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________________ ४१२ ] छ खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १३, ६१. धगद्धारहाणीदो संखेज्जगुणहाणी परूवेदव्वा । दो वि बंधगद्धाओ उक्कस्साओ' करिये असंखेज्जगुणहीणजोगेण बंधाविय भावे उक्कस्से कदे असंखेज्जगुणहाणी होदि । तम्हा उकस्सदव्वं पेक्खिदूण भावसामिदव्वं तिट्ठाणपदिदं ति घेतव्यं । तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६१ ॥ सुमं । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणहीणा ॥ ६२ ॥ कुदो ? भावसामि उक्कस्सखेत्तस्स वि घणलोगस्स असंखेज्जदिभागत्तुवलंभादो | ण च आउअस्सं उक्कस्सभावो लोगपूरणे संभवदि, बद्धाउआणं खवगसेडिमारुहणाभावादो । तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६३ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा चउट्टाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥ ६४ ॥ ठिदिबंधे उक्कस्से जादे पुणो पच्छा अंतोमुहुत्तट्ठिदीए गलिदाए चेव उक्कस्सभावबंध होदिति भावसामिकालवेयणा असंखेज्जभागहीणा । एवमसंखेज्जभागहीणा हानिकी प्ररूपणा करनी चाहिये । दोनों बन्धकवालोंको उत्कृष्ट करके असंख्यानगुणहीन योगसे बंधाकर भावके उत्कृष्ट करनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। इस कारण उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा करके भावस्वामीका द्रव्य तीन स्थानों में पतित है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उसके क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ९१ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ९२ ॥ कारणकी भावस्वामीका उत्कृष्ट क्षेत्र भी घनलोक असंख्यातवें भाग प्रमाण पाया जाता है । यदि कहा जाय कि आयुका उत्कृष्ट भाव लोकपूरण समुद्घातमें सम्भव है, तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि, वद्धायुष्क जीवोंके क्षपक श्रेणिपर आरोहण करना सम्भव नहीं है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट यह सूत्र सुगम है । ॥ ६३॥ वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यात भागहीन संख्यात भागहीन, संख्यातगुणto व असंख्यातगुणहीन | इन चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ ६४ ॥ स्थितिबन्धके उत्कृष्ट होनेपर फिर पश्चात् अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिके गल जानेपर ही चूिँ उत्कृष्ट भावबन्ध होता है, अतएव भावस्वामीकी कालवेदना असंख्यात भागहीन होती है । इस १ ताप्रतौ 'उक्करसाउ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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