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________________ २६.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ८, १४. एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १४॥ सव्वेसिं कम्माणं डिदि-अणुभाग-पयडि-पदेसमेदेण बंधो चउविहो चेव । तत्थ पयडि-पदेसा जोगादो ठिदि-अणुभागा कसायदो त्ति सत्तण्णं पि दो चेव पचया होति । कधं दो चेव पञ्चयो अट्टण्णं कम्माणं बत्तीसाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधाणं कारणत्तं पडिवज्जते ? ण, असुद्धपज्जवट्टिए उजुसुदे अणंतसत्तिसंजुत्तेगदव्वत्थित्तं पडि विरोहा. भावादो । वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो' ण तत्थ दवमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते-ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपजाए पडुच्च अवट्टियस्म सगासेसावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमावण्णम्स' वत्थुस्स अणप्पिदपज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अस्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि। (सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥ १५ ॥) कुदो ? तत्थ समासाभावादो । तं जहा-पदाणं समासो णाम किमत्थगओ पदगओ तदुभयगदो वा ? ण ताव [अत्थगओ, दोण्णं पदाणमत्थाणमेयत्ताभावादो। ण जिस प्रकार ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयके प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोके प्रत्ययोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥१४॥ स्थिति, अनुभाग, प्रकृति और प्रदेशके भेदसे सब कर्मोंका बन्ध चार प्रकार ही है। उनमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, इस प्रकार सातों ही कर्मोंके दो ही प्रत्यय होते हैं। ___शंका-उक्त दो ही प्रत्यय आठ कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप बत्तीस बन्धोंकी कारणताको कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि अशुद्धपर्यायार्थिक रूप ऋजुसूत्र नयमें अनन्त शक्ति युक्त एक द्रव्यके अस्तित्वमें कोई विरोध नहीं है। शंका-वर्तमान कालविषयक ऋजुसूत्र नयकी विषयभूत वस्तुका द्रवण नहीं होनेसे चूंकि उसका विषय द्रव्य हो नहीं सकता, अतः ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? समाधन-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि, वर्तमानकाल व्यंजनपर्यायोंका पालम्बन करके अवस्थित है एवं अपने समस्त अवयवोंको प्राप्त है अतः उसके दव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा, विवक्षित पर्यायसे वर्तमानताको प्राप्त वस्तुकी अविवक्षित पर्यायोंमें द्रवणका विरोध न होनेसे ऋजुसूत्र नयके विषयमें द्रव्य सम्भव ही है। शब्द नयकी अपेक्षा अवक्तव्य है ॥ १५ ॥ कारण यह है कि उस नयमें समासका अभाव है । वह इस प्रकारसे-पदोंका जो समास होता है वह क्या अर्थगत है, पदगत है, अथवा तदुभयगत है ? अर्थगत तो हो नहीं सकता, १ अ-आप्रत्योः 'दमणाभावादो' इति पाठः। २ अ-श्रापत्योः '-मावसण्णस्स' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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