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________________ bird वैयणाखंड [ ४, २, ८, १५. २९२ ] कारणभावो णत्थि त्ति णाणावरणीयपयडि-पदेसग्गवेयणा जोगपच्चए, ट्ठिदि-अणुभागवेयणा कसायपच्चए ति अवत्तव्वं । अधवा, ण समाणकाले वट्टमाणाणं कज्ज-कारणभावो जुज्जदे, दोपणं संताणमसंताणं संतासंताणं च कज्ज - कारणभावविरोहादो । अविरोहे वा एगसमए चैव सव्वं उपज्जिदूण विदियसमए कज्ज - कारणकलावस्स णिम्मूलप्पलओ हज्ज | ण च एवं तह । णुवलंभादो । ण च भिण्णकालेसु वट्टमाणाणं कज्ज - कारणभावो, दोष्णं संताणमसंताणं च कज्जकारणभावविरोहादो । ण च संतादो असंतस्स उप्पत्ती, विकादो' गयणकुसुमाणं पि उप्पत्तिप्पसंगादो। ण च असंतादो संतस्स उप्पत्ती, गद्दहसिंगादो दद्दरूष्पत्तिप्पसंगादो । ण च असंतादो असंतस्स उत्पत्ती, गद्दहसिंगादो गयणकुसुमाणमुपपत्तिप्पसंगा । तदो कज्ज-कारणभावो णत्थि त्ति अवत्तव्यं । अधवा, तिण्णं सद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंधोदयजणिदअण्णाणं वेचणा । णसा जोग-कसाएहिंतो उष्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उष्पत्तिविरोहादो | णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो उप्पज्जदि, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो । तेण तिष्णं सद्दणयाणं णाणावरणीयवेयणापचओ अवत्तव्वो । आता है । इस कारण कार्यकारणभाव न बन सकनेसे 'ज्ञानावरणीयको प्रकृति व प्रदेशाम रूप वेदना योगप्रत्ययसे तथा स्थिति व अनुभागरूप वेदना कषायाप्रत्ययसे होती है' यह उक्त नयकी अपेक्षा अवक्तव्य है । अथवा, समानकालमें वर्तमान वस्तुओं में कार्यकारणभाव युक्त नहीं है, क्योंकि, उन दोनोंके सत्, असत् व उभय, इन तीनों पक्षों में कार्य-कारणका विरोध है । और यदि विरोध न माना जाय तो एक समय में ही समस्त कार्यके उत्पन्न हो जानेपर द्वितीय समयमें कार्य-कारण कलापका निर्मूल नाश हो जावेगा । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । समास - कालसे भिन्न कालों में भी वर्तमान उनके कार्य-कारणभाव नहीं बनता, क्योंकि, उन दोनोंके सत्, असत् व उभय, इन तीनों पक्षों में कार्यकारणभावका विरोध है । यदि सत्से असत् की उत्पत्ति स्वीकार की जाय तो वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर विन्ध्याचल से आकाश कुसमोंके भी उत्पन्न होने का प्रसंग आत्ता है । असत्से सत्की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर असत् गर्दभसगसे मेंढककी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। इसी प्रकार असत्से असत्की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर गर्दभसींगसे आकाशकुसुमोंके उत्पन्न होनेका प्रसंग आता है । इस कारण चूंकि कार्य-कारणभाव बनता नहीं है, अतएव ज्ञानावरणकी वेदना अवक्तव्य है । अथवा तीनों शब्द नयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी पौद्गलिक स्कन्धों के उदयसे उत्पन्न अज्ञानको ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है । परन्तु वह योग व कषायसे उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है उससे शक्ति विशेषकी उत्पति माननेमें विरोध है । तथा उदयगत कर्म द्रव्यस्कन्ध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि, [इन नयोंमें] पर्यायोंसे भिन्न द्रव्य का अभाव है । इस कारण तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदनाका प्रत्यय अवक्तव्य है । १ आ-ताप्रत्योः 'विज्झादो' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'अण्णाणवेयणा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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