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________________ ८८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६८. कधमणुभागबंधट्ठाणाणमणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणसण्णा ? ण एस दोसो, कजे कारणोवयारेण तेसिं तण्णामुववत्तीदो ( किमहमेसा चूलिया आगया ? अजहण्णअणुकरसट्ठाणाणि पुचिल्लेसु तिसु अणियोगद्दारेसु सूचिदाणि चेव ण परविदाणि, तेसिं परूवण?मिमा आगदा; अण्णहा अवुत्तसमाणत्तप्पसंगादो। तम्हि परूविजमाणे बारंस चेव अणियोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। तेसिमणियोगद्दाराणं णामणिद्देसो उत्तरसुत्तेण कीरदे अविभागपडिच्छेदपरूवणा हाणपरूवणा अंतरपरूवणा कंदयपरूवणा ओजजुम्मपरूवणा छटाणपरूवणा हेट्टाहाणपरूवणा समयपरूवणा वड्डिपरूवणा जवमज्झपरूवणा पजवसाणपरूवणा अप्पाबहुए ति ॥१९८) अविभागपडिच्छेदपरूवणा किमहमागदा ? एक्ककम्हि अणुभागबंधट्टाणे एत्तिया अविभागपडिच्छेदा होति त्ति जाणावण?मागदा । ठाणपरूवणा णाम किमहमागदा ? अणुभागबंधहाणाणि सव्वाणि वि एत्तियाणि चेव होति त्ति जाणावणट्ठमागदा। अंतरपरूवणा किमहमागदा ? एकेकस्स हाणस्स संखेजासंखेजाणताविभागपडिच्छेदेहि अंतरं शंका-अनुभाग बन्धस्थानोंकी अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्यमें कारणका उपचार करनेसे उनकी वह संज्ञा बन जाती है। शंका इस चूलिकाका अवतार किसलिये हुआ है ? समाधान--पहिले तीन अनुयोगद्वारोंमें अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानोंकी सूचना मात्र की है, प्ररूपणा नहीं की है। अतएव उनकी प्ररूपणा करनेके लिये इस चूलिकाका अवतार हुआ है, क्योंकि, अन्यथा अनुक्कसमानताका प्रसंग आता है। उनकी प्ररूपणा करनेपर भी बारह ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, और दूसरे अनुयोग द्वारोंकी सम्भावना नहीं है । उन अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश आगेके सूत्र द्वारा करते हैं __ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानग्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओज-युग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥ १९८॥ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा किसलिये की गई है ? एक एक अनुभागबन्धस्थानमें इतने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, यह बतलानेके लिये उक्त प्ररूपणा की गई है। स्थानप्ररूपणा किसलिये की गई है ? सभी अनुभागबन्धस्थान इतने ही होते हैं, यह बतलानेके लिये उक्त प्ररूपणा की गई है। अन्तरप्ररूपणा किसलिये की गई है ? एक एक स्थानका संख्यात, असंख्यात व अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंके द्वारा अन्तर नहीं होता, किन्तु सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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