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________________ ४, २, ७, १६४.] वयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं वेउब्वियसरीरमणंतगुणं ॥ १५८ ॥ ओरालियसरीरं पेक्खिदृण पसत्थतमत्तादो । तिरिक्खाउअमणंतगुणं ॥ १५६ ॥ उक्कस्ससंकिलेस-विसोहीहि बंधाभावेण तप्पाओग्गसंकिलेस-विसोहीहि बद्धतिरिवखअपज्जत्तजहण्णाउग्गहणादो । मणसाउअमणंतगुणं ॥ १६०॥ तिरिक्खाउआदो विसुद्धतमत्तादो । तेजइयसरीरमणंतगुणं ॥ १६१ ॥ तेजइयसरीरं जेण सुहपयडी तेणे दस्से जहण्णबंधी सव्वसंकिलिट्ठमिच्छाइट्टि म्हि होदि । होतो वि मणुस्साउआदो अणंतगुणो। कुदो ? सुहाणं बहुअणुभागबंधोसरणाभावादो। कम्मइयसरीरमणंतगुणं ॥ १६२ ॥ पयडि विसेसेण । तिरिक्खगदी अणंतगुणा ॥ १६३॥ कुदो ? सव्वविसुद्धसत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठिणा बद्धत्तादो । णिरयगदी अणंतगुणा ॥ १६४ ॥ उससे वैक्रियिक शरीर अनन्तगुणा है ॥ १५८ ।। क्योंकि, औदारिक शरीरकी अपेक्षा वैक्रियिक शरीर अतिशय प्रशस्त है । उससे तिर्यगायु अनन्तगुणी है ॥ १५९ ॥ क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धिके द्वारा आयुका बन्ध नहीं होता अतएव तत्प्रायोग्य संक्लेश व विशुद्धिके द्वारा बाँधी गई तिर्यश्च अपर्याप्तकी जघन्य आयुका यहाँ ग्रहण किया है। उससे मनुष्यायु अनन्तगुणी है ॥ १६० ॥ क्योंकि, वह तिर्यंचायुकी अपेक्षा अतिशय विशुद्ध है। उससे तैजस शरीर अन्नतगुणा है ॥ १६१ ॥ चूँकि तैजस शरीर शुभ प्रकृति है, अतएव इसका जघन्य बन्ध सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । मिथ्यादृष्टिके होता हुआ भी वह मनुष्यायुकी अपेक्षा अनन्तगुणा है, क्योंकि, शुभ प्रकृतियों के बहुत अनुभागबन्धका अपसरण नहीं होता। उससे कामर्ण शरीर अनन्तगुणा है ।। १६२ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे तिर्यग्गति अनन्तगुणी है ॥ १६३ ॥ कारण कि वह सर्वविशुद्ध सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी जीवके द्वारा बाँधी गई है। उससे नरकगति अनन्तगुणी है ॥ १६४ ॥ छ. १२-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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