमयपबद्धत्तादो। उवरि परमाणुत्तरादिकमेण चत्तारि वि वड्डीओ परूवेदव्वाओ। तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८६ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा चदुट्ठाणपदिदा ॥ १६॥ जदि जहण्णभावसहिदजीवेण जहण्णमावद्धाए चेव अच्छिदण खेत्तं पि जहण्णं कदं होदि तो भावेण सह खेत्तवेयणा वि जहण्णा । अह ण जहणं कदं तो' अजहण्णा .च चदुट्ठाणपदिदा, तत्थ पदेसुत्तरादिकमेण खेत्तस्स चत्तारिवड्डिसंभवादो । उप्पण्णतदियसमयखेत्तं पदेसुत्तरादिकमेण तप्पाओग्गअसंखेज्जगुणवड्डिमुवगयचउत्थसमयजहण्णखेत्तण सरिसं होदि । कुदो ? चउत्थादिसु समएसु ओगाहणाए एयंताणुवड्डिजोगवसेण असंखेज्जगुणवड्डिदसणादो । एवं खेत्तवड्डी कायव्वा जाव जहण्णमावेण अविरुद्ध उक्कस्सखेत्तं जादं ति । तस्स कालदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१६१ ॥ सुगम। भागसे अधिक होता है, क्योंकि, वहाँ असंख्यात समयप्रबद्ध अगलित हैं। आगे परमाणु अधिक आदिके क्रमसे चारों ही वृद्धियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८६ ।। यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य चार स्थानों में पतित होती है ॥ १९०॥ यदि जघन्य भाव सहित जीवके द्वारा जघन्य भावके काल में ही रह करके क्षेत्रको भी जघन्य कर लिया गया है तो भावके साथ क्षेत्रवेदना भी जघन्य होती है। परन्तु यदि क्षेत्रको जघन्य नहीं किया गया है तो वह अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है, क्योंकि, वहाँ उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे क्षेत्रके चारवृद्धियाँ सम्भव हैं। उत्पन्न होनेके तृतीय समयका क्षेत्र प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे उसके योग्य असंख्यातगुणवृद्धिको प्राप्त हुए चतुर्थ समय सम्बन्धी जघन्य क्षेत्रके सदृश होता है, क्योंकि, चतुर्थादिक समयोंमें एकान्तानुवृद्धियोगके वशसे अवगाहनामें असंख्यातगुणवृद्धि देखी जाती है। इस प्रकार जघन्य भावसे अविरुद्ध उत्कृष्ट क्षेत्रके होने तक क्षेत्रकी वृद्धि करनी चाहिये। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-आ-काप्रतिषु 'जहण्णा जहण्णकदं तो', ताप्रती जहण्णा जहण्णकदंतो' इति पाठः। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, १६७.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४३६ णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया ॥ १६२॥ कुदो ? ओघजहण्णकालेण एगसमएण जहण्णभावकाले भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेणणसोगरोवमबेसत्तभागुवलंभादो । जस्स गोदवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्त खेत्तदो किं जहण्णा अजहणणा॥ १६३ ॥ सुगम। णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया ॥ १६४॥ कुदो ? ओघजहण्णखेत्तेण' अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण संखेज्जंगुलमेत्त. अजोगिकेवलिजहण्णोगाहणाए ओवट्टिदाए असंखेज्जरूवोवलंभादो। तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६५ ।। सुगमं । जहण्णा ॥ १६६॥ कुदो १ जहण्णदव्वस्स एगसमयावट्ठाणदंसणादो। तस्स भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१६७ ॥ सुगम। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥१९२॥ कारण कि एक समय रूप ओघ जघन्य कालका जघन्य भावकालमें भाग देनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे दो भाग पाये जाते हैं। जिस जीवके गोत्रकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १९३ ॥ यह सूत्र सुगम है। नियमसे वह अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥१९४॥ कारण कि अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण ओघजघन्य क्षेत्रका संख्यात धनांगुल प्रमाण अयोगकेवलीकी जघन्य अवगाहनामें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१९॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य होती है ॥ १६६ ॥ क्योंकि, जघन्य द्रव्यका एक समय अवस्थान देखा जाता है। उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १९७ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ श्र-श्रा-काप्रतिषु 'कुदो अजहण्णाखेतेण', ताप्रती अजहण्णा ? खेतेण' इति पाठः। ... Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड लियमा अजहण्णा अनंतगुणन्भहिया ॥ १६८ ॥ कुदो सकस विसोहीए हदसमुप्पत्तियं काढूण उत्पादजहण्णाणुभागं पेक्खिय सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्वेण बद्धुच्चा गोदुकस्साणुभागस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो | गोदजहण्णाणुभागे वि उच्चागोदाणुभागो अस्थि' त्ति णासंकणिज्जं, बादरते उकाइएस पलि दोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण उच्वेल्लिउच्चागोदेसु अइविसोहीए घादिदणीचागोदे गोदस्स जहण्णाणुभागब्भुवगमादो । जस्स गोदवेणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा चउद्वाणपदिदा ॥ २०० ॥ एत्थ जहा णामदव्वस्स चउडाणपदिदत्तं परूविदं तहा परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २०१ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ [ ४,२, १३, १६८. वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १९८ ॥ कारण कि सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा हतसमुत्पत्तिको करके उत्पन्न कराये गये जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके द्वारा बाँधा गया उच्च गोत्रका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है । २०२ ॥ शङ्का - गोत्र के जघन्य अनुभाग में भी उच्चगोत्रका जघन्य अनुभाग होता है ? समाधान - ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, जिन्होंने पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र कालके द्वारा उच्चगोत्रका उद्वेलन किया है व जिन्होंने अतिशय विशुद्धिके द्वारा नीचगोत्रका घात कर लिया है उन बादर तेजस्काइक जीवों में गोत्रका जघन्य अनुभाग स्वीकार किया गया है । अतएव गोत्रके जघन्य अनुभाग में उच्चगोत्रका अनुभाग सम्भव नहीं है । जिस जीवके क्षेत्रकी अपेक्षा गोत्रकी वेदना जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१९९॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ २०० ॥ यहाँ जिस प्रकार से नामकर्मसम्बन्धी द्रव्यके चार स्थानों में पतित होनेकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से गोत्र के विषय में भी उक्त प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २०१ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। २०२ ॥ १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ श्रा-का-ताप्रतिषु 'गोदजहण्णाणुभागो श्रत्थि' इति पाठः । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २०५. J वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [ ४४१ कुदो ? ओघजहण्णकालेण एगसमएण जहण्णखेत्तकाले भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणसागरोवमबेसत्तभागुवलंभादो।। तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२०३ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ २०४॥ बादरतेउ-वाउक्काइएसु उक्कस्सविसोहीए घादिदणीचागोदाणुभागेसु गोदाणुभोगं जहणं करिय तेण जहण्णाणुमागेण सह उजुगदीए सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जिय तिममयाहार-तिसमयतब्भवत्थस्स खत्तेण सह भावो जहण्णओ किण्ण जायदे ? ण, बादरतेउवाउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहण्णाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो। जदि अण्णत्थ उपज्जदि तो णियमा अर्णतगुणवड्डीए वड्विदो चेव' उप्पज्जदि ण अण्णहा। कधमेदं णव्वदे ? जहण्णखेत वेयणाए भाववेयणा णियमा अणंतगुणा त्ति सुत्तवयणादो। जस्स गोदवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहपणा अजहण्णा ॥ २०५ ॥ क्योंकि, एक समय रूप ओघ जघन्य कालका जघन्य क्षेत्रके कालमें भाग देनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे दो भाग पाये जाते हैं । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२०३॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥२०४॥ शङ्का-जिन्होंने उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा नीचगोत्रके अनुभागका घात कर लिया है उन बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंमें गोत्रके अनुभागको जघन्य करके उस जघन्य अनुभागके साथ ऋजुगतिके द्वारा सूक्ष्म निगोद जीवोंमें उत्पन्न होकर त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान उसके क्षेत्रके साथ भाव जघन्य क्यों नहीं होना है? समाधान-नहीं, क्योंकि, बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभागके साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। यदि वह अन्य जीवोंमें उत्पन्न होता है तो नियमसे वह अनन्तगुणवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकारसे नहीं। शका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान-वह “जघन्य क्षेत्रवेदनाके साथ भाववेदना नियमसे अनन्तगुणी होती है" इस सूत्रवचनसे जाना जाता है। जिस जीवके गोत्रकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके वह क्या द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २०५ ॥ १ श्र-श्रा-काप्रतिषु 'वड्डिदो ण चेव'; तापतौ 'वट्टिदो [ ण ] चेव' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'जहण्णक्खेत्त' इति पाठः। छ, १२-५६ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाण - पदिदा ॥ २०६ ॥ जदि खविदकम्मं सिय लक्खणेणागदेण' अजोगिचरिमसमए कालो जहण्णो कदो तो काळेण सह दव्वं पि जहणणं होदि । अह जइ अण्णहा आगदो तो पंचट्ठाणपदिदा, परमाणुत्तरकमेण चत्तारिपुरिसे अस्सिदूण तस्थ पंचवडिदंसणादो । तासि परूवणा जाणिय कायव्वा । तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २०७ ॥ सुगमं । [ ४, २, १३, २०६. णियमा अण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया ॥ २०८ ॥ कुदो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णोगाहणाए संखेज्जंगुल मेत्तअजोगिजहणखेत्ते भागे हिदे वि असंखेज्जरूवोवलंमादो । तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २०६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणन्भहिया ॥ २१० ॥ यह सूत्र सुगम है । वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । जघन्य की अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानों में पतित है ॥ २०६ ॥ यदि क्षतिकर्माशिक स्वरूपसे आये हुए जीवके द्वारा आयोगकेवली के अन्तिम समयमें काल जघन्य किया गया है तो काल के साथ द्रव्य भी जघन्य होता है परन्तु यदि वह अन्य स्वरूपसे आया है तो उक्त वेदना पाँच स्थानों में पतित होती है, क्योंकि, चार पुरुषोंका आश्रय करके वहाँ परमाणु अधिकता के क्रमसे पाँच वृद्धियाँ देखी जाती हैं। उन वृद्धियों की प्ररूपणा जानकर करनी चाहिये उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २०७ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी होती है ।। २०८ ॥ कारण कि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अवगाहनाका संख्यात घनांगुलां प्रमाण अयोगकेवली के जघन्य क्षेत्रमें भाग देनेपर भी असंख्यात रूप पाये जाते हैं । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २०९॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ।। २१० ॥ १ अ या काप्रतिषु ' - लक्खणेणगदेण' इति पाठः । २ श्राकाप्रतिषु 'कालदो' इति पाठः । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २१४. ] arrafoणयासविहाणाणियोगद्दारं [ ४४३ कुदो ! बादरते- वाउक्काइय पज्जत्त जहण्णाणु मागं पेक्खिदूण सव्वविसुद्वेण सुहुमसांपराइएण बद्धच्चागोदुकस्साणुभागस्स अनंतगुणत्तुचलंभादो । जस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २११ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा चउट्ठाण दिदा ।। २१२ ॥ तप्पा ओग्ग' खविदकम्मं सियजहण्णदन्त्रमादिं कारण चत्त रिपुरिसे अस्सिदृण दव्वस्स चउट्ठाणपदिदत्तं परूवेदव्वं । तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २१३॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ २१४॥ कुदो ? तिसमयआहार-तिसमयतब्भत्थमुहुमणिगोदजहण्णोगाहणं पेक्खिदूण जहण्णभावसामिवादरते उ वाउपज्जत्तओगाहणाए असंखेज्जगुणत्तदंसणादो | ण च सुहुमोगाहणार बादरोगाहणा सरिसा ऊणा वा होदि किं तु असंखेज्जगुणा चेव होदि । कुदो एदं वदे ? ओगाहणादंडयसुत्तादो । कारण यह कि बादर तेजकायिक व बादर वायुकार्यिक पर्याप्तकों में हुए जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक संयत के द्वारा बाँधा गया उच्च गोत्रका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है । जिस जीवके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २११ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ।। २१२ ।। तत्प्रायोग्य क्षपितकर्माशिक जीवके जघन्य द्रव्यसे लेकर चार पुरुषोंका आश्रय करके द्रव्यके चारस्थानों में पतित होनेकी प्ररूपणा करनी चाहिये । उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २१३ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। २१४ ॥ कारण कि त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समय में वर्तमान सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना की अपेक्षा जघन्य भावके स्वामिभूत बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिक पर्याप्तकी अवगाहना असंख्यातगुणी देखी जाती है । बादर जीवकी अवगाहना सूक्ष्म जीवकी अवगाहना के बराबर या उससे हीन नहीं होती है, किन्तु वह उससे असंख्यातगुणी ही होती है । १ - श्राकाप्रतिषु 'तप्पाश्रोग्गा-' इति पाठः । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४,२, १३, २१५. तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २१५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥२१६॥ एदं पि सुगमं । एवं जहण्णए सत्थाणवेयणासण्णियासे समत्ते सत्थाणवेयणसण्णियासो परिसमत्तो। जो सोपरत्थाणवेयणसण्णियासो सो दुविहो-जहण्णओ परत्थाणवेयणसणियासो चेव उकस्सओ परत्थाणवेयणसण्णियासो चेव ॥२१७॥ एवं परत्थाणवेयणसण्णियासो दुविहो चेव होदि, अण्णस्स असंभवादो । जहण्णुकस्ससंजोगेण तिविहो किण्ण जायदे ? ण, दोहितो वदिरित्तसंजोगाभावादो। [ण] अणुभयपक्खो वि, तस्स सससिंगसमाणत्तादो। जो सो जहण्णओ' परत्थाणवेयणसपिणयासो सो थप्पो॥२१८॥ अहिययअणाणुपुग्वित्तादो। 'सा किमट्ठमेत्थ विवक्खिज्जदे ? तम्हि अवगदे सुहेण जहण्णओ परत्थाणवेयणसण्णियासो अवगम्मदि त्ति । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह अल्पबहुत्वदण्डक सूत्र से जाना जाता है। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २१५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २१६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार जघन्य स्वस्थान वेदना संनिकर्ष समाप्त होनेपर स्वथान वेदना संनिकर्ष समाप्त हुआ । जो वह परस्थान वेदनासंनिकर्ष है वह दो प्रकारका है-जघन्य परस्थान वेदना संनिकर्ष और उत्कृष्ट परस्थान वेदना संनिकर्ष ॥ २१७ ॥ इस प्रकारसे परस्थान वेदना संनिकर्ष दो प्रकारका ही है,क्योंकि, और अन्यकी सम्भावना नहीं हैं। शंका-जघन्य और उत्कृष्टके संयोगसे वह तीन प्रकारका क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, दोनोंसे भिन्न संयोगका अभाव है। अनुभय पक्ष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह खरगोश के सींगोंके समान असम्भव है। जो वह जघन्य परस्थान वेदनासंनिकर्ष है वह अभी स्थगित रखा जाता है।।२१८॥ कारण कि यहाँ आनुपूर्वीका अधिकार नहीं है। शंका-उसकी यहाँ विवक्षा किसलिये की जा रही है ? समाधान-उत्कृष्ट परस्थानवेदना संनिकर्षका ज्ञान हो जानेपर चूंकि जघन्य परस्थानवेदना संनिकर्ष सुखपूर्वक जाना जा सकता है, अतएव यहाँ उसकी विवक्षा की गई है। १ अ-काप्रत्योः 'जहण्णाश्रो' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'सो' इति पाठः। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २२१.] वेयणसणियासविहाणाणियोगदारं [४४५ जो सो उक्कस्सओ परत्थाणवेयणसपिणयासो सो चउविहोदव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि ॥ २१६ ॥ ____ एवं चउबिहो चेव, अण्णस्स अणुवलंभादो। एगसंजोग-दुसंजोग-तिसंजोग-चदुसंजोगेहि पण्णारस विहो किण्ण जायदे ? ण, संजोगस्स जचंतरीभूदस्स अणुवलंभादो । ण सव्वप्पणा' संजोगो, दोण्णमेगदरस्स अभावेण संजोगाभावप्पसंगादो । ण ऐगदेसेण, संजोगो, संजुत्तभावस्स अभावप्पसंगादो इयरत्थ वि संजोगाभावप्पसंगादो । तदो एदेण अहिप्पाएण चउव्विहो चेत्र उक्कस्सवेयणासण्णियासो त्ति सिद्धं । जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सा तस्स छण्णं कम्माणमाउववजाणं दव्वदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ २२० । सुगम । उकस्सा वा अणुकस्सा वा, उकस्सादो अणुकस्सा विट्ठाणपदिदा ॥ २२१ ॥ जो वह उत्कृष्ट परस्थानवेदनासंनिकर्ष है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकारका है ॥ २१९ ॥ इस प्रकार से वह चार प्रकारका ही है, क्योंकि, उनसे भिन्न और कोई भेद नहीं पाया जाता है। शंका-एकसंयोग, द्विसंयोग, त्रिसंयोग और चतुःसंयोगसे वह पन्द्रह प्रकारका क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनसे भिन्न जात्यन्तरीभूत संयोग पाया नहीं जाता। [ यदि वह पाया जाता है तो क्या सर्वात्मक स्वरूपसे अथवा एकदेश स्वरूपसे? 1 वह संयोग सर्वात्मक स्वरूपसे तो सम्भव है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारसे दोनोंमेंसे एकका अभाव हो जानेके कारण संयोगके ही अभावका प्रसंग आता है । एकदेश रूपसे भी वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर संयुक्तताके अभावका प्रसंग आता है, अथवा अन्यत्र भी संयोगके अभावका प्रसंग होना चाहिये। अतएव इस अभिप्रायसे चार प्रकारका ही उत्कृष्ट वेदनासंनिकर्ष है यह सिद्ध होता है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके आयुको छोड़कर शेष छह कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ।। २२० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट दो स्थानों में पतित है ॥ २२१ ॥ १ अ-काप्रत्योः ‘सम्बंपिणा', अापतौ 'सव्वंपिएग' इति पाठः । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, २२२. सुद्धणयविसयगुणिदकम्मंसियलक्खणेण' आगंतूण णेरइयचरिमसमए द्विदस्स दव्वं णाणावरणीयदव्वेण सह छण्णं कम्माणं दव्वं उक्कस्सयं होदि । अह णाणावरणीय दव्वस्स सुद्धणयविसयगुणिदकम्मसियो होद्ण जदि सेसकम्माणमसुद्धणयविसयगुणिदकम्मंसियो होदि तो तेसिं दव्ववेयणा अणुकस्सा । सा वि विट्ठाणपदिदा, अण्णस्सासंभवादो । एदं दवट्ठियणयसुत्तं । संपहि पज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि अणंतभागहीणा वा असंखेजभागहीणा वा॥ २२२॥ ___णाणावरणीयदव्वस्स उक्कस्ससंचयं कादूण जदि सेसं छकम्माणमेगपदेसूणुक्कस्ससंचयं करेदि तो तेसिं दव्ववेयणा अणुक्कस्सा होदण अणंतभागहीणा । को पडिभागो ? उक्कस्सदव्वं । दुपदेसूणस्स उक्कस्सदव्वस्स संचए कदे वि अणंतभागहीणा । को पडिभागो? उकस्सदव्वदुभागो । एवमेदेण कमेण अणंतभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव उक्कस्सदव्वमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमुक्कस्सदव्वादो परिहीणं ति । तत्तो पहुडि असंखेज्जभागहाणी होदण गच्छदि जाव उक्कस्सदव्यं तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंअसंखज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडेण परिहीणं ति । अहियं किण्ण झिज्जदे ? ण, गुणिदकम्मंसियम्मि उक्कस्सेण जदि खो होदि तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति शुद्धनयके विषयभूत गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आकर नारक भवके अन्तिम समयमें स्थित जीवके ज्ञानावरणीयके द्रव्यके साथ छह कर्मों का द्रव्य उत्कृष्ट होता है। परन्तु ज्ञानावरणीय द्रव्यका शुद्धनयका विषयभूत गुणितकर्माशिक होकर यदि शेष कर्मोंका अशुद्धनयका विषयभूत गुणितकर्माशिक होता है तो उनकी द्रव्यवेदना अनुत्कृष्ट होतो है । वह भी द्विस्थानपतित है, क्योंकि, यहाँ अन्य स्थानकी सम्भावना नहीं है। यह द्रव्यार्थिकनयका आश्रय करनेवाला सूत्र है। अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थ आगेका सूत्र कहते हैं-- अनन्तभागहीन अथवा असंख्यातभागहीन होती है ॥ २२२ ॥ ज्ञानावरणीय द्रव्यका उत्कृष्ट संचय करके यदि शेष छह कर्मोंका एक प्रदेशहीन उत्कृष्ट सञ्चय करता है तो उनकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट होकर अनन्तभागहीन होती है। प्रतिभाग क्या है ? उत्कृष्ट द्रव्य प्रतिभाग है। दो प्रदेशोंसे होन उत्कृष्ट द्रव्यका सञ्चय करनेपर ग हीन होती है। प्रतिभाग क्या है ? उत्कृष्ट द्रव्यका द्वितीय भाग प्रतिभाग है। इस प्रकार इस क्रमसे अनन्तभागहानि होकर तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे हीन होता है। वहाँ से लेकर उत्कृष्ट द्रव्यको तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे हीन होने तक असंख्यातभागहानि होकर जाती है। शंका-अधिक हीन क्यों नहीं होता ? समाधान-नहीं, क्योंकि, गुणितकौशिक जीवमें उत्कृष्टरूपसे यदि क्षय होता है तो एक १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'लक्खणे', ताप्रतौ'लक्खणे [ण]' इति पाठः । २ तापतौ [दव्यं] इत्येवंविधोऽत्र पाठः। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २२५.] . वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४४७ गुरुवदेसादो । तम्हा दो चेव हाणीयो गुणिदकम्मंसिए होति ति सिद्धं । तस्स आउअवेयणा दव्वदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २२३॥ सुगम । णियमा अणुकस्सा असंखेजगुणहीणा ॥॥२२४ ॥ कुदो ? गुणिदकम्मंसियचरिमसमयणेरइयआउअदव्यं एगसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागो, दिवड्डगुणहाणिगुणिदअण्णोण्णब्भत्थरासिणा बंधगद्धामेत्तसमयपबद्धेसु ओवट्टिदेसु एगसमयपबद्धस्स असंखेज्जभागुवलंभादो' । आउअस्स उकस्सदव्वं पुण 'बेउक्कस्सबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धा । तेण सगउकस्सदव्वं पेक्खिदूण गुणिदकम्मंसियआउअदब्ववेयणा असंखेज्जगुणहीणा । जदि वि आउअदबम्मि परभवियम्मि असंखज्जाओ गुणहाणीयो ण गलंति तो वि णाणावरणीयादिसत्तकम्मं गुणिदकम्मसिए आउअदव्वस्स असंखेज्जगुणहीणमेव, जदा जदा आउअंबंधदि तदा नदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधदि त्ति सुत्तवयणादो। एवं छण्णं कम्माणमाउववजाणं ॥ २२५ ॥ जहा णाणावरणीयस्स परूवणा कदा तहा छण्णं कम्माणं कायव्या, विसेसाभावादो। समयप्रबद्धका ही क्षय होता है; ऐसा गुरुका उपदेश है। इस कारण गुणितकर्माशिक जीवमें दो ही हानियाँ होती हैं, यह सिद्ध होता है। उसके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुस्कृष्ट ॥ २२३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ २२४ ॥ कारण यह कि गणितकर्माशिक चरम समयवर्ती नारकीका प्रायव्य एक समयप्रबदके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है, क्योंकि, डेढ़ गुणहानियोंसे गुणित अन्योन्याभ्यस्त राशि द्वारा बन्धककाल प्रमाण समयप्रबद्धोंके अपवर्तित करनेपर एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है। परन्तु आयु कर्मका उत्कृष्ट द्रव्य दो उत्कृष्ट बन्धककाल प्रमाण समयबद्धों के बराबर है। इसलिये अपने उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा गुणितकौशिक जीवके आयु द्रव्यकी वेदना असंख्यातगुणी हीन होती है। यद्यपि परभव सम्बन्धी आयु कर्म के द्रव्यमें से असंख्यात गुणहानियाँ नहीं गलती हैं तो भी ज्ञानावरणादिक सात कर्म युक्त गुणितकौशिक जीवमें आयुका द्रव्य असंख्यातगुणा हीन ही होता है, क्योंकि, जब जब आयु कमको बाँधता है तब तब तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे बाँधता है, ऐसा सूत्र वचन है। इसी प्रकारसे आयुको छोड़ कर शेष छह कर्मोंकी प्ररूपणा है ।। २२५ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार छह कर्मों की प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। १ अ-श्रा काप्रतिषु 'असंखेजपाउवलंभादो', ताप्रती 'असंखेज्जा (भाग) उवलंभादो' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'पुण चेव उक्करस' इति माठः । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] छक्खंडागमे वेयणाखंडे [४, २, १३, २२६ जस्स आउअवेयणा दव्वदो उकस्सा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा दबदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २२६ ॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा चउठाणपदिदा ॥ २२७॥ तं जहा-गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीदो आगंतूण एग-दो-तिण्णिभवगहणाणि पंचिंदियतिरिक्खेसु भमिय पच्छा एइंदिएसु उववण्णो। एग-दो-तिण्णिभवग्गहणाणि त्ति किमढे तिण्णं पि णिदेसो कीरदे ? आइरियोवदेसबहुत्तजाणावणटुं । पुणो पुवकोडाउअतिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा आउअंबंधिय पुवकोडितिभागम्मि ठाइदूण पुणरवि जलचरेसु पुचकोडाउअंबंधिय तत्थुप्पज्जिय कदलीघादेण मुंजमाणाउअं धादिय उक्कस्सबंधगद्धाए उक्कस्सजोगेण च पुवकोडाउए पबद्ध आउअदव्यमुक्कस्सं होदि। सेससत्तकम्मदव्वं पुण उक्कस्सदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडेदण तत्थ एगखंडेण हीणं होदि । तदो प्पहुडि असंखेज्जभागहाणी होण गच्छदि जाव उक्कस्ससंखेज्जमुक्कस्सदव्वस्स हाणिआगमणटुं भागहारो जादो त्ति । तत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जभागहाणी होदि जाव उक्करसदव्वस्स हाणिआगमण8 दोरूवाणि भागहारो जादाणि त्ति । तदो प्पहुडि संखेज्जगुणहाणी होदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्सदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडमवसेसं ति । एत्तो पहुडि जिस जीवके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यको अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २२६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित है ॥ २२७ ॥ यथा-गुणितकांशिक जीव सातवीं पृथिवीसे आकर एक दो तीन भवग्रहण प्रमाण पंचेद्रिय जीवोंमें परिभ्रमण करके पीछे एकेन्द्रिय जीवोंमें उ पन्न हुआ। शंका -- 'एक दो तीन भवग्रहण प्रमाण' इस प्रकार तीनका भी निर्देश किसलिये किया जा रहा है ? समाधान उक्त निर्देश आचार्योपदेशके बहुत्वका ज्ञापन करानेके लिये किया गया है। पश्चात् पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले तिर्यंचों या मनुष्यों में आयुको बाँधकर पूर्वको टिके त्रिभागमें स्थित होकर फिरसे भी जलचर जीवों में पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बाँधकर उनमें उत्पन्न हो कदलोघातसे भुज्यमान आयुको घातकर उत्कृष्ट बन्धककालमें उत्कृष्ट योगके द्वारा पूर्वकोटि मात्र आयुके बाँधनेपर आयुका द्रव्य उत्कृष्ट होता है । परन्तु शेष सात कर्मोका द्रव्य उत्कृष्ट द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें एक खण्डसेहीन होता है। उससे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यकी हानिको लानेके लिए उत्कृष्ट संख्यातके भागहार होने तक असंख्यातभागहानि होकर जाती है। वहाँ से लेकर आगे उत्कृष्ट द्रव्यकी हानिको लानेके लिये दो अंक भागहार होनेतक संख्यातभागहानि होती है । यहाँ से लेकर जघन्य परीतासंख्यातसे उत्कृष्ट द्रव्यको खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डके शेष रहने तक संख्यात. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४४६ असंखेज्जगुणहाणी होदण गच्छदि जाव आउअउक्कस्सदव्याविरोहिखविदकम्मंसियजहण्णदव्वं ति । एवमाउए उक्कस्से जादे सेसकम्माणं चउट्ठाणपदिदत्तं सिद्धं । संपहि पज्जवट्ठियणयाणुग्गहÉ उत्तरसुत्तं भणदि असंखेजभागहीणा वा. संखेजभागहीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥ २२८॥ सुगमं। जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स दंसणावरणीयमोहणीय-अंतराइयवेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २२६ ।। सुगम । उकस्सा ॥२३०॥ णाणावरणेणेव सेसघादिकम्मे हि वि अद्भुट्टमरज्जुआयदं संखेज्जसूचीअंगुलवित्थारबाहल्लं सव्वं पि खेत्तं फोसिदं, सव्वकम्माणं वि जीवदुवारेण भेदाभावादो। तेण एकेकस्स घादिकम्मस्स उक्कस्सखेत्ते जादे सेसकम्माणं पि खेत्तमुक्कस्समेवे त्ति सिद्धं । तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥२३१॥ गुणहानि होती है। यहाँसे लेकर आयुकर्मके उत्कृष्ट द्रव्यके अविरोधी क्षपितकर्माशिकके जघन्य द्रव्य तक असंख्यातगुणहानि होकर जाती है । इस प्रकार आयुके उत्कृष्ट होनेपर शेष कर्म द्रव्य चार स्थानोंमें पतित है, यह सिद्ध होती है । अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थ आगेका सूत्र कहते हैं - वह असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीन होती है ।। २२८ ॥ यह सूत्र सुगम है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके . दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ॥ २२६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट होती है ॥ २३० ॥ ज्ञानावरणके समान ही शेष घाति कर्मों के द्वारा भी साढ़े तीन राजु आयत व संख्यात सच्यगल विस्तार एवं बाहल्यवाला सभी क्षेत्र स्पर्श किया गया है. क्योंकि. सभी कोंके जीव द्वारा कोई भेद नहीं है। इसीलिये एक एक घाति कर्मका उत्कृष्ट क्षेत्र होनेपर शेष कर्मोंका भी क्षेत्र उत्कृष्ट ही होता है, यह सिद्ध है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २३१।। १२-१७ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड । [२, ४, १३, २३२. सुगम । णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुणहीणा ॥ २३२ ॥ कुदो ? महामच्छुक्कस्सखेत्तेण घणलोगे भागे हिदे पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तगुणगारुवलंभादो। एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ २३३ ॥ जहा णाणावरणीयस्स परूवणा कदा तहा सेसतिण्णं घादिकम्माणं परूवणा कायव्वा, अविसेसादो। जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स णाणावरणीय-दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सिया णथि ॥२३४॥ कुदो १ घादिचउकस्स लोगपूरणकाले अभावादो । किमढे पुत्वमेव तदभावो' ? ण, सामावियादो । ण च सहावो परपज्जणियोगारिहो, विरोहादो । तस्सआउव-णामा-गोदवेयणाखेत्तदो किमुक्कस्साअणुकस्सा॥२३५॥ सुगर्म । यह सत्र सुग वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणीहीन होती है ॥ २३२॥ कारण यह कि महामत्स्यके उत्कृष्ट क्षेत्रका घनलोकमें भाग देनेपर प्रतरका असंख्यातवाँ भाग मात्र गुणकार पाया जाता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ २३३ ॥ जिस प्रकारसे ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे शेष तीन घाति कर्मों की प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट नहीं होती ॥ २३४॥ कारण कि लोकपूरणकालमें चारों घातिकर्मोंका अभाव है। शंका-उनका अभाव पहिले ही किसलिये हो जाता है? समाधान-नहीं, क्योंकि, ऐसा स्वभावसे होता है, और स्वभाव दूसरोंके प्रश्नके योग्य नहीं होता है; क्योंकि, उसमें विरोध है। उसके आयु, नाम और गोत्रकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २३५ ।। यह, सूत्र सुगम है। १ श्र-प्रा-काप्रतिषु 'तदाभावो' इति पाठः । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, ४, १३ वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदार [४५१ उक्कस्सा ॥ २३६ ॥ कुदो ? लोगे आरिदे जीवादो अभिष्णाणमेदेसि कम्माणं वेयणीयस्सेव 'सव्वलोगावट्ठाणुवलंमादो। एवमाउअ-णामा-गोदाणं ॥ २३७॥ जहा वेयणीए णिरुद्धे सेसकम्माणं परूवणा कदा तहा एदेसु वि तिसु कम्मेसु णिरुद्धसु परूवणा कायव्वा । जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो उकस्सा तस्स छण्णं कम्माणमाउअवज्जाणं वेयणा कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २३८ ॥ सुगमं । उकस्सा वा अणुकस्सा वा, उकस्सादो अणुकस्सा असंखेज्जभागहीणा ॥ २३६ ॥ णाणावरणीएण सह जदि सेसछकम्मेहि उक्कस्सद्विदी पवद्धा तो णाणावरणीएण सह सेसछकम्माणि वि डिदिं पडुच्च उकस्साणि चेव होति । जदि पुण विसेसपञ्चएहि सेसकम्माणि विगलाणि होति तो णाणावरणहिदीए उक्कस्सीए संतीए सेसकम्महिदी उत्कृष्ट होती है ॥ २३६ ॥ कारण कि लोकके पूर्ण होनेपर अर्थात् लोकपूरणसमुद्बातमें जीवसे अभिन्न इन काँका वेदनीयके ही समान सब लोकमें अवस्थान पाया जाता है । इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्रकी विवक्षामें भी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ २३७ ।। जिस प्रकारसे वेदनीय कर्मकी विवक्षामें शेष कर्मोकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे इन तीन कर्मोंकी विवक्षामें प्ररूपणा करनी चाहिये। जिसके ज्ञानावरणीयकी वेदना कालको अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके आयुको छोड़ शेष छह कर्मोंकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २३८ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यातमाग हीन होती है ।।२३९ ।। ज्ञानावरणीयके साथ यदि शेष छह कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधी गई है तो ज्ञानावरणीयके साथ शेष छह कर्म भी स्थितिकी अपेक्षा उत्कृष्ट ही होते है। परन्तु यदि विशेष प्रत्ययोंसे शेष कर्म विकल होते हैं तो ज्ञानावरणीयको स्थितिके उत्कृष्ट होनेपर शेष कर्मोकी स्थिति अनुत्कृष्ट होती है, १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सव्वा-' इति पाठः । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [२, ४, १३, २४०० अणुक्कस्सा होदि, विसेसपञ्चयविगलत्तणेण एगसमयमादि कादूण जाव पक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतद्विदीणं परिहाणिदंसणादो। परिहीणद्विदीणं को पडिभागो ? सादिरेयउक्कस्सोबाहा । कुदो ? उक्कस्सावाहाए उकस्सहिदीए खंडिदाए तत्थ एगखंडस्स रूवूणमेत्तस्स परिहाणिदंसणादो। उक्कस्सेण एत्तिया चेव हाणी होदि, अण्णहा आचाहाहागीए णाणावरणीयस्स वि उकस्सहिदीए अभावप्पसंगादो । तस्स आउववेयणा कालदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥२४०॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा, उकस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाण पदिदा ॥२४१ ॥ _णाणावरणीयहिदीए वक्कम्मियाए बज्झमाणियाए जदि आउअस्स वि पुव्वकोडितिभागपढमसमए उक्कस्सबंधो होदि तो णाणावरणीयट्ठिदीए सह आउहिदी वि उकस्सा होदि । अण्णहा अणुक्कस्सा होदूण चउहाणपदिदा होदि । तं जहा-णाणावरणीयस्स उक्कस्सटिदिं बंधमाणेण समऊणदुसमऊणादिकमेण पुवकोडितिभागाहियतेत्तीससागरोवमाणि उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेतं जाव परिहाइदूण आउए पबद्धे असंखेज्जभागहाणी होदि । तत्तो क्योंकि, विशेष प्रत्ययोंसे विकल होने के कारण एक समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितियोंकी हानि देखी जाती है। शंका-हीन स्थितियों का प्रतिभाग क्या है ? समाधान-उनका प्रतिभाग साधिक उत्कृष्ट आबाधा है, क्योंकि, उत्कृष्ट आबाधासे उत्कृष्ट स्थितिको खण्डित करनेपर उसमें एक कम एक खण्ड मात्रकी हानि देखी जाती है। उत्कृष्टसे इतनी मात्र ही हानि होती है, क्योंकि, अन्यथा आबाधाकी हानि होनेपर झाना. वरणीयकी भी उत्कृष्ट स्थितिके अभावका प्रसंग आता है। उसके आयुकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ।।२४०॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुष्ट भी। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित है ॥ २४१ ॥ ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बाँधते समय यदि आयुकर्मका भी पूर्वकोटिके त्रिभागके प्रथम समयमें उत्कृष्ट बन्ध होता है तो ज्ञानावरणीयकी स्थितिके साथ आयुकी स्थिति भी उत्कृष्ट होती है। इसके विपरीत वह अनुत्कृष्ट होकर चार स्थानों में पतित होती है। यथा-ज्ञानावरणोयकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके द्वारा एक समय कम दो समय कम इत्यादि क्रमसे पर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपमोको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उनमें एक खण्ड मात्र तक हीन होकर आयुके बाँधनेपर असंख्यातभागहानि होती है। वहांसे लेकर आयुकी Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, ४, १३, २४३.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं प्पहुडि आउअस्स संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव उक्कस्सद्विदीए दुभागबंधो ति । तत्तो प्पहुडि संखेज्जगुणहाणी होदि जाव णाणावरणीय उक्कस्सहिदीए सह आउअस्स उक्कस्सट्ठिदिं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तआउट्ठिदी' पबद्धा ति । तत्तो प्पहुडि असंखेज्जगुणहाणी होदण गच्छदि जाव तपाओग्गअंतोमुत्तमेत्तहिदि त्ति । कथं णाणावरणीयउकस्सटिदिपाओग्गपरिणामेहि आउअस्स चउट्ठाणपदिदो बंधो जायदे ? ण एस दोसो, णाणावरणीयउक्करसहिदिबंधपाओग्गपरिणामेसु वि अंतोमुहुत्तमेत्तआउद्विदिबंधपाओग्गपरिणामाणं संभवादो । कधमेगो परिणामो भिण्णकज्जकारओ ? ण, सहकारिकारणसंबंधभेएण तस्स तदविरोहादो।। एवं छण्णं कम्माणं आउववज्जाणं ॥२४२ ॥ जहा णाणावरणीए णिरुद्धे सेसकम्माणं सण्णियासो को तहा सेसछकम्माणमाउअवज्जाणं कायव्यं, विसेसाभावादो । जस्स आउअवेयणा कालदो उकस्सा तस्स सचण्णं कम्माणं वेयणा कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २४३ ॥ सुगमं । संख्यातभाग हानि होकर उत्कृष्ट स्थिति के द्वितीय भागका बन्ध होने तक जाती है। वहाँ से लेकर ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ आयुकी उत्कृष्ट स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड प्रमाण आयुकी स्थितिके बाँधने तक संख्यातगुणहानि होती है। वहाँ से लेकर तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति तक असंख्यातगुणहानि होकर जाती है। शंका-ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थिति योग्य परिणामोंके द्वारा आयु कर्मका चतुःस्थान पतित बन्ध कैसे होता है ? - समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध योग्य परिणामोंमें भी अन्तमुहूर्त मात्र आयुःस्थितिके बन्ध योग्य परिणाम सम्भव है। शंका-एक परिणाम भिन्न कार्योंको करनेवाला कैसे होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के सम्बन्धभेदसे उसके भिन्न कार्योंके करनेमें कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार शेष छह कर्मोको प्ररूपणा करनी चाहिये ।। २४२ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी विवक्षामें शेष कर्मों के संनिकर्षकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आयुको छोड़कर शेष छह कर्मों के संनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके आयुकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ! २४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-ताप्रत्योः 'श्राउहिदीए' इति पाठः। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४] B खंडागमे वेयणाखंड [ २, ४, १३, २४४. उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा उक्कस्सादो अणुक्कस्सा तिट्ठाण - पदिदा ॥ २४४ ॥ पुव्वकोडितिभागे उकस्साउट्ठिदिं बंधमाणेण जदि णाणावरणीयादिसत्तण्णं कम्मामुकसहिदी पद्धातो आउएण सह सेससत्तणं कम्माणं पि उक्कस्सट्ठिदी होदि । अण्णा अणुस्सा होण तिट्ठाणपदिदा होदि । पज्जवणयाणुग्गहट्ठमुत्तरमुत्तं भणदिअसंखेज्जभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा ॥ २४५ ॥ तं जहा - पुत्रको डितिभागम्मि उकस्साउअडिदिं बंधमाणेण सत्तण्णं कम्माणं समऊणुकसहिदीए बद्धाए असंखेज्जभागहाणी होदि । दुसमऊणाए पबद्धाए वि असंखेजभागहाणी व होदि । एवमसंखेज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव सत्तण्णं कम्माणं सग-सगुक सद्विदीओ उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदृण तत्थ एंगखंडेण' परिहाइदूण [बंधदि । ] दो पहुs मिट्ठदीसु आउअस्स उकस्सट्ठिदीए सह बंधमाणासु संखेज्जभागहाणी होदि जाव उक्कसहिदीए अद्धमेत्तं बद्धं ति । तदो पहुडि हेट्ठिमट्ठिदीओ आउअस्स उक्कसहिदी सह बंधमाणस्स संखेज्जगुणहाणी होदि जाव तप्पाओग्गअंतोकोडा कोडिद्विदिति । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट तीन स्थानों में पतित है ॥ २४४ ॥ पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके द्वारा यदि ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधी गई तो आयु के साथ शेष सात कर्मोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसके विपरीत वह अनुत्कृष्ट होकर तीन स्थानोंमें पतित होती है । अब पर्यापार्थिक नयके अनुग्रहार्थ गेका सूत्र कहते हैं उक्त वेदना असंख्य । तभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन होती है ।। २४५ ।। वह इस प्रकार से – पूर्वको टिके त्रिभागमें आयु की उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके द्वारा सात कर्मोकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बाँधे जानेपर असंख्यात भागहानि होती है । दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति के बाँधे जानेपर भी असंख्यात भागहानि ही होती है । इस प्रकार असंख्यात भागहानि होकर तब तक जाती है जब तक सात कर्मों की अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितियोंको उत्कृष्ट संख्या तसे 'खण्डित कर उनमें एक खण्डसे हीन होकर बाँधी जाती हैं । यहाँ से लेकर आयुकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ अधस्तन स्थितियोंको बाँधनेपर उत्कृष्ट स्थितिके अर्ध भागको बाँधने तक संख्यातभागहानि होती है । यहाँ से लेकर अधस्तन स्थितियोंको आयुकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ बाँधनेवाले जीवके तत्प्रायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति तक संख्यातगुणहानि होती है । १ प्रतिषु 'एगखंडे' इति पाठः । २ प्रतिषु 'बद्धमाणासु' इति पाठ: । ३ प्रतिषु 'ब्रद्धमाणस्स' इति पाठः । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, ४, १३, २४९.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४५५ जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उकस्सा तस्स दंसणावरणीयमोहणीय-अंतराइयवेयणा भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥२४६ ॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा, उक्कस्सादो अणुक्कस्सा छट्ठाणपदिदा ॥ २४७॥ णाणावरणीयभावमुक्कस्सं बंधमाणेण जदि सेसघादिकम्माणमुक्कस्समावो पबद्धो तो उकस्सा भाववेयणा होदि । अह ण' बद्धो अणुकस्सा होर्ण अणंतभागहीण-असंखेज्जभागहीण-संखेज्जमागहीण-संखेज्जगुणहीण-असंखेज्जगुणहीण-अणंतगुणहीणसरूवेण छट्ठाणपदिदा होदि । कधमेकेण परिणामेण बज्झमाणाणं भावाणं भेयो ? ण, विसेसपञ्चयभेएण तेसि पि भेदुप्पत्तीदो। तस्स वेयणीय-आउव-णामा-गोदवेयणा भावदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥२४८॥ सुगर्म । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २४६ ॥ जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २४६॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट छह स्थानों में पतित है ॥ २४७॥ ज्ञानावरणीयके उत्कृष्ट भावको बाँधनेवाले जीवके द्वारा यदि शेष घातिकर्मोंका उत्कृष्ट भाव बाँधा गया है तो उनकी उत्कृष्ट भाववेदना होती है। परन्तु यदि उनका उत्कृष्ट भाव नहीं बाँधा गया । वह अनुत्कृष्ट होकर अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन स्वरूपसे छह स्थानोंमें पतित होती है। शङ्का-एक परिणामसे बाँधे जानेवाले भावों के भेदकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, विशेष प्रत्ययोंके भेदसे उनके भी भेदकी उत्पत्ति सम्भव है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २४८ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ।। २४६ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'जहण्ण' इति पाठः । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [२, ४, १३, २५० तं जहा-सण्णिपंचिंदियपज्जत्तसव्यसंकिलिट्टमिच्छाइट्ठीसुणाणावरणीयभावो उक्कस्सो होदि । आउअभावो पुण पमत्तापमत्तसंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसाओ ति ताव उक्कस्सो होदि वेमाणियदेवेसु च । सेसअघादिकम्माणं सुहमसांपराइयसुद्धि संजदप्पहुडि उवरि उकस्समावो होदि । ण च मिच्छाइट्ठीसु अघादिकम्माणमुक्कस्सभावो अस्थि, सम्मोइट्ठीसु णिय मिदउक्कस्साणुभागस्स मिच्छाइट्ठीसु संभवविरोहादो । तेण अघादिकम्माणमणुभागो अणंतगुणहीणो। एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ २५० ॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो कदो तहा सेसतिण्णं घादिकम्माणं काययो, अविसेसादो। जस्स वेयणीयवेयणा भावदो उकस्सा तस्स णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयवेयणा भावदो सिया अस्थि सिया णस्थि ॥२५१ ॥ सुहुमसांपराइय-खीणकसाएसु अत्थि, तत्थ तदाधारपोग्गलुवलंभादो। उवरि णस्थि, तेसु संतेसु केवलितविरोहादो। जदि अत्थि भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २५२॥ वह इस प्रकारसे—संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त व सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ज्ञानावरणीयका भाव उत्कृष्ट होता है। परन्तु आयु कर्मका भाव प्रमत्त व अप्रमत्तसंयतसे लेकर उपशान्तकषाय तक उत्कृष्ट होता है, तथा वैमानिक देवोंमें भी वह उत्कृष्ट होता है। शेष तीन अघाति कर्मोका उत्कृष्ट भाव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतसे लेकर आगे होता है। मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अघाति कर्मोंका उत्कृष्ट भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवोंमें नियमसे पाये जानेवाले अघाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके मिथ्यादृष्टि जीवोंमें होनेका विरोध है । इस कारण अघाति कर्मोका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायके संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २५० ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकार शेष तीन घाति कर्मोंका संनिकर्ष करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदना भावकी अपेक्षा कथञ्चित् होती है व कथंचित् नहीं होती है ॥ २५१ ॥ उक्त तीन घाति कर्मोंकी वेदना सूक्ष्मसाम्परायिक और क्षीणकषाय गुणस्थानोंमें है, क्योंकि, वहाँ उनके आधारभूत पुद्गल पाये जाते हैं। आगे उनकी वेदना नहीं है, क्योंकि, उक्त तीन कर्मों के होनेपर केवली होनेका विरोध है। यदि है तो वह भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है या अनुत्कृष्ट ॥२५२॥ १ ताप्रतौ होदि । वेमाणियदेवेसु च सेस-' इति पाठः । ताप्रतौ ‘सापराइद्धि-' इति पाठः । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २५४ वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४५७ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २५३ ॥ अणुक्कस्सत्तमणेयविहमिदि' अणप्पिदाणुक्कस्सपडिसेहट्ठमणंतगुणहीणमिदि भणिदं । किमट्ठमणंतगुणहीणत्तं ? खवगपरिणामेहि पत्तघादत्तादो। तस्स मोहणीयवेयणा भावदो णत्थि ॥ २५४॥ सुहुमसांपराइयचरिमसमए वेयणीयस्स उक्कस्साणुभागबंधो जादो । ण च सुहुमसांपराइए मोहणीयभावो णत्थि, भावेण विणा दव्यकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुमसांपराइयमण्णाणुवत्तीदो वा । तम्हा मोहणीयवेयणा भावविसया णत्थि त्ति ण जुज्जदे ? एस्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा-विणासविसए दोणि णया होति उप्पादाणुच्छेदो अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि । तत्थ उप्पादाणुच्छेदो णाम दव्वट्टियो। तेण संतावत्थाए चेव विणासमिच्छदि, असंते बुद्धिविसयं चाइकंतभावेण वयणगोयराइकते अभावववहाराणुववत्तीदो। ण च अमावा णाम अत्थि, तप्परिच्छिदंतपमाणामावादो, संतविसयाणं यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ।। २५३॥ अनुत्कृष्टता चूँकि अनेक प्रकार की है, अतएव अविवक्षित अनुत्कृष्टताका प्रतिषेध करनेके लिये 'अनन्तगुणी हीन' ऐसा कहा है। शङ्का-अनन्तगुणहीनता किसलिये कही है ? समाधान-क्षपक परिणामों द्वारा घातको प्राप्त होनेके कारण वह अनन्तगुणी हीन होती है ऐसा कहा है। उक्त.जीवके मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा नहीं होती है ॥ २५४ ॥ शङ्का-सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें वेदनीयका अनुभागबन्ध उत्कृष्ट हो जाता है। परन्तु उस सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, भावके बिना द्रव्य कर्मके रहनेका विरोध है, अथवा वहाँ भावके माननेपर 'सूक्ष्मसाम्परायिका यह संज्ञा ही नहीं बनती है । इस कारण मोहनीयकी भावविषयक वेदना नहीं है, यह कहना उचित नहीं है? समाधान-यहाँ इस शङ्काका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है--विनाशके विषयमें दो नय हैं उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेदका अर्थ द्रव्यार्थिक नय है। इसलिये वह सद्भावकी अवस्थामें ही विनाशको स्वीकार करता है, क्योंकि, असत् और बुद्धिविषयतासे अतिक्रान्त होनेके कारण वचनके अविषयभूत पदार्थमें अभावका व्यवहार नहीं बन सकता। दूसरी बात यह है कि अभाव नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, क्योंकि, उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। कारण कि सत्को विषय करनेवाले प्रमाणोंके असत् में प्रवृत्त होनेका विरोध है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु '-मणेणविह' इति पाठः । २ मप्रतिपाठौऽयम् । अ-श्रा-का-ता प्रतिषु 'णयण' इति पाठः । ३ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सत्त' इति पाठः। ... छ. १२-५८ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८] छक्खंडागमे वेयणाखं [४, २, १३, २५५ पमाणाणमसंते वावारविरोहादो। अविरोहे वा गद्दहसिंग पि पमाणविसयं होज्ज । ण च एवं, अणुवलंभादो । तम्हा भावो चेव अभावो त्ति सिद्धं । अणुपादाणुच्छेदो णाम पज्जवडिओ गयो । तेण असंतावत्थाए अभावववएस. मिच्छदि, भावे उवलब्ममाणे अभावत्तविरोहादो। ण च पडिसेहविसओ भावो भावत्तमल्लियइ, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो । ण च विणासो पत्थि, 'घडियादीणं 'सव्वद्धमवट्ठाणाणुवलभादो । ण च भावो अभावो होदि, भावाभावाणमण्णोण्णविरूद्धाणमेयत्तविरोहादो । एत्थ जेण दव्वट्ठियणयो उप्पादाणुच्छेदो अवलंविदो तेण मोहणीयभाववेयणा णत्थि त्ति भणिदं । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे मोहणीयभाववेयणा अणंतगुणहीणा होदूण अस्थि त्ति वत्तव्वं । तस्स आउअवेयणा भावदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ २५५ ॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २५६ ॥ जेण आउअस्स उक्स्सभाववेयणा अप्पमत्तसंजदेण चद्धदेवाउअम्मि होदि । ण च अथवा, असत्के विषयमें उनकी प्रवृत्तिका विरोध न माननेपर गधेका सींग भी प्रमाणका विषय होना चाहिये। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता। इस कारण भाव स्वरूप ही अभाव है, यह सिद्ध होता है। अनुत्पादानुच्छेदका अर्थ पर्यायार्थिक नय है। इसी कारण वह असत् अवस्थामें अभाव संज्ञाको स्वीकार करता है, क्योंकि, इस नयकी दृष्टिमें भावकी उपलब्धि होनेपर अभावरूपताका विरोध है। और प्रतिषेधका विषयभूत भाव भावस्वरूपताको प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रतिषेधके निष्फल होनेका प्रसङ्ग आता है । विनाश नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि, घटिका ( छोटा घड़ा) आदिकोंका सर्वकाल अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि भाव ही अभाव है (भावको छोड़कर तुच्छ अभाव नहीं है) तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, भाव और अभाव ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव उनके एक होनेका विरोध है। यहाँ चूँ कि द्रव्यार्थिक नय स्वरूप उत्पादानुच्छेदका अवलम्बन किया गया है, अतएव 'मोहनीय कर्मकी भाववेदना यहाँ नहीं है। ऐसा कहा गया है। परन्तु यदि पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन किया जाय तो मोहनीयकी भाववेदना अनन्तगुणी हीन होकर यहाँ विद्यमान है ऐसा कहना चाहिये। उसके आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २५५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट होकर अनन्तगुणी हीन होती है ॥ २५६ ॥ इसका कारण यह है कि आयुकी उत्कृष्ट भाववेदना अप्रमत्तसंयतके द्वारा बाँधी गई देवायु में १ प्रतिषु 'घादियादीगं' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सव्वत्थमव' ताप्रतौ 'सव्वत्थ अव-' इति पाठः। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २६१.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [४५९ खवगसेडिम्मि देवाउअमत्थि, बद्धाउआणं खवगसेडिसमारोहाभावादो। अस्थि च मणुस्साउअं, ण तस्साणुभागो उक्कस्सो होदि; असंजदसम्मादिविणा मिच्छादिहिणा वा बद्धस्स देवाउअं पेक्खिदण अप्पसत्थस्स उक्कस्सत्तविरोहादो । तेण अणंतगुणहीणा । तस्स णामा-गोदवेयणा भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥२५७॥ सुगमं । उक्कस्सा ॥ २५८॥ सुहुमसांपराइयम्मि सव्वुक्कस्सविसोहीहि तिण्णं पि उक्कस्सबंधुवलंभादो । एवं णामा-गोदाणं ॥ २५६ ॥ जहा वेयणीयस्स सण्णियासो कदो तहा णामा-गोदाणं पि कायबो, विसेसाभावादो। जस्स आउअवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स सत्तण्णं कम्माणं भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २६० ॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २६१ ॥ होती है । परन्तु क्षपकश्रेणिमें देवायु है नहीं, क्योंकि, बद्धायुष्क जीवोंका क्षपकश्रेणिपर चढ़ना सम्भव नहीं है । क्षपकश्रेणिमें मनुष्यायु अवश्य है, परन्तु उसका अनुभाग उत्कृष्ट नहीं होता, क्योंकि, असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टिके द्वारा बाँधी गई मनुष्यायु चूँ कि देवायुकी अपेक्षा अप्रशस्त है, अतएव उसके उत्कृष्ट होनेका विरोध है । इसी कारण वह अनन्तगुणी हीन है। उसके नाम व गोत्र कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २५७॥ यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट होती है ॥ २५८ ॥ कारण की सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें सर्वोत्कृष्ट विशुद्विके द्वारा तीनों ही कर्मोंका उत्कृष्ट बन्ध पाया जाता है। इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्मकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥२५६॥ जिस प्रकारसे वेदनीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकारसे नाम व गोत्र कर्मके भी संनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके सात कर्मोको वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २६० ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ॥ २६१ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २६२ ___ कुदो १ अप्पमत्तसंजदप्पहुडि उवरिमसंजदेसु पमत्तसंजदेसु वेमाणियदेवेसु च आउअस्स उक्कस्सभावुवलंभोदो। ण च एदेसु घादिकम्माणमुक्कस्साणुभागो अस्थि, विसोहीए घादं पाविदूण अणंतगुणहीणत्तमुवगयाणमुक्कस्सत्तविरोहादो। ण च तिण्णमघादिकम्माणमुक्कस्सओ अणुभागो अस्थि, तस्स खीणकसायादिसु चेव संभवादो। ण च खीणकसायादिसु आउअस्स उक्कस्सभावो अस्थि, खवगसेडिम्मि देवाउअस्स संताभावादो' । तम्हा अणंतगुणहीणत्तं सिद्धं । एवमुक्कस्सओ परत्थाणवेयणासण्णियासो समत्तो। जो सो थप्पो जहण्णओ परत्थाणवेयणासण्णियासो सो चउविहो-दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि ॥ २६२ ॥ जहण्णवेयणसण्णियासो चउविहो चेव, दबट्ठियणयावलंबणादो। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे पण्णारसविहो होदि । सो जाणिय वत्तव्यो । जस्स गाणावरणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२६३ ॥ सुगमं। ___कारण यह कि अप्रमत्तसंयतसे लेकर आगेके संयत जीवोंमें, प्रमत्तसंयतोंमें और वैमानिक देवोंमें आयुका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। परन्तु इन जीवोंमें घाति कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं है, क्योंकि, विशुद्धि द्वारा घातको प्राप्त होकर अनन्तगुणी हीनताको प्राप्त हुए उनके उत्कृष्ट होनेका विरोध है। तीन अघाति कर्मोंका भी उनमें उत्कृष्ट अनुभाग सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह क्षीणकषाय आदि जीवोंमें ही सम्भव है। परन्तु क्षीणकषाय आदि जीवोंमें आयुका उत्कृष्ट भाव सम्भव नहीं हीं है, क्योंकि, क्षपक णिमें देवायुके सत्त्वका अभाव है। इस कारण उक्त सात कोंकी भाववेदनाकी अनन्तगुणहीनता सिद्ध है। इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान वेदनासंनिकर्ष समाप्त हुआ। ___ जो जघन्य परस्थान वेदनासंनिकर्ष स्थगित किया गया था वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे चार प्रकारका है ॥ २६२ ॥ जघन्य वेदनासन्निकर्ष चार प्रकारका ही है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है। -परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर वह पन्द्रह प्रकारका है (प्रत्येक भङ्ग ४, द्वि०सं०६, वि० सं०४, च० सं० १, ४+६+४+१=१५)। उसकी जानकार प्ररूपणा करनी चाहिये।। ___ जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके दर्शनावरणीय और अन्तरायको वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्यो जघन्य होतो है या अजघन्य ॥ २६३ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'संतभावादो', ताप्रतौ 'संत (ता) भावादो' इति पाठः । . . . . . Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २६५. ] वयणसण्णियासविहाणा णियोगद्दारं [ ४६१ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा विद्वाणपदिदा ॥ २६४ ॥ सुद्वय विसयख विद कम्मं सियलक्खणेण आगंतूण खीणकसायचरिमससए द्विदस्स णाणावरणीय वेणा सह दंसणावरणीय अंतराइयाणं च दव्ववेयणा जहण्णा होदि । अध aurat as आगदो होज्ज तो अजहण्णा होतॄण दुट्ठाणपदिदा | संपहि पज्जवडियणयाहमुत्तरमुत्तं भणदि भाभयिावा असंखेजभागन्भहिया वा ॥ २६५ ॥ णाणावरणीयस्स जहण्णदव्वे संते जदि एगो परमाणू दंसणावरणीय - अंतराइयाणं दव्वे अहियो होज्ज तो अनंतभागन्महियं दव्वं होदि । एदमादि काढूण परमाणुत्तरादिकमेण ताव अनंतभागवड्डी गच्छदि जाव जहण्णदव्त्रमुक्कस्सअसंखेज्जेण खंडिदूण तत्थ एगखंडमेत्तं वड्डिदं ति । तदो पहुडि परणुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डी होण गच्छदि जाव जहण्णदव्वं तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ खंडमेतं वदिति । उवरिमवड्डीओ एत्थ किष्ण भण्णंति ? ण, खविदकम्मं सिए जदि सु बहुगी दव्ववड्डी होदि तो एगसमयपबद्धमेत्ता चेव होदि त्ति गुरूव एसादो । वह जघन्य होती है और अजघन्य होती है, जघन्यसे अजघन्य दो स्थानों में पतित है || २६४ ॥ शुद्ध नयके विषयभूत क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना के साथ दर्शनावरणीय और अन्तरायकी द्रव्यवेदना जघन्य होती | अथवा यदि अन्य स्वरूपसे आया है तो उक्त दोनों कर्मोंकीद्र व्यवेदना अजघन्य होकर दो स्थानों में पतित होती है । अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थं आगेका सूत्र कहते हैं - हुए वह अजघन्य वेदना अनन्तभाग अधिक और असंख्यातभाग अधिक होती है ॥२६५॥ ज्ञानावरणीयके द्रव्यके जघन्य होनेपर यदि एक परमाणु दर्शनावरणीय और अन्तरायके द्रव्योंमें अधिक होता है तो अनन्तभाग अधिक द्रव्य होता है। इससे लेकर एक एक परमाणु आदिके क्रमसे तब तक अनन्तभागवृद्धि जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यात से खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड मात्र वृद्धिको प्राप्त होता है । पश्चात् इससे लेकर एक एक परमाणु आदिके क्रमसे जघन्य द्रव्यको तत्प्रायोग्य पत्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें से एक खण्ड मात्र वृद्धिके होने तक असंख्यात भागवृद्धि होकर जाती है । शङ्का- आगेकी वृद्धियाँ यहाँ क्यों नहीं कही गई हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षपितकर्माशिक के यदि बहुत अधिक द्रव्यकी वृद्धि होती है तो वह एक समयप्रबद्ध प्रमाण ही होती है, ऐसा गुरुका उपदेश है। १ प्रतिषु 'भणंति' इति पाठः । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २६६. खविदघोलमाणमस्सिदूण किमिदि ण वड्डाविज्जदे ? ण एस दोसो, णाणावरणीयस्स जहण्णदव्वाभावेण पयदपरूवणाए विरोहप्पसंगादो। तस्स वेदणीय-णामा-गोदवेयणा दव्वदो किं जहण्णा ॥२६६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजभागभहिया ॥२६७ ॥ सजोगिकेवलिणा पुचकोडिकालेण असंखेज्जगुणाए सेडीए विणासिज्जमाणदव्वस्स अविणासादो। तस्स अहियदव्वस्स खीणकसायचरिमसमए वट्टमाणस्स को भागहारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्स मोहणीयवेयणा दव्वदो जहणिया णत्थि ॥ २६८ ॥ कुदो १ सुहुमसांपराइयचरिमसमए पुव्वं चेव विणद्वत्तादो । तस्स आउअवेयणा दव्वदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥ २६६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥२७०॥ णेरइयम्मि तेतीससागरोवमभंतर-असंखेज्जगुणहाणीयो गालिय दीवसिहागारेण शङ्का-क्षपितघोलमान जीवका आश्रय करके वृद्धि,क्यों नहीं करायी जाती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसके ज्ञानावरणीयके जघन्य द्रव्यका अभाव होनेसे कृत प्ररूपणाके विरुद्ध होनेका प्रसङ्ग आता है। उसके वेदनीय, नाम और गोत्रकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २६६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातवें भाग अधिक होती है ॥२६७॥ कारण कि सयोगिकेवलीके द्वारा [ कुछ कम ] पूर्वकोटि मात्र कालमें असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे निर्जीर्ण किये जानेवाले द्रव्यका पूर्णतया विनाश नहीं हुआ है। शङ्का-क्षीणकषायके अन्तिम समयमें वर्तमान उक्त अधिक द्रव्यका भागहार क्या है ? समाधान-उसका भागहार पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। उसके मोहनीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती ॥ २६८ ॥ कारण कि वह पहिले ही सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें नष्ट हो चुका है। उसके आयुकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२६॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २७० ॥ नारकी जीवके तेतीस सागरोपम कालके भीतर असंख्यातगुणहानियोंको गलाकर दीप Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,२, १३, २७४.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४६३ द्विददव्वमेगसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागो' जहण्णदव्ववेयणा । एत्थ पुण पुवकोडिकालभंतरे एगा वि गुणहाणी णत्थि, गुणहाणीए' असंखेज्जभागत्तादो। तेण आउअजहण्णदव्वादो खीणकसायचरिमसमयदव्यमसंखेज्जगुणं ति सिद्धं । एवं दंसणावरणीय-अंतराइयाणं ।। २७१ ॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो कदो तधा एदेसि पि दोण्णं पयडीणं कायव्वो, विसेसाभावादो। जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स णाणावरणीयदंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं वेयणा दव्वदो जहणिया णस्थि ॥ २७२॥ कुदो १ छदुमत्थावत्थाए वेव तिस्से विणद्वत्तादो । तस्स आउअवेयणा दव्वदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥२७३॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया॥ २७४ ॥ शिखाके आकारसे जो द्रव्य स्थित है वह एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य वेदना स्वरूप है। परन्तु यहाँ पूर्वकोटिकालके भीतर एक भी गुणहानि नहीं है, क्योंकि, वहाँ गुणहानिका असंख्यातवाँ भाग ही है। इसलिये आयुके जघन्य द्रव्यसे क्षीणकषायका अन्तिम समयसम्बन्धी द्रव्य असंख्यात- गुणा है, यह सिद्ध है। इसी प्रकारसे दर्शनावरणीय और अन्तरायकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २७१ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयका सन्निकर्ष किया गया है उसी प्रकार इन दोनों कर्मों के सन्निकर्षका कथन करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना द्रव्यको अपेक्षा जघन्य होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती ।। २७२ ।। कारण कि उक्त कर्मोंकी वह वेदना छमस्थ अवस्थामें ही नष्ट हो चुकी है। उसके आयुकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२७३।। यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। २७४ ॥ १ ताप्रतौ 'असंखेजभागो' इति पाठः । २ अाप्रतौ 'जहण्णदव्वहिया' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'गुणहाणी अस्थि ण गुणहाणीए' इति पाठः । ४ अ-का-ताप्रतिषु 'छदुमत्थाए', आप्रतौ 'छदुमत्थत्थाए' इति पाठः । