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________________ ४, २, ७, १५२.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुरं पयडिविसेसेण । माया विसेसाहिया ॥ १४७ ॥ पयडिविसेसेण । लोभो विसेसाहिओ ॥ १४८ ॥ पयडिविसेसेण णिहाणिद्दा अणंतगुणा ॥ १४६ ॥ असंजदसम्मादिद्विविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिमिच्छाइट्टिणा सव्वविसुद्धेण बद्धत्तादो। पयलापयला अणंतगुणा ॥ १५० ॥ जदि वि दोण्णं पि जहण्णाणुभागबंधाणमेको चेव सामी तो वि पयडिविसेसेण पयलापयला अणंतगुणा। थीणगिद्धी अणंतगुणा ॥ १५१ ॥ पयडिविसेसेण । अणंताणुबंधिमाणो अणंतगुणो ॥ १५२ ॥ संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइटिजहण्णबंधग्गहणादो। इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय माया विशेष अधिक है ॥ १४७ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय लोभ विशेष अधिक है ॥ १४८ ॥ इसका कारण प्रकृतिको विशेषता है। उससे निद्रानिद्रा अनन्तगणी है ॥ १४९ ॥ क्योंकि, वह असंयतसम्यग्दृष्टिकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा बाँधी जाती है। उससे प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है ।। १५० ॥ यद्यपि इन दोनों ही प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका एक ही स्वामी है, तो भी प्रकृतिविशेष होनेसे प्रचलाप्रचला निद्रानिद्राकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। उससे स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है ॥ १५ ॥ इसका कारण प्रकृतिकी विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी मान अनन्तगुणा है ॥ १५२ ॥ क्योंकि, संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागबन्धका यहाँ ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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