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________________ [२७ ४, २, ७, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं सुगमं । अण्णदरेण मणस्सेण पंचिंदियतिरिक्खजोणिएण वा परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण अपजुत्ततिरिक्खाउअं बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्म अस्थि तस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा ॥ ३२॥ अपजत्ततिरिक्खाउअं देव-णेरइया ण बंधंति त्ति जाणावण मणस्सेण 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिएण वा' ति वुत्तं । एइंदिय-विगलिंदिया वि अपजत्ततिरिक्खाउअं बंधंता अस्थि, तत्थ जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, आउअजहण्णाणुभागबंधकारणपरिणामाणं तत्थामावादो । तत्थ णत्थि त्ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । अणुसमयं वड्डमाणा हायमाणा च जे संकिलेस-विसोहियपरिणामा ते अपरियत्तमाणा णाम । जत्थ पुण हाइदूण परिणामंतरं गंतूण एग-दोआदिसमएहि आगमणं संभवदि ते परिणामा परियत्तमाणा णाम । तेहि आउअंबज्झदि। तत्थ उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा त्ति तिविहा परिणामा । तत्थ अइजहण्णा आउअबंधस्स आप्पाओग्गं । अइमहल्ला पि अप्पाओग्गं चेव, साभावियादो। तत्थ दोपणं विच्चाले ट्ठिया परियत्तमाणमज्झिमपरिणामा यह सूत्र सुगम है। जो अन्यतर मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय तिथंच योनिवाला जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे अपर्याप्त तिर्यंच सम्बन्धी प्रायुका बन्ध करता है उसके और जिसके इसका सत्त्व होता है उसके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ ३२ ॥ अपर्याप्त तिर्यंच सम्बन्धी आयुको देव और नारकी जीव नहीं बाँधते यह जतलानेके लिये 'मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय तियच योनिवाले' ऐसा कहा है। शंका-एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय जीव भी अपर्याप्त तिर्यचकी आयुको बाँधते हैं, इसलिए उनमें जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें आयुके जघन्य अनुभागके बन्धमें कारणभूत परिणामोंका अभाव है। शंका-उनमें वे परिणाम नहीं है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। प्रति समय बढ़नेवाले या हीन होनेवाले जो संक्लेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं वे अपरिवर्तमान परिणाम कहे जाते हैं। किन्तु जिन परिणामों में स्थित होकर तथा परिणामान्तरको प्राप्त हो पुनः एक दो आदि समयों द्वारा उन्हीं परिणामोंमें आगमन सम्भव होता है उन्हें परिवर्तमान परिणाम कहते हैं। उनसे आयुका बन्ध होता है। उनमें उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्यके भेदसे वे परिणाम तीन प्रकारके हैं। इनमें अति जघन्य परिणाम आयुबन्धके अयोग्य हैं । अत्यन्त महान् परिणाम भी आयुबन्धके अयोग्य ही हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। किन्तु उन दोनोंके मध्यमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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