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडे [ ४, २, १३, २७५ एदमजोगिचरिमसमयदव्वं उकस्सजोगेण बद्धएगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागमे' | कुदो वदे ? जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पा ओग्गेण उकस्सएण जोगेण बंधदित्ति वयणादो णव्वदे | दीवसिहादव्वं पुण जहण्णजोगेण बद्धएगसमयपबद्धस्स असंखेजदिभागमेत्तं होदि । तेण जहण्णाउअवेयणादो इमा असंखेजगुणा । तस्स णामा - गोदवेणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २७५ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अण्णा वा, जहण्णादो अजण्ण्णा विद्याणपदिदा ॥ २७६ ॥ दि सुद्धा विसयख विद कम्मंसियलक्खणेणागदो तो वेयणीयदव्ववेयणाए सह णामा-गोदाणं दव्ववेयणा वि जहण्णा होदि । अह णागदो' तो अजहण्णा होतॄण विट्ठाण - पदिदा होदि । पञ्जवडियणयाणुग्गहट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि अनंतभाग भहिया वा असंखेजभागव्भहिया वा ॥ २७७ ॥ यह योगकेवलीका अन्तिम समय सम्बन्धी द्रव्य उत्कृष्ट योगसे बाँधे गये एक समयप्रबद्ध के संख्यातवें भाग मात्र है । शङ्का - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह "जब जब आयुको बाँधता है तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे बाँधता है" इस वचनसे जाना जाता है । परन्तु दीपशिखा द्रव्य जघन्य योगसे बाँधे गये एक समयप्रबद्ध के असंख्मातवें भाग मात्र होता है। इस कारण आयुकी जघन्य वेदनासे यह वेदना असंख्यातगुणी है । उसके नाम और गोत्रकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। २७५ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी, जघन्यसे अजघन्य दो स्थानों में पतित होती है ।। २७६ ॥ यदि शुद्ध के विषयभूत क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आया है तो वेदनीकी वेदना साथ नाम व गोत्रकी द्रव्यवेदना भी जघन्य होती है । परन्तु यदि उक्त स्वरूपसे नहीं आया है तो वह अजन्य होकर दो स्थानोंमें पतित है । अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थ आगेका सूत्र कहते हैं अनन्तभाग अधिक भी होती है और असंख्यात भाग अधिक भी होती है || २७७॥ १ ताप्रतौ 'संखेजभागमेत्तं' इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'जहण्णादो', ताप्रतौ 'ग्रजहण्णा [ दो ]' इति पाठ: । ३ अ श्राप्रत्योः 'जहण्णागदो', काप्रतौ जहणागदो ताप्रतौ 'ग्रहण्णागदो' इति पाठः । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २८१. ] वेयणसणियासविहाणाणियोगद्दारं [ ४६५ जहणदव्वस्सुवरि एग परमाणुम्मि वडिदे अनंतभागवड्डी होदि । एवं परमाणुत्तरादिकमेण ताव अनंतभागवड्डी गच्छदि जाव जहण्णदव्वमुकस्सअसंखेज्जेण खंडिदूण तत्थेगखंडमेत्तं वड्ढिदं ति । तदो पहुडि परमाणुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागबड्डी ताव गच्छदि जाव जहण्णदव्वं तप्याओग्गेण पलिदोत्रमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ एगखंडमेतं जहण्णदव्वस्सुवरि वडिदं ति । एवं णामा - गोदाणं ॥ २७८ ॥ जहा वेणीस सण्णियासो कओ तहा णामा - गोदाणं पि सण्णियासो कायव्वो, विसे साभावाद | जस्स मोहणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स छण्णं कम्माणमाउअवजाणं वेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २७६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज भागव्भहिया ॥ २८० ॥ कुदो ! उवरि विणासिज्जमाणदव्वेण अहियत्तादो । तस्स अहियदव्वस्स को डिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तस्स आउअवेणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २८२ ॥ जघन्य द्रव्यवेदनाके ऊपर एक परमाणुकी वृद्धि होनेपर अनन्तभागवृद्धि होती है । इस प्रकार एक एक परमाणु आदिके क्रमसे तब तक अनन्तभागवृद्धि जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यातसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र वृद्धि होती है । तत्पश्चात् उससे लेकर एक एक परमाणु आदिके क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि तब तक जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र वृद्धि जघन्य द्रव्यके ऊपर होती है । इसी प्रकार नाम और गोत्रकी प्ररूपणा करनी चाहिये ||२७८ ॥ जिस प्रकार वेदनीयका सन्निकर्ष किया गया है उसी प्रकार नाम और गोत्रके सन्निकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । जिसके मोहनी की वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके आयुको छोड़कर छह कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२७६॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातवें भाग अधिक होती है || २८० ॥ कारण कि वह आगे नष्ट किये जानेवाले द्रव्यसे अधिक है । उस अधिक द्रव्यका प्रतिभाग क्या है ? उसका प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । उसके आयुकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २८१ ॥ छ. १२-५६ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २८२. सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणन्भहिया ॥२८२ ॥ एवं पि सुगम, बहुसो अवगमिदत्थत्तादो। जस्स आउअवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा दव्वदो किं जहएणा अजहण्णा ॥ २८३ ॥ सुगमं। णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा ॥ २८४ ॥ रहयो जेण पंचिंदियो सण्णिपज्जत्तो तेण एइंदियजोगादो एदस्स जोगो असंखेज्जगुणो। तेणेव कारणेण एइंदियएगसमयपबद्धदव्वादो एदस्स' एगसमयपबद्धदव्यमसंखेज्जगुणं । तेण दीवसिहापढमसमयदव्वेण सत्तण्णं पि कम्माणं दिवड्डगुणहाणिपमाण'पंचिंदियसमयपवद्धमेत्तेण होदव्वं । तदो सग-सगजहण्णदव्वं पेक्खिदूण एत्थतणदग्वेण असंखेज्जगणेणेव होदव्वं । तेण चउट्ठाणपदिदा ति ण घडदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण विवरीदं गंतूण' जहण्णजोगेण जहण्ण बंधगद्धाए च णिरयाउअंबंधिय सत्तमपुढविणेरइएसु उववज्जिय छहि पज्जत्तीहि पज्ज यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २८२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, इसके अर्थका परिज्ञान बहुत बार कराया जा चुका है। जिस जीवके आयुकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षो जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२८३॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य चार स्थानों में पतित होती है ॥२८४॥ शङ्का-चूँ कि नारक जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी व पर्याप्त है, अतएव एकेन्द्रिय जीवके योगकी अपेक्षा इसका योग असंख्यातगणाहै। और इसी कारणसे एकेन्द्रिय जीवके एक समय अपेक्षा इसके एक समयप्रबद्धका द्रव्य असंख्यातगुणा है । इसलिये दीपशिखाके प्रथम समयके द्रव्यसे सातों ही कर्मोंका द्रव्य डेढ़ गुणहानिमात्र पंचेन्द्रियके समयप्रबद्ध प्रमाण होना चाहिये। अतएव अपने अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा यहाँका द्रव्य असंख्यातगुणा ही होगा। ऐसी अवस्थामें सूत्रमें 'चतुःस्थान पतित बतलाना घटित नहीं होता ? ___ समाधान-यहाँ इस शङ्काका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर विपरीत स्वरूपको प्राप्त हो जघन्य योगसे और जघन्य बन्धककालसे नारकायुको बाँधकर सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न हो छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको १ आप्रतौ 'एगसमयपबद्धत्तादो दव्वादो एगस्स' इति पाठः । २ ताप्रती 'पमाणं' इति पाठः । ३ तापतौ नोपलभ्यते पदमेतत् । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, २८४.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [४६७ त्तयदो होदूण अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तूण दिवड्डमेत्तएइंदियसमयपबद्धे' ओकड्डुक्कड्डणभागहारेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तदव्वमोकड्ड दि । एवमोकड्डिदूण उदयावलियबाहिरद्विदीए वट्टमाणकाले बज्झमाणएगसमयपबद्धस्स पढमणिसेगादो असंखेज्जगुणं णिसिंचदि । तत्तो प्पहुडि उवरि विसेसहीणं णिसिंचदि जाव ओकड्डिदसमयपत्रद्धा णिविदा ति । एवं समयं पडि ओकड्डिदूण णिसेगरचणाए कीरमाणाए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तण कालेण उदयगदगोवुच्छा असंखेज्जभागहीणएगपंचिंदियसमयपवद्धमत्ता होदि, सव्वत्थ भुजगारकालपमाणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो । तेण समयं पडि वयादो आयो' असंखेज्जभागब्भहियो। एदेण कमेण तेत्तीससागरोवमेसु संचयं करिय दीवसिहापढमसमए हिदस्स सत्तकम्मदव्वं सगजहण्णदव्वादो असंखेज्जभागम्भहियं होदि । ण च ओकड्डिददव्वस्स पढमणिसेयो बज्झमाणसमयपबद्धस्स पढमणिसेगेण सरिसो, तत्तो असंखेज्जगुणस्सेव संभवुवलंभादो । तं जहा-ओकड्डणाए णिसिंचमाणदव्वस्स पढमणिसेगो एगमेइंदियसमयपबद्धमोकड्डुक्कड्डणभागहारेण खंडिदमेत्तो होदि । एसो वि बद्धपढमणिसेगादो असंखेज्जगुणो ति। तेण एगगुणहाणीए असंखज्जदिभागे चेव अदिक्कते उदयगदगोपुच्छा एगपंचिंदियसमयपबद्धमत्ता होदि । जदि एगपंचिंदियसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागेण उदयगदगोवुच्छा ओकड्डुक्कड्डणवसेण ऊणा ग्रहण करके डेढ़ गुणहानि प्रमाण एकेन्द्रियके समयप्रबद्धोंको अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड मात्र द्रव्यका अपकर्षण करता है। इस प्रकार अपकर्षित करके उदयावलिके बाहिर स्थितिमें वर्तमानकालमें बाँधे जानेवाले एक समयप्रबद्धके प्रथम निषेकसे असंख्यातगुणा देता है। उससे लेकर आगे अपकर्षित समयप्रबद्धोंके समाप्त होने तक विशेषहीन देता है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें अपकर्षित कर निषेकरचना करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें कालमें उदयप्राप्त गोपुच्छ असंख्यातवें भागसे हीन एक पचेन्द्रियके समयप्रबद्धके बराबर होती है, क्योंकि, सर्वत्र भुजाकारबन्धके कालका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवेंभाग पाया जाता है । इसलिये प्रत्येक समयमें व्ययकी अपेक्षा आय असंख्यातवें भागसे अधिक है । इस क्रमसे तेतीस सागरोपमोंमें संचय करके दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित जीवके सात कर्मोंका द्रव्य अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। अपकर्षित द्रव्यका प्रथम निषेक बाँधे जानेवाले समयप्रबद्धके प्रथम निषेकके सहश भी नहीं होता, क्योंकि, उसके उससे असंख्यातगुणे होनेकी ही सम्भावना पायी जाती है । वह इस प्रकारसेअपकर्षण द्वारा दिये जानेवाले द्रव्यका प्रथम निषेक एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको अपकर्षणउत्कर्षण भागहारसे खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उतना होता है। यह भी बाँधे गये प्रथम निषेकसे असंख्यातगुणा है। इस कारण एक गुणहानिके असंख्यातवें भागके ही बीतनेपर उदयगत गोपुच्छा पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धके बराबर होती है। यदि उदयगत गोपुच्छा अपकर्षण-उत्कर्षण द्वारा पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धके संख्यातवें भागसे हीन होकर सर्वत्र नष्ट होती है तो दीपशिखा १ ताप्रतौ 'उकड्डुक्कडुण' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'श्रादि', ताप्रती 'आदी' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'बंधः इति पाठः। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २८५. होदूण सव्वत्थ गलदि तो दीवसिहादव्वं सगजहण्णदव्वादो संखेज्जभागब्भहियं होदि । अध एगपंचिंदियसमयपबद्धस्स संखेज्जभागमेत्तमुदयगदगोवुच्छपमाणं सव्वत्थ जदि होदि तो सगजहण्णदव्वादो दीवसिहादव्वं संखेज्जगणं होदि। अध एगपंचिंदियसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमोकड्डुक्कड्डणवसेण सव्वत्थ उदयगदगोवुच्छदव्वं होदि तो सगजहण्णदव्वादो असंखेज्जगुणं होदि । ण च सम्मादिहिम्मि चेव एसो कमो, विमोहिबहुलेसु मिच्छाइट्ठीसु वि एवं चेव संजादे विरोहाभावादो। ओकड्डणाए एवंविहा णिज्जरा होदि त्ति कधं णव्वदे ? चउहाणपदिदसुत्तणिद्देसस्स अण्णहा अणुववत्तीदो। भुजगारप्पदरद्धोसु' सुकंधारपक्खा इव सव्वजीवेसु वट्टमाणासु जेसिं जीवाणमप्पदरद्धादो भुजगारद्धा कमेण असंखेज्जभागमहिया संखेजभागभहिया संखेजगुणभहिया असंखेज्जगुणमहिया तेसिं दव्वं असंखेजभागब्महियं संखेजभाग महियं संखेज्जगणब्भहियं असंखेजगणब्भहियं च कमेण होदि ति वुत्तं होदि। जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २८५ ॥ सुगमं । द्रव्य अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातवें भागसे अधिक होता है । यदि उदयगत गोपुच्छाका प्रमाण सर्वत्र पंचेन्द्रिय सम्बन्धी एक समयप्रबद्धके संख्यातवें भाग मात्र होता है तो दीपशिखाका द्रव्य अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातगुणा होता है। यदि उदयगत गोपुच्छाका द्रव्य सर्वत्र अपकर्षण-उत्कर्षणके वश पंचेन्द्रिय सम्बन्धी एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भाग मात्र होता है तो वह अपने जघन्य द्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है। यह क्रम केवल सम्यग्दृष्टि जीवके ही नहीं होता है, क्योंकि, अतिशय विशुद्धि युक्त मिध्यादृष्टियोंमें भी ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है।। शङ्का-अपकर्षण द्वारा इस प्रकारकी निर्जरा होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-चूँ कि इसके बिना चतुःस्थान पतित सूत्रका निर्देश घटित नहीं होता, अतः इसीसे उक्त निर्जरा परिज्ञात होती है। सब जीवोंमें शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्षके समान भुजाकारकाल और अल्पतरकालके रहनेपर जिन जीवोंके अल्पतरकालकी अपेक्षा भुजाकारकाल क्रमसे असंख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातगुणा अधिक और असंख्यातगुणा अधिक होता है उनका द्रव्य क्रमसे असंख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातगुणा अधिक और असंख्यातगुणा अधिक होता है, यह उसका अभिप्राय है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २८५ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भुजगारप्पदरत्थासु', ताप्रतौ 'भुजगारप्पदरत्था [ सु' इति पाठः। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,२,१३, वेयणसणियासविहाणाणियोगद्दार [४६९ जहण्णा ॥२८६॥ जहण्णोगाहणाए हिदणाणावरणीयखंधेहितो जीवदुवारेण सत्तण्णं कम्मक्खंधाणं भेदाभावादो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥२८७॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो परूविदो तहा सेसकम्माणं परूवेदव्यो, अविसेसादो। जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२८८।। सुगमं । जहण्णा ॥२८६ ॥ णाणावरणीयजहण्णदव्वक्खंधाणं च एदासिं जहण्णदव्वक्खंधाणं पि एगसमयहिदिदसणादो। तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२६॥ सुगमं । वह जघन्य होती है ॥ २८६ ॥ कारण यह कि जघन्य अवगाहना में स्थित ज्ञानावरणीयके स्कन्धोंसे जीव द्वारा सात कर्मों के स्कन्धोंमें कोई भेद नहीं है । इसी प्रकार शेष सात कर्मोकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ २८७ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके संनिकर्षकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष कर्मोंके संनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि. उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य होती है ॥ २८९ ॥ कारण यह कि ज्ञानावरणीयके जघन्य द्रव्य के स्कम्धोंकी तथा इन दो कर्मोंके जघन्य द्रव्यके स्कन्धों की भी एक सयय स्थिति देखी जाती है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २९० ॥ यह सूत्र सुगम है। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, २६१. णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ २६१ ॥ कुदो ? तिण्णमघादिकम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तहिदिसंतकम्मसेसत्तादो, आउअस्स अंतोमुहुत्तप्पहुडिटिदिसंतकम्मसेसत्तादो। तस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहणिया णत्थि॥ २६२ ॥ सुहुमसांपराइयचरिमसमयेणट्ठाए खीणकसायचरिमसमए संताभावादो। एवं दंसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥ २६३ ॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो कदो तहा एदेसिं दोणं कम्माणं कायव्यो । जस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स णाणावरणीयदंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं वेयणा कालदो जहणिया णत्थि ॥ २६४॥ कुदो ? छदुमत्थद्धाए विणद्वत्तादो । तस्स आउअ-णामा-गोदवेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २६५ ॥ सुगमं । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २६१॥ कारण कि उसके तीन अघाति कर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र तथा आयुका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त आदि मात्र शेष रहता है। उसके मोहनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती॥ २९२ ॥ कारण कि वह सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें नष्ट हो चुकी है, अतः उसका क्षीणकषायके अन्तिम समयमें सत्त्व सम्भव नहीं है। इसी प्रकार दर्शनावरण और अन्तरायकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥२६३॥ जिस प्रकारसे ज्ञानावरणीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकारसे इन दो कर्मोंका संनिकर्ष करना चाहिये। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती ॥ २६४ ॥ कारण कि उनकी वेदना छद्मस्थ कालमें नष्ट हो चुकी है। उसके आयु, नाम और गोत्रकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ३००.] वेयणसपिणयासविहाणाणियोगदारं जहण्णा ॥ २६६॥ अजोगिचरिमसमए तिण्णं वेयणाणमेगट्टिदिदंसणादो । एवमाउअ-णामा-गोदाणं ॥ २६७॥ जहा वेयणीयस्स सण्णियासो को तहा एदेसि पि तिण्णं कम्माणं कायव्वो। जस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २६८॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ २६६ ॥ कुदो ? एगसमयं पेक्खिण घादिकम्म,णं अंतोमुहुत्तमेट्टिदीए अघादीणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतद्विदीए च अंतोमुहत्तप्पहुडि हिदिसंतस्स च असंखेज्जगणतुवलंभादो। जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दंसणावरणीयअंतराइयवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥३०॥ सुगमं । वह जघन्य होती है ॥ २९६ ॥ कारण कि अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उक्त तीन वेदनाओंकी एक [ समय ] स्थिति देखी जाती है। इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र कर्मकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥२९७॥ जिस प्रकारसे वेदनीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकारसे इन तीनों भी कर्मोंका करना चाहिये। जिस जीवके मोहनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २९८॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगणी अधिक होती है ॥ २६९ ॥ .कारण कि एक समयकी अपेक्षा घाति कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति और अघाति कर्मोंकी पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थिति ये दोनों स्थितियाँ तथा अन्तर्मुहूर्त आदि रूप स्थितिसत्त्व . भी असंख्यातगुणा पाया जाता है। जिस जीव के ज्ञानावरणीय की वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥३०॥ __यह सूत्र सुगम है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ३०१. जहण्णा ॥३०१॥ कुदो ? खवगपरिणामेहि सव्वुक्कस्सं घादं पाविदूण खीणकसायचरिमसमए द्विदत्तादो। तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३०२ सुगम। णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया॥३०३॥ कुदो ? परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण बद्धअपञ्जत्तसंजुत्ततिरिक्खाउआणुभागं, भवसिद्धियचरिमसमयअसादावेदणीयजहण्णाणुभागं, सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तएण हदसमुप्पत्तियकम्मेण परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण बद्धणामजहण्णाणुभागं, उच्चागोदमुव्वेल्लिय बादरतेउ-वाउजीवेण सव्वाहि पञ्जत्तीहि पञ्जत्तयदेण सव्वविसुद्धण बद्धणीचागोदजहण्णाणुभागं च पेक्खिदूण एदस्स खीणकसायस्स चरिमसमए वट्टमाणस्स एदेसिं कम्माणं अणुभागस्स अणंतगुणत्तं होदि, वेयणीय-णामा-गोदाणुभागाणं पसत्थभावेण उक्कस्सत्तव लंभादो । मणुसाउअभावस्स घादव जियस्स तिरिक्खाउआदो पसत्थस्स जहण्णादो अणंतगुणत्तं होदि, । [ कुदो णव्वदे १ ] चउसट्ठिवदियअप्पाबहुगवयणादो । वह जघन्य होती है ॥ ३०१॥ कारण कि वह क्षपक परिणामोंके द्वारा सर्वोत्कृष्ट घातको प्राप्त होकर क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना भाव की अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥३०२॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है। ३०३ ॥ इसका कारण यह है कि परिवर्तमान मध्यम परिणामके द्वारा बाँधे गई अपर्याये सहित तिथंच आयुके अनुभागकी अपेक्षा, भव्यसिद्धिक अवस्थाके अन्तिम समयमें असाता वेदनीयके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा, हतसमुत्पत्तिककर्मा सूक्ष निगोद अपर्याप्तक जीवके द्वारा परिवर्तमान मध्यम परिणामके द्वारा बाँधे गये नाम कर्मके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा, तथा उच्च गोत्रकी उद्वेलना करके सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए सर्व विशुद्ध बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवके द्वारा बाँधे गये नीच गोत्रके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा क्षीणकषायके अन्तिम समयमें वर्तमान इस जीवके इन कर्मोंका अनुभाग अनन्तगुणा होता है; क्योंकि प्रशस्त होनेके कारण वेदनीय, नाम और गोत्रके अनुभागमें उत्कृष्टता पायी जाती है। तिर्यंच आयुकी अपेक्षा प्रशस्त व घातसे रहित मनुष्यायुका अनुभाग जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होता है। [शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह ] चौंसठ पद रूप अल्पबहुत्वके वचनसे जाना जाता है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ३०८.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४७३ तस्स मोहणीयवेयणा भावदो जहणिया णत्थि ॥ ३०४॥ दिस्से तत्थ 'पदेससत्ताभावादा । एवं दंसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥३०५ ॥ . जहा णाणावरणीयसण्णियासो कदो तह। एदासि पि पयडीणं कायव्यो । जस्स वेयणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स णाणावरणीय-दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयवेयणा भावदो जहणिया णस्थि ॥३०६॥ कुदो ? अजोगिचरिमसमए एदेसिं 'पदेससत्ताभावादो । तस्स आउअ-णामा-गोदवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३०७॥ सुगम । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ ३०८॥ कुदो ? जसकित्ति-उच्चागोदाणं चरिमसमयसुहुमसांपराइएण बद्ध उक्कस्साणुभागस्स सग-सगजहण्णाणुमागादो अणंतगुणस्स अजोगिचरिमसमए उवलंभादो, तिरिक्खअपज्जत्तसंजुत्ताउअभावादो वि मणुसाउअमावस्स पसत्थत्तणेण घादाभावेण च अणंतगुणसुवलंभादो। उसके मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती ।। ३०४॥ कारण कि वहाँ उसके प्रदेशोंके सत्त्वका अभाव है। इसी प्रकारसे दर्शनावरणीय और अन्तरायकी अपेक्षा प्ररूपणा करनी चाहिये ॥३०॥ जिस प्रकारसे ज्ञानावरणीय कर्मका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकारसे इन दो प्रकृतियोंके भी संनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये। जिस जीवके वेदनीय कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना भाव की अपेक्षा जघन्य नहीं होती ॥३०६॥ कारण कि अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें इन कर्मों के प्रदेशोंके सत्त्वका अभाव है। उसके आयु, नाम और गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥३०७॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियम से अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३०८ ॥ कारण यह कि यश कीर्ति और उच्चगोत्रका अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा बाँधा गया उत्कृष्ट अनुभाग अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें अपने अपने जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा पाया जाता है, तथा अपर्याप्त सहित तिर्यञ्च आयुके अनुभागकी अपेक्षा प्रशस्त व घातसे सहित होने के कारण मनुष्यायुका भी अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है । १ प्रतिषु 'पदेसत्ता भावादो' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु ‘पदेसत्ताभावादो' इति पाठः। छ. १२-६० Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं ४, २, १३, ३०९. जस्स मोहणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३०६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणभहिया ॥ ३१० ॥ कुदो ? तिण्णं पादिकम्नाणं खीणकसाएण घादिजमाणअणुभागस्स एस्थ संतसरूवेण उवलंभादो, वेयणीय-णामा-गोदाणं साद-जसगित्ति-उच्चागोदाणुभागस्स बंधेण उकस्समावोवलंभादो, मणुसाउअभावस्स वि पसत्थत्तणेण अणंतगुणत्तवलंभादो।। जस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा तस्स छण्णं वेयणा भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥३११ ॥ सुगमं । णियमा अजहाणा अणंतगुणभहिया ॥३१२ ॥ कुदो ? वेयणीय-धादिकम्माणं खवगपरिणामेहि एत्थ घादामावादो मणुस्सेसु पंचिंदियतिरिक्खेसु च मज्झिमपरिणामेण बद्धतिरिक्खअपज्जत्त-[संजुत्त-]आउअजहण्ण'. भावेसु अणुव्वेल्लिदउच्चागोदेसु सव्वविसुद्धवादरतेउवाउपजत्तएसु च अघादिदणीचा. गोदाणुभागेसु सगजहण्णादो गोदाणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। जिस जीवके मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्माकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३०९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३१० ॥ कारण एक तो तीन घाति कर्मोका क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवके द्वारा घाता जानेवाला अनुभाग यहाँ सत्त्व रूपसे पाया जाता है; दूसरे वेदनीय कर्मकी साता वेदनीय प्रकृतिके, नामकी यशःकीर्ति प्रकृतिके और गोत्रकी उच्चगोत्र प्रकृतिके अनुभागमें यहाँ बन्धसे उत्कृष्टता पायी जाती है; तीसरे मनुष्यायुका अनुभाग भी प्रशस्त होनेके कारण यहाँ अनन्तगुणा पाया जाता है। जिस जीवके आयुकर्म की वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके नामकर्मको छोड़कर शेष छह कर्मोकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥३११॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३१२ ॥ कारण कि क्षपक परिणामों के द्वारा यहाँ घात सम्भव न होनेसे वेदनीय और घातिया कर्मोंका अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। तथा मध्यम परिणामके द्वारा जिन्होंने तिर्यंच अपर्याप्त सम्बन्धी आयुके जघन्य अनुभागको बांधा है ऐसे मनुष्यों एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें और उच्च गोत्रकी उद्वेलना न करनेवाले तथा नीच गोत्रके अनुभागको न घातनेवाले सर्वविशुद्ध बादर तेजकायिक एवं वायुगायिक पर्याप्त जीवोंमें गोत्रका अनुभाग अपने जधन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणा पाया जाता है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'जहण्णा' इति पाटः । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १३, ३१७] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४७५ तस्स गामवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३१३ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा छट्ठाणपदिदा ॥३१४॥ जहण्णमाउअमावं पंधिय सुहमणिगोदजीवअपञ्जत्तेसु उप्पञ्जिय हदसमुप्पत्तियं काऊण जदि णामस्स जहण्णाणुभागो कदो तो आउअभावेण सह णामभावो जहण्णो होदि । अण्णहा अजहण्णो होदण छट्टाणपदिदो जायदे । जस्स णामवेयणा भावदो जहण्णा तस्स छण्णं कम्माणमाउअवजाण वेयणा भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥३१५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥३१६ ॥ सुगम । तस्स आउअवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३१७ ॥ सुगम । . उसके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१३॥ ___ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है, जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानों में पतित होती है ॥ ३१४ ॥ __ आयुके जघन्य अनुभागको बाँधकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होकर हतसमुत्पत्ति करके यदि नामकर्मका अनुभाग जघन्य कर लिया है तो आयुके अनुभागके साथ नाम कर्मका अनुभाग जघन्य होता है। इससे विपरीत अवस्थामें वह अजघन्य होकर छह स्थान पतित होता है। जिस जीवके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके आयुको छोड़कर शेष छह कर्मोंकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ।। ३१६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उसके आयुकी वेदना क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१७ ॥ यह सूत्र सुगम है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] इक्खंडागमे वेयणाखंड जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहणा पदिदा ॥ ३१८ ॥ सुमं । [ ४, २, १३, ३१८. छट्ठाण - जस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३१६ ॥ गमं । णियमा जहण्णा अणतगुण भहिया ॥ ३२० ॥ कुदो ? सव्वविसुद्ध बादरते उ वाउकाइयपजत्तएसु उब्वेलिदउच्चागोदेसु णीचागोदस्स कय जहण्णभावेसु सेससव्वकम्माणमणुभागस्स अनंतगुणत्तवलंभादो । एवं जहण परत्थाणवेयणसण्णियासे समत्ते वेयणसणियासविहाणे ति समत्तमणियोगद्दारं । वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानों में पतित होती है ।। ३१८ ॥ यह सूत्र सुगम है । जिस जीवके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३२० ॥ इसका कारण यह है कि जिन्होंने उच्च गोत्रकी उद्वेलना की है तथा नीच गोत्र के अनुभागको जघन्य किया है ऐसे सर्वविशुद्ध बादर तेजकायिक एवं वायुकायिक जीवोंमें शेष सब कर्मोंका अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। इस प्रकार जघन्य परस्थान वेदनाके संनिकर्ष के समाप्त होनेपर वेदनासंनिकर्षविधान नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं वेयणपरिमाणविहाणे त्ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं । किमट्टमेदं वुच्चदे ? ण, अण्णहा परवणाए णिप्फलत्तप्पसंगादो । ण ताव एदेण पयडिवेयणापरिमाणं वुचदे, णाणावरणादी अट्ट चेव पयडीयो होति ति पुव्वं परूविदत्तादो । ण हिदिवेयणाए पमाणपरूवणा एदेण कीरदे, कालविहाणे सप्पवंचेण परूविदह्रिदिपमाणतादो। ण भाववेयणाए पमाणपरूवणा एदेण कीरदे, मावविहाणे परूविदस्स परूवणाए फलाभावादो। ण पदेसपमाणपरूवणा एदेण कीरदे, अणुक्कस्सइव्वविहाणे परूविदस्स पुणो परूवणाए फलाभावादो। ण च खेत्तवेयणाए पमाणपरूवणा एदेण कीरदे, खेत्तविहाणे परूविदत्तादो। अणहिगयपमेयाहिगमो' एदम्हादो णत्थि त्ति णाढवेदव्यमेंदमणियोगद्दारं ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-पुव्वं दबहियगयमस्सिदण अट्ट चेव पयडीयो होति त्ति वुत्तं। तासिमट्ठण्णं चेव पयडीणं दव्व खेत्तकाल-भावपमाणादिपरूवणा च कदा। संपहि पन्जवट्टियणयमस्सिदूण पयडिपमाणपरूवण अब वेदनापरिमाण विधान अनुयोगद्वारका अधिकार है ॥१॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है। शंका-इसे किसलिये कहा जा रहा है ? समाधान नहीं, क्योंकि, इसके विना प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। शंका-यह अधिकार प्रकृतिवेदनाके प्रमाण को तो बतलाता नहीं है, क्योंकि, ज्ञानावरण आदि आठ ही प्रकृतियाँ हैं, यह पहिले ही प्ररूपणा की जा चुकी है। स्थितिवेदनाके प्रमाणकी प्ररूपणा भी नहीं करता है, क्योंकि, कालविधानमें विस्तारपूर्वक स्थितिका प्रमाण बतलाया जा चुका है। यह भाववेदनाके प्रमाणकी भी प्ररूपणा नहीं करता, क्योंकि, भावविधानमें प्ररूपित उसकी फिरसे प्ररूपणा करना निष्फल होगी। प्रदेशप्रमाणकी प्ररूपणा भी इसके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट द्रव्य विधानमें उसकी प्ररूपणा की जा चुकी है; अतएव उसकी यहाँ फिरसे प्ररूपणा करनेका कोई प्रयोजन नहीं है। क्षेत्रवेदनाके प्रमाणकी प्ररूपणा भी इसके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि, उसकी प्ररूपणा क्षेत्रविधानमें की जा चुकी है । इस प्रकार चूंकि प्रकृति अधिकारसे अनधिगत पदार्थका अधिगम होता नहीं है, अतएव इस अधिकारको प्रारम्भ नहीं करना चाहिये? समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं-पहले द्रव्यार्थिक नयका आश्रय करके आठ ही प्रकतियाँ होती हैं. ऐसा कहा गया है। तथा उन आठों प्रकृतियोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिके प्रमाणकी भी प्ररूपणा की गई है। अब यहाँ पर्यायार्थिक नयका आश्रय करके प्रकृतियोंके १ मप्रतिपाटोऽयम् । श्र-श्रा काप्रतिषु 'श्रणहिगमेयमेयाहिगमो', ताप्रती 'अणहिगमे पमेयाहिगमोग इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'णादवेदव-' इति ताठः । