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________________ ४४८] छक्खंडागमे वेयणाखंडे [४, २, १३, २२६ जस्स आउअवेयणा दव्वदो उकस्सा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा दबदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २२६ ॥ सुगमं । णियमा अणुकस्सा चउठाणपदिदा ॥ २२७॥ तं जहा-गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीदो आगंतूण एग-दो-तिण्णिभवगहणाणि पंचिंदियतिरिक्खेसु भमिय पच्छा एइंदिएसु उववण्णो। एग-दो-तिण्णिभवग्गहणाणि त्ति किमढे तिण्णं पि णिदेसो कीरदे ? आइरियोवदेसबहुत्तजाणावणटुं । पुणो पुवकोडाउअतिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा आउअंबंधिय पुवकोडितिभागम्मि ठाइदूण पुणरवि जलचरेसु पुचकोडाउअंबंधिय तत्थुप्पज्जिय कदलीघादेण मुंजमाणाउअं धादिय उक्कस्सबंधगद्धाए उक्कस्सजोगेण च पुवकोडाउए पबद्ध आउअदव्यमुक्कस्सं होदि। सेससत्तकम्मदव्वं पुण उक्कस्सदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडेदण तत्थ एगखंडेण हीणं होदि । तदो प्पहुडि असंखेज्जभागहाणी होण गच्छदि जाव उक्कस्ससंखेज्जमुक्कस्सदव्वस्स हाणिआगमणटुं भागहारो जादो त्ति । तत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जभागहाणी होदि जाव उक्करसदव्वस्स हाणिआगमण8 दोरूवाणि भागहारो जादाणि त्ति । तदो प्पहुडि संखेज्जगुणहाणी होदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्सदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडमवसेसं ति । एत्तो पहुडि जिस जीवके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यको अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २२६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार स्थानों में पतित है ॥ २२७ ॥ यथा-गुणितकांशिक जीव सातवीं पृथिवीसे आकर एक दो तीन भवग्रहण प्रमाण पंचेद्रिय जीवोंमें परिभ्रमण करके पीछे एकेन्द्रिय जीवोंमें उ पन्न हुआ। शंका -- 'एक दो तीन भवग्रहण प्रमाण' इस प्रकार तीनका भी निर्देश किसलिये किया जा रहा है ? समाधान उक्त निर्देश आचार्योपदेशके बहुत्वका ज्ञापन करानेके लिये किया गया है। पश्चात् पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले तिर्यंचों या मनुष्यों में आयुको बाँधकर पूर्वको टिके त्रिभागमें स्थित होकर फिरसे भी जलचर जीवों में पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बाँधकर उनमें उत्पन्न हो कदलोघातसे भुज्यमान आयुको घातकर उत्कृष्ट बन्धककालमें उत्कृष्ट योगके द्वारा पूर्वकोटि मात्र आयुके बाँधनेपर आयुका द्रव्य उत्कृष्ट होता है । परन्तु शेष सात कर्मोका द्रव्य उत्कृष्ट द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें एक खण्डसेहीन होता है। उससे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यकी हानिको लानेके लिए उत्कृष्ट संख्यातके भागहार होने तक असंख्यातभागहानि होकर जाती है। वहाँ से लेकर आगे उत्कृष्ट द्रव्यकी हानिको लानेके लिये दो अंक भागहार होनेतक संख्यातभागहानि होती है । यहाँ से लेकर जघन्य परीतासंख्यातसे उत्कृष्ट द्रव्यको खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डके शेष रहने तक संख्यात. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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