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४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया
[९१ प्पत्तिय'-हदहदसमुप्पत्तिय'हाणेसु तिसु वि एदाणि बारसाणियोगद्दाराणि परुवेदव्वाणि । तत्थ ताव बंधहाणेसु एदाणि अणियोगद्दाराणि भणिस्सामो। कुदो ? बंधादो संतुप्पत्तिदसणादो। ____ अविभागपडिच्छेदपरूवणदाए एककम्हि हाणम्हि केवडिया अविभागपडिच्छेदा ? अणंता अविभागपडिच्छेदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा, एवदिया अविभागपडिच्छेदा ॥१६६॥
संपहि जहण्णाणुभागबंधहाणमस्सिदृणविभागपडिच्छेदपमाणपरूवणा कीरदे-को अणुभागो णाम ? अण्णं वि कम्माणं जीवपदेसाणं च अण्णोण्णाणुगमणहेदुपरिणामो। पयडी अणुभागो किण्ण होदि ? ण, जोगादो उप्पञ्जमाणपयडीए कसायदो उप्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकारणाणं कजाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। किं च अणुभागवुड्डी पयडिवुड्डिणिमित्ता, तीए महंतीए संतीए पयडिकजस्स अण्णाणादियस्स वुड्डिदंसणादो।
त्पत्तिक इन तीनों ही स्थानों में इन बारह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। उनमें पहिले बन्धस्थानों में इन अनुयोगद्वारोंको कहेंगे, क्योंकि, बन्धसे सत्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है।
अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाका प्रकरण है-एक एक स्थानमें कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ? अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं जो सब जीवोंसे अनन्तगणे होते हैं, इतने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥ १९९ ॥
अब जघन्य अनुभागबन्धस्थानका आश्रय लेकर अविभागप्रतिच्छेदोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं।
शंका-अनुभाग किसे कहते हैं ?
समाधान-आठों कर्मों और जीवप्रदेशोंके परस्परमें अन्वय ( एकरूपता) के कारणभूत परिणामको अनुभाग कहते हैं
शंका-प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं होती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकृति योगके निमित्तसे उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषायसे उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्यों में एकरूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभागकी वृद्धि प्रकृतिकी वृद्धि में निमित्त होती है,
१ हते घातिते समुत्पत्तिर्यस्य तदुत्तरसमुत्पत्तिकं कर्म अणुभागसंतकम्मे वा जमुव्वरिदं जहण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा । जयध. अ. प. ३२२.
२ पुणो एदेसिमसंखेजलोगमेत्ताणं हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणमणंतगुणवड़ि-हाणिअहंकुव्यंकाणं विच्चालेसु असंखेजलोगमेत्तछहाणा हदहदसमुप्पत्तियसंतहाणाणि वुच्चंति, घादेणुभागगहाणेहितो विसरिसाणि घादिय बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तिपअणुभागहाणेहिंतो विसरिसभावेण उप्पायिदत्तादो। जयध, श्र. प. ३१४
३ मप्रतिपाठोऽमम् । अ-श्रा प्रत्योः 'कम्माणं जे पदेसाणं', ताप्रती 'कम्माणं [जे] पेदसाणं' इति पाठः।
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