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________________ १६४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २१४ कादण दिण्णे जहण्णट्ठाणस्स असंखज्जदिभागो एककस्स रूवस्स पावदि । पुणो असंखेज्जेहि लोगेहि प्रोवट्टिदसव्यजीवरासिं' हेहा विरलिय उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रुवस्स एगेगअणंतभागवड्डिपक्खेवो पावदि । पुणो एगकंदएणोवट्टियं विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवा पावेंति । पुणो सेसाणं पि आगमणहं भागहारम्हि अणंतिमभागो असंखेज्जदिभागो च अवणेदव्यो । 'एदमुवरिमरूवधरिदेसु दादृण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहा–रूवाहियविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लन्मदि तो उवरिमविरलणम्हि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । तं उवरिमविरलणाए अवणिय सेसेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे लद्ध पडिरासीकयजहण्णस्सुवरि पक्खित्ते असंखज्जभागवड्डिहाणं होदि । संपहि एदस्सुवरि अणंतभागवड्ढीणं कंदयमेत्ताणमुप्पायणविहाणं जाणिदूण वत्तव्वं । __संपहि विदियअसंखेजभागवड्विउपायणविहाणं वुच्चदे। तं जहा-तदो हेहिमउव्वंकस्सुवरि असंखेजभागवड्डि-अणंतभागवड्डिपक्खेवेसु च अवणिदेसु सेसं जहण्णट्ठाणं होदि । तम्मि असंखेजेहि लोगेहि भागे हिदे असंखेजभागवड्डिपक्खेवो आगच्छदि । का विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देने पर एक एक अंक के प्रति जघन्य स्थानका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। फिर असंख्यात लोकोंसे अपवर्तित सब जीवरा 'शका नीचे विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है। फिर एक काण्डकसे अपवर्तित उसे विरलित कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होते हैं। फिर शेष रहे उनको भी लानेके लिये भागहारमेंसे अनन्तवें भाग व असंख्यातवें भागको भी कम करना चाहिये। इसे उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्योंमें देकर समकरण करनेपर हीन अंकोंका प्रमाण बतलाते हैं । वह इस प्रकार है-एक अधिक विरलन मात्र अध्वान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका अनन्तवां भाग आता है। उसको उपरिम विरलनमेंसे कम कर शेषका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर लब्धको प्रतिराशीकृत जघन्य स्थानके ऊपर मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। अब इसके आगे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंके उत्पन्न करानेकी विधि जानकर कहना चाहिये। अब द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिके उत्पन्न करानेकी विधि कहते है । वह इस प्रकार हैउससे अधस्तन ऊवकके ऊपर असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपोंको कम करनेपर शेष जघन्य स्थान होता है। उसमें असंख्यात लोकांका भाग देनेपर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त १ अप्रतौ 'जीवरासिंहि' इति पाठः। २ अप्रतो 'एव' इति पाठः। ३ अ-श्राप्रत्योः 'पडिरासीय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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