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________________ २८२] -: छपखंडागमे वैयणाखंड [४,२, ८, ५. तत्तो' तेसिं भेदुवलंभादो । एत्थ 'बझगत्थाणं पुव्वं पञ्चयत्तं परूवेदव्यं । ण च पमादेण विणा तियरणसाहणहं गहिदवज्झट्ठो णाणावरणीयपचओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस पञ्चयत्तविरोहादो। (मेहुणपच्चए ॥ ५ ॥ त्थी-पुरिसविसयवावारो मण-वयण-कायसरूवो मेहुणं ) तेण मेहुणपचएण णाणावरणीयवेयणा जायदे । एत्थ वि अंतरंगमेहुणस्सेव बहिरंगमेहुणस्स आसवभावो वत्तव्यो। ण च मेहुणं अंतरंगरागे णिपददि, तत्तो कधंचि एदस्स मेदुवलंमादो। (परिग्गहपञ्चए ॥६॥ (परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहणहेतुरत्र परिणामः। एदेहि परिग्गहेहि णाणावरणीयवेयणा समुपज्जदे । एत्थ बहिरंगस्स परिग्गहस्स पुत्वं व पच्चयभावो वत्तव्यो) (रादिभोयणपच्चए॥ ७॥ भुज्यत इति भोजनमोदनः भुक्तिकारणपरिणामो वा भोजनं । रत्तीए भोयणं क्योंकि, उनसे इनका कथंचित् भेद पाया जाता है। यहाँ बाह्य पदार्थोंको पूर्वमें प्रत्यय बतलाना चाहिये । इसका कारण यह है कि प्रमादके बिना रत्नत्रयको सिद्ध करनेके लिये ग्रहण किया गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीयके बन्धका प्रत्यय नहीं हो सकता, क्योंकि, जो प्रत्ययसे उत्पन्न नहीं हुआ है उसे प्रत्यय स्वीकार करना विरुद्ध है। मैथुन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ५॥ स्त्री और पुरुषके मन, वचन व काय स्वरूप विषयव्यापरको मैथुन कहा जाता है। उस मैथुनप्रत्यय द्वारा ज्ञानावरणीयकी वेदना होती है। यहाँपर भी अन्तरंग मैथुनके ही समान बहिरंग मैथुनको भी कारण बतलाना चाहिये। मैथुन अन्तरंग रागमें गर्भित नहीं होता, क्योंकि, उससे इसमें कथंचित् भेद पाया जाता है। परिग्रह प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ६ ॥ 'परिगृह्यते इति परिग्रहः' अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है।' इस निरुक्तिके अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है, तथा 'परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः' जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्तिके अनुसार यहाँ बाह्य पदार्थके ग्रहणमें कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है। इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे ज्ञानावरणीयकी वेदना उत्पन्न होती है। यहाँ बहिरंग परिग्रहको पहिलेके समान कारण बतलाना चाहिये। रात्रिभोजन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ।। ७॥ 'भुज्यते इति भोजनम्' अर्थात् जो खाया जाता है वह भोजन है, इस निरुक्तिके अनुसार १ अ-ताप्रत्योः 'कथंचिदत्तो', अआप्रतौ 'कथंचिददत्तो' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'बज्झगंधाणं', ताप्रतौ 'बज्झगंधा (था) णं' इति पाठः।। ........... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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