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________________ २६० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २८१. आवलियाए भागे हिदाए जं भागलद्धं 'तमुक्कस्सजवमज्झजीवपमाणं होदि, एत्तो अहियस्स आवलियाए असंखेजदिमागस्स अणुवलंमादो। उकस्ससंखेजं विरलेदूण एकेकस्स रूवस्स जहण्णपरित्तासंखेजयं दादण अण्णोण्णमासे कदे जवमझजीवा होति त्ति वुत्तं होदि । पुणो एदस्स आवलियाए असंखेजदिभागस्स जनिया अद्धछेदणयसलागा तत्तियमेत्ता जवमझस्स अद्ध छेदणया त्ति घेत्तव्वं । होता वि जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धछेदणएहि गुणिदुकस्ससंखेजमेत्ता । एवमुक्कस्सेण जयमझपरूवणं कदं । संपहि जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणयमेत्ताओ जवमझादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ होति त्ति ण वोत्त सकिञ्जदे, जवमझादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तं फिट्टिदूण संखेजगुणत्तप्पसंगादो। तं जहा-उकस्सट्ठाणजीवा जदि सुट्ट थोवा होति तो जहण्णपरित्तासंखेजमेत्ता चेव होंति, एदम्हादो ऊणावलियाए' असंखेजदिभागे घेप्पमाणे उक्कस्सट्ठाणजीवाणं संखेजत्तप्पसंगादो। ण च एवं, सव्वेसु हाणेसु असंखेजजीवन्भुवगमादो । तेण उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ रूवूणुक्कस्ससंखेजेण गुणिदजहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धछेदणयमेत्ताओ होति । एवं संते हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाहि उपरिमणाणागुणहाणिसलागासु ओवट्टि दासु संखेजाणि रूवाणि आगच्छंति ति हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलावह उत्कृष्ट यवमध्य जीवोंका प्रमाण होता है, क्योंकि, इससे अधिक श्रावलीका असंख्यातवाँ भाग पाया नहीं जाता। उत्कृष्ठ संख्यातका विरलन करके एक एक अंकके प्रति जघन्य परोतासंख्यातको देकर परस्पर गुणित करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उतने यवमध्य जीव हो यह उसका अभिप्राय है। पुनः इस आवलीके असंख्यातवें भागकी जितनी अर्धच्छेदशलाकायें हों उतने मात्र यवमध्यके अर्धच्छेद होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उतने होकर भी वे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे गुणित उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्टसे यवमध्यकी प्ररूपणा की गई है। __ अब जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर यवमध्यसे नीचेकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं, ऐसा कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर यवम यसे नीचे की नानागुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा जो ऊपरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं, उनका वह असंख्यातगुणत्व नष्ट होकर संख्यातगुणत्वका प्रसङ्ग आता है। यथा- उस्कृष्ट स्थानके जीव यदि बहुत ही स्तोक हों तो वे जघन्य परीतासंख्तातके बराबर ही होते हैं, क्योंकि, इससे कम आवलीके असंख्यातवें भागको ग्रहण करनेपर उत्कृष्ट स्थान सम्बन्धी जीवोंके संख्यात होनेका प्रसङ्ग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, सब स्थानोंमें असंख्यात जीव स्वीकार किये गये हैं। इस कारण ऊपरकी नानागुणहानिशलाकायें एक कम उत्कृष्ट संख्यातसे गुणित जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर होती हैं। ऐसा होनेपर चूंकि अधस्तन नानागुणहानिशला. काओंसे उपरिम नानागुणहानिशलाकाओं को अपवर्तित करनेपर संख्यात अंक आते हैं, अतएव १ श्र-आप्रत्योः एदम्हादो श्रो श्रावलियाए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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