SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, ७, १९७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [८७ को गुणगारो ? संखेजा समया। दंसणमोहउवसामयस्स गुणसेडिकालो संखेजगुणो ॥१६॥ को गुणगारो ? संखेजा समया । एत्थ संदिही' एवं पढमा चूलिया समत्ता । (विदिया चूलिया संपहि विदियचूलियापरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि एत्तो अणुभागबंधज्झवसाणहाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि बारस अणियोगदाराणि ॥१६७॥) 'अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि' त्ति उत्ते अणुभागट्ठाणाणं गहणं कायव्वं । गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है।। उससे दर्शनमोहोपशामकका गुणश्रेणिकाल संख्यातगणा है ॥ १९६ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय हैं।। विशेषार्थ-यहाँ मूलमें गणश्रेणि रचनाका ज्ञान करानेके लिए तथा रचनाके आकारमात्रको प्रदर्शित करनेके लिए संदृष्टि दी है। गणश्रणि रचना दो प्रकारकी होती है-उद रचना और उदयावलि बाह्य गुणश्रेणि रचना । इन दोनों विकल्पोंको ध्यानमें रख कर यह संदृष्टि दी गई है । यदि उदयादि गुणश्रेणि रचना होती है तो उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकोंकी असंख्यात गुणित क्रमसे प्रदेश रचना होती है और यदि उदयावलि बाह्य गुणश्रेणि रचना होती है तो उदयावलिको छोड़ कर आगेके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकोंकी असंख्यात गुणित क्रमसे प्रदेश रचना होती है। इससे आगे प्रथम समयमें असंख्यातगुणे प्रदेश निक्षिप्त होते हैं और तदनन्तर एक एक चय न्यून क्रमसे प्रदेश निक्षिप्त होते हैं। यही भाव इस संदृष्टिमें निहित है। इस प्रकार प्रथम चूलिका समाप्त हुई। अब द्वितीय चूलिकाकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं इसके आगे अनुभागवन्धाध्यवसान स्थानकी प्ररूपणाका अधिकार है। उसमें ये बारह अनुयोगद्वार हैं ॥ १७॥ अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान कहनेपर अनुभागस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये। १ ताप्रतावत्र ‘एत्थ संदिही-' इत्येतन्निर्देशपुरस्सरं सा संदृष्टिरुपादत्ता या खल्वप्रतौ १६६ तमसूत्रस्यान्ते 'बाहुबलियं ण नवरय० एत्थ संदिही' एवंविधोल्लेखपूर्वकमुपादत्ता । अाप्रती त्वेषा संदृष्टिः 'अधापवत्तकेवलि..... कालो संखेजगुणो' इत्यादिसूत्राणां मध्य उपादत्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy