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________________ [५५ ४, २, ७, ६५. 1 वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं सुदणाणावरणीयं णाम महाविसयं, परोक्खसरूवेण सव्वत्थ परिच्छेदिसुदणाणघायणे वावदत्तादो। सेसदोपयडिअणुभागो वि महल्लो चेव, सुदणाणावरणीयसमाणत्तादो। तदो एदेसिमणुभागेण चक्खुदंसणावरणीयअणुभागादो अणंतगुणहीणेण होदव्वमिदि महाविसयस्स अणुभागो महल्लो होदि, थोवविसयस्स अणुभागो थोवो होदि त्ति एदमत्थं मोत्तण तो क्ख हि एवं घेत्तव्वं । तं जहा-खवगसेडीए देसघादिबंधकरणे जस्स पुव्वमेव अणुभागबंधो देसघादी जादो तस्साणुभागो थोवो । जस्स पच्छा जादो तस्स बहुओ। एदासिं च अणुभागबंधो चक्खुदंसणावरणीयअणुभागबंधादो पुव्वमेव देसघादी जादो । तं जहा–मिच्छाइद्विमादि कादण जाव अणियट्टिद्धाए संखेजा भागा ताव एदासिमणुभागबंधो सव्वघादी बज्झदि । पुणो तत्थ मणपजवणाणावरणीयं दाणंतराइयं च बंधेण देसघादी करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण ओहिणाणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं लाहंतराइयं च तिण्णि वि बंधेण देससादी करेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुदणाणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च तिषिण वि बंधेण देखघादी करेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण चक्खुदंसणावरणीयं बंधेण देसघादी करेदि । वदो अंतोमुहुत्तं गंतूण आभिणिबोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च दो वि बंधेण देसघादी करेदि । तदो अंतोमुहत्तं गंतूण वीरियंतराइयं बंधेण देसघादी करेदि त्ति । तेण चक्खुदंसणावरणीय श्रुतज्ञानावरणका विषय महान् है, क्योंकि, वह परोक्ष स्वरूपसे सब पदार्थोंको जाननेवाले श्रुतज्ञानके घातनेमें प्रवृत्त है। शेष दो प्रकृतियोंका अनुभाग भी महान् ही है, क्योंकि वह श्रुतज्ञानावरणके अनुभागके ही समान है। इस कारण इनका अनुभाग चक्षुदर्शनावरणीयके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होना चाहिये, क्योंकि, महान् विषयवाली प्रकृतिका अनुभाग महान् होता है और अल्प विषयवाली प्रकृतिका अनुभाग अल्प होता है। यदि ऐसा है तो इस अर्थको छोड़कर ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यथा--क्षपकश्रेणिमें देशघाती बन्धकरणके समय जिसका अनुभाग बन्ध पहिले ही देशघाती हो गया है उसका अनुभाग स्तोक होता है और जिसका अनुभागबन्ध पीछे देशघाती होता है उसका अनुभाग बहुत होता है। इस नियमके अनुसार इन तीन प्रकृतियों का अनुभागबन्ध चक्षुदर्शनावरणीयके अनुभागबन्धसे पहिले ही देशघाती हो जाता है। यथा-- मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग तक इनका अनुभागबन्ध सर्वघाती बंधता है। फिर वहाँ मनःपर्यय ज्ञानावरण और दानान्तरायको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। इससे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय इन तीनों प्रकृतियोंको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय इन तीनोंको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर चक्षुदर्शनावरणीयको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तमुहूर्त जाकर आर्भािनबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय इन दोनों प्रकृतियोंको बन्धकी अपेक्षा देशघाती करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर वीर्यान्तरायको बन्धकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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