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________________ ५४] छक्खडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ६४. रणीयं परिभोगंतराइयं च देसघादि, मदिणाण-परिभोगाणमेगदेसघादित्तादो। तदो एदेसिं दोण्णं कम्माणमणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति सिद्धं । चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणहीणं ॥ १४ ॥ पयडिविसेसेण । एदस्स सत्तीए ऊणत्तं कधं णव्वदे ? किमिदि ण णव्वदे, आभिणियोहियणाणावरणीय-परिभोगंतराइयाणं' व सव्वत्थ खओवसमस्स अणुवलंभादो। ण च थोवेसु चेव जीवेसु खोवसमं गंतूण अणंतजीवरासिं चक्खिदियं सव्वं घाइदण हिदस्स चक्खिदियावरणस्स सत्तीए ऊणतं, बिरोहादो ? ण एस दोसो, आमिणिबोहियणाणावरणीयं जेण पंचिंदियणोइंदियपडिबद्धअसेसघादयं, [ चक्खुदंसणावरणीयं पुण ] चक्खुदंसणोवजोगमेत्तपादयं, तदो अप्पकञ्जकरणादो चक्खुदंसणावरणीयसत्ती थोवेति णव्वदे। सुदणाणावरणीयमचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च तिण्णि [वि तुल्लाणि ] अणंतगुणहीणाणि ॥ ५ ॥ परिभोगान्तरायके एक देशका घाल करनेवाले हैं। इस कारण इन दोनों कर्मोंका अनुभाग अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन है, यह सिद्ध होता है। उनसे चक्षुदर्शनावरणीय प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ९४ ॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका-उन दोनोंकी अपेक्षा इसकी शक्ति हीन है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- क्यों नहीं जाना जाता है अर्थात् अवश्य जाना जाता है, क्योंकि, आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायके समान चक्षुदर्शनावरणीयका सर्वत्र क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। शंका-चूंकि चक्षुदर्शनावरणका थोड़े ही जीवों में क्षयोपशम होता है इसके सिवा अनन्त जीवराशिमें वह पूर्ण रूपसे चक्षुरिन्द्रियका घातक है अतः उसकी शक्ति हीन नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है ? सामाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय चूंकि स्पर्शनादि पाँच इन्द्रिय और नोइन्द्रियसे सम्बन्ध रखनेवाले सब ज्ञानका घातक है, [ परन्तु चक्षुदर्शनावरणीय] केवल । चक्षुदर्शनोपयोग मात्रका घातक है, अतः अल्प कार्य करनेके कारण चक्षुदर्शनावरणीयकी शक्ति स्तोक है, यह जाना जाता है । श्रतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराये ये तीनों ही प्रकृतियाँ तुल्य होकर चक्षुदर्शनावरणीयसे अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ९५ ॥ १ प्रतिषु राइयाणं च सम्वत्थ इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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