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________________ [३३ ४, २, ७, ४३. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं तेण विसरिसत्तं जुज्जदे। __णाणावरणीय-दंसणावरणीयवेयणा भावदो जहणियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ४३ ॥ ___ कधं दोण्णं पयडीणमणभागस्स धादिदसेसस्स सरिसत्तं ? ण एस दोसो, संसारावत्थाए समाणाणुभागाणमसुहत्तणेण समाणाणं सरिसत्ताणुभागधादाणं' धादिदसेसाणुभागाणं सरिसत्तं पडि विरोहाभावादो । संसारावत्थाए दोण्णं पयडीणमणुभागो सरिसो त्ति कधं णव्वदे ? केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीयं आसादावेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि त्ति चदुसहिपदियमहादंडयसुत्तादो। सव्वमेदं जुज्जदे किं तु अंतराइयजहण्णाणुभागादो णाण-दंसणावरणाणुभागाणं जहण्णाणमणंतगुणत्तं ण घडदे, संसारावत्थाए अणुभागेण समाणाणं अणुभागखंडय-अणुसमयओवट्टणाघादेण सरिसाणं विसरिसत्तविरोहादो' त्ति ? होदि सरिसत्तं जदि सव्वघादित्तणेण वीरियंतराइयं केवलणाण-दंसणावरणीएहिं समाणं, ण च एवं तदो जेण वीरियंतराइयं देसघादिलक्खणं तेण घात करनेके बाद शेष रहा अनुभाग बहुत ही होता है । इस कारण दोनोंमें विसदृशता बन जाती है। उससे भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीयकी जघन्य वेदनायें दोनों ही परस्पर तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ ४३ ॥ शंका--घात करनेके बाद शेष रहे इन दोनों प्रकृतियोंके अनुभागमें समानता किस कारणसे है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संसार अवस्थामें ये दोनों प्रकृतियाँ समान अनुभागवाली हैं, अशुभ स्वरूपसे समान हैं एवं समान अनुभागघातसे संयुक्त हैं अतः उक्त दोनों प्रकृतियोंके घात करनेके बाद शेष रहे अनुभागोंके समान होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका--संसार अवस्थामें इन दोनों प्रकृतियोंका अनुभाग समान होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। ___ समाधान--"केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय ये चारों ही प्रकृतियाँ तुल्य हैं" इस चौंसठ पदवाले महादण्डकसूत्रसे जाना जाता है। शंका-यह सब तो बन जाता है, किन्तु अन्तरायके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरणका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है यह नहीं बनता, क्योंकि, ये तीनों कर्म संसार अवस्थामें अनुभागकी अपेक्षा समान हैं तथा अनुभागकाण्डकघात व अनुसमयापेवर्तनाघातकी अपेक्षा भी समान हैं अतएव उनके विसदृश होने में विरोध आता है ? समाधान-यदि वीर्यान्तराय कर्म सर्वघातिरूपसे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके समान होता तो इन तीनोंमें समानता अनिवार्य थी। परन्तु ऐसा है नहीं। अतएव चूँकि वीर्या १ अप्रतौ 'त्तरिसणुभागघादाणं' पप्रतौ सरिसत्ताणभागधादाणं इति पाठः। २ अप्रतौ 'विरोहोदि त्ति' इति पाठः । छ. १२-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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