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________________ ४८ ] ariडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ७३. ऊदा | वेउव्वयसरीरमप्पसत्यमिदि कथं णव्वदे ? ण, आहारसरीरस्सेव संजदेसु चैव asarसरीरस्स बंधाणुवलंभादो । मणसगदी अनंतगुणहीणा ॥ ७३ ॥ कुदो ? अव्वखवगविसोहीदो अनंतगुणहीण विसोहीएण' देवासंजदसम्मादिट्टिणा पबद्धतादो | ओरालियसरीरमणंतगुणहीणं ॥ ७४ ॥ दोणं पयडीणं उक्कस्सबंधस्स एकम्हि चेव सामीए संते कधमणुभागं पडि विसरिसत्तं एस दोस्रो, पडिविसेसेण विसरिसत्तुववत्तीदो को पयडिविसेसो ? जीवविवागि- पोग्गल विवागित्तं । मणसगदी जीवविवागी, ओरालियसरीरं पोग्गलविवागी । तेण मणुसमदीदो ओरालिय सरीरस्स अनंतगुणहीणत्तं सिद्धं । मिच्छत्तमणंतगुणहीणं ॥ ७५ ॥ सव्वदव्वपज्जायअसद्दहम्भि णिवद्धजीवविवागिमिच्छत्ताणुभागादो पोग्गलविवामि शंका- वैक्रियिक शरीर अप्रशस्त है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार आहारक शरीरका बन्ध संयत जीवोंके ही होता है उस प्रकार वैक्रियिक शरीरका बन्ध मात्र संयतोंके नहीं उपलब्ध होता । इसीसे उसकी अप्रशस्तता जानी जाती है । उससे मनुष्यगति अनन्तगुणी हीन है || ७३ ॥ क्योंकि, अपूर्वकरण क्षपककी विशुद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाला असंयत संम्यग्दृष्टि देव उसे बाँधता है । उससे औदारिक शरीर अनन्तगुणा हीन है ॥ ७४ ॥ शंका- दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट बन्धका स्वामी एक ही जीव है फिर इनके अनुभाग में विसदृशता कैसे सम्भव है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रकृतिविशेष होने के कारण उनमें विसदृशता सम्भव है । शंका- वह प्रकृतिविशेष क्या है ? समाधान -- जीवविपाकित्व और पुद्गलविपाकित्व ही यहाँ प्रकृतिविशेष है । मनुष्यगति प्रकृति जीवविपाकी है और औदारिक शरीर पुद्गलविपाकी है । इस कारण मनुष्यगतिकी अपेक्षा औदारिक शरीर अनन्तगुणा हीन है, यह सिद्ध होता है । उससे मिथ्यात्व प्रकृति अनन्तगुणी हीन है ॥ ७५ ॥ शंका -- सब द्रव्यों व उनकी पर्यायां अश्रद्धानसे सम्बन्ध रखनेवाली जीवविपाकी १ प्रतौ 'विसोहीए' इति पाठः । Jain Education International २ प्रतौ 'सरिसत्तं' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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