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________________ ३०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, ३८. .... अण्णदरेण बादरतेउ-वाउजीवेण सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदेण सागारजागारसव्वविसुद्धण हदसमुप्पत्तियकम्मेण उच्चागोदमुब्वेल्लिदूण णीचागोदं बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि तस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा ॥३८॥ 'बादरतेउ-वाउजीव' णिदेसो किम कीरदे १ तत्थ बंधविवज्जियमुच्चागोदं णीचागोदादो सुहत्तेणेण महल्लाणुभागमुव्वेल्लिय गालणडं । 'सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदेण' इत्ति णिद्देसोअपज्जत्तकाले सव्वुकस्सविसोही णत्थि त्ति पज्जत्तकालसव्वुकस्सविसोहीणं गहणणिमित्तो । सोगार-जागारद्धासु चेव सव्वुक्कस्सविसोहीयो सव्वुक्कस्ससंकिलेसा च होंति त्ति जाणावणटुं 'सागार-जागारणिद्देसो कदो। सव्वुक्कहविसोहीए एत्थ किं पओजणं ? बहुदरणीचागोदाणभागघादो पओजणं । एवंविहस्स गोदवेयणा भावदो जहपणा । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ३६ ॥ सुगम । एवं सामित्तं सगंतोक्खित्तट्टाणसंखाजीवसमुदाहाराणिओगद्दारं समत्तं । सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए, साकार उपयोगसे संयुक्त, जागृत, सर्वविशुद्ध एवं हतसमुत्पत्तिककर्मवाले जिस अन्यतर बादर तेजकायिक या वायुकायिक जीवके उच्च गोत्रकी उद्वेलना होकर नीच गोत्रका बन्ध होता है व जिसके उसका सत्त्व होता है उसके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है ।। ३८ ॥ शंका-बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंका निर्देश किसलिये किया है ? समाधान-उनमें बन्धको प्राप्त न होनेवाले एवं नीच गोत्रकी अपेक्षा शुभ रूप होनेसे विशाल अनुभाग युक्त उच्च गोत्रकी उद्वेलना करके गलानेके लिये उक्त जीवोंका निर्देश किया है। चूँकि अपर्याप्तकालमें सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि नहीं होती है अतः पर्याप्तकालमें होनेवाली विशु. द्धियोंका ग्रहण करनेके लिये 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए' इस पदका निर्देश किया है। साकार उपयोग व जागृत समयमें ही सर्वोत्कृष्ट विशुद्धियाँ व सर्वोत्कृष्ट संक्लेश होते हैं, यह जतलानेके लिये 'साकार उपयोग युक्त व जागृत' इस पदका निर्देश किया है । शंका-यहाँ सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिका क्या प्रयोजन है ? । समाधान-नीच गोत्रके बहुतर अनुभागका घात करना ही उसका प्रयोजन है । उक्त लक्षणोंसे संयुक्त जीवके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है। इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ।। ३६ ॥ यह सूत्र सुगम है ? इस प्रकार अपने भीतर स्थान, संख्या व जीवसमुदाहार अनुयोगद्वारोंको रखनेवाला स्वामित्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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