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________________ ४, २,८, १५.] वैयणमहाहियारे वेयणपञ्चयविहाणं [२६१ ताव ] दोण्णं पदाणमत्थाण'मेयसं, तस्स आधाराभावादो। ण ताव पुन्वपदमाधारो, उत्तरपदुच्चारणस्स विहलत्तप्पसंगादो। ण उत्तरपदं पि, पुवपदुच्चारणस्स णिप्फलत्तप्पसंगादो। ण दो वि पदाणि आहारो, एयस्स णिरवयवस्स दोसु अवट्ठाणविरोहादो। ण च दोसु अत्थेसु एयत्तमावण्णेसु समासो वि अस्थि, दुब्भावेण विणा समासविरोहादो । ण पदगो वि, दोसु वि पदेसु एयत्तमावण्णेसु दोण्णं पदाणमसवण्ण'प्पसंगादो । ण च एवं, दोहिंतो वदिरित्ततदिएग पदाणुवलंभादो । उवलंभे वा ण सो समासो, दुब्भावेण विणा समासविरोहादो । णोभयगदो वि,उभयदोसाणुसंगादो । तम्हा समासो पत्थि त्ति सिद्धं । तेण जोगसद्दो जोगत्थं भणदि, पच्चयसद्दो पञ्चयटुं भणदि त्ति दोहि वि पदेहि एगो अत्थो ण परूविजदे । तेण जोगपचए पयडि-पदेसग्गं, कसायपचए हिदि-अणुभोगवेयणा इदि अवत्तव्वं । अधवा, ण संतं कन्जमुप्पज्जदि, संतस्स उप्पत्तिविरोहादो । ण चासंतं, खरसिंगस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो । ण च संतमसंतं उप्पज्जदि', उभयदोसाणुसंगादो। तदो कज्जकारण कि दो पदोंके अर्थों में एकता सम्भव नहीं है। दो पदों के अर्थों में एकता इसलिये सम्भव नहीं है कि उसके आधारका अभाव है। यदि आधार है तो क्या उसका पूर्व पद आधार है अथवा उत्तर पद ? पूर्व पद तो आधार हो नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर उत्तर पदका उच्चारण निष्फल ठहरता है। उत्तर पद भी आधार नहीं हो सकता, क्योंकि, इस प्रकारसे पूर्व पदका उच्चारण व्यर्थ ठहरता है। दोनों पद भी आधार नहीं हो सकते, क्योंकि, निरवयव एक अर्थका दो अवस्थान विरुद्ध है । यदि कहा जाय कि एकताको प्राप्त हुए दो अर्थों में समास हो सकता है, सो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, द्वित्वके विना समासका विरोध है। पद्गत (द्वितीय पक्ष ) समास भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, दोनों पदोंके एकताको प्राप्त होनेपर दोनों पदोंके असवर्णताका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि, दो पदोंको छोड़कर कोई तृतीय एक पद पाया नहीं जाता। अथवा यदि पाया जाता है तो वह समास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, द्वित्वके विना समासका विरोध है । उभय (अर्थ व पद ) गत भी समास नहीं हो सकता, क्योंकि, दोनों पक्षों में दिये गये दोषोंका प्रसंग आता है। इस कारण समास सम्भव नहीं है, यह सिद्ध है। अब समासका अभाव होनेसे चूंकि योग शब्द योगार्थको कहता है और प्रत्यय शब्द प्रत्ययार्थको कहता है, अतः दोनों ही पदोंके द्वारा एक अर्थकी प्ररूपणा नहीं की जा सकती है । इसो कारण शब्द नयकी अपेक्षा 'योगप्रत्ययसे प्रकृति व प्रदेशाग्ररूप तथा कषाय प्रत्ययसे स्थिति व अनुभाव रूप वेदना होती है' यह कहा नहीं जा सकता। ___ अथवा, सत् कार्य तो उत्पन्न होता नहीं, है, क्योंकि सत्की उत्पत्तिका विरोध है। असत् कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर गधेके सींगकी भी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। सदसत् कार्य भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, इसमें दोनों पक्षों में दिये गये दोषोंका प्रसंग १ अ-आप्रत्योः ‘पदाणमद्धाण', ताप्रतौ ‘पदाणमद्धा (स्था) ण-' इति पाठः।' २ अ-आप्रत्योः -मस्सवण्ण-,ताप्रतौ'-मस्सवण-' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'तदिएण' इति पाठः। ४-अापत्योः 'संगदो' इति पाठः। ५ श्राप्रती 'संतमसंतं च उप्पज्जदि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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