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] क्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १४, ३ मेदमणियोगद्दार मागदं । पञ्जवट्ठियणयमवलंचिदूण परूविजमाणपयडीणं दव्त्र-खेतकाल- भावादिपरूवणा किण्ण कीरदे ? ण, ताए परूविजमाणाए पुल्लिपरूवणादो भेदाभावेण तदणुत्तदो । तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि - पगदिअहदा समयपबद्धखेत्तपचास ति ॥ २ ॥ पयडी सीलं सहावो इच्चेयट्ठो । अट्ठो पयोजणं तस्स भावो अट्ठदा । पयडीए अट्ठदा अदा' । सा एगो अहियारो । समये प्रवध्यत इति समयप्रबद्धः | अते परिच्छिद्यते इत्यर्थः । स चासावर्थश्व समयप्रबद्धार्थः तस्य भावः सययप्रबद्धार्थता । एसो विदियो अहियारो | क्षेत्रं प्रत्याश्रयो यस्याः सा क्षेत्रप्रत्याश्रया अधिकृतिः । एवं तिविहा daणपरिमाणपरूवणा होदि । पयडिभेएण कम्मभेदपरूवणा एगो अहियारो । समयप्रबद्धभेदेण पडिभेदपरूवओ विदियो अहियारो । खेत्तमेएण पयडिभेदपरूवओ तदियो अहियारो त्ति वृत्तं होदि । पगदिअदाए णाणावरणीय दंसणावरणीय कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ३ ॥ प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिये यह अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है । शंका- पयायार्थिक नयका आश्रय करके कही जानेवाली प्रकृतियोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिक प्ररूपणा क्यों नहीं की जा रही है ? समाधान— नहीं, क्योंकि, उक्त प्ररूपणा के करने में पूर्वोक्त प्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं रहती । अतएव वह यहाँ नहीं की गई है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं - प्रकृत्यर्थता समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास ||२|| प्रकृति, शील और स्वभाव ये समानार्थक शब्द है; अर्थ शब्दका वाच्यार्थ प्रयोजन है और उसका भाव अर्थता है । प्रकृतिकी अर्थता प्रकृत्यर्थता, यह षष्ठी तत्पुरुष समास है । वह प्रथम अधिकार है । एक समय में जो बाँधा जाता है वह समयप्रबद्ध है । जो अर्यते अर्थात् निश्चय किया जाता है वह अर्थ है । समयप्रबद्ध रूप अर्थ समयप्रबद्धार्थ इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है; समयप्रबद्धार्थके भावको समयप्रबद्धार्थता कहा गया है । यह द्वितीय अधिकार है। क्षेत्र है प्रत्याश्रय जिसका वह क्षेत्रप्रत्याश्रय अधिकार है । इस प्रकार वेदनापरिमाणकी प्ररूपणा तीन प्रकार की है । प्रकृतिभेदसे कर्मभेदकी प्ररूपणा यह एक अधिकार, समयप्रबद्धों के भेदसे प्रकृतिभेदका प्ररूपक दूसरा अधिकार और क्षेत्रके भेदसे प्रकृतिभेदका प्ररूपक तीसरा अधिकार है, यह उसका अभिप्राय है । प्रकृति- अर्थता अधिकारकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? ॥ ३ ॥ १ 'पयडीए अदा पडिहदा' इत्येतावानयं पाठस्ताप्रतौ नोपलभ्यते । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, derपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं [ ४७९ एदं पुच्छासुतं तिविहं संखजं णवविहमसंखेचं अनंतं च अस्सिदूण वक्खाणेयव्वं । णाणावरणीय दंसणावरणीयकम्मस्स असंखेज लोगपयडीओ ||४|| १४, ४. ] I णाणावरणीय स' दंसणावरणीयस्स च कम्मस्स पयडीयो सहावा सत्तीयो असंखेलोगमेत्ता । कुदो एत्तियाओ होंति त्ति णवदे १ आवरणिञ्जणाण- दंसणाणमसंखेजलोग मेतभेदुवलंमादो । तं जहा - सुहृमणिगोदस्स जहण्णलद्धिअक्खरं तमेगं णाणं । तण्णिरावरणं, अक्खस्स अनंतभागो णिच्चग्घाडियओ इदि वयणादों जीवाभावप्यसंगादो वा । पुणो द्धिअक्खरे सव्वजीवैहि खंडिदे लद्धे तत्थेव पक्खित्ते विदियं गाणं होदि । पुणो विदियणाणे सव्त्रजीवेहि खंडिदे लद्धे तत्थेव पक्खित्ते तदियं णाणं होदि । एवं छवड्डिकमेण यव्वं जाव असंखेज्जलोगमेत्तट्टाणाणि गंतूण अक्खरणाणं समुप्पण्णे त्ति । अक्खरणाणादो उवरि एगेगक्खरुत्तरवड्डीए गच्छमाणणाणाणं अक्खरसमासोत्ति सण्णा । एत्थ अक्खरणाणादो उवरि छविहा वड्डी णत्थि, दुगुण-तिगुणादिकमेण अक्खर इस सूत्र का व्याख्यान तीन प्रकारके संख्यात और नौ प्रकारके असंख्यात व नौ प्रकार के अनन्तका आश्रय करके करना चाहिये । ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी असंख्यात प्रकृतियाँ हैं ॥ ४ ॥ ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ अर्थात् स्वभाव या शक्तियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं । शंका-उनकी प्रकृतियाँ इतनी है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-: - चूँकि आवरणके योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोक मात्र भेद पाये जाते हैं अतएव उनके आवारके उक्त कर्मोंकी प्रकृतियाँ भी उतनी ही होनी चाहिये । यथा-सूक्ष्म निगोद जीवका जो जघन्य लब्ध्यक्षर रूप एक ज्ञान है वह निरावरण है, क्योंकि, अक्षरके अनन्तवें भाग मात्र ज्ञान सदा प्रगट रहता है, ऐसा आगमवचन है । अथवा, ज्ञानके अभाव में चूँकि जीवके अभावका भी प्रसंग आता है, अतएव अक्षरके अनन्तवें भाग मात्र ज्ञान सदा प्रगट रहेता है, यह स्वीकार करना चाहिये । अब लब्ध्यक्षरको सब जीवोंसे खण्डित करनेपर जो लब्ध उसे उसी में मिलानेपर द्वितीय ज्ञान होता है । फिर द्वितीय ज्ञानको सब जीवोंसे खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उसको उसी में मिलानेपर तीसरा ज्ञान होता है । इस प्रकार छह वृद्धियोंके क्रमसे असंख्यात लोक मात्र छह स्थान जाकर अक्षर ज्ञानके पूर्ण होने तक ले जाना चाहिये । अक्षरज्ञानके आगे उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धिसे जानेवाले ज्ञानोंकी अक्षरसमास संज्ञा है । यहाँ अक्षरज्ञानसे आगे छह वृद्धियाँ नहीं है, किन्तु दुगु तिगुणे इत्यादि क्रमसे अक्षरवृद्धि ही होती है; ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु १ अ या काप्रतिषु 'णाणावरणीय-' इति पाठः । २ सुहुमणिगोदपजत्तयास जादस्स पढमंसमयहि । फासिंदियमदिपुत्रं सुदणाणं लद्धिक्खरयं ॥ गो जी. ३२१. | ३ श्र श्राकाप्रतिषु 'णिच्चुग्घादियो' इति पाठः । ४ सुहुमणिगोद अपजत्तयस्स जादरस पढमसमयम्मि । हवदि हु सरजहणं निघुग्घाडं - निरावरणं ॥ गो जी. ३१९. । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, ५ वड्डी चेव होदि ति के वि आइरिया भणंति । के वि पुण अक्खरणाणप्पहुडि उवरि सव्वत्थ खओवसमस्स छबिहा वड्डी होदि ति भणंति । एवं दोहि उवदेसेहि पद-पदसमास-संघाद-संघादसमास-पडिवत्ति-पडिवत्तिसमास-अणियोग-अणियोगसमास-पाहुडपाहुड-पाहुडपाहुडसमास-पाहुड-पाहुडसमास-वत्थु-वत्थुसमास-पुन्य-पुथ्वसमासणाणाणं' परूवणा कायव्वा । एवमसंखजलोगमेत्ताणि सुदणाणाणि । मदिणाणाणि वि एत्तियाणि चेव, सुदणाणस्स मदिणाणपुरंगमत्तादो कजभेदेण कारणभेदुवलंभादो वा। ओहिमणपञ्जवणाणाणं जहा मंगलदंडए भेदपरूवणा कदा तहा कायया । केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पजमाणत्तादो । जत्तिया' णाणवियप्पा तत्तियाओ चेव कम्मस्स आवरणसत्तीयो । कत्तो एदं णव्वदे ? अण्णहा असंखेजलोगमेतणाणाणुववत्तीदो। एवं दसणस्स वि परूवणा कायव्वा, सव्वणाणाणं दंसणपुरंगमत्तादो। जत्तियाणि सणाणि सत्तियाणि चेव दंसणावरणीयस्स आवरणसत्तीयो। एवं णाणावरणीय-दसणावरणीयाणमसंखेजलोगमेत्तपयडीयो ति सिद्धं । एवदियाओ पयडीओ ॥ ५ ॥ एत्थ पयडीयो ति वुत्ते कम्माणं गहणं, सहावभेदेण सहावीणं पि मेदुवलंभादो । जत्तिया कम्माणं सहावा तत्तियाणि चेव कम्माणि चि भणिदं होदि । कितने ही आचार्य अक्षरज्ञानसे लेकर आगे सब जगह क्षयोपशम ज्ञानके छह प्रकारकी वृद्धि होती है, ऐसा कहते हैं। इस प्रकार दो उपदेशोंसे पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास. पूर्व और पूर्वसमास ज्ञानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार श्रतज्ञान असंख्यात लोक प्रमाण है। मतिज्ञान भी इतने ही हैं, क्योंकि, श्रतज्ञान मतिज्ञानपूवक ही होता है,अथवा कारणके भेदसे चूँकि कार्यका भेद पाया जाता है अतएव वे भी असंख्यात लोक प्रमाण ही हैं। अवधि और मनःपर्ययज्ञानोंके भेदोंकी प्ररूपणा जैसे मंगलदण्डकमें की गई है वैसे करनी चाहिये। केवलज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होनेवाला है । जितने ज्ञानके भेद हैं उतनी ही कर्मकी आवरण शक्तियाँ हैं। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान-कारण कि उसके बिना असंख्यात लोक प्रमाण ज्ञान बन नहीं सकते।। इसी प्रकार दर्शनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, सब ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होते हैं। जितने दर्शन हैं उतनी ही दर्शनावरणकी आवरण शक्तियाँ हैं। इस प्रकारसे ज्ञानावरणीय और दशनावरणीयकी प्रकृतियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं, यह सिद्ध है। इतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं ॥ ५ ॥ यहाँ सूत्रमें 'प्रकृतियाँ ऐसा कहनेपर कर्मोंका ग्रहण होता है, क्योंकि, स्वभावके भेदसे स्वभाववालोंका भी भेद पाया जाता है। अभिप्राय यह है कि जितने कर्मों के स्वभाव हैं उतने ही कर्म हैं। १ गो, जी. ३१६- ३१.. । २ अ-श्रा-का प्रतिषु ‘जेत्तिया' इति पाठः। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४,९] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगदारं [४८१ वेदणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥६॥ सुगमं । वेयणीयस्त कम्मस्स दुवे पयडीओ॥ ७॥ सादावेदणीयमसादावेदणीयमिदि दो चेव सहावा, सुह-दुक्खवेयणाहितो पुधभूदाए अण्णिस्से वेयणाए अणुवलंभादो । सुहभेदेण दुहभेदेण च अणंतवियप्पेण वेयणीयकम्मस्स अणंताओ सत्तीओ किण्ण पढिदाओ' ? सच्चमेदं जदिपज्जवट्ठियणओ अवलंबिदो। किं तु एत्थ दव्वट्ठियणओ अवलंबिदो त्ति वेयणीयस्स ण तत्तियमेत्तसत्तीओ, दुवे चेव । पज्जवट्ठियणओ एत्थ किण्णावलंविदो ? ण, तदवलंबणे पओजणाभावादो। णाण-दसणावरणेसु किमट्ठमवलंविदो ? जीवसहावावगमणहूँ । एवदियाओ पयडीओ ॥८॥ जत्तिया सहावा अत्थि तत्तिया चेव पयडीओ होति । मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ॥६॥ वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वेदनीय कर्मकी दो प्रकृतियाँ हैं ॥ ७॥ सातावेदनीय और असातावेदनीय इस प्रकार वेदनीयके दो ही स्वभाव हैं, क्योंकि, सुख व दुख रूप वेदनाओंसे भिन्न अन्य कोई वेदना पायी नहीं जाती। शंका-अनन्त विकल्प रूप सुखके भेदसे और दुखके भेदसे वेदनीय कर्मकी अनन्त शक्तियाँ क्यों नहीं कही गई हैं ? समाधान-यदि पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन किया गया होता तो यह कहना सत्य था, परन्तु चूँकि यहाँ द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन किया गया है अतएव वेदनीय की उतनी मात्र शक्तियाँ सम्भव नहीं हैं, किन्तु दो ही शक्तियाँ सम्भव हैं। शंका-यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन क्यों नहीं किया गया है। समाधान-नहीं, क्योंकि, उसके अवलम्बनका कोई प्रयोजन नहीं था। शंका-ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी प्ररूपणामें उसका अवलम्बन किसलिये किया गया है ? समाधान-जीवस्वभावका ज्ञान करानेके लिये यहाँ उसका अवलम्बन किया गया है। उसकी इतनी ही प्रकृतियाँ हैं ॥८॥ कारण कि जितने स्वभाव होते हैं उतनी ही प्रकृतियाँ होती हैं। मोहनीय कमकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥४॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'पदिदाश्रो', ताप्रतौ 'पदि ( ठि) दानो' इति पारः। छ. १२-६१ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, १०. सुगमं । मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीसं पयडीओ॥ १०॥ तं जहां-मिच्छत्त-'सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-अणंताणुवंधि अपचक्खाणावरणीय-पच्चक्खाणावरणीय-संजुलण-कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-अरइ-सोग-भय दुगुंछित्थि-पुरिसणqसयभेएण मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस सत्तीयो। एसा वि परूवणा असुद्धदव्यट्ठियणयमवलंबिऊण कदा। पञ्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे मोहणीयस्स असंखेजलोगमेतीयो होति, असंखेजलोगमेत्तउदयट्ठाणण्णहाणुववत्तीदो। एत्थ पुण पज्जवट्ठियणो किण्णावलंविदो ? गंथबहुत्तभएण अत्थावत्तीए तदवगमादो वा णावलंविदो । एवदियाओ पयडीओ॥११॥ जेण मोहणीयस्स अट्ठावीस सत्तीओ तेण पयडीओ वि अट्ठावीसं होंति, एदाहिंतो पुधभूदमिण्णजादिसत्तीए अणुवलंभादो। आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडोओ ॥ १२॥ सुगमं । यह सूत्र सुगम है। मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं ॥ १० ॥ यथा-मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भेदसे मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस शक्तियाँ हैं। यह भी प्ररूपणा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके की गई है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तो मोहनीय कर्मकी असंख्यात लोक मात्र शक्तियाँ हैं, क्योंकि, अन्यथा उसके असंख्यात लोक मात्र उदयस्थान वन नहीं सकते। शंका-तो फिर यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन क्यों नहीं लिया गया है ? समाधान-ग्रन्थबहुत्वके भयसे अथवा अर्थापत्तिसे उनका परिज्ञान हो जानेसे उसका अवलम्बन नहीं लिया गया है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ११ ॥ चूँकि मोहनीयकी शक्तियाँ अट्ठाईस हैं अतः उसकी प्रकृतियाँ भी अट्ठाईस ही हैं, क्योंकि, . इनसे पृथग्भूत भिन्नजातीय शक्ति नहीं पायी जाती। आयुकर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १२ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त', ताप्रतौ 'मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-[ सम्मत्त ]' इति पाठः । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, १६] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगदारं [४८३ आउअस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ ॥ १३ ॥ कुदो ? देव-मणुम्स-तिरिक्ख-णेरइयभवधारणसरूवाणं सत्तीणं चदुण्णमुवलंभादो । एसा वि परूवणा असुद्धदव्वट्ठियणयविसया। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे आउअपयडी वि असंखेजलोगमेत्ता भवदि, कम्मोदयवियप्पाणमसंखेजलोगमेत्ताणमुवलंमादो। एत्थ वि गंथबहुत्तभएण अत्थावत्तीए तदवगमादो वा पञ्जवट्ठियणओ णावलंबिदो । एवडियाओ पयडीओ॥ १४ ॥ जेण आउअस्स चत्तारि चेव सहावा तेण चत्तारि चेव पयडीओ होति । णामस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ १५ ॥ सुगम। णामस्स कम्मस्स असंखेजलोगमेत्तपयडीओ ॥ १६ ॥ एत्थ किमट्ट पजबट्ठियणओ अवलंविदो ? आणुपुव्वीवियप्पपदुप्पायणटुं। तत्थ णिरयगइपाओग्गाणुपुविणामाए अंगुलस्स असंखेजदिमागमेत्तबाहल्ले तिरियपदरे सेडीए असंखेजभागमेत्तेहि ओगाहणावियप्पेहि गुणिदे जो रासी उप्पजदि तेत्तियमेत्तीओ सत्तीओ होति । तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुषिणामाए लोगे सेडीए असंखेजभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदे जा संखा उप्पजदि तत्तियमेत्ताओ सत्तीओ। मणुसगदि आयुकर्म की चार प्रकृतियाँ हैं ॥ १३ ॥ इसका कारण यह है कि देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक पर्यायको धारण कराने रूप शक्तियाँ चार पायी जाती हैं। यह प्ररूपणा भी अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयको विषय करनेवाली है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तो आयुकी प्रकृतियाँ भी असंख्यात लोक मात्र हैं, क्योंकि, कर्मके उदय रूप विकल्प असंख्यात लोक मात्र पाये जाते हैं। यहाँ भी ग्रन्थबहुत्वके भयसे अथवा अर्थापत्तिसे उनका परिज्ञान हो जानेके कारण पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन नहीं लिया गया है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १४ ॥ चूँकि आयुके चार ही स्वभाव हैं अतएव उसकी चार ही प्रकृतियाँ होती हैं। नामकर्मको कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १५ ॥ यह सूत्र सुगम है। नामकर्मकी असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ हैं ॥ १६ ॥ शंका-यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन किसलिये लिया गया है ? समाधान-आनुपूर्वी के भेदोंको बतलानेके लिये यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है। उनमेंसे अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र बाहल्यरूप तिर्यनतरको श्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाभेदोंसे गुणित करनेपर जो राशि उत्पन्न होती है उतनी मात्र नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी शक्तियाँ होती हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाभेदोंसे लोकको गुणित करनेपर जो संख्या उत्पन्न होती है उतनी मात्र तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नाभकर्मकी Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, १५. पाओग्गाणुपुग्विणामाए पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि उद्धंकवाडछेदणयणिफण्णाणि सेडियसंखेजभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदे जा संखा उप्पअदि तत्तियमेत्तीओ पयडीओ। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए णवजोयणसयवाहल्ले तिरियपदरे सेडीए असंखेजमागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदे जा संखा उप्पजदि तत्तियमेत्तीओ पयडीओ। गदि जादि-सरीरादीणं पयडीणं पि जाणिय भेदपरूवणा कायव्वा । एवदियाओ पयडीओ ॥ १७॥ जत्तियाओ णामकम्मरस सत्तीओ पुवं परूविदाओ तत्तियमेत्ताओ चेव तस्स पयडीओ होंति त्ति घेत्तव्यं ।। गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडोओ॥ १८॥ सुगमं । गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ॥ १६ ॥ 'उच्चागोदणिव्वत्तणप्पिया णीचागोदणिवत्तणप्पिया चेदि गोदस्स दुवे पय. डोओ। अवांतरभेदेण जदि वि बहुआवो अत्थि तो वि ताओ ण उत्ताओ गंथबहुत्त. भएण अत्थावत्तीए तदवगमादो वा । शक्तियाँ होती हैं। ऊर्ध्वकपाटके अर्धच्छेदोंसे उत्पन्न पैंतालीस लाख योजनबाहल्य रूप तिर्यातरोंको श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाभेदोंसे गुणित करनेपर जो संख्या उत्पन्न होती है उतनी मात्र मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ होती हैं । नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरको श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाभेदोंसे गुणित करनेपर जो संख्या उत्पन्न होती है उतनी मात्र देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ होती हैं । गति, जाति व शरीर आदिक प्रकृतियोंके भी भेदोंकी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिये। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १७ ॥ नामकर्मकी जितनी शक्तियाँ पूर्वमें कही जा चुकी हैं उतनी ही उसकी प्रकृतियाँ हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। गोत्र कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १८ ॥ यह सूत्र सुगम है। गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियाँ हैं ॥ १९ ॥ उच्चगोत्रको उत्पन्न करनेवाली और नीचगोत्रको उत्पन्न करनेवाली, इस प्रकार गोत्रकी दो प्रकतियाँ हैं। अवान्तर भेदसे यद्यपि वे बहुत हैं तो भी ग्रन्थके बढ़ जानेसे अथवा अर्थापत्तिसे उनका ज्ञान हो जानेके कारण उनको यहाँ नहीं कहा है। १ ताप्रतावतः प्राक 'सुगम' इत्यधिकः पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'दोयपयडीअो' इति पाठः। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, २५.] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगदारं [४८५ एवडियाओ पयडीओ॥२०॥ जेण दुवे चेव गोदकम्मस्स सत्तीयो तेण तस्स दो चेव पयडीओ। अंतराइयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥२१॥ सुगमं । अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ ॥ २२ ॥ सुगमं । एवदियाओ पयडीओ ॥ २३ ॥ कुदो ? पंचण्णं विसेसणाणं भेदेण तबिसेसिदकम्मक्खंधाणं पि भेदस्स णाओवगयस्स अणब्भुवगमे 'पमाणाणणुसारित्तप्पसंगादो । एवं पयडिअट्ठदा समत्ता । समयपबद्धट्टदाए॥२४॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं सुगमं । णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयस्स केवडियाओ पयडीओ॥२५॥ एदं सुत्तं तिविहसंखेजे णवविहअसंखेजे णवविहअणते च ढोइय एदस्स सुत्तस्स अत्थो वत्तव्यो। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ २० ॥ चकि गोत्रकर्मकी दो ही शक्तियाँ हैं अतएव उसकी दो ही प्रकृतियाँ हैं ! अन्तराय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ।। २१ ॥ यह सूत्र सुगम है। अन्तराय कर्मकी पाँच प्रकृतियाँ हैं ॥ २२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ।। २३ ॥ कारण यह कि पाँच विशेषणोंके भेदसे विशेषताको प्राप्त हुए उस कर्मके स्कन्धोंका भी भेद न्याय प्राप्त है। उसके न माननेपर प्रमाणकी अननुसारिताका प्रसंग आता है। इस प्रकार प्रकृत्यर्थता समाप्त हुई। अब समयप्रबद्धार्थताका अधिकार है ॥ २४ ॥ यह अधिकारका स्मरण करानेवाला सूत्र सुगम है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥२५॥ तीन प्रकारके संख्यात, नौ प्रकारके असंख्यात और नौ प्रकारके अनन्तको लेकर इस सूत्रका अर्थ कहना चाहिये। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'पमाणाणुसाहित्त', ताप्रतौ ‘पमाणाणुसारित्त [त्ता]', मप्रतौ 'पमाणाणुसारित्त' इति पाठः। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, २६. णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयस्स कम्मस्स एकेका पयडी तासं तीसं सागरोवमकोडाकोडीयो समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए ॥२६॥ ____णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइएसु एकेक्का पयडी। तिस्से कम्मट्ठिदिसमयभेदेण भेदो वुच्चदे। तं जहा-तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ एदेसिं कम्माणं कम्मट्ठिदी । तिस्से चरिमसमए कम्महिदिमेत्ता समयपबद्धा अस्थि । कुदो ? कम्मट्ठिदिपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ ति एत्थ बद्धसमयपबद्धाणं एगपरमाणुमादि कादण जाव अणंतपरमाणूणं कम्मट्टिदिचरिमसमए पाहुडणिल्लेवणट्ठाणसुत्तबलेण' उवलंभादो। कम्मट्टिदि. आदिसमए पबद्धपरमाणूण कम्महिदिचरिमसमए एगा चेव द्विदी होदि । एसा एगा पयडी। विदियसमए पबद्धकम्मपरमाणण' कमट्टिदिचरिमसमए वट्टमाणा विदिया पयडी, एदेसिं दुसमयहिदिदंसणादो। ण च एगसमयादो दोण्णं समयाणमेयत्तं, विरोहादो । नदो तब्मेदेण पयडिभेदेण वि होदव्यमण्णहा सव्वसंकरप्पसंगादो । एवं . तदियसमयपबद्धाणमण्णा पयडी, चउत्थसमयपबद्धाणमण्णा पयडि त्ति णेदव्यं जाव कम्महिदिचरिमसमयपबद्धो ति। पुणो एदे समयपबद्धे कालभेदेण पयडिभेदमुवगए संकलिजमाणे एगसमयपबद्धसलागाणं ठविय तीसकोडाकोडीहि गुणिदे एत्तियमेत्ताओ कालणिबंधणपयडीओ णाण-दसणावरण-अंतराइयाण मेकेकिस्से पयडीए होति । ___ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मकी एक एक प्रकृति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंको समय प्रबद्धार्थतासे गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतनी है ॥२६॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनमेंसे जो एक एक प्रकृति है उसका कमस्थितिके समयोंके भेदसे भेद कहते हैं। यथा-इन कर्मोंकी कर्मस्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है। उसके अन्तिम समयमें कर्मस्थिति प्रमाण समयप्रबद्ध होते हैं, क्योंकि, कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर उसके अन्तिम समय तक यहाँ बांधे गये समयप्रबद्धोंके एक परमाणुसे लेकर अनन्त परमाणु तक कमस्थितिके अन्तिम समयमें कसायपाहुडके निलेपनस्थान सूत्रके बलसे पाये जाते हैं। कर्मस्थितिके प्रथम समयमें तो बँधे हुए परमाणुओंकी कर्मस्थिति के अन्तिम समयमें एक ही स्थिति होती है । यह एक प्रकृति है। द्वितीय समयमें बांधे गये कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें वर्तमान द्वितीय प्रकृति है, क्योंकि, इनकी दो समय स्थिति देखी जाती है। एक समयका दो समयोंके साथ अभेद नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें विरोध है । इस कारण समयभेदसे प्रकृतिभेद भी होना ही चाहिये, अन्यथा सर्वशंकर दोषका प्रसंग आता है। इसी प्रकार तृतीय समयमें बांधे गये परमाणुओंकी अन्य प्रकृति, चतुर्थ समयमें बांधे गये परमाणुओंकी अन्य प्रकृति, इस प्रकार कमस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । अब कालके भेदसे प्रकृतिभेदको प्राप्त हुए इन समयप्रबद्धोंका संकलन करनेपर एक समयप्रबद्धकी शलाकाओंको स्थापितकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर इतनी मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायमेंसे एक एक कमकी प्रकृतियाँ होती हैं। १ अ-आप्रत्योः -णिलेवण' इति पाठः । २ अ-काप्रत्योः 'परमाणू' इति पाठः । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, २६.] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगहार [४८७ . एवदियाओ पयडीओ ॥२७॥ जत्तियाओ कालणिबंधणपयडीओ णाणावरणादीणमेकेका पयडी तत्तियमेत्ता होदि त्ति भणिदं होदि । णवरि मदिणाणावरणीय-सुदणाणावरणीय-ओहिणाणावरणीयचक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणावरणीयाणं च तीसंसागरोवमकोडाकोडिगुणिदाए एगसमय. पबद्धट्टदाए असंखेजलोगेहि गुणिदाए एदासिं' सव्वपयडिपमाणं होदि । अधवा, कम्मद्विदिपढमसमए बद्धकम्मक्खंधो एगसमयपबद्धट्ठदा, विदियसमयपबद्धो विदियसमयपबद्धदृदा ! एवं णेयव्वं जाव कम्मट्टिदिचरिमसमओ त्ति । पुणो एगसमयपबद्धट्ठदं ठविय तीसंसागरोवमकोडाकोडीहि गुणिदे एककस्स कम्मस्स एव दियाओ पयडीओ होति । एसा परूवणा एत्थ पहाणा, ण पुबिल्ला एग-दोआदिसययहिदिदव्वमस्सिदूण परूविदा । वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ २८ ॥ सुगम । वेदणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी तीसं-पण्णारससागरोवमकोडाकोडीओ समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए ॥ २६ ॥ . असादावेदणीयस्स कम्महिदिपढमसमए जो बद्धो कम्मक्खंधो सा एगा समयउनमें से प्रत्येककी इतनी प्रकृतियाँ होती हैं ॥ २७ ॥ जितनी कालनिवन्धन प्रकृतियाँ हैं, ज्ञानावरणादिकोंमेंसे प्रत्येककी एक एक प्रकृति उतनी मात्र होती है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। विशेष इतना है कि मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और अवधिदर्शनावरणीयकी तीस कोड़ाकोडि सागरोपमोंसे गुणित एक समयप्रबद्धार्थताको असंख्यात लोकोंसे गुणित करनेपर इनकी समस्त प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। __ अथवा, कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बांधे गये कर्मस्कन्धका नाम एक समयप्रबद्धार्थता है; द्वितीय समयमें बांधे गये कर्मस्कन्धका नाम द्वितीय समयप्रबद्धार्थता है, इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये। फिर एक समयप्रबद्धार्थताको स्थापितकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर एक एक कर्मकी इतनी प्रकृतियाँ होती हैं। यह प्ररूपणा यहाँ प्रधान है, न कि एक दो अादि समयमात्र स्थितिके द्रव्यका आश्रय करके की गई पूर्वोक्त प्ररूपणा । वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ २८ ॥ यह सूत्र सुगम है। तीस और पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंको समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी मात्र वेदनीयकर्मकी एक एक प्रकृति है ॥ २६ ॥ असाता वेदनीयकी कर्मस्थिति के प्रथम समयमें जो कर्मस्कन्ध बाँधा गया है वह एक समय१ श्र-काप्रत्योः 'एदेसिं' इति पाठः, श्राप्रतौ त्रुटितोऽत्र पाठः । २ तापतौ 'सो' इति पाठः। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८] छक्खंडागमे वेयणाखंडे [४, २, १४, २९. पबद्धट्ठदा, विदियसमए पबद्धो विदिया समयपबद्धट्टदा, तदियसमए पबद्धो तदिया समयपबद्धट्ठदा; एवं णेयव्वं जाव कम्मट्ठिदिचरिमसमओ त्ति । एत्थ एगसमयपबद्धट्ठदं ठविय तीसंसागरोवमकोडाकोडीहि गुणिदे असादावेदणीयस्स एवदियाओ कालणिबंधणपयडीओ होति । असादावेदणीयस्स सांतरबंधिस्स' समयपबद्धट्टदाए तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ गुणगारो ण होति, सादबंधणद्धाए असादस्स बंधाभावादो ? एत्थ परिहारो वुच्चदे। तं जहा-सगकम्मट्टिदिअभंतरे एदम्हि उद्देसे असादस्स बंधो पत्थि चेवे त्ति ण णियमो अस्थि, णाणाजीवे अस्सिदूण कम्म हिदीए सव्वसमएसु असादबंधुवलंभादो। एगजीवमस्सिदण कम्मट्टिदिअभंतरे असादस्स ण णिरंतरो बंधो लब्मदि त्ति भणिदे ण, तत्थ वि रेणापाकम्मट्टिदीयो अस्सिदृण णिरंतरबंधुवलंभादो। ण च एगजीवेण एत्थ अहियारो, कम्मट्टिदिमस्सिदूण समयपबद्धट्टदाए परूविदुमाढत्तादो । तम्हा असादवेदणीयस्स अद्धवबंधिस्स वि तीसंसागरोवमकोडाकोडीयो गुणगारो होंति त्ति सिद्धं। ___ असादवंधवोच्छिण्णकाले बद्धं सादमसादत्ताए संकंतं घेत्तण तीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता समयपबद्धट्ठदा त्ति किण्ण भण्णदे ? ण, सादसरूवेण बद्धाणं कम्मक्खंधाणं प्रबद्धार्थता है, द्वितीय समयमें बाँधा गया कर्मस्कन्ध द्वितीय समयप्रबद्धार्थता है, तृतीय समयमें बाँधा गया कर्मस्कन्ध तृतीय समयप्रबद्धार्थता है; इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । यहाँ एक समयप्रबद्धार्थताको स्थापितकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर इतनी मात्र आसाता वेदनीयकी कालनिबन्धन प्रकृतियाँ होती हैं। शंका-आसाता वेदनीय चुंकि सान्तरबन्धी प्रकृति है, अतएव उसकी समयप्रबद्धार्थताका गुणकार तीस कोडाकोड़ी सागरोपम नहीं हो सकता, क्योंकि, साता वेदनीयके बन्धकालमें असाता वेदनीयका बन्ध सम्भव नहीं है ? __समाधान–यहाँ इस शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-अपनी कर्मस्थितिके भीतर इस उद्देश्यमें असाता वेननीयका बन्ध है ही नहीं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, नाना जीवोंका आश्रय करके कर्मस्थितिके सब समयोंमें असाताका बन्ध पाया जाता है। शंका-एक जीवका आश्रय करके तो कर्मस्थितिके भीतर असाता वेदनीयका निरन्तर बन्ध नहीं पाया जाता है ? __समाधान-ऐसा कहनेपर उत्तर में कहते हैं कि 'नहीं'; क्योंकि, वहाँपर भी नाना कर्मस्थितियोंका आश्रय करके निरन्तर बन्ध पाया जाता है । और यहाँ एक जीवका अधिकार भी नहीं है, क्योंकि कर्मस्थितिका आश्रय करके समयप्रबद्धार्थताकी प्ररूपणा प्रारम्भ की गई है। इस कारण अध्रुवबन्धी असाता वेदनीयका गुणकार तीस कोड़ाकोड़ी सामरोपम है, यह सिद्ध है। शंका-असाता वेदनीयके बन्धव्युच्छित्तिकालमें बांधे गये व असाता वेदनीय स्वरूपसे परिणत हुए साता वेदनीयको ग्रहणकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थता क्यों नहीं कहते ? १ प्रतिषु 'सांतरबंधिसमय' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु ण ण' इति पाठः। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, ३०. ] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं [ ४८९ संकमेण असादत्ताए परिणदाणं असादसमयपबद्धत्तविरोहादो । अकम्मसरूवेण द्विदा पोग्गला असादकम्म सरूवेण परिणदा जदि होंति ते असादसमयपबद्धा णाम । तम्हा संकमेणागदाणं ग समयपबद्धववएसो त्ति सिद्धं । एवं घेप्पमाणे सादवेदीयस्स वि आवलिऊणती संसागरोव मकोडाको डिमे त्तसमयपबद्धट्ठदापसंगादो । कुदो ? बंधावलियादीदसादट्ठिीए सादसरूवेण संकंताए' सादसरूवेण चैव बंधावलिऊणकम्मडिदिमेत्तकालमवङ्काणदंसणादो | ण च सादस्स एत्तियमेत्ता समयपबद्धदा अत्थि, सुत्ते पण्णारससागरोवमकोडाको डिमेत्तसमयपत्रद्धट्टदुवदेसादो' । ण च असादस्स सादत्ताए संकेतस्स पण्णारससागरोवमकोडा कोडिमेत्ता चेव द्विदी, खंडयघादेण विणा कम्मद्विदोए घादाभावाद । एवं सादावेदणीयस्स वि वत्तव्वं, विसेसाभावादो । एवदियाओ पयडीओ ॥ ३० ॥ जतियाओ सादासाद वेदणीयाणं कालगदसत्तीयो तत्तियाओ चैव तासिं पयडीओ त्ति घेत्तव्वं । समाधान - क्योंकि, साता वेदनीयके स्वरूपसे बांधे गये परन्तु संक्रमण वश असाता वेदनीयके स्वरूपसे परिणत हुए कर्मस्कन्धोंके असातावेदनीय के समयप्रबद्ध होनेका विरोध है । कारण कि कर्मस्वरूपसे स्थित पुद्गल यदि असातावेदनीय कर्मके स्वरूपसे परिणत होते हैं तो वे असाता वेदनीयके समयप्रबद्ध कहे जाते हैं। इसलिये संक्रमण वश आये हुए कर्मपुद्गल स्कन्धों की समयबद्ध संज्ञा नहीं हो सकती, यह सिद्ध है । वैसा ग्रहण करनेपर साता वेदनीयके भी एक आवलीसे रहित तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थताका प्रसंग आता है, क्योंकि, बंधावलीसे रहित असातावेदनीयकी स्थितिका सातावेदनीयके स्वरूपसे परिणत होकर साता वेदनीयके स्वरूपसे ही बन्धावलीसे हीन कर्मस्थिति मात्र काल तक अवस्थान देखा जाता है । परन्तु साता वेदनीयके इतने समयप्रबद्ध नहीं हैं, क्योंकि सूत्रमें उसके पन्द्रह कोड़ा कोड़ी सागरोपम मात्र समयप्रबद्धों का उपदेश है । यदि कहा जाय कि असाता वेदनीय सातावेदनीयके स्वरूपसे संक्रमणको प्राप्त होता है अतः उस कर्मकी पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति हो सकती है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, काण्डकघात के बिना कर्मस्थितिका घात सम्भव नहीं है । इसी प्रकार साता वेदनीयके सम्बन्ध में भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३० ॥ साता व असातावेदनीयकी जितनी कालगत शक्तियाँ हैं उतनी ही उनकी प्रकृतियाँ हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये । १ श्रा-का-ताप्रतिषु 'सादसरूवेण संकंताए' इत्येतावानयं पाठो नोपलभ्यते । २ श्रापतौ 'त्रुटितोऽत्र पाठः, ताप्रतौ पद्धतदुवदेसादो' इति पाठः । छ. १२-६२ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, ३१. मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ३१ ॥ सुगमं । __ मोहणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी सत्तरि-चत्तालीसं-वीसं-पण्णारस-दस-सागरोवमकोडाकोडीयो समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए' ॥३२॥ मिच्छत्तस्स सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीयो, सोलसण्णं कसायाणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, अरदि-सोग-भय दुगुंछा-णqसयवेदाणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीयो, इथिवेदस्स पण्णारस सागरोवमकोडाकोडीओ, हस्स-रदि-पुरिसवेदाणं दस सागरोवमकोडाकोडीयो हिदी होदि । एदाहि कम्महिदीहि समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए एकेका पयडी एत्तियमेत्ता होदि, समयभेदेण बद्धक्खंधाणं पि भेदादो। एत्थ वि सांतरबंधीणं पयडीणमसादावेदणीयकमो' वत्तव्यो । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं समयपबद्धट्ठदा कधं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता ? ण, मिच्छत्तकम्महिदिमेत्तसमयपबद्धाणं समत्त-सम्ममिच्छत्तेसु संकंताणं सेचीयभावेण सव्वेसिमुवलंभादो। तासिमबंधपयडीणं कधं समयपबद्धट्ठदा ? ण, मिच्छत्तसरूवेण बद्धाणं कम्मक्खंधाणं लद्धसमयपबद्धववएसाणं मोहनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३१ ।। यह सूत्र सुगम है। सत्तर, चालीस, बीस, पन्द्रह और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंको समयप्रव. द्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी मोहनीय कर्मकी एक एक प्रकृति है ॥३२॥ मिथ्यात्वकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सोलह कषायोंकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम; अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम; स्त्रीवेदकी पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम तथा हास्य, रति और पुरुष वेदकी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति है । इन कर्मस्थितियोंके द्वारा समयप्रवद्धार्थताको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो इतनी मात्र एक एक प्रकृति है, क्योंकि, कालके भेदसे बांधे गये स्कन्धोंका भी भेद होता है। यहाँपर भी सान्तरबन्धी प्रकृतियोंके क्रमको असाता वेदनीयके समान कहना चाहिये।। शंका-सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी समयप्रबद्धार्थता सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वके रूपमें संक्रमणको प्राप्त हुए मिथ्यात्व कर्मकी स्थितिप्रमाण समयप्रबद्ध निषेक स्वरूपसे वहाँ सभी पाये जाते हैं। शंका–उन अबन्ध प्रकृतियोंके समयप्रबद्धार्थता कैसे सम्भव है ? । समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व स्वरूपसे बांधे गये व समयप्रबद्ध संज्ञाको प्राप्त हुए १ प्रतिषु 'गुणिदात्रो' इति पाठः। २ ताप्रतौ -'वेदणीयरस' इति पाठः। ३ अप्रतौ 'सेचीयाभावेण' इति पाठः। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, ३५.) वेयणपरिमाणविहाणाणियोगहारं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण संकंताणं पि दव्वट्ठियणयेण तव्ववएस पडि विरोहाभावादो। एस कमो अबंधपयडीणं चेव, ण बंधपयडीणं पुरिसवेदस्स वि चालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तसमयपवद्धट्ठदापसंगादो । ण च एवं, तहाविहसुत्ताणुवलंभादो। एवदियाओ पयडीओ॥३३॥ जत्तिया समयपबद्धा तत्तियमेत्ताओ पयडीओ एक्कक्का पयडी होदि, कालभेदेण भेदुवलंभादो। आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ३४ ॥ सुगम । आउअस्स कम्मस्स एकेका पयडी अंतोमुहुत्तमंतोमुहत्तं समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए ॥ ३५ ॥ अंतोमुत्तमंतोमुत्तमिदि विच्छाणिद्देसो। तेण चदुण्णमाउआणं अंतोमुहुत्तमेत्ता चेव हिदिबंधगद्धा होदि त्ति सिद्धं । एदीए बंधगद्धाए एगसमयपबद्ध गुणिदे चदुण्णमाउआणं पुध पुध समयपबद्धट्टदापमाणं होदि । आउअस्स संखेवद्धाए ऊणपुवकोडितिभागमेत्ता समयपबद्धट्टदा किण्ण परूविदा, कदलीघादमस्सिदूण अंतोमुत्तूणपुव्व'. कर्मस्कन्धोंके सम्यक्त्व एवं सम्यङ्मिथ्यात्व स्वरूपसे सक्रान्त होनेपर भी उनको द्रव्यार्थिक नयसे समयप्रबद्ध कहने में कोई विरोध नहीं है । यह क्रम अबन्ध प्रकृतियोंके ही सम्भव है, बन्ध प्रकृतियों के नहीं; क्योंकि, वैसा होनेपर पुरुषवेदके भी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थताका प्रसङ्ग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारका कोई सूत्र नहीं है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३३ ॥ जितने समयप्रबद्ध हों उतनी मात्र प्रकृतियों स्वरूप एक एक प्रकृति होती है, क्योंकि, कालके भेदसे प्रकृतिभेद पाया जाता है । आयु कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३४ ।। यह सूत्र सुगम है। __ अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्तको समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी आयु कर्मकी एक एक प्रकृति है ॥ ३५ ॥ 'अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त' यह वीप्सानिर्देश है। इसलिए चारों आयुअोंका स्थितिबन्धक काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है, यह सिद्ध है। इस बन्धककालसे एक समयप्रबद्धको गुणित करनेपर पृथक् पृथक चारों आयुओंकी समयप्रबद्धार्थताका प्रमाण होता है। शंका-आयुके संक्षेपाद्वासे हीन पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण अथवा कदलीघातका आश्रय करके अन्तर्मुहूर्तसे हीन पूर्वकोटि प्रमाण समयप्रबद्धार्थता क्यों नहीं कही गई है ? १ प्रतिषु 'अंतोमुहुत्तेणपुव्व-' इति पाठः । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ] छक्खंड में वेयणाखंड कोडिता वा ? ण एस दोसो, जहा सादादीणं एगसमयअबंधगो' होदूण विदियसमए चैव बंधगो होदि, एवं ण आउअस्स; किं तु सेसाउअस्स वेत्तिभागं गंतूण चेव बंधगो होदित्ति जाणावण अंतो मुहुत्तग्गहणं कदं । एवदियाओ पयडीओ ॥ ३६ ॥ सुगमं । णामस्स कम्मरस' केवडियाओ पयडीओ ॥ ३७ ॥ सुगमं । णामस्स कम्मस्स एकेका पयडी वीसं अट्ठारस-सोलस-पणारसचोहस्स - बारस - दससागरोवम कोडाकोडीयो समयपबद्धदाए गुणिदाए ॥ ३८ ॥ णिरय गइ - णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वि-तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-एइंदियचिदियजादि - [ ओरालिय- वेउब्विय - ] तेजा - कम्मइयसरीर वण्ण-गंध-रस- फास-ओरालियवे उव्वियसरीरअंगोवंग- हुंड संठाण - असंपत्त सेवट्टसंघडण - अगुरुवल हुग-उवघाद - परघादउस्सास - आदावुजोव - अप्पसत्थविहायगदि - थावर - तस - बादर - पञ्जत्त - पत्तेयसरीर- अथिर - असुह-अणादेज- दुभग- दुस्सर - अजसकित्ति - णिमिणणामाणं वीसं सागरोवम को डाकोडीयो उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३६ ॥ यह सूत्र सुगम है । नाम कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३७ ॥ यह सूत्र सुगम है । [ ४, समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार साता वेदनीय आदि कर्मोंका एक समय अबन्धक होकर द्वितीय समयमें ही बन्धक हो जाता है, इस प्रकार आयुकर्मका बन्धक नहीं होता; किन्तु शेष आयुके दो त्रिभाग बिताकर ही बन्धक होता है, यह बतलाने के लिए अन्तर्मुहूर्त - का ग्रहण किया है । २, १४, ३६. बीस, अठारह, सोलह, पन्द्रह, चौदह, बारह और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमों को समयप्रबुद्धार्थता से गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी नामकर्मकी एक एक प्रकृति है ॥ ३८ ॥ नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति पंचेन्द्रिय जाति, [ औदारिक, वैक्रियिक, ] तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, औदारिक व वैक्रियिक शरीरागोपांग, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, अनादेय, दुर्भाग, दुस्वर, अयशःकीर्ति और निर्माण इन नामकर्मकी प्रकृतियोंका १ ताप्रती 'एग समयपबंधगो' इति पाठः । २ आा-का-ताप्रतिषु 'णामकस्स' इति पाठ: । ३ तापतौ 'वारससागरोवम' इति पाठः । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, ३८. ] वेण परिमाणविद्दाणाणियोगद्दार [ ४३ उक्कस्स डिदिबंधो। बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदिय - सुदुम- साधारण- अपजत्त - पंचमसंठाणपंचम संघडणाणमट्ठारससागरोवमकोडाकोडीयो उकस्सट्ठिदिबंधो । चउत्थसंठाण - चउत्थसंघडणाणं सोलससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं पण्णारससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो होदि । तदियसंठाणतदिय संघडणाणं चोदसस गरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो । विदियसंठाण-विदियसंघडणाणं बारससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सडिदिबंधो । देवगड - देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-समचउरससंठाण वञ्ज रिस हव हरणारायणसंघडण - पसत्थविहाय ग दि थिर--सुभ-सुभगसुस्सर - आदेज-जस गित्तीणं दससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो' । एदाहि हि ध ध समयपबद्ध गुणिदे सग-सगसमयपबद्धट्टदा होदि । संपहि आहारदुगस्स समयपबद्धदृदा संखेअंतोमुहुत्तमेत्ता । तं जहा - अडवस्संतोमुहुत्तस्वरि संजदो अंतो मुहुत्त कालमाहारदुगं बंधिय णियमा थक्कदि, पमत्तद्धाए आहार - दुगस्स बंधाभावादो। एवमंतोमुहुत्तमबंधगो होदूण पुणो अंतोमुहुत्तं बंधगो होदि, पडिवण्णअप्पमत्तभावत्तादो । एवमप्पमत्त पमत्तद्वासु बंधगो अबंधगो च होदूण ताव गच्छदि जाव yoवकोडिचरिमसमओ ति । एदे अंतोमुहुत्ते व्विणिण गहिदे संखेजंउत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, पांचवां संस्थान और पांचवां संहनन इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । चौथे संस्थान और चौथे संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सोलह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रयोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । तृतीय संस्थान और तृतीय संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चौदह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । द्वितीय संस्थान और द्वितीय संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । देवगति, देवगतिप्रयोग्यानुपूर्वी, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभवत्रनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशःकीर्ति इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है। इन स्थितियोंके द्वारा पृथक् पृथक् समयप्रबद्धको गुणित करनेपर अपनी अपनी समयबद्धार्थताका प्रमाण होता है । अब आहारकद्विककी समयप्रबद्धार्थताका प्रमाण संख्यात अन्तर्मुहूर्त मात्र है । यथा - आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्तके ऊपर संयत होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक आहारकद्विकको बाँधकर नियमसे थक जाता है, कारण कि प्रमत्तसंयतकाल में आहारकद्विकका बन्ध नहीं होता है । इस प्रकार से अन्तमुहूर्त काल तक अबन्धक होकर फिरसे अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्धक होता है, क्योंकि, तब उसने अप्रमत्तभावको प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार अप्रमत्त व प्रमत्त कालोंमें क्रमसे बन्धक व अबन्धक होकर तब तक जाता है जब तक पूर्वको टिका अन्तिम समय प्राप्त होता है । इन अन्तर्मुहूतों को समुच्चय १. खं. १, भा. ६, पु. ६, चू. ६, सू. ७, १६, १६, ३०, ३६, ३६, ४२, गो. क. १२५-१३२ । २ ताप्रती - मबंगो होदून [ पुणो तोमुहुत्तमबंधगो होदूण ] इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । श्रश्राका ताप्रतिषु 'एवमप्पमत्तद्धासु' इति पाठः । ४ - श्राकाप्रतिषु 'पुधकोडि' इति पाठः । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ ] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, १४, ३८. तोमुहत्तमेत्ता चेव समयपबद्धट्ठदा लब्भदि । तित्थयरस्स पुण सादिरेयतेत्तीससागगेवममेत्ता समयपबद्धट्ठदा लभंति । तं जहाएगो देवो वा णेरइयो वा सम्मादिट्ठी पुनकोडाउअमणुस्सेसु उववण्णो, गन्मादिअट्ठवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणमुवरि तित्थयरणामकम्मबंधमागंतूण तदो पहुडि उवरि णिरंतरं बज्झदि जाव अवसेसपुव्वकोडिसमहियतेत्तीससागरोवमाणि ति, तित्थयरं बंधमाणसंजदस्स बद्धतेत्तीससागरोवममेत्तदेवाउअस्स देवेसुप्पण्णस्स तेत्तीससागरोक्ममेतकालं णिरंतरं बंधुवलंभादो । पुणो तत्तो चुदो समाणो पुणो वि तित्थयरणामकम्मं बंधदि जाव पुव्वकोडाउअमणुस्सेसु उप्पन्जिय वासपुधत्तावसेसे अपुवकरणो होदण चरिमसत्तमभागस्स पढमसमयअपुव्यकरणो त्ति । उवरि बंधी णस्थि, चरिमसत्तमभागस्स पढमसमए अणुप्पादाणुच्छेदेण बंधो वोच्छिादि त्ति ससुत्ताइरियवयणुवलंभादो। वासपुधत्तं किमिदि उव्वराविदं ? ण एस दोसो, तित्थविहारस्स जहण्णेण वासपुधत्तमेत्तकालुवलंभादो । एवमादिमंतिमदोहि' वासपुधत्तेहि ऊणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता तित्थयरस्स समयपबद्धवदा होदि त्ति के वि आइरिया भणति । तण्ण घडदे। कुदो ? आहारदुगस्स संखेजवासमेत्ता तित्थयरस्स सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता समयपबद्धदुदा होति त्ति सुत्ताभावादो। ण च सुत्तपडिकूलं वक्खाणं होदि, वक्खाणाभासत्तादो। रूपसे ग्रहण करनेपर संख्यात अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही समयप्रबद्धार्थता पायी जाती है। परन्तु तीर्थंकर प्रकृतिकी समयप्रबद्धार्थता साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण पायी जाती है। यथा-एक देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। उसके गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षों के पश्चात् तीर्थंकर नामकर्म बन्धको प्राप्त हुआ। उससे आगे वह शेष पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरापम प्रमाण काल तक निरन्तर बधता है, क्योंकि, जो संय सागरोपम प्रमाण देवायुको बाँधकर देवोंमें उत्पन्न हो तीर्थंकर प्रकृतिको बाँधता है उसके तेतीस सागरोपम प्रमाण काल तक उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । फिर वहाँ से च्युत होकर फिरसे भी वह पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वर्ष पृथक्त्वके शेष रहनेपर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होकर अन्तिम सप्तम भागके प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण तक तीर्थंकर नामकर्मको बाँधता है। इसके आगे उसका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि, "अन्तिम सप्तम भागके प्रथम समयमें अनुत्पादानुच्छेदसे उसका बन्ध व्युच्छिन्न हो जाता है" ऐसा ससूत्राचार्यका वचन पाया जाता है। शङ्का-वर्षपृथक्त्वको अवशेष क्यों रखाया गया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीर्थविहारका काल जघन्य स्वरूपसे वर्षपृथक्त्व मात्र पाया जाता है। इस प्रकार आदि और अन्तके दो वर्षपृथक्त्वोंसे रहित तथा दो पूर्वकोटि अधिक तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तेतीस सागरोपम मात्र समयप्रबद्धार्थता होती है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, आहारकद्विककी संख्यात वर्ष मात्र और तीर्थंकर प्रकृतिकी साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण समयप्रवद्धार्थता है, ऐसा कोई सूत्र नहीं है । और सूत्रके प्रतिकूल व्याख्यान होता नहीं है, क्योंकि, १ तापतौ 'एवमादिमंतरियदोहि' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'मेत्तो' इति पाठः। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, ३८. ] daणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं [ ४९५ ण च जुत्तीए सुत्तस्स बाहा संभवदि, सयलवाहादीदस्स सुत्तववएसादो । जदि एवं तो एदेसिं कम्माणं तिणं केवडिया समयपबद्धगुदा ? वीसंसागरोवमकोडा कोडिमेचा । एदेसिं तिष्णं कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिबंधो अंतोकोडा कोडिमेत्तो चेव । ण च तेत्तियं कालमेदसिं बंधो वि संभवदि, कमेण संखेजवस्ससादिरेय तेत्ती ससागरोवममेत्तकालबंधुव भादो । जेसिमंतो को डाकोडिमेत्तावि समयपबद्धदा ण संभवदि कथं तेसिं वीससागरोत्रम कोडाको डिमेत्तसमयबद्ध णं संभवो त्ति ? ण एस दोसो, एदेसु तिसु कम्मे सु बज्झमाणे वीसंसागरोवमकोडाकोडीसु संचिदणामकम्मसमयपत्रद्धेसु एदेसु संकममाणेसु बी सागरोव मकोडाको डिमेत्तसमयपबद्धट्ठदाए उवलंभादो । एदाओ तिष्णि वि बंधपगदीओ । ण च बंधपयडीणं संकमेण समयपबद्धट्टदा वोत्तु सकिजदे, सादस्स वि तीसंसागरोत्रम कोडा कोडिमेत्तसमयपत्रद्धदापसंगादोत्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहाजासं पयडीणं द्विदितादो उवरि कम्हि वि काले ट्ठिदिबंधो संभवदि ताओ बंधपयडीओ णाम । जासं पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संते वि जासि पयडीणं हिदिसंतादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि; ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। ण च आहारदुग- तित्थयराणं ट्ठिदिसंतादो उवरि बंधो अस्थि, समाइट्ठीसु तदणुत्रलंभादो वह व्याख्यानाभास कहा जाता है । यदि कहा जाय कि युक्तिसे सूत्रको बाधा पहुँचाई जा सकती है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जो समस्त बाधाओं से रहित होता है उसकी सूत्र संज्ञा है । शङ्का - यदि ऐसा है तो फिर इन तीन कर्मोंकी समयप्रबद्धार्थता कितनी है ? समाधान — उनकी समयप्रबद्धार्थता बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है । शङ्का - इन तीन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण ही होता है । परन्तु इतने काल तक उनका बन्ध भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह क्रमसे संख्यात वर्ष और साधिक तेतीस सागरोपम काल तक ही पाया जाता है। इसलिए जिनकी अन्तःकोड़ाकोड़ी मात्र भी समय प्रबद्धार्थता सम्भव नहीं है उनके बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धों की सम्भावना कैसे की जा सकती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बँधते समय इन तीनों कर्मोंमें बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंमें संचयको प्राप्त हुए नामकर्मके समयप्रबद्धोंका संक्रमण होनेपर इनकी बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थता पायी जाती है । शङ्का – ये तीनों ही बन्धप्रकृतियाँ हैं, और बन्धप्रकृतियोंकी संक्रमण से समयप्रबद्धार्थता कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर साता वेदनीयकी भी समयप्रबद्धार्थता तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण प्राप्त होती है ? समाधान- यहाँ उक्त शङ्काका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है - जिन प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्वसे अधिक किसी भी कालमें बन्ध सम्भव है वे बन्धप्रकृतियाँ कही जातीं हैं । परन्तु जिन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता है और बन्धके होनेपर भी जिन प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्वसे अधिक सदा काल बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्वप्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्वकी प्रधानता है । आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका स्थिति सत्त्वसे अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जाता Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, ३९. तम्हा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं व एदाणि तिणि वि संतकम्माणि । तदो जहा सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं समयपबद्धट्टदा संकमेण परूविदा तहा एदासि पि संकमेणेव परवेदव्वा, संतकम्मत्तं पडि भेदाभावादो। जदि वि संकमेण समयपबद्धवदा वुच्चदे तो वि उक्कस्सहिदिमेत्ता समयपबद्धट्टदा णोवलब्भदे, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु कम्मट्टिदिपढमसमयप्पहुडि अंतरमेत्तकालम्हि बद्धसमयपबद्धाणं संकमाभावादो आहार-तित्थयरेसु उदयावलियमेत्तसमयपबद्धाणं संकमाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, णाणाकालेसु णोणाजीवे अस्सिदण परूविजमाणे सव्वेसिं समयपबद्धाणं संमुवलंभादो। ण च कम्मट्टिदीए आदीए चेव एत्थ होदि त्ति णियमो अत्थि, अणादिसंसारे बुद्धिबलसिद्धआदिदंसणादो। एत्थ जं गंथबहुत्तभएण ण वुत्तं तं चिंतिय वत्तव्वं । एवांदयाओ पयडीओ ॥ ३४ ॥ जत्तिया समयपबद्धा पुच्वं परूविदा एककिस्से पयडीए तत्तियमेत्ताओ पयडीओ होंति त्ति घेत्तव्वं । गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ॥४०॥ सुगम। है। इस कारण सम्यक्त्व व सम्यमिथ्यात्वके समान ये तीनों ही सत्त्वप्रकृतियाँ हैं। अतएव जिस प्रकार सम्यक्त्व व सम्यमिथ्यात्व प्रकृतियोंकी समयप्रबद्धार्थताकी संक्रमण द्वारा प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इनकी भी समयप्रबद्धार्थताकी प्ररूपणा संक्रमण द्वारा करनी चाहिये, क्योंकि, सत्कर्मताके प्रति उनमें कोई विशेषता नहीं है। ____ शङ्का-यद्यपि संक्रमणसे इनकी समयप्रबद्धार्थता बतलाई जा रही है तो भी इनकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण समयप्रबद्धार्थता नहीं पायी जाती है, क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व प्रकृतियोंमें कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तर प्रमाण कालमें बाँधे गये समयप्रबद्धोंके संक्रमणका अभाव है, तथा आहारद्विक और तीर्थंकर प्रकृतियोंमें उदयावली प्रमाण समयप्रवद्धोंके संक्रमणका अभाव है ? ___समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नाना कालोंमें नाना जीवोंका आश्रय करके प्ररूपणा करनेपर सब समयप्रबद्धोंका संक्रमण पाया जाता है। दूसरे, यहाँ कर्मस्थितिके आदिमें ही होता है, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, अनादि संसारमें बुद्धिबलसे सिद्ध आदि देखी जाती है । यहाँ ग्रन्थकी अधिकताके भयसे जो नहीं कहा गया है उसको विचार कर कहना चाहिये। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं।॥ ३४॥ एक एक प्रकृतिके जितने समयप्रबद्ध पहिले कहे गये हैं उतनी मात्र प्रकृतियाँ होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। गोत्र कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? ॥४०॥ यह सूत्र सुगम है। १ न-श्रा-काप्रतिषु 'भएण वुत्त' इति पाठः। . . . .. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, ४४] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं [४६७ गोदस्स कम्मस्स एकेका पयडी बीसं-दससागरोवमकोडाकोडीओ समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए ॥४१॥ वीसंसागरोवमकोडोकोडीहि एगसमयपबद्ध गुणिदे णीचागोदस्स समयपबद्धहदापमाणं होदि । दससागरोवमकोडाकोडीहि गुणिदे उच्चागोदस्स समयपबद्धट्टदापमाणं होदि । एत्थ सादासादाणं परूविदविहाणं संचिंतिय वत्तव्वं । एवंदियाओ पयडोओ ॥४२॥ सुगमं । एवं समयपबद्धट्ठदा त्ति समत्तमणियोगद्दारं । खेत्तपञ्चासे ति ।। ४३ ॥ एदम हियारसंभालणसुत्तं । प्रत्यास्यते अस्मिन्निति प्रत्यासः, क्षेत्रं तत्प्रत्यासश्च क्षेत्रप्रत्यासः । जीवेण ओट्ठद्धखेत्तस्स खेत्तपञ्चासे त्ति सण्णा । णाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ॥४४॥ सुगमं । णाणावरणीयस्स कम्मस्स जो मच्छो जोयणसहस्सओ सयंभुरमणसमुदस्स बाहिरल्लए तडे अच्छिदो, वेयणसमुग्धादेण समुहदो, बीस और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंको समयप्रवद्धार्थता से गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी गोत्र कमेकी एक एक प्रकृति है ॥ ४१ ॥ __एक समयप्रबद्धको बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर नीच गोत्रकी समयप्रबद्धार्थताका प्रमाण होता है । तथा दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर उच्चगोत्रकी समयप्रबद्धार्थताका प्रमाण होता है। साता व असाता वेदनीयके सम्बन्धमें जो विधि प्ररूपित की गई है उसको भले प्रकार विचार कर यहाँ भी कहनी चाहिये। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ४२ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार समयप्रबद्धार्थता यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। क्षेत्रप्रत्यास अनुयोगद्वारका अधिकार है ॥ ४३ ॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है। जहाँ समीपमें रहा जाता है वह प्रत्यास कहा जाता है, क्षेत्र रूप प्रत्यास क्षेत्रप्रत्यास, इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है । जीवके द्वारा अवष्टब्ध ( अवलम्बित ) क्षेत्रकी क्षेत्रप्रत्यास संज्ञा है। ज्ञानावरणीय कमेकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? ॥ ४४ ॥ . यह सूत्र सुगम है। जो मत्स्य एक हजार योजन प्रमाण है, स्वयम्भूरमण समुद्रके बाह्य छ. १२-६३ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, १४,४५. काउलेस्सियाए लग्गो, पुणरवि मारणंतियसमुग्धादेण समुहदो, तिण्णि विग्गहगदिकंदयाणि काऊण से काले अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववजिहदि त्ति ॥४५॥ एदेण सव्वेण वि सुत्तेण णाणोवरणीयस्स उक्कस्सखेत्तपञ्चासो परूविदो। एदस्स सुत्तस्स अत्थो वि सुगमो, खेत्तविहाणे परूविदत्तादो । खेत्तपञ्चासेण गुणिदाओ॥ ४६॥ पुवुत्तेण खत्तपञ्चासेण गुणिदाओ समयपबद्धट्टदापयडीओ एत्थतणपयडिपमाणं होति । एवं दियाओ पयडीओ॥४७॥ पयडिअदाए जाओ पयडीओ णाणावरणीयस्स परूविदाओ ताओ अप्पप्पणो समयपबद्धट्ठदाए गुणेदव्वाओ। एवं गुणिदे समयपबद्धट्टदापयडीओ होति । पुणो तासु खेत्तपञ्चासेण जगपदरस्स असंखेजदिभागमेत्तेण गुणिदासु एत्थतणपयडीओ होति । एत्थ तेरासियकमेण पयडिपमाणमाणेदव्वं । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ ४८ ॥ तटपर स्थित है, वेदनासमुद्घातको प्राप्त हुआ है, कापोतलेश्यासे संलग्न है, इसके बाद मारणंतिक समुद्घातको प्राप्त हुआ है, विग्रहगतिके तीन काण्डकोंको करके अनन्तर समयमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न होगा, उसके ज्ञानावरण कर्मकी जो एक एक प्रकृति होती है ॥ ४५ ॥ इस सब ही सूत्र के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्मके उत्कृष्ट क्षेत्र प्रत्यासकी प्ररूपणा की गई है। इस सूत्रका अर्थ भी सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रविधानमें उसकी प्ररूपणा की जा चुकी है। उन्हें क्षेत्रप्रत्यास से गुणित करनेपर ज्ञानावरणकी क्षेत्रप्रत्यास प्रकृतियोंका प्रमाण होता है ॥ ४६ ॥ पूर्वोक्त क्षेत्र प्रत्याससे समय प्रबद्धार्थता प्रकृतियोंको गुणित करनेपर यहाँकी प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। उसकी इतनी प्रकृतियां हैं ॥ ४७ ॥ प्रकृत्यर्थतामें ज्ञानावरणकी जिन प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की गई है उनको अपनी अपनी समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करना चाहिये । इस प्रकार गुणित करनेपर समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियाँ होती हैं। फिर उनको जगप्रतरके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रप्रत्याससे गुणित करनेपर यहाँकी प्रकृतियाँ होती हैं। यहाँ त्रैराशिक क्रमसे प्रकृतियांका इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके सम्बन्धमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥४८॥ वाहिये। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १४, ५१.) वैयणपरिमाणविहाणाणियोगहारं [४९९ जहा णाणावरणीयस्स समयपबद्धवदापयडीओ खेत्तपच्चासेण गुणिय आणिदाओ तहा एदेसि वि तिण्णं कम्माणं खेत्तपच्चासपयडिपमाणमाणेदव्वं । वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ॥४६॥ सुगमं । वेयणीयस्त कम्मस्स एकेका पयडी अण्णदरस्स केवलिस्स केवलिसमुग्धादेण समुग्धादस्स सव्वलोगं गदस्स ॥ ५० ॥ एदेण सुत्तेण खत्तपञ्चासपमाणं परूविदं संभालिदं वा, खेत्तविहाणे परूविदत्तादो। खेत्तपच्चासेण गुणिदाओ॥५१॥ वेयणीयस्स एक्कका पयडी खेत्तपच्चासेण गुणिदा संती असंखेज्जाओ पयडीओ होति । एक्का समयपबद्धहदापयडी' जदि घणलोगमेत्ता होदि तो सव्वासिं किं लभामो त्ति खेत्तपञ्चासगुणगारो साहेयव्यो। 'वेयणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी सव्वलोगं गदस्स केवलिस्स, खेत्तपञ्चासेण गुणिदाओ' ति कधमेत्थ भिण्णाहियरणाणं संबंधो ? ण, जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मकी समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियोंको क्षेत्रप्रत्याससे गुणित करके लाया गया है उसी प्रकार इन तीनों ही कर्मों के क्षेत्रप्रत्यासरूप प्रकृतियोंके प्रमाणको लाना चाहिये। वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ।। ४६ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलिसमुद्घोतसे समुद्घातको प्राप्त होकर सर्व लोकको प्राप्त हुए अन्यतर केवलीके जो वेदनीय कर्मको एक एक प्रकृति होती है ॥५०॥ इस सूत्रके द्वारा क्षेत्रप्रत्यासके प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । अथवा, उसका स्मरण कराया गया है, क्योंकि उसकी प्ररूपणा क्षेत्रविधानमें की जा चुकी है। उन्हें क्षेत्र प्रत्याससे गुणित करनेपर वेदनीय कर्मकी क्षेत्रप्रत्यास प्रकृतियोंका प्रमाण होता है ॥ ५१ ॥ वेदनीय कर्मकी एक एक प्रकृति क्षेत्रप्रत्याससे गुणित होकर असंख्यात प्रकृतियाँ होती हैं। यदि एक समय प्रबद्धार्थता प्रकृति घनलोक प्रमाण है तो सब प्रकृतियाँ कितनी होंगी, इस प्रकार क्षेत्रप्रत्यासके गुणकारको सिद्ध करना चाहिये। __ शंका-'वेयणीस्स कम्मस्स एक्केका पयडी सव्वलोगं गदस्स केवलिस्स खेत्तपच्चासेण गुणिदाओ' यहाँ चूकि 'पयडी' पद एकवचन और 'गुणिदाओ' पद बहुवचन है, अतएव यहाँ इन भिन्न अधिकरणवालोंका संबंध किस प्रकार हो सकता है ? १ आप्रतौ '-पबद्धदा वयदा पयडी', काप्रती 'पबद्धदा पयदपयडी', ताप्रती पबदा पयदा पयडी' इति पाठः। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१४,५२. एकेका इदि 'विच्छाणिद्देसेण सगंतोक्खित्तबहुत्तेण समाणाहियरणतं पडि विरोहाभावादो। एवदियाओ पयडीओ ॥ ५२ ॥ सुगमं । एवमाउअ-णामा-गोदाणं ॥५३॥ सुगम । एवं खेत्तपच्चासे त्ति अणियोगद्दारे समत्ते वेयणपरिमाणविहाणे' ति समत्तमणियोगद्दारं । समाधान-नहीं, क्योंकि 'एक्केक्का' इस प्रकार अपने भीतर बहुत्वको रखनेवाले वीप्सानिर्देशसे उनका समानाधिकरण होने में कोई विरोध नहीं आता है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ५२ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र कर्मोके सम्बन्धमें कहना चाहिये ॥ ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार क्षेत्र प्रत्यास अनुयोगद्वारके समाप्त होनेपर वेदनापरिमाण विधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ]च्छा' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'परिणामविहाणे' १ आप्रतौ 'मिच्छा', ताप्रती 'मि [ इति पाठः। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणभागाभागविहाणाणियोगद्दारं वेयणभागाभागविहाणे ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं सुगम । तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पयडिअट्ठदा समयपबद्धट्टदा खेत्तपञ्चासे त्ति ॥ २ ॥ एवमेदाणि एत्थ तिण्ण चेव अणियोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो । पयडिअदाए णाणावरणीय-दसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ सव्वपयडीणं केवडियो भागो ॥३॥ किं संखेजदिमागो किमसंखेजदिभागो किमणंतिमभागो त्ति भणिदं होदि । दुभागो देसूणो ॥४॥ तं जहा-ओहिणाणावरणीयपयडीओ ओहिदंसणावरणीय पयडीओ च पुध पुध असंखेजलोगमेता होदण अण्णोण्णं पेक्खिद्ण समाणाओ, सव्योहिणाणवियप्पाणं ओहिदंसणपुरंगमत्तुवलंभादो। मदिणाणावरणीयपयडीओ चक्खु-अचक्खुदंसणावरणीयपय अब वेदनाभागाभागविधान अनुयोगद्वार का अधिकार है ॥ १॥ यह अधिकारका स्मरण करानेवाला सूत्र सुगम है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्र. प्रत्यास ॥ २॥ ___ इस प्रकार यहाँ ये तीन ही अनुयोग द्वार हैं, क्योंकि, इनसे अन्य अनुयोगद्वार यहाँ सम्भव नहीं है। प्रकृत्यर्थतासे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥३॥ वे क्या संख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्या असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं या क्या अनन्तवें भाग प्रमाण हैं, यह इस सूत्र का अभिप्राय है। वे सब प्रकृतियोंके कुछ कम द्वितीय भाग प्रमाण हैं ॥ ४ ॥ यथा-अवधिज्ञानावरणकी प्रकृतियाँ और अवधिदर्शनावरणकी प्रकृतियाँ पृथक् पृथक असंख्यात लोक प्रमाण होकर परस्परकी अपेक्षा समान हैं, क्योंकि, अवधिज्ञानके सब भेद अवधिदर्शनपूर्वक पाये जाते हैं। मतिज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ और चक्षु व अचक्षु दर्शनावरणीयकी Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २,१५, ४. डीओ च पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्ताओ' होदण अण्णोण्णं पेक्खिदूण समाणाओ, सव्वस्स मदिणाणस्स दंसणपुरंगमत्तभुवगमादो। सुदणाणावरणीयपयडीयो असंखेज्ज. लोगमेत्ताओ । मणपज्जवणाणावरणीयपयडीओ असंखेज्जकप्पमेत्ताओ । एदासिं सुदमणपज्जवणाणावरणीयपयडीणं ण दंसणमत्थि, मदिणाणपुरंगमत्तादो । तेण दंसणावरणीयपयडीहिंतो णाणावरणीयपयडीओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जदिभागमेत्तो। किंतु मदिणाणे सुदणाणं पविसदि त्ति एत्थ पुध ण घेत्तव्वं, अण्णहा देसूणदुभागत्ताणुववत्तीदो । अधवा, सुद-मणपज्जवणाणाणं' पि दंसणमत्थि, तदवगमत्थसंवेयणाए तत्थ वि उवलंभादो। ण पुव्वब्भुवगमेण विरोहो', तक्कारणीभूददंसणस्स तत्थ पडिसेहविणासादो । केवलदसणस्स एका पयडी अस्थि । केवलणाणावरणीयस्स वि एक्का चेव । तेण ताओ सरिसाओ । णिहाणिद्दा पयलपयला थीणगिद्धी णिद्दा य पयला य एदाओ पंच पयडीओ दसणावरणीए अस्थि । किं तु एदाओ अप्पहाणाओ, मणपज्जवणाणावरणीय पयडीणमसंखेज्जदिभागत्तादो। तदो सिद्धं दंसणावरणीयपयडीहितो णाणोवरणीयपयडीओ बहुगाओ त्ति ।। ___ असादावेदणीयादिसेसपयडीओ दसणावरणीयपयडीणं असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होद्ण मणपज्जवणाणावरणीयपयडीहितो असंखेज्जगुणाओ। कमसंखेज्जगुणत्तं प्रकृतियाँ पृथक् पृथक् असंख्यात लोक मात्र होकर अन्योन्यकी अपेक्षा समान हैं, क्योंकि, समस्त मतिज्ञानको दर्शनपूर्वक स्वीकार किया गया है। श्रतज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ असंख्यात लोक मात्र हैं। मनःपययज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ असंख्यात कल्प मात्र हैं। इन श्रुतज्ञानावरणीय और मनःपर्ययज्ञानावरणीय प्रकृतियोंका दर्शन नहीं होता, क्योंकि, ये ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होते हैं। इसलिए दर्शनावरणीयकी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? वह असंख्यातवें भाग मात्र है । किन्तु मतिज्ञानमें चूंकि श्रुतज्ञान प्रविष्ट है अतएव यहाँ पृथक् ग्रहण नहीं करना चाहिये, अन्यथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कुछ कम द्वितीय भाग प्रमाण नहीं बन सकती। - अथवा, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञानोंके भी दर्शन है, क्योंकि, उन ज्ञानोंरूप अर्थका संवेदन वहाँ भी पाया जाता है। ऐसा स्वीकार करनेपर पूर्व मान्यताके साथ विरोध होगा, सो भी नहीं है, क्योंकि उनके कारणीभूत दर्शनके प्रतिषेधका वहाँ पर अभाव है। केवलदर्शनावरणीयकी एक प्रकृति है। केवलज्ञानावरणीयकी भी एक ही प्रकृति है। इस लिये वे दोनों समान है। निद्रनिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला, ये पाँच प्रकृतियाँ दर्शनावरणीयकी हैं। किन्तु ये अप्रधान हैं, क्योंकि, वे मनःपर्ययज्ञानावरणीय प्रकृतियोंके असंख्यातवें भाग मात्र हैं । इससे सिद्ध है कि दर्शनावरणीयकी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ बहुत हैं। असातावेदनीय आदि शेष कर्मोकी प्रकृतियाँ दर्शनावरणकी प्रकृतियों के असंख्यातवें भाग १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'लोगमेत्ता' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'असंखेज्जकम्ममेत्ताश्रो' इति पाठः । ३ अ-प्राकाप्रतिषु 'मणपज्जवाणं' इति पाठः । ४ अ-श्रा-काप्रतिषु 'विरोहा' इति पाठः। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १५, ४ ] वेणभागाभाग विहाणाणियोगद्दारं [ ५०३ नव्वदे ? णाणावरणीय दंसणावरणीयपयडीओ सव्वपयडीणं दुभागो देसूणो ति सुणावत्तदो । संपहि णाणावरणीय सव्वपयडीहि अट्ठकम्मपयडिपुंजे भागे हिदे सादिरेयदोरुवाणि लभति । सादिरेगपमाणमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागो । तं जहा - णाणावरणीयपडी अट्ठकम्माणं सव्वपयडिपुंजादो अवणिदासु एगा अवहारसलागा लब्भदि [१] । संपहि अवसादो' दंसणावरणीयादिसत्त कम्म पयडीओ अस्थि । पुणो तत्थ असादावेदणीयादिसेसपयडीसु पंचरूवूणमणपज्जवणाणावरणीयपयडीओ घेत्तूण दंसणावरणीयपयडीसु पक्खिते पक्खित्तपयडीहि सह दंसणावरणीयपयडीओ णाणावरणीय पयडी हि सरिसा होंति । अवणिदे विदिया अवहारकालसलागा लब्भदि [२] । पुणो गहिदावसेसासु पयडीसु णाणावरणीयपय डिपमाणेण कीरमाणासु एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो अवहारो उवलब्भदे, णाणावरणीयस्स पयडीसु जदि एगा अवहारकालसलागा लब्भदि तो गहिद से सपयडी किं लभामो त्ति पमाणेण फल गुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरुवस्स असंखेज्जदिभागुवलंभादो । एदेहि सादिरेगदोरूवेहि सव्वपयडीसु ओवट्टिदासु णाणावर मात्र होकर मन:पर्ययज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोंसे असंख्यातगुणी हैं । शंका- वे उनसे असंख्यातगुणी हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - 'ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकी प्रकृतियां सब प्रकृतियोंके द्वितीय भागसे कुछ कम है' इस सूत्र की अन्यथानुपपत्तिसे वह जाना जाता है । अब ज्ञानावरणीयकी सब प्रकृतियोंका आठ कर्मों के प्रकृतिपुंज में भाग देनेपर साधिक दो रूप पाये जाते हैं । साधिकताका प्रमाण एक अङ्क का असंख्यातवाँ भाग है । वह इस प्रकारसे - आठ कर्मोंकी सब प्रकृतियों के समूहमेंसे ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोंको कम कर देनेपर एक अवहारशलाका पायी जाती है (१) । अवशेष रूपसे दर्शनावरणीय आदि शेष कर्मोंकी प्रकृतियाँ रहती हैं । फिर उन आसातावेदनीय आदि शेष कर्मोंकी प्रकृतियों में से पाँच अङ्कोंसे कम मन:पर्ययज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोंको ग्रहणकर दर्शनावरणीयकी प्रकृतियों में मिला देनेपर मिलायी हुई प्रकृतियोंके साथ दर्शनावरणीयकी प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोंके सदृश होती हैं । [ इन दर्शनावरणीयकी प्रकृतियोंके उक्त कर्म प्रकृतियोंमेंसे ] कम कर देनेपर द्वितीय अवहारशलाका पायी जाती है ( २ ) । फिर ग्रहणकी गई प्रकृतियोंसे अवशिष्ट रहीं प्रकृतियोंको ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोंके प्रमाणसे करनेपर एक अंकका असंख्यातवाँ भाग मात्र अवहार पाया जाता है, क्योंकि, ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोंमें यदि एक अवहारशलाका पायी जाती है तो ग्रहण की गईं प्रकृतियोंसे शेष रही प्रकृतियों में कितनी अवहारशलका पायी जायगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अङ्कका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है। इन साधिक दो अङ्कोंसे सब प्रकृतियोंको अपवर्तित करनेपर ज्ञानावरणीयकी १ ताप्रतौ ' असे सादो (श्रो ) ' इति पाठः । २ अ ा-काप्रतिषु 'गहिदावसेसाम्रो' ताप्रतौ 'गहिदावसेसानो (सु)' इति पाठः । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १५, ५ णीयपयडिपमाणं लब्भदि । एवं दंसणावरणीयस्स वि सादिरेगदोरूवमेतो भागहारो साहेयव्यो। वेयणीय-मोहणीय-आउअ-णामा-गोद-अंतराइयस्स कम्मस्स पयडीओ सव्वपयडीणं केवडियो भागो ॥५॥ सुगमं । असंखेजदिभागो ॥ ६॥ सग-सगपयडीहि सव्वपयडिसमूहे भागे हिदे असंखेज्जलोगमेत्तरूवोवलंभादो। एवं पयडिअट्टदा समत्ता । समयपबद्धट्टदाए॥ ७॥ एदमाहियारसंभालणसुत्तं सुगमं । णाणावरणीय-दसणावरणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी तोसं तीसं सागरोवमकोडाकोडीयो समयपबद्धट्ठदाए गुणिदाए सव्वपयडीणं केवडिओ भागो ॥८॥ एत्थ एवं सुत्तसंबंधो कायव्यो। तं जहा–तीसं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए णाणावरणीय-दसणावरणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी प्रकृतियोंका प्रमाण उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीयके भी साधिक दो अङ्क मात्र भागहारको साध लेना चाहिये। वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियां सब प्रकृतियों के कितने भाग प्रमाण हैं ॥ ५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ ६॥.. अपनी अपनी प्रकृतियोंका सब प्रकृतियोंके समूहमें भाग देनेपर असंख्यात लोक मात्र अङ्क पाये जाते हैं। इस प्रकार प्रकृत्यर्थता समाप्त हुई। समयप्रबद्धार्थका अधिकार है ।। ७ ।। यह अधिकारका स्मरण करानेवाला सूत्र सुगम है। तीस तीस कोडाकोड़ीसागरोपमोंको समय प्रबद्धार्थता से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतनी मात्र ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकी एक एक प्रकृति सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥ ८॥ यहाँ इस प्रकारसे सूत्रका सम्बन्ध करना चाहिये। यथा-तीस तीस सागरोपम कोडाकोड़ियोंको समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो इतनी मात्र ज्ञानावरणीय और दर्शना Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १५, १२] वेयणभागाभागविहाणाणियोगद्दारं [५०५ एवदियो होदि । ऐवंविहाओ गाणावरणीय-दसणावरणीयकम्मपयडीओ सम्बपरडी] केवडिओ भागो त्ति संबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं । दुभागो देसूणो ॥६॥ ___एत्थ सादिरेयदोरूवमेत्तभागहारो पुव्वं व साहेयव्वो, गुणगारकयभेदेण सह सादिरेयदोरूवभागहारस्स विरोहामावादो। एवं वेयणीय-मोहणीय-आउअ-णामा-गोद-अंतराइयाणं च णेयव्वं ॥१०॥ ____ जहा णाणावरणीय-दसणावरणीयाणं समयपबद्धट्ठदं सग-सगउक्कस्सद्विदीहि गुणेदूण पयडीणं पमाणपरूवणा कदा तहा एदेसि कम्माणं सग-सगुक्कस्सबंधहिदीहि बंधगद्धाहि य समयपबद्धट्ठदं गुणिय पयडिपमाणपरूवणा कायव्वा मंदमेहाविसिम्सयोहणहूं।) णवरि विसेसो सव्वपयडीणं केवडिओ भागो॥११॥ इदि पुच्छिदे। असंखेजदिभागो ॥१२॥ त्ति भाणिदव्वं' । एदाहि समयपबद्धट्टदापयडीहि सव्वपयडिसमूहे भागे हिदे वरणीय कर्मकी एक एक प्रकृति होती है। इस प्रकारकी ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं, ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये। शेष कथन सुगम है। वे उनके साधिक द्वितीय भाग प्रमाण हैं ॥९॥ यहाँ साधिक दो अंक मात्र भागहारको पहिलेके समान सिद्ध करना चाहिये, क्योंकि, गुणकारकृत् भेदके साथ साधिक दो अंक मात्र भागहारका कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके सम्बन्धमें जानना चाहिये ॥१०॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकी समयप्रबद्धार्थताको अपनी अपनी सत्कृष्ट स्थितियोंसे गुणित कर प्रकृतियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे इन कर्मोंकी अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितियों और बन्धककालोंसे समयप्रबद्धार्थताको गुणित करके प्रकृतियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा मन्दबुद्धि शिष्योंके प्रबोधनार्थ करनी चाहिये। विशेष इतना है कि वे सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥ ११ ॥ ऐसा पूछने पर। वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ १२ ॥ इस प्रकार कहलाना चाहिये, क्योंकि, इन समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियोंका सब समूहमें भाग १ प्रतिषु 'त्ति भाणिदव्वं' सूत्रे सम्मिलितम् । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १५, १३. असंखेज्जरूवोवलंभादो । एवं समयपबद्धहदा समत्ता। खेत्तपञ्चासे ति ॥ १३॥ एदमहियारसंभालणवयणं । ... णाणावरणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी जो मच्छो जोयणसहस्सियो सयंभुरमणसमुदस्स बाहिरिल्लए तडे अच्छिदो, वेयणसमुग्धादेण समुहदो, काउलेस्सियाए लग्गो, पुणरवि मारणंतियसमुग्धादेण समुहदो, तिण्णि विग्गहकंडयाणि काऊण से काले अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववजिहदि ति खेत्तपञ्चासएण' गुणिदाओ सव्वपयडीणं केवडिओ भागो॥ १४ ॥ जो मच्छो उववज्जिहदि त्ति एदेण खेत्तपच्चासो परूविदो । एदेण खेत्तपच्चासएण गुणिदाओ समयपबद्धट्ठदाओ पयडीओ णाणावरणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी एवदिया होदि । पुणो एवंविहाओ गाणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ सव्वपयडीणं केवडिओ भागो त्ति सुत्तसंबंधो कायव्यो । सेसं सुगम । दुभागो देसूणो ॥१५॥ देनेपर असंख्यात अंक पाये जाते हैं। इस प्रकार समप्रबद्धार्थता समाप्त हुई। क्षेत्रप्रत्यास अनुयोगद्वारका अधिकार है ॥ १३ ॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण करानेवाला है। - ज्ञानावरण कर्मकी एक एक प्रकृति-जो मत्स्य एक हजार योजन प्रमाण अवगाहनासे युक्त होता हुआ स्वम्भूरमण समुद्र के बाहिरी तटपर स्थित है, वेदनासमुद्: घातको प्राप्त है, काकलेश्यासे संलग्न है, फिरसे मारणान्तिकममुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त है, तीन विग्रहकाण्डकोंको करके अनन्तर समयमें नारकियों में उत्पन्न होगा, इस क्षेत्रप्रत्याससे समयप्रबद्धार्थताप्रकृतियोंको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी होती है। ये प्रकृतियां सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥ १४ ॥ - 'जो मच्छो' यहाँसे लेकर 'उववजिहदि' तक इस सूत्रद्वारा क्षेत्रप्रत्यासकी प्ररूपणा की गई है। इस क्षेत्रप्रत्याससे गुणित समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियाँ जितनी होती हैं इतनी मात्र ज्ञानावरणीय कर्मकी एक एक प्रकृति होती है। इस प्रकारकी ज्ञानावरणीय प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं, ऐसा सूत्रका सम्बन्ध करना चाहिये। शेष कथन सुगम है। वे कुछ कम उनके द्वितीय भाग प्रमाण हैं ॥ १५ ॥ १ अप्रतौ पच्चासेएगुण', श्रा-का-मप्रतिषु 'पच्चासेएण', ताप्रती 'पच्चासेण' इति पाठः । २ अ-श्रा काप्रतिषु 'देसूणा' इति पाठः । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १५, १९.] वेयणभागाभागविहाणाणियोगद्दारं 1000 __ कुदो ? एत्थतणगुणगारे सव्वपयडीणं संते वि सव्वपयडीओ णाणावरणीयपयडिपमाणेण अवहिरिज्जमाणाओ सादिरेयदोरूवमेत्त'अवहारसलागुवलंभणिमित्ताओ होति त्ति। एवं दसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ १६ ॥. ___ एदेसि कम्माणं जहा णाणावरणीयस्स खेत्तपच्चासपयडिपरूवणा कदा तहा भागाभागो च कायव्वो। ___णवरि मोहणीय-अंतराइयस्स सव्वण्यडीणं केवडियो भागो ॥१७॥ इदि पुच्छिदेअसंखेज्जदिभागो॥ १८॥ कारणं सुगमं । वेयणीयस्स कम्मस्स पयडीओ' वेयणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी अण्णदरस्स केवलिस्स केवल समुग्धादेण समुहदस्स सव्वलोगं गयस्स खेत्तपच्चासएण गुणिदाओ सव्वपयडीणं केवडिओ भागो ॥ १६ ॥ कारण कि सब प्रकृतियोंको ज्ञानावरणीयकी प्रकृनियों के प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे साधिक दो अङ्क प्रमाण अवहारशलाकाओंकी उपलब्धिमें निमित्त होती हैं। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मके सम्बन्धमें कहना चाहिये ॥१६॥ जिस प्रकारसे ज्ञानावरणीय कर्मकी क्षेत्रप्रत्यासप्रकृतियोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे इन तीन कर्मों के भागाभागकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये। विशेष इतना है-मोहनीय और अन्तरायकी प्रकृत प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥१७॥ ऐसा पूछनेपरवे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ १८॥ इसका कारण सुगम है । अब वेदनीय कर्मकी प्रकृतियाँ बतलाते हैं केवलिसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त होकर सर्व लोकको प्राप्त हुए अन्यतर केवलीके इस क्षेत्र प्रत्याससे समयप्रवद्धार्थकता प्रकृतियोंको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी मात्र वेदनीय कमेकी एक एक प्रकृति होती है। ये प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥१९॥ १अप्रती-रूवमेत्तोइति पाठः। २प्रतिषु 'वेयणीयस्स कम्मत्स पयडीअो' इति पाठःअनन्तरसूत्रे सम्मिलितम्। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १५, २० सुमम। असंखेज्जदिभागो ॥२०॥ सुगम। एवमाउअ-णामा-गोदाणं ॥ २१ ॥ जहा वेयणीयस्स भागाभागो परूविदो तहा एदेसिं तिण्णं कम्माणं परूवेदव्यो । एवं खेत्तपच्चासए त्ति अणिओगद्दारे समत्ते वेयणाभागाभागविहाणे ति समत्तमणियोगद्दारं। यह सूत्र सुगम है। वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ २० ॥ यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार आयु, नाम और मोत्र कर्मके सम्बन्ध में कहना चाहिये ॥ २१ ॥ जिस प्रकार वेदनीय कर्मके भागाभागकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन कर्मो के भागाभागकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार क्षेत्रप्रत्यास अनुयोगद्वारके समाप्त होनेपर वेदनाभागाभागविधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयण अप्पा बहुगाणियोगद्दार वेयणअप्पाबहुए ति ॥ १ ॥ सुगमं । तत्थ इमाणि तिणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवतिपडदा समयबद्धदा खेत्तपच्चासए त्ति ॥ २ ॥ एवं तिणि चैव एत्थ अणियोगद्दाराणि होंति, अण्णेसिमसंभवादो । अदाए सव्वत्थोवा गोदस्स कम्मस्स पयडीओ ॥ ३ ॥ कुदो दोपरिमाणत्तादो' | वेणीयस्स कम्मस्स पयडीओ तत्तियायो चेव ॥ ४ ॥ सादासादमेएण दुब्भावुवलंभादो । आउ कम्मस्स पयडीओ संखेजगुणाओ ॥ ५ ॥ को गुणगारो ? दो वाणि । अंतराइयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ ॥ ६ ॥ केन्तियमेत्तेण ? सगचदुब्भागमेत्तेण । मोहणीयस्स कम्मस्स पयडीओ संखेजगुणाओ ॥ ७ ॥ गुणगारो ? - पंचभागूणछरुवाणि । वेदना अल्पबहुत्वका अधिकार है ॥ १ ॥ यह सूत्र सुगम है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं - प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास ॥ २ ॥ इस प्रकार यहाँ तीन ही अनुयोगद्वार हैं, क्योंकि इनसे अन्य अनुयोगद्वारोंकी यहाँ सम्भावना नहीं है । प्रकृत्यर्थताकी अपेक्षा गोत्र कर्मकी प्रकृतियाँ सबसे स्तोक हैं || ३ || क्योंकि, वे दो अङ्क प्रमाण हैं । वेदनीय कर्म की भी उतनी ही प्रकृतियाँ हैं ॥ ४ ॥ क्योंकि, साता व असाताके भेदसे उनकी भी दो संख्या पायी जाती है। आयु कर्मको प्रकृतियाँ उनसे संख्यातगुणी हैं ॥ ५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार दो का अक है । - अन्तराय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं ॥ ६ ॥ कितने मासे वे अधिक हैं ? वे अपने चतुर्थ भाग मात्रसे अधिक हैं । मोहनीय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे संख्यातगुणी हैं ॥ ७ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार दो बटे पाँच (ब) भागसे कम छह अङ्क है ( ५x५६ = २८ )। १ - श्राकाप्रतिषु 'कुदो परिमाणत्तादो' इति पाठः । २ श्राकाप्रतिषु ' तत्तियो' इति पाठः । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १६, ८. (णामस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजुगुणाओ॥८ एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। (दसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजगुणाओ ॥६) एत्थ वि गुणगारो असंखेज्जा लोगा। (णाणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ॥१०॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जा कप्पा । एवं पगदिअट्ठदा समत्ता । (समयपबद्धट्टदाए सव्वत्थोवा आउअस्स कम्मस्स पयडीओ॥११॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो । (गोदस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजगुणाओ॥ १२॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । (वेयणीयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ॥१३॥ केत्तियमेतो विसेसो ? पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तो। (अंतराइयस्स कम्मस्स पयडीयो संखेजगुणाओ॥ १४॥ को गुणगारो ? सादिरेयतिण्णिरूवाणि । (मोहणीयस्स कम्मस्स पयडीओ संखेजगुणाओ॥ १५ ॥ एत्थ गुणगारो संखेजा समया । नामकर्मकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ ८॥ यहाँ गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। दर्शनावरणीयकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ ९॥ यहाँ भी गुणकार असंख्यात लोक प्रमाण है। ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं ।। १० ॥ विशेष कितना है ? वह असंख्यात कल्प प्रमाण है । इस प्रकार प्रकृत्यर्थता समाप्त हुई। समयप्रबद्धार्थताकी अपेक्षा आयुकर्मकी प्रकृतियाँ सबसे स्तोक हैं ॥ ११ ॥ क्योंकि, वे अन्तर्मुहूत प्रमाण हैं। गोत्रकर्मकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ ॥ १२ ॥ गुणकार क्या है ? वह पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। वेदनीयकर्मकी प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं ॥ १३ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? उसका प्रमाण पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। अन्तराय कर्मको प्रकृतियाँ उनसे संख्यातगुणी है ॥ १४ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार साधिक तीन अङ्क है। मोहनीय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे संख्यातगुणी हैं ॥ १५ ॥ यहाँ गुणकार संख्यात समय है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, १६, २१.] वेयणअप्पाबहुगाणियोगद्दारं __ [५११ (णामस्स कम्मस्स पयडीयो असंखेज्जगुणाओ' ॥ १६॥ को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। (दसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजगुणाओ॥ १७॥ को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। णाणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ ॥ १८॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेजा कप्पा । एवं समयपबद्धट्टदा त्ति समत्ता। खेत्तपञ्चासए त्ति सव्वत्थोवा अंतराइयस्स कम्मस्स पयडीयो॥१६॥ कुदो ? पंचगुणतीससागरोवमकोडाकोडिगुणिदमहामच्छुक्कस्सखेत्तपमाणत्तादो । मोहणीयस्स कम्मस्स पयडीयो संखेजगुणाओ॥ २०॥ कुदो ? णवसयपंचाणउदिसागरोत्रमकोडाकोडीहि गुणिदमहामच्छुक्कस्सखेत्तमेत्तपयडित्तादो । को गुणगारो ? सादिरेयरूवाणि । - आउअस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजगुणाओ॥ २१॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तगुणिदघणलोगपमाणत्तादो। को गुणगारो ? जगपदरस्स असंखेजदिमागो। नामकर्मकी प्रकृतियां उनसे असंख्योतगुणी हैं ॥१६॥ गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है। दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥१७॥ गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है। ज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं ॥१८॥ विशेष कितना है ? वह असंख्यात कल्पों प्रमाण है । इस प्रकार समयप्रबद्धार्थता समाप्त हुई। क्षेत्रप्रत्यासकी अपेक्षा अन्तराय कर्मकी प्रकृतियाँ सबसे स्तोक हैं ॥१९॥ क्योंकि, वे पाँचगुणे तीस (३०४५) कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित महामत्स्यके उत्कृष्ट क्षेत्रके बराबर है। मोहनीय कमकी प्रकृतियाँ उनसे संख्यातगुणी हैं ॥ २० ॥ कारण कि वे प्रकृतियाँ नौ सौ पंचानवे कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित महामत्स्यके उत्कृष्ट क्षेत्रके बराबर हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार साधिक [छह ] अंक हैं। आयुकमकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २१ ॥ क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्तसे गुणित घनलोक प्रमाण हैं। गुणकार क्या है ? वह जगप्रतरका असंख्यातवाँ भाग है। १ श्र-श्रा-काप्रतिषु 'संखेज', ताप्रतौ (अ) संखेज' इति पाठः। . .... . Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] छक्खंडागमे नेसणाखंडं [४,२, १६, २२ गोदस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजगुणाओ॥२२॥ को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तोवट्टिदतीससागरोवमकोडाकोडीओ। वेयणीयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ ॥२३॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेजलोगमेत्तो। णामस्स कम्मस्स पयडीअो असंखेजगुणाओ॥ २४ ॥ को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। दसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेजगुणाओ ॥ २५ ॥ को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। णाणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ ॥ २६ ॥ केतिमेतो विसेसो ? पदरस्स असंखेज्जदिमागमेत्तो । एवं खेत्तपञ्चासो समत्तो । एवं वेयणअप्पाबहुगाणिओगद्दारे समत्ते वेयणाखंडो समत्तो'। गोत्रकर्मकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २२॥ गुणकार क्या है ? गुणकार अन्तर्मुहूर्तसे अपवर्तित तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। वेदनीय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं ॥ २३ ॥ विशेष कितना है ? वह असंख्यात लोक प्रमाण है। नामकर्मकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २४ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है। दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है। ज्ञानावरणीय कर्मको प्रकृतियाँ उनसे विशेष अधिक हैं ॥ २६ ॥ विशेष कितना है ? वह प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस प्रकार क्षेत्रप्रत्यास समाप्त हुआ। इस प्रकार वेदनाअल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके समाप्त होनेपर वेदनाखण्ड समाप्त हुआ। १ प्रतिषु 'वेयणाखंड समत्ता' इति पाठः। ततश्च निम्नपाठः उपलभ्यते-"णमो णाणाराहणाए, णमो दंसणाराहणाए, णमो चरित्ताराहणाए, णमो तवाराहणाए, णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो श्राइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, णमो भयवदो महदिमहावीरवडमाणबुद्धरिसिस्स, णमो भयवदो गोदमसामिस्स, नमः सकलविमलकेवल ज्ञानावभासिने, नमो वीतरागाय महात्मने, नमो वर्द्धमानभट्टारकाय वेदनाखण्डं समाप्तम् । अबोधे बोधं यो जनयति सदा शिष्यकुमुदे, प्रभूय प्रह्लादी दुरितपरितापोपशमनः । तपोवृत्तिर्यस्य स्फुरति जगदानन्दजननी, जिनध्यानासक्तो जयति कुलचन्द्रो मुनिरयम् । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणाभावविहाणसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ । सूत्र संख्या १ वेयणाभावविहाणे त्ति तत्थ इमाणि १४ तं खीणकसायवीदरागछदुमत्थस्स वा तिणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि सजोगिकेवलिस्स वा तस्स वेयणा भवंति । भावदो उक्कस्सा। १७ २ पदमीमांसा सामित्तमाप्पाबहए त्ति ३ १५ तव्वदिरित्तमणुक्कस्सा । ३ पदमीमांसाए णाणावरणीयवेयणा भावदो १६ एवं णामा-गोदाणं । किमुक्कस्सा किमणुकस्सा किं जहण्णा १७ सामित्तेण उक्कस्सपदे आउववेयणा... किमजण्णा। भावदो उक्कस्सिया कस्स । ४ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा जहण्णा वा १८ अण्णदरेण अप्पमत्तसंजदेण सागारअजहण्णा वा। जागारतप्पाओग्गविसुद्धेण बद्धल्लयं ५ एवं सत्तण्णं कम्माणं । १२ जस्स तं संतकम्ममस्थि । ६ सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे। ,, १६ तं संजदस्स वा अणुत्तरविमाणवासि७ सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा । देवस्स वा तस्स आउववेयणा भावदो भावदो उक्कस्सिया कस्स ? १३ उक्कस्सा । ८ अण्णदरेण पंचिंदिएण सण्णिमिच्छा २० तव्वदिरित्तमणकस्सा। इट्ठिणा सव्वाहि पज्जत्तीहि पजत्तगदेण २१ सामित्तण जहण्णपदे णाणावरणीयसागारुवजोगेण जागारेण णियमा उक्क वेयणा भावदो जहणिया कस्स। २२ स्ससंकिलिट्ठण बंधल्लयं जस्स तं संतकम्ममथि। १३ २ अण्णदरस्स खवगस्स चरिमसमयहतं एइंदियस्स वा बीइंदियस्स वा ती छदुमत्थस्सणाणावरणीयवेयणाभावदो इंदियस्स वा चरिंदियस्स वा पंचि जण्णा। दियस्स वा सण्णिस्स वा असण्णिस्स २३ तव्वदिरित्तमजण्णा । वा बादरस्स वा सुहुमस्स वा पज्ज २४ एवं दसणावरणीय-अंतराइयाणं। त्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा अण्णदरस्स २५ सामित्तेण जहण्णपदे वेयणीयवेयणा जीवस्स अण्णदवियाए गदीए वद्र भावदो जहणिया कस्स । माणयस्स तस्स गाणावरणीयवेयणा २६ अण्णदरखवगस्स चरिमसमयभवभावदो उक्कस्सा। सिद्धियस्स असादावेयणीयस्स वेदय१० तव्वदिरित्तमणुकस्सा। माणस्स तस्स वेयणीयवेयणा भावदो ११ एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतरा जहण्णा। इसपूर्ण। १६ २७ तव्वदिरित्तमजहण्णा । २६ १२ समित्तेण उक्कस्सपदे वेयणीयवेयणा २८ सामित्तेण जहण्णपदे मोहणीयवयणा भावदो उक्कस्सिया कस्स । भावदो जहणिया कस्स १३ अण्णदरेण खवगेण सुहुमसांपराइय- २६ अण्णदरस्स खवगस्सचरिमसमयसकसुद्धिसंजदेण चरिमसमयबद्धल्लयं जस्स साइस्स तस्स मोहणीयवयणा भावदो । तं संतकम्ममस्थि। जहण्णा । तवादारणीय-असणीयवेया " Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ | सूत्र संख्या पृष्ठ ३० तव्वदिरित्तमजहण्णा। २६ / ४४ आउववेयणा भावदो जहणिया अणंत३१ सामित्रोण जहण्णपदे आउववेयणा गुणा। भावदो जहणिया कप्स । । ४५ गोदवेयणा भावदो जहणिया अणंत३२ अण्णदरेण मणुस्सेण पंचिंदियतिरिक्व गुणा। जोणिएण वा परियन्तमाणमज्झिमपरि ४६ णामवेयणा भावदो जहणिया अणंत- . णामेण अपज्जत्ततिरिक्खाउअं बद्धल्लयं गुणा। जस्स तंसंतकम्मं अस्थि तस्स आउअ ४७ वेदणीयवेदणा भावदो जहणिया वेयणा भावदो जहण्णा । अणंतगुणा । ३३ सव्वदिरित्तमजहण्णा। ४८ उक्कस्सपदेण सम्वत्थोवा आउववेयणा ३४ सामित्रोण जहण्णपदे णामवेयणा भावदो उक्कस्सिया। ___ भावदो जहण्णिया कस्स।। ४६ णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइय३५ अण्णदरेण सुहमणिगोदजीवअपज वेयणा भावदो उक्कस्सियाओ तिष्णि वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ। त्तएण हदसमुप्पत्तियकम्मेण परियत्त ५० मोहणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया माणमज्झिमपरिणामेण बद्धल्लयं जस्स तं सतकम्ममत्थि तस्स णामवेयणा अणंतगुणा । ५१ णामा-गोदवेयणाओ भावदो उक्क.. भावदो जहण्णा। ३६ तव्वदिरित्तमजहण्णा। स्सियाओ दो वि तुल्लाओ अणंत३७ सामित्तणजहण्णपदे गोदवेयणा भावदो गुणाओ। जहणिया कस्स। | ५२ वेदणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया अणंतगुणा। ३८ अण्णदरेण बादरतेउ-वाउजीवेण सव्वाहि ५३ जहण्णुकस्सपदेण सव्वत्थोवामोहणीयपज्जत्तीहि पज्जत्तयदेण सागार-जागार वेयणा भावदो जहणिया। सव्वविसुद्धण हदसमुप्पत्तियकम्मेण ५४ अंतराइयवेयणा भावदो जहणिया उच्चागोदमुव्वेल्लिदण णीचागोदं बद्धल्लयं अणंतगुणा। जस्स तं संतकम्ममस्थि तस्स गोद ५५ णाणावरणीय-दसणावरणीयवेयणा वेयणा भावदो जहण्णा। भावदो जहणियाओ दो वि तुल्लाओ ३६ तव्वदिरित्तमजहण्णा । अणंतगुणाओ। ४० अप्पाबहुए त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि ५६ आउअवेयणा भावदो जहणिया अणियोगद्दाराणि-जहण्णपदे उकस्स अणंतगुणा। पदे जहण्णुक्कस्सपदे। ३१ | ५७णामवेयणा भावदो जहणिया ४१ सव्वत्थोवा मोहणीयवेयणा भावदो अणंतगुणा। जहणिया। " | ५८ गोदवेयणा भावदो जहणिया अणंत४२ अंतराइयवेयणा भावदो जहणिया गुणा। अणंतगुणा। ३२ | ५६ वेदणीयवेयणा भावदो जहणिया " ४३ णाणावरणीय-दंसणावरणीयवेयणा भावदो अणंतगुणा। जहणियाप्रो दो वि तुल्लाओ अणंत- ६० आउअवेयणा भावदो उक्कस्सिया गुणाओ। ___३३ / अणंतगुणा । " गुणा। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयणाभावविहाणसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या ६१ णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइय- माणो विसेसहीणो। वेयणा भावदो उक्कस्सिया तिण्णि वि ८६ अपच्चकवाणावरणीयलोभो अणंत___तुल्लाओ अणतगुणाओ। ३६ गुणहीणो । ६२ मोहणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया १० माया विसेसहीणा। __ अणंतगुणा। ६१ कोधो विसेसहीणो। ६३ णामा-गोदवेयणाओ भावदो उक्कस्सि- १२ माणो विसेसहीणो । याओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ। ,, ६३ आभिणिबोहियणाणावरणीयं परि६४ वेयणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया भोगंतराइयं च दो वि तुल्लाणि अणंतअणंतगुणा। गुणहीणाणि। ६५ एत्तो उक्कस्सओ चउसद्विपदियो महा- ६४ चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणहीणं। ५४ दंडओ कायव्वो भवदि। ४४ । ६५ सुदणाणावरणीयमचक्खुदसणावरणीयं ६६ सव्वतिव्वाणुभागं सादावेदणीयं । भोगंतराइयं च तिण्णि [वि ६७ जसगित्ती उच्चागोदं च दो वि तुल्लाणि ] अणंतगुणहीणाणि। ५४ ___ तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि । ६६ ओहिणाणावरणीयं ओहिदसणावर६८ देवगदी अणंतगुणहीणा। णीयं लाहंतराइयं च तिण्णिवितुल्लाणि ६६ कम्मइयसरीरमणंतगुणहीणं । अणंतगुणहीणाणि । ५६ ७० तेयासरीरमणंतगुणहीणं । ६७ मणपज्जवणाणावरणीयं थीणगिद्धी ७१ आहारसरीरमणंतगुणहीणं । दाणंतराइयं च तिणि वि तुल्लाणि ७२ वेउव्वियसरीरमणंतगुणहीणं । अणंतगुणहीणाणि। ७३ मणुसगदी अर्णतगुणहीणा। ६८ णवुसंयवेदो अणंतगुणहीणो । ७४ ओरालियसरीरमणंतगुणहीणं । ६६ अरदी अणंतगुणहीणा । ७५ मिच्छत्तमणंतगुणहीणं । १०० सोगो अणंतगुणहीणो। ७६ केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीयं १०१ भयमणंतगुणहीणं । ___ असादवेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि | १०२ दुगुंछा अणंतगुणहीणा । वि तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि । ४६ १०३ णिहाणिद्दा अणंतगुणहीणा। ७७ अणंताणुबंधिलोभो अणंतगुणहीणो। १०४ पयलापयला अणंतगुणहीणा। ७८ माया विसेसहीणा। १०५ णिहा अणंतगुणहीणा। ७६ कोधो विसेसहीणो। १०६ पयला अणंतगुणहीणा। ८० माणो विसेसहीणो । १०७ अजसकित्ती णीचागोदं च दो वि ८१ संजलणाए लोभो अर्णतगुणहीणो । तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि । ८२ माया विसेसहीणा। १०८ णिरयगई अर्णतगुणहीणा। ८३ कोधो विसेसहीणो। १०६ तिरिक्खगई अणंतगुणहीणा। ५४ माणो विसेसहीणो। ११० इत्थिवेदो अणंतगुणहीणो। ८५ पच्चक्खाणावरणीयलोभो अणंत- | १११ पुरिसवेदो अणंतगुणहीणो। ११२ रदी अणंतगुणहीणा । ८६ माया विसेसहीणा। ११३ हस्समणतगुणहीणं । ८७ कोधो विसेसहीणो। ११४ देषाउअमणतगुणहीणं । yo , गुणहीणो। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ધર્ષ ur (४) परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ट सूत्र संख्या ११५ णिरयाउअमणंतगुणहीणं । १४३ माया विसेसाहिया। ११६ मणुसाउअमणंतगुणहीणं । १४४ लोभो विसेसाहिओ। ११७ तिरिक्खाउअमणंतगुणहीणं । १४५ अपच्चक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो।,, ११८ एत्तो जहण्णो चउसहिपदिओ १४६ कोधो विसेसाहिओ। - महादंडओ कायव्वो भवदि । ६५ १४७ माया विसेसाहिया। ११६ सव्वर्मदाणुभागं लोभसंजलणं । १४८ लोभो विसेसाहिओ। १२० मायासंजलणमणंतगुणं। १४६ णिद्दाणिहा अणंतगुणा । १२१ माणसंजलणमणंतगुणं । १५० थीणगिद्धी अणंतगुणा । १२२ कोधसंजलणमणंतगुणं । १५१ पयलापयला अणंतगुणा । १२३ मणपज्जवणाणावरणीयं दाणंतराइयं १५२ अर्णताणुबंधिमाणो अणंतगुणो। च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ।। १५३ कोधो विसेसाहिओ। १२४ ओहिणाणावरणीयं ओहिदसणावर- १५४ माया विसेसाहिया । णीयं लांभंतराइयं च तिणि वि १५५ लोभो विसेसाहिओ। तुल्लाणि अणंतगुणाणि। १५६ मिच्छत्तमणतगुणं । १२५ सुदणाणावरणीयं अचक्खुदसणावरणी- १५७ ओरालियसरीरमणंतगुणं यं भोगतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि १५८ वेउव्वियसरीरमर्णतगुणं । अणंतगुणाणि। १५६ तिरिक्खाउअमणंतगुणं। १२६ चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणं । १६० मणुसाउअमणंतगुणं । १२७ आभिणिबोहियणाणावरणीयं परिभो १६१ तेजइयसरीरमणंतगुणं । गंतराइयं च दो वि तुल्लाणि अणं १६२ कम्मइयसरीरमणतगुणं । तगुणाणि । १६३ तिरिक्खगदी अर्णतगुणा । १२८ विरियंतराइयमणंतगुणं । १६४ णिरयगदी अर्णतगुणा । १२६ पुरिसवेदो अणंतगुणो । १६५ मणुसगदी अर्णतगुणा । १३० हस्समर्णतगुणं । १६६ देवगदी अर्णतगुणा । १३१ रदी अर्णतगुणा । १६७ णीचागोदमणतगुणं । १३२ दुगुंछा अणंतगुण।। १६८ अजसकित्ती अर्णतगुणा । १३३ भयमणंतगुणं। १६६ असादावेदणीयमर्णतगुणं । १३४ सोगो अर्णतगुणो । १७० जसकित्ती उच्चागोदं च दो वि १३५ अरदी अणंतगुणा । तुल्लाणि अर्णतगुणाणि । १३६ इत्थिवेदो अणंतगुणो। १७१ सादावेदणीयमणतगुणं । १३७ णवंसयवेदो अणंतगुणो। १७२ णिरयाउअमणंतगुणं । १३८ केवलणाणावरणीयं केवलदसणावर- १७३ देवाउअमणंतगुण । णीयं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि।, १७४ आहारसरीरमणंतगुणं । १३६ पयला अणंतगुणा पढमा चूलिया १४० णिहा अणंतगुणा। १४१ पञ्चक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो। , १७५ सम्वत्थोवो दसणमोहउवसामयस्स १४२ कोधो विसेसाहियो। "।। गुणसेडिगुणो। ५. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या १७६ संजदासंजदस्स गुणगुणो गुणो । १७७ अधापवत्तसंजदस्स गुणसेडिगुणो संखेज्जगुणो । वेणाभावविहारण विदियचूलियासुत्ताणि सूत्र संख्या १६४ धात्त संजदस्स गुणसेडिकालो संखेज्जगुणो । सेक १६५ संजदासंजदस्स संजगुणो । १६६ दंसणमोह उवसामयस्स गुणसे डिकालो संजगुणो । सूत्र १७८ अतानुबंधी विसंजोएंतस्स गुणगुण असंखेज्जगुणो । १७६ दंसणमोहखवगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो । १८० कसायउवसामगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो । १८२ कसायखवगस्स असंखेज्जगुणो । १८३ खीणकसायवीयरायछदुमत्थस्स गुणसे गुणो असंखेज्जगुणो । गुण १८४ अधापवत्तकेवलिसंजदस्स गुणसंखेज्जगुणो । १८५ जोगणिरोध के वलिसंजदस्स गुणसेगुणो असंखेज्जगुणो । १८६ सव्वत्थोवो जोगणिरोधकेवलिसंजदस्स गुणसेडिकालो । १८७ अधापवत्तकेवलिसंजदस्स गुणसेडिकालो संखेज्जगुणो । १८५ खीणकसायवीयरायलदुमत्थस्स गुकालो संखेज्जगुणो । १८६ कसायखवगस्स गुणसे कालो संखेज्जगुणो । १६० उवसंतकसायवीय रायछदुमत्थस्स गुणसे डिकालो संखेज्जगुणो । १६१ कसाय वसामयस्स गुणसेडिकालो संजगुणो । १६२ दंसणमोहक्खवयस्स गुणसे डिकालो १८१ उवसंतकसायवीयरायइदुमत्थस्सगुणगुणसंखेज्जगुणो । ८४ गुणगुणो १६३ श्रताणुबंधिविसंजोए तस्स गुणसेडिल कालो संखेज्जगुणो । पृष्ठ Το ८१ ८२ ८३ 59 33 33 ८५ 33 125 35 ८६ ८६ 33 35 2 सूत्र ( ५ ) पृष्ठ विदिया चूलिया १६७ एतो अणुभागबंध ज्भवसागट्ठागपरूवणदाए तत्थ इमाणि बारस अणियोगद्दाराणि । २०१ अंतरपरूवणदाए एक्क्क्स्स द्वाणस्स haडियमंतरं ? सव्वजीवेहि अनंतगुणं । एवडियमंतरं । २०२ कंदयपरूवणदाए अस्थि अांतभापरिवकिंदयं संखेज्जभाग परिवड्डिकंदयं संखेज्जभागपरिवड्डिकंदयं संजगुणपरिवकिंदयं प्रसंखेज्जगुणपरिवकिंदयं अनंतगुणपरिकंद | २०३ ओजजुम्मपरूवणदाए अविभागपडिच्छेदाणि कदजुम्माणि, ट्ठाणाकिदजुम्माणि कंदयाणि कदजुम्मा | ८६ 33 29 १६८ अविभागपडिच्छेदपरूवणा द्वारापरूवणा अंतर परूवणा कंदयपरूवणा ओजजुम्म परूवणा छट्ठा परूवणा परूवणा समयपरूवणा वड्डिपरूवणा जवमज्झपरूवणा पज्जव साणपत्रणा अप्पाबहुए त्ति । १६६ अविभागपरिच्छेद परूवणदाए एक्केकम्हि द्वाहि केवडिया अविभागपडिच्छेदा ? अता अविभागपडिच्छेदा सव्वजीवेहि अनंतगुणा । एवदिया अविभागपरिच्छेदा । २०० ठाणपरूवणदाए केवडियाणि द्वाणाणि ? असंखेज्जलो गट्ठाणाणि । एवदियाणि द्वाणाणि | ६१ ६७ GS १११ ११४ १२८ १३४ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ | सूत्र संख्या २०४ छट्ठाणपरूवणदाए अणंतभागपरि- २२२ संखेजभागन्भहियाणं कंदयघग्गं कंदयं । वड्डी काए परिवड्डीए [वड्डिदा ?] च गंतूण असंखेजगुणमहियट्ठाणं । १९७ सव्वजीवेहि अणंतभागपरिवड्डी। २२३ संखेजगुणब्भहियाणं कंदयवग्गं एवदिया परिवड्डी। कंदयं च गंतूण अणंतगुणब्भहियां २०५ असंखेजभागपरिवड्डी काए परिवड्डीए।१५१ हाणं। १६८ २०६ असंखेजलोगभागपरिवड्डीए । एव- २२४ संखेजगुणस्स हेह्रदो अणंतभागदिया परिवड्डी। ब्भहियाणं कंदयघणो वेकंदयवग्गा २०७ संखेज्जभागपरिवड्डी काए परिवडिीए।१५४ कंदयं च। २०८ जहण्णयस्स असंखेजयस्स रूवूण- २२५ असंखेजगुणस्स हेह्रदो असंखेज यस्स संखेजभागपरिवड्डी। एवदिया । भागब्भहियाणं कंदयघणो बेकं. परिवगी। दयवग्गा कंदयं च। १६६ २०६ संखेजगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए। १५५ २२६ अणंतगुणस्स हेट्ठदो संखेजभाग२१० जहण्णयस्स असंखेज्जयस्स रुवूण ब्भहियाणं कंदयघणो वेकंदयवग्गा __ यस्स संखेजगुणपरिवड्डी । एवदिया कंदयं च। परिवड्डी। २२७ असंखेजगुणस्स हेढदो अणंतभाग२११ असंखेजगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए।१५६ भहियाणं कंदयवग्गावग्गो २१२ असंखेज्जलोगगुणपरिवड्डी। एव. तिष्णिकंदयघण। तिष्णिकंदयवग्गा दिया परिवड्डी। कंदयं च । २१३ अणंतगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए । १५७ २२८ अणंतगुणस्स हेहँदो असंखेजभा२१४ सम्वजीवेहि अणंतगुणपरिवड्डी। एव गब्भहियाणं कंदयवम्गावग्गो तिदिया परिवड्डी। णि कंदयघणा तिणि कंदयवग्गा २१५ हेट्ठाहाणपरूवणाए अणंतभागब्भ कंदयं च। २०१ हियं कंदयं गंतूण असंखेज्जभागब्भहियं द्वाणं। १६३ २२६ अणंतगुणस्स हेढदो अणंतभाग भहियाणं कंदयो पंचहदो चत्तारि २१६ असंखजभागभहियं कंदयं गंतूण संखजभागब्भहियं ठाणं। कंदयवग्गावग्गा छकंदयघणा चत्ता. १६४ रि कंदयवग्गा कंदयं च । २१७ संखेजभागब्भहियं कंडयं गंतूण _संखजगुणब्भहियं हाणं। १६५ । २३० समयपरूवणदाए चदुसमइयाणि अणुभागबंधझवसाट्ठाणाणि असं२१८ संखेजगुणन्भहियं कंदयं गंतूण खज्जा लोगा। असंखेजगुणन्भहियं ढाणं। २०२ २१६ असंखेजगणब्भहियं कंडयं गंतूण २३१ पंचसमइयाणि अणुभागबंधज्झव साणट्टाणाणि असंखेज्जा लोगा। २०३ अणंतगुणब्भहियं ठाणं।। २२० अर्णतभागब्भहियाणं कंडयवग्गं २३२ एवं छसमइयाणि सत्तसमइयाणि कंडयं च गंतूण संखेजभागब्भ अट्ठसमइयाणि अणुभागबंधझवहियट्ठाणं। १६६ साणहाणाणि असंखेज्जा लोगा। २२१ असंखेजभागब्भहियाणं कंदयवग्गं २३३ पुणरवि सत्तसमइयाणि अणुभागकंदयं च गंतूण संखेजगणब्भहिय बंधज्भवसागट्टाणाणि असंखेज्जा ट्ठाणं। लोगा। " Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ वेयाणभावविहाणे तदियचूलियासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ । सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २३४ एवं छसमइयाणि पंचसमइयाणि २५३ जवमझपरूवणदाए अणंतगुणवत्री चदुसमइयाणि अणुभागबंधझव अणंतगुणहाणी च जवमझ। २१२ साणद्वाणाणि असंखेज्जा लोगा। २०४ २५४ पज्जवसाणपरूवणदाए अणंतगुणस्स २३५ उवरि तिसमइयाणि बिसमइयाणि उपरि अणंतगुणं भविस्सदि त्ति अणुभागबंधझवसाणहाणाणि पज्जवसाणं। २१३ असंखेज्जा लोगा। २०५ २५५ अप्पाबहुए त्ति तस्थ इमाणि दुवे २३६ एत्थ अप्पाबहुअं। अणियोगहाराणि अणंतरोवणिधा २३७ सव्वस्थोवाणि अट्ठसमइयाणि अणु परंपरोवणिधा। २१४ भागबंधज्भवसागट्ठाणाणि । २५६ तत्थ अणंतरोवणिधाए सव्वत्थो२३८ दोसु वि पासेसु सत्तसमइयाणि वाणि अणंतगुणब्भहियाणि हाणाणि, अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि दो २५७ असंखेजगुणब्भहियाणि हाणाणि वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि। .. असंखेज्जगुणाणि । २३६ एवं छसमइयाणि पंचसमइयाणि २५८ संखेजगुणब्भहियाणि हाणाणि चदुसमइयाणि। २०६ असंखेजगुणाणि। २४० उवरि तिसमइयाणि । २५९ संखेजभागब्भहियाणि हाणाणि २४१ विसमइयाणि अणुभागबंधज्झव असंखेजगुणाणि। साणढाणाणि असंखेजगुणाणि। २०७ २६० असंखेजभागन्भहियाणि हाणाणि २४२ सुहुमतेउक्काइया पवेसणेण असं असंखेजगुणाणि। २१६ खज्जा लोगा। २६१ अणंतभागब्भहियाणि हाणाणि । २४३ अगणिकाइया असंखेजगुणा । असंखेजगुणाणि । २४४ कायहिदी असंखजगुणा । २६२ परंपरोवणिधाए सव्वस्थोवाणि २४५ अणुभागबंधझवसाणहारणाणि अणंतभागब्भहियाणि हाणाणि। २१७ असंखजगुणाणि । २६३ असंखेजभागब्भहियाणि हाणाणि.. २४६ वडिपरूवणदाए अत्थि अणंतभाग असंखेजगुणाणि। वडि-हाणी असंखेजभागवड्डिहाणी २६४ संखेजभागब्भहियहाणाणि संखजसंखेजभागवड्डि-हाणी संखेजगुण गुणाणि। वडि-हाणी असंखेजगुणवडि-हाणी २६५, संखेजगुणब्भहियाणि हाणाणि अणंतगुणवडि-हाणी। २०६ संखेजगुणाणि। २४७ पंचवड्डि-पंचहाणीओ केवचिरं २६६ असंखेजगुणब्भहियाणि वाणाणि कालादो होंति ? असंखेज्जगुणाणि। २४८ जहण्णण एगसमओ २६७ अणंतगुणब्भहियाणि हाणाणि २४६ उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदि- . ! असंखेजगुणाणि। भागो। तदिया चूलिया २५० अणंतगुणवद्भि-हाणीयो केवचिरं । .. कालादो होति । २६८ जीवसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि २५१ जहण्णेण एगसमो । अट्ठ अणियोगहाराणि-एयट्ठाण२५२. उकस्सेण अंतोमुहुत्ते।... ... . .२११ । ... जीवपमाणाणुगमो पिरंतरहाणजी २१८ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र () परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ । सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ पमाणाणुगमो सांतरट्ठाणजीवपमा- २८२ परंपरोवणिधाए आणुभागबंधज्झवणाणुगमो णाणाजीवकालपमाणाणु साणहाण जीवहिंतो तत्तो असंखेजगमो वझिपरूवणा जवमज्ज्ञपरूपणा लोगं गंतूण दुगुणवडिदा। २६३ . फोसणपरूवणा अप्पाबहुए त्ति । २४१ २८३ एवं दुगुणवड्डिदा जाव जवमझ । २६४ २६६ एयट्ठाणजीवपमाणाणुगमेण एकेक २८४ तेण परमसंखेज्जलोगं गंतूण दुगुणहीणा ,, म्हि हाणम्हि जीवा जदि होंति एक्को | २८५ एवं दुगुणहीणा जाव उक्कस्सियवा दो वा तिण्णि वा जाव उक्कस्सेण अणुभागबंधज्झवसाणहाणं त्ति आवलियाए असंखेजदिभागो। २४२ , २७. णिरंतरट्ठाणजीवपमाणाणुगमेण २८६ एगजीवअणुभागबंधझवसाणदुगुणजीवहि अविरहिदहाणाणि एको वड्ढिहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जा लोगा। ,, वा दो वा तिणि वा उक्कस्सेण | २८७ णाणाजीवअणुभागबंधज्भवसाणदुआवलियाए असंखेजदिभागो। २४४ गुणवडि-[हाणि-] हाणंतराणि २७१ सांतरट्ठाणजीवपमाणाणगमेण जीवेहि आवलियाए असंखेजदिभागो। २६५ विरहिदाणि हाणाणि एक्को वा दो | २८८ णाणाजीवअणुभागबंधझवसाणवा तिणि वा उक्कस्सेण असंखे- । दुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि। ,, ज्जा लोगा। | २८६ एयजीवअणुभागबंधज्झवसाणदुगु२७२ णाणाजीवकालपमाणाणुगमेण एक्के | णवडि-हाणिहाणंतरमसंखेजगुणं। ,, कम्हि हाणम्मि णाणाजीवा केवचिरं २६० जवमझपरूवणाए हाणाणमसंखेजकालादो होति । दिभागे जवमझ। २६६ २७३ जहण्णण एगसमओ। २९१ जवमज्झस्स हेढदो हाणाणि २७४ उक्कर सेण आवलियाए असंखेज थोवाणि। २६७ दिभागो। २६२ उवरिमसंखेजगुणाणि । २७५ वड्डिपरूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे २६३ फोसणपरूवणदाए तीदे काले एयअणियोगद्दाराणि अणंतरोवणिधा जीवस्स उक्कस्सए अणुभागबंधज्झपरंपरोवणिधा। वसाणट्ठाणे फोसणकालो थोवो । २७६ अणंतरोवणिधाए जहण्णए अणुभा- २६४ जहण्णए अणुभागबंधझवसारण गबंधझवसाणट्ठाणे थोवा जीवा २४७ हाणे फोसणकालो असंखेजगुणो । २६८ २७७ विदिए अणुभागबंधझवसाणहाणे २६५ कंदयस्स फोसणकालो तत्तियो चेव। २६६ जीवा विसेसाहिया। | २६६ जवमझफोसणकालो असंखेजगुणो। ,, २७८ तदिए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे २६७ कंदयस्स उवरि फोसणकालो जीवा विसेसाहिया। असंखेज्जगुणो।। २७६ एवं विसेसाहिया विसेसाहिया | २६८ जवमझस्स उवरि कंदयस्स हेढदो जाव जवमझं। २५० फोसणकालो असंखेजगुणो। २७० २८० तेण परं विसेसहीणा। २५५ | २६६ कंदयस्स उविर जवमज्झस्स हेहदो २८१ एवं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव फोसणकालो तत्तियो चेव । उक्कस्सअणुभागबंधझवसाण ३०० जवमझस्स उवरि फोसणकालो हाणे त्ति। । विसेसाहिओ। २७० . " Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पृष्ठ | २८७ २६० २६३ वयणवेयणविहाणसुत्ताणि (६) सूत्र संख्या सूत्र संख्या ३०१ कंदयस्स हेढदो फोसणकालो माय-मोस-मिच्छणाण-मिच्छदसणविसेसाहिओ। २७१ पओअपच्चए। २८५ ३०२ कंदयस्स उवरिं फोसणकालो ११ एवं सत्तण्णं कम्माणं । विसेसाहिओ। १२ उज्जुसुदस्सणाणावरणीयवेयणा ३०३ सम्वेसु हाणेसु फोसणकालो विसे जोगपच्चए पयडिपदेसग्गं । २८८ साहिओ। १३ कसायपच्चए हिदि-अणुभागवेयणा। , ३०४ अप्पाबहुए त्ति उक्कस्सए अणुभाग १४ एवं सत्तण्णं कम्माणं। बंधज्झवसाणट्ठाणे जीवा थोवा। २७२ १५ सद्दणयस्स अवत्तवं। ३०५ जहण्णए अणुभागबंधझवसाणट्ठाणे १६ एवं सत्तण्णं कम्मा णं । जीवा असंखेज्जगुणा। .. हवेयणासामित्तविहाणसुत्ताणि ३०६ कंदयस्स जीवा तत्तिया चेव । २७३ ३०७ जवमझस्स जीवा असंखेज्जगुणा। ,, १ वेयणासामित्तविहाणे त्ति । २६४ ३०८ कंदयस्स उवरिंजीवा असंखेज्ज २णेगम-ववहाराणं णाणावरणीय २६५ ३०६ जवमज्झस्स उवरि कंदयस्सहेहिमदो ,, वेयणा सिया जीवस्स वा। २६५ जीवा असंखेजगुणा। ३ सिया णोजीवस्स वा। २६६ ३१० कंदयस्स उवरि जवमझस्स ४ सिया जीवाणं वा। हेढिमदो जीवा तत्तिया चेव । ५सिया णोजीवाणं वा। २६७ • ३११ जवमझस्स उवरिं जीवा ६ सिया जीवस्स च णोजीवस्स च। विसेसाहिया। ७सिया जीवस्स च णोजीवाणं च २६८ ३१२ कंदयस्स हेह्रदो जीवा विसेसाहिया। २७४ ८सिया जीवाणं च णोजीवस्स च। २६८ ३१३ कंदयस्स उवरिं जीवा विसेसाहिया। " हसिया जीवाणं च णोजीवाणं च । २६६ ३१४ सव्वसु हाणेसु जीवा विसेसाहिया।" १० एवं सत्तण्णं कम्माणं । ११ संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा ८ वेदणापच्चयविहाणसुत्ताणि जीवस्स वा। १ वेयणपच्चयविहाणे त्ति। २७५ १२ जीवाणं वा । २णेगम-ववहार-संगहाणं णाणावरणीय- १३ एवं सत्तण्णं कम्माणं ।। वेयणा पाणादिवादपच्चए। १४ सदुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा ३ मुसावादपच्चए। २७६ जीवस्स। ४ अदत्तादाणपच्चए। १५ एवं सत्तण्णं कम्माणं । ५ मेहुणपच्चए। १० वेयणवेयणविहाणसुत्ताणि ६परिग्गहपच्चए। ७ रादिभोयणपच्चए। १ वेयणवेयणविहाणे स्ति। ८ एवं कोह-माण-माया-लोह-राग-दोस- २ सव्वं पि कम्मं पयडि त्ति कटु मोह-पेम्मपच्चए। २८३ णेगमणयस्स। ९णिदाणपच्चए। २८४ ३ णाणावरणीयवेयणा सिया बज्म१० अब्भक्खाण-कलह-पेसुण्य माणिया वेयणा । ३०४ .. रह-अरइ-उवहि-णियदि-माण. ४ सिया उदिण्णा वेयणा । ३०५ २८१ २८२ Jain Education.International Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पृष्ठ (१०) परिशिष्ठ सूत्र संख्या सूत्र संख्या सूत्र ५ सिया उवसंता वेयणा । ३०६ | ३१ सिया उदिण्णा वेयणा । ३४५ ६ सिया बज्झमाणियाओ वेयणाओ। ३०७ । ३२ सिया उवसंता वेयणा । ७ सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। ३०८ ३३ सिया उदिण्णाओ वेयणाओ। ३४६ ८ सिया उवसंताओ वेयणाओ। ३०६ ३४ सिया उवसंताओ वेयणाओ। ३४७ हसिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च । ३१० ३५ सिया बज्झमाणिया [च] उदिण्णा च। ,, १० सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च। ३११ ३६ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ च। ३४८ ११ सियाबज्झमाणियाओ च उदिण्णा च। ३१२ ३७ सिया बज्झमाणिया च उवसंता च। ३४६ १२ सिया बज्झमाणियाओ च ३८ सिया बज्झमाणिया च उवसंताओच। ३५० उदिण्णाओ च। ३६ सिया उदिण्णा च उवसंता च । , १३ सिया बज्झमाणिया [च उवसंता च । ३१५ ४० सिया उदिण्णा च उवसंताओ च। ३५१ १४ सिया बज्झमाणिया च उवसंताओच। .. ४१ सिया उदिण्णाओ च उवसंता च। ३५२ १५ सिया बज्झमाणियाओ च उवसंताच। ३१६ ४२ सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च। ,, १६ सिया बज्झमाणियाओ च ४३ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा - उवसंताओ च। च उवसंता च। ३५३ १७ सिया उदिण्णा च उवसंता च। ३१८ ४४ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा । १८ सिया उदिण्णा च उक्संताओ च। ३२० च उपसंताओ च। ३५४ १६ सिया उदिण्णाओ च उवसंता च। ,, ४५ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ २० सिया उदिण्णाओ च उवसंताओ च । ३२१ २१ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च। च उवसंता च। ४६ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ २२ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंताओ च। - च उवसंताओ च । ३२७ ४७ एवं सत्तण्णं कम्माणं । ३५६ २३ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ ४८ संगहणयस्सणाणावरणीयवेदणा सिया च उवसंता च। ३२८ बज्झमाणिया वेयणा । २४ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णाओ ४६ सिया उदिण्णा वेयणा । ३५७ . च उवसंताओ च ।। ५० सिया उवसंता वेयणा । ३५८ २५ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा ५१ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च। .. च उवसंता च। ५२ सिया बज्झमाणिया च उवसंता च । ३५६ २६ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णा ५३ सिया उदिण्णा च उवसंता च । च उवसंताओ च । २७ सिया बज्झमाणियाओ च उदिण्णाओ ५४ सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च। च उवसंता च । २८ सिया बज्झमाणियाओ च उदि ५५ एवं सत्तण्णं कम्माणं । ३६२ ___ण्णाओ च उवसंताओ च । ३३३ ५६ उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा २६ एवं सत्तण्णं कम्माणं ।। ३४२ उदिण्णफलपत्तविवागा वेयणा । ३० ववहारणयस्स णाणावरणीयवेयणा ५७ एवं सत्तण्णं कम्माणं। ३६३ सिया बज्झमाणिया वेयणा। ३४३ । ५८ सद्दणयस्स अवत्तवं । ३२६ ३५६ ३६१ ३३२ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. ३६५ वेयणासण्णियासविहाणसुत्ताणि (११) सूत्र संख्या सूत्र - पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र ११ वेयणगदिविहाणसुत्ताणि | ३ जो सो सत्थाणवेयणसण्णियासो १ वेयणगदिविहाणे त्ति ।। ___ सो दुविहो-जहण्णओ सत्थाणवेयण२णेगम-ववहार-संगहाणं पाणावर सण्णियासो चेव उक्कस्सओ सस्थाणणीयवेयणा सिया अवढिदा । वेयणसण्णियासो चेव। ३७६ ३ सिया द्विदाहिदा। ४ जो सो जहण्णो सत्थाणवेयण४ एवं दंसणावरणीय-मोहणीय सण्णियासो सो थप्पो। -- अंतराइयणं । ५ जो सो उक्कस्सओ सस्थाणवेयण५ वेयणीयवेयणा सिया द्विदा। सण्णियासो सो चउठिवहो-दव्वदो ६ सिया अद्विदा।। खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । ३७६ ७ सिया हिदाद्विदा। ६ जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उकस्सा तस्स खत्तदो किमक्कस्सा. ८ एवमाउव-णामा-गोदाणं । अणुक्कस्सा। - ३७७ १ उजुसुदस्सणाणावरणीयवेयणा ७णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जसिया ट्ठिदा। गुणहीणा। १० सिया अद्विदा। ८ तस्स कालदो किमुक्कस्सा ११ एवं सत्तण्णं कम्माणं । अणुक्कस्सा। १२ सहणयस्स अवत्तव्वं । ६ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १२ वेयणअणंतरविहाणसुत्ताणि १० उकस्सादो अणुक्कस्सा समऊणा। ३७६ १ वेयणअणंतरविहाणे ति। ११ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा । २ णेगम ववहाराणं णाणावरणीय १२ उक्कस्सा, वा अणुक्कस्सा वा। वेयणा अणंतरबंधा। ३७१ १३ उक्कस्सादो अणुक्कस्सा छट्ठाणपदिदा, , ३ परंपरबंधा। १४ अणंतभागहीणा वा असंखेजभाग४ तदुभयबंधा। हीणा वा संखेज्जभागहीणा वा ५ एवं सत्तण्णं कम्माणं । संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा ६ संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा वा अणंतगुणहीणा वा। ३८० अणंतरबंधा। १५ जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो. ७ परंपरबंधा। ३७३ उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा ८ एवं सत्तण्णं कम्माणं । अणुकस्सा। ३८१ ६ उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा १६ णियमा अणुक्कस्सा। परंपरबंधा। १७ चउढाणपदिदा, असंखज्जभागहीणा १० एवं सत्तणं कम्माणं । ३७४ - वा संख्नेज्जभागहीणा वा संखेजगुण११ सद्दणयस्स अवत्तव्वं । हीणा वा असंखेजगुणहीणा वा। ३८२ १३ वेयणसण्णियासविहाणसुत्ताणि । १८ तस्स कालदो किं उक्कस्सा अणुक्कस्सा ३८४ १ वेयणसण्णियासविहाणे ति। . ३७५ १६ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। २ जो सो वेयणसण्णियासो सो दुविहो- २० उक्कस्सादो अणुक्कस्सा तिहाणपदि सत्थाणवेयणसण्णियासो चेव परत्थाण.. दा, असंखेजभागहीणा वा संखे. बेयणसण्णियासो चेव । ज्जभागहीणा वा संखज्जगुणहीणा बा। ३८५ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (१२) परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र २१ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा।३८६ ५० जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा २२ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। , २३ उक्कस्सादो अणुकस्सा छहाणपदिदा।.. ५१ णियमा अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा। , २४ जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो ५२ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ३६८ उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमु ५३ णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा। ,, कस्सा अणुक्कस्सा। ३८७ ५४ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा। , २५ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। ५५ उक्कस्सा । २६ उक्कस्सादो अणुकस्सा पंचट्ठाणपदिदा।, ५६ जस्स वेयणीयवेयणा कालदो उक्कस्सा २७ तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ३८६ तस्स दव्वदो किमुक्कसा अणुक्कस्सा। ४०१ २८ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। ५७ उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा । २६ उक्कस्सादो अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा। ,, ५८ उक्कस्सादो अणुक्कस्सा पंचट्ठाणपदिदा। ,, ३० तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ३६० ५६ तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४०१ ३१ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । ६० णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा। ,, ३२ उकस्सादो अणुक्कस्सा छट्ठाणपदिदा। ६१ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४०२ ३३ जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो ६२ णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा। , उक्कस्सा तस्स दव्धदो किमुक्कस्सा ६३ जस्स वेयणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा अणुक्कस्सा । तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। , ३४ उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा । | ६४ णियमा अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा। , ३५ उकस्सादो अणुकस्सा पंचट्ठाणपदिदा ।,, ६५ तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्प्ता । ४०३ ३६ तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा । ३६२ ६६ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। ३७ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । ६७ उकस्सादो अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा, ३८ उक्कासादो अणुक्कस्सा चउट्ठाणपदिदा।,, असंखेजभागहीणा वा असंखेज३६ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा। ३६३ गुणहीणा वा। ४० उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। ६८ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४०४ ४१ उक्कस्सादो अणुक्कस्सा तिट्ठाणपदिदा ६६ णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणा। , अंसखेज्जभागहीणा वा संखेजभागहीणा ७० एवं णामा-गोदाणं। वा संखेज्जगुणहीणा वा। ७१ जस्स आउअवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ४२ एवं दंसणावणीय-मोहणीय तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४०५ ____ अंतराइयाणं । ३६५ ७२ णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुणहीणा। ,, ४३ जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ७३ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा। ,, तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा । ३६६ ७४ णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा। , ४४ णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा। ३६६ ७५ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा । ४०६ ४५ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ,, ७६ णियमा अणुक्कस्सा अर्णतगुणहीणा। , ४६ उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । ७७ जस्स आउअवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा ४७ उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणा। ,, तस्स दुव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४०७ ४८ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ३६७ | ७८ णियमा अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा संखे. ४६ णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा। .. जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा। .. " Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " वेयणसण्णियासविहाणसुत्ताणि सूत्र संख्या __ पृष्ठ | सूत्र संख्या - सूत्र । पृष्ठ ७६ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४०८ १०२ जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो ८० णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा। ,, जहण्णा तस्स व्वदो किं जहण्णा ८१ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा | , अजहण्णा । ८२ णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा। ,, १०३ णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा ८३ जस्स आउअवेयणा कालदो उक्कस्सा असंखेज्जभागभहिया वा संखेजतस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा।,, भागब्भहिया वा संखेजगुणब्भ. ८४ णियमा अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा संखे हिया वा असंखेज्जगुणब्भहिया वा । ४१६ जगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा। ४०६ १०४ तस्स कालदो किंजहण्णा [अजहण्णा] ४१७ ८५ तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४१० १०५ णियमा अजहण्णा असंखेजगुण८६ णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुण ब्भहिया । हीणा। ४१० १०६ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा, ८७ तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ,, १०७ णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया। ४१८ ८५ णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा ।, १०८ जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो मह जस्स आउअवेयणा भावदो उकस्सा जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा तस्स दुव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४११ अजहण्णा। १०णियमा अणुक्कस्सा तिहाणपदिदा १०६ जहण्णावा अजहण्णा वा, जहण्णादो संखेजभागहीणा वा संखेजगुणहीणा अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा अणंतवा असंखेज्जगुणहीणा वा । भागब्भहिया वा असंखेजभागब्भ. ६१ तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा। ४१२ हिया वा संखेजभागब्भहिया वा ह२ णियमा अणुकस्सा असंखेजगुणहीणा। ., संखेजगुणब्भहिया वा असंखेज१३ तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा। ,, गुणन्भहिया वा। ४१८ ११० तस्व खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा। ४१६ ६४ णियमा अणुक्कस्सा चउठाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा संखेजभाग १११ णियमा अजहण्णा असंखेज गुणब्भहिया। हीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखे ११२ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा। ४२० ज्जगुणहीणा वा। ११३ जहण्णा । १५ जो सो थप्पो जहण्णो सस्थाण ११४ जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो यणसण्णियासो सो चउव्विहो जहण्णा तस्स दुव्वदो किं जहण्णा दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । ४१३ अजहण्णा । १६ जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो ११५ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो जहण्णा तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा । अजहण्णा । ४१४ ११६ तस्स खेत्तदोकिं जहण्णा अजहण्णा।। २१ ६७ णियमा अजहण्णा असंखेज ११७ णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया। गुणब्भहिया। हर तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा। ४१ ११८ तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा। , ६६ जहण्णा । ११६ जहण्णा। १०० तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ।