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________________ ४, २, १३, १०.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४११ अणंतगुणविसोहिपरिणामेण बद्धाउअउ कस्साणुभागादो अणंतगुणहीणविसोहिपरिणामेण बद्धअणुभागो 'उक्कस्सकालाविणाभावी अणंतगुणहीणो त्ति' । जस्स आउअवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥८६॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा तिहाणपदिदा संखेजभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥६॥ तं जहा- उक्कस्सबंधगद्धाए उक्कस्सजोगेण य जदि मणुस्साउअंबंधिऊण मणुस्सेसु उप्पज्जिय संजमं घेत्तण उक्कस्साणुभागं बंधदि तो भावुक्कस्सम्मि दव्ववेयणा सगुक्कस्सदव्वं पेक्खिदूण संखज्जभागहीणा होदि। कुदो ? भुंजमाणाउअस्स सादिरेयबेतिभागमेतदव्वे गलिदे संते भावस्स उक्कस्सत्तुप्पत्तीदो। मणुस्साउए उक्कस्सबंधगद्धाए दुभागेण बंधाविदे छब्भागाहि चदुब्भागमेत्ता होदि । एवं गंतूण भावसामिस्स दो वि आउआणि उक्कस्सबंधगद्धाए दुभागेण बंधाविय भावे उक्कस्से कदे संखेज्जगुणहाणी होदि, ओघुक्कस्सदव्वं पेक्खिदूण भावसामिदव्वस्स तिभागत्तुवलंभादो । एवं अनन्तगुणे विशुद्धि परिणामके द्वारा बाँधी गई आयुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन विशुद्धिपरिणामके द्वारा बांधा गया अनुभाग उत्कृष्ट कालका अविनामावी व अनन्तगुणा हीन है। जिस जीवके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। - वह नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन व असंख्यातगणहीन इन तीन स्थानोंमें पतित होती है ॥ १० ॥ ___ वह इस प्रकारसे-उत्कृष्ट बन्धककाल और उत्कृष्ट योगके द्वारा यदि मनुष्यायुको बाँधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो संयमको ग्रहण करके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधता है तो भावकी उत्कृष्टतामें द्रव्यवेदना अपने उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातभाग हीन होती है, क्योंकि, भुज्यमान आयु सम्बन्धी साधिक दो त्रिभाग प्रमाण द्रव्यके गल जानेपर भावकी उत्कृष्टता उत्पन्न होती है। उत्कृष्ट बन्धककालके द्वितीय भागसे मनुष्यायुको बँधानेपर उक्त वेदना छह भागोंमें चार भाग प्रमाण होती है। इस प्रकार जाकर भावस्वामीके दोनों ही आयुओंको उत्कृष्ट बन्धक कालके द्वितीय भागसे बंधाकर भावके उत्कृष्ट करनेपर संख्यातगुणहानि होती है, क्योंकि, ओघ उत्कृष्ट द्रव्य की अपेक्षा भाव स्वामीका द्रव्य तृतीय भाग प्रमाण पाया जाता है। इस प्रकार बन्धक कालकी हानिसे संख्यात १ आप्रतौ 'विसोहिपरिणामेणाणुभागो बद्धउक्कस्स-' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'हीणा त्ति' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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