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________________ ५६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ९६. अणुभागो एदासि तिष्णमणुभागादो 'अनंतगुणो एसो अत्थो बारसण्णं देसघादिबंधrयडीणं सव्वत्थ जोजेयव्वो । ओहिणाणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं लाहंतराइयं च तिण्णि वितुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ ६६ ॥ कारणं पुत्रं परुविदमिदि ोह परूनिजदे | मणपज्जवणाणावरणीयं थी गिद्धी दाणंतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ ६७ ॥ कारणं सुगमं । सयवेदो अनंतगुणहीणो ॥ ६८ ॥ णोकसायत्तादो । अरदी अनंतगुणहीणा ॥ ६६ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । तं जहा - इट्टगावागसष्णिहो णवुंसयवेदोदआ, अरदो पुण अरमणमेत्तु पाइया । तेण अनंतगुणहीणा । देशघाती करता है। इस कारण चक्षुदर्शनावरणीयका अनुभाग इन तीन प्रकृतियोंके अनुभागसे अनन्तगुणा है । इस अर्थकी बारह देशघाती बन्ध प्रकृतियों के सम्बन्ध में सर्वत्र योजना करनी चाहिये । उनसे अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय, ये तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९६ ॥ इसका कारण पहिले बतला आये हैं इसलिए यहाँ उसका कथन नहीं करते हैं । उनसे मन:पर्ययज्ञानावरणीय, स्त्यानगृद्धि और दानान्तराय ये तीनों ही तुल्य ster अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९७ ॥ इसका कारण सुगम है । उनसे नपुंसक वेद प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ९८ ॥ क्योंकि, वह नोकषाय है । उससे अरति अनन्तगुणी होन है ।। ९९ ।। क्योंकि, इनमें प्रकृतिगत विशेषता है । यथा— नपुंसक वेदका उदय ईटोंके पाकके समान है, परन्तु अरति तो मात्र नहीं रमनेरूप भावको उत्पन्न करनेवाली है, इस कारण वह नपुंसक वेदकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन है । .... १ प्रतिषु श्रणंतगुणही गो इति पाठः । २ प्रतौ 'सव्यत्थो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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