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________________ १०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६८. कंदयमेत्तअसंखेजगणवड्डीयो गंतूण अणंतगणवड्डी होदि त्ति जाणावणट्ठमागदा । समयपरूवणा किमहमागदा ? एदाणि अणुभागबंधट्ठाणाणि जहण्णेण एत्तियं कालं बझंति उक्कस्सेण एत्तियमिदि जाणावणट्ठमागदा। वड्डिपरूपणा किमट्ठमागदा ? अणुभागबंधट्ठाणेसु अणंतभागवड्डि-हाणीयो आदि कादण वड्डि-हाणीयो छच्चेव होंति । एदासिं बंधकालो जहण्णुक्कस्सेण एत्तियो होदि त्ति जाणावणट्ठमागदा । जवमज्झपरूवणा किमहमागदा ? अणंतगणवड्डिम्हि कालजवमज्झस्स आदी होदूण अणंतगणहाणीए समत्ता त्ति जाणावणहमागदा। पज्जवसाणपरूवणा किमट्ठमागदा ? सव्वसमयट्ठाणाणं पज्जवसाणं 'अणंतगणस्स उवरि अणंतगणं भविस्सदि त्ति पञ्जवसाणं जादमिदि जाणावणहमागदा। अप्पाबहुए त्ति किमट्ठमागदं । एक्कम्हि छट्ठाणम्हि अणंतगुणवड्डिआदिट्ठाणाणं थोवबहुत्तपरूवणहमागदं । एदं देसामासियं सुत्तं, तेण 'बंधसमुप्पत्तिय'-हदसमु अनन्तगुणवृद्धि होती है, यह दिखलाने के लिये उक्त प्ररूपणा आई है। समय प्ररूपणा किसलिये आई है ? ये अनुभागबन्धस्थान जघन्य रूपसे इतने काल तक बंधते हैं और उत्कृष्ट रूपसे इतने काल तक बँधते हैं, यह जतलानेके लिये समय प्ररूपणा आई है। वृद्धिप्ररूपणा किसलिये आई है ? अनुभागबन्धस्थानों में अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिसे लेकर वृद्धियाँ व हानियाँ छह ही होती है, इनका बन्धकाल जधन्य व उत्कृष्ट रूपसे इतना है, यह जतलानेके लिये वृद्धिप्ररूपणा आई है। यवमध्यप्ररूपणा किसलिये आई है ? अनन्तगुणवृद्धिमें कालयवमध्यका प्रारम्भ होकर वह अनन्तगुणहानिमें समाप्त होता है, यह बतलानेके लिये यवमध्यप्ररूपणा आई है। पर्ययसानप्ररूपणा किसलिये आई है ? सब समयस्थानों का पर्यवसान अनन्तगुणितके ऊपर अनन्तगुणा होगा तब पर्यवसान होता है, यह बतलानेके लिये पर्यवसानप्ररूपणा आई है। अल्पबहुत्व किसलिये आया है ? एक षट्स्थानमें अनन्तगुणवृद्धि आदि स्थानोंके अल्पबहत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये आया है। यह देशामर्शक सूत्र है, अतएव बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमु १ प्रतिषु 'पजवसाणअणंत-' इति पाठः। २ तत्थ हदसमुप्पत्तिय कादूणच्छिदसुहमणिगोदजहण्णाणुभागसंतवाणसमाणबंधहाणमादिं कादूण जाव सण्णिपंचिंदियपजत्तसम्वुक्कस्सागुभागबंधहाणे त्ति ताव एदाणि असंखेजलोगमेत्तछटाणाणि बंधसमुप्पत्तियहाणाणि त्ति भणंति, बंधेण समुप्पण्णत्तादो। जयध. अ. प. ३१३. ३ पुणो एदेसिमसंखेजलोगमेत्तछटाणाणं ममे अणंतगुणवडिअणंतगुणहाणिअहंकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखेजलोगमेत्तछटाणाणि हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणि भणंति, बंधहाणघादेण बंधहाणाणं विच्चालेसु जच्चंतरभावेण उप्पण्णत्तादो। जयध. अ. प. ३१३-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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