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________________ १४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,२०४ ग्गणाणमस्थि किण्ण बुच्चदे, विसेसाभावादो। __'एसा अणंतभागवड्डी उक्कड्डणादो ण होदि, बंधादो चेव होदि । तं जहा-जहण्णकसायोदयहाणपक्खेवुत्तरअणुभागबंधज्झवसाणहाणेण जेण वा तेण वा जोगेण वड्डिदूण बंधे अणंतभागवड्डिहाणं उप्पजदि। संपहि एदस्स णवगबंधस्स फद्दयरचणं कस्सामो। तं जहा--जहण्णहाणादो अणुमागेण अहियपरमाणू समयपबद्धम्मि अवणिय पुध 8वेदूण पुणो जहण्णहाणसेसपरमाण सन्वे घेत्तण रचणाए कीरमाणाए जहण्णहाणजहण्णवग्गणप्पहुडि जाव तस्सेव उकस्सवग्गणा इत्ति ताव एदेसु सरिसधणिया होदूण सव्वे पदंति । पुणो अवणिदपरमाणू अणंता अस्थि, तेसु पक्खेवजहण्णफद्दयमेत्तपरमाणू घेत्तण जहासरूवेण जहण्णहाणचरिमफद्दयस्स उवरिमे देसे हविदे पक्खेवपढमफद्दयं समुप्पजदि । पुणो तस्सेव विदियफद्दयमेत्तपरमाणू घेत्तूण पक्खेवपढमफद्दयस्सुवरि अंतरमुल्लंघिय ढविदे विदियफद्दयमुप्पजदि । एवं पुणो पुणो घेत्तण फद्दयरचणा कायव्वा जाव पुध हवियपरमाणू समत्ता त्ति । एत्थ एगपरमागुडिदउकस्साणुभागो ढाणं णाम । एत्थ जहण्णहाणे अवणिदे सेसं वड्डी होदि । एदिस्से पमाणं सन्यजीवरासिणा जहण्णहाणे भागे हिदे लद्धमत्तं होदि । कोई विशेषता नहीं है। यह अनन्तभागवृद्धि उत्कर्षणसे नहीं होती है, केवल बन्धसे ही होती है। यथाजघन्य कषायोदयस्थान प्रक्षेपसे अधिक अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानसे व जिस किसी भी योगसे वृद्धिंगत हो बन्धमें अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। __ अब इस नवकबन्धकी स्पर्द्धकरचनाको करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्थानसे अनुभागमें अधिक परमाणुओंको समयप्रबद्धमेंसे कम करके पृथक् स्थापित कर फिर जघन्य स्थानके शेष सब परमाणुओंको ग्रहण कर रचनाके करनेपर जघन्य स्थानकी जघन्य वर्गणासे लेकर उसीकी उत्कृष्ट वर्गणा तक इनमें समान धन युक्त होकर सब गिरते हैं। फिर कम किये गये जो अनन्त परमाणु हैं उनमेंसे प्रक्षेपरूप जघन्य स्पर्द्धक प्रमाण परमाणुओंको ग्रहण कर उन्हें यथाविधि जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पद्ध कके उपरिम देशके ऊपर स्थापित करनेपर प्रक्षेप रूप प्रथम स्पर्द्धक उत्पन्न होता है। फिर उसीके द्वितीय स्पद्धक प्रमाण परमाणुओंको ग्रहण कर प्रक्षेप रूप प्रथम स्पर्द्ध कके ऊपर अन्तरको लाँधकर स्थापित करनेपर द्वितीय स्पर्द्धक उत्पन्न होता है । इस प्रकार बार बार ग्रहण करके पृथक् स्थापित परमाणुओंके समाप्त होने तक स्पद्धक रचना करनी चाहिये। यहाँ एक परमाणुमें स्थित उत्कृष्ट अनुभागका नाम स्थान है। इसमेंसे जघन्य स्थानको कम कर देनेपर शेष वृद्धि होती है। इसका प्रमाण सब जीवराशिका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना मात्र है। १ ताप्रतौ 'जा एसा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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