, ! १२० एवं दसणावरणीय-मोहणीय१०१ जहण्णा । अंतराइयाणं। " Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) सूत्र संख्या सूत्र १२१ जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो जण्णा तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा । १२२ नियमा अण्णा श्रसंखेज्जगुणन्भहिया । १२३ तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा । १२४ जहण्णा । १२५ तस्स भावदो किं जहण्णा अण्णा । १२६ जहण्णा [वा ] अजहण्णा वा, जहदो अजहणणंतगुणन्भहिया । १२७ जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अण्णा । ४२३ १२८ नियमा अण्णा चउट्ठाणपदिदा । १२६ तस्स कालदो किं जहण्णा [अजहण्णा ] १३० णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया । "" 39 39 १३१ तस्स भावदो. किं जहण्णा अजहण्णा । १३२ नियमा अजहण्णा अनंतगुणन्भहिया । १३३ जस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अण्णा । १३४ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा । "" १३५ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा । १३६ नियमा अण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया ! १३७ तस्स भावदो किं जहण्णा अण्णा । १३८ जण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अण्णा अणं गुणग्भहिया । १३६ जस्स वेयणीयवेयणा भावदो जहणा तस्स दव्त्रदो किं जहण्णा अजहण्णा । १४० जण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा । १४१ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा । परिशिष्ट पृष्ठ 33 ४२२ 35 33 39 33 33 ४२४ 23 ४२५ "" 33 " ४२६ 33 ४२७ सूत्र संख्या सूत्र १४२ नियमा अण्णा श्रसंखेज्ज गुणभहिया । १४३ तस्स कालदो किं जहण्णा जहण्णा । १४४ जण्णा । ,, १४५ जस्स आउअवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेत्तदो किं जहणा अण्णा । १४६ खियमा अण्णा असंखेज्जगुणभहिया । १४७ तस्स कालदो किं जहण्णा अण्णा । १४ यिमा अण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया । १४६ तस्स श्रवदो किं जहण्णा जहण्णा । १५८ णियमा जहण्णा असंखेज्जगुणमहिया । १५६ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा पृष्ठ अजहण्णा । १६० नियमा अण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया । ४२७ 93 39 ४२८ 33 १५० णियमा अजहण्णा अणतगुणभहिया । १५१ जस्स आउवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजद्दण्णा । १५२ नियमा अजहण्णा असंखेज्ज गुणन्भहिया । 33 39 १५३ तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा । १५४ नियमा अजहण्णा असंखेज्ज 33 ४२८ गुणभहिया । 33 १५५ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा । ४३० १५६ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो जणा छट्टाणपदिदा । १५७ जस्स आउवेयणा कालदो जहण्णा तस्स व्वदो किं जहण्णा अण्णा 39 ४२६ 39 33 33 ४३१ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र वेयणसण्णियासषिहाणसुत्ताणि - (१५) सूत्र संख्या पृष्ठ | सूत्र संख्या १६१ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा । ४३१ । १८१ जस्स णामवेयणा कालदो जहण्णा १६२ णियमा अजहण्णा अणंत तस्स दुव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा । ४३६ गुणब्भहिया। ४३१ १८२ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जह१६३ जस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा ण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा। ,, तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा । ४३२ १८३ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा। ... १६४ णियमा अजहण्णा असंखे १८४ णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणजगुणब्भहिया। ब्भहिया। ४३७ १६५ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा १८५ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा। ,,. अजहण्णा । १८६ णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया। ., १६६ जहण्णा वा अजहण्णा बा । जह १८७ जस्स णामवेयणा भावदो जहण्णा... ण्णादो अजहण्णा चउट्ठाणपदिदा। ,, तस्स दव्वदो किंजण्णा अजहण्णा, १६७ तस्स कालदो किं जहण्णा १८ णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा। ४३७ १८६ तस्सखेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा। ४३८ अजहण्णा। १६८ णियमा अजहण्णा असंखेजगु १६० जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा चउट्ठाणपदिदा। णम्भहिया। १६१ तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा। १६६ जस्स णामवेयणा दव्वदो जहण्णा १६२ णियमा अजहण्णा असंखेज. तस्स खेत्तदो किं जहण्णा गुणब्भदिया। ४३६ अजहण्णा। १६३ जस्स गोदवेयणा दव्वदो जहण्णा १७० णियमा अजहण्णा असंखेज तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा।.. गुणन्भहिया। १६४ णियमा अजहण्णा असंखेज१७१ तस्स कालदो कि जहण्णा गुणब्भहिया। अजहण्णा । १६५ तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा। ,, १७२ जण्णा । ४३४ १६६ जहण्णा । १७३ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा, १६७ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा। .. १७४ णियमा अजहण्णा अणंतगुण १६८ णियमा अजहण्णा अणंतगुणभहिया।४४० ब्भहिया। १६६ जस्स गोदवेयणा खेत्तदो जहण्णा १७५ जस्स णामवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो कि जहण्णा अजहण्णा। , तस्स दवदो किं जहण्णा अजहण्णा॥ ४३४ २०० णियमा अजण्णा चउट्ठाणपदिदा। .. १७६ णियमा अजहण्णा चउट्ठाणपदिदा। , २०१ तस्स कालदो किं,जहण्णा अजहण्णा। २०२ णियमा अजहण्णा असंखेज१७७ तस्स कालदो किं जहण्णा . गुणब्भहिया । अजहण्णा। ४३५ २०३ तस्स भावदो किं जहण्णा अजण्णा। ४.१ १७८ णियमा अजहण्णा असंखेज २०४ णियमा अजण्णा अणंतगुणब्भहिया। गुणन्भहिया। २०५ जस्स गोदवेयणा कालदो जहण्णा १७६ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा । तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजण्णा।,, १८० जहण्णा वा अजहण्णा वा, जह २०६ जहण्णा वा अजहण्णा वा जहएगादो अजहण्णा छट्टाणपदिद।। , ण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा। ४४२ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र . (१६) परिशिष्ट सूत्र संख्या | सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २०७ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा। ,, | २२६ जस्स आउअवेयणा दव्वदो उकस्सा २०८ णियमा अजहण्णा असंखेज्ज- . तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा गुणब्भहिया। दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। ४४८ २०६ तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा। ,, | २२७ णियमा अणुक्कस्सा च उट्ठाणपदिदा। .. २१० णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया। ,, २२८ असंखेजभागहीणा वा संखेज२११ जस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा भागहीणा वा संखेजगुणहीणा तस्स दव्वदो किंजहण्णा अजहण्णा। ४४३ वा असंखेज्जगुणहीणा वा। ४४६ २१२ णियमा अजहण्णा चट्ठाणपदिदा। .. १२६ जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो २१३ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा। उक्कस्सा तस्स दंसणावरणीय-मो. २१४ णियमा अजहण्णा असंखेजगुण हणीय-अंतराइयवेयणा खेत्तदो ब्भहिया। किमुक्कस्सा अणुकस्सा। २१५ तस्स कालदोकिं जहण्णा अजहण्णा। ४४४ २३० उक्कस्सा । २१६ णियमा अजहण्णा असंखेजगुण- | २३१ तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदब्भहिया। वेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा २१७ जो सो परत्थाणवेयणसणियासो अणुक्कस्सा। सो दुविहो-जहण्णओ परस्थाण- २३२ णियमा अणुक्कस्सा असंखेजवेयणसण्णियासोचेव उक्कस्सओ गुणहीणा। ४५० परत्थाणवेयणसण्णियासो चेव । २३३ एवं दसणावरणीय मोहणीय२१८ जो सो जहण्णो परत्थाणवेयण अंतराइयाणं। सण्णियासो सो थप्पो। | २३४ जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा २१६ जो सो उक्कस्सओ परत्थाणवेयण तस्स णाणावरणीय-दसणावरणीयसण्णियासो सो चउव्विहो-दव्वदो मोहणीय-अंतराइयवेयणा खेत्तदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । ४४५ उक्कस्सिया णत्थि। २२० जस्सणाणावरणीयवेयणा दुव्वदो २३५ तस्स आउव-णामा-गोदवेयणा उक्कस्सा तस्स छण्णं कम्माणमाउव खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा। वज्जाणं दुव्वदो किमुक्कस्सा २३६ उक्कस्सा । ४५१ अणुक्कस्सा। २३७ एवमाउअ-णामा-गोदाणं। २२१ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा, उक्क २३८ जस्स णणावरणीयवेयणा कालदो स्सादो अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा। , उक्कस्सा तस्स छण्णं कम्माणमा२२२ अणंतभागहीणा वा असंखेज उअवजाणं वेयणा कालदो किमुभागहीणा वा। ४४६ कस्सा अणुक्कस्सा। २२३ तस्स आउअवेयणा दव्वदो किमु- २३६ उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा, उक्ककस्सा अणुक्कस्सा। स्सादो अणुक्कस्सा असंखेज्ज२२४ णियमा अणुकस्सा असंखेज भागहीणा। " गुणहीणा। ४४७ २४० तस्स आउववेयणा कालद। किमु१२५ एवं छष्णं कम्माणमाउववजाणं । , कस्सा अणुक्कस्सा । ४५२ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्य सूत्र 33 २४१ उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा, उक्का•स्सादो अणुक्कस्सा चउद्वाणपदिदा । २४२ एवं छष्णं कम्माणं आउववज्जाणं । ४५३ २४३ जस्स आउवेयरणा कालदो उक्कस्सा तस्स सत्तणं कम्माणं वेयरणा कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा | वेयणास ण्णियासविहाण सुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र २६० जस्स आउअवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स सत्तणं कम्माणं भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा | अंतराइयाणं । २५१ जस्स वेयणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स गावरणीय दंसणा वरणीयअंतराइयवेया भावदो सिया स्थिसिया पत्थि । २४४ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा, उक्कसादो अणुक्कस्सा तिट्ठाणपदिदा । ४५४ २४५ असंखेज्जभागहीरणा वा संखेज्ज भागही वा संखेज्जगुणहीणा वा । २४६ जस्स गाणावरणीयवेयरणा भावदो उक्कस्सा तस्स दंसणावरणीयमोहणीय-अंतराइयवेयरणा भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा | २४७ उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा, उक्कसादो अणुक्कस्सा छट्ठाणपदिदा । २४५ तस्स वेयणीय-आउव-रणामागोदवेणाभावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा | २४६ यिमा अणुक्कस्सा अांतगुणहीणा । २५० एवं दंसणावरणीय मोहणीय २५२ जदि अस्थि भावदो किमुक्कस्सा २५८ उक्कस्सा । २५६ एवं णामा-गोदाणं । ३ पृष्ठ 33 "" 39 "" 22 23 " ४५६ अणुक्कस्सा | ४५६ २५३ नियमा अणुक्कस्सा अांतगुणहीणा ४५७ २५४ तस्स मोहणीयवेयणा भावदो णत्थि । २५५ तस्स आउअवेयणा भावदो "" किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ! २५६ नियमा अणुक्कस्सा अनंतगुणहीणा । "" २५७ तस्स णामा- गोदवेयणा भावदो किमुकस्सा अणुक्कस्सा | 39 ४५८ પ २६६ तस्स आउवेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा । २७० नियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण पहिया । 33 39 २६१ णियमा अणुक्कस्सा अांतगुणहीणा । २६२ जो सो थप्पो जहण्णत्र परत्थारणवेणासण्णिासो सो चडव्विहोदव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । २६३ जस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स दंसणावरणीयअंतराइयवेयणा दव्वदो किं जहण्णा अण्णा । २६४ जण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अण्णा विद्वाणपदिदा । २६५ अांतभागभहिया वा असंखेज्जभागभहिया वा । २६६ तस्स वेदणीय - णामा- गोदवेयणा दव्वदो किं जहण्णा । २६७ नियमा जहण्णा असंखेज्जभागभहिया | २६८ तस्स मोहणीयवेयणा दव्वदो हणिया । ( १७ ) २७३ तस्स आउअवेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा । २७४ मा अजहा असंखेज्जगुणभहिया । २७५ तस्स णामा - गोदवेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा । 토 ४६० ४६० २०१ एवं दंसणावरणीय अंतराइयाणं । २७२ जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स णाणावरणीय दंसणावरणीयमोहणीय- अंतराइयाणं वेयणा दव्वदो जहणिया णत्थि । ४६१ ४६२ "" "" "" ४६३ "2 2. 99 ४६३ ४६४ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४७२ (१८) परिशिष्ट सूत्र संख्या ९४ जस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा २७६ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो तस्स णाणावरणीय-दसणावरणीयअजहण्णा विट्ठाणपदिदा। मोहणीय-अंतराइयाणं वेयणा कालदो २७७ अणंतभागब्भहिया वा असंखेज्ज जहणिया णस्थि। भागभहिया वा। २६५ तस्स आउअ-णामा-गोदवयणा २७८ एवं णामा-गोदाणं। ४६५ कालदो किं जहण्णा अजहण्णा। ४७० २७६ जस्स मोहणीयवेयणा दव्वदो २६६ जहण्णा । जहण्णा तस्स छण्णं कम्माण २६७ एवमाउअ-णामा-गोदाणं । माउअवज्जाणं वेयणा व्वदो किं २६८ जस्स मोहणीयवेयणाकालदो जहण्णा जहण्णा अजहण्णा । तस्स सत्तण कम्माणं वेयणा २८० णियमा अजहण्णा असंखेज्जभाग कालदो किं जहण्णा अजहण्णा। भहिया । २६६ णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण२८१ तस्स आउअवेयणा दव्वदो किं भहिया। जहण्णा अजहण्णा। ३०० जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो २८२ णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण जहण्णा तस्स दंसणावरणीयभहिया। अंतराइयवेयणा भावदो किं जहण्णा २८३ जस्स आउअवेयणा दव्यदो जहण्णा अजहण्णा। तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा दुव्वदो ३०१ जहण्णा । किं जहण्णा अजहण्णा। ३०२ तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवे२८४ णियमा अजहण्णा चउट्ठाणपदिद।। ,, यणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा।,, २८५ जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो ३०३ णियमा अजहण्णा अणंतगुणजहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं भहिया। वेयणा खेत्तदो किं जहण्णा ३०४ तस्स मोहणीयवेयणा भावदो जह• अजहण्णा । णिया णस्थि। २८६ जहण्णा । ४६६ ३०५ एवं दसणावरणीय-अंतराइयाणं ।। २८७ एवं सत्तण्णं कम्माणं । ३०६ जस्स वेयणीयवेयणा भावदो जहण्णा २८८ जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो तस्स णाणावरणीय-दसणावरणीयजहण्णा तस्स दंसणावरणीय-अंत मोहणीय-अंतराइयवेयणा भावदो राइयवेयणा कालदो किं जहण्णा जहाणिया णत्थि । ४७३ अजह्मणा। ३७७ तस्स आउअ-णामा-गोदवेयणा २८६ जहण्णा । भावदो किं जहण्णा अजहण्णा । २६० तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवे. ३०८ णियमा अजहण्णा अणंतगुणयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा । ,, भहिया। २६१ णियमा अजहण्णा असंखेज्ज ३०६ जस्स मोहणीयवेयणा भावदो गुणभहिया। जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा २६२ तस्स मोहणीयवेयणा कालदो भावदो किं जपणा अजहण्णा। ४७४ जहणिया णत्थि। ३१० णियमा अजहण्णा अणतगुण२६३ एवं दसणावरणीय-अंतराइयाणं । भहिया। पशुण Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणपरिमाणविहाणसुत्ताणि (१६) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या . पृष्ठ ३११ जस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा ७ वेयणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ।, : तस्स छण्णं कम्माणं वेयणा भावदो ८ एवदियाओ पयडीओ। किं जहण्णा अजहण्णा । ह मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ ३१२ णियमा अजहण्णा अणंतगुण पयडीओ। ४८१ भहिया। १० मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीसं ३१३ तस्स गामवेयणा भावदो किं जहण्णा" पयडीओ। ४८२ अजह्मणा। ११ एवदियाअो पयडीओ। ३१४ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो १२ आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ अजहण्णा छहाणपदिदा। पयडीओ। ३१५ जस्स णामवयणा भावदो जहण्णा १३ आउअस्स कम्मस्स चत्तारि तस्स छण्णं कम्माणमाउअवज्जाणं पयडीओ। ४८३ वेयणा भावदो किं जहण्णा १४ एवडियाओ पयडीओ। अजहण्णा । १५ णामस्स कम्मस्स केवडियाओ ३१६ णियमा अजहण्णा अणंतगुण पयडीओ। ब्भहिया। १६ णामस्स कम्मस्स असंखेज्जलोग३१७ तस्स आउअवेयणा भावदो किं. मेत्तपयडीओ। जण्णा अजहण्णा। १७ एवदियाओ पयडीओ। ४८४ ३१८ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो १८ गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ अजहण्णा छट्ठाणपदिदा। ४७६ पयडीओ। ३१६ जस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा १६ गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ। , तस्स सत्तणं कम्माणं वेयणा भावदो २० एवडियाओ पयडीओ। किं जहण्णा अजहण्णा। २१ अंतराइस्स कम्मस्स केवडियाओ। ३२० णियमा अजहण्णा अणंतगुण पयडीओ। ब्भ हया। २२ अंतराइस्स कम्मस्स पंच पयडीओ। वेयणपरिमाणविहाणासुत्ताणि २३ एवदियाओ पयडीओ। १ वेयणापरिमाणविहाणे त्ति । २४ समयपबद्धट्ठदाए। २ तत्थ इमाणि तिणि अणियोगद्दाराणि- २५ णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइ. पगदिअट्ठदा समयपबद्धट्ठदा यस्स केवडियाओ पयडीओ। खेत्तपच्चासए त्ति। ४७८ २६ णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतरा३ पगदिअट्ठदाए णाणावरणीय-दंसणा यस्त कम्मस्स एकेका पयडी तीसं वरणीयकम्मस्स केवडियाओ तीसं सागरोवमकोडाकोडीयो समयपयडीओ। पबद्धट्ठदाए गुणिदाए। ४८६ ४ णाणावरणीय-दसणावरणीयकम्मस्स २७ एवदियाओ पयडीओ। ४८७ असंखेजलोगपयडीओ। ४७६ | २. वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ ५ एवदियाओ पयडीओ। ४८० पयडीओ। ६ वेदणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ २६ वेदणीयस्स कम्मस्स एक्केका पयडी। . पयडीओ। तीसं-पण्णारससागरोवमकोडाको.. ...४९ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) सूत्र संख्या सूत्र डीओ समयपबद्धदाए गुणिदाए । ३० एवदियाओ पयडीओ । ३१ मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ । ३२ मोहणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी सत्तरि चत्तालीस-वीसं पण्णारस-दस सागरोवमकोडाकोडीयो समयपबद्धदा गुणिदाए । ३३ एवदियाओ पयडीओ । दससागरोवमको डाकोडीओ समयपबद्ध दाए गुणिदाए । ३४ आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ पडीओ । ३५ आउअस्स कम्मस्स एकेका पयडी अंतोमुहुत्तमं तो मुहुत्तं समयबद्धट्ठदाए गुणिदाए । ३६ एवदियाओ पयडीओ । ३७ णामस्स कम्मस्स केवडियाओ पढीश्रो । 33 ४८६ परिशिष्ट ४६० ३८ णामस्स कम्मस्स एक्का पयडी वीसंअट्ठारस-सोलस- पण्णारस-चोदस्सबारस - दससागरोवमको डाकोडीयो समयबद्धट्ठदाए गुणिदाए । ३६ एवदियाओ पयडीओ । ४० गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ | ४१ गोदस्स कम्मरस एक्केका पयडी बीसं पृष्ठ "" ४६१ ४६१ ४६२ ४२ एवदियाओ पयडीओ । ४३ खेत्तपच्चासेति । ४४ णाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ । ४५ णाणावरणीयस्स कम्मस्स जो मच्छो जोयणसहस्सओ सरंभुरमणसमुहस्स बाहिरिल्लए तडे अच्छिदो, वेयणसमुग्धा देण समुहदो, काउलेस्सियाए लग्गो, पुणरवि मारणंतियसमुग्धा देण समुहदो, तिष्णि विग्गहगदिकंदयाणि 33 "3 "" ४६६ "" ४६७ 33 55 "" सूत्र संख्या सूत्र काऊण से काले अधो सत्तमाए पुढवीए रइए उववज्जिहदिति । ४६८ ४६ खेत्तपच्चासेण गुणिदाओ । ४७ एवदियाओ पयडीओ । ४= एवं दंसणावरणीय मोहणीय-अंतरा इयाणं । ४६ वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ । ५० वेयणीयस्स कम्मस्स एक्केका पयडी दरस केवलिस केवलिसमुग्वादेण समुग्धादस्स सव्वलोगं गदस्स । ५१ खेत्तपच्चासेण गुणिदाओ । ५२ एवदियाओ पयडीओ ५३ एवमाउअ - णामा-गोदाणं । ७ समयपबद्धट्ठदाए । = णाणावरणीय - दंसणावरणीय स कम्मस्स एक्केक्का पयडी तीसं तीसं सागरो वमको डाकोडीयो समयबद्धदाए गुणिदाए सवपयढीणं केवडिओ भागो । भागाभाग विहाणसुत्ताणि १ वेयणभागाभागविहाणे ति । २ तत्थ इमाणि तिणि अणियोगद्दाराणि - पयडिअट्ठदा समयपबद्धट्ठदा खेत्तपच्चासेति । ३ पर्यादाए णाणावरणीय दंसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ सवपयडीणं केवडियो भागो । ४ दुभागो देसूणो । ५ वेयणीय- मोहणीय- श्राउ- गामा-गोदअंतराइयस्स कम्मस्स पयडीओ सव्वपयडी केवडियो भागो । ६ असंखेज्जदिभागो । 8 दुभागो देसूणो । १० एवं वेयणीय- मोहणीय श्राउ- णामागोद-अंतराइयाणं च णेयव्वं । पृष्ठ "" "3 34 ४६६ 33 55 ५०० 33 ५०१ "" ५०१ 93 ५०४ 39 33 ५८४ ५०५ ૫૫ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ५०६ वेयणअप्पाबहुगविहाणसुत्ताणि (२१) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ११ णवरि विसेसो सव्वपयडीणं केवडिओ ५ आउअस्स कम्सस्स पयडीओ संखेज्जभागो। ५०५ गुणाओ। ५०६ १२ असंखेजदि भागो। ५०५ ६ अंतराइयस्स कम्मस्स पयडीओ। १३ खेत्तपच्चासे त्ति । ५०६ विसेसाहियाओ। ૫૨ १४ णाणावरणीयस्स कम्मस्स एकेका ७ मोहणीयस्स कम्मस्स पयडीओ संखेपयडी जो महामच्छो जोयणसह ज्जगुणाओ। स्सियो सयंभुरमणसमुदस्स बाहिरिल्लए णामस्स कम्मस्स पयडीश्री असंखेजतडे अच्छिदो, वेयणसमुग्धादेण गुणाओ। ५०६ समुहदो, काउलेस्सियाए लग्गो, ह दंसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ . पुणरवि मारणंतियसमुग्घादेण समुहदो असंखेजगुणाओ। ५१० तिणि विग्गहकंडयाणि काऊण से १० णाणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ काले अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु विसेसाहियाओ। उववन्जिदि त्ति खेत्तपच्चासेण गुणि ११ समयपबद्धट्ठदाए सव्वस्थोवा आउदाओ सम्वपयडीणं केवडिओ भागो।५०६ अस्स कम्मस्स पयडीओ। ५१० १५ दुभागो देसूणी। १ गोदस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेज्ज१६ एवं दं सणावरणीय-मोहणीय-अंतरा गुणाओ। ५१० इयाणं। ५०७ १३ वेयणीयस्स कम्मस्स पयडीओ १७ णवरि मोहणीय-अंतराइयस्स सव्व विसेसाहियाओ। ५१० पयहीणं केवडिओ भागो। ५०७ १४ अंतराइयस्स कम्मस्स पयडीओ १८ असंखेजदिभागो। ५०७ संखेजगुणाओ। ५१० १६ वेयणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी १५ मोहणीयस्स कम्मस्स पयडीओ अण्णदरस्स केवलिस्स केवलसमुग्धादेण संखेनगुणाओ। समुदस्स सव्वलोगं गदस्स खेत्तप १६ णामस्स कम्मस्स पयडीओ च्चासएण गुणिदाओ सव्वपयडीणं असंखेजगुणाओ। ५११ केवडियो भागो। ५०७ १७ दंसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ २० असंखेजदिभागो। असंखेजगुणाओ। ५११ २१ एवमाउअ-णामा-गोदाणं। ५०६ १८ गाणावरणीयस्स कम्मस्स.पयडीओ __ वेयणअप्पाबहुगसुत्ताणि विसेसाहियाओ। ५११ १६ खेत्तपच्चासए त्ति । १ वेयणअप्पाबहुए ति। ५११ २० सव्वत्थोव २ तत्थ इमाणि तिणि अणियोगहाराणि पयडीओ। णादव्वाणि भवंति-पयडिअट्ठदा समय २१ मोहणीयस्स कम्मस्स पयडीओ पबद्धट्ठदा खेत्तपच्चासए त्त। ५०६ संखेजगुणाओ। ५११ ३ पयडिअट्ठदाए सव्वत्थोवा गोदस्स। २ आउअस्स कम्मस्स पयडीओ कम्मस्स पयडीओ। ५०९ असंखेजगुणाओ। ५१२ ४ वयणीयस्स कम्मस्स पयडीओ तत्ति- २३ गोदस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेयाओ चेव। ज्जगुणाओ। ५० | ५१२ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र संख्या २४ वेयणीयस्स कम्मस्स पयडीओ २६ दसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ विसेसाहियाओ। ___ ५१२ असंखेजगुणाश्रो। २५ णामस्स कम्मस्स पयडीओ असंखेज- २७ णाणावरणीयस्स कम्मस्त पयडीओ गुणाओ। १२ विसेसाहियाओ। गाहा-सुत्ताणि गाथा सादं जसुच्च-दे-कं ते-आ-वे-मणु अणंतगुणहीणा । ओ-मिच्छ के-असादं वीरिय-अणंताणु-संजलणा ॥१॥ अट्टाभिणि-परिभोगे चक्खू तिणि तिय पंचणोकसाया। णिहाणिहा पयलापयला णिहा य पयला य ॥२॥ अजसो णीचागोदं गिरय-तिरिक्खगइ इस्थि पुरिसो य । रदि-हस्सं देवाऊ णिरायऊ मणुय-तिरिक्खाऊ ॥ ३ ॥ संज-मण-दाणमोही लाभं सुद-चक्खु-भोग चक्खं च । आभिणिबोहिय परिभोग विरिय णव णोकसायाइं ॥४॥ के-प-णि-अट्ठ-त्तिय-अण-मिच्छा-ओ-वे-तिरिक्ख-मणुसाऊ । तेया-कम्मसरीरं तिरिक्ख-णिरय-देव-मणुवगई ॥५॥ णीचागोदं अजसो असादमुच्चं जसो तहा सादं । णिरयाऊ देवाऊ आहारसरीरणामं च ॥६॥ सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मसे। दसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ॥७॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तव्विवरीदो कालो संखेजगुणा य सेडीए ॥८॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ७.ओदइया बंधया ... २ अवतरण-गाथा-सूची गाथा अन्यत्र कहाँ १ अणुभागे हम्मते ३६४ अर्थस्य सूचनात् सम्यक ३६६. क. पा.-१, पृ. १७१ ३ आचार्यः पादमाचष्टे १७१ ४ एए छच्च समाणा २८६ क. प. १, पृ. ३२६ ५ एकोत्तरपदवद्धो १.२ ष. खं. पु. ५, पृ. १६३, क. पा. २, पृ. ३०० ६ स्वक्खेत्तोगाढं २७७ गो. क. १८५ २७६ ष. खं. पु. ७, पृ. ६, क. पा. १, पृ.६ ८ जोगा पयडि-पदेसे ११७,२८६ ६ ठिदिघादे हम्मंते ३६४ 16 पढमक्खो अंतगो ३१६ मू. चा. ११, २३, गो. जी. ४० १ पण्णवाणिज्ञा भावा १७१ गो. जी. ३३४, विशेषा. १४१. १२ बारस पण दस पण दस ११ ष. खं. पु. १० पृ. १३ बुद्धिविहीने श्रोतरि ४१४ २४ भंगायामपमाणं ३१६ क. पा. २, पृ. ३०८. १५ सर्वथानियमत्यागी २६६ बृहत्स्व . १०२. १६ सुहुमणुभागादुवरिं ४१८ . ३ न्यायोक्तियाँ क्रम-संख्या न्याय १ एत्थतणउवरिशब्दो हेट्ठा सिंघावलोअणक्कमेण उवार णदीसोदक्कमेण - अणुवट्टावेदव्यो। २ एसो अणंतगुणहीणणिदेसो बरि वि मंडगुप्पदेण अणुवट्टदे । ३ यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति, तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । २८६ ४ ग्रन्थोल्लेख १ कसायपाहुड कसायपाहुडे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागे दंसणमोहक्ख वगं मोत्तण सम्वत्थ होदि त्ति परूविदत्तादो वा णव्वदे । एदस्सुवरि एगपक्खेवुत्तरं कादूण बंधे अणुभागस्स जहणिया बड्ढी, तम्मि चेव अंतोमुहुत्तेण खंदयघादेण घादिदे जहणिया हाणी होदि त्ति कसायपाहुडे परूविदत्तादो। १२६ २०५ ४१ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ (२४) परिशिष्ट ३ ण च अब्भुवगमो णिण्णिबंधणो, जहण्णुकस्सकालपरूवयकत्तायपाहुडसुत्तावभबलेण तदुप्पत्तीदो। १३८ ४ संतट्ठाणाणि अद्वंक-उच्वंकाणं विच्चाले चेव होंति, चत्तारि-पंच-छ-सत्तंकाणं विच्चालेसु ण । होंति त्ति कधं णव्वदे? "उक्कस्सए..... संतकम्मट्ठाणाणि" एदम्हादो पाहडसुन्तादो। २२१ संपहि कसायपाहुडे उबजोगो णाम अत्थाहियारो। तत्थ-कसायउदयट्ठाणाणि असंखेजलागमत्ताणि । तेसु वट्टमाणकाले जत्तिया तसा संति तत्तियमेत्ताणि आण्णाणि त्ति कसायपाहुडसुत्तण भणिदं । ........"कसायपाहुडे पुणो जीवसहिदणिरंतरट्ठाणपमाणपरूवणा ण कदा, किंतु..."पमाणपरूवणा कदा। २४४ ६ एत्थ अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणेसु जीवसमुदाहारो परूविदो, तत्थ कसायपाहुडे कसाउदयट्ठा सु। २४५ २ कालनिर्देशसूत्र १ अणुभागहाणीए जहण्णुक्कस्सेण एगो चेव समओ त्ति कालणिद्देससुत्तादो णवदे। १३८ ३ चूर्णिसूत्र १ कधं सव्वमिदं णव्वदे ? उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो। २ एयत्तं कत्थ पसिद्धं ? पाहुडचुण्णिसुत्ते सुपसिद्धं, लोगपूरणाए एया वग्गणा जोगस्से त्ति भणिदत्तादो। ६४ ३ तदणणुवुत्ती वि कुदो णव्वदे ? एदस्स गाहासुत्तस्स विवरणभावेण रचिदउव रिमचुण्णिसुत्तादो। ४ तेण वि अणुभागसंकमे सिस्सागुग्गहढं चुण्णिसुत्ते लिहिदो। २३२ ४ परिकर्म १ परियम्मादो उकस्ससंखेज्जयस्स पमाणमवगदमिदि ण पच्चवट्ठाणं काहुँ जुत्तं, तस्स सुत्तत्ताभावादो। १५४ ५ महाबंध १ महाबंधे आउअउकस्साणुभार्गतरस्स उवढपोग्गलमेतकालपरूवणण्णहाणु ववत्तीदो वा। . २ तं कधं णव्वदे ? महाबंधसुत्तवइत्तादो। ५ पारिभाषिक शब्द-सूची शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ । शब्द अ अदत्तादान २८१ अनुभागबन्धस्थान २०४ अनन्तरबन्ध ४७६ अक्षरसमास ३७० अनुभागबन्धाध्यत्रअग्निकायिक २०८ अनवस्था २५७ सानस्थान अग्निकायिककायस्थिति अनन्तरोपनिधा २१४ अनुभागसत्त्वस्थान ११२ अचित्तद्रव्यभाव अनुत्पादानुच्छेद ४५८, ४६४ अनुभागसंक्रम २३२ अतिप्रसंग अनुभाग अनुयोग अतिस्थापनावली अनुभागकाण्डक ३२ अनुयोगसमास ४१ १४२ .९१ ४९० " Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पृष्ठ २७९ ४७८ शब्द | शब्द . पृष्ठ - शब्द अनुसमयापवर्तना ३२ क्षपितघोलमान अनुसनयापवर्तनाघात ३१ क्षायिक दलित अन्वय ९८ क्षेत्रप्रत्याश्रय दलितदलित अपरिवर्तमान परिणाम २७ क्षेत्रप्रत्यास ४९७ दारुसमान अनुभाग ११७ अपवर्तनाघात दीपशिखा ४२८ अभ्याख्यान २८५ -गुणधरभट्टारक देशघाती ५४ अमूर्तद्रव्यभाव गुणश्रेणि द्वीपायन २१ अथेपद गणितकर्माशिक ११६,३८२ द्वेष २८३ अर्थापत्ति अवस्थित भागहार १०२ गुणितघोलमान ४२६ अविभागप्रतिच्छेद ९२ गौतम स्थविर २३१ नागहस्ती २१२ अष्टक १३१ नामभाव असद्वचन २५४ निकाचित घातपरिणाम २२०,२२५ असातसमयप्रबद्ध १८९ निकृति २८५ घातस्थान १३०, २२१, २३१ निद न आ २८४ नैगम ३०३ आगमद्रव्यभाव चतुःषष्ठिपदिक दण्डक ४४ नोजीव २९६, २९७ आगमभावभाव चतुःसामयिक अनुआर्यमंतु भागस्थान २०२ चिरन्तनअनुभाग पद ३,४८० पदमीमांसा उत्पादानुच्छेद चूणचूर्णि ४.७ पदसमास उदीर्ण चूर्णि ४८० ३०३ परम्पराबन्ध २३२ ३७०,३७२ उपधि चूर्णिसूत्र परम्परोपनिधा २५४ उपशान्त ३०३ परिग्रह २८२ छिन्न परिवर्तमान परिणाम २७ औदयिक छिन्नाछिन्न परिवर्तमानमध्यमपरिणाम,, औपशमिक छेदभागहार पारिणामिक २७६ पिशुल ૧૫૮ कर्मद्रव्यभाव पिशुलापिशुल १६० जघन्य द्रव्यवेदना . ९८ कलह २८५ पुद्गलविपाकी ४६ जघन्य स्थान कल्प २०६ पुनरुक्तदोष २१२ २०९ जीवयवमन्य कालयवमध्य ४०० जीवविपाकी क्रोध २८३ पूर्वसमास क्षपकश्रेणि पूर्वानुपूर्वी २२१ क्षपितकांशिक ११६. त्रुटित १६२ प्रकृति ३०३ ३८४, ४२६ । त्रुटितात्रुटित ४७८ २३२ २८५ ५६२ २७९ १०२ २१२ प्रकृत्यर्थता Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषिक शब्दसूची पृष्टः । शब्द २३२ २८६ यतिवृषभ भट्टारक यथाख्यातसंयम यवमध्य योग २३१ ३६७ प्रतिपत्ति ४८० प्रतिपत्तिसमास प्रयोग प्रवेशन प्राण २७६ प्राणातिपात २७५, २७६ प्राभृत प्राभृतप्राभृत प्राभृतप्राभृतसमास प्राभृतसमास प्रेम २८३ राग रात्रिभोजन रूपोनभागहार ५३ १०२ ल ४०० लतासमान अनुभाग ११७ लोभ २८३, २८४ व सचिद्रव्यभाव सत्कर्मस्थान२२०,२२५. २३१ सत्त्वप्रकृति ४९५ सत्त्वस्थान २१९ समयप्रबद्धार्थता ४७८ सरागसंयम ५१ सर्वघाती सहानवस्थान ३०० संक्रमस्थान संघात संघातसमास संनिकर्ष सिक्थमत्स्य ३६० सूक्ष्मप्ररूपणा १७४ स्थान १११ स्थानान्तर ११४ स्थापनाभाव स्थूलप्ररूपणा १७४ स्पर्द्धक स्पर्द्धकान्तर ११८ રૂપ : ४९५ वर्ग वक्ष्यमान ३०३ बन्धप्रकृति बन्धसमुत्पत्तिक बन्धसमुत्पत्तिकस्थान २२४ बन्धस्थान १११, ११२ बादरकृष्टि २३१ ४८० २३१ ९५ वर्गणा वर्धमानभट्टारक वस्तु वस्तुसमास विपुलगिरि विसंयोजन वेदना वेदनावेदना व्यतिरेक व्यधिकरण व्यभिचार व्यवस्थापद मध्मदीपक मान माया मिध्याज्ञान मिथ्यादर्शन मूर्तद्रव्यभाव मृषावाद मैथुन मोह ३०२ ३ २७९ २८२ हतहतसमुत्पत्तिक २१ हतसमुत्पत्तिकौ २८, २६ हतसमुत्पत्तिकस्थान २१९, २२० १२०, १२१ । हतहतसमुत्पत्तिक २८३ षट्स्थान Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रन्थमालाओं में डा० हीलालाल जैन द्वारा आधुनिक ढङ्गसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रन्थ प्रत्येक ग्रन्थ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। 1 षटखण्डागम-[धवलसिद्धान्त ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्तक 1, जीवस्थान-सत्प्ररूपणा, पुस्तकाकार व शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 2, पुस्तकाकार 10), शाखाकार (अप्राप्य) पुस्तक 3-6 (प्रत्येक भाग) , 10), 12) पुस्तक 10-12 (प्रत्येक भाग) 12), 14) यह भगवान महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा सम्बन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रन्थ है / श्रुतपञ्चमीकी पूजा इसी ग्रन्थकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई। 2 यशोधरचरित-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंश काव्य... .. .... ......... इसमें यशोधर महाराजका अत्यन्त रोचक वणन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है। इसका सम्पादन टा. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंश काव्य.. ... ....... .... ) इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपञ्चमी विधानकी महिम, बतलाई गई है / यह काव्य अत्यन्त उत्कृष्ट और रोचक है। 4 करकण्डुचरित-मुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य........ . .... ... ) इसमें करकण्डु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिन पूजाका माहात्म्य प्रगट होता है। इसस धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राजवंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। श्रावकधर्मदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छन्दमें हुई है / प्रत्येक दोहा काव्यकलापूण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित. ... "" 30) इसमें दोहा छंदोंद्वारा आध्यात्मरसकी अनुपम गङ्गा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। 7 तत्त्व-समुच्चय-हिन्दी अनुवाद सहित इसमें जैन सिद्धान्त का सांगपूर्ण परिचय कराया गया है।