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________________ ७० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,१४०. णिद्धा अणंतगुणा ॥ १४०॥ एदिस्से वि तत्थेव जहण्णबंधो जादो । किं तु पयडिविसेसेण अणंतगुणा । पचक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो॥ १४१ ॥ कुदो ? अपुव्वकरणखवगविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा सव्वविसुद्धण संजदासंजदेण बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो । कोधो विसेसाहियो ॥ १४२ ॥ पयडिविसेसेण । माया विसेसाहिया ॥ १४३ ॥ पयडिविसेसेण । लोभो विसेसाहिओ ॥ १४४ ॥ पयडिविसेसेण । अपञ्चक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो॥१४५ ॥ संजदासंजदविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा असंजदसम्माइट्ठिणा सव्वविसुद्धण चरिमसमए बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो। कोधो विसेसाहिओ॥ १४६॥ उससे निद्रा अनन्तगुणी है ॥ १४०॥ यद्यपि इसका जघन्य बन्ध वहींपर होता है, तो भी प्रकृतिविशेषके कारण वह प्रचलासे अनन्तगुणी है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय मान अनन्तगुणा है ॥ १४१ ॥ क्योंकि, अपूर्वकरण क्षपककी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले तथा सर्वविशुद्ध संयतासंयत जीवके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहां ग्रहण किया है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध विशेष अधिक है ॥ १४२ ॥ इसका कार प्रकृति विशेष है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय माया विशेष अधिक है ॥ १४३ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है। उससे प्रत्याख्यानावरणीय लोभ विशेष अधिक है ॥ १४४ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय मान अनन्तगुणा है ॥ १४५ ॥ क्योंकि, संयतासंयतकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले सर्वविशुद्ध असंयतसम्यम्दृष्टि जीक्के द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहाँ ग्रहण किया है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध विशेष अधिक है ॥ १४६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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