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________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१४६ संपहि पढममणंतभागवड्डिहाणं सव्वजीवरासिणा खंडिय लद्धे पडिरासिदपढमअणंतभागवड्डिहाणे पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्डिहाणं होदि । पुव्विल्लहाणंतरादो एवं हाणंतरं अणंतभागब्भहियं । केत्तियमेत्तेण ? सव्वजीवरासिवग्गेण जहण्णहाणे भागे हिदे जं लद्धं तेत्तियमेशेण । अणंतरहेट्टिमहाणपक्खेवफद्दयंतरादो एदस्स पक्खेवस्स फद्दयंतरमगंतभागब्महियं । कुदो ? पुविल्लविहन्जमाणरासीदो संपहि [ य-] विहजमाणरासीए अणंतभागब्भहियत्तादो अणंतरहेहिमपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो संपहियपक्खेवफद्दयसलागाणं तुल्लत्तादो । पक्खेवफद्दयसलागाणं तुल्लनं कधं णवदे ? सव्वेसिमणंतभागवड्डीणं पक्खेवफद्दयसलागाओ अण्णोणं समाणाओ, असंखेजभागवड्डिहाणपक्खेवाणं पि फद्दयसलागाओ अण्णोण्णेहि तुल्लाओ, संखेजभागवड्डिहाणपक्खेवफद्दयसलागाओ वि परोप्परं तुलाओ, एवं संखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणवड्डि-अणंतगुणवड्डिफद्दयसलागाणं पि तुल्लत्तं वत्तव्यमिदि जिणवयणादो। अणंतभागवड्डीसु हेहिमपक्खेवफद्दयंतरादो उवरिमपक्खेवफदयंतरमणंतभागभहियमिदि वयणादो वा णव्वदे ? फद्दयसलागासु विसरिसासु संतासु कधमणंतभागब्भहियचंण घडदे ? उच्चदे-रूवाहियसव्वजीवरासिणा अणंतरहेडिमअणंतमा अब प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानको सब जीवराशिसे खण्डित कर जो लब्ध हो उसे प्रति. राशिभूताप्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें मिलानेपर द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। पूर्वके स्थानान्तरसे यह स्थानान्तर अनन्तवें भागसे अधिक है। कितने मात्रसे अधिक है ? सब जीवराशिके वर्गका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्रसे अधिक है। अनन्तर अधस्तन स्थान सम्बन्धी प्रक्षेप रूप स्पर्द्धकके अन्तरसे इस प्रक्षेपके स्पर्द्धकका अन्तर अनन्तवें भागसे अधिक है, क्योंकि, पूर्वोक्त विभज्यमान राशिसे इस समयकी विभज्यमान राशि अनन्तवें भागसे अधिक है, तथा अनन्तर अधस्तन प्रक्षेप स्पर्द्ध कशलाकाओंसे इस समयकी प्रक्षेप स्पर्द्धकशलाकायें तुल्य हैं। शंका-प्रक्षेप स्पर्द्ध कशलाकाओंकी तुल्यता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-सब अनन्तभागवृद्धियोंकी प्रक्षेपस्पर्द्ध कशलाकायें परस्परमें समान हैं, असं. ख्यातभागवृद्धिस्थानों सम्बन्धी प्रक्षेपोंकी भी स्पर्द्ध कशलाकायें परस्परमें तुल्य हैं, संख्यातभागवृद्धिग्थानों सम्बन्धी प्रक्षेपोंकी स्पद्ध कशलाकायें भी परस्पर तुल्य हैं। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि सम्बन्धी स्पर्द्धकशलाकाओंकी भी समानता बतलानी चाहिये। इस जिनवचनसे उनकी तुल्यता जानी जाती है। अथवा, वह "अनन्तभागवृद्धियोंमें अधस्तन प्रक्षेप स्पद्धकोंके अन्तरसे उपरिम प्रक्षेप स्पर्द्धकोंका अन्तर अनन्तवें भागसे अधिक है। इस वचनसे जानी जाती है। शंका-स्पर्द्धकशलाकाओंके विसदृश होनेपर अनन्तवें भागसे अधिकता कैसे घटित नहीं होती है ? समाधान-इसका उत्तर कहते हैं। अनन्तर अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानमें एक अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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