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________________ २०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,२३४. ग्गाणि पुव्वं परूविदाणि तेण' पुणरवि त्ति भणिदं । एसो' 'पुणरवि' त्ति सदो उवरिमछप्पंच-चदुसमइयअणुभागबंधट्ठाणेसु अणुवट्टावेदव्यो । अणुभागबंधट्टाणाणमणुभागबंधज्मवसाणववएसो कधं जुजदे ? ण एस दोसो, कजे कारणोवयारेण तेसिं तदविरोहादो । अणुभागवंधझवसाणहाणाणि णाम जीवस्स परिणामो अणुभागबंधट्ठाणणिमित्तो । तेणेदस्स सण्णा' अणुभागबंधज्झवसाणहाणं होदि त्ति जुञ्जदे । एदाणि सत्तसमयपाओग्गअणुभागबंधट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि होति । कुदो ? साभावियादो। एवं छसमइयाणि पंचसमइयाणि चदुसमइयाणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजा लोगा ॥ २३४ ॥ उवरिमसत्तसमइयअणुभागबंधहाणेहिंतो उवरिमाणि छसमइयाणि अणुभागवंधहाणाणि असंखेजलोगमेताणि । तेहिंतो उवरि पंचसमइयाणि अणुभागबंधहाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि । तेहिंतो उवरि चदुसमइयाणि अणुभागबंधहाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि । सेसं सुगम। प्ररूपणा पहले की जा चुकी है, अतएव सूत्रमें 'पुणरवि' अर्थात् 'फिरसे भी'पदका प्रयोग किया गया है । इस 'पुणरवि' शब्दकी अनुवृत्ति आगेके छह, पाँच और चार समय योग्य अनुभागबन्ध. स्थानोंमें लेनी चाहिये। शंका - अनुभागबन्धस्थानोंकी अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा कैसे योग्य है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्यमें कारणका उपचार करनेसे उनकी उपर्युक्त संज्ञा करनेमें कोई विरोध नहीं है। अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानका अर्थ अनुभागबन्धस्थानमें निमित्तभूत्त जीवका परिणाम है। इस कारण इस अनुभागबन्धस्थानकी संज्ञा अनुभागबन्धाभ्यवसानस्थान उचित है। ये सात समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है इसी प्रकार छह समय योग्य, पाँच समय योग्य और चार समय योग्य अनुभागबन्याध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २३४ ॥ उपरिम सात समय योग्य अनुभागबन्धस्थानोंसे ऊपरके छह समय योग्य अनुभागबन्ध. स्थान असंख्यात लोक मात्र हैं। उनसे आगे पाँच समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। उनसे आगे चार समय योग्य अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष कथन सुगम है। ............................ १ प्रतिषु 'केण' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'भणिदं ? एसो' इति पाठः। ३ भाप्रतौ 'कारणेवयारादो तेसि इति पाठः।४ प्रतिषु सण्णा अणुभागबंधहाणस्स होदि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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