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________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १६३ त्तानो विरलणाओ जाणिदण विरलेदव्यागो। तत्थ चउत्थादिविरलणाओ अप्पहाणाश्रो त्ति छोद्दिदूण तदिय-विदिय-पढमाणं पक्खेवंसाणमाणयणं बुच्चदे। तं जहा-रूवाहियतदियविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लव्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स किंचूण-बे-तिभागो भागच्छदि । तम्मि मज्झिमविरलणाए अवणिय रूवाहियं काऊण ताए फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धं किंचूणरुवस्सद्धं उवरिमविरलणाए अवणिदाए जहण्णहाणे भागे हिदे लद्धं जहण्णहाणं पडिरासिय पक्खित्ते चत्तारिअंकस्स हेहिमउव्वंकट्ठाणं होदि। पुणो तं ठाणमसंखेज्जेहि लोगेहि ओवट्टिय तम्मि चेव पडिरासीकदे पक्खित्ते असंखेजभागवड्डि. हाणं होदि। संपहि जहरणट्ठाणादो असंखेज्जभागवड्डिहाणं उप्पाइज्जदे । तं जहा-चत्तारिअंकदो हेडिमउव्वंकम्हि कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवेसु रूवणकंदयस्स संकलणमेत्तपिसुलेसु दुरूवणकंदयविदियवारसंकलणमेत्तपिसुलापिसुलेसु सेसचुण्णियभागेसु च अवणिदेसु जहण्णहाणं होदि । पुणो असंखेज्जलोगे विरलिय जहण्णहाणं समखंडं करिय दिण्ण एकेकस्स रुवस्स असंखेज्जभागव ड्डिपक्खेवो होदि । पुणो पुचमवणिदकंदयमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवादि पि समखंडं कादूण दिण्णे जहासरूवेण पावदि । पुणो एदस्स एगभागहारेणागमणकिरियं कस्सामो। तं जहा–असंखेज्जलोगे विरलिय जहण्णट्ठाणं समखंड विरलन करना चाहिए। उनमें चतुर्थ आदि विरलन राशियां चूंकि अप्रधान हैं, अतएव उनको छोड़कर तृतीय, द्वितीय और प्रथम प्रक्षेपांशोंके लानेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक अधिक तृतीय विरलन मात्र अध्यान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फल गुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकके कुछ कम दो तृतीय भाग आते हैं। उनको मध्यम विरलनमेंसे कमकर एक अधिक करके उससे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करके प्राप्त हुए एक रूपके कुछ कम अर्ध भागको उपरिम विरलनमेंसे कम कर देनेपर जघन्य स्थानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर चतुरंकके नीचेका ऊर्वक स्थान होता है। फिर उस स्थानको असंख्यात लोकोंस अपवर्तित कर प्रतिराशीकृत उसी में मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। __ अब जघन्य स्थानसे असंख्यातभागवृद्धिस्थानको उत्पन्न कराते हैं। यथा-चतुरंकसे नीचेके ऊर्वकमेंसे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपों, एक कम काण्डकके संकलन प्रमाण पिशलों, दो कम काण्डकके द्वितीयवार संकलन प्रमाण पिशुलापिशुलों तथा शेष चूर्णिकभागोंको कम करने पर जघन्य स्थान होता है। फिर असंख्यात लोकोंका विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति असंख्यातभागवृद्धिका प्रक्षेपहोता है। फिर पहिले कम कियेगये काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप आदिको भी समखण्ड करके देनेपर यथा स्वरूपसे प्राप्त होता है। अब इसके एक भागहार रूपसे लानेकी क्रिया करते हैं। वह इस प्रकार है-असंख्यात लोकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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