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________________ १३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २०४. तभुवगमादो । ण च अब्भुवगमो णिण्णिबंधणो, (जहण्णुकस्सकालपरूवयकसायपाहुडसुत्तावष्ठभवलेण तदुप्पत्तीदो) किं च ण उकडणाए अणुभागवड्डी होदि, ओकड्डणाए हाणिप्पसंगादो । ण च एवं, अणुभागहाणस्स एगसमयावहाणप्पसंगादो । उक्कडिदअणुभागो अचलावलियमेत्तकालेण विणा ण ओकडिजदि, तदो एगसमओ ण लब्भदि त्ति उत्ते ण, अधाहिदीए गलंतपरमाणू विट्ठाणसंतकम्मोकडणं च पेक्खिय तवलंमादो । ण च ओकड्डणाए अणुभागस्स खंडयघादेण विणा अस्थि घादो, तहाणुवलंभादो । ण च उक्कड्डिदअणुभागो खंडयघादेण घादिजदि, सयलसरिसधणियाणं घादाभावेण अणुभागखंडयस्स घादाभावादो। तं कुदो णव्वदे ! अणुभागहाणीए जहण्णुकस्सेण एगो चेव समओ त्ति कालणिद्देससुत्तादो णव्वदे। अध ओकड्डिदअणुभागो जहण्णहाणादो उवरि अपुव्वफद्दयाणं सरूवेण पददि, थोवत्तादो। ण च सरिसधणियं होदण चेदि, पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो। किंतु जहण्णहाणफद्दयाणं विचालेसु अणतेसु अपुव्वफद्दयागारो होदूण चेट्टदि त्ति । ण 'उक्क ड्डिजमाणपरमाणूणमणुभागो बज्झमाणपरमाणूणमणुभागेणूणसमाणो चेव होदि, णाहियो ण चूणो; 'बंधे उक्कडिजदि' त्ति वयणादो वग्गणवुड्डीए अभावादो च । ऐसा है नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागस्थानका काल जघन्य उत्कृष्ट रूपसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्वीकार किया गया है। और वैसा स्वीकार करना अकारण नहीं है, क्योंकि, जघन्य व उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करनेवाले कषायप्राभृतसूत्रके आश्रयबलसे वह सुसंगत ही है। इसके अतिरिक्त, उत्कर्षण द्वारा अनुभागकी वृद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि, वैसा माननेपर अपकर्षण द्वारा उसकी हानिका भी प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर अनुभागस्थानके एक समय अवस्थानका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि उत्कर्षण प्राप्त अनुभाग अचलावली मात्र कालके विना चूँकि अपकर्षणको प्राप्त होता नहीं है, अतएव एक समय अवस्थान नहीं पाया जा सकता है; सो ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि वैसा नहीं है, क्योंकि, अधःस्थितिके गलनेवाले परमाणुओंकी तथा हिस्थान सत्कर्मके उत्कर्षकी अपेक्षा करके उक्त एक समय पाया जाता है। दूसरे काण्डकघातके विना अपकर्षण द्वारा अनुभागका घात सम्भव भी नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है । और सत्कर्षणप्राप्त अनुभाग काण्डकघातके द्वारा घाता भी नहीं जा सकता है, क्योंकि, समस्त समान धनवाले परमाणुओंका घात न होनेसे अनुभागकाण्डकके घातका अभाव है । वह किस श्माणसे जाना जाता है? वह "अनुभागहानिका जघन्य व उत्कृष्टरूपसेकाल एक ही समय है" इस कालनिदेशसूत्रसे जाना जाता है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अपकर्षणप्राप्त अनुभाग जघन्य स्थानके ऊपर अपूर्व स्पर्द्धकोंके स्वरूपसे गिरता है, क्योंकि, वह स्तोक है । वह समान धन युक्त होकर स्थित नहीं होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आता है। किन्तु वह जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अनन्त अन्तरालोंमें अपूर्व स्पर्द्धकोंके आकार होकर स्थित होता है। उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले परमाणुओंका अनुभाग बांधे जानेवाले परमाणुओंके अनुभागसे हीन न समान ही होता है, न अधिक और न हीन; क्योंकि, “बन्धके समय उत्कर्षण करता है। ऐसा वचन है, तथा वर्गणा १ ताप्रतौ 'चेहदि ति । ण प्रोकड्डिजमाण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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