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________________ २४६ ] srisrगमे वेयणाखं [४, २, ७, २७३. एदं पुच्छासुतं समयावलिय-खणलव-मुहुत्त दिवस पक्ख-मास- उदु-अयण-संवच्छरमादि कारण जाव कप्पो त्ति एवं कालविसेसम वेक्खदे' । जहणेण एगसमओ ॥ २७३॥ कुदो ? एगस्स जीवस्स एगमणुभागबंध द्वाणमेगसमयं बंधिय विदियसमए वड्डिदूण अण्णमणुभागट्ठाणं बंधमाणस्स जहणणेण एगसमयकालुवलंभादो | उक्कस्सेण आवलिया असंखेज दिभागो ॥ २७४॥ एगो जीवो एकम्मिट्ठाणम्मि एगसमयमादि काढूण जावुकस्सेण श्रट्ट समयाति अच्छदि । जाब सो अण्णं द्वाणंतरं ण गच्छदि ताव अण्णेतु वि जीवेसु तत्थ आगच्छमाणेसु जीवेहि' अविरहिदं होतॄण जेण द्वाणमावलियाए असंखेज दिभागमेत्तकालं अच्छदि तेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो चेव एक्केकस्स ट्टणिस्स असुण्णकालो ति भणिदं । एवं णाणाजीवकालपमाणाणुगमो समत्तो । डिपरूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि - अनंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ २७५ ॥ परूवणा- पमाण भागाभागाणियोगद्दाराणि एत्थ किष्ण परुविदाणि ? ण ताब यह पृच्छासूत्र समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर से लेकर कल्पकाल पर्यन्त इस प्रकार कालविशेषकी अपेक्षा करता है । जघन्य काल एक समय है २७३ || कारण कि एक अनुभागबन्धस्थानको एक समय बाँधकर द्वितीय समय में वृद्धिको प्राप्त होकर अन्य अनुभागवन्धस्थानको बाँधनेवाले एक जीवका काल जघन्यसे एक समय पाया जाता है। उत्कृष्ट काल आवली के असंख्यातवें भाग है || २७४ ॥ एक जीव एक स्थानमें एक समयसे लेकर उत्कृष्टसे आठ समय तक रहता है । जब तक वह अन्य स्थानको नहीं प्राप्त करता है तब तक अन्य जीवोंके भी वहाँ आनेपर जीवोंके विरहसे रहित होकर चूँकि एक स्थान आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहता है, अतएव आवली असंख्यातवें भागमात्र ही एक एक स्थानका अविरहकाल होता है; यह सूत्रका अभिप्राय है । इस प्रकार नानाजीवकालप्रमाणानुगम समाप्त हुआ । वृद्धिप्ररूपणा इस अधिकारमें ये दो अनुयोगद्वार हैं— अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ।। २७५ ॥ शंका- यहाँ प्ररूपणा, प्रमाण और भागाभागानुगम अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? १ प्रतिषु ' - मुवेक्खदे' इति पाठः । २ प्रतौ 'जीवेसुहि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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