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________________ ३०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०,३ णेगमणओ वज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं तिण्णं पि कम्माणं वेयणववएसमिच्छदि त्ति भणिदं होदि। णाणावरणीयवेयणा सिया बज्झमाणिया वेयणा ॥३॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा-एत्थ सियासदो अणेगेसु अत्थेसु जदि वि वट्टदे तो वि एत्थ अणेयंते घेत्तव्यो। प्रशंसास्तित्वानेकान्त-विधि-विचारणाद्यर्थेषु वर्तमानोऽपि स्याच्छब्दः अमुष्मिन्नेवार्थ गृह्यत इति कथमवगम्यते ? प्रकरणात् । जा णाणारणीयस्स वेयणा सा परूविज्जदे। किमहं णाणावरणीयवेयणा ति णिदिस्सदे। परूविज्जमाणपयडिसंभालणटुं। सिया बज्झमाणिया वेयणा होदि, तत्तो अण्णाणादिफलुप्पत्तिदंसणादो। बज्झमाणस्स कम्मस्स फलमकुणंतस्स कधं वेयणाववएसो ? ण, उत्तरकाले फलदाइत्तण्णहाणुववत्तीदो बंधसमए वि वेदणभावसिद्धीए । एत्थ कुदो एगवयणणिद्देसो ? जीव-पयडि-समयाणं बहुत्तेण विणा एगत्तप्पणादो। एत्थ जीव-पयडीणमेगवयण-बहुवयणाणि ठविय कालस्स एगवयणं च ११३ एदस्स सुत्तस्स आलावो वुच्चदे । यह प्ररूपणा की जा रही है। अभिप्राय यह है कि नैगम नय बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनों ही कर्मोकी वेदना संज्ञा स्वीकार करता है। ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है ॥३॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- यद्यपि 'स्यात्' शब्द अनेक अर्थोंमें वर्तमान है तो भी यहाँ उसे अनेकान्त अर्थमें ग्रहण करना चाहिये। शंका-प्रशंसा, अस्तित्व, अनेकान्त, विधि और विचारणा आदि अर्थों में वर्तमान भी 'स्यात्' शब्द अमुक अर्थमें ही ग्रहण किया जाता है, यह कैसे ज्ञात होता है। समाध न-वह प्रकरणसे ज्ञात हो जाता है। जो ज्ञानावरणीयकी वेदना है उसकी प्ररूपणा की जाती है। शंका-सूत्रमें 'ज्ञानावरणीयवेदना' यह निर्देश किस लिये किया गया है ? समाधान - उसका निर्देश प्ररूपित की जानेवाली प्रकृतिका स्मरण करनेके लिये किया गया है। कथञ्चित् बध्यमान वेदना होती है, क्योंकि, उससे अज्ञानादि रूप फलकी उत्पत्ति देखी जाती है। "'" शंका-चूंकि बाँधा जानेवाला कर्म उस समय फलको करता नहीं है, अतः उसकी वेदना संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान--नहीं, क्योंकि, इसके बिना वह उत्तरकालमें फलदाता बन नहीं सकता, अतएव बन्ध समयमें भी उसे वेदनात्व सिद्ध है। शंका-यहां एकवचनका निर्देश क्यों किया गया है ? समाधान-जीव, प्रकृति और समय, इनके बहुत्वको अपेक्षा न कर एकत्वकी मुख्यतासे एकवचनका निर्देश किया गया है। यहाँ जीव व प्रकृतिके एकवचन व बहुवचनको तथा कालके एकवचनको स्थापितकर इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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