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________________ ४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१३६ तदो फद्दयंतरेसु उक्कड्डिदृण अपुवाणि करेदि; ति ण घडदे । एवं अपुव्वफद्दयाणि करतो वि ण सव्वफद्दयंतरेसु करेदि अहिच्छावणाए 'विणा णिक्खेवस्साभावादो । णाहिच्छावणं मोत्तण उवरिमफद्दयंतरेसु करेदि, एदस्स हाणस्स बंधसंताणभागहाणेहिंतो पुधत्तप्पसंगादो। ण ताव एदं बंधहाणं, बंधहाणत्तेण सिद्धजहण्णहाणचरिमफद्दयादो उवरि अणंतफहयरचणाभावेण अणमागवुड्डीए अमावादो। ण च मज्झे अपुव्वेसु फद्दयेसु ढोइदेसु अणुभागाठाणबड्डी होदि, केवलणाणाणुक्कस्साणुभागादो फद्दयसंखाए अहियवीरियंतराइयउक्कस्साणुभागहाणस्स महल्लत्तप्पसंगादो। ण चेदं संतढाणं पि, तस्स अटुंकुव्वंकाणमंतरे उप्पजमाणस्स अहंकादो अणंतगुणहीणस्स उव्वंकादो अर्णतगुणस्स फद्दयंतरेसु उत्पत्ति विरोहादो। ण च संतढाणाणि बंधेण ओकडकड्डणाए वा उप्पअंति, तेसिमणुभागफद्दयघादेण उप्पत्तिदसणादो। ण च बंधेण विणा उक्कडणादो चेव अपुष्वाणं फद्दयाणं उप्पत्ती, तहाणुवलंभादो। उवलंमे वा खंडयघादेण विणा ओकहुणाए चेव फद्दयाणं सुण्ण होज। ण च एवं, एवं विहजिणवयणाणुवलंभादो । किं च, एवं जहण्णहाणस्सुवरि पड्डिदकंदयमेत्तमणंतभागवड्डीयो घादिय जहण्णहाणं ण उप्पादे, वृद्धिका अभाव भी है। इस कारण स्पर्द्धकोंके अन्तरालों में उत्कर्षण करके अपूर्व स्पर्द्धकोंको करता है, यह कथन घटित नहीं होता है । इसी प्रकार अपूर्व स्पर्द्धकोंको करता हुआ भी वह सब स्पर्द्धकोंके अन्तरालोंमें नहीं करता है, क्योंकि, अतिस्थापनाके विना निक्षेपका अभाव है। यदि कहा जाय कि अतिस्थापनाको छोड़कर उपरिम स्पर्द्धकोंके अन्तरालोंमें अपूर्व स्पर्धकांको करता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे इस स्थानके बन्धस्थान और सत्त्वस्थानसे पृथक। प्रसंग आता है। वह बन्धस्थान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बन्धस्थान स्वरूपसे सिद्ध जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्धकसे ऊपर अनन्त स्पद्धकोंकी रचनाका अभाव होनेसे अनुभागवृद्धिका अभाव है । यदि कहा जाय कि मध्यमें अपूर्व स्पर्द्धकोंकी रचना करनेपर अनुभागस्थानकी वृद्धि हो सकती है, तो यह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि, ऐसा होनेपर केवल ज्ञान अनुभागकी अपेक्षा स्पर्द्धक संख्यामें अधिक वीर्यान्तरायके उत्कृष्ट अनुभागस्थानके महान होनेका प्रसंग आता है। वह सत्त्वस्थान भी नहीं हो सकता है, क्योंकि, अष्टांकसे अनन्तगुणे हीन व उर्वकसे अनन्तगुणे होकर अष्टांक व ऊर्वकके अन्तरालमें उत्पन्न होनेवाले उसकी स्पर्द्धकान्तरोंमें उत्पत्तिका विरोध है । दूसरे, सत्त्वस्थान बन्ध, अपकर्षण या उपकर्षणसे उत्पन्न भी नहीं होते हैं, क्योंकि, उनकी उत्पत्ति अनुभागस्पर्द्धकोंके घातसे देखी जाती है। और बन्धके विना केवल उत्कर्षणसे ही अपूर्व स्पर्द्धकोंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। यदि वैसा पाया जाना स्वीकार किया जाय तो काण्डकघातके बिना अपकर्षणसे ही स्पर्द्धकोंकी शून्यता हो जानी चाहिये । परन्तु वैसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारका जिनवचन नहीं पाया जाता है। और भी, इस प्रकार जघन्य स्थानके ऊपर वृद्धिंगत काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंका घात करके जघन्य स्थानको उत्पन्न कराना शक्य नहीं है, क्योंकि, सन्धिके विना मध्यमें अनुभागकाण्डकघात १ ताप्रतौ "वि ण, इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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