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________________ ४, २, ७, २८१] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२५९ उवरिमगुणहाणीसु एगेगजीवपरिहीणद्धाणं' दुगुणं दुगुणं होदि । एवमद्धद्धेण जीवेसु गच्छमाणेसु उक्कस्सए हाणे जीवा संखेजा किण्ण होति त्ति भणिदे—ण, जहण्णट्ठाणप्पहुडि जावुक्कस्सट्टाणे त्ति जीवा सव्वट्ठाणेसु उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव होति त्ति सुत्तसिद्धत्तादो। जवमज्झादो हेद्विमगुणहाणीओ संखेजाओ, उवरिमाओ हेडिमगुणहाणिसलागाहिंतो असंखेजगुणाओ होदण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होति त्ति । एदस्स जुत्ती वुच्चदे । तं जहा–जाव जहण्णट्ठाणजीवपमाणं चेहदि ताव जवमझजीवाणमद्धछेदणए कदे तत्थुप्पण्णसलागाओ जवमझादो हेट्ठिमगुणहाणिसलागपमाणं होदि । पुणो जाव उक्कस्सहाणजीवपमाणं पावदि ताव जवमझजीवाणमद्धछेदणए कदे तत्थुप्पपणछेदणयमेतं जवमझादो उवरिमगुणहाणिसलागपमाणं जेण होदि तेण ताव जवमझजीवपमाणाणुगमं कस्सामो-जहण्णपरित्तासंखेज्जयं विरलेदूण एकेकस्स रूवस्स 'जहण्णपरित्तासंखेज्जयं दादण अण्णोण्णब्भासे कदे आवलिया उप्पज्जदि । ण च आवलियमेत्ता जवमझजीवा होति, सव्वट्ठाणेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव जीवा होंति ति सुत्तवयणेण सह विरोहादो। तेण जहण्णपरित्तासंखेज्जेण ऊपरकी गुणहानियों में एक एक जीवकी हानि युक्त अध्वान दूना दूना होता है। शंका-इस प्रकार अर्ध अर्ध भाग स्वरूपसे जीवोंके जाने पर उत्कृष्ट स्थानमें जीव संख्यात क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-ऐसी आशंका करने पर उत्तरमें कहते हैं कि वे वहाँ संख्यान नहीं होते हैं, क्योंकि, जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक सब स्थानों में जीव उत्कृष्टसे अवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, ऐसा सूत्रसे सिद्ध है। यवमध्यसे नीचेकी गुणहानियाँ संख्यात हैं। ऊपरकी गुणहानियाँ अधस्तन गुणहानिशलाकाओंसे असंख्यातगुणी होकर आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं। इसकी युक्ति कहते हैं । वह इस प्रकार है-जब तक जघन्य स्थानके जीवोंका प्रमाण रहता है तब तक यवमध्य जीवोंके अर्धच्छेद करनेपर वहाँ उत्पन्न हुई शलाकायें यवमध्यसे नीचेकी गुणहानिशलाकाओंके बराबर होती हैं। पश्चात् जब तक उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है तब तक यवमध्यजीवोंके अर्धच्छेद करनेपर उनमें उत्पन्न अर्धच्छेदोंके बराबर चूंकि यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानिशलाकाओंका प्रमाण होता है, अतएव पहिले यवमध्य जीवोंका प्रमाणानुगम करते हैं-जघन्य परीतासंख्यातका विरलन करके एक एक अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यातको देकर परस्पर गुणित करनेपर आवली उत्पन्न होती है। परन्तु आवली प्रमाण यवमध्य जीव हैं नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'सब स्थानोंमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही जीव होते हैं। इस सूत्रवचनके साथ विरोध होता है। इसलिये जघन्य परीतासंख्यातका प्रावली में भाग देने पर जो भाग लब्ध हो १ अप्रतौ 'हीणहाणं इति पाठः। २ अप्रतौ 'चिदि' इति पाठः। ३ भाप्रतौ ' छेदणयजवमझादों .. इति पाठः । ४ ताप्रती 'विरलेदूण एक्ककस्स रूवस्स [ जहण्णपरित्तासंखेजयं विरलेदूण ] जहण्ण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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