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________________ ४, २, ७, २७९.] वयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २५३ वड्डीए एगजीववड्ढिडअद्वाणमट्टमभागो होदि । पुणो विदिय' अट्टमभागमेत्तद्धाणंगंतूण विदियो जीवो अधियो होदि । पुणो तदियअट्टमभागमेत्तद्भाणं गंतूण दियो जीव धियो होदि । चउत्थमट्टमभागं गंतूण चउत्थो जीवो अधिओ होदि । पंचमममभागं गंतूण पंचमो जीवो अधिओ होदि । छट्ठमट्टमभागं गंतूण छट्ठो जीवो अहिओ होदि । सत्तममट्टमभागं गंतूण सत्तमो जीवो अहिओ होदि । अहममहमभागं तू मो जीव अधिओ होदि । अणेण भागेण अट्टमभागं धुवं कादुण विरलणमेत्तजीवे परिवाडीए पविट्ठेसु सोलसगुणवड्डिड्डाणं होदि । एदं दुगुणवड्डिअद्धाणं पढमदुगुणवड्डाणेण समाणं, तत्थ एगजीववड्डिअद्वाणस्स अट्टमभागे एदिस्से गुणहाणीए एगजीववड्डिसणादी | 1 पुणो पढमद्गुणवडिअडाणं सोलसगुणं विरलेदूण सोलसगुणवड्डिजीवेसु समखंड काढूण दिसु एक्क्क्क्स्स रूवस्स एगेगजीवपमाणं पावदि । तदो पंचमद्गुणवड्डिपढमाभाग बंधवाणडाणजीवा आवलियाए असंखेजदिभागो । विदिए द्वाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं यव्वं जाव असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि त्ति । तदो हेड्डिमविरलणाए एगजीवं घेत्तण तदित्थद्वाणजीवेसु पक्खित्ते तदणंतरउवरिमाणजीवपमाणं होदि । णवरि पढमदु गुणवड्डीए एगजीववड्ढिअद्वाणस्स सोलसभा एदिस्से गुणहाणीए एगो जीवो वहृदि चि घेत्तव्वं । पुणो विदियं सोलसभागं गंतूण विदियो जीवो हियो होदि । है । पश्चात् द्वितीय अष्टम भाग प्रमाण अध्वान जाकर द्वितीय जीव अधिक होता है । पुनः तृतीय अष्टमभाग प्रमाण अध्वान जाकर तृतीय जीव अधिक होता है । चतुर्थ अष्टम भाग जाकर चतुर्थ जीव अधिक होता है। पंचम अष्टम भाग जाकर पाँचवाँ जीव अधिक होता है । छठा अष्टम भाग जाकर छठा जीव अधिक होता है । सातवाँ अष्टम भाग जाकर सातवाँ जीव अधिक होता है। आठवाँ अष्टम भाग जाकर आठवाँ जीव अधिक होता है । इस भागले अष्टम भागको ध्रुव करके विरलन राशि प्रमाण जीवोंके परिपाटीसे प्रविष्ट होनेपर सोलहगुणी वृद्धिका स्थान होता है । यह गुणवृद्धिअध्वान प्रथम दुगुणवृद्धि अध्वानके समान है, क्योंकि, वहाँ एक जीववृद्धिअध्वानके आठवें भागमें इस गुणहानिमें एक जीवकी वृद्धि देखी जाती है पुनः प्रथम दुगुणवृद्धिके अध्वानको सोलहगुणा विरलन कर सोलहगुणी वृद्धि युक्त जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है । पश्चात् पांचवीं दुगुणवृद्धि के प्रथम अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानके जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । द्वितीय स्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र स्थानों तक ले जाना चाहिये । तत्पश्चात् अधरतन विरलन के एक जीवको ग्रहण कर उसे वहाँ के स्थानके जीवों में मिलानेपर तदनन्तर आगे स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि प्रथम दुगुणवृद्धि सम्बन्धी एक जीववृद्धि अध्वानके सोलहवें भाग में इस गुणहानिका एक जीव बढ़ता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । फिर द्वितीय सोलहवाँ भाग जाकर द्वितीय जीव अधिक होता है । इस प्रकार १ प्रतिषु 'पुणो विग्रह' इति पाठः । २ प्रतौ 'डाणाणि जीवा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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