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________________ ४, २, ७, ३७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं [ २९ सव्वविसुद्धेसु जहण्णसामित्तं, अप्पसत्थपयडिअणुभागादो अणंतगुणपसत्थअणंतगुणवड्डिप्पसंगादो। ण सव्वसंकिलिहेसु वि, अइतिव्वसंकिलेसेण असुहाणं पयडीणमणुभागवड्डिप्पसंगादो । ण परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेसु वि जहपणसामित्तं संभवदि, सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तपरियत्तमाणमज्झिमपरिणमे हितो अणंतगुणेहि जहण्णभावाणववत्तीदो। 'हदसमुप्पत्तियकम्मेण' इत्ति वुत्ते पुव्विल्लमणुभागसंतकम्मं सव्वं घादिय अणंतगुणहीणं कादण 'हिदेण' इत्ति वुत्तं होदि । तत्थ जहण्णकस्सपरिणामणिराकरणहं 'परियत्तमाणमझिमपरिणामण' इत्ति वुत्तं। जेण तं बद्धं जस्स तं संतकम्ममत्थि तस्स णामवेदणा भावदो जहण्णा । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ३६॥ सुगमं । सामित्तेण जहण्णपदे गोदवेदणा भावदो जहणिया कस्स ? ॥ ३७॥ सुगमं । हैं । यथा-उक्त जीवसमासांमेंसे सर्वविशुद्ध जीवोंमें तो जघन्य स्वामित्व बन नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागसे अनन्तगुणे प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागमें अनन्तगुणी वृद्धिका प्रसंग आता है। सर्वसंक्लिष्ट जीवोंमें भी वह नहीं बन सकता, क्योंकि, अति तीव्र संक्लेशके द्वारा अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें वृद्धिका प्रसंग आता है। परिवर्तमान मध्यम परिणाम युक्त जीवामें भी जघन्य स्वामित्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद अपयोप्तक जीवके परिवर्तमान मध्यम परिणामोंकी अपेक्षा उन जीवोंके परिणाम अनन्तगुणे होते हैं, इसलिये वे जघन्य नहीं हो सकते। 'हतसमुत्पत्तिककर्मवाले' ऐसा कहनेपर पूर्वके समस्त अनुभागसत्त्वका घात करके और उसे भनन्तगुणा हीन करके स्थित हुए जीवके द्वारा, यह अभिप्राय समझना चाहिये। सूत्र में जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंका निराकरण करनेके लिये 'परिवर्तमान मध्यम परिणामोंके द्वारा' ऐसा निर्देश किया है । जिसने उक्त अनुभागको बाँधा है व जिसके उसका सत्त्व है उसके नामकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है। इससे भिन्न उसकी अजघन्य वेदना होती है ॥ ३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्वामित्वसे जघन्य पदमें गोत्रको वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ ३७॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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