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________________ ४, २,१०, २.] वेयणमहाहियारे वेयणत्रेयणविहाणं [३०३ __यदस्ति न तवयमतिलंध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:'। तस्स णइगमणयस्स अहिप्पारण बद्ध'-उदिण्णुवसंतभेदेण द्विदसव्वं पि कम्मं पयडी होदि, प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्तेः। फलदातृत्वेन परिणतः कर्मपुद्गलस्कन्धः उदीर्णः । मिथ्यत्वाविरति-प्रमाद-कषाय-योगः कर्मरूपतामापाद्यमानः कार्मणपुद्गलस्कन्धो बध्यमानः । द्वाभ्यामाभ्यां व्यतिरिक्तः कर्मपुद्गलस्कन्धः उपशान्तः । तत्र उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेशः, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशान्तयोः, तत्र तदभावादिति ? न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धेः। तेण जो कम्मक्खंधो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देइ जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाणं पयडि सिद्धं । अधवा, जहा उदिण्णं वट्टमाणकाले फलं देदि, एवं बज्झमाणुवसंताणि वि वट्टमाणकाले वि देंति फलं, तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो। उकस्सहिदिसते उक्कस्साणुभागे च संते बज्झमाणे च सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो । भूद-भविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे। तेण णेगमणयस्स तिविहं पि कम्मं पयडि त्ति कट्ट इमा परूवणा कीरदे। ____जो सत् है वह भेद व अभेद दोनों का उल्लंघन करके नहीं रहता, इस प्रकार जो एकको विषय नहीं करता है, अर्थात् गौण व मुख्यताकी अपेक्षा दोनोंको ही विषय करता है इसे नैगमनय कहते हैं । उस नैगम नयके अभिप्रायसे बद्ध, उदीर्ण और उपशान्तके भेदसे स्थित सभी कर्म प्रकृतिरूप हैं, क्योंकि, 'प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृतिः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्माको अज्ञानादिरूप फल किया जाता है वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्दकी व्युत्पत्ति है। शंका-- फलदान स्वरूपसे परिणत हुआ कर्म-पुद्गल स्कन्ध उदीणं कहा जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके द्वारा कर्म स्वरूपको प्राप्त होनेवाला कामण पुद्गलस्कन्ध बध्यमान कहा जाता है। इन दोनोंसे भिन्न कर्म-पुद्गलस्कन्धको उपशान्त कहते हैं। उनमें उदीर्ण कर्म-पुद्गलस्कन्धको प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूपसे परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म-पुद्गल स्कन्धोंकी यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूपका अभाव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालोंमें प्रकृति शब्दकी सिद्धि की गई है। इस कारण जो कर्म स्कन्ध वर्तमान कालमें फल देता है और जो भविष्यमें फल देगा, इन दोनों ही कर्मस्कन्धोंकी प्रकृति संज्ञा सिद्ध है । अथवा, जिस प्रकार उदयप्राप्त कर्म वर्तमान कालमें फल देता है उसी प्रकार बध्यमान और उपशम भावको प्राप्त कर्म भी वर्तमान कालमें भी फल देते हैं, क्योंकि, उनके बिना कर्मोदय का अभाव है । उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्वके होनेपर तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागके बंधनेपर सम्यक्त्व, संयम एवं संयमासंयमका ग्रहण सम्भव नहीं है। अथवा, भूत व भविष्य पर्यायोंको वर्तमान रूप स्वीकार कर लेनेसे नैगमनयमें यह व्युत्पत्ति बैठ जाती है । इसलिए नैगम नयकी अपेक्षा उक्त तीन प्रकारके कर्मको प्रकृति मानकर ..... १क० पा० १, पृ० २२१ । २ प्रतिषु 'बंध-' इति.पाठः। ........... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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