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________________ ९२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १६६. तम्हा ण पयडिअणुभागो त्ति घेत्तव्यो। अण्णोण्णं पासहेदुगुणस्स अणुभागत्ते संते उदयावलियाए हिदपदेसग्गाणमुक्कस्साणुभागाभावो पसजदि त्ति णासंकणिजं, ठिदिक्खएण अण्णोण्णपासक्खएण णियमाणुववत्तीदो। तत्थ एक्कम्हि परमाणुम्हि जो जहण्णेणवद्विदो' अणुभागो तस्स अविभागपडिच्छेदो ति सपणा । ठाणम्हि जहण्णेणवहिद'अणुभागस्स अविभागपडिच्छेदसण्णा णत्थि, तत्थ णिव्वियप्पत्ताभावादो। पुणो एदेण अविभागपलिच्छेदपमाणेण जहण्णाणुभागहाणे कदे सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्ता अविभागपडिच्छेदा होति । एत्थ ताव दवट्ठियणयमस्सिदूण जं जहण्णट्ठाणं तस्साविभागपडिच्छेदाणमवट्ठाणकमो उच्चदे । तं जहा-णइगमणयमस्सिदूण जं जहण्णाणुभागट्टाणं तस्त सव्वपरमाणुपुंज एकदो कादण द्वविय तत्थ सव्वमंदाणुभागपरमाणुं घेत्तण वण्ण-गंध-रसे' मोत्तूण पासं चेव बुद्धीए घेत्तूण तस्स पण्णाच्छेदो' कायव्यो जाव विभागवजिदपरिच्छेदो' त्ति । तस्स अंतिमस्स खंडस्स अछेजस्स अविभागपडिच्छेद इदि सण्णा । पुणो तेण पमाणेण क्योंकि, उसके महान् होनेपर प्रकृतिके कार्य रूप अज्ञानादिकी वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । __ शंका-परस्पर स्पर्शके हेतुभूत गुणको यदि अनुभाग स्वीकार किया जाता है तो उदयावलिमें स्थित प्रदेशामोंके उत्कृष्ट अनुभागके अभावका प्रसंग आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, स्थितिके क्षयसे परस्पर स्पर्शका अभाव होता है, ऐसा नियम नहीं बनता। एक परमाणुमें जो जघन्यरूपसे अवस्थित अनुभाग है उसकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा है। स्थानमें जघन्यरूपसे अवस्थित अनुभागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा नहीं है, क्योंकि वहाँ निर्विकल्परूपता नहीं उपलब्ध होती। अब इस अविभागप्रतिच्छेदके प्रमाणसे जघन्य अनुभागस्थानका विभाग करनेपर वहाँ सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। यहाँ सर्व प्रथम द्रव्यार्थिक नयका आश्रय करके जो जघन्य स्थान है उसके अविभागप्रतिच्छेदोंके अवस्थानक्रमको कहते हैं। यथा-नैगमनयका आश्रय करके जो जघन्य अनुभागस्थान है उसके सब परमाणुओंके समूहको एकत्रित करके स्थापित करे। फिर उनमेंसे सर्वमन्द अनुभागसे संयुक्त परमाणुको ग्रहण करके वर्ण, गन्ध और रसको छोड़कर केवल स्पर्शका ही बुद्धिसे ग्रहण कर उसका विभाग रहित छेद होने तक प्रज्ञाके द्वारा छेद करना चाहिये । उसे नहीं छेदने योग्य अन्तिम खण्डकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा है। पश्चात् उक्त प्रमाणसे सब स्पर्श १ अ-श्राप्रत्योः 'वड्ढीदो', ताप्रतौ 'वढिदो' इति पाठः । २ अप्रतौ 'ठाणम्हि जेण वडिढ', अा-ताप्रत्योः 'ठाणम्हि जपणेण वढिद' इति पाठः। ३ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'वग्गो' इति पाठः। ४ ताप्रतौ 'पण्ण' इति पाठः। ५ श्राप्रतौ 'जाव विभागपडिछेदो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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