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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ७, ९६.
अणुभागो एदासि तिष्णमणुभागादो 'अनंतगुणो एसो अत्थो बारसण्णं देसघादिबंधrयडीणं सव्वत्थ जोजेयव्वो ।
ओहिणाणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं लाहंतराइयं च तिण्णि वितुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ ६६ ॥
कारणं पुत्रं परुविदमिदि ोह परूनिजदे | मणपज्जवणाणावरणीयं थी गिद्धी दाणंतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि अनंतगुणहीणाणि ॥ ६७ ॥
कारणं सुगमं ।
सयवेदो अनंतगुणहीणो ॥ ६८ ॥
णोकसायत्तादो ।
अरदी अनंतगुणहीणा ॥ ६६ ॥
कुदो ? पयडिविसेसेण । तं जहा - इट्टगावागसष्णिहो णवुंसयवेदोदआ, अरदो पुण अरमणमेत्तु पाइया । तेण अनंतगुणहीणा ।
देशघाती करता है। इस कारण चक्षुदर्शनावरणीयका अनुभाग इन तीन प्रकृतियोंके अनुभागसे अनन्तगुणा है । इस अर्थकी बारह देशघाती बन्ध प्रकृतियों के सम्बन्ध में सर्वत्र योजना करनी चाहिये ।
उनसे अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय, ये तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९६ ॥
इसका कारण पहिले बतला आये हैं इसलिए यहाँ उसका कथन नहीं करते हैं ।
उनसे मन:पर्ययज्ञानावरणीय, स्त्यानगृद्धि और दानान्तराय ये तीनों ही तुल्य ster अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९७ ॥
इसका कारण सुगम है ।
उनसे नपुंसक वेद प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ९८ ॥
क्योंकि, वह नोकषाय है ।
उससे अरति अनन्तगुणी होन है ।। ९९ ।।
क्योंकि, इनमें प्रकृतिगत विशेषता है । यथा— नपुंसक वेदका उदय ईटोंके पाकके समान है, परन्तु अरति तो मात्र नहीं रमनेरूप भावको उत्पन्न करनेवाली है, इस कारण वह नपुंसक वेदकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन है ।
.... १ प्रतिषु श्रणंतगुणही गो इति पाठः । २ प्रतौ 'सव्यत्थो' इति पाठः ।
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