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________________ ४, २, ७, २७८ ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २४६ सासंभवादो । ण च वड्डीए परूवमाणाए वड्डिविरहिदं द्वाणं विदियं होदि, अणवत्थापसंगादो | असंखेज लोगमेचट्ठाणाणि जीवाधारत्तणेण जहण्णट्ठाणेण समाणाणि त्ति कथं वदे १ ण, अण्णहा जवमज्झादो हेहा उवरिं च असंखेज्जलोग मेत्तद्गुणवड्डि- हाणिप्पसंगा । ण च एवं, जीव अणुभागबंधझवसाणदु गुणवड्ढिह । णिट्ठाणंतराणि वलिया असंखेजदिभागो त्ति उवरि परंपरोवणिधाए भण्णमाणत्तादो । किं चण निरंतरं सव्वाणे जीववड्डी होदि, जवमज्झम्मि आवलियाए असंखेज्जदिभागं मोत्तण असंखेज लोगमेत्तजीवप्पसंगादो । केत्तियमेत्तेण विसेसाहिया' ? एगजीवमेत्तेण । जहण्णजीवे विरलेदुण तेसु चेव विरलणरूवं पडि समखंडं काढूण दिण्णेसु तत्थ एगखंडमेल विसेसाहिया त्ति भणिदं होदि । तदिए अणुभागबंधज्भवसाणट्टाणे जीवा विसेसाहिया ॥ २७८ ॥ एत्थ विपुव्वं व अवद्विदमसंखेज लोग मे तद्धाणं गंतूण विदियो जीवो वड्डदि । हेडिमसव्वाणाणि जीवेहि जहण्णट्ठाणजीवेहिंतो एगजीवाहियड्डाणेण समाणाणि । कुदो ? साभावियादो । सम्भव नहीं है । वृद्धिकी प्ररूपणा करनेपर वृद्धिसे रहित स्थान दूसरा होता नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है । शंका- असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जीवाधार स्वरूपसे जघन्य स्थानके समान है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इसके विना यवमध्य से नीचे व ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण दु गुणवृद्धि हानिस्थानोंके होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, नानाजीवांसम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंके द्विगुणवृद्धि हानिस्थानान्तर आवलीके असंख्यातवें भाग हैं; ऐसा आगे परम्परोपनिधामें कहा जानेवाला है । दूसरे, सब स्थानों में निरन्तर जीववृद्धि होती हो, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, यवमध्य में आवलीके श्रसंख्यातवें भागको छोड़कर असंख्यात लोकमात्र जीवोंका प्रसंग आता है । शंका- कितने प्रमाणसे वे विशेष अधिक हैं ? समाधान - एक जीव मात्रसे वे विशेष अधिक हैं । जघन्य स्थानके जीवोंका विरलनकर उनको ही विरलन अंकके प्रति समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड मात्र से वे विशेष अधिक हैं, यह अभिप्राय है । उनसे तृतीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव विशेष अधिक हैं ।। २७८ ।। यहाँ पर भी पहिले के समान अवस्थित असंख्यात लोकमात्र अध्यान जाकर द्वितीय जीव बढ़ता है । अधस्तन सब स्थान जीवोंकी अपेक्षा जघन्य स्थानके जीवोंसे एक जीव अधिक स्थानके समान हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । १ - श्रापत्योः 'विसेसाहियाए', ताप्रती 'विसेसाहिया [ ए ]' इति पाठः । छ. १२-३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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