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________________ २४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, ७, २७७. ण एस दोसो, बहुएण वि कालेण वत्तिसरूवेणेव सत्तीणं वडि-हाणीए अभावादो। ण चोदंचणे समुद्दे वि पक्खित्ते बहुगं जलमस्थि त्ति सगप्पमाणादो वड्डिमं पाणियं माइ । एवमदीदे विःकाले वट्टमाणे इव एकेकम्हि अणुभागबंधट्ठाणे उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव जीवा होति त्ति । एगेगट्ठाणमहिटियसव्वजीवे वुद्धीए मेलाविय तेसिमणंताणमणंतरोवणिधा किण्ण वुच्चदे ? ण, एवं संते हेडिमचदुसमयपाओग्गहाणजीवेहिंतो जवमझादो उवरिमविसमयपाओग्गसव्वट्ठाणजीवाणमसंखेजगुणत्तप्पसंगादो । ण च एवं, विसययपाओग्गसव्वट्ठाणजीवा असंखेजगुणा त्ति उवरि भण्णमाणतादो । तदो एक्कक्कम्हि द्वाणम्मि जीवा आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव उकस्सेण होति त्ति घेत्तव्वं । विदिए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे जीवा विसेसाहिया ॥२७७॥ जहण्णट्ठाणादो असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि उवरि गंतूण जं द्वाणं द्विदं तं विदियमणुभागबंधझवसाणट्ठाणमिदि घेत्तव्यं । असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि उवरि चडिदूण द्विदट्ठाणस्स कधं विदियत्तं ? ण, वड्डिमस्तिदूण परूवणाए कीरमाणाए अण्णस्स विदिय समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बहुतकालमें भी व्यक्ति स्वरूपसे ही शक्तियोंकी हानि-वृद्धिका अभाव है । उदश्चनको समुद्र में भी (ऊँचे उठे हुए समुद्र में भी) फेकनेपर बहुत जल है इसलिए उसमें अपने प्रमाणसे अधिक पानी समा सकेगा ऐसा नहीं है। कारण कि उदश्चन (मिट्टीके पात्र विशेष ) को समुद्र में भी रखनेपर चूकि वहाँ बहुत जल भरा हुआ है, अतः उसमें उदश्चनमें अपने प्रमाणसे अधिक जल समा जावेगा; यह सम्भव नहीं है। इसी प्रकारसे अतीतकालमें वर्तमान कालके समान एक एक अनुभागस्थानमें उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही जीव होते हैं। शंका-एक एक स्थानको प्राप्त सब जीवोंको बुद्धिसे मिलाकर उन अनन्तानन्त जीवोंकी अनन्तरोपनिधा क्यों नहीं कही जाती है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर अधस्तन चार समय योग्य स्थानोंके जीवोंकी अपेक्षा यवमध्यसे ऊपरके दो समय योग्य सब स्थानोंके जीवोंके असंख्यातगुणे होनेका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, दो समय योग्य सब स्थानोंके जीव असंख्यातगुणे हैं, गे कहा जानेवाला है। इस कारण एक एक स्थानम जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उनसे द्वितीय अनुभागवन्धाध्यवसानास्थानमें जीव विशेष अधिक हैं ॥२७७॥ जघन्य स्थानसे आगे असंख्यातलोक मात्र स्थान जाकर जो स्थान स्थित है वह द्वितीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये: शंका-असंख्यातलोक प्रमाण स्थान आगे जाकर स्थित स्थान द्वितीय कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वृद्धिका आश्रय करके प्ररूपणाके करनेपर अन्य द्वितीय स्थान १ अ-आप्रत्योः ण चेदंचणे' इति पाठः । . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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