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४, २, १३, ८४.]
वेयणसपिणयासविहाणाणियोगहारं सुगमं।
णियमा अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ॥८४॥
___ तं जहा—उक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए मणुस्साउअं बंधिय मणुस्सेसु उप्पजिय संजमं घेत्तूण पुव्वकोडितिभागपढमसमए देवाउए पबद्धे' आउअस्स उक्कस्सहिदी होदि, पुव्वकोडितिभागाहियतेत्तीससागरोवमपमाणत्तादो। उवरि किण्ण उक्कस्सहिदी जायदे ? ण, अधढिदिगलणाए समयं पडि गलमाणियाए उवरि उक्कस्सत्तविरोहादो। एत्थ जं दव्वं तमुक्कस्सदव्वस्स संखेजदिभागो। कुदो ? सादिरेयछब्भागत्तादो । एवमुक्कस्सबंधगद्धाए दुभागेण आउवे बंधाविदे वि संखेज्जगुणहीणं' होदि, सादिरेयवारसभागत्तादो। एवं 'बंधगद्धमस्सिदूण एदं दव्वमुक्कस्सदव्वस्स संखेज्जदिभागो' चेव होदि । जोगमस्सिदण पुण संखेज्जगुणहीणमसंखेज्जगुणहीणं च संलब्भदि', संखेज्ज गुणहीण-असंखेज्जगणहीणजोगाणं संभवादो। तम्हा आउअदव्ववेयणा सगुक्कस्सदव्वं पेक्खिदण उक्कस्सकालाविणाभाविणी विट्ठाणपदिदा चेव होदि त्ति सिद्धं ।
यह सूत्र सुगम है।
वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातगुणहीन व असंख्यातगुणहीन इन दो स्थानों में पतित होती है ॥ ८४॥
वह इस प्रकारसे-उत्कृष्ट योगके द्वारा उत्कृष्ट बन्धककालमें मनुष्यायको बाँधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो संयमको ग्रहणकर पूर्वकोटित्रिभागके प्रथम समयमें देवायुके बाँधनेपर आयुकी उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि, वह पूर्वकोटित्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होती है।
शंका-ऊपर उत्कृष्ट स्थिति क्यों नहीं होती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऊपर अधःस्थितिके गलनेसे प्रत्येक समयमें गलनेवाली उसके उत्कृष्ट होनेका विरोध है।
यहाँ जो द्रव्य है वह उत्कृष्ट द्रव्यके संख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, वह साधिक छठे भाग प्रमाण है । इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धक कालके द्वितीय भागसे आयुके बँधानेपर भी द्रब्य संख्यातगुणा हीन ही होता है, क्योंकि, वह साधिक बारहवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार बन्धककालका आश्रय करके यह द्रव्य उत्कृष्ट द्रव्यके संख्यातवें भाग ही होता है । परन्तु योगका आश्रय करके वह संख्यातगुणा हीन और असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है, क्योंकि, संख्यातगुण हीन और असंख्यातगुण हीन योगों की सम्भावना है। इस कारण आयु कर्मकी द्रव्य वेदना अपने उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा करके उत्कृष्ट कालके साथ आविनाभाविनी होकर उक्त दो स्थानोंमें ही पतित होती है, यह सिद्ध है।
१ अ-श्रा-काप्रतिषु 'पबद्धो' इति पाठः । २ अ-श्रा काप्रतिषु 'असंखेजगुणहीणं' इति पाठः । ३ अ-श्रा-' काप्रतिषु पबंधा-' इति पाठः। ४ अ-आप्रत्योः 'संखेजदिभागे' इति पाठः। ५ ताप्रती 'लब्मदि' इति पाठः।
छ. १२-५२
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