SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं [४४६ असंखेज्जगुणहाणी होदण गच्छदि जाव आउअउक्कस्सदव्याविरोहिखविदकम्मंसियजहण्णदव्वं ति । एवमाउए उक्कस्से जादे सेसकम्माणं चउट्ठाणपदिदत्तं सिद्धं । संपहि पज्जवट्ठियणयाणुग्गहÉ उत्तरसुत्तं भणदि असंखेजभागहीणा वा. संखेजभागहीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥ २२८॥ सुगमं। जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स दंसणावरणीयमोहणीय-अंतराइयवेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २२६ ।। सुगम । उकस्सा ॥२३०॥ णाणावरणेणेव सेसघादिकम्मे हि वि अद्भुट्टमरज्जुआयदं संखेज्जसूचीअंगुलवित्थारबाहल्लं सव्वं पि खेत्तं फोसिदं, सव्वकम्माणं वि जीवदुवारेण भेदाभावादो। तेण एकेकस्स घादिकम्मस्स उक्कस्सखेत्ते जादे सेसकम्माणं पि खेत्तमुक्कस्समेवे त्ति सिद्धं । तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा अणकस्सा ॥२३१॥ गुणहानि होती है। यहाँसे लेकर आयुकर्मके उत्कृष्ट द्रव्यके अविरोधी क्षपितकर्माशिकके जघन्य द्रव्य तक असंख्यातगुणहानि होकर जाती है । इस प्रकार आयुके उत्कृष्ट होनेपर शेष कर्म द्रव्य चार स्थानोंमें पतित है, यह सिद्ध होती है । अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थ आगेका सूत्र कहते हैं - वह असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीन होती है ।। २२८ ॥ यह सूत्र सुगम है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके . दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ॥ २२६ ॥ यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट होती है ॥ २३० ॥ ज्ञानावरणके समान ही शेष घाति कर्मों के द्वारा भी साढ़े तीन राजु आयत व संख्यात सच्यगल विस्तार एवं बाहल्यवाला सभी क्षेत्र स्पर्श किया गया है. क्योंकि. सभी कोंके जीव द्वारा कोई भेद नहीं है। इसीलिये एक एक घाति कर्मका उत्कृष्ट क्षेत्र होनेपर शेष कर्मोंका भी क्षेत्र उत्कृष्ट ही होता है, यह सिद्ध है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २३१।। १२-१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy