SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २७६. असंखेअदिभागमेत्ता। तदणंतरउवरिमविदिए अणुभागबंधझवसाणट्ठाणे जीवा तत्तिया घेव । तदिए वि ठाणे तत्तिया चेव । एवमसंखेजलोगमेत्तचदुग्गुणवड्डिट्ठाणेसु गदेसु हेट्ठिमविरलणाए एगजीवं घेत्तूण तं तदित्थट्ठाणजीवेसु पक्खित्ते उवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदुगुणवड्डीए एगजीववड्डिअद्धाणस्स चदुब्भागे एत्थ एगेगो जीवो वड्ढदि । पुणो विदियचदुब्भागमेत्तद्धाणं जीवेहि अवट्ठिदं गंतूण विदियो जीवो अधियो होदि । तदियचदुब्भागमेत्तद्धाणं जीवेहि अवट्ठिदं गंतूण तदियो जीवो अधियो होदि । पुणो चउत्थचदुब्भागमेत्तद्धाणं जीवेहि अवद्विदं गंतूण चउत्थो जीवो अधियो होदि । एवमवद्विदं चउत्थभागद्धाणं गंतूण एगेगजीवो वड्ढावेदव्वो जाव विरलणमेत्ता जीवा पविट्ठा ति । ताधे अट्ठगुणवड्डिहाणं होदि । ____पुणो पढमदुगुणवड्डिभागहारअट्ठगुणं विरलिय अट्ठगुणवड्डिजीवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु रूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावदि । पुणो चउत्थदुगुणवड्डीए जहण्णट्ठाणे जीवा आवलियाए असंखेजदिभागो। विदिए ठाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं तत्तिया तत्तिया चेव जीवा होदण गच्छंति जाव असंखेजलोगमेत्तट्ठाणे त्ति । तदो हेडिम. विरलणाए एगजीवं घेत्तूण तदित्थट्टाणजीवेसु पक्खित्ते तदणंतरउवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदुगुणवड्डीए एगजीववड्डिअद्धाणादो एदिस्से दुगुण है। पुनः चौगुणी वृद्धियुक्त जीव आवालीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । तदनन्तर आगेके द्वितीय अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव उतने ही हैं । तृतीय स्थानमें भी उतने ही जीव हैं। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण चौगुणी वृद्धि युक्त स्थानोंके वीतनेपर अधस्तन विरलनके एक जीवको ग्रहण कर उसे वहाँ के स्थानोंके जीवों में मिलानेपर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि प्रथम दुगुण वृद्धि में एक जीववृद्धि युक्त अध्वानके चतुर्थ भागमें यहाँ एक जीव बढ़ता है । पुनः द्वितीय चतुर्थ भाग प्रमाण अध्वान जीवोंसे अवस्थित जाकर द्वितीय जीव अधिक होता है । तृतीय चतुर्थ भाग प्रमाण अध्वान जीवोंसे अवस्थित जाकर तृतीय जीव अधिक होता है। फिर चतुर्थ चतुर्थ भाग प्रमाण अध्वान जीवोंसे अवस्थित जाकर चतुर्थ जीव अधिक होता है। इस प्रकार अवस्थित चतुर्थे भाग प्रमाण अध्वान जाकर एक एक जीवको बढ़ाना चाहिये जब तक कि विरलन मात्र जीव प्रविष्ट होते हैं । तब अठगुणी वृद्धिका स्थान होता है। ___पश्चात् प्रथम दुगुणवृद्धिके भागहारसे अठगुने भागहारका विरलन कर अठगुणी वृद्धि युक्त जीवोंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः चतुर्थ दुगुणवृद्धिके जघन्य स्थानमें जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीय स्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकार उतने उतने ही जीव होकर असंख्यात लोक प्रमाण स्थानों तक जाते हैं। तत्पश्चात् अधस्तन विरलनके एक जीवको ग्रहण कर उसे वहाँ के स्थानके जीवों में मिलानेपर तदनन्तर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है। विशेष इतना है कि एक जीवकी वृद्धि युक्त अध्वानसे इस दुगुणवृद्धिका एक जीवकी वृद्धि युक्त अध्वान आठवें भाग प्रमाण होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy