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________________ ४, २, ७, १६. ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ ९३ सव्वपासखंडेसु खंडिदेसु सव्वजीवेहि अनंतगुणअविभागपडिच्छेदा लब्भंति । तेसिं सव्वेसि पि वग्ग इदि सण्णा । सो च संदिट्ठीए अणंतो वि संतो अट्ठ इदि घेत्तव्वो [८]। पुण तहि चैव परमाणुपुंजहि तस्सरिसविदियपरमाणुं घेत्तूण तप्पासस्स पुव्वं व पण्णच्छेदre कदे एत्थ वि तत्तिया चेव अविभागपडिच्छेदा लब्धंति । अछेजस्स परमाणुस्स कथं छेदो कीरदे ! ण एस दोसो, तस्स दव्वमेव अछेजं, ण गुणा इदि अब्भुवगमादो । परमाणुगुणाणं वड्डि-हाणीए संतीए परमाणुत्तं कथं ण विरुज्झदे १ ण, दव्त्रदो वड्डिहाणि भावं पडुच्च परमाणुत्तब्भुवगमादो । एसो विदियो वग्गो अणंतो वि संतो संदिट्ठीए असंखो पुव्विल्लवग्गपासे हवेयव्वो [ ८८ ]। एदेण कमेण गुणेण पुव्विल्लपरमाणुसरिस एगपरमाणुं घेत्तूण तेसिं गहिदपरमाणूणं पासस्स अविभागपडिच्छेदे कदे एगेगो वग्गो उप्पञ्जदि । एवं ताव कादव्वं जाव जहण्णगुणपरमाणू सव्वे णिहिदा ति । एवं कदे अभवसिद्धिएहि अनंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता वग्गा लद्धा भवंति । तेसिं पमाणं संदिट्ठीए एवं [ ८८८८ ] एदेसिं सव्वेसिं पि दव्वडियणए अवलंबिदे वग्गणा इदि सण्णा । खंडों के खण्डित करनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं । उन सभीकी वर्ग यह संज्ञा है । उसका प्रमाण अनन्त होकर भी संदृष्टिमें आठ ( ८ ) ऐसा ग्रहण करना चाहिए। पुनः उसी परमाणुपुंज में से उसके सदृश दूसरे परमाणुको ग्रहण कर उसके स्पर्शके पहिलेके समान प्रज्ञा के द्वारा च्छेद करनेपर यहाँ भी उतने ही अविभागप्रतिच्छेद उपलब्ध होते हैं । शंका- नहीं छिदने योग्य परमाणुका छेद कैसे किया जा सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसका केवल द्रव्य ही अच्छेद्य है, गुण नहीं, ऐसा यहाँ स्वीकार किया गया है। शंका- परमाणु के गुणोंमें वृद्धि एवं हानि होनेपर उसका परमाणुपना कैसे विरोधको नहीं प्राप्त होगा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यकी अपेक्षा वृद्धि व हानिके अभावका आश्रय लेकर परमापना स्वीकार किया गया है । यह द्वितीय वर्ग अनन्त होता हुआ भी संदृष्टिमें आठ संख्या रूप है। इसे पूर्व वर्गके पासमें स्थापित करना चाहिये । ८८ । इस क्रम से गुणकी अपेक्षा पूर्व परमाणुके सदृश एक एक परमाणुको लेकर उन ग्रहण किये गये परमाणुओंमें स्थित स्पर्शके अविभागप्रतिच्छेद करनेपर एक एक वर्ग उत्पन्न होता है । इस क्रियाको जघम्य गुणवाले सब परमाणुओंके समाप्त होने तक करना चाहिये । ऐसा करनेपर अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं । उनका प्रमाण संदृष्टिमें इस प्रकार है ८८८८ । इन सबोंकी द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर 'वर्गणा' संज्ञा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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