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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १५३. कोधो विसेसाहिओ॥ १५३॥ पयडिविसेसेण । माया विसेसाहिआ ॥ १५४ ॥ पयडिविसेसेण । लोभो विसेसाहिओ ॥ १५५ ॥ पयडिविसेसेण । मिच्छत्तमणंतगुणं ॥ १५६ ॥ मिच्छाइटिणा सव्वविसुद्धण संजमाहिमुहेण सगद्धाए चरिमसमए वट्टमाणेण बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो। दोणं पि पयडीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चेव सामीए संते कधं मिच्छत्तस्स अणंतगुणत्तं जुज्जदे ? ण, पयडि विसेसेण तदविरोहादो । ओरालियसरोरमणंतगुणं ॥ १५७ ॥ जेणेसा पसत्थपयडी तेणेदिस्से संकिलेसे ण जहण्णबंधो होदि। पुणो एसा जदि वि मिच्छाइद्विउक्कट्ठसंकिलेसेण बद्धा तो वि मिच्छत्तादो' अणंतगुणा। कुदो ? सुहाणं पयडीणं संकिलेसेण महल्लाणुभागक्खयाभावादो। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष अधिक है ।। १५३ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष अधिक है ॥ १५४ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभ विशेष अधिक है ॥ १५५ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। - उससे मिथ्यात्व अनन्तगुणा है ॥ १५६ ॥ क्योंकि, संयमके अभिमुख हुए व अपने कालके अन्तिम समयमें स्थित सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहाँ ग्रहण किया है। _शंका-जब कि इन दोनों ही प्रकृतियोंका एक ही मिथ्यादृष्टि जीव स्वामी है तब अनन्तानुबन्धी लोभकी अपेक्षा मिथ्यात्वका अनन्तगुणा होना कैसे उचित है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकृतिविशेष होनेसे उसमें कोई विरोध नहीं आता । उससे औदारिक शरीर अनन्तगुणा है ॥ १५७ ॥ चूँकि यह प्रशस्त प्रकृति है इसलिये इसका संक्लेशसे जघन्य बन्ध होता है। यद्यपि यह प्रकृति मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट संक्लेशसे बाँधी गई है, तो भी वह मिथ्यात्वकी अपेक्षा अनन्तगुणी है, क्योंकि, संक्शसे शुभ प्रकृतियोंके महान् अनुभागका क्षय नहीं होता। १ अप्रतौ 'विच्छित्तादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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