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________________ १५२ ] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०६. णव्वदे ? भागहारमाहप्पादो। तं जहा-हेहिमअणंतभागवड्डिफद्दयसलागाहि स्वाहियसव्वजीवरासिं गुणेदूण चरिमअणंतभागवड्डिहाणे भागे हिदे फद्दयंतरं होदि । अणंतभागवड्डिपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो असंखेज्जभागवड्डिपक्खेवफद्दयसलागाओ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण ? असंखेज्जदिमागमेण । तत्तो संखेज्जमागवडिपक्खेवफद्दयसलागाओ विसेसाहियायो । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जदिमागमेण । तत्तो संखेज्जगुणवविफद्दयसलागाओ संखेज्जगुणाओ। को गुणगारो १ संखेज्जा समया। तत्तो असंखेज्जगुणवड्डीए फद्दयसलागाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? असंखेज्जसमया । अणंतगुणवडिफद्दयसलागाओ अणंतगुणाओ । पुणो एत्थ असंखेज्जभागवडिपक्खेवसलागाहि असंखेज्जलोगे गुणिय चरिमअणंतभागवड्डिाणे भागे हिदे असंखेज्जभागवड्डिपक्खेवस्स फद्दयंतरं होदि । हेड्डिमफद्दयंतरेण उवरिमफद्दयंतरे भागे हिदे जं भागलद्धं सो गुणगारो । एदम्हादो असंखेजभागवडिट्ठाणादो उवरिमकंदयमेत्तअणंतभागवड्डिहाणाणं परूवणा पुवं व कायवा। णवरि असंखेजभागवड्डिफद्दयंतरहाणंतरेहिंतो उवरिमअणंतभागवडिपक्खेवाणं द्वाणंतरफद्दयंतराणि अणंतगुणवड्डिहीणाणि । हेट्ठिमकंदयमेत्तमणंतभागवड्डिहाणाणं 'हाणंतरफद्दयंतरेहितो शंका-वह उससे अनन्तगुणा है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह भागहारके माहात्म्यसे जाना जाता है। यथा-अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्पर्धक शलाकाओंसे एक अधिक सब जीवराशिको गुणित करके अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेपर स्पर्धकान्तर होता है। अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकाओंसे असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकायें विशेष अधिक हैं। कितने मात्र विशेषसे वे अधिक हैं? वे असंख्यातवें भाग मात्रसे अधिक हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकायें विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे वे अधिक हैं ? वे संख्यातवें भागमात्रसे अधिक हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिप्रक्षेपकी स्पर्धकशलाकायें संख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिकी स्पर्धकलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात समय है। उनसे अनन्तगुणवृद्धिकी स्पर्धकालाकायें अनन्तगुणी हैं। पुनः यहां असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपकी शलाकाओंसे असंख्यात लोकोंको गुणित करके अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेपर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपका स्पर्धकान्तर होता है। अधस्तन स्पर्धकान्तरका उपरिम स्पर्धकान्तरमें भाग देनेपर जो लब्ध हो वह गुणकार होता है। इस असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपरके काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंकी प्ररू समान करनी चाहिये । विशेष इतना है कि असंख्यातभागवृद्धिके स्पर्धकान्तरों और स्थानान्तरोंसे उपरिम अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर अनन्तगुणवृद्धिसे हीन हैं। काण्डक प्रमाण अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तरों और स्पधकान्तरोंसे ऊपरके काण्डक प्रमाण १ अप्रतौ 'अणंतर-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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