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________________ ४, २, ८, ३. ] वेयणमहाहियारे वेयणपञ्चयविहाणं [२७९ क्खंधे णाणावरणीयसरूवेण अकमेण परिणामावेदि, बहुसु एकस्स अक्कमेण वृत्तिविरोहादो ? ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो। (मुसावादपच्चए ॥३॥) असंतवयणं मुसावादो। किमसंतवयणं ? मिच्छत्तासंजम-कसाय-पमादुट्ठावियो वयणकलावो । एदम्हि मुसावादपञ्चए मुसावादपच्चएण वा णाणावरणीय वेयणा जायदे । कम्मबंधो हि णाम सुहासुहपरिणामे हितो जायदे, सुद्धपरिणामे हितो तेसिं दोण्णं पि णिम्मूलक्खओ। (ओदइया बंधयंरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा। _परिणामिओ दु भावो करणोहयवजियो होदि' ॥२॥) इदिवयणादो। असंतवयणं पुण ण सुहपरिणामो, णो असुहपरिणामो, पोग्गलस्स तप्परिणामस्स वा जीवपरिणामत्त विरोहादो। तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्स कारणं । णासंतवयणकारणकसाय-पमादाणमसंतवयणववएसो, तेसिं कोह-माण-मायालोहपच्चएसु अंतब्भावेण पउणरुत्तियप्पसंगादो। ण पाणादिवादपञ्चो वि, भिण्णजीव स्वरूपसे कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतोंमें एककी युगपत् वृत्तिका विरोध है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारणके अनन्त शक्तियुक्त होनेसे वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। मृषावाद प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥३॥ ३ ॥ . . असत् वचनका नाम मृषवाद है। शंका-असत् वचन किसे कहते हैं? समाधान-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमादसे उत्पन्न वचन समूहको असत् वचन कहते हैं। इस मृषावाद प्रत्ययमें अथवा मृषावाद प्रत्ययके द्वारा ज्ञानावरणीय वेदना होती है। . शंका-कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामोंसे होता है और शुद्ध परिणामांसे उन (शुभ व अशुभ) दोनोंका ही निर्मूल क्षय होता है; क्योंकि 'औदयिक भाव बन्धके कारण और औपशमिक, क्षायिक व मिश्र भाव मोक्षके कारण हैं। पारिणामिक भाव बन्ध व मोक्ष दोनोंके ही कारण नहीं हैं ।। २ ।। ऐसा आगमवचन है। परन्तु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम है; क्योंकि, पुद्गलके अथवा उसके परिणामके जीवपरिणाम होनेका विरोध है । इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि असत्य वचनके कारणभूत कषाय और प्रमादकी असत्य वचन संज्ञा है सो यह कहना भी ठीक नहीं है,क्योंकि उनका क्रोध, मान, माया व लोभ प्रत्ययोंमें अन्तर्भाव होनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है । इसी १ पु.७ पृ. ६., क. पा. १.पृ. ६. इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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