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________________ २५८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २८१. गमेत्तजीवा परिहीणा त्ति। ताधे तदित्थट्ठाणजीवाणं पमाणं जवमझस्स अट्ठमभागो। ते च आवलियाए असंखेजदिभागो । एवं णेयव्वं जाव जहण्णाणुभागबंधट्ठाणजीवेहिंतो दुगुणमेत्ता जीवा जादा त्ति । णवरि जवमझगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाणादो' विदियगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाणं दुगुणं', [होदि । ] तदियगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाणं चदुग्गुणं होदि। चउत्थगुणहाणीए एगरूवपरिहीणद्धाण मट्ठगुणं होदि । पंचमगुणहाणीए एगजीवपरिहीणद्धाणं सोलसगुणं होदि । एवं दुगुण-दुगुणकमेण सव्वत्थ णेयव्यं । पुणो अप्पिदगुणहाणीए वि समयाविरोहेण रूवाणं परिहाणीए कदाए जहण्णहा. जीवेहि सरिसा होति । पुणो पढमदुगुणवड्डीए एगरूवपरिहीणद्धाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण एगजीवपरिहीणद्धाणं दुगुणं होदि । पुणो एत्तियमेत्तमवहिदं गंतूण एगजीवपरिहाणि कादूण ताव णेयव्वं जाव जहण्णहाणजीवेहितो अद्धमेत्ता जादा त्ति । पुणो पढमदुगुणवड्डीए एगजीवपरिहीणद्धाणादो' चदुग्गुणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणिं कादूण ताव णेयव्वं जाव जहण्णट्ठाणजीवाणं चदुब्भागो हिदो त्ति । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव उक्कस्सट्ठाणजीवा त्ति । णवरि हेटिभ-हेहिमगुणहाणीसु एगेगरूवपरिहीणट्ठाणादो अणंतर प्रमाण जीवोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। तब वहांके स्थान सम्बन्धी जीवोंका प्रमाण यवमध्यके आठवें भाग होता है। वे भी आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। इस प्रकार जघन्य अनुभागबन्धस्थान सम्बन्धी जीवोंकी अपेक्षा दुनेमात्र जीवोंके होने तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि यवमध्यगुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वानकी अपेक्षा द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान दुगुना है । तृतीय गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान चौगुना है। चतुर्थ गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान अठगुना है। पंचम गुणहानि सम्बन्धी एक अंककी हानि युक्त अध्वान सोलहगुना है। इस प्रकार सर्वत्र दूने दूने क्रमसे ले जाना चाहिये। पश्चात् विवक्षित गुणहानिर्म भी समयानुसार अंकोंकी हानिके करनेपर जघन्य स्थान के जीवोंके सदृश होते हैं। फिर प्रथम दुगुणवृद्धि में एक अंककी हानियुक्त अध्वानसे दूना अध्वान जाकर एक जीवकी हानि युक्त अध्वान दूना होता है। फिर इतना मात्र अध्वान अवस्थित जाकर एकजीवकी हानि करके उनके जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवों की अपेक्षा अर्ध भाग प्रमाण होने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्चात प्रथम दुगुणवृद्धिमें एक जीवकी हानियुक्त अध्वानसे चौगुणा अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि करके तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंका चतुर्थ भाग रहता है। इस प्रकार जानकर उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। विशेष इतना है कि अधस्तन अधस्तन गुणहानियों में एक एक अंककी हानि युक्त अध्वानसे अनन्तर १ अ-अाप्रत्योः 'पडिहीणद्धाणादो' इति पाठः। २ मप्रतौ 'चदुगुणं' इति पाठः। ३ अ-ताप्रत्योः 'हीणहाणं-' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'हीणहाणादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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