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________________ ४, २, ७, २७६. ] वेयणमहाद्दियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २४७ परूवणा वुच्चदे, सेसाणियोगद्दारपरूवणण्णहाणुववत्तीदो चेव अणुभागट्ठाणेसु जीवाणमस्थित सिद्धीदो | ण पमाणाणियोगद्दारं पि वत्तव्यं, एयट्ठाणजीवपमाणाणुगमादो चेव तदवगमादो | ण भागाभागो, अप्पाबहुगादो चैव तदवगमादो | तेण अणंतरोवणिधा परंपरावणिधा चेदि दो चैव एत्थ अणियोगद्दाराणि । ण वड्डिणिबंधण संतादिपरूवणा' विजुज्ज, एहि दोहि अणियोगदा रेहिंतो चेव तदवगमादो । अणंतरोवणिधाए जहण्णए अणुभागबंधकवसाणहाणे थोवा जीवा ॥ २७६ ॥ दो ? अविसोही वट्टमाणजीवाणं पाएण संभवाभावादो । ते च आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चैव, एकेकडाणे एगसमएण सुट्टु जदि बहुवा जीवा होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेत्र होंति त्ति एयट्ठाणजीवपमाणानुगमाणियोगद्दारे परुविदत्तादों । हो वट्टमाणकालेण एगेगट्ठाणम्मि उक्कस्सेण जीवपमाणमावलियाए असंखेजदिभागो, एसा अतरोवणिधा च अदीदकालमस्सिदूण डिदा | कुदो णव्यदे ! सव्वाणुभागबंध ज्भवसाणहाणेसु एगसमयम्मि उक्कस्सेण संचिदएगट्ठाणजीवाणं बुद्धीए कय सहजोगाणं वड्डिपरूवणत्तादो । तदो एणे गट्ठाणम्मि अणतेहि जीवेहि होदव्यमिदि १ समाधान- प्ररूपणा के कहनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि, इसके बिना शेष अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणा चूँकि बनती नहीं है, अतः इसीसे अनुभागस्थानों में जीवोंका अस्तित्व सिद्ध है । प्रमाण नुयोगद्वार भी यहाँ कहने योग्य नहीं है, क्योंकि, एकस्थान जीवप्रमाणानुगमसे ही उसका परिज्ञान हो जाता है । भागाभागानुगम अनुयोगद्वार भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अल्पबहुत्व से ही उसका परिज्ञान हो जाता है । इसलिये यहाँ अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ये दो ही अनुयोगद्वार हैं । वृद्धिके कारणभूत सत् आदि अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा भी यहाँ योग्य नहीं है, क्योंकि, इन दो अनुयोगद्वारोंसे ही उनका अवगम हो जाता है। अनन्तरोपनिवासे जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव सब से स्तोक हैं ।। २७६ ॥ 1 कारण कि अतिशय विशुद्धिमें वर्तमान जीवोंकी प्रायः सम्भावना नहीं है । वे भी आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, क्योंकि, एक एक स्थानमें एक समय में यदि बहुत अधिक जीव होते हैं तो आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाणा ही होते हैं, ऐसा एकस्थानजीव प्रमाणानुगम अनुयोगद्वारमें कहा जा चुका है । शंका - वर्तमान कालमें एक एक स्थान में उत्कृष्टसे जीवांका प्रमाण आवली के असंख्यातवें भाग मात्र भले ही हो और यह अनन्तरोप निधा अतीत कालका आश्रय करके स्थित है । यह कहाँ से जाना जाता है ? वह सब अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंमें बुद्धिकृत सहयोग युक्त होते हुए एक समय में उत्कर्ष से संचित एक स्थानके जीवोंकी वृद्धि की जो प्ररूपणा की गई है, उससे जाना जाता है । इस कारण एक एक स्थानमें अनन्त जीव होने चाहिये ? १ प्रतौ 'संताहिपरूवणा-' इति पाठः । २ श्रान्ताप्रत्योः 'एगहाणाणं जीवाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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