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________________ ४, २, ७, २०६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५३ उवरिमकंदयमेत्तअणंतभागवड्डिहाणाणं हाणंतरफद्दयाणि असंखेज्जभागब्भहियाणि । एत्थ कारणं चिंतिय वत्तव्वं । विदियकंदयमेत्तअणंतभागवडिहाणाणं चरिमहाणे असंखेज्जलो. गेहि भागे हिदे जं लद्धं तं तम्हि चेव पडिरासिय पक्खित्ते 'विदियमसंखेज्जभागववि. ट्ठाणं होदि । एदम्हादो पक्खेवादो एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे हाणंतरं होदि । एदं हाणंतरं हेहिमासेसअणंतभागवड्डिहाणंतरेहितो अणंतगुणं । उवरिमासेसअणंतभागवड्डिाणंतरेहितो वि अणंतगुणमेव । एत्थ कारणं जाणिय परूवेदव्वं । हेहिमअसंखेज्जभागवड्डिहाणंतरादो एदं ठाणंतरमसंखेजभागब्भहियं । [ केत्तियमेत्तेण ? ] एगअसंखेजभागवड्डिपक्खेवस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । एवं फद्दयंतराणं परिक्खा कायव्वा । एवं कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डीणं जाणिदूण परूवणा कायव्वा । णवरि हेहिमअणंतभागवड्डिट्ठाणंतरेहितो असंखेजभागवड्डिविसयम्हि हिदअणंतभागवड्डिटाणाणं हाणंतरफद्दयंतराणि असंखेजभागभहियाणि । संखेजभागवड्डिविसयम्मि द्विदाणं संखेजभागभहियाणि । संखेजगुणवड्डिविसयम्मि हिदाणं संखेजगुणब्भहियाणि । असंखेजगुणवड्डिविसयम्मि हिदाणं असंखेजगुणाणि । अणंतगुणवड्डिविसयम्मि हिदाणमणंतगुणाणि । एवमसंखेजभागवड्डि-संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-[ असंखेज्जगुणवड्डि-] अणंतगुणवड्डिहाणाणं अनन्तभागवृद्धिस्थानांके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर असंख्यातवें भागसे अधिक हैं। यहां कारणको विचारकर कहना चाहिये । काण्डक प्रमाण द्वितीय अनन्तभागवृद्धिके स्थानोंमेंसे अन्तिम स्थानमें असंख्यात लोकोंका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसीमें प्रतिराशि करके मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिका द्वितीय स्थान होता है। इस प्रक्षेपमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्थानान्तर होता है । यह स्थानान्तर अधम्तन समस्त अनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरों से अनन्तगुणा है । वह उपरिम समत्त अनन्तभागवृद्विस्थानांसे भी अनन्तगुणा ही है। यहां कारण जानकर बतलाना चाहिये। अधस्तन असंख्यातभागवृद्धिस्थानान्तरसे यह स्थानान्तर असंख्यातवें भागसे अधिक है। । कितने मात्रसे वह अधिक है?] एक असंख्यातभागवृद्धि प्रक्षेपके असंख्यातवें भाग मात्रसे अधिक है। इस प्रकार स्पर्धकान्तरोंकी परीक्षा करनी चाहिये । इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धियोंकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि अघस्तन अनन्तभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे असंख्यातभागवृद्धिके विषयमें स्थित अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तर और स्पर्द्वकान्तर असंख्यातवें भागसे अधिक है । संख्यातभागवृद्धिके विषयमें स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर संख्यातवें भागसे अधिक हैं। संख्यातगुणवृद्धिके विषय में स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर संख्यातगुणे अधिक हैं। असंख्यातगुणवृद्धिके विषयमें स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर असंख्यातगुणे हैं । अनन्तगुणवृद्धि के विषयमें स्थित उनके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर अनन्तगुणे हैं । इस प्रकार असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, [असंख्यातगुणवृद्धि ] १ ताप्रतौ 'लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पडिरासिय विदिय- इति पाठः । २ प्रतिषु 'वड्डिाणाणं' इति पाठः। छ. १२-२०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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