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________________ ४, २, ७, ४१.]. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं ___ अप्पाबहुए त्ति तत्य इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि-जहण्णपदे उक्कस्सपदे जहण्णुकस्सपदे ॥ ४० ॥ एत्थ तिणि चेव अणियोगद्दाराणि होंति, एग-दोसंजोगे मोत्तूण तिसंजोगादीणमभावादो। सव्वत्थोवा मोहणीयवेयणा भावदो जहणिया ॥४१॥ कुदो ? अपुव्व-अणियट्टिखवगगुणहाणेसु संखेजसहस्सवारं खंडयघादेण अणंतगुणहीणं कादण पुणो फद्दयाणुभागादो अणंतगणहीणबादरकिट्टिसरूवेण कादूण पुणो ' तं मोहाणुभागं बादरकिट्टिगदं जहण्णवादरकिट्टीदो अणंतगुणहीणसुहुमकिट्टिसरूवेण कादूण पुणो सुहुमसांपराइयगुणहाणम्मि अंतोमुहुत्तकालमणंतगुणहीणकमेणमणुसमयमोवट्टिय सुहुमसांपराइयचरिमसमए उदयगदहिदीए अणुभागस्स गहणादो। अणुसमओवट्टणा त्ति केरिसी ? चरिमसमयअणियट्टिअणुभागादो सुहुमसांपरा इयपढमसमए अणुभागो अणंतगुणहीणो होदि । विदियसमए सो चेव अणुभागखंडयघादेण विणा अणंतगुणहीणो होदि। पुणो सो घादिदसेसो तदियसमए अणंतगुणहीणो होदि । एवं जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमओ त्ति णेदव्वं । एसो अणुसमओवट्टणघादो . अल्पबहुत्वका प्रकरण है। इसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-जघन्य पदविषयक अल्पबहुत्व, उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व और जघन्य उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व ॥४०॥ यहाँ तीन ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, एक और दो संयोगी भङ्गोंको छोड़कर यहाँ त्रिसंयोगी आदि भङ्गोंका अभाव है। भावकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य वेदना सबसे स्तोक है ॥ ४१ ॥ क्योंकि अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण क्षपक गुणस्थानों में संख्यात हजार बार काण्डकघातके द्वारा अनुभागको अनन्तगुणा हीन करके, पश्चात् स्पर्धकगत अनुभागकी अपेक्षा उसे अनन्तगुणाहीन बादर कृष्टि रूपसे करके, तत्पश्चात् बादर कृष्टिगत उक्त मोहनीयके अनुभागको जघन्य बादर कृष्टिकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन सूक्ष्म कृष्टिरूपसे करके, पुनः सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रतिसमय अनन्तगुणहीन क्रमसे अपवर्तित करके सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें उदयप्राप्त स्थितिके अनुभागका यहाँ ग्रहण किया गया है। .. शंका--प्रति समय अपवर्तना किस प्रकारकी होती है ? समाधान-अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभागकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्परायिकका प्रथम समय सम्बन्धी अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है। उसके द्वितीय समयमें वही अनुभाग काण्डकघातके बिना अनन्तगुणा हीन होता है। पुनः घात करनेके बाद शेष रहा वही अनुभाग तीसरे समयमें अनन्तगुणाहीन होता है इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयतक जानना चाहिये । इसीका नाम अनुसमयापवर्तनाघात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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